भारतीय अनुबंध अधिनियम और अंग्रेजी अनुबंध अधिनियम के बीच विश्लेषण

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Indian Contract Act

यह लेख Diksha Ranjan द्वारा लिखा गया है, जो एडवांस्ड कॉन्ट्रैक्ट ड्राफ्टिंग, नेगोशिएशन एंड डिस्प्यूट रेजोल्यूशन में डिप्लोमा कर रही हैं। इस लेख में, अनुबंध कानून के विभिन्न महत्वपूर्ण पहलुओं को विश्लेषणात्मक (एनालिटिकल) रूप से भारत और ब्रिटेन  के बीच तुलना करके देखा और समझा गया है। इस लेख का अनुवाद Hardik Bathla द्वारा किया गया है

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परिचय

हमारे दिन-प्रतिदिन के जीवन में, हम विभिन्न लेनदेन और समझौतो से निपटते हैं और हम इस तथ्य से अनजान हैं कि हम इस तरह के लेनदेन, समझौते, वार्ता (नेगोशिएशन) आदि करके एक अनुबंध में प्रवेश करते हैं। भारत में अनुबंधों की बुनियादी अनिवार्यताएं, सिद्धांत और वैधता भारतीय अनुबंध अधिनियम, 1872 (इसके बाद आईसीए, 1872 के रूप में संदर्भित) के प्रावधानों द्वारा शासित होती है। यह भारत में अनुबंधों के विभिन्न तत्वों जैसे प्रस्ताव, स्वीकृति, प्रतिफल (कंसीडरेशन), स्वतंत्र सहमति, अर्ध-अनुबंध (क्वासि-कॉन्ट्रैक्ट), अनुबंध का उल्लंघन, हर्जाने, आदि से संबंधित है। इस लेख में भारत और ब्रिटेन के तुलनात्मक दृष्टिकोण से अनुबंध कानून की विभिन्न बारीकियों पर चर्चा की जाएगी।

एक अनुबंध क्या है

भारत और ब्रिटेन के तुलनात्मक दृष्टिकोण से अनुबंध कानून के महत्वपूर्ण पहलुओं पर चर्चा करने से पहले अनुबंध क्या है, इस पर बहुत संक्षेप में चर्चा करना उचित है।

आईसीए, 1872 की धारा 2(e) के अनुसार, एक समझौते को किसी भी ऐसे लेनदेन के रूप में परिभाषित किया गया है जिसमें दो पक्ष एक-दूसरे के साथ, प्रतिफल के लिए, वादे या वादों के आसन (सेट) में प्रवेश करते हैं और यह समझौता यदि कानून की नजर में लागू करने योग्य है, तो यह आईसीए,1872 की धारा 2(h) के अनुसार एक अनुबंध बन जाता है। किसी अनुबंध के भारत में वैध और प्रवर्तनीय (एंफोर्सेबल) होने के लिए, उसे आईसीए, 1872 की धारा 10 में उल्लिखित सभी शर्तों को पूरा करना होगा अर्थात निम्नलिखित कारकों को पूरा किया जाना चाहिए:

  • यह पक्षों की स्वतंत्र सहमति से किया जाना चाहिए।
  • पक्षों को अनुबंध में प्रवेश करने के लिए सक्षम होना चाहिए।
  • इसमें वैध प्रतिफल और वैध उद्देश्य होना चाहिए।
  • अनुबंध को भारत में लागू किसी भी कानून द्वारा शून्य (वॉयड) घोषित नहीं किया जाना चाहिए।

हालांकि, प्रत्येक देश के पास उसके अपने अधिकार क्षेत्र (जूरिस्डिक्शन) में अनुबंधों को नियंत्रित करने के लिए अपना कानून है। आइए विश्लेषण करें कि प्रासंगिक (रिलीवेंट) प्रावधानों और निर्णयों के माध्यम से भारत में अनुबंध कानूनों के प्रावधान अंग्रेजी अनुबंध कानून के प्रावधानों से कैसे अलग हैं।

नाबालिग के समझौते के संबंध में अनुबंध करने की क्षमता

अंग्रेजी कानून में स्थिति

एक नाबालिग वह व्यक्ति है जिसने जन्म और मृत्यु पंजीकरण (रजिस्ट्रेशन) संशोधन अधिनियम (2002 की संख्या 1) के अनुसार 18 वर्ष की आयु पूरी नहीं की है। अंग्रेजी कानून में, एक नाबालिग के समझौते को एक शुन्यकरणीय (वॉयडेबल) अनुबंध माना जाता है। यह नाबालिग के विकल्प पर शुन्यकरणीय है। “शुन्यकरणीय अनुबंध” एक ऐसा अनुबंध है जो अनुबंध के एक पक्ष के विकल्प पर अप्रवर्तनीय हो सकता है और वह अपने विवेक के अनुसार अनुबंध को रद्द कर सकता है।

भारतीय कानून में स्थिति

नाबालिग वह व्यक्ति है जिसने भारतीय वयस्कता (मेजोरिटी) अधिनियम, 1875 के अनुसार 18 वर्ष की आयु पूरी नहीं की है।

आईसीए, 1872 की धारा 11 उन व्यक्तियों के लिए प्रावधान करती है जो अनुबंध में प्रवेश करने के लिए कानूनी रूप से सक्षम हैं। आईसीए,1872 की धारा 11 के अनुसार केवल एक व्यक्ति जो बालिग है, एक अनुबंध में प्रवेश करने, वार्ता करने या सौदा करने की स्थिति में है, वह सक्षम है। इस प्रावधान के पीछे यह न्यायिक सार है कि चूंकि दोनों पक्ष एक कानूनी दायित्व में प्रवेश करते हैं, इसलिए पक्षों को उस संविदात्मक दायित्व जिसमे वे प्रवेश कर रहे हैं का आकलन (असेसमेंट) करने के लिए पर्याप्त परिपक्व (मैच्योर) होना चाहिए।

भारत में इस बात को लेकर विवाद था कि नाबालिग का समझौता शून्य (वोयड) था या शून्यकरणीय अनुबंध था और इस विवाद को मोहोरी बीबी बनाम धर्मोदा घोष (1902-1903) में प्रिवी काउंसिल द्वारा समाप्त किया गया था। मामले के तथ्य इस प्रकार हैं:

  • ब्रह्मोदुत जो एक महाजन था, जो अपने एजेंट के जरिए पैसे उधार देने का कारोबार करता था।
  • धर्मोदस घोष ने धन उधार लेने के लिए ब्रह्मोदुत के एजेंट से संपर्क किया। भले ही वह नाबालिग था, लेकिन उसने खुद को एक बालिग होने का प्रतिनिधित्व किया।
  • एजेंट को इस बात की जानकारी थी कि धर्मोदाश घोष नाबालिग है और फिर भी एजेंट के माध्यम से महाजन और नाबालिग के बीच ऋण का समझौता हुआ था।
  • महाजन ने एक निश्चित राशि का आंशिक भुगतान किया और नाबालिग ने अपनी दो संपत्तियों को गिरवी रख दिया। 
  • चूंकि धर्मोदस घोष नाबालिग था, इसलिए उसकी मां ने उसके नाबालिग होने के आधार पर बंधक को रद्द करने के लिए मुकदमा दायर किया।
  • महाजन ने यह तर्क दिया कि नाबालिग का करार एक शून्यकरणीय अनुबन्ध है न कि शून्य अनुबन्ध, लेकिन विचारणीय न्यायालय ने माना कि करार शून्य है क्योंकि यह वादी द्वारा तब किया गया था जब वह नाबालिग था।
  • ब्रह्मोदुत ने तब कलकत्ता उच्च न्यायालय में अपील की और उच्च न्यायालय ने ब्रह्मोदुत की अपील को खारिज करते हुए विचारणीय अदालत के फैसले को बरकरार रखा।
  • ब्रह्मोदुत (मूल अपीलकर्ता) की प्रिवी काउंसिल में अपील करते समय मृत्यु हो गई थी, इसलिए उन्हें उनके उत्तराधिकारी मोहोरी बीबी द्वारा प्रतिस्थापित (रिप्लेस्ड) किया गया था। नाबालिग के समझौते के बारे में विवाद को प्रिवी काउंसिल द्वारा सुलझाया गया था, जिसमें कहा गया था कि “नाबालिग का समझौता शुरू से ही शून्य होता है।”

नाबालिग के समझौते के संबंध में बहाली (रेस्टिट्यूशन) का सिद्धांत

अंग्रेजी कानून में स्थिति

जब कोई नाबालिग दूसरे के साथ एक समझौते में प्रवेश करता है और समझौते से लाभ प्राप्त करता है, तो यह सवाल उठता है कि क्या नाबालिग लाभ को बहाल करने के लिए उत्तरदायी होगा या नहीं यानी क्या नाबालिग के खिलाफ बहाली (रेनस्टेटेमेंट)हो सकती है? यह सिद्धांत लेस्ली (आर) लिमिटेड बनाम शेल (1914) में अंग्रेजी कानून में तय किया गया है। मामले के तथ्य इस प्रकार हैं:

  • इस मामले में, एक नाबालिग ने एक निश्चित राशि उधार ली और वापस नहीं आया और लेनदार ने पैसे की वापसी के लिए मुकदमा दायर किया।
  • इस मामले में, न्यायालय ने ऋण के पुनर्भुगतान और धन की बहाली के बीच अंतर किया। 
  • अदालत ने माना कि यदि ऋण चुकाया जाता है, तो यह बहाली नहीं होगी। इसके बजाय यह अनुबंध के प्रवर्तन के बराबर होगा। अदालत ने टिप्पणी की कि ‘बहाली वहां रुक जाती है जहां पुनर्भुगतान शुरू होता है’। अदालत ने नाबालिगों के खिलाफ बहाली के मामले में निम्नलिखित राय दी:
  1. यदि, किसी समझौते में, नाबालिग द्वारा प्राप्त लाभ संपत्ति है, तो बहाली की अनुमति है, बशर्ते कि संपत्ति का पता बहाली के न्यायसंगत सिद्धांत के आधार पर लगाया जा सके।
  2. नाबालिगों को अनुबंधों के लिए इस तरह से उत्तरदायी होने की अनुमति नहीं दी जा सकती है कि यह अनुबंध को लागू करने का एक अप्रत्यक्ष तरीका बन जाएगा।

भारतीय कानून में स्थिति

नाबालिग के समझौते के मामले में भारत में बहाली का सवाल पहली बार मोहोरी बीबी के मामले में उठाया गया था। मामले में तर्क यह था कि यदि बंधक विलेख को लागू नहीं किया जा सकता है, तो नाबालिग को आईसीए, 1872 की धारा 64 और धारा 65 के तहत प्राप्त लाभ को वापस करना चाहिए। न्यायालय ने निम्नलिखित निर्णय दिया:

  1. अदालत ने कहा कि अधिनियम की धारा 64 के तहत बहाली नहीं दी जा सकती है क्योंकि धारा 64 उन मामलों में लागू होती है जहां अनुबंध अमान्य है। नाबालिग के समझौते में, अनुबंध शुरू से शून्य है।
  2. अदालत ने अधिनियम की धारा 65 के बारे में आगे कहा कि धारा 65 तब लागू होती है जब अनुबंध शून्य हो जाता है। ‘अनुबंध शून्य होने’ का कोई सवाल ही नहीं है, क्योंकि नाबालिग के मामले में कोई अनुबंध नहीं है यानी अनुबंध शून्य नहीं हो जाता है; यह एक ऐसा समझौता है जो शुरू से ही शून्य है।

वैध प्रतिफल

आईसीए, 1872 की धारा 10 के अनुसार, समझौतों की प्रवर्तनीयता के आवश्यक तत्वों में से एक ‘वैध प्रतिफल’ है। करी बनाम मीसा (1875) के मामले में, न्यायालय ने माना कि कानून की नजर में एक मूल्यवान प्रतिफल में एक पक्ष के पक्ष में कुछ अधिकार, हित, लाभ या फ़ायदा या दूसरे पक्ष को होने वाले कुछ, नुकसान या हानि शामिल होनी चाहिए। प्रतिफल की वैधता के सिद्धांत में यह प्रावधान है कि प्रतिफल अनुबंध में शामिल पक्षों के बीच ही जाना चाहिए। 

अंग्रेजी कानून में स्थिति

अंग्रेजी कानून के तहत, प्रतिफल केवल वचनग्रहीता (प्रॉमिसी) से आगे बढ़ना चाहिए। यदि प्रतिफल किसी अन्य व्यक्ति द्वारा प्रस्तुत किया जाता है, तो वचनग्रहीता प्रतिफल के लिए एक अजनबी बन जाता है और इसलिए, वादे को लागू नहीं कर सकता है।

उदाहरण के लिए, यदि ‘X’ और ‘Y’ एक अनुबंध में प्रवेश करते हैं जिसमें ‘X’ ‘Z’ द्वारा किए जाने वाले कार्य के लिए एक निश्चित राशि का भुगतान करने के लिए सहमत होता है। इस मामले में, Y के पास प्रतिफल का कोई विशेषाधिकार नहीं है। यदि ‘Y’ वादे को पूरा नहीं करने के लिए मुकदमा करता है, तो उसे ऐसा करने की अनुमति नहीं दी जाएगी।

भारतीय कानून में स्थिति

प्रतिफल आईसीए, 1872 की धारा 2(d) के तहत शासित होता है। आईसीए, 1872 की धारा 2(d) “वचनग्रहीता या किसी अन्य व्यक्ति” वाक्यांश का उपयोग करती है। यह स्पष्ट रूप से इंगित करता है कि भारतीय कानून के तहत प्रतिफल, या तो वचनग्रहीता या अनुबंध में किसी अजनबी के द्वारा दिया जा सकता है। इसलिए, एक व्यक्ति एक अनुबंध के लिए एक पक्ष हो सकता है लेकिन वह प्रतिफल के लिए एक अजनबी हो सकता है। उदाहरण के लिए, यदि ‘A’ और ‘B’ एक अनुबंध में प्रवेश करते हैं जिसमें ‘A’ ‘C’ द्वारा किए जाने वाले कार्य के लिए B को एक निश्चित राशि का भुगतान करने के लिए सहमत होता है। इस मामले में, ‘B’ प्रतिफल के लिए एक अजनबी है, जबकि C प्रतिफल के लिए एक अजनबी नहीं है, लेकिन वह अनुबंध के लिए एक अजनबी है।

अंग्रेजी कानून में, प्रतिफल देने के लिए एक अजनबी मुकदमा नहीं कर सकता है और भारतीय कानून में, प्रतिफल देने के लिए एक अजनबी मुकदमा कर सकता है। इस सिद्धांत को न्यायालय द्वारा चिन्नाया बनाम रमैया (1882) में तय किया गया था और मामले के संक्षिप्त तथ्य इस प्रकार हैं:

  • इस मामले में, एक बूढ़ी महिला ने उपहार विलेख  (गिफ्ट डीड) द्वारा, अपनी बेटी को कुछ संपत्ति दी।
  • उपहार विलेख में यह प्रावधान किया गया था कि वादी जो वृद्ध महिला की बहन थी, को 653 रुपये की वार्षिकी का भुगतान किया जाना था।
  • प्रतिवादी ने वादी के पक्ष में एक समझौते को निष्पादित किया, विलेख में शर्त को प्रभावी करने का वादा किया, लेकिन वार्षिकी का भुगतान नहीं किया गया था।
  • बेटी की दलीलें थीं कि वादी प्रतिफल के लिए एक अजनबी थी। 
  • इसलिए वह मुकदमा नहीं कर सकती। न्यायालय द्वारा यह माना गया था कि प्रतिफल देने वाला अजनबी मुकदमा कर सकते हैं।

नैराश्य (फ्रस्ट्रेशन) का सिद्धांत

अनुबंध के प्रदर्शन की असंभवता का सिद्धांत यह दर्शाता है कि जब अनुबंध का प्रदर्शन किसी अप्रत्याशित घटना के कारण असंभव हो जाता है, तो अनुबंध को नैराश्य कहा जाता है। असंभवता दो प्रकार की हो सकती है; प्रारंभिक और अनुवर्ती (सब्सीक्वेंट)। प्रारंभिक असंभवता का अर्थ है कि समझौते के गठन के समय, कार्य असंभव था यानी शुरू से ही असंभव था। अनुवर्ती असंभवता का मतलब है कि अनुबंध के गठन के समय, कार्य करना संभव था लेकिन अनुबंध के गठन के बाद कुछ घटनाओं के कारण कार्य बाद में असंभव हो गया।

अंग्रेजी कानून में स्थिति

इंग्लैंड में, पैराडाइन बनाम जेन (1647) में ‘पूर्ण अनुबंध सिद्धांत’ निर्धारित किया गया था, जिसमें निर्धारित किया गया था कि एक बार अनुबंध किए जाने के बाद, इसे निष्पादित किया जाना चाहिए और परिस्थितियों में बाद के बदलाव से पहले से किए गए अनुबंध पर कोई प्रभाव नहीं पड़ना चाहिए। इसके बाद, टेलर बनाम कैल्डवेल (1863) में इस नियम को बदल दिया गया और अदालत ने ‘निहित शब्द का सिद्धांत’ तैयार किया। यह इंगित करता है कि एक निहित शर्त को अनुबंध में पढ़ा जाएगा जब अनुबंध का प्रदर्शन असंभव हो जाता है। मामले के संक्षिप्त तथ्य इस प्रकार हैं:

  • इस मामले में, प्रतिवादी वादी को एक संगीत कार्यक्रम के लिए अपने संगीत हॉल का उपयोग करने के लिए सहमत हुआ।
  • संगीत कार्यक्रम शुरू होने से पहले हॉल आग से नष्ट हो गया था।
  • न्यायालय द्वारा यह माना गया था कि प्रत्येक अनुबंध में हमेशा एक निहित शब्द होता है कि यदि अनुबंध का प्रदर्शन असंभव हो जाता है, तो पक्षों को इस मामले में माफ कर दिया जाएगा और अनुबंध के गैर-प्रदर्शन के लिए उत्तरदायी नहीं ठहराया जाएगा।

क्रेल बनाम हेनरी (1903) में, नैराश्य की अवधारणा न केवल शारीरिक असंभवता तक सीमित थी, बल्कि उन मामलों में भी विस्तारित थी जहां पक्षों के दिमाग में जो उद्देश्य थी वह वास्तविक रूप लेने में विफल रहा। मामले के संक्षिप्त तथ्य इस प्रकार हैं:

  • प्रतिवादी ने राजा के राज्याभिषेक जुलूस को देखने के लिए एक फ्लैट किराए पर लिया।
  • राजा की बीमारी के कारण जुलूस रद्द कर दिया गया था।
  • यह माना गया था कि अनुबंध का वास्तविक उद्देश्य, जैसा कि दोनों पक्षों द्वारा मान्यता प्राप्त है, विफल रहा। इसलिए, अनुबंध का उद्देश्य नैराश्य हो गया था और वादी प्रतिवादी से किराए की शेष राशि वसूलने का हकदार नहीं था।

भारतीय कानून में स्थिति

आईसीए, 1860 की धारा 56 में अनुबंध के नैराश्य के सिद्धांत का प्रावधान है। धारा 56 (पहला पैराग्राफ प्रारंभिक असंभवता के बारे में बात करता है) यह बताता है कि कोई भी समझौता जो दोनों पक्ष करते हैं, यह जानते हुए कि अनुबंध में सहमत हुए कार्य को करना असंभव है, तो ऐसा अनुबंध शून्य है।

धारा 56 (दूसरा पैराग्राफ अनुवर्ती असंभवता के बारे में बात करता है) में प्रावधान है कि जब पक्षों  ने समझौते में प्रवेश किया है, और कुछ अप्रत्याशित परिस्थितियां उत्पन्न होती हैं जो या तो अनुबंध के प्रदर्शन को असंभव बनाती हैं या अनुबंध का उद्देश्य गैरकानूनी हो जाता है जिसे पक्षों द्वारा रोका नहीं जा सकता है, तो ऐसा अनुबंध शून्य हो जाता है।

धारा 56 के तहत इस्तेमाल किया गया शब्द “असंभव” भौतिक और व्यावहारिक दोनों असंभवता को शामिल करता है जैसा कि सर्वोच्च न्यायालय ने सत्यब्रत घोष बनाम मुग्नीराम बांगुर (1954) में कहा था। न्यायालय द्वारा यह भी कहा गया था कि ‘निहित शब्द के सिद्धांत’ का भारत में कोई आवेदन नहीं है क्योंकि भारतीय कानून धारा 56 द्वारा शासित है। अंग्रेजी कानून में नैराश्य का दायरा व्यापक है क्योंकि इसमें आकस्मिक स्थितियों की निहित स्थितियों को शामिल किया गया है, जो आईसीए, 1872 की धारा 32 के तहत भारतीय कानून में शामिल एक पहलू है। धारा 56 केवल उस पहलू को शामिल करती है जब अनुबंध के गठन के बाद एक ऐसी स्थिति उत्पन्न होती है, जो इसके आने से अनुबंध के उद्देश्य को पराजित कर रही है। इसलिए इस परिदृश्य में निहित शर्तों की कोई प्रयोज्यता (एप्लीकेबिलिटी) नहीं है।

हर्जाना

अनुबंध का गैर-निष्पादन जिसे कानून द्वारा क्षमा नहीं किया जाता है, वह अनुबंध का उल्लंघन होता है। अनुबंध के उल्लंघन से पीड़ित होने वाले पक्ष हर्जाने के लिए कार्रवाई ला सकता है। ‘हर्जाने’ का अर्थ है पीड़ित पक्ष को हुए नुकसान के लिए धन के रूप में मुआवजा देना। यदि अनुबंध करने के समय दोनों पक्ष अनुबंध के उल्लंघन की स्थिति में देय मुआवजे से सहमत होते हैं तो यह या तो परिसमापन (लिक्विडेशन) हर्जाना या जुर्माना है।

अंग्रेजी कानून में स्थिति

अंग्रेजी कानून के अनुसार, अनुबंध के उल्लंघन के मामले में पक्षों द्वारा भुगतान की जाने वाली राशि दो श्रेणियों में आती है; परिसमापन हर्जाना और जुर्माना। यदि सहमत राशि संभावित नुकसान का वास्तविक पूर्व-अनुमान है, तो इसे परिसमापन हर्जाने के रूप में जाना जाता है। यदि राशि संभावित नुकसान के लिए अत्यधिक असंगत है, तो इसे जुर्माने के रूप में जाना जाता है।

डनलप न्यूमेटिक टायर कंपनी लिमिटेड बनाम न्यू गेराज एंड मोटर कंपनी लिमिटेड (1915) में, हाउस ऑफ लॉर्ड्स ने परिसमापन हर्जाने और जुर्माने के संबंध में निम्नलिखित प्रस्ताव निर्धारित किए:

  • पक्षों की अभिव्यक्ति निर्णायक (डिसाइसिव) नहीं है, और यह पता लगाना न्यायालय का कर्तव्य है कि निर्धारित भुगतान परिसमापन हर्जाना या जुर्माना  है या नहीं।
  • जुर्माने में, हर्जाना आमतौर पर एक उच्च और अनुचित राशि होती है, जबकि परिसमापन क्षति में, नामित राशि क्षति का एक वास्तविक पूर्व-अनुमान है। यह एक अनुबंध के नियमों और शर्तों पर निर्भर करता है कि नामित राशि जुर्माना है या परिसमापन हर्जाना है। 
  • यदि इसे परिसमापन किया जाता है, तो ऐसी स्थिति में, पूरी राशि वसूली योग्य है, लेकिन यदि नामित राशि जुर्माना है, तो पूरी राशि देय नहीं होगी। न्यायालय ऐसे मामलों में उचित मुआवजा देगा।

भारतीय कानून में स्थिति

भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 की धारा 73 और 74 में दो प्रकार के हर्जाने शामिल हैं, अर्थात्, अपरिसमापन हर्जाना और परिसमापन हर्जाना। धारा 73 में कहा गया है कि अनुबंध समाप्त होने की स्थिति में, पीड़ित पक्ष गलत करने वाले पक्ष से, उसे हुए नुकसान के लिए मुआवजे का दावा करने का हकदार है। यह खंड दो आवश्यक शर्तों के साथ आता है। 

  1. सबसे पहले, नुकसान चीजों के सामान्य क्रम में उत्पन्न हुआ होगा।
  2. दूसरा, नुकसान इस तरह का होना चाहिए कि अनुबंध के पक्षों ने इसका अनुमान लगाया होगा।

इसके विपरीत, धारा 74 है, जिसमें दोनों पक्ष किसी भी अनुबंध उल्लंघन की स्थिति में चूककर्ता द्वारा पीड़ित पक्ष को भुगतान की जाने वाली राशि पर पूर्व-प्रतिफल करती हैं। यह धारा जुर्माना या मुआवजे के रूप में ऐसी राशि को संदर्भित करती है। धारा 74 के तहत वास्तविक नुकसान का प्रमाण आवश्यक नहीं है। इस धारा से जुड़े स्पष्टीकरण में यह भी प्रावधान है कि चूककर्ता पक्ष द्वारा अनुबंध के उल्लंघन की तारीख से जुर्माने के रूप में पीड़ित पक्ष को देय ब्याज में वृद्धि की शर्त लगाई जाए। इसलिए, जबकि धारा 73 में अपरिसमापन हर्जाने (अनुबंध में निर्धारित नहीं) का प्रावधान है, धारा 74 परिसमापन हर्जाने (अनुबंध में निर्धारित) से संबंधित है।

आईसीए, 1872 की धारा 74 में परिसमापन  हर्जाने और जुर्माने का प्रावधान है। आईसीए, 1872 की धारा 74 के आवश्यक तत्व इस प्रकार हैं:

  • अनुबंध का उल्लंघन होना चाहिए।
  • अनुबंध में एक राशि का उल्लेख किया जाना चाहिए जो जुर्माने के माध्यम से उल्लंघन या किसी अन्य शर्त पर देय है।
  • वास्तविक नुकसान का प्रमाण आवश्यक नहीं है।
  • उल्लंघन के बारे में शिकायत करने वाला पक्ष दूसरे पक्ष से उचित मुआवजा प्राप्त करने की हकदार है।
  • मुआवजा नामित राशि या जुर्माना से अधिक नहीं होना चाहिए।

इसलिए, यह कोई मायने नहीं रखता है कि नामित राशि परिसमापन हर्जाना या जुर्माना है क्योंकि भारत में दोनों के बीच का अंतर समाप्त हो गया है। इसके अलावा, पक्ष को हुए वास्तविक नुकसान को साबित करना आवश्यक नहीं है। धारा 74 पक्ष को हुए वास्तविक नुकसान का निर्धारण करने की आवश्यकता को समाप्त करती है।

परिसमापन हर्जाने और जुर्माने के बीच अंतर

अंग्रेजी अनुबंध कानून परिसमापन हर्जाने और जुर्माने के बीच अंतर करता है जबकि धारा 74 के तहत भारतीय अनुबंध कानून दोनों के बीच कोई ठोस अंतर नहीं करता है। यदि पक्षों के बीच सहमत राशि संभावित नुकसान का एक वास्तविक पूर्व अनुमान है, तो हम इसे परिसमापन  नुकसान के रूप में कहते हैं, जबकि यदि राशि संभावित नुकसान से अत्यधिक असंगत है, तो इसे जुर्माना कहा जाता है। जबकि पीड़ित पक्ष को मुआवजा प्रदान करने के लिए हर्जाने का उद्देश्य, जुर्माने का उद्देश्य अनुबंध का उल्लंघन करने वाले पक्ष को सजा देना है। परिसमापन  हर्जाने और जुर्माने के बीच अंतर को स्पष्ट करने वाला एक सरल उदाहरण बिजली के बिल है। जब हम बिजली के उपयोग के बिल भुगतान में गलती करते हैं, तो बिल राशि को परिसमापन किया जाता है, जबकि वास्तविक बिल राशि के अलावा उपभोक्ताओं को देर से बिल का भुगतान करने से रोकने के लिए जुर्माना होता है।

अंग्रेजी कानून में स्थिति

इंग्लैंड में, परिसमापन हर्जाने के प्रावधान का मसौदा तैयार करने के लिए विशेष ध्यान रखा जाता है क्योंकि कई बार यदि इस तरह के प्रावधान में अत्यधिक मात्रा में नुकसान निर्धारित होता है, तो इस तरह के नुकसान को जुर्माना खंड होने के आधार पर खारिज कर दिया जाएगा। दूसरे शब्दों में, अंग्रेजी अनुबंध कानून के तहत, एक अनुबंध में उल्लिखित राशि को या तो परिसमापन हर्जाने या जुर्माना माना जा सकता है। यदि राशि संभावित नुकसान का एक उचित और वास्तविक अनुमान है, तो यह वसूली योग्य है और अदालतों द्वारा बरकरार रखा गया है। हालांकि, यदि अनुबंध में उल्लिखित राशि किसी अन्य पक्ष को अनुबंध का उल्लंघन करने से रोकने के उद्देश्य से जोड़ी जाती है और राशि अनुमानित नुकसान से अत्यधिक है, तो इस तरह के खंड को अदालतों द्वारा रद्द कर दिया जाता है। इस प्रकार, अंग्रेजी अदालतें पक्षों को परिसमापन  हर्जाने के रूप में अनुबंधों में जुर्माना खंड जोड़ने से मना करती हैं।

भारतीय कानून में स्थिति

भारतीय अदालतें परिसमापन  हर्जाने और जुर्माने के संबंध में कोई अंतर नहीं करती हैं। भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 की धारा 74 में परिसमापन  हर्जाने और जुर्माना दोनों अभिव्यक्तियों का इस प्रकार उपयोग किया गया है ताकि दोनों के बीच कोई स्पष्ट अंतर न हो। जहां अनुबंध हर्जाने की मात्रा पर मौन हैं, अदालतें प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों पर प्रतिफल करने के बाद नुकसान का निर्धारण करती हैं। अदालतें अनुबंध में उल्लिखित मुआवजे से अधिक मुआवजा नहीं दे सकती हैं, लेकिन वे नुकसान के रूप में कम राशि दे सकते हैं।

यदि किसी मामले में प्रतिवादी साबित करता है कि वादी को कोई नुकसान नहीं हुआ था, तो कोई हर्जाना नहीं दिया जाता, भले ही वे समाप्त हो जाएं। हालांकि संविदात्मक दायित्वों का उल्लंघन हो सकता है, लेकिन इसके परिणामस्वरूप वादी को परिसमापन  क्षति/जुर्माना नहीं दिया जा सकता है यदि इस तरह के उल्लंघन के कारण कोई वास्तविक नुकसान नहीं हुआ था। इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन बनाम मेसर्स लॉयड्स स्टील इंडस्ट्रीज लिमिटेड (2007) के मामले में भी ऐसा ही हुआ था, जहां अदालत ने यह स्पष्ट कर दिया था कि परिसमापन  नुकसान का दावा केवल इस आधार पर नहीं किया जा सकता है कि उन्हें अनुबंध में उल्लेख मिलता है। वास्तविक हानि की घटना होनी चाहिए।

क्षतिपूर्ति (इंडेमनिटी)

अंग्रेजी कानून में स्थिति

‘क्षतिपूर्ति’ शब्द का अर्थ है कुछ स्थितियों में दूसरे के नुकसान को पूरा करना। यह एक अनुबंध है जिसमें एक पक्ष दूसरे पक्ष से किसी भी नुकसान की भरपाई करने का वादा करता है जो या तो स्वयं वचनकर्ता (प्रॉमिसर) के आचरण से या किसी अन्य व्यक्ति के आचरण से उत्पन्न होता है। अंग्रेजी कानून में, क्षतिपूर्ति का दायरा और परिभाषा भारत में क्षतिपूर्ति की तुलना में व्यापक है। इसमें आग, प्राकृतिक परिणामों आदि जैसी दुर्घटनाओं से होने वाले नुकसान के मामलों को भी शामिल किया गया है। जीवन बीमा को छोड़कर बीमा का प्रत्येक अनुबंध अंग्रेजी कानून के तहत क्षतिपूर्ति का अनुबंध है।

भारतीय कानून में स्थिति

आईसीए, 1872 की धारा 124 ‘क्षतिपूर्ति के अनुबंध’ से संबंधित है। क्षतिपूर्ति का अनुबंध दो पक्षों अर्थात् क्षतिपूर्तिकर्ता (इंडेमनीफायर) और क्षतिपूर्तिधारक (इंडेमनिटी होल्डर) के बीच एक अनुबंध है, जिसमें हानि का होना आकस्मिकता है जिस पर क्षतिपूर्तिकर्ता की देयता निर्भर है।

भारतीय कानून के तहत, क्षतिपूर्ति की अवधारणा केवल उन मामलों तक सीमित है जहां नुकसान या तो स्वयं या किसी अन्य व्यक्ति द्वारा किया जाता है। आईसीए, 1872 की धारा 124 के तहत भारतीय कानून की यह परिभाषा आग, प्राकृतिक परिणामों आदि जैसी दुर्घटनाओं से उत्पन्न होने वाले नुकसान को इसके दायरे में शामिल नहीं करती है। भारतीय कानून में क्षतिपूर्ति का दावा करने का नुकसान केवल मानवीय हस्तक्षेप के कारण होना चाहिए। इसलिए, भारत में, बीमा के अनुबंध आकस्मिक अनुबंध के तहत शामिल किए जाते हैं, ना कि क्षतिपूर्ति के अनुबंध के तहत। अंग्रेजी कानून में क्षतिपूर्ति किसी भी कारण से उत्पन्न नुकसान को शामिल करने के लिए पर्याप्त व्यापक है।

निष्कर्ष 

इसलिए, भारतीय अनुबंध कानून अंग्रेजी अनुबंध कानून से उपर्युक्त बिंदुओं पर भिन्न है। भारतीय अनुबंध कानून वर्ष 1872 में लागू हुआ और बदलते समय के साथ, भारतीय संविदा अधिनियम का भी पुनर्मूल्यांकन किए जाने की आवश्यकता है और कुछ प्रावधानों में परिवर्तन किया जाना चाहिए। उदाहरण के लिए, कोविड-19 के दौरान, भारतीय न्यायालयों ने अनुबंधों को फोर्स मेजोर के रूप में माना जहां दोनो पक्ष ही स्थिति के कारण अनुबंध को पूरा करने में विफल रहे है, न कि निराशा के सिद्धांत के रूप में माना। इसके पीछे कारण यह था कि भारतीय कानून में “निहित शब्द के सिद्धांत” की ऐसी कोई अवधारणा नहीं है। हम दिन-प्रतिदिन के आधार पर विभिन्न प्रकार के अनुबंधों और वार्ताओं से निपटते हैं। इसलिए, समय के साथ कानून को अनुबंध में प्रवेश करने वाले पक्षों के लिए एक सुचारू प्रक्रिया बनाने के लिए भी विकसित होना चाहिए।

संदर्भ

 

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