अमीना बनाम हसन कोया (2003) 

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यह लेख Tisha Agrawal द्वारा लिखा गया है। लेख अमीना बनाम हसन कोया (2003) के मामले से संबंधित है, इसके तथ्यों, उठाए गए मुद्दों, किए गए तर्कों, निर्णय, उदाहरणों के साथ-साथ भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 के संबंधित कानूनी प्रावधानों के संदर्भ में, हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 और आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 पर चर्चा किया गया है। इसका अनुवाद Pradyumn Singh ने किया है। 

परिचय

अमीना बनाम हसन कोया (2003) के मामले में अपीलकर्ता और प्रतिवादी के बीच विवाह की वैधता से संबंधित है। मामला निचली अदालतों से होता हुआ अंततः माननीय सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंचा। यह मामला पति को अपनी पत्नी की गर्भावस्था के बारे में जागरूकता और उसके बाद की घटित घटनाओं के वजह से उत्पन्न विवाद के इर्द-गिर्द घूमता है। इस मामले में यह देखा गया कि केवल गर्भावस्था को छिपाना ही विवाह को अमान्य करने का वैध आधार नहीं हो सकता। 

फैसला सुनाते हुए न्यायालय ने उस तरीके पर प्रकाश डाला जिसके तहत शादी की वैधता तय की जाएगी। यह मामला  भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 8 के दृष्टिकोण के कारण एक महत्वपूर्ण निर्णय है। अदालत भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 8 के अनुसार पक्षो के ‘आचरण’ के साक्ष्य पर गहराई से विचार करती है और इस तरह के मामले की जांच करते समय आचरण को मापने और अनुमान लगाने के महत्व पर जोर देती है। 

मामले का विवरण

अमीना बनाम हसन कोया के तथ्य (2003)

वर्तमान मामले में अपीलकर्ता की शादी 28 दिसंबर 1972 को प्रतिवादी से हुई थी। उनकी शादी के पांच महीने के भीतर, 28 अप्रैल 1973 को उनके घर एक लड़की का जन्म हुआ। 1977 में, प्रतिवादी ने अपीलकर्ता को तलाक दे दिया, जिसके बाद एक याचिका दायर की गई। अपीलकर्ता द्वारा सीआरपीसी की धारा 125 के तहत भरण-पोषण (मेंटेनन्स)  दायर किया गया था। 

संबंधित याचिका में उन्होंने अपने और अपनी बेटी के लिए प्रति माह अलग-अलग दरों पर भरण-पोषण का दावा किया। भरण-पोषण याचिका के जवाब में, प्रतिवादी ने शादी की बात स्वीकार की, लेकिन आरोप लगाया कि अपीलकर्ता शादी के समय पहले से ही गर्भवती थी और बच्चे का पिता नहीं था। उनका मामला था कि शादी के दौरान उनसे यह तथ्य छुपाया गया था और इसलिए, शादी अमान्य और शून्य थी। उन्होंने दावा किया कि चूंकि उनकी शादी अमान्य थी, इसलिए वह बेटी या पत्नी को गुजारा भत्ता देने के लिए उत्तरदायी नहीं थे।   

जब मामला मजिस्ट्रेट न्यायालय में गया, तो अदालत ने पत्नी के लिए भरण-पोषण का भुगतान करने का निर्देश दिया, लेकिन बच्चे के लिए भरण-पोषण देने से इनकार कर दिया। इस स्तर पर न्यायालय का मानना ​​था कि बच्चे का पिता प्रतिवादी नहीं है और इस प्रकार, वह भरण-पोषण का भुगतान करने के लिए उत्तरदायी नहीं है। इस आदेश को दोनों पक्षों ने चुनौती दी थी। 

इसके अलावा, एक अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश ने दोनों पक्षों के बीच विवाह को अमान्य ठहराया और यह माना गया कि पति पर गुजारा भत्ता देने का कोई दायित्व नहीं है। इस आदेश के खिलाफ अपीलकर्ता द्वारा केरल उच्च न्यायालय के समक्ष एक पुनरीक्षण याचिका (रीविशन पिटिशन) दायर की गई थी। जिसे उच्च न्यायालय ने विवाह को शून्य घोषित करते हुए खारिज कर दिया था। इसलिए, अपीलकर्ता ने सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया और इस मामले मे, वर्तमान निर्णय आया। 

उठाये गये मुद्दे

उपर्युक्त मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष निम्नलिखित मुद्दे उठाए गए:- 

  • क्या दोनों पक्षों के बीच वैध विवाह हुआ था या नहीं? 
  • यदि विवाह के समय पत्नी के गर्भवती होने का तथ्य पति से छुपाया गया हो तो क्या ऐसे विवाह को शून्य या अवैध कहा जा सकता है या नहीं? 

पक्षों की दलीलें

पक्षों का मुख्य तर्क उनकी शादी की वैधता और अपीलकर्ता की गर्भावस्था के तथ्य के इर्द-गिर्द घूमता रहा। 

अपीलकर्ता की ओर से तर्क 

अपीलार्थी की ओर से संबंधित साक्ष्य न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किये गये। उनका मामला यह था कि प्रतिवादी को गर्भावस्था के बारे में पता था। अस्पताल के आधिकारिक रिकॉर्ड से यह भी पता चला कि प्रतिवादी अपनी पत्नी की देखभाल कर रहा था जब वह प्रसव से गुजर रही थी। बाद में, उन्होंने अस्पताल में कागजी कार्रवाई के लिए पिता के रूप में अपना नाम भी दिया।  प्रतिवादी की इन सभी हरकतों से पता चलता है कि उसे गर्भावस्था या बच्चे को लेकर कोई समस्या नहीं थी। बच्चे के जन्म के बाद भी, तलाक लेने से पहले वे चार साल से अधिक समय तक शादीशुदा रहे। 

प्रतिवादी की ओर से तर्क 

प्रतिवादी पक्ष की ओर से तर्क दिया गया कि शादी के समय उन्हें इस तथ्य की जानकारी नहीं थी कि वह पांच महीने की गर्भवती थी। यह तथ्य अपीलकर्ता द्वारा जानबूझकर उससे छुपाया गया था, इसलिए, इससे उनके बीच विवाह का अनुबंध अमान्य हो जाएगा। 

उन्होंने बच्चे का पिता बनने से भी इनकार कर दिया। उन्होंने शादी के अवैध होने के आधार पर पत्नी को और बच्चे को नाजायज होने के आधार पर भरण-पोषण के दावे से इनकार कर दिया। 

अमीना बनाम हसन कोया (2003) में शामिल कानूनी प्रावधान

धारा 125 सीआरपीसी 

सीआरपीसी की धारा 125 में पति द्वारा पत्नी, बच्चों और माता-पिता के भरण-पोषण का प्रावधान है। संकटग्रस्त महिलाओं की पीड़ा को कम करने के लिए भरण-पोषण का प्रावधान शामिल किया गया है। यह धारा सभी धर्मों के व्यक्तियों पर लागू होती है और इसका पक्षों के व्यक्तिगत कानूनों से कोई संबंध नहीं है। 

जब कोई पक्ष इस धारा का उपयोग करता है, तो अदालत प्रतिवादी को संबंधित पक्षों को भरण-पोषण प्रदान करने का आदेश दे सकती है। हालांकि, इस प्रावधान का एक अपवाद है जो कहता है कि पति को अपनी पत्नी का समर्थन करने के लिए आर्थिक रूप से सक्षम होना चाहिए। हाल ही में कई न्यायिक उदाहरणों ने इस स्थिति की पुष्टि की है। पहले, अदालतें गुजारा भत्ता देती थीं, भले ही पत्नी पर्याप्त कमाई कर रही हो, लेकिन आजकल, गुजारा भत्ता देने से पहले अदालत इन सभी कारकों को ध्यान में रखती है। इसके साथ ही यदि पत्नी बिना किसी पर्याप्त कारण के व्यभिचार या अलग रह रही है तो भी भरण-पोषण नहीं दिया जाएगा। 

हाल ही में, बादशाह बनाम उर्मिला गोडसे और अन्य (2013) शीर्ष अदालत ने फैसला सुनाया कि भरण-पोषण गरीबों को मजबूत करने और सामाजिक न्याय प्राप्त करने या समानता या गरिमा के लक्ष्य के साथ दिया जाता है। भरण-पोषण की मांग करने का अधिकार भारत में वैधानिक है और इसके विपरीत किसी समझौते द्वारा इसे छीना नहीं जा सकता। इस प्रावधान के तहत कोई भी आदेश पारित करते समय यह ध्यान रखना होगा कि पति के पास पत्नी के भरण-पोषण के लिए पर्याप्त साधन हैं और पत्नी के पास भी अपने भरण-पोषण के लिए पर्याप्त साधन नहीं हैं। 

भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 8

भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 8 यह प्रावधान करती है कि कोई भी तथ्य प्रासंगिक (रेलेवंट) होगा जो किसी विवादग्रस्त तथ्य या प्रासंगिक तथ्य के लिए मकसद या तैयारी को दर्शाता या गठित करता है। ऐसे मामले में किसी वाद के पक्षकार का आचरण उस वाद (प्लेन्ट) के संदर्भ में प्रासंगिक होता है यदि ऐसा आचरण विवादग्रस्त या प्रासंगिक तथ्य को प्रभावित करता है। इस अनुबंध के अनुसार, मकसद, तैयारी और आचरण के तत्व प्रासंगिक हैं। 

धारा 8 आचरण की प्रासंगिकता के लिए दो समय-सीमाएँ निर्दिष्ट करती है, अर्थात्, पहले और बाद में। अभियुक्त का आचरण न केवल उसके अपराध का अनुमान लगाने और पता लगाने में महत्वपूर्ण है, बल्कि उचित सजा का निर्धारण करने में भी महत्वपूर्ण है। 

अमीना बनाम हसन कोया  के वर्तमान मामले में माननीय न्यायालय ने प्रतिवादी (पति) के आचरण के संबंध में धारा 8 लागू की। अदालत ने विश्लेषण किया कि उसका आचरण उस स्थिति से भिन्न स्थिति का अनुमान लगाता है जो वह आरोप लगा रहा है। उनके आरोप किसी भी सबूत से समर्थित नहीं हैं और उनका आचरण अन्यथा संकेत देता है।   

अमीना बनाम हसन कोया में निर्णय (2003)

माननीय न्यायमूर्ति अरुण कुमार ने फैसला सुनाते हुए प्रतिवादियों द्वारा दिए गए तर्कों को खारिज कर दिया और कहा कि मुस्लिम कानून के तहत, हिंदू कानून के विपरीत, विवाह एक अनुबंध है, जिसमें यह एक संस्कार है। प्रतिवादी का यह मामला कि उसे अपीलकर्ता की गर्भावस्था के बारे में जानकारी नहीं थी, स्वीकार नहीं किया जा सकता। निचली अदालतों ने विवाह को शून्य घोषित करके गलती की है। इस बात पर यकीन करना मुश्किल है कि कोई महिला अपनी पांच महीने की प्रेगनेंसी को अपने पति से छुपा सकती है। यह गर्भावस्था का एक उन्नत चरण है और इस चरण में इसे छिपाना बहुत मुश्किल होता है। किसी भी परिस्थिति में इसे छुपाया नहीं जा सकता, इसलिए यदि प्रतिवादी को तथ्य ज्ञात हो तो विवाह को अवैध या शून्य नहीं कहा जा सकता। 

अदालत ने भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 8 के अनुसार पक्षों के आचरण पर भी जोर दिया। अदालत ने कहा कि पति ने शादी के समय और शादी के बाद भी कोई आपत्ति नहीं जताई। अस्पताल से प्राप्त साक्ष्यों और रिकॉर्ड के अनुसार, वह बच्चे के जन्म के समय भी मौजूद था। वह अस्पताल में अमीना की देखभाल कर रहा था। उन्होंने अस्पताल के आधिकारिक रिकॉर्ड के लिए बच्चे के पिता के नाम के रूप में अपना नाम भी दिया है। ये सारे सबूत न्यायालय के सामने पेश कर दिए गए हैं।  

बच्चे के जन्म के बाद, उन्होंने चार साल से अधिक समय तक शादी जारी रखी। जब पत्नी ने भरण-पोषण का दावा किया तभी उसने गर्भधारण और बच्चे से इनकार कर दिया। प्रतिवादी के आचरण से यह नहीं पता चलता कि उसे अपनी पत्नी और बच्चे की गर्भावस्था में कोई समस्या थी। भले ही अदालत प्रतिवादी की इस दलील पर विश्वास कर ले कि उसे शादी के समय गर्भावस्था के बारे में पता नहीं था, लेकिन शादी के बाद उसके आचरण से यह निष्कर्ष नहीं निकलता है। एक सामान्य समझदार व्यक्ति को जैसे ही गर्भावस्था के बारे में पता चलता, वह तुरंत अपनी पत्नी को छोड़ देता।मुख्य तथ्य यह है कि प्रतिवादी ने चार साल से अधिक समय तक अपनी शादी जारी रखी और बच्ची को अपना नाम भी दिया, इसका मतलब है कि उसके आरोप दुर्भावनापूर्ण प्रकृति के हैं। 

कुलसुम्बी कोम अब्दुल कादिर बनाम अब्दुल कादिर वलद शेख अहमद (1920) के मामले पर भरोसा रखते हुए कहा गया कि ये भी एक गर्भवती महिला की शादी का मामला था। जब पति को पत्नी के गर्भवती होने के बारे में पता चला तो उसने उसे छोड़ दिया। जिसमे यह माना गया कि पत्नी द्वारा गर्भावस्था को छुपाने से विवाह अमान्य नहीं होगा। पति मेहर का भुगतान करने के लिए उत्तरदायी होगा और वह अपनी जिम्मेदारियों से बच नहीं सकता है। 

इसलिए, यह तथ्य कि वर्तमान मामले में अपीलकर्ता द्वारा गर्भावस्था को छुपाया गया था,अस्वीकार्य है। विवाह को अमान्य या शून्य नहीं ठहराया जा सकता। अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश और उच्च न्यायालय के निष्कर्ष पूरी तरह से अनुचित और गलत हैं और इस अदालत द्वारा स्वीकार नहीं किए जा सकते। वर्तमान मामले में, यह स्पष्ट रूप से स्पष्ट है कि प्रतिवादी को विवाह के समय अपीलकर्ता की गर्भावस्था के बारे में पूरी जानकारी थी। अब वह यह दावा नहीं कर सकता कि विवाह अमान्य या शून्य था। 

अदालत ने अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश के फैसले पर भी चर्चा की, जिसमे अब्दुल्ला बनाम बीपथु (1967) पर भरोसा किया गया था। इस मामले में, यह माना गया कि शादी के समय दुल्हन की गर्भावस्था इस तथ्य से विवाह को तब तक अमान्य कर दिया जाता है जब तक कि दुल्हन यह साबित न कर दे कि यह बात उसके पति को अच्छी तरह से पता थी। यह निर्णय वर्तमान याचिका में माननीय न्यायालय द्वारा दिये गये निष्कर्ष का समर्थन करता है। इससे साफ है कि पति को पत्नी के गर्भवती होने की जानकारी थी, इसलिए शादी को अमान्य करने का कोई सवाल ही नहीं उठता। 

इस प्रकार, अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश और केरल उच्च न्यायालय के फैसले को रद्द किया जाता है। अपीलकर्ता लागत पाने की हकदार है और वह पति से भरण-पोषण की दर बढ़ाने की मांग कर सकती है। 

तब से कई मौकों पर मामले की पुष्टि की गई है। 2018 में, केरल उच्च न्यायालय ने अली बनाम उम्मू सेल्मा (2018) मामले में इस फैसले की फिर से पुष्टि की, जिसमे यह देखा गया कि यदि पति को गर्भावस्था के बारे में पता है तो विवाह को अवैध या शून्य नहीं माना जा सकता है। 

निष्कर्ष

यह मामला विवाह की वैधता और इसके परिणामस्वरूप पति पर भरण-पोषण के लिए उत्पन्न दायित्व पर एक जटिल विवाद प्रस्तुत करता है। प्रारंभिक फैसले प्रतिवादी के पक्ष में थे लेकिन उनके तर्कों को सर्वोच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया। उनकी दलील थी कि गर्भावस्था छुपाने के कारण विवाह अमान्य था, खारिज कर दी गई। यह मामला महत्वपूर्ण है क्योंकि यह दिखाता है कि सर्वोच्च न्यायालय ने मामले को कैसे निपटाया। अदालत ने शादी से पहले और बाद में प्रतिवादी के व्यवहार का विश्लेषण और जांच की। अदालत ने इसे अकल्पनीय पाया कि प्रतिवादी बच्चे के जन्म के दौरान अपनी सक्रिय भागीदारी के बावजूद गर्भावस्था से अनजान रहा । 

उल्लेखनीय टिप्पणियों से, पहले के फैसलों को खारिज कर दिया गया। इसमें इस बात पर भी जोर दिया गया कि केवल गर्भावस्था को छुपाने से शादी अमान्य नहीं हो जाती, खासकर जब तथ्य बताते हैं कि प्रतिवादी को स्थिति के बारे में पता था। पूर्व निर्णयों को पलटते हुए, न्यायालय ने अपीलकर्ता के भरण-पोषण के अधिकार की पुष्टि की। 

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न

रख-रखाव का क्या प्रावधान है?

भरण-पोषण एक कानूनी प्रावधान है जो एक व्यक्ति को किसी अन्य व्यक्ति से वित्तीय सहायता का दावा करने की अनुमति देता है जो इसे प्रदान करने के लिए कानूनी रूप से बाध्य है। सीआरपीसी की धारा 125 में भरण-पोषण का प्रावधान है।

भरण-पोषण से इनकार करने के क्या आधार है? 

एक पत्नी भरण-पोषण की हकदार नहीं है, यदि वह व्यभिचार के लिए उत्तरदायी है, यदि वह बिना किसी पर्याप्त कारण के अपने पति के साथ रहने से इंकार करती है या यदि उसने आपसी सहमति से पति को तलाक दे दिया है। 

वैध विवाह क्या है? 

वैध विवाह वह है जिसे हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 या विशेष विवाह अधिनियम, 1954 के तहत कानूनी और बाध्यकारी माना जाता है।

आचरण का अनुमान कैसे लगाया जाता है? 

आचरण का अर्थ है व्यक्ति का व्यवहार। भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 की धारा 8 के अनुसार, पक्षों का आचरण किसी मामले के निर्धारण में महत्वपूर्ण साक्ष्य के रूप में कार्य कर सकता है। यदि कोई ठोस सबूत मौजूद नहीं है तो किसी मामले में पक्षों के प्रासंगिक आचरण पर अदालत द्वारा विचार किया जाता है। उदाहरण के लिए, अमीना बनाम हसन कोया के मामले में, पति के दायित्व और विवाह की वैधता निर्धारित करने के लिए उसके आचरण को ध्यान में रखा गया था।  

संदर्भ  

 

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