भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 की धारा 10 का विश्लेषण

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Indian Contract Act
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इस लेख में, Shivani Pahuja भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 की धारा 10 का विश्लेषण करती हैं। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja द्वारा किया गया है।

परिचय

अपने दिन-प्रतिदिन के जीवन में हम संपत्ति की बिक्री और खरीद, कर्मचारी बनने, विवादों को निपटाने और बहुत कुछ जैसे विभिन्न समझौतों में प्रवेश करते हैं। यह देखा गया है कि अक्सर व्यक्ति एक वैध संविदा के आवश्यक प्रावधानों पर विचार किए बिना समझौते में प्रवेश करते हैं, और इसलिए एक अवैध संविदा में प्रवेश करते हैं और इस तरह नुकसान झेलते हैं। एक संविदा को लागू करना मुश्किल है जब तक कि पार्टियों द्वारा इसकी शर्तों को स्वीकार नहीं किया जा सकता है। एक हस्ताक्षरित लिखित संविदा जोखिम को कम कर सकता है और पार्टियों को एक ऐसे संविदा में प्रवेश करने से बचाता है जिसे वे बाद में लागू नहीं कर सकते। यह लेख एक लागू करने योग्य संविदा के महत्वपूर्ण तत्वों को उजागर करने के लिए है।

भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 10 में संविदा के बारे में उल्लेख है। इसमें कहा गया है कि सभी समझौते संविदा हैं यदि वे किए गए हैं:

  • पार्टियों की स्वतंत्र सहमति से (अर्थात उनकी स्वतंत्र इच्छा) जो संविदा करने के लिए सक्षम हैं,
  • एक वैध प्रतिफल के लिए और
  • एक वैध उद्देश्य के लिए, और
  • स्पष्ट रूप से शून्य घोषित नहीं किया गया है।

इस धारा में यह भी उल्लेख किया गया है कि जो कुछ भी इस धारा में प्रदान किया गया है वह किसी भी कानून को प्रभावित नहीं करेगा, जो भारत में लागू है, और स्पष्ट रूप से निरस्त (रिपील) नहीं किया गया है, जिसके द्वारा कोई भी संविदा लिखित रूप में या गवाहों की उपस्थिति में किया जाता है या दस्तावेजों के पंजीकरण (रजिस्ट्रेशन) से संबंधित कोई कानून को प्रभावित नहीं करेगा। 

संविदा अधिनियम की धारा 2 (e) के अनुसार, प्रत्येक वादा या वादों का एक सेट जो एक दूसरे के लिए प्रतिफल बनाता है, वह एक समझौता है। इस प्रकार एक वचन को एक समझौता कहा जा सकता है।

  • समझौता = प्रस्ताव (ऑफर) + स्वीकृति

अधिनियम की धारा 2 (h) संविदा को एक समझौते के रूप में परिभाषित करती है जो कानून द्वारा लागू करने योग्य है। एक संविदा को एक समझौता भी कहा जा सकता है, जिसका उद्देश्य कानूनी दायित्व यानी कानून द्वारा लागू करने योग्य कर्तव्य बनाना है।

  • संविदा = समझौता + कानून द्वारा प्रवर्तनीयता (एंफोर्सेबिलिटी)

समझौता, संविदा की तुलना में एक व्यापक शब्द है जिसमें सभी संविदा समझौते होते हैं लेकिन सभी समझौते संविदा नहीं होते हैं। भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 की धारा 10 में उल्लिखित शर्तों को पूरा करने वाले समझौते संविदा बन जाते हैं।

समझौतों को दो श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया है:

  1. कानून द्वारा लागू नहीं होने वाले समझौते- वे समझौते जो वैध संविदा की अनिवार्यताओं को पूरा नहीं करते हैं, कानून द्वारा लागू नहीं होते हैं, इसलिए उन्हें संविदा नहीं माना जा सकता है। अधिनियम की धारा 2(g) के अनुसार ऐसे संविदा को शून्य कहा जाता है। उदाहरण के लिए, एक नाबालिग द्वारा किया गया एक समझौता शून्य माना जाता है। अधिनियम की धारा 2430 उन समझौतों के बारे में उल्लेख करती है जिन्हें शून्य माना जाता है।
  • धारा 24- संविदा को शून्य माना जाता है यदि प्रतिफल और उद्देश्य गैरकानूनी हैं।
  • धारा 25- बिना प्रतिफल के समझौते को तब तक शून्य माना जाता है जब तक कि समझौता लिखित और पंजीकृत न हो या किसी किए गए कार्य के लिए क्षतिपूर्ति (कंपनसेशन) का वादा हो या ऋण का भुगतान करने का वादा हो जो परिसीमा (लिमिटेशन) कानून द्वारा वर्जित (बार्ड) है।
  • धारा 26– विवाह में बाधा डालने वाले समझौतो को शून्य माना जाता है।
  • धारा 27– ऐसे समझौते जो व्यापार में बाधा डालते हैं, शून्य माने जाते हैं।
  • धारा 28– समझौते जो कानूनी कार्यवाही में बाधा डालता है वह शून्य है।
  • धारा 29– अनिश्चित समझौतों को शून्य माना जाता है।
  • धारा 30- दांव के माध्यम से समझौता शून्य माना जाता है।

2. कानून द्वारा लागू करने योग्य समझौते- वैध संविदा की अनिवार्यताओं को पूरा करने वाले समझौते कानून द्वारा लागू करने योग्य होते हैं।

इस प्रकार, अधिनियम की धारा 2(h) और 10 एक वैध संविदा के आवश्यक तत्वों के बारे में बताती हैं। यदि उन तत्वों में से कोई भी एक संतुष्ट नहीं है या समझौते में मौजूद नहीं है, तो यह इसकी वैधता को प्रभावित करेगा और वैध संविदा नहीं बनाएगा।

यदि हम निर्धारित नियमों और शर्तों वाले संविदा में प्रवेश करते हैं, जो कि क़ानून के तहत अनिवार्य है तो वह संविदा एक वैधानिक संविदा बन जाता है। यदि किसी संविदा में कुछ नियम और शर्तें शामिल हैं, जो वैधानिक हैं, तो उक्त संविदा उस सीमा तक वैधानिक है।

एक संविदा को बनाने के लिए, पार्टियों को समझौते के लिए सहमति देनी होती है।

एक वैध संविदा के आवश्यक तत्व

  1. प्रस्ताव और स्वीकृति
  2. कंसेंसस एड ईडम 
  3. कानूनी संबंध
  4. पार्टियों की योग्यता
  5. स्वतंत्र सहमति
  6. वैध प्रतिफल
  7. वैध उद्देश्य
  8. शून्य घोषित नहीं किया गया
  9. निश्चितता और प्रदर्शन की संभावना
  10. कानूनी औपचारिकताएं (फॉर्मेलिटीज़)

प्रस्ताव और स्वीकृति

एक संविदा कम से कम दो पार्टियों की उपस्थिति में बनाया जा सकता है जिनमें से एक प्रस्ताव दे रहा है और दूसरा इसे स्वीकार कर रहा है। इसलिए एक पार्टी द्वारा एक प्रस्ताव दिया जाना चाहिए और दूसरी पार्टी द्वारा इसकी स्वीकृति होनी चाहिए। प्रस्ताव जब स्वीकार किया जाता है तो एक समझौता बन जाता है। जो पार्टी प्रस्ताव देती है उसे प्रस्तावकर्ता (ऑफरर) के रूप में जाना जाता है और जिस पार्टी को प्रस्ताव दिया जाता है उसे प्रस्तावक (ऑफ़री) के रूप में जाना जाता है।

कंसेंसस एड ईडम 

जो पार्टी संविदा में प्रवेश कर रही हैं उनकी आपसी सहमति होनी चाहिए अर्थात उन्हें उसी बात पर उसी अर्थ में सहमत होना चाहिए जैसे वह है। इसका मतलब है कि कंसेंसस एड ईडम (यानी दोनो पार्टियों को एक बात पर सहमती) मौजूद होना चाहिए।

कानूनी संबंध

संविदा में प्रवेश करने वाली पार्टियों को कानूनी संबंध बनाने का इरादा रखना चाहिए। यह तभी उत्पन्न होता है जब पार्टियों को पता चलता है कि यदि उनमें से कोई भी अपने वादे के हिस्से को पूरा करने में विफल रहता है, तो वह संविदा की विफलता के लिए उत्तरदायी होगा।

यदि कानूनी संबंध बनाने का कोई इरादा नहीं है, तो पार्टियों के बीच कोई संविदा नहीं है। सामाजिक या घरेलू प्रकृति के समझौतों को संविदा के रूप में नहीं माना जाता है क्योंकि वे कानूनी संबंधों पर विचार नहीं करते हैं या उन्हें उत्पन्न नहीं करते हैं।

पार्टियों की योग्यता

संविदा अधिनियम की धारा 11 के अनुसार संविदा करने वाली पार्टियों को सक्षम माना जाएगा यदि-

  • वयस्कता (मेजॉरिटी) की आयु प्राप्त कर ली है,
  • स्वस्थ मन का है,
  • एक कानून के तहत संविदा करने के लिए अयोग्य नहीं है।

हालांकि, निम्नलिखित व्यक्तियों को संविदा के लिए अक्षम माना जाता है, या केवल एक विशेष सीमा तक संविदा करने में सक्षम माना जाता है। वे व्यक्ति जो कुछ कारणों से संविदा में प्रवेश करने के लिए अयोग्य हैं, यह उनकी कानूनी स्थिति, राजनीतिक स्थिति या कॉर्पोरेट स्थिति से उत्पन्न हो सकते हैं।

  1. विदेशी शत्रु: एक विदेशी शत्रु के साथ एक समझौता शून्य माना जाता है।
  2. विदेशी संप्रभु (सोवरेन) और राजदूत (एंबेसडर): विदेशी संप्रभु और उनके प्रतिनिधि हर देश में कुछ निश्चित विशेषाधिकार और उन्मुक्ति (इम्यूनिटी) का आनंद लेते हैं। वे भारत में रहने वाले अपने एजेंटों के अलावा एक संविदा में प्रवेश नहीं कर सकते।
  3. दोषी: एक दोषी जब कारावास में होता है, तो वह संविदा में प्रवेश नहीं कर सकता है।
  4. दिवालिया व्यक्ति (इंसोल्वेंट): एक दिवालिया व्यक्ति, वह व्यक्ति होता है जिसके बारे में कहा जाता है कि वह अपनी देनदारियों (लाइबिलिटी) का निर्वहन या भुगतान करने में असमर्थ है और इसलिए, दिवालिया घोषित होने के लिए आवेदन किया है या यदि उसके किसी लेनदार द्वारा ऐसी कार्यवाही शुरू की गई है।
  5. कंपनी या वैधानिक निकाय (स्टेच्यूटरी बॉडी): किसी कॉर्पोरेट निकाय या वैधानिक निकाय द्वारा किया गया संविदा केवल उस सीमा तक मान्य होगा, जब तक वह इसके मेमोरेंडम ऑफ एसोसिएशन के भीतर है।

मोहोरी बीबी बनाम धर्मोदास घोष के मामले में, जिसमें धर्मोदास घोष ने नाबालिग होने के कारण प्रतिवादी ब्रह्मो दत्त के पक्ष में अपनी संपत्ति गिरवी रखी थी, जो एक ऋण सुरक्षित करने के लिए एक साहूकार था। लेन-देन के समय साहूकार को यह जानकारी थी कि वादी नाबालिग है। अदालत ने माना कि प्रतिवादी की दलीलों को खारिज कर दिया गया था। अवयस्क के समझौते को अमान्य करार दिया गया था, और यह माना गया था कि अवयस्क का समझौता अमान्य था, और यह निर्धारित किया गया था कि अवयस्क को उसके द्वारा लिए गए ऋण को चुकाने के लिए नहीं कहा जा सकता है।

स्वतंत्र सहमति

अधिनियम की धारा 13 के अनुसार दो या दो से अधिक व्यक्तियों को एक सामान्य बात के लिए सहमत तब कहा जाता है जब वे एक ही बात पर एक ही अर्थ में सहमत होते हैं। एक सहमति को संविदा का सबसे महत्त्वपूर्ण तत्व माना जाता है। अगली धारा स्वतंत्र सहमति के बारे में बात करती है जो एक वैध संविदा के लिए आवश्यक है। एक सहमति को स्वतंत्र और वैध तब कहा जाता है जब वह निम्नलिखित कारणों से नहीं होती है:

  • प्रपीड़न (कोर्शन)
  • असम्यक असर (अनड्यू इनफ्लूएंस)
  • कपट (फ्रॉड)
  • दुर्व्यपदेशन (मिसरिप्रेजेंटेशन)
  • गलती

जब सहमति ऐसे किसी भी कारक के कारण होती है, तो उस पार्टी के द्वारा वह समझौता शून्य हो जाता है जिसकी सहमति इन कारणों की वजह से हुई थी। हालांकि, यदि सहमति गलती से हुई है, तो समझौते को शून्य माना जाता है।

किसी व्यक्ति की सहमति कई कारकों से प्रभावित होती है, जिनमें से प्रपीड़न सबसे अधिक ध्यान देने योग्य है।

प्रपीड़न को धारा 15 के तहत इस तरह परिभाषित किया गया है: “प्रपीड़न इस आशय से कि किसी व्यक्ति से कोई समझौता कराया जाए कोई ऐसा कार्य करना या करने की धमकी देना है, जो भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) द्वारा निषिद्ध (फॉरबिडन) है, अथवा किसी व्यक्ति पर, चाहे वह कोई हो, प्रतिकूल प्रभाव डालने के लिए किसी सम्पत्ति का विधिविरुद्ध (अनलॉफुल) निरोध करना या निरोध करने की धमकी देना है।”

रंगनायकम्मा बनाम अलवर सेट्टी के मामले में शामिल मुद्दा यह था कि एक विधवा को अपने पति के शव के दाह संस्कार करने की अनुमति नहीं थी जब तक कि वह लड़के को गोद नहीं ले लेती। अदालत ने गोद लेने को अमान्य करार दिया क्योंकि गोद लेने के लिए उसकी सहमति प्रपीड़न से प्राप्त की गई थी।

आत्महत्या करने की धमकी

आत्महत्या करने का कार्य आई.पी.सी. के तहत निषिद्ध है, और इसलिए आत्महत्या करने की धमकी देने को प्रपीड़न के तहत लाया जाता है। अम्मिराजू बनाम शेषम्मा के मामले में, जहां अम्मिराजू ने अपनी पत्नी और बेटे को आत्महत्या करने की धमकी दी, अगर उन्होंने अपने भाई के पक्ष में कुछ संपत्ति जारी नहीं की। उसकी पत्नी और बेटे ने विलेख (डीड) को निष्पादित (एग्जीक्यूट) किया, लेकिन बाद में अदालत में प्रपीड़न करने की दलील दी। मद्रास उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों ने यह विचार दिया कि आत्महत्या करने की धमकी भारतीय दंड संहिता के तहत दंडनीय अपराध है, और इसलिए यह प्रपीड़न के तहत आएगा।

संविदा में प्रपीड़न का प्रभाव

ऐसे मामलों में जहां एक पार्टी द्वारा बल के तहत एक संविदा में प्रवेश किया जाता है, और इसलिए जिस पार्टी को इसके कारण कोई लाभ प्राप्त होता है, उसे इसे वापस बहाल (रिस्टोर) करना होगा। यदि पीड़ित पार्टी को कोई नुकसान होता है, तो वह संविदा की दूसरी पार्टी से इसकी वसूली कर सकता है।

अधिनियम की धारा 16 में असम्यक असर के बारे में उल्लेख किया गया है जिसमें एक संविदा को ‘असम्यक असर’ से बनाया गया तब कहा जाता है जहां पार्टियों के बीच संबंध ऐसे होते हैं कि एक पार्टी ऐसी होती है जिसके द्वारा वह दूसरी पार्टी की इच्छा पर हावी हो सकती है, और दूसरी पार्टी से अनुचित लाभ प्राप्त करने के लिए उस स्थिति का उपयोग करती है।

अनुचित सौदेबाजी में असम्यक असर का अनुमान

असमान स्तर पर पार्टियों के बीच अनुचित सौदेबाजी के मामलों में, कानून असम्यक असर का अनुमान लगाता है। जब कोई व्यक्ति ऐसी स्थिति में पाया जाता है जिसके द्वारा वह दूसरे की इच्छा पर हावी हो सकता है, या लेन-देन प्रभुत्व के कारण प्रभावित होता है, तो इस बात का सबूत देने का भार, कि लेनदेन में कोई असम्यक असर नहीं डाला गया था, उस पार्टी पर है जो दूसरे की इच्छा पर हावी होने की स्थिति में है।

ऐसे मामलों में, कानून द्वारा प्रयोग किए जाने वाले असम्यक असर के अनुमान का खंडन (रिबट) करने का बोझ प्रमुख पार्टी पर होता है। यदि किसी पार्टी को दूसरी पार्टी से कोई लाभ प्राप्त हुआ है, तो उसे यह साबित करना होगा कि यह लाभ असम्यक असर से प्राप्त नहीं हुआ था।

दियाला राम बनाम सरगा (1927) के मामले में प्रतिवादी पहले से ही वादी का ऋणी था, जो एक गाँव का साहूकार था। उसने फिर से वादी से एक नया ऋण लिया और फिर एक बॉन्ड निष्पादित किया, जिसमें वह कुछ ब्याज देने के लिए सहमत हुआ। अदालत ने माना कि संविदा अनुचित था और इसलिए, सबूत का बोझ वादी पर था की वह यह दिखाए कि इस मामले में कोई असम्यक असर नहीं था।

परदानशीन महिला के साथ संविदा

एक परदानशीन महिला वह होती है जो पूर्ण एकांत का पालन करती है अर्थात जो अपने परिवार के सदस्यों के अलावा अन्य लोगों के संपर्क में नहीं आती है। कानून परदानशीन स्त्री को इस आधार पर विशेष सुरक्षा प्रदान करता है कि वह सांसारिक ज्ञान से अनभिज्ञ (इग्नोरेंट) है। परदानशीन महिला के साथ किया गया संविदा आमतौर पर असम्यक असर से प्रेरित माना जाता है। यह साबित करने का भार दूसरी पार्टी पर होता है कि कोई असम्यक असर नहीं डाला गया था। दूसरी पार्टी को यह साबित करना होगा कि

  1. उसे, संविदा की शर्तों के बारे मे पूरी तरह से समझाया गया था,
  2. उसने निहितार्थों (इंप्लीकेशंस) को समझा,
  3. उसे मुफ्त स्वतंत्र सलाह उपलब्ध थी, और
  4. उसने संविदा के लिए स्वतंत्र रूप से सहमति दी थी।

यह सुरक्षा केवल उस महिला को मिलती है जो पूर्ण पर्दा करती है। कुछ हद तक पर्दा या एकांत उसे विशेष सुरक्षा प्राप्त करने का अधिकार देने के लिए पर्याप्त नहीं है।

धारा 17 कपट का उल्लेख करती है, जहां कोई भी कार्य, जो किसी पार्टी द्वारा, संविदा में किसी अन्य पार्टी को धोखा देने या उसे संविदा में प्रवेश करने के लिए प्रेरित करने के इरादे से किया जाता है, उसे कपट कहते हैं। दूसरे के नुकसान से लाभ हासिल करने के लिए इसे धोखा माना जाता है।

धारा 18 के तहत दुर्व्यपदेशन में शामिल हैं: –

  1. “उस बात को, जो सत्य नहीं है, ऐसे प्रकार से किया गया निश्चयात्मक प्राख्यान (पॉजिटिव असेर्शन) जो उस व्यक्ति की जानकारी से समर्थित न हो, जो उसे करता है, यद्यपि वह उस बात के सत्य होने का विश्वास करता हो; 
  2. कोई ऐसा कर्तव्य-भंग (ब्रीच), जो प्रवंचना (डिसीव) करने के आशय के बिना उस व्यक्ति को, जो उसे करता है, या उससे उत्पन्न अधिकार के अधीन दावा करने वाले किसी व्यक्ति को कोई फायदा किसी अन्य को ऐसा भुलावा देकर पहुँचाए, जिससे उस अन्य पर या उससे उत्पन्न अधिकार के अधीन दावा करने वाले किसी व्यक्ति पर प्रतिकूल प्रभाव पड़े;
  3. चाहे कितने ही सरल भाव से क्यों न हो, समझौता की किसी पार्टी से उस बात के पदार्थ के बारे में, जो उस समझौते का विषय हो, कोई गलती कराना।”

साझेदारी फर्म में भागीदारों की सहमति

एक साझेदारी के गठन (फॉर्मेशन) के लिए कुछ बुनियादी औपचारिकताओं की आवश्यकता होती है, जैसे कि एक लिखित समझौता या किसी एजेंसी के साथ पंजीकरण। साझेदार मानी जाने वाली सभी पार्टियों को ऐसा होने के लिए सहमति देनी होती है। एक भागीदार द्वारा दी गई सहमति व्यक्त हो सकती है, जैसे कि एक लिखित साझेदारी समझौते पर हस्ताक्षर करना या इसे पार्टियों के आचरण से निहित किया जा सकता है। पार्टियों को विशेष रूप से ‘साझेदारी’ बनाने के लिए सहमत होने की आवश्यकता नहीं है, बल्कि उनका समझौता या आचरण इस तरह से होना चाहिए कि वे लाभ के लिए व्यवसाय चलाने के लिए सहमत हों। यहां तक ​​कि अगर पार्टियां इस बात से सहमत हैं कि उनके व्यवसाय को साझेदारी का लेबल नहीं दिया जाएगा, तो ऐसा किया जा सकता है यदि यह एक साझेदारी फर्म की शर्त को पूरा करता है।

एक विवाह के पहले किए गए समझौते (एंटेनुप्टल एग्रीमेंट) में पार्टियों की सहमति

एक विवाह के पहले किया गए संविदा, जिसे विवाह-पूर्व संविदा भी कहा जाता है। यह संविदा विवाह पूर्व, नागरिक संघ (सिविल यूनियन), या विवाह करने या एक-दूसरे के साथ संविदा करने के इच्छुक लोगों द्वारा किया जाता है। विवाह पूर्व समझौते की सामग्री व्यापक रूप से भिन्न होती है, लेकिन आमतौर पर इसमें तलाक या विवाह के विघटन (डिसोल्युशन) की स्थिति में संपत्ति के विभाजन (डिवीजन) और पति-पत्नी के समर्थन के प्रावधान शामिल होते हैं। इसमें व्यभिचार (एडल्टरी) के आधार पर तलाक के परिणामस्वरूप संपत्ति की जब्ती से संबंधित शर्तें भी शामिल हो सकती हैं। भारत में, विवाह-पूर्व समझौते विवाह कानूनों के तहत न तो कानूनी हैं और न ही मान्य हैं क्योंकि वे विवाह को संविदा के रूप में नहीं मानते हैं लेकिन गोवा में यह पुर्तगली नागरिक संहिता, 1867 के तहत कानूनी रूप से लागू है। भारत में एक विवाह को दो लोगों के बीच एक धार्मिक बंधन के रूप में माना जाता है। पति और पत्नी और विवाह पूर्व समझौतों को देश में कोई सामाजिक स्वीकृति नहीं मिलती है। हालांकि, ये समझौते भारतीय संविदा अधिनियम द्वारा शासित होते हैं और किसी भी अन्य संविदा के समान, मौखिक या लिखित रूप में उतनी ही पवित्रता रखते हैं।

तलाक पर एक विवाह पूर्व संविदा के प्रवर्तन से जुड़े मामलों में, आमतौर पर यह पाया जाता है कि एक पति अपनी होने वाली पत्नी के सामने,  पहली बार शादी से कुछ दिन पहले या कभी-कभी शादी के दिन भी एक लिखित पूर्व-संविदा प्रस्तुत करता है और पत्नी को संविदा पर हस्ताक्षर करने की आखिरी चेतावनी देता है या अन्यथा वह उससे शादी न करने के लिए कहता है। तलाक के समय, पत्नी का वकील पति की चेतावनी को प्रपीड़न के रूप में चित्रित करता है। लेकिन अगर तकनीकी रूप से देखा जाए तो यह प्रपीड़न नहीं है क्योंकि पति कानूनी रूप से शादी करने के लिए बाध्य नहीं है और पति ने पत्नी को उससे शादी करने की आवश्यकता पैदा नहीं की। चेतावनी को केवल विवाह के लिए एक शर्त के रूप में माना जा सकता है।

वैध प्रतिफल और वैध उद्देश्य

भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 23 के अनुसार, निम्नलिखित प्रतिफलों और उद्देश्यों को वैध नहीं माना जाता है:

  1. यदि यह कानून द्वारा निषिद्ध है,
  2. यदि यह अन्य कानून के प्रावधानों के खिलाफ है,
  3. यदि यह कपटपूर्ण है,
  4. अगर यह किसी व्यक्ति या संपत्ति को नुकसान पहुंचाते है,
  5. अगर यह अदालत की राय में, अनैतिक या सार्वजनिक नीति के खिलाफ है।

इस प्रकार कोई भी संविदा जिसमें ऐसे गैरकानूनी प्रावधान शामिल हैं, उसको वैध संविदा नहीं माना जाता है।

निश्चितता और प्रदर्शन की संभावना

संविदा की शर्तें निश्चित होनी चाहिए और अस्पष्ट नहीं होनी चाहिए। यदि किसी भी तरह से समझौते के अर्थ का पता लगाना संभव नहीं है, तो इसे कानून द्वारा लागू नहीं किया जा सकता है। किसी भी असंभव कार्य को करने के लिए एक समझौते को कभी भी लागू नहीं किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, आसमान से तारे लाने के समझौते को वैध संविदा नहीं माना जा सकता क्योंकि यह एक असंभव कार्य है।

मौखिक समझौतों की प्रवर्तनीयता

यदि किसी मौखिक समझौते में वैध समझौते की शर्त शामिल है, तो इसे संविदा के रूप में माना जा सकता है। शीला गहलोत बनाम सोनू कोचर और अन्य के मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा कि मौखिक समझौते वैध होते हैं और लागू करने योग्य हैं और इसके बारे में कोई विवाद नहीं हो सकता है, जब तक कि कुछ भी लिखने की आवश्यकता न हो। इसके अलावा एक संविदा के रूप में, कुछ प्रस्ताव और स्वीकृति आवश्यक रूप से होनी चाहिए। एक मौखिक समझौते की वैधता पर सवाल नहीं उठाया जा सकता है। एक लिखित समझौते को महत्वपूर्ण माना जाता है क्योंकि एक मौखिक समझौते को अदालत के समक्ष साक्ष्य के रूप में पेश नहीं किया जा सकता है। मौखिक समझौते को साबित करने का भार उस पार्टी पर होता है जो यह दावा किया है की ऐसा समझौता अस्तित्व में था।

फूड कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया बनाम विकास मजदूर कामदार सहकारी मंडली लिमिटेड के प्रसिद्ध मामले में, शीर्ष अदालत ने कहा कि यदि अदालत के समक्ष मौखिक समझौता किया जाता है लेकिन साबित नहीं होता है, तो व्यक्ति अधिनियम की धारा 70 के तहत क्वांटम मेरिट के सिद्धांत के रूप में मुआवजे का हकदार होगा। इस सिद्धांत का अर्थ है कि जब कार्य संविदा से परे किया गया हो और कार्य का लाभ प्रतिवादी द्वारा प्राप्त किया गया हो।

निष्कर्ष

एक संविदा को कानूनी रूप से बाध्यकारी समझौते या एक संबंध के रूप में माना जाता है जो दो या दो से अधिक व्यक्तियों के बीच कोई कार्य करने या उसे न करने के लिए मौजूद होता है, जो कानून द्वारा लागू करने योग्य है। यदि एक संविदा बनाने की आवश्यकता है तो एक प्रस्ताव को स्वीकृति द्वारा समर्थित किया जाना चाहिए, जिसमें कुछ प्रतिफल होना चाहिए। एक संविदा की दोनों पार्टियों को एक दूसरे पर कुछ कानूनी संबंध बनाने का इरादा होना चाहिए, जिसमें से पार्टी अगर संविदा की शर्तों को पूरा करने में विफल रहती है तो कानून के तहत दंडित किया जा सकता है। सामाजिक संविदा या परिवारों के बीच समझौते, समझौतों को लागू नहीं करते हैं और कोई कानूनी संबंध बनाने का इरादा नहीं रखते हैं, इसलिए एक वैध संविदा के रूप में नहीं माने जा सकते है। एक समझौता विभिन्न पार्टियों के बीच क्रॉस रेफरेंस का एक रूप है जो मौखिक, लिखित और पार्टियों को मर्जी से किसी भी तरह से लागू होने के बजाय इसकी पूर्ति के लिए हो सकता है। सभी संविदा समझौते हैं क्योंकि संविदा के गठन के लिए पार्टियों के बीच अनिवार्य रूप से आपसी समझ होनी चाहिए। पार्टियों को सहमत होना चाहिए और समझौते के प्रस्ताव का पालन करना चाहिए। किसी प्रस्ताव के आमंत्रण के मामलों में संविदा तभी बनता है जब प्रस्ताव दूसरी पार्टी द्वारा स्वीकार किया जाता है और प्रस्ताव देने वाली पार्टी को स्वीकृति का ज्ञान होता है, जिसमें प्रस्ताव की सभी शर्तें स्वीकार की जाती हैं। एक वैध संविदा का सबसे आवश्यक हिस्सा एक वैध समझौता है, क्योंकि अवैध संविदा की कोई वैध स्थिति नहीं होती है यानी उन्हें कानून की नजर में शून्य माना जाता है। इसलिए यह कहा जा सकता है कि सभी समझौते संविदा नहीं होते हैं, संविदा के कानून के तहत तैयार किए गए समझौतों को वैध संविदा माना जा सकता है। अधिकतर समय, शब्द ‘संविदा’ और ‘समझौते’ एक दूसरे के स्थान पर उपयोग किए जाते हैं, लेकिन वे ठीक एक ही चीज नहीं हैं। ब्लैक लॉ डिक्शनरी एक समझौते को “पार्टियों के बीच उनके सापेक्ष (रिलेटिव) अधिकारों और जिम्मेदारियों के बारे में आपसी समझ” के रूप में मानता है और वहीं दूसरी तरफ एक संविदा को “कानून द्वारा लागू करने योग्य दायित्व बनाने वाली पार्टियों के बीच एक समझौते” के रूप में परिभाषित करता है। इसलिए किसी के साथ आपसी समझौते में आकर, इसे लिखित रूप में रखें, लेकिन अगर यह लागू करने योग्य संविदा की आवश्यकताओं को पूरा नहीं करता है, तो इसे कानून द्वारा लागू नहीं किया जा सकता है। समझौते को दोनों पार्टियों द्वारा प्रतिफल प्रदान करके समर्थित होना चाहिए। समझौते में प्रवेश करने वाली प्रत्येक पार्टी को कुछ देने या करने का वादा करना चाहिए और बदले में कुछ या एक वादा प्राप्त करना चाहिए। प्रतिफल वह कीमत है जिसके लिए दूसरे का वादा मांगा जाता है। हालांकि जरूरी नहीं कि यह कीमत पैसों के मूल्य में ही हो। ऐसे मामलों में जहां वादा प्रतिफल द्वारा समर्थित नहीं है, वादा नूडम पैक्टम (एक वादा जिसे बिना किसी प्रतिफल के किया गया हो) द्वारा किया जाएगा, जो कानून में लागू नहीं है। समझौते का उद्देश्य वैध होना चाहिए न कि ऐसा होना चाहिए जिसे कानून अस्वीकृत कर दे।

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