अजय कुमार बनर्जी बनाम भारत संघ (1984)

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यह लेख Soumya Lenka द्वारा लिखा गया है। यह लेख अजय कुमार बनर्जी बनाम भारत संघ मामले की पृष्ठभूमि, मामले के प्रासंगिक तथ्यों, याचिकाकर्ताओं और प्रतिवादियों की ओर से दी गई दलीलों और फैसला सुनाते समय अदालत के तर्क से संबंधित है। इस लेख का अनुवाद Revati Magaonkar द्वारा किया गया है।

परिचय

अजय कुमार बनर्जी बनाम भारत संघ (1984) का ऐतिहासिक मामला अत्यधिक प्रत्यायोजन (एक्सेसीव डेलिगेशन) की अवधारणा से संबंधित है। प्रत्यायोजित विधान संवैधानिक और प्रशासनिक कानून की एक अनोखी अवधारणा है। विवादित फैसले ने अवधारणा के संबंध में कई अस्पष्टताओं को दूर किया और इसलिए भारतीय संवैधानिक कानून न्यायशास्त्र में एक महत्वपूर्ण मामला बन गया। यह मामला राष्ट्रीयकरण (नेश्न्लाईजेशन) के बाद के युग में सेट किया गया है। सामान्य बीमा व्यवसाय (राष्ट्रीयकरण) अधिनियम, 1972 के पारित होने के बाद, भारत में सामान्य बीमा व्यवसाय का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया। यह मामला सामान्य बीमा व्यवसाय (राष्ट्रीयकरण अधिनियम) 1972 की  धारा 16 के इर्द-गिर्द घूमता है।

लेख में केंद्र सरकार द्वारा सत्ता के एकतरफा प्रयोग के खिलाफ नई विलय (मर्जर) की गई बीमा कंपनी के कर्मचारियों के आरोपों पर प्रकाश डाला गया है। आरोप लगाया गया कि सामान्य बीमा व्यवसाय राष्ट्रीयकरण अधिनियम की धारा 16 का उपयोग करते हुए, केंद्र सरकार ने अपनी शक्तियों के दायरे से बाहर जाकर कर्मचारियों की सेवा की शर्तों और नियमों को बदलने की कोशिश की, जो अत्यधिक प्रत्यायोजन का स्पष्ट मामला है। लेख में राज्य के तर्क और फैसला सुनाते समय अदालत के तर्क पर भी चर्चा की गई है।

मामले की पृष्ठभूमि 

1972 से पहले भारतीय बाजार में, भारतीय और विदेशी दोनों मिलाकर 106 बीमा कंपनियाँ मौजूद थीं और यह एक बहुत ही अव्यवस्थित पारिस्थितिकी तंत्र था। सामान्य बीमा व्यवसाय राष्ट्रीयकरण अधिनियम वर्ष 1972 में सामान्य व्यवसाय (आपातकालीन प्रावधान अधिनियम), 1971 के तहत पारित किया गया था ।

इस कानून का उद्देश्य राष्ट्रीयकरण के उद्देश्य को पूरा करना था। राष्ट्रीयकरण अधिनियम का उद्देश्य भारत में बीमा व्यवसाय के अव्यवस्थित बाजार को साफ करना था। उभरते बीमा बाजार को अव्यवस्थित करने से धन का कुछ ही हाथों में केंद्रित होना रुकेगा और इससे धन और आय के समान वितरण के सिद्धांत को बल मिलेगा।

इसलिए, अधिनियम ने आम लोगों के हित के लिए निजी भारतीय बीमा कंपनियों और उपक्रमों (अंडरटेकिंग) के शेयर के अधिग्रहण (एक्विजीशन) और हस्तांतरण का प्रावधान किया ताकि भारत के बीमा क्षेत्र के उचित विनियमन (रेग्यूलेशन) को अच्छा बनाया जा सके। इसके अलावा, अधिनियम का उद्देश्य भारतीय संविधान के अनुच्छेद 39(C) के तहत निहित संवैधानिक सिद्धांत को लागू करना था।

सामान्य व्यवसाय राष्ट्रीयकरण अधिनियम, 1972 की धारा 16 में यह प्रावधान किया गया है कि केन्द्र सरकार सामान्य बीमा व्यवसाय को अधिक कुशलतापूर्वक चलाने के लिए कम्पनियों के विलयन तथा उससे सम्बन्धित विधिक घटनाओं के लिए कोई अधिसूचना पारित कर सकती है या एक या अधिक योजनाएं बना सकती है। 

इसमें अधिग्रहीत कंपनी के संस्था के बहिर्नियम (मेमोरन्डम ऑफ एसोसिएशन) और संगम अनुच्छेद (आर्टिकल्स ऑफ एसोसिएशन) में बदलाव की योजना शामिल हो सकती है। अधिनियम की धारा 16(1) में केंद्र सरकार को दी गई शक्ति के अनुसरण में, केंद्र सरकार ने 1973 में चार विलय योजनाएं पारित कीं और चार बीमा दिग्गज कंपनियों, अर्थात् ओरिएंटल फायर एंड जनरल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड, नेशनल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड, न्यू इंडिया एश्योरेंस कंपनी लिमिटेड और यूनाइटेड इंडिया इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड को एक सामान्य बीमा कंपनी में विलय कर दिया गया और उन्हें एक इकाई के रूप में अपना व्यवसाय करने की अनुमति दी गई। 

विलय योजना का नाम न्यू इंडिया एश्योरेंस कंपनी लिमिटेड (विलय) योजना, 1973 रखा गया। इसे इसलिए तैयार किया गया क्योंकि तत्कालीन केंद्र सरकार की राय थी कि इस तरह की योजना राष्ट्रीय बीमा कंपनियों के कुशल कामकाज को सुनिश्चित करेगी और उन्हें एक इकाई, अर्थात् न्यू इंडिया एश्योरेंस कंपनी लिमिटेड के अंतर्गत लाने से बीमा बाजार को अव्यवस्थित करने का उद्देश्य पूरा होगा, जिसके लिए मूल कानून सही साबित हुआ था। 

अजय कुमार बनर्जी बनाम भारत संघ (1984) के तथ्य

वर्ष 1974 में, केन्द्र सरकार एक बार फिर साधारण बीमा (पर्यवेक्षी (सुपरवायजरी), लिपिकीय (क्लेरिकल) और अधीनस्थ कर्मचारियों के वेतनमान और सेवा की अन्य शर्तों का राष्ट्रीयकरण और संशोधन) योजना, 1974 नामक एक ‘योजना’ लेकर आई। उक्त योजना के पारित होने को इस मामले को आग देनेवाले बिंदु के रूप में चिह्नित किया जा सकता है और इसे विवाद की शुरुआत कहा जा सकता है। 

नई योजना में सामान्य बीमा कर्मचारियों की सेवा की शर्तों और नियमों तथा उनसे संबंधित वेतनमानों को नियंत्रित और विनियमित करने की परिकल्पना की गई थी। इस योजना में प्रावधान किया गया था कि नया वेतनमान 31 दिसंबर 1976 तक जारी रहेगा, जब तक कि केंद्र सरकार की किसी अधिसूचना, विनियमन या योजना द्वारा इसे स्पष्ट रूप से संशोधित नहीं किया जाता। 

नई बीमा कंपनी के कर्मचारी नई योजना के अनुसार वेतनमान, महंगाई भत्ता और कई अन्य नियमों और शर्तों से खुश नहीं थे। उन्होंने अपनी संगठन के माध्यम से जनरल इंश्योरेंस कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया के अधिकारियों को अपनी शिकायतें भेजीं। 

उन्होंने वेतनमान, महंगाई भत्ते में संशोधन और योजना की अन्य शर्तों में बदलाव की जोरदार मांग की। संघ, संगठनों और अधिकारियों के बीच कई बार बातचीत हुई, लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला।  

भारत सरकार के श्रम मंत्रालय ने प्रबंधन और कर्मचारियों के बीच ज्वलंत विवाद को सुलझाने के लिए औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 के तहत एक समझौता तंत्र की परिकल्पना की थी, जिसमें कहा गया था कि नियोक्ता-कर्मचारी विवाद के सौहार्दपूर्ण समाधान में विफलता हुई है। लेकिन यहां भी कोई समझौता नहीं हुआ और विफलता की रिपोर्ट श्रम मंत्रालय को भेज दी गई।

कहानी थोड़ी और आगे तक जाती है। नियोक्ताओं और कर्मचारियों के बीच झगड़े और कोई सौहार्दपूर्ण समाधान न निकल पाने के बाद, न्यू एश्योरेंस इंडिया लिमिटेड के निदेशक मंडल ने एक नई पदोन्नति नीति को मंजूरी दे दी 

नई पदोन्नति नीति में वेतनमानों के साथ-साथ सेवा की शर्तों और नियमों में कई बदलाव किए गए और कर्मचारियों ने फिर से इसका विरोध किया। कर्मचारियों और प्रबंधन के बीच फिर से बातचीत हुई और कर्मचारियों ने आरोप लगाया कि केंद्र सरकार को केवल सामान्य बीमा अधिनियम के तहत कर्मचारियों के वेतनमान और सेवा की शर्तों में कोई भी बदलाव या संशोधन करने का अधिकार है और कंपनी के पास ऐसा करने का कोई अधिकार नहीं है। 

कर्मचारी संघों ने आरोप लगाया कि कंपनी ने अपनी स्वीकार्य सीमा से आगे जाकर काम किया है और अपनी शक्तियों का उल्लंघन किया है, इसलिए पदोन्नति नीति को रद्द किया जाना चाहिए। फिर भी, बातचीत हुई और कोई महत्वपूर्ण परिणाम नहीं निकला। 

1978 में जनरल इंश्योरेंस कंपनी ने संघो और प्रबंधन के बीच कई दौर की बातचीत के बाद पदोन्नति नीति में संशोधन किया। कर्मचारी संशोधित योजना से संतुष्ट नहीं थे और यह पदोन्नति नीति याचिका का विषय बन गई।

संशोधित योजना ने विवाद को और बढ़ा दिया। इस योजना में सेवानिवृत्ति की आयु कम कर दी गई। 1 जनवरी 1979 को या उसके बाद कंपनी में शामिल होने वाले कर्मचारी 58 वर्ष की आयु में सेवानिवृत्त होंगे, और जो पहले शामिल हुए थे वे 60 वर्ष की आयु में सेवानिवृत्त होंगे। 

संशोधित योजना की इस शर्त से कर्मचारी संघ बेहद असंतुष्ट थे। इसलिए, याचिकाकर्ताओं ने उक्त अधिसूचना से बेहद व्यथित होकर भारतीय संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत सर्वोच्च न्यायालय का रुख किया और अधिसूचना को असंवैधानिक करार दिया।

इसके अलावा, याचिकाकर्ताओं ने चुनौती दी कि उक्त अधिसूचना अवैध है, क्योंकि केंद्र सरकार के पास सामान्य बीमा व्यवसाय राष्ट्रीयकरण अधिनियम की धारा 16 के तहत इसे जारी करने का कोई अधिकार नहीं है और विवादास्पद प्रोत्साहन नीति योजना तैयार करने वाली अधिसूचना सामान्य बीमा व्यवसाय (राष्ट्रीयकरण) अधिनियम 1972 की धारा 16 (1) के विपरीत है और स्पष्ट रूप से मनमानी है और इसे रद्द किया जाना चाहिए।

अजय कुमार बनर्जी बनाम भारत संघ (1984) में उठाए गए मुद्दे

याचिका से संबंधित मुख्य मुद्दे निम्नलिखित थे:

  1. क्या सरकार और प्रतिवादी कानून के दायरे में रहकर 1980 की योजना लागू करेंगे?
  2. यदि उनके पास वह शक्ति है, तो क्या उन्होंने याचिकाकर्ताओं को किसी भी मौलिक अधिकार से वंचित करने के लिए मनमाने और सनकी तरीके से इसका प्रयोग किया है और क्या उनके साथ भेदभाव किया गया है?
  3. क्या कर्मचारियों की सेवा की शर्तों में नये परिवर्तन के संबंध में अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 19 का कोई उल्लंघन हुआ है?
  4. क्या विधानमंडल को पहले से लागू कानून को बाद में कानून बनाकर बदलने का निस्संदेह अधिकार है या नहीं?
  5. क्या किसी विशेष कानून को बाद में किसी सामान्य कानून द्वारा स्पष्ट प्रावधान द्वारा परिवर्तित, अभिनिषेध (अब्रोगेट) या निरस्त किया जा सकता है या नहीं?

पक्षों के तर्क

याचिकाकर्ता के तर्क  

याचिकाकर्ताओं की दलीलों को तीन प्रकार से संक्षेपित किया जा सकता है- 

सबसे पहले, याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि चार विलय योजना (न्यू एश्योरेंस कंपनी लिमिटेड का गठन) के परिणामस्वरूप बीमा कंपनियों का विलय हो जाने के बाद, नव विलयित कंपनी के कर्मचारियों के वेतनमान और सेवा की अन्य शर्तों में परिवर्तन से संबंधित कोई और योजना नहीं हो सकती। 

सामान्य बीमा व्यवसाय राष्ट्रीयकरण अधिनियम, 1972 के अनुसार ऐसी योजना केंद्र सरकार की शक्तियों के अंतर्गत नहीं थी। यह तर्क दिया गया कि अधिनियम की धारा 16 के अनुसार, केंद्र सरकार केवल ऐसी योजनाएं लाने के लिए अधिकृत है, जो केवल बीमा व्यवसाय के पुनर्गठन या किसी विलय या अधिग्रहण से संबंधित हो, इससे अधिक कुछ नहीं। 

लेकिन सामान्य बीमा (पर्यवेक्षी, लिपिकीय और अधीनस्थ कर्मचारियों के वेतनमान और सेवा की अन्य शर्तों का राष्ट्रीयकरण और संशोधन) योजना, 1974 किसी पुनर्गठन, विलय या अधिग्रहण से संबंधित नहीं थी, बल्कि अन्य पहलुओं में हस्तक्षेप करने की कोशिश की गई थी, जिनसे निपटने के लिए केंद्र सरकार को उक्त धारा के तहत अधिकार नहीं है। याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि 1972 के मूल कानून के तहत एकमात्र कानूनी रूप से वैध योजना चार विलय योजनाएं हैं, जैसा कि अधिनियम की प्रस्तावना से स्पष्ट है।

दूसरा, प्रत्यायोजित प्राधिकार के प्रश्न पर आते हुए, याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि बैंकिंग विनियमन अधिनियम, 1949 और जीवन बीमा अधिनियम, 1956 के तहत पुनर्गठन से स्वतंत्र रूप से विनियमन तैयार करने की शक्तियां थीं, लेकिन सामान्य बीमा व्यवसाय राष्ट्रीयकरण अधिनियम, 1972 द्वारा ऐसी कोई शक्तियां प्रदान नहीं की गईं। 

इसलिए, 1974 की अधिसूचना, जिससे पूरा विवाद उत्पन्न होता है, वह कानून के अधिकार के बिना है। इसके अलावा, याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि धारा 16 या इसके किसी भी खंड के तहत योजना विलय अधिग्रहण या पुनर्गठन के लिए प्रावधान करती है और कोई अन्य परिवर्तन नहीं करती है। 

फिर भी, केन्द्र सरकार को कर्मचारियों की सेवा की शर्तों व नियमों में परिवर्तन करने का अधिकार है, लेकिन औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 की धारा 9A के तहत कर्मचारियों को इस संबंध में पूर्व सूचना देकर ही ऐसा किया जा सकता है । 

प्रक्रिया यह है कि कर्मचारियों को नोटिस दिए जाने के बाद, कर्मचारियों और प्राधिकारियों के बीच बातचीत होगी और सौहार्दपूर्ण समाधान के बाद तथा कर्मचारियों और नियोक्ताओं के बीच सहमति होने के बाद ही प्रस्तावित संशोधनों के साथ अधिसूचना पारित की जा सकेगी। 

इसलिए यह तर्क दिया गया कि पूरी प्रक्रिया को दरकिनार कर दिया गया है, और इसलिए, केंद्र सरकार ने ऐसी अधिसूचना पारित करके गलती की है, जो स्पष्ट रूप से मनमानी है। इसके अलावा, यह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन था क्योंकि प्रस्तावित परिवर्तन के साथ कोई स्पष्ट अंतर और उचित संबंध नहीं था क्योंकि इसमे कर्मचारियों की सेवानिवृत्ति की आयु में बदलाव करने का कोई उचित कारण नहीं दिखता है। 

इसके अलावा, यह तर्क दिया गया कि ऐसा करते समय राज्य सरकार ने इस गलत और मनमानी अधिसूचना के कारण नए कर्मचारियों को होने वाले संभावित नतीजों पर भी ध्यान नहीं दिया और इसलिए यह परिवर्तन प्रथम दृष्टया भेदभावपूर्ण था।

तीसरा, यह भी तर्क दिया गया कि कंपनी के पदोन्नति की संशोधित योजना स्पष्ट रूप से मनमानी है क्योंकि यह सरकार की अवैध अधिसूचना से उपजी है, जो मनमानी है। इसलिए, मनमानी से उपजी कोई भी चीज कानून की नजर में टिकने लायक नहीं है। 

इसके अलावा, पदोन्नति नीति, जिसने बिना किसी कारण के समान स्थिति वाले सदस्यों की सेवानिवृत्ति की आयु 60 वर्ष से बदलकर 58 वर्ष कर दी, वह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत परिकल्पित और आश्वासित समानता के मौलिक सिद्धांत का उल्लंघन है। 

याचिकाकर्ताओं ने आगे तर्क दिया कि वेतनमान और महंगाई भत्ते सहित सेवा की शर्तें और नियम कर्मचारियों और अधिकारियों के बीच द्विपक्षीय समझौते का परिणाम थे और केंद्र सरकार द्वारा एकतरफा रूप से इसमें बदलाव नहीं किया जा सकता था। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 19(1)(g) पेशा, व्यवसाय या व्यापार की स्वतंत्रता का दावा करता है और चूंकि अधिसूचना से पहले कर्मचारियों से परामर्श नहीं किया गया या उनकी राय पर विचार नहीं किया गया, इसलिए यह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19(1)(g) का उल्लंघन है।

प्रतिवादी

राज्य द्वारा यह तर्क दिया गया कि कर्मचारियों के वेतनमान और सेवा की शर्तों को संशोधित करने वाली 1974 की अधिसूचना जारी करना राज्य कानून के दायरे में था। 

इसके अलावा, यह तर्क दिया गया कि वेतनमानों में संशोधन और कर्मचारियों की सेवा की शर्तों में किए गए परिवर्तन कर्मचारियों को कुछ अतिरिक्त लाभ प्रदान करते हैं और कर्मचारियों के अधिकारों को सुविधाजनक बनाते हैं।

प्रतिवादियों अर्थात् भारत संघ तथा सामान्य बीमा कंपनी ने तर्क दिया कि सरकारी क्षेत्रों में अन्य कर्मचारियों की तुलना में, सामान्य बीमा कंपनियों के कर्मचारियों को आकर्षक वेतन मिलता है, और इसलिए, कर्मचारियों के भत्तों और परिलब्धियों (इमोल्यूमेंट्स) पर नियंत्रण लगाना बहुत आवश्यक है। 

वेतनमान में यह कटौती राष्ट्रीयकरण नीति को आगे बढ़ाने के लिए की गई थी। प्रतिवादियों ने तर्क दिया कि इन सामान्य बीमा कंपनियों के कर्मचारी उच्च आय वाले लोग हैं, और केंद्र सरकार के लिए यह जरूरी है कि वह उनके आकर्षक वेतनमान पर अंकुश लगाए ताकि बीमा उद्योग के बेहतर कामकाज को सुगम बनाया जा सके।

अजय कुमार बनर्जी बनाम भारत संघ (1984) में निर्णय

न्यायालय ने सामान्य बीमा व्यवसाय राष्ट्रीयकरण अधिनियम की धारा 16 की व्याख्या करते हुए कहा कि धारा 16 के खंड (g) का मूल्यांकन किया जाना चाहिए, क्योंकि यह केंद्र सरकार को वेतनमान या सेवा की अन्य शर्तों के युक्तिकरण (प्रोमुल्गेट) या संशोधन के लिए कोई भी योजना लागू करने या पारित करने की शक्ति देता है। 

न्यायालय ने अधिनियम की धारा 16 के खंड (g) के व्याख्यात्मक दायरे की पेचीदगियों को ध्यान से समझा ताकि प्रावधान का वास्तविक दायरा पता लगाया जा सके। इसके अलावा, न्यायालय ने धारा 16 के खंड (g) के व्याख्यात्मक दायरे को भी समझा। धारा 16 (j) केंद्र सरकार को ऐसे आकस्मिक, परिणामी और पूरक (स्प्लीमेंटल) मामलों के लिए योजना बनाने की शक्ति प्रदान करती है जो योजना के वास्तविक उद्देश्य को पूर्ण प्रभाव देने और सुगम बनाने के लिए आवश्यक हैं। 

यहाँ न्यायालय ने अधिनियम की धारा 16 (6) के साथ उपरोक्त दो प्रावधान, अर्थात् धारा 16 (g) और धारा 16 (j) की व्याख्या करके न्यायिक शक्तियों का प्रयोग किया। धारा 16 (6) केंद्र सरकार को अधिसूचना द्वारा धारा 16 के तहत बनाई गई किसी भी योजना को जोड़ने, संशोधित करने या उसमें बदलाव करने का अधिकार देती है। 

न्यायालय ने अन्य दो प्रावधानों के अनुरूप उक्त प्रावधान की व्याख्या करते हुए कहा कि यहां मुख्य मुद्दा यह है कि क्या केंद्र सरकार को 1980 की तरह कोई योजना बनाने का अधिकार है, जब भी उसे लगे कि सरकार द्वारा नियंत्रित राष्ट्रीयकृत बीमा कारोबार के कामकाज को सुचारू बनाने के लिए कार्यकुशलता बढ़ाने तथा सेवा की अन्य शर्तों में बदलाव के लिए वेतनमानों को युक्तिसंगत बनाने और संशोधन की आवश्यकता है। 

यहां, अदालत ने इस तथ्य पर भी विचार किया कि धारा 16 (1) (g) और धारा 16 (1) (j) को धारा 16 (6) के साथ पढ़ने पर कहीं भी केंद्र सरकार को एक बीमा कंपनी के साथ दूसरी बीमा कंपनी के विलय और अधिग्रहण या दो या अधिक छोटी बीमा संस्थाओं के समामेलन (अम्ल्गमेशन) द्वारा एक एकल बीमा कंपनी के गठन से जुड़ी योजना के अलावा अन्य योजना लाने के लिए अधिकृत नहीं किया गया है।  

लेकिन 1980 की केंद्र सरकार की योजना वेतनमानों के संशोधन से संबंधित है, और इस योजना में सेवा की शर्तों और नियमों में जो बदलाव किए गए थे, उनका राष्ट्रीयकरण के उद्देश्य को सुविधाजनक बनाने के लिए दो या अधिक बीमा व्यवसायों के विलय, अधिग्रहण या समामेलन से कोई लेना-देना नहीं था। इसलिए, केंद्र सरकार 1980 जैसी अधिसूचना पारित करने के लिए अधिकृत नहीं है क्योंकि यह कानून की सीमाओं से परे होगा और कानून की प्रक्रिया का दुरुपयोग होगा।

न्यायालय ने कहा कि किसी भी विशेष प्रावधान की व्याख्या एक विशेष तरीके से की जानी चाहिए, जिसमें उन घटनाओं का उल्लेख हो जिनके कारण उसे कानून में शामिल किया गया और सामान्य रूप से वैधानिक ढांचे में उसे शामिल करने के पीछे की पृष्ठभूमि शामिल हो। न्यायालय का मानना ​​था कि किसी भी कानून को अलग-अलग नहीं बल्कि समग्र रूप से पढ़ा जाना चाहिए। 

प्रत्येक प्रावधान को आसन्न (एडजॉईनिंग) और संबंधित प्रावधानों के प्रकाश में समझा जाना चाहिए। न्यायालय ने कहा कि यदि किसी कानून के प्रावधानों को संयुक्त रूप से पढ़ने पर शब्द पर्याप्त रूप से समझ में आते हैं और अनियमितता और अस्पष्टता से रहित स्पष्ट और पूर्ण अर्थ देते हैं, तो न्यायपालिका या विधायिका को उनकी व्याख्या करने या उनके आयाम (एम्प्लीट्यूड) को कम करने का अधिकार नहीं है जो कानून के दायरे और उद्देश्य से परे होगा।  

न्यायालय ने कहा कि प्रस्तावना और धारा 16 को एक साथ पढ़ा जाना चाहिए, और गंभीरता से पढ़ने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि धारा 16 और उसमें निहित शक्तियां केंद्र सरकार द्वारा सौंपी गई शक्ति का प्रयोग हैं। 

न्यायालय ने कहा कि प्रस्तावना, धारा 16, तथा साधारण बीमा व्यवसाय राष्ट्रीयकरण अधिनियम, 1972 के माध्यम से केन्द्र सरकार को प्रदत्त प्रत्यायोजित प्राधिकार की शक्ति के संयुक्त अध्ययन से, केन्द्र सरकार की शक्तियाँ केवल राष्ट्रीयकरण के उद्देश्य को सुगम बनाने के लिए एक या एक से अधिक बीमा कम्पनियों के एक दूसरे के साथ विलय या समामेलन के लिए योजनाएँ पारित करने तक सीमित हैं तथा यह प्रत्यायोजित प्राधिकार की शक्ति पर प्रतिबंध लगाती है। 

केंद्र सरकार द्वारा इसका प्रयोग दो या अधिक बीमा कंपनियों के विलय या समामेलन के उद्देश्य के अलावा किसी अन्य तरीके से नहीं किया जा सकता है, जिससे राष्ट्रीयकरण का उद्देश्य पूरा हो सके। लेकिन विवादित मामले में, केंद्र सरकार ने 1974 की अधिसूचना और 1980 के परिपत्र (सर्क्युलर) को पारित करके अधिनियम के दायरे से बाहर जाकर गलत तरीके से काम किया है, जो किसी भी तरह से राष्ट्रीयकरण के उद्देश्य को सही साबित नहीं करता है और इसके बजाय कर्मचारियों के वेतनमान और सेवा की अन्य शर्तों को बदलने की कोशिश करता है। 

इसलिए, यह कानून की मंजूरी से रहित है, और इसलिए, 1974 और 1980 की अधिसूचनाएँ कानूनी रूप से वैध नहीं हैं। 1974 की योजना और 1980 की अधिसूचना के लिए जिस तरह से प्रत्यायोजित अधिकार या शक्ति का उपयोग किया गया, वह राज्य के अधिकार से बाहर होगा।

न्यायालय ने माना कि प्रत्यायोजित अधिकार प्रशासनिक और संवैधानिक कानून का एक अनोखा संगम है। 1980 की योजना और 1974 की योजना विधानमंडल द्वारा प्रत्यायोजित अधिकार के उपयोग के ज्वलंत उदाहरण हैं। लेकिन ध्यान देने वाली बात यह है कि विधानमंडल ने अपने अधिकार का अतिक्रमण किया है या नहीं। 

न्यायालय ने माना कि विधायिका में ही असीमित अधिकार निहित नहीं है। न्यायालय ने माना कि चूंकि केंद्र सरकार को असीमित अधिकार नहीं है, इसलिए विवादित मामले में सरकार ने अपने अधिकार की सीमाओं का उल्लंघन किया है, क्योंकि 1972 अधिनियम की योजना को समग्र रूप से पढ़ने पर सरकार को कर्मचारियों के वेतनमानों में संशोधन या सेवा की शर्तों में बदलाव के लिए कोई योजना बनाने का कोई अधिकार नहीं मिलता है। 

अदालत ने दोहराया कि अधिनियम की धारा 16 और प्रावधान वेतनमानों के पुनरीक्षण (रिविजन) तथा सेवा के भत्तों, परिलब्धियों (पर्क्स) और नियमों व शर्तों में परिवर्तन का प्रावधान करते हैं, लेकिन यह जब अधिनियम की प्रस्तावना के साथ पढ़ा जाता है, तो पूरी योजना बिल्कुल स्पष्ट हो जाती है कि वास्तव में इस तरह के उद्देश्य के लिए एक योजना पारित की जा सकती है, लेकिन केवल तभी जब राष्ट्रीयकरण के उद्देश्य से दो या अधिक बीमा कंपनियों का विलय या समामेलन हुआ हो।

इसलिए, वेतनमानों में संशोधन और अन्य परिवर्तनों के लिए एक योजना फिर भी तैयार की जा सकती है, लेकिन इस शर्त के अधीन कि इसे केवल तभी पारित किया जा सकता है जब ऐसे संशोधनों और परिवर्तनों के पीछे मुख्य उद्देश्य कंपनियों के सुचारू विलय और समामेलन को सुविधाजनक बनाना हो। 

जैसा कि विवादित मामले में हुआ है, जहा कोई विलय या समामेलन नहीं हुआ है, वहा केंद्र सरकार को इसे प्रभावी बनाने के लिए कोई अधिसूचना या योजना पारित करने का अधिकार नहीं है। इसलिए, 1974 की अधिसूचना और 1980 की अधिसूचना दोनों ही खराब कानून हैं और उनमें कानूनी स्वीकृति का अभाव है।

न्यायालय ने याचिकाकर्ताओं की इस दलील पर जोर दिया कि 1972 के अधिनियम की योजना बैंकिंग विनियमन अधिनियम या जीवन बीमा अधिनियम की योजना के समान नहीं है। न्यायालय ने माना कि अधिनियमों ने केंद्र सरकार को पुनर्गठन से स्वतंत्र होकर कानून या विनियमन बनाने का अधिकार प्रदान किया है।

हालांकि, साधारण बीमा कारोबार (राष्ट्रीयकरण) अधिनियम, 1972 की धारा 16 के तहत केंद्र सरकार को कोई शक्ति प्रदान नहीं की गई है। यदि कर्मचारियों के वेतनमान में संशोधन या सेवा शर्तों में परिवर्तन के लिए कोई योजना या अधिसूचना लाने की आवश्यकता है, तो ऐसे वक्त औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 की धारा 9A के तहत परिकल्पित प्रक्रिया को अपनाया जाएगा। 

औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 की धारा 9A में कहा गया है कि यदि विधानमंडल द्वारा ऐसी किसी योजना के बारे में सोचा जाता है या विचार किया जाता है, तो उसे कर्मचारियों और संघो को नोटिस द्वारा सूचित किया जाना चाहिए, लेकीन इसमे और केवल इतना ही पर्याप्त नहीं होगा। यहा कर्मचारी संगठनों और अधिकारियों के बीच बातचीत की जानी चाहिए, और कर्मचारी संगठनों को अधिकारियों के साथ आम सहमति पर पहुंचना चाहिए, और फिर बातचीत की शर्तों और नियमों को ध्यान में रखते हुए एक संशोधित योजना, विधेयक या अधिसूचना पारित की जानी चाहिए। तभी वेतनमानों के संशोधन और सेवा, परिलब्धियों और भत्तों की शर्तों और नियमों में बदलाव के लिए ऐसी योजना को कानूनी वैधता प्राप्त होगी।

अनुच्छेद 14, अनुच्छेद 19 और योजना के संवैधानिक रूप से अवैध होने के मुद्दे पर आते हुए, न्यायालय ने माना कि 1980 की योजना की संवैधानिक वैधता पर गहराई से विचार करना प्रथम दृष्टया अनावश्यक है। इसने माना कि अनुच्छेद 14 निरपेक्ष (अब्सोल्युट) नहीं है, और उस पर उचित प्रतिबंध हैं। 

इसलिए, विधायिका कुछ व्यक्तियों को कुछ लाभ प्रदान करने तथा अन्य को इससे बाहर रखने के लिए कानून बना सकती है, लेकिन ऐसा वर्गीकरण उचित होना चाहिए, और मनमाना नहीं होना चाहिए तथा इसे इसके उचित उद्देश्य को पूरा करना चाहिए।

संक्षेप में, न्यायालय ने माना कि 1980 और 1974 की योजना कानून की दृष्टि से खराब थी, क्योंकि 1972 के अधिनियम की समग्र योजना पर विचार करते हुए विधायिका के पास उन्हें अधिनियमित करने की कानूनी क्षमता नहीं थी, इसलिए उन्हें वैध नहीं माना जाना चाहिए तथा उन्हें रद्द किया जाना चाहिए।

निष्कर्ष 

प्रत्यायोजित प्राधिकार और उसकी शक्तियां सीमित हैं तथा उनकी व्याख्या उस कानून के प्रावधान को ध्यान में रखकर की जानी चाहिए जिसके तहत ऐसी शक्तियां प्रदान की जाती हैं, अत्यधिक प्रत्यायोजन विधायिका की अंतर्निहित शक्ति नहीं है और साथ ही, कानून बनाने वाली विधायिका स्वयं कानून में निर्धारित सीमाओं से बंधी होती है तथा उसे इन सीमाओं से आगे जाने की मनाही होती है।

यह मामला प्रत्यायोजित विधान की अवधारणा में नई अंतर्दृष्टि लाने के संबंध में एक ऐतिहासिक मामला है। यह मामला विधायिका को स्पष्ट रूप से बताता है कि इसकी एक सीमा है और यह अपने अधिकार की सीमा से परे नहीं जा सकता है, और भारतीय लोकतंत्र जिस ठोस शक्तियों के पृथक्करण पर खड़ा है उसका एक बेहतरीन उदाहरण देता है। यह स्पष्ट करता है कि किसी अधिनियम या कानून के एक हिस्से को उस पृष्ठभूमि पर विचार करते हुए समझा और अध्ययन किया जाना चाहिए जिसके कारण इसे अधिनियमित किया गया था, और इसके प्रत्येक प्रावधान को क़ानून के अन्य प्रावधानों के अनुरूप समझा जाना चाहिए। 

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

अजय कुमार बनर्जी बनाम भारत संघ का मामला प्रशासनिक कानून की किस अवधारणा से संबंधित है?

यह मामला प्रत्यायोजित विधान की अवधारणा के इर्द-गिर्द घूमता है।

यह मामला भारतीय अर्थव्यवस्था में किस महत्वपूर्ण घटना के बाद घटित हुआ है?

यह मामला राष्ट्रीयकरण के बाद का है।

उक्त मामले में साधारण बीमा व्यवसाय राष्ट्रीयकरण अधिनियम, 1972 की कौन सी धारा प्रश्नगत है?

अधिनियम की धारा 16, जो वेतनमान में संशोधन तथा सेवा की शर्तों में परिवर्तन के संबंध में केन्द्र सरकार की शक्तियों से संबंधित है, इस मुद्दे को उक्त मामले में बताया गया है।

संदर्भ

 

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