यह लेख सिम्बायोसिस लॉ स्कूल, नोएडा की छात्रा Bhavyika Jain द्वारा लिखा गया है। यह लेख संपत्ति हस्तांतरण (ट्रांसफर) अधिनियम, 1882 के तहत उत्पन्न होने वाले विवादों की मध्यस्थता (आर्बिट्रेशन) और मौजूदा नियमों में किए गए हालिया संशोधनों के बारे में बात करता है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja द्वारा किया गया है।
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परिचय
हस्तांतरण का अर्थ है एक चीज़ का दूसरी चीज़ में रूपांतरण और संपत्ति को किसी व्यक्ति या लोगों के समूह के स्वामित्व वाली किसी भौतिक इकाई के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। इस अधिनियम का दायरा सीमित है क्योंकि यह केवल पक्षों के कार्यों पर लागू होता है, कानून के संचालन पर नहीं। इसके अलावा, इसमें चल और अचल संपत्ति दोनों शामिल हैं लेकिन अधिनियम का बड़ा हिस्सा अचल संपत्ति को शामिल करता है।
‘संपत्ति का हस्तांतरण’ शब्द को संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम, 1882 की धारा 5 के तहत परिभाषित किया गया है। इससे पहले, अचल संपत्ति का हस्तांतरण अंग्रेजी कानून और समानता के सिद्धांतों द्वारा शासित होता था। संपत्ति का हस्तांतरण एक जीवित व्यक्ति द्वारा वर्तमान या भविष्य में किया जाता है जो संपत्ति को एक व्यक्ति या अधिक लोगों या स्वयं को या स्वयं को और एक या अधिक जीवित व्यक्तियों को हस्तांतरित करता है। एक कंपनी, एक संघ (एसोसिएशन), या व्यक्तियों का निकाय, चाहे वे निगमित हों या नहीं, जीवित लोगों का गठन करते हैं।
संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम के तहत विवाद
पट्टा (लीज) समझौते में स्पष्ट अनुबंधों के उल्लंघन के कारण ज़ब्ती के आधार के साथ पट्टों के निर्धारण का तरीका, संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम की धारा 111, 114, और 114A में निर्धारित किया गया है। किराए का भुगतान न करने के कारण पट्टा विलेख (डीड) की जब्ती भी उपरोक्त धाराओं द्वारा नियंत्रित होती है। संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम की धारा 114 के अनुसार, यदि जब्ती नहीं हुई है तो न्यायालय पट्टेदार (लेसी) को संपत्ति रखने की अनुमति दे सकता है और यदि पट्टेदार पट्टाकर्ता (लेसर) को बकाया किराए का भुगतान करता है या भुगतान करने के लिए निविदा करता है। मामले के तथ्यों की जांच और विचार-विमर्श करने पर पट्टाकर्ता को न्यायालय द्वारा निष्कासन (इजेक्टमेंट) का वाद चलाने से भी रोका जा सकता है।
पट्टे के निर्धारण के संबंध में विवाद की स्थिति में, मकान मालिक को उस अदालत के समक्ष वाद दायर करना होगा जिसके पास इस मामले पर अधिकार क्षेत्र (ज्यूरिस्डिक्शन) है। हालाँकि, पक्षों को पट्टा विलेख की स्पष्ट शर्तों या समझौते की शर्तों के आधार पर मध्यस्थता या सुलह (कॉन्सिलिएशन) तंत्र सहित विवाद समाधान के वैकल्पिक तरीकों को अपनाने की अनुमति है। मकान मालिक मध्यस्थता खंड को लागू करने और मध्यस्थ के तहत उपाय मांगने का हकदार है।
विभिन्न मामलो में निर्धारित नियम
हिमांगी एंटरप्राइजेज बनाम कमालजीत सिंह अहलूवालिया (2017) में उठा विवाद एक पट्टा विवाद था जो संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम, 1882 के तहत मध्यस्थता योग्य नहीं था। मामले को समीक्षा (रिव्यू) के लिए बड़ी पीठ के पास ले जाया गया। न्यायालय द्वारा दिया गया कारण यह था कि संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम, 1882 के तहत जो विवाद उठाए गए हैं, उनमें ‘पूरी दुनिया के खिलाफ अधिकार (राइट इन रेम)’ शामिल है और बहस का प्रश्न गैर-मध्यस्थता का है। यह उस समय मध्यस्थता पर दिए गए एक अप्रगतिशील दृष्टिकोण के रूप में परिलक्षित (रिफ्लेक्ट) हुआ है जब भारत की सार्वजनिक नीति ने वाणिज्यिक (कमर्शियल) और नागरिक विवादों के लिए वैकल्पिक विवाद समाधान (एडीआर) तंत्र पर निर्भरता बढ़ाने के लिए कहा है।
नटराज स्टूडियो (प्राइवेट) लिमिटेड बनाम नवरंग स्टूडियो (1981) और बूज़ एलन एंड हैमिल्टन कॉर्पोर्टेशन बनाम एसबीआई होम फाइनेंस लिमिटेड (2011) के मामले में दिए गए फैसले पर भरोसा करते हुए भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने अपील खारिज कर दी थी और माना कि मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 8 के तहत विवाद को मध्यस्थता के तहत संदर्भित करने के आवेदक के आवेदन को खारिज करने का निर्णय लेने में अदालत सही थी।
नटराज स्टूडियो के संबंध में, जिसके तथ्य तत्काल मामले के समान हैं, जहां मध्यस्थता अधिनियम, 1940 के तहत दायर किरायेदार के आवेदन को सर्वोच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया था। न्यायमूर्ति ओ चिन्नप्पा रेड्डी के फैसले में कहा गया था कि “बॉम्बे किराए, होटल और लॉजिंग हाउस रेट नियंत्रण अधिनियम, 1947 की धारा 28 और सार्वजनिक नीति के व्यापक विचारों के कारण” तत्काल विवादों को सुनने का अधिकार क्षेत्र न्यायालय के हाथ में है न कि मध्यस्थ (आर्बिट्रेटर) के हाथ में।
बूज़ एलन के संदर्भ में, भारत में गैर-मध्यस्थता योग्य विवादों की प्रकृति को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सूचीबद्ध किया गया था। न्यायालय द्वारा इस मामले में देखा गया कि “बेदखली या किरायेदारी के मामले विशेष कानूनों द्वारा शासित होते हैं जहां किरायेदार को बेदखली के खिलाफ वैधानिक सुरक्षा प्राप्त होती है और केवल निर्दिष्ट अदालतों को बेदखली देने या विवादों का फैसला करने का अधिकार क्षेत्र प्रदान किया जाता है”।
हिमांगी एंटरप्राइजेज में सर्वोच्च न्यायालय ने ऊपर दिए गए दो फैसलों पर भरोसा किया। इसने बिना किसी हिचकिचाहट के अपील को खारिज कर दिया और यह माना गया कि पक्षों के पास मध्यस्थता का अधिकार होने के बावजूद, प्रतिवादी द्वारा दायर किया गया सिविल वाद अभी भी कायम है। अपीलकर्ता ने तर्क दिया कि दोनों निर्णयों पर विचार नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि वे उन मामलों की बात करते हैं जो कुछ विशेष क़ानून द्वारा शासित होते हैं। इसे भी न्यायालय ने यह कहते हुए खारिज कर दिया कि यदि दिल्ली किराया नियंत्रण अधिनियम, 1955 लागू नहीं होता है तो मामला संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम, 1882 द्वारा शासित होगा और सिविल वाद की सुनवाई न्यायालय द्वारा की जाएगी न कि मध्यस्थ द्वारा।
हाल ही के मामले
विद्या ड्रोलिया और अन्य बनाम दुर्गा ट्रेडिंग कॉर्पोरेशन (2019) में, मकान मालिक और किरायेदार के बीच एक किरायेदारी समझौता था जहां किरायेदारी की अधिकतम अवधि 10 वर्ष थी। किरायेदारी समझौते में एक मध्यस्थता खंड का उल्लेख किया गया था। अधिकतम अवधि के बाद, किरायेदार को परिसर खाली करने के लिए कहा गया, जो वह करने में विफल रहा, जिसके बाद मकान मालिक ने किरायेदार को मध्यस्थता का नोटिस जारी किया। मध्यस्थ की नियुक्ति के लिए मकान मालिक ने मध्यस्थता अधिनियम की धारा 11 के तहत आवेदन किया। विवाद की गैर-मध्यस्थता से संबंधित किरायेदार की आपत्ति को कलकत्ता उच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया और मामले को मध्यस्थता के लिए भेज दिया गया।
हिमांगी एंटरप्राइजेज में अपने फैसले से खुद को अलग पाते हुए, इस मामले को एक बड़ी पीठ में स्थानांतरित कर दिया गया। बड़ी पीठ ने इस मामले को उठाया और न्यायालय ने माना कि किरायेदारी के मामले मध्यस्थता योग्य हैं, सिवाय उन मामलों को छोड़कर जो कुछ विशेष किराया-नियंत्रण कानूनों के अंतर्गत आते हैं।
सुरेश शाह बनाम हिपैड टेक्नोलॉजी इंडिया प्राइवेट लिमिटेड, (2020), सबसे नया मामला है। इस मामले में पक्षों ने एक उप-पट्टा समझौता किया जिसमें मध्यस्थता खंड शामिल था। उप-पट्टा समझौते के तहत पक्षों के बीच कुछ विवाद उत्पन्न हुआ जिसके लिए अदालत में मध्यस्थता अधिनियम की धारा 11 के तहत एक आवेदन दायर किया गया था। न्यायालय ने मध्यस्थ की नियुक्ति पर विचार करने से पहले पट्टे या किरायेदारी समझौतों से संबंधित विवादों की मध्यस्थता पर विस्तार से चर्चा किया। न्यायालय ने माना कि किरायेदारी कुछ विशेष क़ानूनों द्वारा शासित होती है, जहाँ किरायेदार वैधानिक शक्तियों का आनंद ले रहा है और जहाँ एक विशिष्ट न्यायालय के तहत अधिकार क्षेत्र प्रदान किया गया है, वहाँ विवाद गैर-मध्यस्थतापूर्ण होंगे। यह माना गया कि संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम के तहत मकान मालिक-किरायेदारी विवाद मध्यस्थता योग्य हैं।
किसी मुद्दे की मध्यस्थता के लिए परीक्षण
विद्या ड्रोलिया मामले (2020) में न्यायालय ने माना कि विषय वस्तु विवाद की गैर-मध्यस्थता निर्धारित करने में चार नियम हैं:
- यह पूरी दुनिया के खिलाफ कार्रवाई से संबंधित है, जो कि पूरी दुनिया के खिलाफ उपलब्ध अधिकार से उत्पन्न होने वाले व्यक्ति के अधिकारों से संबंधित नहीं है;
- तीसरे पक्ष के अधिकारों को प्रभावित करता है, सर्वव्यापी (एर्गा ऑमनस) प्रभाव डालता है, केंद्रीकृत न्यायनिर्णयन (एडज्यूडिकेशन) की आवश्यकता होती है, और पारस्परिक न्यायनिर्णयन उचित और लागू करने योग्य नहीं होगा;
- अनिवार्य क़ानून के कारण स्पष्ट रूप से या आवश्यक निहितार्थ के माध्यम से मध्यस्थता नहीं की जा सकती;
- राज्य के अविभाज्य संप्रभु (सोवरेन) और सार्वजनिक हित कार्यों से संबंधित है और इसलिए पारस्परिक न्यायनिर्णयन लागू नहीं किया जाएगा।
ये नियम कठोर नहीं हैं, तथापि, ये विवादों की मध्यस्थता सुनिश्चित करने में कुछ मदद कर सकते हैं। न्यायालय ने माना कि सार्वजनिक नीति के मुद्दों को मध्यस्थ के समक्ष उसी तरह उठाया जा सकता है जैसे उन्हें सिविल न्यायालय के समक्ष उठाया जा सकता है। मकान मालिक किरायेदार के विवाद में पारित निर्णय सिविल न्यायालय की तरह ही लागू किया जाएगा। यह माना गया कि संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम के तहत आने वाले मकान मालिक-किरायेदार विवाद मध्यस्थता योग्य होंगे।
गैर-मध्यस्थता योग्य विवादों के उदाहरण
- शोधन अक्षमता (बैंकरप्टसी) या आंतरिक विवाद।
- पेटेंट दिए और जारी किए जाते हैं, और ट्रेडमार्क पंजीकृत (रजिस्टर) किए जाते हैं।
- आपराधिक आरोपों से जुड़े मामले।
- वैवाहिक झगड़ों में विवाह विच्छेद (डिसोल्यूशन), वैवाहिक अधिकारों की बहाली और इसी तरह के अन्य मुद्दे शामिल हैं।
- प्रोबेट और अन्य वसीयतनामा संबंधी मामले।
- जब सिविल विवाद की बात आती है, तो धोखाधड़ी के आरोपों को मध्यस्थता का विषय बनाया जा सकता है। यह इस चेतावनी के अधीन है कि गैर-मध्यस्थता में धोखाधड़ी का मुद्दा शामिल है, जो शून्य होगा और मध्यस्थता खंड को रद्द कर देगा।
- विवादों को डीआरटी अधिनियम, 1993 के तहत समाधान के लिए ऋण की वसूली और शोधन अक्षमता से संबंधित किया गया है।
गैर-मध्यस्थता योग्य विवादों का मुद्दा कब उठाया जा सकता है
गैर-मध्यस्थता योग्य विवादों से संबंधित मुद्दे निम्नलिखित शर्तों के तहत उठाए जाएंगे:
- मध्यस्थता अधिनियम की धारा 11 के तहत संदर्भ के लिए, या वर्तमान न्यायिक प्रक्रियाओं पर रोक लगाने और मध्यस्थता अधिनियम की धारा 8 के तहत संदर्भ के लिए एक आवेदन पर अदालत में उपस्थित होना;
- मध्यस्थ न्यायाधिकरण (ट्रिब्यूनल) के समक्ष मध्यस्थता प्रक्रियाओं के दौरान; या
- पंचाट (अवॉर्ड) को चुनौती देने या लागू करने के समय अदालत के समक्ष।
मध्यस्थता के संबंध में न्यायिक समीक्षा का पहलू
सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 89 के अनुसार मामले को वैकल्पिक विवाद समाधान विधियों के लिए संदर्भित करने की शक्ति अदालत को दी जाती है, जब अदालत को यह प्रतीत होता है कि समझौते का एक तत्व मौजूद है जिसे पक्षों द्वारा स्वीकार किया जाएगा और फिर इस तरह निपटान न्यायालय द्वारा तैयार किया जा सकता है और पक्षों को विवाद को निपटाने के वैकल्पिक साधनों जैसे मध्यस्थता, लोक अदालत, बिचवाई (मीडिएशन) या सुलह के लिए भेजा जा सकता है।
अधिकांश विकसित देशों में वैकल्पिक विवाद समाधान की अवधारणा पहले से ही स्थापित है और वे जो तरीके अपनाते हैं वे इस हद तक सफल भी हैं कि लगभग 90% मामले न्यायालय के बाहर ही हल हो रहे हैं। इस प्रस्ताव का मुख्य उद्देश्य कानून में देरी और न्यायाधीशों की सीमित संख्या के बावजूद संबंधित पक्षों को त्वरित न्याय प्रदान करना है। पक्ष अपने विवाद को सुलझाने के लिए मुकदमेबाजी में शामिल होने के बजाय विवाद समाधान के तरीकों को अपना सकते हैं।
निष्कर्ष
यह निर्णय सही दिशा में लिया गया है और भारत में किरायेदारी विवादों की मध्यस्थता के संबंध में लंबे समय से चली आ रही बहस को समाप्त करने के लिए एक सकारात्मक कदम है। फैसले ने मध्यस्थता समर्थक स्थिति सुनिश्चित की है और सभी अनसुलझे मुद्दों के लिए एक सुरक्षा कवच भी बनाया है, जैसा कि बीना मोदी बनाम ललित मोदी (2020) के मामले में था, जिसका फैसला 3 मार्च 2020 को हुआ था, जहां विवादों की मध्यस्थता को न्यास (ट्रस्ट) विलेख और (भारतीय) न्यास अधिनियम, 1882 के तहत नियंत्रित किया गया था, यह मामला अभी तक अनसुलझा है।
इस फैसले से कुछ विवादास्पद चिंताएं खुलने की संभावना है। यह देखना वास्तव में दिलचस्प होगा कि न्यायालय में पहले से दायर लंबित मामलों पर फैसले का क्या प्रभाव पड़ेगा क्योंकि पक्ष धारा 8 के तहत आवेदन दायर कर मामले को मध्यस्थता के लिए भेजने का अनुरोध कर सकते हैं। इस ऐतिहासिक फैसले में देशवासियों के हित को ध्यान में रखते हुए किरायेदारों के अधिकारों को लंबी मुकदमेबाजी से बचाया जाएगा।
संदर्भ