भारत में अबॉर्शन कानूनों पर एक महत्वपूर्ण एनालिसिस

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Medical Termination of Pregnancy Act
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इस अतिथि पोस्ट में, Saurabh Kumar भारतीय अबॉर्शन कानूनों की आलोचना (क्रिटिसिज्म) करते हैं। इस लेख का अनुवाद Sakshi Gupta द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय (इंट्रोडक्शन)

यह लेख भारत के अबॉर्शन कानूनों को समझने का एक प्रयास करता है। इसका उद्देश्य निम्नलिखित शोध (रिसर्च) प्रश्नों की सहायता से इन कानूनों की आलोचना करना है-

प्रो-चॉइस आंदोलन का इतिहास

“प्रो-चॉइस” आंदोलन एक वाक्यांश है जिसका उपयोग किसी महिला के गर्भावस्था (प्रेगनेंसी) को जारी रखने के शारीरिक अधिकार का वर्णन (डिस्क्राइब) करने के लिए किया जाता है या इसे समाप्त करने के लिए चिकित्सा प्रक्रियाओं का उपयोग करने के लिए किया जाता है। ऐसी चिकित्सा प्रक्रियाओं को कानूनी रूप से अनुमोदित और चिकित्सकीय रूप से सुरक्षित होना चाहिए। 450 बी.सी. में अबॉर्शन का प्रचलन (प्रीवेलेंट) था, जैसा कि हाइपोक्राइट्स के कार्यों से पता चलता है। 4 शताब्दी ए.डी. में, अबॉर्शन की अनुमति केवल गर्भावस्था के पहले 3 महीनों तक ही दी जाती थी। मध्य युग (मिडिल ऐज) में और 1900 के दशक तक, कई देशों में कानूनी रूप से अबॉर्शन की अनुमति नहीं थी। उदाहरण के लिए, इंग्लैंड ने 1869 में “ऑफेंस अगेंस्ट द पर्सन्स एक्ट” नामक एक कानून बनाया, जिसने किसी भी कारण से अबॉर्शन को गैरकानूनी घोषित कर दिया था।

1920 में कई कानूनी आधारों पर गर्भावस्था की समाप्ति की अनुमति देने वाला पहला देश यूनियन ऑफ़ सोवियत सोशलिस्ट रिपब्लिक (यूएसएसआर) था। नाजी जर्मनी ने चयनात्मक (सिलेक्टिव) अबॉर्शन का अभ्यास किया, जैसा कि 1933 के कानून में देखा गया था, जिसे “लॉ फॉर द प्रिवेंशन ऑफ प्रोजेनी विथ हेरेडेटरी डिसीज” कहा जाता है, जिसका उपयोग विकलांग बच्चों को समाप्त करने के लिए किया गया था। 1948 में जापान और 1950 के दशक में कई यूरोपीय देशों ने इनका पालन किया था। दिलचस्प बात यह है कि ब्रिटेन ने 1967 में अपने रुख (स्टैंड) को उलट दिया और अबॉर्शन की अनुमति देना शुरू कर दिया था। अमेरिका में अबॉर्शन के अधिकारों का खंडित (फ्रैक्चर्ड) इतिहास है। 1950 के दशक में, अमेरिका में चिकित्सा समुदाय (कम्युनिटी) ने “नियोजित पितृत्व (प्लैंड पैरेंटहुड)” जो अबॉर्शन का वर्णन करने के लिए एक सूक्ष्म (सटल) पर्यायवाची (सिनोनिम) है, पर चर्चा करना शुरू कर दिया था। इसने अमेरिकी कानूनी संस्थान (इंस्टीट्यूट) के लिए यह दलील दी कि 1959 में बलात्कार के अलावा अन्य मामलों में अबॉर्शन को कानूनी रूप से अनुमति दी जानी चाहिए। 1960 के दशक में, मिसिसिपी, कैलिफ़ोर्निया और कोलोराडो अबॉर्शन की अनुमति देने वाले पहले राज्य बन गए थे। हालांकि, 1970 के दशक तक, 50 में से केवल 16 राज्यों ने अबॉर्शन अधिकार आंदोलन का समर्थन किया था। बाद में 1973 में रो बनाम वेड में अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के फैसले के कारण, राष्ट्रीय स्तर पर अबॉर्शन की अनुमति दी गई थी। हालांकि, यह “प्रो-लाइफ” समूहों (ग्रुप्स) और अमेरिका में अबॉर्शन लॉबी के बीच एक राजनीतिक और कानूनी घर्षण (फ्रिक्शन) का कारण बना था।

अबॉर्शन से संबंधित वर्तमान आंकड़े

विश्व की वर्तमान जनसंख्या का लगभग 60% उन देशों में निवास करता है, जहाँ अपेक्षाकृत उदार पैमाने (रिलेटिवली लिबरल स्केल) पर “प्रेरित (इंड्यूस्ड) अबॉर्शन”, यानी इरादे से अबॉर्शन की अनुमति है। लेकिन, दुनिया की आबादी का लगभग एक चौथाई (¼) हिस्सा उन जगहों पर रहता है जहां एक महिला की जान जोखिम में होने पर “प्रेरित अबॉर्शन” पर पूरी तरह से प्रतिबंध (रिस्ट्रिक्शन) लगा दिया जाता है या कम से कम अनुमति दी जाती है। कभी-कभी, उस देश के कानून द्वारा अबॉर्शन की अनुमति नहीं दी जाती है, लेकिन डॉक्टर “प्रेरित अबॉर्शन” के कार्यों को कम करने के लिए चिकित्सा मानदंडों (नॉर्म्स) और नैतिकता (एथिक्स) का हवाला देते हैं।

दुनिया भर में एकत्र (कलेक्ट) किए गए चिकित्सा आंकड़ों के अनुसार, वर्ष 2010-2014 के बीच सभी गर्भावस्था में से 25% का अबॉर्शन हुआ है। हालांकि, चिकित्सा अपर्याप्तता (इनेडिक्वेसीज) और कानूनी प्रतिबंधों के कारण, उनमें से केवल आधे का ही सुरक्षित चिकित्सा स्थितियों में प्रदर्शन किया जाता है। प्रत्यक्ष (डायरेक्ट) परिणाम के रूप में, लगभग ½ लाख महिलाएं अपनी जान गंवाती हैं और 5 मिलियन महिलाएं जीवन भर के लिए विकलांग हो जाती हैं। उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार, 2010-2014 के बीच 180 से अधिक देशों में 56 मिलियन विषम (ऑड) अबॉर्शनों में से केवल 55% ही सुरक्षित तरीके से आयोजित (कंडक्ट) किए गए थे। इनमें से बाकी असुरक्षित परिस्थितियों में हुऐ थे, जिनमें से लगभग ¾  का परिणाम अबॉर्शन करने वाली मां की मृत्यु हो सकता था।

वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गेनाइजेशन (डब्ल्यूएचओ) ने बार-बार अबॉर्शन की कानूनी मंजूरी मांगी है क्योंकि नियामक ढांचा (रेगुलेटरी फ्रेमवर्क) महिलाओं की शारीरिक सुरक्षा सुनिश्चित करता है। उदाहरण के लिए, लगभग 60 देशों में जहां अबॉर्शन कानून उदार रहे हैं, वहा 90% से अधिक अबॉर्शन पूरी तरह से सुरक्षित परिस्थितियों में किए जाते हैं। यह अपेक्षाकृत अबॉर्शन कानूनों वाले लगभग 60 विकासशील (डेवलपिंग) देशों के ठीक विपरीत है, जहां सभी अबॉर्शनों में से केवल आधे सुरक्षित परिस्थितियों में किए गए थे, जबकि उन देशों में जहां अबॉर्शन की अधिकतर अनुमति नहीं है, सभी अबॉर्शनों में से केवल एक चौथाई (¼) सुरक्षित रूप से किए जाते हैं। भारत में, अबॉर्शन कराने वाली माताओं में मृत्यु दर अधिक है। लगभग 3,500 महिलाओं की सालाना अबॉर्शन प्रक्रियाओं के कारण मृत्यु हो जाती है, हर दूसरी अबॉर्शन प्रक्रिया असुरक्षित परिस्थितियों में की जाती है। इन मौतों को एक बेहतर नियामक ढांचे से रोका जा सकता है।

भारत में अबॉर्शन के लिए कानूनी ढांचा

औपनिवेशिक (कोलोनियल) विरासत (लिगेसी) और 1869 से 1967 के बीच ग्रेट ब्रिटेन में अबॉर्शन को गैरकानूनी घोषित करने के कारण, इंडियन पीनल कोड (भारतीय दंड संहिता) (आईपीसी) की धारा 312 को अबॉर्शन के एक प्रेरित किए हुए कार्य के रूप में अस्वीकार कर दिया गया है। हालांकि, आजादी के बाद चीजें काफी बदल गईं। 1952 में, भारत ने अपनी बढ़ती जनसंख्या को रोकने के लिए परिवार नियोजन कार्यक्रम (फेमिली प्लैनिंग प्रोग्राम) शुरू किया था। 1964 में, केंद्रीय योजना आयोग (सेंट्रल प्लैनिंग कमिशन) ने एक समिति (कमिटी) का गठन किया – महाराष्ट्र राज्य के स्वास्थ्य मंत्री श्री शांतिलाल शाह के नेतृत्व (लीडरशिप) में, आईपीसी में बदलाव लाने की आवश्यकता पर गौर करने के लिए और अन्य आवश्यक कानून पेश करने से निपटने के लिए किया था। समिति ने 1966 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की, जिसमें आईपीसी की धारा 312 को हटाने और गर्भावस्था की समाप्ति से निपटने के लिए एक विशेष कानून लाने की आवश्यकता थी। उन्होंने भारत के अबॉर्शन कानूनों को बदलने की आवश्यकता का समर्थन करने के लिए ग्रेट ब्रिटेन के अबॉर्शन कानूनों में बदलाव का हवाला दिया। नतीजतन, अबॉर्शन से संबंधित एक विशेष कानून – मेडिकल टर्मिनेशन ऑफ प्रेग्नेंसी एक्ट (एमटीपी), 1971 अस्तित्व में आया था।

जम्मू-कश्मीर को छोड़कर देश के सभी हिस्सों में एमटीपी एक्ट लागू है। यह अबॉर्शन की अनुमति देने के लिए कड़े नियमों का पालन करता है। उदाहरण के लिए, केवल पंजीकृत (रजिस्टर्ड) चिकित्सक, जिन्हें इंडियन मेडिकल काउंसिल एक्ट, 1956 की धारा 2(h) के तहत अनुमोदित किया गया है, प्रेरित अबॉर्शन के माध्यम से गर्भवस्था को समाप्त कर सकते हैं। यह केवल स्त्री रोग विशेषज्ञों (गाइनाकोलॉजिस्ट) या प्रसूति विशेषज्ञों (ऑब्सटेट्रिक स्पेशलिस्ट) को गर्भवस्था की समाप्ति के कार्य करने की अनुमति देता है। एमटीपी एक्ट केवल एक पंजीकृत चिकित्सा विशेषज्ञ के अनुमोदन से 3 महीनों से पहले गर्भवस्था को समाप्त करने की अनुमति देता है। लेकिन, अगर गर्भावस्था की अवधि 5 महीने को पार कर गई है, तो कम से कम 2 चिकित्सा विशेषज्ञों के अनुमोदन की जरूरत है। 5 महीने की अवधि बीत जाने की स्थिति में, एमटीपी एक्ट की धारा 3 के तहत निम्नलिखित आधारों पर समाप्ति का अनुमोदन दिया जाता है – यौन उत्पीड़न (सेक्शुअल हैरेसमेंट) के कार्य से गर्भित संतान, उसके जन्म से पहले किसी भी विकलांगता से पीड़ित बच्चे का पता चला, मां का जीवन  जोखिम में है आदि। एमटीपी एक्ट 18 वर्ष से कम आयु के बच्चों के मामलों में उनके माता-पिता या कानूनी रूप से अनुमोदित अभिभावक (गार्डियन) की सहमति से गर्भवस्था के प्रेरित अबॉर्शन की अनुमति देता है। इसी तरह, विकृत दिमाग (अनसाउंड माइंड) वाले व्यक्तियों के मामले में, प्रेरित अबॉर्शन के लिए माता-पिता या कानूनी रूप से अनुमोदित अभिभावक की सहमति की आवश्यकता होती है।

एमटीपी एक्ट को वर्षों से कई नियमों और विनियमों (रेगुलेशन) के साथ पूरक (कॉम्प्लीमेंट) किया गया है। उदाहरण के लिए, 2003 में केंद्र सरकार “एमटीपी विनियम” के साथ आई थी, जिसका पालन सभी केंद्र शासित (एडमिनिस्टर्ड) प्रदेशों या यूनियन टेरिटरीज (यूटी) में किया जाना है। ऊपर दिए हुए नियमों के अनुसार, सभी पंजीकृत चिकित्सक प्रैक्टिशनर (आरएमपी) को अबॉर्शन रिकॉर्ड बनाए रखना होगा और उन्हें मुख्य चिकित्सा अधिकारी (सीएमओ) को जमा करना होगा। केंद्र सरकार ने राज्यों से अबॉर्शन प्रक्रियाओं को विनियमित करने के लिए सूट का पालन करने और समान कानूनों को बनाने के लिए कहा था। केंद्र सरकार कॉम्प्रिहेंसिव अबॉर्शन केयर (सीएसी) ट्रेनिंग एंड सर्विस डिलीवरी गाइडलाइंस, 2010 को भी लेकर आई, जिसे 2014 में अमेंडमेंट संशोधित गया है। इसका उद्देश्य चिकित्सकीय प्रैक्टिसनर्स और कर्मचारियों को अनिर्धारित (अनप्रेस्क्राइबड) प्रेरित अबॉर्शन प्रथाओं से माताओं की मौत पर रोक लगाने के लिए प्रशिक्षित (ट्रेन) करना है। प्री-कंसेप्शन एंड प्री-नेटल डायग्नोस्टिक टेक्नीक्स (प्रोहिबीशन ऑफ सेक्स सिलेक्शन) (पीसीपीएनडीटी) एक्ट, 1994 का उपयोग अबॉर्शन कानूनों और विनियमों के पूरक (सप्लीमेंट) के लिए किया गया है ताकि यह सुनिश्चित (एंश्योर) किया जा सके कि अवैध रूप से प्रेरित अबॉर्शन के माध्यम से बालिकाओं की मृत्यु पर ध्यान दिया जाए और भविष्य इससे बचा जा सके।

अबॉर्शन के उपायों के बारे में जनता के लिए जानकारी

एक एनजीओ, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ पॉपुलेशन स्टडीज (आईआईपीएस) ने अबॉर्शन प्रक्रियाओं और भारत में कानूनो के बारे में 18-24 वर्ष की आयु के युवाओं के बीच जागरूकता के स्तर के बारे में पता लगाने के लिए 7 दक्षिण भारतीय और उत्तर भारतीय राज्यों में एक सर्वेक्षण (सर्वे) किया था।

उन्होंने पाया कि जब प्रेरित अबॉर्शन करने के लिए चिकित्सक साधनों के बारे में जानकारी मिली तो दक्षिणी भारत के राज्य अधिक जागरूक थे, सर्वेक्षण में लगभग एक तिहाई (⅓) पुरुष और आधी महिलाएं शामिल थी। यह भी पाया गया कि सर्वेक्षण में शामिल 75% से अधिक पुरुषों और महिलाओं को पता था कि लिंग निर्धारण (डिटरमिनेशन) और परिणामी अबॉर्शन गैरकानूनी है। ऐसा लगता है कि भारत सरकार के लिंग निर्धारण परीक्षणों और परिणामी अबॉर्शन का मुकाबला करने का प्रयास कुछ हद तक सफल रहा है। सर्वेक्षण में शामिल पुरुषों में से लगभग 2/3 और सर्वेक्षण में शामिल महिलाओं में से 3/4 महिलाओं को भारत में कानूनी रूप से अबॉर्शन करने के 20 सप्ताह के मानदंड (नॉर्म्स) के बारे में पता था। हालांकि, सर्वेक्षण में शामिल 40% से कम पुरुषों और लगभग 45% महिलाओं को पता था कि अविवाहित महिलाओं को कानूनी रूप से प्रेरित अबॉर्शन का विकल्प चुनने की अनुमति दी जा रही है। सर्वेक्षण में शामिल पुरुषों और महिलाओं में से केवल 1/4 को ही पता था कि विवाहित महिलाओं को कानूनी रूप से प्रेरित अबॉर्शन का विकल्प चुनने की अनुमति है। यह भी पाया गया कि विवाहित युवा और शहरी क्षेत्रों के लोग अपने अविवाहित और ग्रामीण समकक्षों (काउंटरपार्ट्स) की तुलना में अबॉर्शन के अधिकारों और तरीको के बारे में अधिक जागरूक थे। इसी तरह, दक्षिण भारत और महाराष्ट्र में युवा अपने यौन अधिकारों, अबॉर्शन के अधिकारों और तरीकों के साथ-साथ यौन संचारित रोगों (सेक्शुअली ट्रांसमिटेड डिसीज) (एसटीडी) और उन्हें रोकने के तरीकों और साधनों के बारे में अधिक जागरूक थे।

भारत के अबॉर्शन कानूनों के साथ समस्याएं और सुझाए गए उपचारात्मक उपाय (प्रोब्लम विथ इंडियाज अबॉर्शन लॉज एंड सजेस्टेड रेमेडियल मेजर्स)

अबॉर्शन से संबंधित भारतीय कानून, जबकि अपने इरादों और उद्देश्य में नोवेल, प्रक्रियात्मक और कानूनी बाधाओं से ग्रस्त है जो इसके आवेदन (एप्लीकेशन) को समस्याग्रस्त बनाते हैं और नीचे वर्णित अप्रिय (अनप्लीजेंट) परिणाम पैदा करते हैं-

  • अधिक कीमत वाली दवाएं

अबॉर्शन के दो तरीके हैं- या तो सर्जिकल उपकरणों (टूल्स) के माध्यम से या दवाओं की मदद से। इन दवाओं का उपयोग या तो मौखिक रूप से या योनि (वजाइना) के माध्यम से एक अजन्मे भ्रूण को समाप्त करने के लिए किया जाता है। कई मामलों में, लागत (कॉस्ट) और अन्य स्वास्थ्य संबंधी चिंताओं के कारण, महिलाएं डॉक्टरों द्वारा वितरित (डिस्बर्सड) मौखिक दवाओं के लिए जाती हैं। ये डॉक्टर अक्सर स्त्री की अज्ञानता और लाचारी का अनुचित लाभ उठाकर इन गर्भनिरोधक दवाओं को अत्यधिक कीमतों पर बेचते हैं। एमटीपी एक्ट, जन्म नियंत्रण सुनिश्चित करने के अपने प्रयास में, डॉक्टरों को व्यापक (वाइड) अधिकार देता है, जिसका डॉक्टरों द्वारा अपनी जेब भरने के लिए नियमित रूप से दुरुपयोग किया जाता है। इसलिए, यह सुनिश्चित करना समय की आवश्यकता है कि गर्भवस्था की चिकित्सा समाप्ति के लिए उपयोग की जाने वाली मौखिक या योनि गोलियों को अनिवार्य रूप से आवश्यक दवाओं की राष्ट्रीय सूची (लिस्ट) में शामिल किया जाना चाहिए, जिन्हें एक महिला की सुविधा के लिए सरकार द्वारा अनुमोदित सस्ती कीमतों पर अनिवार्य रूप से बेचा जाना है।

  • पीसीपीएनडीटी एक्ट का दुरुपयोग

पीसीपीएनडीटी एक्ट गर्भावस्था को समाप्त करने के लिंग-चयनात्मक कार्यों को प्रतिबंधित करता है। यह सोनोग्राफी और अन्य आधुनिक (मॉडर्न) तकनीक के दुरुपयोग के कारण अजन्मे बच्चे के लिंग का निर्धारण करने और बालिकाओं के मामलों में समय से पहले अबॉर्शन कराने के कारण था। हाल ही में, पीसीपीएनडीटी एक्ट का गलत तरीके से लॉ एनफोर्समेंट एजेंसियों द्वारा सभी अबॉर्शन पर रोक लगाने के लिए इस्तेमाल किया गया है क्योंकि उन्हें लगता है कि सामान्य रूप से अबॉर्शन पर रोक लगाने से, वे उन बच्चियों को बचाने में सक्षम होंगे जिन्हें जन्म के समय नियमित रूप से समाप्त किया जा रहा है। पीसीपीएनडीटी एक्ट के तहत मुकदमा चलाने की संभावना के कारण डॉक्टर भी अबॉर्शन से सावधान हैं, जो अपराधियों के लिए कठोर सजा देता है। पीसीपीएनडीटी और एमटीपी एक्ट के बीच “संघर्ष” निर्मित (मैन्युफैक्चर्ड) लगता है। पीसीपीएनडीटी किसी भी चिकित्सीय कार्रवाई जो एक अजन्मे बच्चे के लिंग का निर्धारण करने के लिए होती है, को गैरकानूनी घोषित करता है। यदि कोई व्यक्ति अजन्मे बच्चे के लिंग के इस तरह के निर्धारण पर कार्य करता है और गर्भावस्था को समाप्त कर देता है क्योंकि बच्चे का लिंग महिला था, तो ऐसी कार्रवाई पर मुकदमा चलाया जाता है, और अपराध करने वाले व्यक्ति और डॉक्टर और अन्य चिकित्सा पेशेवर को सजा दी जाती है। दूसरी ओर, एमटीपी एक्ट, बलात्कार से प्रेरित गर्भावस्था, माँ की जान जोखिम में होने, विकलांगता से पीड़ित बच्चे आदि के आधार पर अजन्मे बच्चों के अबॉर्शन की अनुमति देता है, चाहे वह पुरुष हो या महिला। एमटीपी एक्ट का मूल उद्देश्य पीसीपीएनडीटी एक्ट से बहुत अलग है। जबकि पहले वाला एक्ट अबॉर्शन के वास्तविक मामलों की सहायता करने में मदद करते हैं, बाद वाले एक्ट का उद्देश्य लिंग निर्धारण और लिंग-चयनात्मक अबॉर्शन को रोकना है, एमटीपी एक्ट बच्चे के लिंग निर्धारण की अनुमति नहीं देता है। इस प्रकार, लॉ एनफोर्समेंट एजेंसियों के लिए दोनों कानूनों के पीछे के उद्देश्य को समझना और उसके अनुसार इसे लागू करना अनिवार्य है।

  • पोक्सो और एमटीपी के बीच संघर्ष

एमटीपी एक्ट नाबालिगों को उनके कानूनी अभिभावकों की सहमति से अपनी गर्भवस्था को समाप्त करने की अनुमति देता है। यह गुमनामी (एनोनिमिटी) सुनिश्चित करने और गर्भावस्था को समाप्त करने की प्रक्रिया में तेजी लाने के लिए है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि स्वास्थ्य संबंधी जटिलताएं (कॉम्प्लिकेशन) नाबालिग को प्रभावित न करें। दूसरी ओर, पोक्सो एक्ट, नाबालिगों की गर्भावस्था को समाप्त करने में भाग लेने वाले डॉक्टरों के लिए लॉ एनफोर्समेंट अथॉरिटीज को नाबालिगों के गर्भवती होने के ऐसे मामलों की रिपोर्ट करना कानूनी रूप से अनिवार्य बनाता है। यदि डॉक्टर इसकी रिपोर्ट नहीं करता है और अबॉर्शन की प्रक्रिया को आगे बढ़ाता है, तो उस पर कानूनी रूप से मुकदमा भी चलाया जा सकता है। नतीजतन, नाबालिग पंजीकृत डॉक्टरों के पास जाना पसंद नहीं करते हैं और झोलाछाप डॉक्टरों या अन्य चिकित्सा सेवा प्रदाताओं (प्रोवाइडर्स) के पास जाते हैं जो असुरक्षित तरीके से अबॉर्शन कर सकते हैं। यह एमटीपी एक्ट के पूरे उद्देश्य को विफल करता है जो प्रेरित अबॉर्शन प्रक्रिया से गुजर रही महिलाओं की पहचान की रक्षा करना चाहता है। भारत में स्थिति और भी विकट है क्योंकि सभी दुल्हनों में से लगभग आधी नाबालिग हैं, जिन्हें किशोर (टीनेज) गर्भावस्था को समाप्त करने के लिए सर्वोत्तम (बेस्ट) कानूनी सेवाओं तक पहुंच नहीं मिलती है या असुरक्षित सर्जरी से गुजरने के कारण उन्हें अपने जीवन और अंग को जोखिम में डालना पड़ता है। इसलिए, एमटीपी एक्ट और पोक्सो एक्ट के बीच इस घर्षण को देखने और इससे छुटकारा पाने की आवश्यकता है क्योंकि यह बहुत सारी युवतियों के जीवन को जोखिम में डाल रहा है। भारत, कन्वेंशन ऑन राइट्स ऑफ चाइल्ड (सीआरसी) का एक पक्ष है, जो बच्चों के कल्याण को देखने के लिए 1992 में यूनाइटेड नेशन द्वारा बनाया गया एक कानूनी साधन है। सीआरसी के अनुसार, बच्चों को किसी भी यौन गतिविधि का हिस्सा नहीं बनने देना चाहिए जो जानबूझकर या स्वाभाविक नहीं है। यह बच्चों को यौन रैकेट और यौन शिकारियों (प्रीडेटर्स) से बचाने के लिए है। लेकिन, सीआरसी ने यह सुझाव नहीं दिया कि बच्चों की यौन स्वायत्तता (ऑटोनोमी) को पूरी तरह से बंद कर देना चाहिए। इसने केवल बच्चों को यौन शोषण से बचाने की कोशिश की है। बलात्कार से निपटने के लिए भारत की आपराधिक न्याय प्रणाली (सिस्टम) में अमेंडमेंट पर 2012 में जस्टिस वर्मा समिति ने अपनी अंतिम रिपोर्ट में भी इसका हवाला दिया था। उन्होंने पोक्सो के प्रावधानों का मुकाबला करने के लिए सीआरसी के आर्टिकल 34 का हवाला दिया था, जिसमें नाबालिगों से जुड़ी किसी भी यौन गतिविधि को गैरकानूनी घोषित किया गया था। इसलिए, कम से कम कानूनी प्रतिरोध के साथ किशोर गर्भवस्था को समाप्त करने के लिए पर्याप्त स्तर की गोपनीयता (सिक्रेसी) के साथ नाबालिगों के बीच सहमति से यौन गतिविधि की अनुमति देने के लिए पॉक्सो एक्ट में तत्काल अमेंडमेंट की आवश्यकता है।

  • पर्याप्त डॉक्टरों की कमी

भारत में अबॉर्शन की बढ़ती जरूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त संख्या में पंजीकृत और प्रशिक्षित चिकित्सकों की कमी है। इसके परिणामस्वरूप गर्भवती महिलाओं को असुरक्षित अबॉर्शन प्रक्रियाओं के लिए जाना पड़ता है, जिससे सालाना लगभग 4000 मौतें होती हैं। आयुष प्रैक्टिशनर्स, सहायक नर्सों को अबॉर्शन का विकल्प चुनने वाली गर्भवती महिलाओं को मौखिक और योनि गोलियों की सलाह देने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है। यह असुरक्षित अबॉर्शन प्रक्रियाओं के कारण होने वाली मौतों की संख्या को कम करने में मदद करेगा और साथ ही अधिक महिलाओं को उचित चिकित्सा सेवाओं का लाभ उठाने में मदद करेगा। जैसा कि 2014 में एमटीपी अमेंडमेंट बिल में सुझाया गया था, यह प्रावधान क्रांतिकारी (रिवोल्यूशनरी) से कम नहीं था। हालांकि, राजनीतिक और प्रशासनिक (एडमिनिस्ट्रेटिव) कारणों से, यह बिल पास नहीं किया गया था।

  • विकलांगता अधिकार आंदोलन के साथ संघर्ष

एमटीपी एक्ट 20 सप्ताह तक अबॉर्शन की अनुमति देता है। यह उल्लेखनीय है कि एमटीपी एक्ट 1970 के दशक में आया था। आज के समय में तकनीको ने बहुत बड़ी प्रगति की है। गर्भावस्था में गर्भवती महिलाओं में दोषों का पता लगाना न केवल संभव है, बल्कि अबॉर्शन की प्रक्रिया भी बहुत अधिक सुव्यवस्थित (स्ट्रीमलाइन्ड) और सुरक्षित हो गई है। हालांकि, एमटीपी एक्ट इन तकनीकी प्रगति को ध्यान में नहीं रखता है, इसलिए कानून का आवेदन सबसे अच्छा रहा है। उदाहरण के लिए, 2008 के एक मामले में, जब एक माँ ने अपने 20 सप्ताह के भ्रूण को अबॉर्शन कराने के लिए बंबई हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाया, जिसकी हृदय की स्थिति का गर्भावस्था में पता चला था, कोर्ट ने एमटीपी एक्ट के अप्रचलन (ऑब्सोलेसीन) के साथ-साथ तकनीकों में प्रगति को ध्यान में रखते हुए, 20 सप्ताह की अवधि के मानदंड के कारण उनके अनुरोध को ठुकराने का निर्णय लिया था।  इसी तरह, 2017 के एक फैसले में, कलकत्ता हाई कोर्ट ने 25 सप्ताह की गर्भावस्था को समान आधार पर समाप्त करने की अनुमति देकर कुछ अलग किया था। इस प्रकार, कोर्ट्स भी कानून के आवेदन में एक समान नहीं रही हैं। इससे पता चलता है कि कानून और उसके आवेदन दोनों पर उचित पाठ्यक्रम (कोर्स) सुधार के साथ विचार करने की आवश्यकता है।  हालांकि, एक बड़ा सवाल यह उठता है कि क्या एमटीपी एक्ट भारत में विकलांगता अधिकार आंदोलन से टकराता है?  ऊपर दिया गया 2008 का मामला निकिता मेहता द्वारा सामना की गई पहेली से संबंधित है। वह 20 सप्ताह के अपने भ्रूण में हृदय दोष का पता लगाने में सक्षम थी, जिसका और पहले से पता नहीं लगाया जा सकता था। दोष लाइलाज था। लाइलाज दोष वाले भ्रूणों के अबॉर्शन की अनुमति देने के खिलाफ एक बड़ा विरोध यह है कि यह ऐसे विशेष रूप से विकलांग बच्चों के अधिकारों में बाधा डालता है। संविधान का आर्टिकल 21 सभी को सम्मान के साथ जीने का अधिकार देता है। हालांकि, जैसा कि कई माता-पिता द्वारा कहा गया है की भारत जैसे देश में वित्तीय (फिस्कल) बाधाओं और सामाजिक दबाव के कारण विशेष रूप से विकलांग बच्चों की देखभाल करना मुश्किल है। भारत को कभी भी विकलांगों के अनुकूल नहीं माना गया है। विकलांगों की अच्छी देखभाल करने के लिए वित्तीय और ढांचागत (इंफ्रास्ट्रक्चरल) साधनों का स्पष्ट अभाव है। वास्तव में, कई वैज्ञानिक और शोधकर्ता यह नहीं समझ पाए हैं कि क्या भ्रूण को जीवित जीव माना जा सकता है? वे यह निर्धारित करने में सक्षम नहीं हैं कि क्या और कब एक भ्रूण अन्य मानवों की तरह भावनात्मक (इमोशनल) और संज्ञानात्मक (कॉग्निटिव) कौशल (स्किल्स) विकसित करना शुरू कर देता है। इस प्रकार, जब तक बेहतर राज्य समर्थन नहीं आता, तब तक लाइलाज बीमारियों वाले अलग-अलग विकलांग भ्रूणों के अबॉर्शन की अनुमति अलग-अलग मामलों के आधार पर दी जा सकती है, जो विकलांगता के स्तर और माता-पिता की इससे निपटने की क्षमता पर निर्भर करता है।

  • कानूनी प्रक्रिया अतिदेय और धीमी है (द लीगल प्रॉसेस आर ओवरड्रान एंड स्लो)

अतीत में ऐसे उदाहरण सामने आए हैं, जहां न्यायपालिका अबॉर्शन याचिकाओं (पेटिशन) के जवाब में अपनी प्रतिक्रिया में कम पाई गई है। उदाहरण के लिए, एक निश्चित मामले में, एचआईवी से पीड़ित एक महिला को एक बच्चे को जन्म देना पड़ा क्योंकि न्यायपालिका ने उसकी याचिका से निपटने में देरी कर दी थी। नतीजतन, 20 सप्ताह की अवधि समाप्त हो गई और प्रेरित अबॉर्शन ने मां और बच्चे दोनों के लिए जोखिम पैदा कर दिया था। इस प्रकार कानूनी प्रणाली को अपने कार्य को एक साथ रखने की आवश्यकता है। अबॉर्शन याचिकाओं के मामलों में, भारत में सुरक्षित और कानूनी रूप से स्वीकार्य अबॉर्शन के लिए 20 सप्ताह की अवधि को ध्यान में रखते हुए सुनवाई की पूरी प्रक्रिया को तेज किया जाना चाहिए। ऐसे मुकदमों में तेजी लाने के लिए एक विशेष बेंच का भी गठन किया जा सकता है।

  • बड़े नीतिगत बदलाव की आवश्यकता है (नीड फॉर मेजर पॉलिसी चेंज)

भारत के अबॉर्शन कानून और प्रक्रियाएं पुरातन (आर्केक) हैं। उनका उद्देश्य जनसंख्या को रोकना और महिलाओं के अधिकारों की गारंटी देना है लेकिन कमियों और प्रतिबंधों से भरे हुए हैं। अबॉर्शन एक गारंटी किया गया अधिकार नहीं है, लेकिन इसे चुनिंदा परिस्थितियों में लिया जा सकता है जैसे कि किसी भी शारीरिक या मनोवैज्ञानिक हानि से पीड़ित बच्चा, बलात्कार का परिणाम गर्भावस्था, किशोर गर्भवती होना आदि। इससे महिलाओं पर बहुत सारे अनुचित प्रतिबंध लग जाते हैं, जिन्हें अवश्य ही दूर किया जाना चाहिए। एक्ट को सुगम (फैसिलिटेटिंग) बनाना चाहिए और प्रतिबंधित नहीं करना चाहिए।

निष्कर्ष (कंक्लूज़न)

इसलिए, निष्कर्ष रूप में, जब भारत के अबॉर्शन कानून वास्तव में महिलाओं-फॉल्क की मुक्ति में मदद करने के लिए हैं, इसके आवेदन और मूल तत्व कुछ गंभीर गलतियों से ग्रस्त हैं। एमटीपी एक्ट को आधुनिक तकनीक और चिकित्सा पद्धतियों के अनुरूप लाने के लिए इसे अपडेट करने की आवश्यकता है। एमटीपी एक्ट के साथ टकराव को दूर करने के लिए पॉक्सो एक्ट में भी अमेंडमेंट करने की आवश्यकता है। भारत के चिकित्सा और कानूनी बुनियादी ढांचे में भी सुधार की जरूरत है। इसलिए, सरकार और नागरिक समाज के तत्वों को एक साथ आना और भारत के अबॉर्शन कानूनों और नीति के मूल और कार्यान्वयन (इंप्लीमेंटेशन) तत्वों में सुधार करना समय की मांग है।

संदर्भ (रेफरेंसेस)

  • Vandana Prasad, Contrived Confusions:  No Contradictions Between PCPNDT and MTP Acts, Vol. 50, Issue No. 10 ECONOMIC AND POLITICAL WEEKLY (March 7, 2015).
  • Rathi, Supra note 12.
  • JUSTICE J.S. VERMA COMMITTEE, Report of the Committee on Amendments to Criminal Law, 443-444 (January 23, 2013).
  • Rathi, Supra note 12.
  • Neha Madhiwalla, The Niketa Mehta case: does the right to abortion threaten disability rights?, Vol 5, No 44, INDIAN JOURNAL OF MEDICAL ETHICS (2008).
  • Kokra, Supra note 17.

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