यह लेख Sudhakar Singh द्वारा लिखा गया है। अमर कांता सेन बनाम सोवाना सेन (1960) का मामला कलकत्ता उच्च न्यायालय द्वारा तय किया गया था और यह पत्नी के भरण-पोषण (मेंटेनेंस) के कानून के संबंध में एक ऐतिहासिक निर्णय था। लेख में मामले में उठे मुद्दों और तथ्यों के आधार पर न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय और तर्क का विस्तृत विश्लेषण किया गया है। इस लेख का अनुवाद Revati Magaonkar द्वारा किया गया है।
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परिचय
सभी कानूनों में से हिंदू कानून में भरण-पोषण के कानून का विशेष स्थान है। भरण-पोषण के अधिकार का महत्व और सीमा अनिवार्य रूप से हिंदू संयुक्त परिवार के सिद्धांत से उत्पन्न होती है। संयुक्त परिवार के प्रबंधक (मैनेजर) के पास कानूनी कर्तव्य होते हैं, जिसके तहत उसे संयुक्त परिवार की संपत्ति के लाभ से परिवार के सभी सदस्यों जिसमें उनकी पत्नियाँ और बच्चे भी शामिल हैं, का भरण-पोषण करना होता है। अविभाजित परिवार में, सदस्यों की स्थिति और उनकी आयु चाहे जो भी हो, सभी को भरण-पोषण का अधिकार है। मनु के इस ग्रंथ की भावना को व्यक्त करते हुए मिताक्षरा में कहा गया है, “वृद्ध माता-पिता, पतिव्रता पत्नी और शिशु बच्चे का भरण-पोषण सौ गुनाह करके भी किया जाना चाहिए।” हिंदू कानून के तहत, एक व्यक्ति का अपनी पत्नी, बच्चों और वृद्ध और अशक्त माता-पिता का भरण-पोषण करना व्यक्तिगत दायित्व है। यह रिश्ते की प्रकृति से उत्पन्न होता है और चाहे उसके पास संपत्ति हो या न हो, यह बना रहता है। कुछ खास रिश्तेदारों के प्रति व्यक्तिगत दायित्वों से संबंधित कानून की इस शाखा को अब हिंदू दत्तक ग्रहण (अडॉप्शन) और भरण-पोषण अधिनियम, 1956 के रूप में विधायी संहिताकरण प्राप्त हुआ है, जो हिंदुओं में भरण-पोषण के अधिकार से निपटने वाला एक पूर्ण कानून है। हालाँकि, कुछ अन्य कानून भी हैं जो भरण-पोषण के कानून के प्रावधानों से संबंधित हैं, अर्थात् हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 और दंड प्रक्रिया संहिता, 1973, लेकिन यह सभी एक विशिष्ट अंतिम लक्ष्य के साथ बनाए गए हैं।
‘तलाक’ जिसे अंग्रेजी में डाइवोर्स कहते है यह शब्द लैटिन शब्द ‘डिवोर्टियम’ से लिया गया है, जिसका अर्थ है एक दूसरे से अलग होना या विभक्त होना। तलाक कानूनी रूप से वैवाहिक बंधन को समाप्त कर देता है। समाज के सभी न्यायशास्त्रों में यह विरासत में मिला है कि विवाह संबंधों को हर कीमत पर संरक्षित किया जाना चाहिए। इसके विच्छेदन (सेवरेंस) की केवल कानून द्वारा निर्दिष्ट तरीके से ही अनुमति दी जा सकती है। समाज में, तलाक की अनुमति नहीं है या इसे प्रोत्साहित नहीं किया जाता है, लेकिन गंभीर परिस्थितियों में इसकी अनुमति है। असंहिताबद्ध हिंदू कानून के तहत, तलाक को विवाह के अंत के रूप में मान्यता नहीं दी गई है। बल्कि, वैवाहिक बंधन को पति और पत्नी के अविभाज्य मिलन के रूप में देखा जाता है। मनु के अनुसार, एक पत्नी को उसके पति से न तो बेचकर और न ही त्याग कर अलग किया जा सकता है, जिसका अर्थ है कि वैवाहिक संबंधों को अलग नहीं किया जा सकता है। हिंदू धर्म में, विवाह एक संस्कार, स्थायी या शाश्वत मिलन के रूप में कार्य करता है, न कि एक अनुबंध के रूप में। प्रथागत प्रथाओं में, कुछ हिंदू समुदायों और जनजातियों में तलाक को मान्यता दी गई थी। कौटिल्य अर्थशास्त्र में, पक्षों की आपसी दुश्मनी और सहमति से तलाक की अनुमति थी। उत्तर-औपनिवेशिक (पोस्ट कोलोनियल) हिंदू कानून वैवाहिक पक्षों के अधिकार के रूप में तलाक को मान्यता देने पर केंद्रित है। बाद के कानूनों ने तलाक को प्रगतिशीलता और आधुनिकता का सार दिया। हिंदू विवाह अधिनियम 1955 (जिसे आगे अधिनियम के रूप में संदर्भित किया गया है) के तहत तलाक के आधारों को मान्यता दी गई है। अधिनियम की धारा 13 में विभिन्न आधार दिए गए हैं जिनके तहत वैवाहिक पक्ष तलाक का दावा कर सकते हैं। न्यायिक मिसालों के माध्यम से, तलाक के आधार के रूप में कई अन्य आधार जोड़े गए हैं।
मामले के तथ्य
अमर कांता सेन बनाम सोवाना सेन (1960) में, 10-7-1959 को, व्यभिचार (एडल्ट्री) के आधार पर न्यायालय द्वारा विवाह को भंग कर दिया गया था। बाद में, 17-08-1959 को, पत्नी ने उसी न्यायाधीश के समक्ष एक आवेदन दायर किया और 350 रुपये की राशि का दावा किया। उसने कहा कि वह एक प्रतिष्ठित परिवार से थी, उसकी शादी एक बहुत ही प्रतिष्ठित व्यक्ति से हुई थी, और वह बहुत ही सभ्य जीवन जी रही थी। वह फिर से शादी करने का इरादा नहीं रखती थी और अपना बाकी जीवन अपने बेटे के कल्याण के लिए समर्पित करना चाहती थी। वह संगीत और चित्रकला में अपनी रुचियों को आगे बढ़ाते हुए एक पवित्र और सभ्य जीवन जीने का इरादा रखती थी। उसने दावा किया कि उसका कोई दोस्त या परिवार नहीं है जो उसकी देखभाल कर सके। उसका मासिक खर्च 315 रुपये था, और जब उसकी कोई आय नहीं थी, तो अलगाव (सेपरेशन) की अवधि के दौरान खुद की देखभाल करने के लिए उसने 4000 रुपये का कर्ज लिया था। पत्नी के पास संगीत का कौशल था याचिका दायर करने के बाद जब वह दिल्ली में ऑल इंडिया रेडियो में शामिल हुईं, तो उनकी मासिक आय 300 रुपये थी। प्रतिवादी ने दावा किया कि उनकी मासिक आय 1360 रुपये थी, जिसमें से 475 रुपये उचंत (सस्पेंस) खाते में देय दिखाए गए थे और अगस्त 1959 के लिए 879 रुपये देय थे।
मामले में उठाए गए मुद्दे
इस मामले में उठाए गए मुद्दे निम्नलिखित थे:
- क्या पत्नी को भरण-पोषण पाने का अधिकार है, जबकि उसे अपना वेतन मिल रहा है?
- क्या व्यभिचार का दोषी पाये जाने के बाद पति अपनी पत्नी को भरण-पोषण देने के लिए उत्तरदायी है?
- क्या हिंदू कानून के तहत पत्नी को भरण-पोषण का अधिकार है?
पक्षों के तर्क
अपीलकर्ता
इस मामले में अपीलकर्ता ने प्रतिवादी द्वारा दायर विपक्ष के हलफनामे में किए गए सभी दावों से इनकार किया और कहा कि अदालत को ऐसे दावों पर कोई ध्यान नहीं देना चाहिए। अपीलकर्ता ने यह भी तर्क दिया कि हिंदू कानून के तहत, जब तक वह हिंदू कानून के मानकों के अनुसार अपना जीवन जी रही है, तब तक वह भरण-पोषण पाने की हकदार है। अपीलकर्ता ने यह भी दावा किया कि, चूंकि उसका पति उसके भरण-पोषण का खर्चा उठाने में सक्षम है, इसलिए पत्नी का खर्चा उठाना पति का नैतिक और व्यक्तिगत दायित्व है। अपीलकर्ता ने अपने पति से 350/- रुपये के स्थायी गुजारा भत्ता (परमानेंट एलिमोनी) का दावा किया और यह भी कहा कि उसने अपने भरण-पोषण के लिए 4000/- रुपये का कर्ज लिया था, जिसकी वह हकदार है।
प्रतिवादी
इस मामले में, प्रतिवादी पति द्वारा उठाए गए तर्क यह थे कि उसका वेतन 879 रुपये प्रति माह था, न कि 1700 रुपये, जैसा कि उसकी पत्नी ने दावा किया था। यह भी दावा किया गया कि अपीलकर्ता ने पूर्णेंदु रॉय और दो अन्य पुरुषों के साथ व्यभिचार किया था। इस प्रकार, उसने एक पत्नी के नाते अपने वफादार दायित्वों और वैवाहिक कर्तव्यों को धोखा दिया है। और इसलिए, वह भरण-पोषण पाने की हकदार नहीं है। हलफनामे में, प्रतिवादी ने यह भी तर्क दिया कि अपीलकर्ता ने 4000 रुपये का कोई कर्ज नहीं लिया है; इसलिए, इसे अदालत द्वारा इस बात पर विचार नहीं किया जाना चाहिए। पति द्वारा यह भी कहा गया कि, चूंकि अपीलकर्ता खुद कमाती थी और इसलिए वह खुद का भरण-पोषण करने में आत्मनिर्भर थी, इसलिए वह भरण-पोषण पाने की हकदार नहीं थी।
इस मामले में शामिल अवधारणाएँ
माननीय न्यायालय ने पत्नी को दिए जाने वाले भरण-पोषण भत्ते के संबंध में विभिन्न कानूनों का विशेष रूप से उल्लेख किया तथा और साथ ही पत्नी को दिए जाने वाले भरण-पोषण भत्ते से संबंधित मूल अवधारणा पर चर्चा की। वह अवधारणाएं इस प्रकार हैं:
हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 25
धारा 25 के तहत, न्यायालय पति या पत्नी में से किसी के लिए स्थायी गुजारा भत्ता और भरणपोषण का दावा करने का अधिकार दे सकता है। जब हिंदू विवाह अधिनियम लागू नहीं हुआ था, तो भरणपोषण का अधिकार केवल पत्नी को उपलब्ध था। अधिनियम के तहत अदालत द्वारा पारित डिक्री के कारण पति का अपनी पत्नी को बनाए रखने का दायित्व समाप्त नहीं होता है। यदि हिंदू दत्तक ग्रहण और भरणपोषण अधिनियम, 1956 की धारा 18 के तहत भरणपोषण की कार्यवाही शुरू की गई है, तो अधिनियम की धारा 25 के तहत गुजारा भत्ता नहीं लिया जा सकता है। दोनों अधिनियमों के तहत, न्यायालय के पास अलग-अलग क्षेत्राधिकार हैं, जिन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। अधिनियम की धारा 25 के तहत गुजारा भत्ता पाने का अधिकार केवल तभी उत्पन्न होता है जब अदालत अधिनियम की धारा 9 से 14 के तहत एक डिक्री पारित करती है।
धारा 25(1) गुजारा भत्ता निर्धारित करने के मानदंड बताती है। इसमें कहा गया है कि भरण-पोषण और स्थायी गुजारा भत्ता देने पर निर्णय लेने से पहले न्यायालय को निम्नलिखित बातों पर विचार करना चाहिए:
- प्रतिवादी की आय और संपत्ति,
- अपीलकर्ता की आय और संपत्ति,
- पक्षों का आचरण,
- मामले की अन्य परिस्थितियां।
पक्षों द्वारा दावा की गई राशि न्यायालय की राय में उचित होनी चाहिए। अधिनियम न्यायालय को स्थायी गुजारा भत्ते के आकलन का तरीका तय करने का विवेकाधीन अधिकार देता है। यह खंड निश्चित सिद्धांतों का एक संच नहीं देता है जो विभिन्न मामलों से उत्पन्न सभी परिस्थितियों के अनुकूल हो। अधिनियम की धारा 25(1) के तहत न्यायालय याचिकाकर्ता के भरण-पोषण को एक सकल राशि (ग्रॉस सम), मासिक राशि या आवधिक राशि के रूप में तय कर सकता है जो याचिकाकर्ता के जीवन से अधिक नहीं होनी चाहिए। यदि न्यायालय उचित समझे तो वह गुजारा भत्ते के साथ प्रतिवादी की अचल संपत्ति पर भी शुल्क लगा सकता है। यदि प्रतिवादी एक वेतनभोगी (सैलरीड) कर्मचारी है, तो उसके वेतन पर भी भरण-पोषण भत्ते के रूप में शुल्क लगाया जा सकता है। संपत्ति पर शुल्क तब तक अस्तित्व में नहीं होता जब तक कि इसे न्यायालय के आदेश या पक्षों के समझौते द्वारा तय नहीं किया जाता है।
पक्षों को दूसरे पक्ष को गुजारा भत्ता लेने से रोकने के लिए समझौता करने की अनुमति नहीं है। पक्षों के बीच कोई भी समझौता न्यायालय को अधिनियम की धारा 25(1) के तहत अपनी विवेकाधीन शक्ति का प्रयोग करने से वंचित नहीं कर सकता है। ऐसा इसलिए है क्योंकि भरण पोषण का अधिकार एक वैधानिक अधिकार है, और इसलिए, पक्ष समझौते द्वारा खुद को अनुबंधित नहीं कर सकते हैं। गीता सतीश गोकर्ण बनाम सतीश शंकरराव गोकर्ण (2004 ) में, न्यायालय ने माना कि भरणपोषण देने के लिए न्यायालय के क्षेत्राधिकार को किसी भी समझौते से खत्म नहीं किया जा सकता है, और ऐसा करना सार्वजनिक नीति के खिलाफ होगा। अधिनियम, 1955 की धारा 25(2) के तहत, यदि धारा 25(1) के तहत पारित डिक्री के बाद पक्षों के बीच कोई परिवर्तन होता है, और यदि न्यायालय संतुष्ट है, तो न्यायालय पारित डिक्री में परिवर्तन, संशोधन या बदलाव कर सकता है। जबकि न्यायालय को धारा 25(3) के तहत यह विवेकाधिकार प्राप्त है कि यदि पक्षकारों ने किसी अन्य व्यक्ति से पुनर्विवाह कर लिया है या पति अन्य महिलाओं के साथ यौन संबंध में शामिल है या यदि पत्नी पतिव्रता नहीं रहती है, तो ऐसे मामलों में भी गुजारा भत्ते के आदेश को न्यायालय द्वारा परिवर्तित, संशोधित या बदला जा सकता है।
भारतीय तलाक अधिनियम, 1869 की धारा 37 के तहत भी इसी तरह के प्रावधान डाले गए हैं, जिसके अनुसार पति को अपनी पत्नी को किसी भी अवधि के लिए एक सकल राशि या वार्षिक राशि का भुगतान करना सुनिश्चित करना चाहिए, लेकिन गुजारा भत्ता का ऐसा भुगतान पत्नी के जीवनकाल से अधिक नहीं होना चाहिए। न्यायालय द्वारा तय की गई राशि उचित होनी चाहिए और पति की संपत्ति के अनुसार होनी चाहिए।
डम कास्टा क्लॉज
डम कास्टा क्लॉज तलाक समझौते के तहत वैवाहिक दंपति के बीच नियमों और शर्तों का एक समझौता है। इसमें कहा गया है कि जब भरण-पोषण पाने वाला पक्ष दोबारा शादी कर लेता है या किसी अन्य व्यक्ति के साथ पति-पत्नी के रूप में रहना शुरू कर देता है, तो उसे भरण-पोषण भत्ता नहीं दिया जाएगा। जब भी तलाक समझौता तैयार किया जाता है, तो समझौते में डम कास्टा क्लॉज जोड़ने की अत्यधिक अनुशंसा की जाती है। यह क्लॉज अन्य पक्षों को पुनर्विवाह के बाद भी भरण-पोषण भत्ता प्राप्त करके कानूनी सुरक्षा का लाभ उठाने से रोकता है।
तलाक के आधार के रूप में व्यभिचार
1976 के संशोधन से पहले, व्यभिचार अधिनियम की धारा 10(1) के तहत न्यायिक अलगाव का आधार था। न्यायिक अलगाव के आधार के रूप में व्यभिचार उस व्यभिचार से अलग था जिसमें तलाक का आदेश प्राप्त किया जा सकता था। व्यभिचार के आधार पर तलाक पाने के लिए, यह स्थापित करना आवश्यक था कि दूसरा पति या पत्नी व्यभिचारी आचरण का दोषी था। 1976 के संशोधन के बाद, अधिनियम की धारा 13 के तहत किसी अन्य व्यक्ति के साथ स्वैच्छिक संभोग (वॉलंटरी सेक्सुअल इंटरकोर्स) के एक बार के कृत्य को तलाक का आधार बनाया गया है। संशोधन के बाद, तलाक के लिए व्यभिचार के निरंतर क्रम (कंटीन्यूअस कोर्स) को साबित करना आवश्यक नहीं है। केवल एक चीज जिसे स्थापित करने की आवश्यकता है वह यह है कि प्रतिवादी ने अपने पति या पत्नी के अलावा किसी अन्य व्यक्ति के साथ जानबूझकर संभोग किया है। यहां व्यभिचार साबित करने का भार उस व्यक्ति पर है जिसने आरोप लगाया है। व्यभिचार का सबूत परिस्थितिजन्य (सर्कमस्टेंशियल) साक्ष्य पर आधारित होता है, क्योंकि व्यभिचार का कोई प्रत्यक्ष सबूत आम तौर पर उपलब्ध नहीं होता है।
प्रासंगिक निर्णय
एशक्रॉफ्ट बनाम एशक्रॉफ्ट और रॉबर्ट्स (1902)
इस मामले में, यह माना गया कि वैवाहिक कारण अधिनियम 1857 की धारा 32 के तहत, अदालतों के पास प्रत्येक मामले की परिस्थितियों के अनुसार विवेकाधीन शक्ति है। यह भी माना गया कि यदि पत्नी के पास जीवन निर्वाह का कोई साधन नहीं है और वह अपने खराब स्वास्थ्य के कारण अपनी आजीविका के लिए आवश्यक उत्पन्न कमाने में असमर्थ है, तो उसका भरण-पोषण करना पति की जिम्मेदारी है।
स्क्वॉयर बनाम स्क्वॉयर और ओ’कैलाघन (1905)
इस मामले में, यह माना गया कि विवाह विच्छेदन के बारे में निर्णय तब तक पूर्ण रूप से नहीं किया जाना चाहिए जब तक कि पति अपनी पत्नी से भरण-पोषण भत्ता प्राप्त न कर ले। ऐसा इसलिए है क्योंकि पत्नी को आसन्न प्रलोभन (इमिनेंट टेम्पटेशन) से बचाना न्यायालय का कर्तव्य है। यदि पत्नी को भरण-पोषण भत्ते के बिना अकेला छोड़ दिया जाता है, तो यह उसे खुद पर हमला करने के लिए प्रेरित करेगा। यहाँ एक डम कास्टा क्लॉज डाला जाना चाहिए, जो कहता है कि पक्षों का भरण-पोषण दायित्व तब समाप्त हो जाना चाहिए जब वैवाहिक पक्ष किसी अन्य व्यक्ति के साथ पति-पत्नी के रूप में एक साथ रहते हैं। पत्नी को पता होना चाहिए कि उसकी आजीविका उसके पवित्र जीवन जीने पर निर्भर करती है।
भाग्यश्री जगदीश जयसवाल बनाम जगदीश जयसवाल (2022)
इस मामले में, बॉम्बे उच्च न्यायालय ने माना कि इस समकालीन दुनिया में, जहां महिलाएं लाभकारी रोजगार में लगी हुई हैं या उनकी अपनी आय है, ऐसी स्थिति में एक अन्य दृष्टिकोण यह है कि जहां पति के पास कोई आय नहीं है या वह अपने खराब स्वास्थ्य के कारण खुद का भरण-पोषण करने में असमर्थ है, ऐसे मामले में पति विवाह विच्छेदन पर अपनी पत्नी से भरण-पोषण पाने का हकदार है।
द्वारकादास गुरुमुखदास अग्रवाल बनाम भानुबेन (1986)
इस मामले में, गुजरात उच्च न्यायालय ने माना कि अंतरिम (इंटरिम) भरण-पोषण तय करते समय, पक्षों के कृत्यों पर विचार करना अप्रासंगिक था। एक बार जब यह स्थापित हो जाता है कि याचिकाकर्ता के पास अपने भरण-पोषण के लिए पर्याप्त साधन नहीं हैं, तो न्यायालय को अंतरिम भरण-पोषण के लिए आदेश पारित करना चाहिए। ऐसे मामले हो सकते हैं जहाँ प्रतिवादी के पास कोई आय या साधन नहीं है, ऐसी स्थिति में न्यायालय को भरण-पोषण की कोई राशि तय नहीं करनी चाहिए। यदि व्यभिचार का आरोप है, तो न्यायालय को अंतरिम भरण-पोषण देते समय इस पर विचार नहीं करना चाहिए।
आनंद प्रकाश बनाम मंशा कुमारी (2020)
इस मामले में पटना उच्च न्यायालय ने माना कि यदि पत्नी भरण-पोषण के लिए आवेदन करने के बाद किसी नौकरी में शामिल होती है, तो यह एक महत्वपूर्ण तथ्य है और भरण-पोषण भत्ता देते समय इस पर विचार किया जाना चाहिए। यदि दावेदार के पास खुद का भरण-पोषण करने के लिए पर्याप्त साधन हैं, तो उसे कोई भी भरण-पोषण राशि नहीं दी जा सकती।
सरोज देवी बनाम अशोक पुरी गोस्वामी (1988)
इस मामले में विचारणीय अदालत ने इस शर्त पर गुजारा भत्ता की राशि तय की थी कि अगर वह व्यभिचार में शामिल पाई गई तो वह गुजारा भत्ता की राशि वापस कर देगी। बाद में, मामला अपील के लिए चला गया और राजस्थान उच्च न्यायालय ने माना कि इस तरह की शर्तें आदेश में नहीं जोड़ी जा सकतीं।
अमर कांता सेन बनाम सोवाना सेन में निर्णय (1960)
इस मामले में कलकत्ता उच्च न्यायालय ने मामले में उठाए गए तथ्यों, तर्कों और मुद्दों पर विचार करने के बाद निर्णय लिया कि अपीलकर्ता भरण-पोषण भत्ते की हकदार नहीं है क्योंकि अपीलकर्ता असहाय नहीं है और वह अपनी ऑल इंडिया रेडियो की नौकरी से अपनी आजीविका चलाती है। हालांकि, यह निर्णय लिया गया कि 10-7-1959 से 17-9-1959 की अवधि के लिए अपीलकर्ता की कोई आय नहीं थी; इसलिए, वह 79.33 रुपये का भत्ता पाने की हकदार थी।
इस निर्णय के पीछे के तर्क
अदालत के फैसले का तर्क यह था कि पत्नी असहाय स्थिति में नहीं थी और इसलिए वह मात्र निर्वाह भत्ते (सब्सिस्टेंस एलाउंस) की हकदार थी। अदालत ने कहा कि, चूंकि वह पहले से ही अपनी ऑल इंडिया रेडियो की नौकरी से खुद कमा रही थी, इसलिए वह 17-9-1959 के बाद कोई भत्ता पाने की हकदार नहीं थी। अपीलकर्ता द्वारा दिखाए गए खर्च, यानी 315 रुपये, भुखमरी भत्ते और 200 रुपये प्रति माह के अंतरिम भत्ते से बहुत अधिक थे। ऐसे मामलों में जहां उसकी खुद की कोई आय नहीं है, वह 125 रुपये के मासिक भत्ते की हकदार होगी। चूंकि अपीलकर्ता 10-7-1959 से 17-9-1959 की अवधि के दौरान अपने संगीत के काम से 90 रुपये प्रति माह कमा रही थी, प्रतिवादी द्वारा भरणपोषण की देय राशि 125 रुपये और 90 रुपये प्रति माह का अंतर है, जो कि 35 रुपये प्रति माह है। उचित व्यय (एक्सपेंस) की गणना करने के बाद, न्यायालय ने पाया कि पत्नी 79.33 रुपये का भरण-पोषण भत्ता पाने की हकदार है। न्यायालय ने कहा कि यह राशि केवल 10-7-1959 से 17-9-1959 की अवधि के लिए देय है, क्योंकि वह उक्त अवधि के दौरान स्वयं कमाई नहीं कर रही थी। इस प्रकार, पति अपनी पत्नी के भरण-पोषण के लिए जिम्मेदार है।
मामले का विश्लेषण
इस मामले में, न्यायालय को कुछ कारकों और साक्ष्यों को ध्यान में रखते हुए यह तय करना था कि प्रतिवादी भरण-पोषण पाने का हकदार है या नहीं। इस मामले ने यह तथ्य भी सामने लाया कि भरण-पोषण सामाजिक न्याय का एक रूप है जिसका उद्देश्य महिलाओं और बच्चों की देखभाल करना है। इसमें पति द्वारा तय की गई राशि का भुगतान करने की क्षमता, पत्नी की आय और संपत्ति तथा विवाह के दौरान दंपत्ति की जीवनशैली जैसे पहलू शामिल हैं। न्यायालय ने कानून को स्पष्ट किया और उस शर्त के बारे में विस्तार से बताया जिसके तहत पत्नी अपने पति से भत्ता पाने की हकदार है। यदि पत्नी वैवाहिक दायित्वों के मानकों को पूरा करने से इनकार करती है, तो वह अपना भरण-पोषण अधिकार खो देती है, और वहा डम कास्टा क्लॉज लागू होता है। यदि पत्नी अपना जीवन यापन स्वयं कर रही है, तो वह अपने पति से भरण-पोषण पाने की हकदार नहीं है। यदि पत्नी अपना जीवन यापन करने में असमर्थ है, तो उसे भूखे रहने के भत्ते के तहत भोजन और कपड़े पर्याप्त रूप से दिए जा सकते हैं। न्यायालय ने यह भी बताया कि पति को भूखे रहने के भत्ते के अलावा अतिरिक्त भत्ता देने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है। इस मामले में, न्यायालय ने फिर से इस बात पर जोर दिया कि पत्नी का भरण-पोषण पाने का अधिकार जितना सामाजिक है, उतना ही वैधानिक भी है। न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि पत्नी को अपनी वैवाहिक स्थिति या उसके आचरण के बारे में किसी भी विवाद के बावजूद भरण-पोषण पाने का अधिकार है। यह भारतीय समाज में महिलाओं और बच्चों के कल्याण को सुनिश्चित करने में भरण-पोषण प्रावधानों की सुरक्षात्मक प्रकृति को दर्शाता है।
निष्कर्ष
हिंदू कानून के तहत, अपने परिवार का भरण-पोषण करना पति का नैतिक और व्यक्तिगत दायित्व है। विवाह विच्छेदन के मामलों में, यदि पत्नी पवित्र और सभ्य जीवन जी रही है, तो पति अपनी पत्नी और बेटे के भरण-पोषण के लिए जिम्मेदार होता है। एक अनैतिक पत्नी के मामले में जो जीवन का एक दुराचारी मार्ग अपनाती है, वह अपने भरण-पोषण के अधिकार खो देती है, भले ही वे डिक्री द्वारा सुरक्षित हों। हिंदू कानून के तहत, एक अनैतिक पत्नी केवल भूख से मरने से बचने के लिए भत्ता पाने की हकदार है, यानी भोजन और अपने जीवन का समर्थन करने के लिए आवश्यक चीजों का ध्यान उसके पति द्वारा रखा जाना चाहिए। ऐसी स्थिति में जहां पत्नी अपनी आजीविका स्वयं कमा रही है, वह अपने पति से भरण-पोषण के सभी अधिकार खो देती है। यदि पत्नी अपने खराब स्वास्थ्य के कारण अपनी आजीविका कमाने में असमर्थ है, तो पत्नी का भरण-पोषण करना पति का कर्तव्य है और ऐसे में पत्नी भरण-पोषण भत्ता पाने की हकदार है। अधिनियम के तहत, एक-दूसरे का भरण-पोषण करना पति-पत्नी का वैवाहिक दायित्व है। ऐसे मामलों में जहां पति अपनी आजीविका नहीं कमा रहा है, वह अपनी काम करनेवाली पत्नी से भरण-पोषण पाने का हकदार है।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)
हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के तहत तलाक के आधार क्या हैं?
हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 13 के तहत, कोई भी पति या पत्नी निम्नलिखित आधार पर तलाक प्राप्त कर सकता है:
- व्यभिचार
- क्रूरता
- कम से कम 2 वर्षों के लिए परित्याग
- दूसरे धर्म में धर्मांतरण
- लाइलाज पागलपन या मानसिक विकार
- लाइलाज और घातक कुष्ठ रोग
- संक्रामक रूप में यौन रोग
- संसार का त्याग कर सन्यासी बनना
- सात साल से कोई खबर नहीं
- न्यायिक अलगाव के आदेश के बाद कम से कम एक वर्ष तक सहवास न करना
- कम से कम एक वर्ष तक वैवाहिक अधिकारों की पुनर्स्थापना (रेस्टिट्यूशन) के आदेश का अनुपालन न करना
- विवाह के बाद पति द्वारा बलात्कार या अप्राकृतिक यौन संबंध का दोषी होना
- न्यायालय द्वारा आदेशित पत्नी को भरण-पोषण देने में पति की विफलता
- आपसी सहमति।
क्या हिंदू विवाह अधिनियम के तहत एक पुत्र अपने पिता से भरण-पोषण भत्ता पाने का हकदार है?
नहीं, हिंदू विवाह अधिनियम के तहत बेटा भरण-पोषण भत्ते का हकदार नहीं है। लेकिन हिंदू दत्तक ग्रहण और भरण-पोषण अधिनियम, 1955 के तहत बेटा भरण-पोषण भत्ते का हकदार है।
तलाक के मामलों पर निर्णय करने की शक्ति किस न्यायालय को प्राप्त है?
हिंदू विवाह अधिनियम के तहत तलाक के मामलों पर फैसला करने का अधिकार जिला न्यायालय को है। शहरों में, एक शहरी सिविल न्यायालय होता है जिसे वैवाहिक मामलों पर फैसला करने का अधिकार होता है।
संदर्भ
Books
- Hindu Law by RK Agarwal, 2021st Edition, by Central Law Publication
- Hindu law by Sir Dinshaw Fardunji Mulla and Satyajit A. Desai, 25th Edition by LexisNexis