अजय हसिया बनाम खालिद मुजीब ए.आई.आर 1981 एस.सी 487

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यह लेख Syed Owais Khadri द्वारा लिखा गया है । यह लेख अजय हसिया बनाम खालिद मुजीब (1981) में माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए ऐतिहासिक फैसले का व्यापक अध्ययन प्रदान करता है। लेख में तथ्यों, निर्णय और तर्क पर विस्तार से चर्चा की गई है। यह मामले में शामिल और चर्चा किए गए कानून के बिंदु पर भी प्रकाश डालता है। इसके अतिरिक्त, लेख निर्णय का विश्लेषण प्रदान करने का भी प्रयास करता है। इस लेख का अनुवाद Ayushi Shukla के द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय

माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने अपने हाल ही के एक फैसले, कौशल किशोर बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2023) में कहा कि संविधान के अनुच्छेद 19 और 21 के तहत मौलिक अधिकार सभी के खिलाफ लागू किए जा सकते हैं, न कि केवल राज्य के खिलाफ। हालांकि, संविधान के भाग III के तहत विभिन्न प्रावधानों में निहित हर मौलिक अधिकार के साथ ऐसा नहीं है। ऊपर बताए गए दो अधिकारों के अलावा कोई भी अन्य अधिकार केवल संविधान के अनुच्छेद 12 के तहत निर्धारित राज्य और उसकी संस्थाओं के खिलाफ ही लागू किया जा सकता है । अनुच्छेद 12 “राज्य” शब्द को परिभाषित करता है और यह निर्धारित करता है कि इसके अर्थ और दायरे में कौन से सभी प्राधिकारी वर्ग (अथॉरिटीज) शामिल हो सकते हैं और उन प्राधिकारीयों के खिलाफ कौन से मौलिक अधिकार लागू किए जा सकते हैं।

वर्तमान मामला अनुच्छेद 12 के दायरे और उन संस्थाओं के खिलाफ मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन से संबंधित ऐतिहासिक फैसलों में से एक है, जो स्पष्ट रूप से सरकार या उसके प्राधिकारी नहीं हैं, लेकिन उनमें राज्य या सरकार की सभी विशिष्ट विशेषताएं हैं और जो सार्वजनिक कार्य करती हैं। माननीय सर्वोच्च न्यायालय, इस मामले में, जम्मू और कश्मीर सोसायटी पंजीकरण अधिनियम, 1898 के तहत स्थापित एक सोसायटी द्वारा संचालित कॉलेज में किए गए प्रवेशों को मनमाना और अनुच्छेद 14 के तहत समानता के अधिकार का उल्लंघन करने के रूप में चुनौती देने वाली याचिकाओं पर विचार कर रहा था। हालांकि मामले का मुख्य भाग आरोपित प्रवेशों के बारे में था, लेकिन अनुच्छेद 12 के दायरे के बारे में अदालत की टिप्पणियां महत्वपूर्ण हैं। इसने विभिन्न उदाहरण या दिशानिर्देश निर्धारित किए जिनमें किसी भी संस्था को उपरोक्त संवैधानिक प्रावधान के तहत एक प्राधिकरण माना जा सकता है। 

यह आलेख मामले पर विस्तार से चर्चा करता है, तथा मुख्य चुनौती तथा संविधान के अनुच्छेद 12 के अंतर्गत अभिव्यक्ति के संबंध में न्यायालय की उल्लेखनीय टिप्पणियों पर ध्यान केंद्रित करता है।

मामले का विवरण

इस लेख में चर्चा किये गए मामले के कुछ महत्वपूर्ण विवरण निम्नलिखित हैं:

मामला क्रमांक.: WP 1304, 1262, 1119, 1118,… 1979

  • मामले के पक्षकार:
    • याचिकाकर्ता: अजय हसिया और अन्य।
    • प्रतिवादी(गण): खालिद मुजीब एवं अन्य।
  • समतुल्य उद्धरण: ए आई आर 1981 एस सी 487, (1981) 1 एस सी सी 722
  • न्यायालय: भारत का सर्वोच्च न्यायालय
  • पीठ: जस्टिस पीएन भगवती, जस्टिस वाईवी चंद्रचूड़, जस्टिस वीआर कृष्णैयार, जस्टिस सैयद मुर्तजा फजलाली और जस्टिस एडी कोशल।
  • निर्णय की तिथि: 13 नवम्बर, 1980

मामले के तथ्य

  • याचिकाकर्ताओं ने श्रीनगर में क्षेत्रीय इंजीनियरिंग कॉलेज (जिसे आगे “कॉलेज” कहा जाएगा) में शैक्षणिक वर्ष 1979-80 के लिए किए गए प्रवेश की वैधता को चुनौती देते हुए एक रिट याचिका दायर की थी। उक्त कॉलेज एक सहायता प्राप्त कॉलेज था और जम्मू और कश्मीर के पंद्रह सहायता प्राप्त कॉलेजों में से एक था जिसे केंद्र सरकार द्वारा वित्तपोषित (फाइनेंस) किया गया था। हालाँकि, कॉलेज का प्रबंधन और प्रशासन जम्मू और कश्मीर सोसायटी पंजीकरण अधिनियम, 1898 के तहत पंजीकृत एक सोसायटी द्वारा किया जाता था।
  • कॉलेज ने अप्रैल 1979 में एक सूचनापत्र के माध्यम से शैक्षणिक वर्ष 1979-80 के लिए इंजीनियरिंग की विभिन्न शाखाओं में बी.ई. पाठ्यक्रम के प्रथम सेमेस्टर में प्रवेश के लिए आवेदन आमंत्रित किये। 

1974 के प्रस्ताव के अनुसार प्रवेश प्रक्रिया

इस मामले के तथ्यों को स्पष्ट रूप से समझने के लिए 1974 की प्रवेश प्रक्रिया के मूलभूत पहलुओं के बारे में जानकारी होना आवश्यक है। ऊपर बताई गई प्रवेश प्रक्रिया 4 जून 1974 को मंडल ऑफ गवर्नर्स द्वारा सोसायटी के नियम 15(iv) के तहत अपनी शक्ति का प्रयोग करते हुए एक प्रस्ताव के माध्यम से निर्धारित की गई थी  उक्त प्रवेश प्रक्रिया की कुछ महत्वपूर्ण विशेषताएं इस प्रकार हैं:

  • प्रक्रिया के अनुसार, जम्मू और कश्मीर राज्य के छात्रों को तुलनात्मक (कम्पेरेटिव) योग्यता के आधार पर प्रवेश दिया जाना था, जिसका निर्णय दो चरणों की परीक्षा आयोजित करके किया जाना था।
  • पहले चरण में भौतिकी (फिजिक्स), रसायन विज्ञान (केमिस्ट्री), गणित और अंग्रेजी विषयों पर लिखित परीक्षा थी और 100 अंक थे। परीक्षा का दूसरा चरण मौखिक परीक्षा था, जिसके 50 अंक थे, जिसे 4 विषयों या टॉपिक में विभाजित किया गया था:
    • सामान्य ज्ञान और जागरूकता (अवेयरनेस) 15 अंक के लिए;
    • किसी विशिष्ट घटना की व्यापक समझ के लिए 15 अंक;
    • पाठ्येतर (एक्स्ट्रा करीक्यूलर) गतिविधियों के लिए 10 अंक; तथा 
    • सामान्य व्यक्तित्व गुण के लिए 10 अंक।
  • ऊपर बताई गई प्रवेश प्रक्रिया 1979-80 तक अपनाई गई, लेकिन उस वर्ष प्रक्रिया में कुछ छोटे-मोटे बदलाव किए गए। 1979-80 में प्रवेश प्रक्रिया में किए गए बदलाव इस प्रकार थे:
    • कॉलेज में कुल सीटों की संख्या 250 थी। कॉलेज की 250 सीटों में से 50% सीटें जम्मू और कश्मीर राज्य के छात्रों के लिए आरक्षित थीं। शेष 50% (कुछ अन्य छात्रों के लिए आरक्षित 15 सीटों सहित) अन्य राज्यों के छात्रों के लिए आरक्षित थीं।
    • जम्मू और कश्मीर राज्य के विद्यार्थियों के लिए आरक्षित सीटों में से कुछ सीटें अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों तथा संघर्षों के दौरान शहीद या घायल हुए रक्षा कार्मिकों के बच्चों के लिए भी आरक्षित कर दी गईं। 
    • यह स्पष्ट किया गया कि जम्मू-कश्मीर राज्य के छात्रों के लिए किया गया आरक्षण स्थायी कॉलेज कर्मचारियों के बच्चों के लिए आरक्षित 2 सीटों से अलग है। यह भी स्पष्ट किया गया कि तकनीकी संस्थानों में प्रवेश के लिए आरक्षण जम्मू-कश्मीर राज्य सरकार (जिसे आगे “राज्य सरकार” कहा जाएगा) के आदेश के अनुरूप किया जाएगा।
    • यह भी स्पष्ट किया गया कि 50% सीटों की पूर्व श्रेणी में योग्यता का निर्धारण केवल लिखित परीक्षा में प्राप्त अंकों के आधार पर किया जाएगा, तथा शेष प्रक्रिया वही होगी जो 1974 के संकल्प (रेजोल्यूशन)  में निर्दिष्ट है।
  • शैक्षणिक वर्ष 1979-80 के लिए प्रवेश आमंत्रित करने वाले सूचना पत्र में निर्दिष्ट किया गया था कि उक्त प्रवेश की अनुमति देने के लिए जो प्रवेश प्रक्रिया अपनाई जाएगी, वही ऊपर बताई गई है। 
  • इस रिट याचिका में याचिकाकर्ता वे छात्र थे जिन्होंने कॉलेज में बी.ई. कोर्स की एक या दूसरी शाखा में प्रवेश के लिए आवेदन किया था और 16 और 17 जून, 1979 को लिखित परीक्षा में शामिल हुए थे। इसके बाद उन्हें परीक्षा के अगले चरण यानी मौखिक परीक्षा में शामिल होना पड़ा, जिसके लिए 3 सदस्यों की एक समिति ने याचिकाकर्ताओं का साक्षात्कार (इंटरव्यू) लिया।
  • उन्होंने आरोप लगाया कि साक्षात्कार औसतन 2 या 3 मिनट से ज़्यादा लंबा नहीं चला। उन्होंने आरोप लगाया कि उनसे पूछे गए कोई भी सवाल प्रक्रिया के अनुसार मौखिक परीक्षा में अंक आवंटित करने के चार मानदंडों में से किसी से भी संबंधित नहीं थे। इसके बजाय, उनसे पूछे गए सवाल ज़्यादातर सामान्य थे, जो निवास, प्रतिशत आदि पर आधारित थे।
  • उन्होंने बताया कि प्रवेश की घोषणा होने पर उन्हें पता चला कि प्रवेश के लिए उनका चयन न होने का कारण मौखिक परीक्षा में कम अंक मिलना था, जबकि अर्हकारी लिखित परीक्षा में उन्हें बहुत अच्छे अंक प्राप्त हुए थे।
  • याचिकाकर्ताओं ने आगे कहा कि कुछ अभ्यर्थियों को लिखित परीक्षा में बहुत कम अंक मिले थे, लेकिन वे मौखिक परीक्षा में प्राप्त उच्च अंकों के कारण ही कॉलेज में प्रवेश पाने में सफल रहे। 
  • उन्होंने न्यायालय के समक्ष एक चार्ट प्रस्तुत किया, जिसमें याचिकाकर्ताओं द्वारा उनके और कुछ सफल छात्रों के बीच अंकों में असमानता के संबंध में दिए गए बयान को दर्शाया गया था और जिसके कारण उन अभ्यर्थियों को याचिकाकर्ताओं के मुकाबले वरीयता दी गई थी।
  • इसलिए, चयन की इस प्रक्रिया से व्यथित होकर, उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत एक रिट याचिका दायर करके माननीय सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया , जिसमें इस प्रक्रिया के माध्यम से किए गए प्रवेश की वैधता को चुनौती दी गई।

कॉलेज का प्रशासन करने वाली सोसायटी की प्रकृति

कॉलेज की स्थिति का निर्धारण या यह प्रश्न कि क्या कॉलेज “अन्य प्राधिकरण” और इसलिए “राज्य” के दायरे में आता है, कॉलेज की प्रकृति और इसे प्रशासित या प्रबंधित करने वाली सोसायटी के बारे में स्पष्टता की आवश्यकता है। इस कारण से, सोसायटी के एसोसिएशन के ज्ञापन में निर्धारित सोसायटी से संबंधित उद्देश्यों, नियमों और अन्य पहलुओं को देखकर कॉलेज का प्रशासन करने वाली सोसायटी की प्रकृति को समझना आवश्यक है।

सोसायटी के उद्देश्य

सोसायटी के उद्देश्य एसोसिएशन के ज्ञापन के खंड 3 में निर्धारित किए गए हैं, जिसमें निम्नलिखित शामिल हैं:

  • उक्त खंड के उप-खंड (i) में यह प्रावधान किया गया है कि सोसायटी के उद्देश्यों में इंजीनियरिंग और प्रौद्योगिकी की विभिन्न शाखाओं में ज्ञान और शिक्षा प्रदान करने तथा ऐसी शाखाओं में अनुसंधान को बढ़ावा देने के लिए एक कॉलेज की स्थापना करना शामिल है।
  • खंड 3 का उप-खंड (ii) सोसायटी को सोसायटी के प्रबंधन के लिए नियम और विनियम बनाने और भारत सरकार (जिसे इसके बाद “केन्द्रीय सरकार” कहा जाएगा) और राज्य सरकार के अनुमोदन से समय-समय पर किसी भी नियम और विनियमन को संशोधित करने, जोड़ने या निरस्त करने का अधिकार देता है।
  • उक्त खंड के उप-खंड (iii) ने सोसायटी को राज्य सरकार के नाम पर संपत्ति अर्जित करने और बनाए रखने का अधिकार दिया।
  • उक्त खंड के उप-खंड (v) में कहा गया है कि कॉलेज के प्रबंधन और संचालन के लिए धनराशि राज्य और केंद्र सरकार द्वारा उपलब्ध कराई जाएगी। 
  • उक्त खंड के उप-खंड (vi) के अनुसार, सोसायटी के धन के प्रबंधन और निवेश से संबंधित निर्णयों के लिए राज्य सरकार से अनुमोदन की आवश्यकता होती है। 

  • खंड 3 के उप-खंड (ix) के अनुसार सोसायटी के खातों का विवरण और लेखा परीक्षक द्वारा उसका प्रमाणीकरण अनिवार्य रूप से प्रतिवर्ष केन्द्र और राज्य सरकारों को भेजा जाना था।
  • इसके अलावा, राज्य सरकार को सोसायटी के मेमोरेंडम ऑफ एसोसिएशन के खंड 6 के तहत सोसायटी और कॉलेज के कामकाज की समीक्षा करने के लिए कुछ व्यक्तियों को नियुक्त करने का अधिकार दिया गया है। इसे जांच करने और उसके बाद राज्य सरकार को रिपोर्ट सौंपने का भी अधिकार है। इसके अलावा, इस खंड के तहत इसे रिपोर्ट के आधार पर और केंद्र सरकार की मंजूरी से उचित उपाय या कार्रवाई करने का अधिकार है। कॉलेज या सोसायटी को राज्य सरकार के उपायों या निर्देशों का पालन करना आवश्यक है।
  • इसके अलावा, सोसायटी के मेमोरेंडम ऑफ एसोसिएशन के क्लॉज 7 में राज्य सरकार को कॉलेज की संपत्ति और प्रशासन को अपने नियंत्रण में लेने का अधिकार दिया गया है, अगर सोसायटी या कॉलेज ठीक से काम नहीं कर रहा है। हालांकि, यह केंद्र सरकार की पूर्व स्वीकृति से किया जा सकता है।
  • एसोसिएशन के ज्ञापन का खंड 9 राज्य सरकार को कॉलेज के कुछ प्रमुख पदों, जैसे अध्यक्ष, राज्य और केंद्र सरकारों के प्रतिनिधि, कुछ अन्य राज्यों के प्रतिनिधि आदि के संबंध में केंद्र सरकार के परामर्श और अनुमोदन से नियुक्तियां करने का अधिकार देता है।

ज्ञापन के अनुसार सोसायटी के उद्देश्य सोसायटी के मामलों में राज्य और केन्द्र सरकारों की संबद्धता और सक्रिय भागीदारी को प्रतिबिंबित करते हैं। 

सोसायटी के नियम

वस्तुओं के समान ही सोसायटी के नियम भी सोसायटी की प्रकृति पर प्रकाश डालते हैं। सोसायटी के नियम इस प्रकार हैं:

  • नियम 3 में सोसायटी से संबंधित संरचना (कंपोजिशन) और नियुक्तियों के बारे में प्रावधान किया गया है। नियम के खंड (i) ने एसोसिएशन के ज्ञापन के खंड 9 के तहत निर्धारित सोसायटी की संरचना की पुष्टि की। इसके अलावा, खंड (ii) ने राज्य और केंद्र सरकारों को आपसी परामर्श से सोसायटी के सदस्यों की नियुक्तियाँ करने का अधिकार दिया।
  • नियम 6 में यह निर्धारित किया गया है कि सोसायटी के आय और संपत्ति सहित इसके मामलों के प्रबंधन का अधिकार गवर्नर्स मंडल (जिसे आगे मंडल कहा जाएगा) में निहित होगा, जो सोसायटी का शासी निकाय है। 
  • मंडल ऑफ गवर्नर्स की संरचना नियम 7 में निर्धारित की गई थी। इसमें प्रावधान किया गया था कि मंडल की अध्यक्षता राज्य सरकार के मुख्यमंत्री द्वारा की जाएगी, तथा मंडल के अन्य सदस्यों में राज्य और केंद्र सरकारों के नामित व्यक्ति तथा अन्य विभिन्न नामित व्यक्ति और प्रतिनिधि शामिल होंगे।
  • नियम 10 के तहत राज्य सरकार को राज्य और केंद्र सरकार के प्रतिनिधियों को छोड़कर, केंद्र सरकार की मंजूरी से सोसायटी के किसी भी सदस्य को सदस्यता से हटाने का अधिकार दिया गया था।
  • नियम 15(iv) मंडल को विभिन्न पाठ्यक्रमों में छात्रों के प्रवेश के लिए नियम बनाने का अधिकार देता है। इसके अतिरिक्त, नियम 15(xv) मंडल को राज्य और केंद्र सरकारों को सालाना सोसायटी की रिपोर्ट और लेखा प्रस्तुत करने का अधिकार देता है।
  • नियम 24(i) मंडल को उस उद्देश्य या उद्देश्यों में परिवर्तन करने का अधिकार देता है जिसके लिए सोसायटी की स्थापना की गई है। नियम 24(ii) मंडल को नियमों में परिवर्तन करने का अधिकार देता है। हालाँकि, ऐसे किसी भी परिवर्तन या संशोधन के लिए राज्य और केंद्र सरकारों से पूर्व अनुमोदन लेना होगा। 

नियमों में यह दर्शाया गया है कि राज्य और केन्द्र सरकार की सोसायटी के सदस्यों की नियुक्ति तथा सोसायटी की समग्र (ओवरऑल) निर्णय प्रक्रिया में महत्वपूर्ण भूमिका है।

सोसायटी के नियमों और उद्देश्यों ने सोसायटी के प्रशासन और प्रबंधन में राज्य और केंद्र सरकारों की महत्वपूर्ण भूमिका की उपस्थिति को स्थापित किया। उन्होंने सोसायटी और कॉलेज के मामलों में राज्य और केंद्र सरकारों, जो संविधान के अनुच्छेद 12 के अनुसार “राज्य” हैं, द्वारा ग्रहण की गई स्थिति के महत्व को इंगित किया।

उठाए गए मुद्दे 

  • क्या संविधान के अनुच्छेद 12 के तहत प्रदत्त शब्द की परिभाषा और अर्थ के अंतर्गत सोसायटी को “राज्य” माना जा सकता है?
  • अनुच्छेद 12 के अंतर्गत “राज्य” के अर्थ में परिकल्पित “अन्य प्राधिकारी” क्या हैं?

शामिल कानूनी बिंदु

इस मामले में कानून का मुद्दा या कानूनी सवाल मुख्य रूप से संविधान के भाग III के तहत दिए गए संवैधानिक प्रावधानों के इर्द-गिर्द घूमते हैं, खास तौर पर “राज्य” के अर्थ और परिभाषा और समानता के अधिकार के इर्द-गिर्द। इस मामले में जांचे गए कुछ प्रासंगिक कानूनी प्रावधान इस प्रकार हैं:

भारत का संविधान

भारत का संविधान भाग III के अंतर्गत विभिन्न मौलिक अधिकारों की गारंटी देता है, जिसमें अनुच्छेद 12 से 35 शामिल हैं। इस मामले में चर्चा किए गए प्रासंगिक मौलिक अधिकार और संवैधानिक प्रावधान इस प्रकार हैं:

अनुच्छेद 12 

संविधान का अनुच्छेद 12 “राज्य” शब्द की परिभाषा देता है, जिसमें इस शब्द को इस प्रकार परिभाषित किया गया है कि “राज्य में भारत की सरकार और संसद तथा प्रत्येक राज्य की सरकार और विधानमंडल और भारत के क्षेत्र के भीतर या भारत सरकार के नियंत्रण में सभी स्थानीय या अन्य प्राधिकारी शामिल हैं।”

अनुच्छेद 12 के तहत प्रावधान बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि यह उन प्राधिकारियों को सीमित करता है जिनके खिलाफ संविधान के भाग III के तहत मौलिक अधिकारों को लागू किया जा सकता है। मौलिक अधिकारों के उल्लंघन से पीड़ित कोई भी व्यक्ति संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत केवल उन प्राधिकारियों के खिलाफ रिट याचिका दायर करके न्यायालय का दरवाजा खटखटा सकता है जो अनुच्छेद 12 के तहत “राज्य” की परिभाषा के अंतर्गत आते हैं।

इस प्रावधान के तहत राज्य की परिभाषा का दायरा व्यापक है क्योंकि यह एक संपूर्ण  प्रावधान नहीं है बल्कि समावेशी (इंक्लूसिव) है, जो परिभाषा में “अन्य प्राधिकरण” शब्दों के माध्यम से परिलक्षित (रिफ्लेक्टेड) होता है। “राज्य” की परिभाषा का दायरा, और अधिक विशेष रूप से, परिभाषा में “अन्य प्राधिकरण” शब्द का दायरा, माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा विभिन्न फैसलों में विस्तारित किया गया है, जैसे कि मद्रास विश्वविद्यालय बनाम शांता बाई और अन्य (1953) , जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि अनुच्छेद 12 के तहत “अन्य प्राधिकरण” का अर्थ सरकारी कार्य करने वाला कोई भी प्राधिकरण है।  

इसके अतिरिक्त, राजस्थान राज्य विद्युत मंडल बनाम मोहनलाल (1967) के मामले में भारत के माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि “अन्य प्राधिकरण” शब्द में ” किसी क़ानून द्वारा बनाया गया और भारत के क्षेत्र में या भारत सरकार के नियंत्रण में काम करने वाला प्रत्येक प्राधिकरण शामिल है।” सर्वोच्च न्यायालय ने सुखदेव सिंह बनाम भगत राम (1975) और आर.डी शेट्टी बनाम भारतीय अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा प्राधिकरण (1979) आदि मामलों में इस शब्द के दायरे को और बढ़ाया है।

हालाँकि, हाल ही में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने कौशल किशोर बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2023) के मामले में फैसला दिया कि संविधान के अनुच्छेद 19 और अनुच्छेद 21 के तहत मौलिक अधिकारों को राज्य या उसके संस्थानों के अलावा अन्य व्यक्तियों के खिलाफ भी लागू किया जा सकता है।

अनुच्छेद 14

संविधान का अनुच्छेद 14 भारत में प्रत्येक व्यक्ति को समानता के अधिकार की गारंटी देता है। यह कानून के समक्ष समानता से इनकार करने पर रोक लगाता है और राज्य द्वारा कानून के समान संरक्षण की गारंटी देता है।

इस प्रावधान में समानता के दो महत्वपूर्ण पहलू शामिल हैं। पहला पहलू है कानून के समक्ष समानता, जिसका अर्थ है कि कानून की नज़र में हर व्यक्ति समान है और किसी भी नागरिक को कोई विशेषाधिकार नहीं दिया जाएगा।

इस प्रावधान के तहत समानता का दूसरा पहलू प्रावधान की सकारात्मक सामग्री को दर्शाता है। दूसरे पहलू के अनुसार, राज्य यह सुनिश्चित करेगा कि किसी भी प्रकार का कोई भेदभाव न हो और प्रत्येक नागरिक को कानूनों के समान संरक्षण का अधिकार हो।

संक्षेप में, पहला पहलू समान व्यवहार की गारंटी से संबंधित है, जबकि दूसरा पहलू भेदभाव की रोकथाम को दर्शाता है।

माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने ई.पी. रोयप्पा बनाम तमिलनाडु राज्य (1973) के फैसले में कहा था कि कोई भी कार्य जो मनमाना प्रकृति का हो, संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत समानता के अधिकार का उल्लंघन है। 

अनुच्छेद 32

संविधान का अनुच्छेद 32 संविधान के भाग III के तहत गारंटीकृत मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन के लिए रिट याचिका दायर करके माननीय सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाने के मौलिक अधिकार की गारंटी देता है।

संविधान के भाग III के तहत निहित मौलिक अधिकारों के उल्लंघन से व्यथित कोई भी व्यक्ति संविधान के अनुच्छेद 12 के तहत “राज्य” के दायरे में आने वाले प्राधिकारियों के खिलाफ मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन के लिए इस प्रावधान के तहत माननीय सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटा सकता है।

माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने पश्चिम बंगाल राज्य बनाम नूरुद्दीन (1998) में फैसला सुनाया कि कानून के अनुसार कुछ प्राधिकारियों पर लगाए गए किसी भी कर्तव्य का पालन अपीलकर्ता का अधिकार है। ऐसे अधिकार का प्रवर्तन परमादेश (मैंडमस) रिट के माध्यम से सुनिश्चित किया जा सकता है, जो कर्तव्य का पालन न करने वाले प्राधिकारी के खिलाफ जारी किया जाता है।

जम्मू और कश्मीर सोसायटी पंजीकरण अधिनियम, 1898

यह मामला संविधान के अनुच्छेद 12 के तहत जम्मू और कश्मीर सोसायटी पंजीकरण अधिनियम, 1898 के तहत पंजीकृत सोसायटी की स्थिति के निर्धारण से संबंधित था। इस अधिनियम में जम्मू और कश्मीर राज्य में सोसायटी के पंजीकरण का प्रावधान था।

पक्षों के तर्क

याचिकाकर्ता

याचिकाकर्ता की दलीलें मूल रूप से कॉलेज की प्रवेश प्रक्रिया के कारण संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत गारंटीकृत समानता के उनके अधिकार के उल्लंघन के इर्द-गिर्द घूमती हैं, जिसके बारे में कहा गया है कि यह मनमानी है। याचिकाकर्ताओं ने जिन विभिन्न आधारों पर यह दलील दी है, वे इस प्रकार हैं:

  • याचिकाकर्ताओं का मुख्य तर्क यह था कि प्रवेश देने के लिए कॉलेज द्वारा अपनाई गई प्रवेश प्रक्रिया निम्नलिखित आधारों या दिए गए उदाहरणों या तरीके से मनमानी थी।
    • याचिकाकर्ताओं द्वारा लिखित परीक्षा में प्राप्त अंकों की अनभिज्ञता (इग्नोरेंस)।
    • छात्रों या अभ्यर्थियों की तुलनात्मक योग्यता का निर्धारण केवल मौखिक परीक्षा के आधार पर किया जाएगा।
    • लिखित परीक्षा की तुलना में मौखिक परीक्षा के लिए आवंटित अंकों में असमानता (100 के मुकाबले 50)।
    • मात्र 2 से 3 मिनट की अल्प अवधि के लिए साक्षात्कार आयोजित करके तथा ऐसे प्रश्न पूछकर जो चारों मानदंडों या विषयों से पूरी तरह अप्रासंगिक थे, प्रवेश प्रक्रिया के अनुसार अभ्यर्थियों की उपयुक्तता निर्धारित की गई। 
  • याचिकाकर्ताओं द्वारा दिया गया अगला तर्क यह था कि मौखिक परीक्षा या मौखिक साक्षात्कार के आधार पर दिए गए प्रवेश या चयन मनमाने थे और इसलिए संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करते हैं। उन्होंने तर्क दिया कि मौखिक साक्षात्कार या मौखिक परीक्षा उम्मीदवारों की उपयुक्तता निर्धारित करने के लिए उचित मानदंड प्रदान करने में विफल रही। उन्होंने आगे तर्क दिया कि इस तरह की परीक्षा व्यक्तिपरक थी और ज्यादातर प्रभाव (इंप्रेशन) की परीक्षा थी, जिसमें साक्षात्कारकर्ता के पक्षपात (बायस) या पूर्वाग्रह (प्रेजुडिस), उसकी धारणाओं आदि जैसे विभिन्न कारकों से प्रभावित होने की संभावना थी। इसके अलावा, उन्होंने तर्क दिया कि परीक्षा का यह रूप भेदभाव, भाई-भतीजावाद, शोषण या पक्षपात आदि के माध्यम से साक्षात्कारकर्ताओं को सौंपे गए विवेक (डिस्क्रीशन) या अधिकार के दुरुपयोग की गुंजाइश भी छोड़ता है। इसके अलावा, याचिकाकर्ताओं ने यह भी तर्क दिया कि कुछ मिनटों तक चलने वाले साक्षात्कार के आधार पर उम्मीदवार की योग्यता या क्षमताओं का मूल्यांकन करना वास्तविक रूप से संभव नहीं था और अनुचित था। 
  • याचिकाकर्ताओं की तीसरी दलील यह थी कि, भले ही मौखिक साक्षात्कार या मौखिक परीक्षा के आधार पर उम्मीदवारों का चयन प्रवेश देने के लिए एक वैध प्रक्रिया मानी जाती है, लेकिन इस विशेष मामले में मौखिक परीक्षा समग्र परीक्षा प्रक्रिया में आवंटित अंकों के अनुपात में असमानता के कारण अनुचित और मनमानी थी। उन्होंने तर्क दिया कि लिखित परीक्षा के लिए 100 अंकों के मुकाबले मौखिक परीक्षा के लिए 50 अंकों के आवंटन का मतलब यह होगा कि उम्मीदवारों के चयन के लिए कुल अंकों में से केवल एक-तिहाई (33.33%) को ही ध्यान में रखा जाएगा। उन्होंने तर्क दिया कि अंकों का यह आवंटन और इस तरह के आवंटन के आधार पर बाद में चयन अनुचित अनुपात पर आधारित था और इसलिए यह मनमाना और संविधान के तहत गारंटीकृत समानता के अधिकार का उल्लंघन था।
  • याचिकाकर्ताओं का अंतिम तर्क आयोजित साक्षात्कार की अवधि और मौखिक परीक्षा के दौरान पूछे गए प्रश्नों की प्रकृति पर आधारित था। याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि मौखिक परीक्षा औसतन केवल 2 से 3 मिनट तक चली, और पूछे गए प्रश्न प्रवेश प्रक्रिया के अनुसार, उम्मीदवार की योग्यता निर्धारित करने वाले चार मानदंडों के लिए भी अप्रासंगिक थे। इसलिए, उन्होंने तर्क दिया कि इतने कम समय में उम्मीदवार की उपयुक्तता का आकलन करना संभव नहीं था, खासकर जब साक्षात्कार के दौरान कोई प्रासंगिक प्रश्न नहीं पूछे गए थे।

प्रतिवादी

  • प्रतिवादियों का मुख्य तर्क याचिका की स्थिरता के बारे में था। प्रतिवादियों ने तर्क दिया कि माननीय न्यायालय के समक्ष रिट याचिका स्थिरता योग्य नहीं थी। उन्होंने तर्क दिया कि कॉलेज का प्रशासन एक सोसाइटी द्वारा किया जाता है, जो किसी क़ानून द्वारा स्थापित एजेंसी नहीं है, बल्कि जम्मू और कश्मीर सोसाइटी पंजीकरण अधिनियम, 1898 के तहत स्थापित एक सोसाइटी है। इसलिए उन्होंने तर्क दिया कि सोसाइटी संविधान के अनुच्छेद 12 के तहत “राज्य” के अर्थ और परिभाषा के भीतर एक “प्राधिकरण” नहीं है, और इसलिए न्यायालय के समक्ष रिट स्थिरता योग्य नहीं थी। 
  • प्रतिवादियों ने आगे तर्क दिया कि कॉलेज के खिलाफ कोई शिकायत नहीं की जा सकती है, क्योंकि उसने मनमाने तरीके से प्रवेश दिए और संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत प्रदत्त समानता के अधिकार का उल्लंघन किया, क्योंकि यह संविधान के अनुच्छेद 12 के तहत “राज्य” के अर्थ में राज्य नहीं था और भाग III के तहत अधिकारों को केवल राज्य के खिलाफ ही लागू किया जा सकता है।
  • प्रतिवादियों ने सभाजीत तिवारी बनाम भारत संघ और अन्य (1975) के मामले में दिए गए फैसले का हवाला देते हुए कहा कि सोसायटी पंजीकरण अधिनियम, 1860 के तहत किसी सोसायटी को संविधान के अनुच्छेद 12 के तहत राज्य के अर्थ में प्राधिकरण नहीं माना जा सकता। उन्होंने सुखदेव सिंह बनाम भगतराम (1975) के मामले का भी हवाला दिया ।
  • इसके अलावा, कॉलेज ने याचिकाकर्ताओं की पहली दलील का खंडन करते हुए तर्क दिया कि मौखिक परीक्षा तुलनात्मक प्रतिभा के आधार पर उम्मीदवारों की योग्यता का मूल्यांकन करने की अनुमति देती है, जो अंततः एक समान मानक पर आधारित है। उन्होंने आगे तर्क दिया कि यह परीक्षा योग्यता परीक्षा से बेहतर है, जो तुलनात्मक योग्यता के मूल्यांकन की अनुमति देती है।
  • इसके अतिरिक्त, कॉलेज ने याचिकाकर्ताओं के अंतिम तर्क का खंडन करते हुए कहा कि उनका साक्षात्कार लगभग 6 से 8 मिनट तक चला था, तथा केवल मौखिक परीक्षा के लिए आवंटित विषयों से संबंधित प्रश्न ही पूछे गए थे।

निर्णय 

इस मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने याचिका के गुण-दोष पर विचार करने से पहले, विचारणीयता के मुद्दे पर निर्णय लेने का फैसला लिया, जिसे प्रतिवादियों द्वारा मुख्य आपत्ति के रूप में उठाया गया था। न्यायालय ने याचिका की विचारणीयता पर निर्णय लेने के बाद, मामले के गुण-दोष पर विचार करना शुरू किया, जो कि चार अलग-अलग आधारों या तर्कों पर आधारित थे, जैसा कि ऊपर उल्लिखित याचिकाकर्ताओं के तर्क अनुभाग के शीर्षक के तहत चर्चा की गई है।

क्या यह याचिका माननीय सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष स्वीकार्य है?

न्यायालय ने मुख्य रूप से याचिका की स्वीकार्यता पर फैसला सुनाया। यह ध्यान दिया गया कि याचिका तभी स्वीकार्य हो सकती है जब सोसायटी संविधान के अनुच्छेद 12 के तहत ‘राज्य’ शब्द के अर्थ और दायरे में आती हो।

क्या सोसायटी एक प्राधिकरण है?

यद्यपि न्यायालय ने कहा कि सोसायटी को राज्य या केन्द्र सरकार या किसी स्थानीय प्राधिकरण के बराबर नहीं माना जा सकता, तथापि न्यायालय ने निर्णय दिया कि समाज अनुच्छेद 12 के अन्तर्गत “राज्य” के अर्थ और परिभाषा के अन्तर्गत उल्लिखित “अन्य प्राधिकरणों” की श्रेणी में आ सकता है।

न्यायालय ने सोसायटी की प्रकृति को देखते हुए, जो सोसायटी के नियमों और एसोसिएशन के ज्ञापन में परिलक्षित थी, फैसला सुनाया कि यह सरकार का एक संस्थान या एजेंसी है और इसलिए अनुच्छेद 12 के तहत “राज्य” अभिव्यक्ति की परिभाषा और दायरे के तहत उल्लिखित ‘अन्य प्राधिकरणों’ के अर्थ में एक प्राधिकरण है।

न्यायालय ने अंततः यह निर्णय दिया कि, चूंकि सोसायटी अनुच्छेद 12 के तहत एक प्राधिकरण है, इसलिए संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत मनमानी के खिलाफ मौलिक अधिकारों के अधिदेश को इसके खिलाफ लागू किया जा सकता है। इसलिए, यह माना गया कि याचिका माननीय सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष विचारणीय है।

मामले के गुण-दोष

क्या प्रवेश प्रक्रिया मनमानी थी?

माननीय न्यायालय याचिकाकर्ताओं के मुख्य तर्क से असहमत था, जिन्होंने तर्क दिया था कि कॉलेज की प्रवेश प्रक्रिया मनमानी थी। इसने कॉलेज द्वारा हलफनामे (एफिडेविट) के माध्यम से दिए गए तर्कों या बयानों पर विचार किया। न्यायालय ने फैसला सुनाया कि वह प्रवेश प्रक्रिया को केवल इस आधार पर मनमाना नहीं मानेगा कि प्रक्रिया में योग्यता परीक्षा की तुलना में मौखिक परीक्षा में प्राप्त अंकों पर विचार करने की अनुमति है या इस आधार पर कि उसने योग्यता परीक्षा में उम्मीदवारों द्वारा प्राप्त अंकों पर विचार करने से इनकार कर दिया है। 

अभ्यर्थियों के चयन के लिए मौखिक परीक्षा की वैधता

याचिकाकर्ताओं की चुनौती या विवाद का दूसरा आधार प्रवेश के लिए उम्मीदवारों के चयन के लिए एक परीक्षा के रूप में मौखिक प्रवेश परीक्षा की वैधता थी। इस विवाद के संबंध में न्यायालय ने शुरू में कहा कि इसे पूरी तरह निराधार मानकर खारिज नहीं किया जा सकता और कहा कि इस विवाद में कुछ हद तक दम है। हालांकि, न्यायालय ने अंततः याचिकाकर्ताओं के इस तर्क से सहमत होने से इनकार कर दिया कि मौखिक परीक्षा इस हद तक अमान्य या त्रुटिपूर्ण थी कि इसके आधार पर किए गए प्रवेश अमान्य घोषित किए जा सकते हैं। हालांकि न्यायालय इस बात से सहमत था कि मौखिक परीक्षा उम्मीदवार की योग्यता या प्रतिभा का आकलन करने का पर्याप्त तरीका नहीं हो सकता है, लेकिन उम्मीदवारों की योग्यता का मूल्यांकन या निर्धारण करने के लिए किसी अन्य बेहतर विकल्प की अनुपस्थिति के कारण वर्तमान में परीक्षा को तर्कहीन या अप्रासंगिक करार देना संभव नहीं था। 

फिर भी, न्यायालय ने कहा कि मौखिक परीक्षा को उम्मीदवार की योग्यता निर्धारित करने की एकमात्र विधि या परीक्षण के रूप में नहीं माना जाना चाहिए या उस पर भरोसा नहीं किया जाना चाहिए, बल्कि इसे केवल एक पूरक परीक्षा के रूप में माना जाना चाहिए, चाहे रोजगार या कॉलेजों में प्रवेश के मामले कुछ भी हों। यह भी कहा गया कि मौखिक परीक्षा आयोजित करने वाले व्यक्तियों की योग्यता, ईमानदारी और क्षमता को उस उद्देश्य के लिए नियुक्त करने से पहले ध्यान में रखा जाना चाहिए।

क्या वर्तमान मामले में मौखिक परीक्षा मनमानी एवं अनुचित थी?

माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने गौर किया कि याचिकाकर्ताओं का यह तर्क कि वर्तमान मामले में मौखिक परीक्षा मनमानी और अनुचित थी क्योंकि परीक्षा के दो चरणों में अंकों का अनुपातहीन आवंटन अवैध नहीं माना जा सकता। न्यायालय ने कहा कि वह मौखिक परीक्षा या साक्षात्कार के लिए अंकों के उच्च या अनुपातहीन आवंटन को परीक्षा के ऐसे तरीके के रूप में स्वीकार नहीं कर सकती जो मनमानी से पूरी तरह मुक्त है, क्योंकि इससे नैतिकता का क्षरण हो रहा है और भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद बढ़ रहा है। न्यायालय ने माना कि केवल साक्षात्कार के लिए कुल अंकों का एक-तिहाई (33.33%) आवंटित करना निस्संदेह अनुचित और मनमाना है। इसलिए, इसने फैसला सुनाया कि प्रवेश प्रक्रिया के आधार पर उम्मीदवारों को प्रवेश देना, जिसमें ऐसी मनमानी प्रक्रिया या कार्यप्रणाली थी, वैध नहीं ठहराया जा सकता।

प्रवेश प्रक्रिया और प्रवेशों को मनमाना ठहराते हुए भी, न्यायालय ने यह देखते हुए कि शैक्षणिक वर्ष 1979-80 में प्रवेश दिए जाने के बाद से लगभग 18 महीने की अवधि बीत चुकी है, कहा कि वर्तमान मामले में किए गए प्रवेशों को रद्द करना न्यायोचित नहीं होगा।

हालांकि, न्यायालय ने दोहराया कि इस प्रकार की प्रवेश प्रक्रिया में आत्मनिरीक्षण (इंट्रोस्पेक्शन) की आवश्यकता है, और राज्य तथा केंद्र सरकार दोनों को यह सुनिश्चित करने के लिए उचित कदम उठाने चाहिए कि साक्षात्कार या सामान्य रूप से प्रवेश प्रक्रिया में सही व्यक्ति शामिल हों।

इसके अलावा, माननीय न्यायालय ने निर्णय दिया कि किसी भी परीक्षा के कुल अंकों के 15% से अधिक अंक केवल मौखिक साक्षात्कार के लिए आवंटित करना अनुचित और मनमाना होगा, तथा ऐसा आवंटन असंवैधानिक घोषित किए जाने योग्य है और इसलिए न्यायालय द्वारा रद्द किया जा सकता है।

साक्षात्कार की अवधि और पूछे गए प्रश्नों की प्रासंगिकता

माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने इस मुद्दे पर उसी तरह से फैसला सुनाया जैसा उसने पिछले आधारों पर सुनाया था। इसने कहा कि चयन समिति के लिए किसी उम्मीदवार की योग्यता और क्षमता का आकलन मात्र 2 या 3 मिनट में करना संभव नहीं था, खासकर तब जब प्रवेश प्रक्रिया के अनुसार मूल्यांकन किए जाने वाले चार कारकों से संबंधित कोई प्रश्न नहीं पूछे गए थे। इसलिए, न्यायालय ने फैसला सुनाया कि यदि कोई मौखिक साक्षात्कार ऊपर बताए गए तरीके से आयोजित किया गया था, तो ऐसा साक्षात्कार निस्संदेह भ्रष्ट था, और ऐसे साक्षात्कार के आधार पर दिए गए प्रवेश अनुचित और मनमाने थे। 

हालाँकि, न्यायालय ने एक बार फिर टिप्पणी की कि वह पिछले मुद्दे पर निर्णय देते समय दिए गए कारणों से शैक्षणिक वर्ष 1979-80 के लिए किए गए प्रवेशों को रद्द करने के लिए तैयार नहीं है।

न्यायालय ने मौखिक साक्षात्कार के लिए निर्धारित अधिकतम अंकों में से निर्धारित अंकों के प्रतिशत की सीमा को दोहराया और निर्णय दिया कि उम्मीदवारों से केवल प्रासंगिक प्रश्न ही पूछे जाने चाहिए, जो मूल्यांकन कारकों पर आधारित हों, जो मौखिक साक्षात्कार को उचित और गैर-मनमाना बना सकें। यह भी सिफारिश की गई है कि पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिए मौखिक साक्षात्कारों को वीडियोग्राफी किया जाना चाहिए, और साक्षात्कारों को चुनौती देने वाले किसी भी विवाद या मामले को खत्म करने के लिए ऐसी वीडियोग्राफी का उपयोग साक्ष्य के रूप में किया जा सकता है।

रेशियो डिसाइडेंडी

याचिका की स्वीकार्यता

माननीय न्यायालय ने याचिका की स्वीकार्यता पर निर्णय लेते हुए कहा कि प्रवेश को चुनौती देने का एकमात्र वैध आधार यह है कि कॉलेज द्वारा अपनाई गई प्रवेश प्रक्रिया मनमानी थी, जिसके परिणामस्वरूप संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत याचिकाकर्ताओं के समानता के अधिकार का उल्लंघन हुआ। यह नोट किया गया कि याचिका तभी स्वीकार्य हो सकती है जब सोसायटी संविधान के अनुच्छेद 12 के तहत ‘राज्य’ के दायरे और अर्थ में आता हो क्योंकि मौलिक अधिकारों को केवल राज्य के खिलाफ ही लागू किया जा सकता है। इसलिए, न्यायालय ने यह जांचना शुरू किया कि क्या सोसायटी और उसके बाद कॉलेज को उक्त प्रावधान के तहत ‘राज्य’ माना जा सकता है।

क्या सोसायटी संविधान के अनुच्छेद 12 के अंतर्गत ‘राज्य’ शब्द के अर्थ में आता है? 

संविधान के अनुच्छेद 12 के तहत ‘राज्य’ शब्द के अर्थ और दायरे में सोसायटी को शामिल करने की जांच करते हुए न्यायालय ने कहा कि सोसायटी को कभी भी केंद्र या राज्य सरकार के बराबर नहीं माना जा सकता है, न ही इसे स्थानीय प्राधिकरण माना जा सकता है। हालांकि, न्यायालय ने कहा कि सोसायटी को “राज्य” के अर्थ और दायरे में आने के लिए प्रावधान में उल्लिखित ‘अन्य प्राधिकरण’ शब्द के दायरे में आना चाहिए।

न्यायालय ने देखा कि किस तरह निगम (कॉर्पोरेशन), निजी संस्थान या एजेंसियाँ प्रशासनिक कार्य निष्पादन में महत्व प्राप्त कर रही हैं और प्रशासनिक उपकरणों के रूप में सरकार की तीसरी भुजा बन रही हैं। यह भी देखा गया कि लचीलापन और कम प्रतिबंध सरकार को प्रशासनिक कार्यों को करने के लिए ऐसी एजेंसियों या निगमों का सहारा लेने की अनुमति दे रहे हैं। न्यायालय ने देखा कि ऐसी एजेंसियों या निगमों के मामलों में, पूरा अधिकार और स्वामित्व हमेशा राज्य के पास रहता है, और यह राज्य ही है जो ऐसी एजेंसियों के कार्यों के लिए जवाबदेह है क्योंकि वे राज्य द्वारा संचालित होती हैं। न्यायालय ने मूल रूप से नोट किया कि ऐसी एजेंसियाँ या निगम सरकारी अंगों की विस्तारित भुजा हैं। तदनुसार, न्यायालय ने फैसला सुनाया कि यद्यपि निगम और एजेंसियाँ अलग-अलग न्यायिक व्यक्ति या कानूनी संस्थाएँ हैं, लेकिन वे सरकार के समान ही संवैधानिक प्रतिबंधों के अधीन हैं।

माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने ऐसी एजेंसियों और निगमों को समान संवैधानिक सीमाओं के अधीन न करने के खतरों के बारे में चेतावनी दी। इसने कहा कि यदि ऐसी एजेंसियों को मौलिक अधिकारों के संवैधानिक आदेशों का पालन न करने की अनुमति दी जाती है, तो इससे उनकी कार्यकुशलता में गिरावट आएगी। यह भी देखा गया कि ऐसी स्थिति सरकार को निगमों या एजेंसियों के माध्यम से मौलिक अधिकारों की अवहेलना करने और उन्हें नियंत्रित करने के तरीके अपनाने में सक्षम बनाएगी। न्यायालय ने दोहराया कि इससे मौलिक अधिकार केवल भ्रम का वादा या मात्र सपना बनकर रह जाएंगे। यह देखा गया कि निगमित दृष्टिकोण का उपयोग सरकार को मौलिक अधिकारों का सम्मान करने के अपने मौलिक दायित्व से मुक्त करने और उन्हें रद्द न करने के लिए नहीं है। यह भी देखा गया कि सरकार पर निगमों का पर्दा केवल सरकार को कठोरता और बाधाओं से मुक्त रूप से कार्य करने की अनुमति देने के लिए है, न कि मौलिक अधिकारों की अवहेलना करने के लिए।

इसलिए न्यायालय ने माना कि यदि कोई निगम सरकार की संस्थान या एजेंसी है, तो उसे संविधान के अनुच्छेद 12 के तहत एक “प्राधिकरण” माना जाना चाहिए।

अनुच्छेद 12 के तहत प्राधिकरण के रूप में सरकार की एक संस्थान या एजेंसी

माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने, ऊपर उल्लिखित तर्क के आधार पर, यह विश्लेषण किया कि क्या सोसायटी सरकार की एक संस्थान या एजेंसी है, ताकि यह तय किया जा सके कि क्या यह अनुच्छेद 12 के तहत “राज्य” के अर्थ में एक ‘प्राधिकरण’ है। 

न्यायालय ने सुखदेव सिंह बनाम भगतराम (1975) के मामले में दिए गए फैसले पर गौर किया, जिसमें उसने यह निर्धारित करने के लिए एक परीक्षण निर्धारित किया था कि क्या कोई निगम एक प्राधिकरण है और इसके बाद संविधान के अनुच्छेद 12 के तहत “राज्य” के अर्थ और परिभाषा के अंतर्गत आता है। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने उक्त मामले में सरकार की संस्थान या एजेंसी का परीक्षण प्रस्तावित किया था, अर्थात यदि कोई निगम सरकार की संस्थान या एजेंसी है, तो उसे संविधान के अनुच्छेद 12 के तहत एक प्राधिकरण माना जा सकता है।

इसने आर.डी शेट्टी बनाम भारतीय अंतरराष्ट्रीय हवाईअड्डा प्राधिकरण (1979) के मामले में दिए गए सर्वसम्मत फैसले का हवाला दिया। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने उक्त मामले में सुखदेव सिंह बनाम भगतराम (1975) के मामले में रेखांकित परीक्षण की पुष्टि एक संतोषजनक परीक्षण के रूप में की थी ताकि यह निर्धारित किया जा सके कि क्या कोई निगम अनुच्छेद 12 के दायरे में एक प्राधिकरण है। इसने पहली बार अप्रैल 1948 में भारत सरकार द्वारा औद्योगिक नीति पर प्रस्ताव में सार्वजनिक कार्यों को पूरा करने के लिए सरकार के संस्थानों या एजेंसियों के रूप में निगमों के रोजगार की उत्पत्ति पर ध्यान दिया था। यह देखा गया कि किसी भी समाज की स्थापना के उद्देश्य पर यह निर्धारित करने के लिए विचार किया जाना चाहिए कि क्या यह स्थापना की प्रक्रिया को देखने के बजाय सरकार का एक साधन या एजेंसी है।

न्यायालय ने आर.डी शेट्टी बनाम भारतीय अंतरराष्ट्रीय हवाईअड्डा प्राधिकरण (1979) में माननीय न्यायालय द्वारा की गई विभिन्न टिप्पणियों पर गौर किया और उक्त टिप्पणियों से सहमति जताई। इसने यह पुष्टि करने के लिए निर्धारित परीक्षण का सारांश दिया कि क्या कोई निगम सरकार का संस्थान या एजेंसी है, इस प्रकार:

निम्नलिखित विभिन्न उदाहरण हैं जब किसी निगम को सरकार का संस्थान या एजेंसी माना जा सकता है:

  1. यदि सरकार निगम की सम्पूर्ण शेयर पूंजी रखती है।
  2. जब राज्य से प्राप्त वित्तीय सहायता का मूल्य निगम के व्यय के लगभग बराबर हो।
  3. जब निगम को राज्य संरक्षित या राज्य प्रदत्त एकाधिकार का दर्जा प्राप्त हो।
  4. जब निगम ऐसे कार्य करता है जो सार्वजनिक महत्व के हैं या सरकार द्वारा किए जाने वाले कार्यों से प्रासंगिक हैं।
  5. जब राज्य का निगम पर गहरा एवं व्यापक नियंत्रण हो।
  6. जब सरकार का कोई विभाग किसी निगम को हस्तांतरित कर दिया जाता है या उसमें इस प्रकार परिवर्तन कर दिया जाता है।

आर.डी शेट्टी बनाम भारतीय अंतरराष्ट्रीय हवाईअड्डा प्राधिकरण (1979) में दिए गए तर्क के आधार पर , न्यायालय ने उस मामले में की गई टिप्पणी को दोहराया कि यदि कोई निगम सरकार की एजेंसी या संस्थान है, तो उसे संविधान के अनुच्छेद 12 के तहत “राज्य” की अभिव्यक्ति के अर्थ में एक ‘प्राधिकरण’ माना जाएगा। न्यायालय ने यूपी वेयरहाउसिंग कॉरपोरेशन बनाम विजय नारायण (1980) के मामले का भी उल्लेख किया और कहा कि यही दृष्टिकोण अपनाया गया था।

न्यायालय ने स्पष्ट किया कि संस्थान या एजेंसी की अवधारणा किसी कानून द्वारा स्थापित निगम तक सीमित नहीं है, बल्कि प्रासंगिक कारकों के आधार पर कंपनियों या सोसाइटियों तक भी विस्तारित है। यह देखा गया कि किसी भी सोसाइटी की स्थापना के उद्देश्य पर विचार किया जाना चाहिए ताकि यह निर्धारित किया जा सके कि यह सरकार की संस्थान या एजेंसी है या नहीं, न कि स्थापना की प्रक्रिया पर गौर किया जाना चाहिए।

क्या सोसायटी सरकार की संस्थान या एजेंसी है

न्यायालय ने कहा कि एसोसिएशन के ज्ञापन और सोसायटी के नियमों की विषय-वस्तु को ध्यान में रखते हुए उक्त प्रश्न का उत्तर स्पष्ट रूप से सकारात्मक होगा। राज्य और केंद्र सरकार को सौंपी गई भूमिका और अधिकार को ध्यान में रखते हुए, यह निर्णय दिया गया कि सोसायटी राज्य और केंद्र सरकार की एक संस्था या एजेंसी है। इसलिए यह माना गया कि सोसायटी संविधान के अनुच्छेद 12 के तहत “राज्य” के अर्थ में एक ‘प्राधिकरण’ है।

अदालत ने अंततः फैसला सुनाया कि सोसायटी, “राज्य” के अर्थ के भीतर एक प्राधिकरण होने के कारण, संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत समानता के अधिकार के संवैधानिक जनादेश का पालन करने के लिए उत्तरदायी था। यह इस प्रकार है कि उपरोक्त प्रावधान के तहत मनमानेपन के खिलाफ अधिकार को सोसायटी के माध्यम से सोसायटी और कॉलेज के खिलाफ लागू किया जा सकता है। इसलिए, अदालत ने कहा कि याचिका को विचारणीय नहीं माना जा सकता है।

सोसायटी के एक अधिकारी होने के निहितार्थ (इंप्लीकेशंस)

माननीय न्यायालय ने अनुच्छेद 12 के तहत “राज्य” के अर्थ और दायरे में किसी भी सोसायटी या निगम को ‘अन्य प्राधिकरणों’ की श्रेणी में आने के कारण उत्पन्न होने वाले निहितार्थों पर भी प्रकाश डाला। निर्णय और टिप्पणियां उस अंतर को दर्शाती हैं जो उक्त प्रावधान के तहत सोसायटी को ‘अन्य प्राधिकरणों’ की श्रेणी में शामिल करने से आएगा।

न्यायालय ने फैसला सुनाया कि ‘अन्य प्राधिकरण’ के अर्थ में आने वाला कोई भी प्राधिकरण संविधान के अनुच्छेद 12 के तहत सरकार के समान ही बाध्यताओं के अधीन है। इसने फैसला सुनाया कि ऐसा प्राधिकरण संविधान के भाग III के तहत मौलिक अधिकारों के अधिदेश सहित अनुच्छेद 12 के तहत “राज्य” के दायरे में शामिल होने के कारण संवैधानिक जनादेश और सीमाओं का पालन करने के लिए बाध्य है।

न्यायालय ने कहा कि यदि सोसायटी अनुच्छेद 12 के तहत “राज्य” अभिव्यक्ति के अर्थ में एक प्राधिकारी है, तो उसे संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत निर्धारित समानता के अधिकार के दायरे में मनमानी के खिलाफ अधिकार के संवैधानिक दायित्व का सम्मान करना चाहिए। इसने ई.पी रॉयप्पा बनाम तमिलनाडु राज्य (1973) में दिए गए उल्लेखनीय फैसले पर ध्यान दिया , जहां माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि समानता और मनमानी एक दूसरे के विपरीत हैं और आगे फैसला दिया कि कोई भी कार्य जो मनमाना है, स्वाभाविक रूप से असमान है और इसलिए यह संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है और यदि मामला सार्वजनिक रोजगार से संबंधित है तो अनुच्छेद 16 का भी उल्लंघन है। न्यायालय ने मेनका गांधी बनाम भारत संघ (1978) में दिए गए फैसले पर भी ध्यान दिया, जहां माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने ईपी रॉयप्पा बनाम तमिलनाडु राज्य (1973) के फैसले में की गई टिप्पणियों की पुष्टि की ।

तदनुसार, न्यायालय ने निर्णय दिया कि जब भी राज्य की कोई कार्रवाई, भले ही वह अनुच्छेद 12 के अर्थ के तहत महज एक ‘प्राधिकरण’ की हो, मनमानी हो, तो ऐसी कार्रवाई को अनुच्छेद 14 द्वारा निरस्त किया जाना चाहिए, जो मनमानी के विरुद्ध संरक्षण सुनिश्चित करता है। 

मामले के गुण-दोष

न्यायालय ने इस मामले के गुण-दोष पर निर्णय देते समय हलफनामे के माध्यम से कॉलेज द्वारा दिए गए बयानों पर विचार किया। इसने कॉलेज के इस कथन पर गौर किया कि प्रवेश परीक्षा के माध्यम से प्रवेश प्रक्रियाओं का विनियमन यह सुनिश्चित करने के लिए आवश्यक था कि जम्मू-कश्मीर के विभिन्न मंडलों द्वारा आयोजित योग्यता परीक्षा की तिथियों में अंतर और परिणामों में देरी के कारण उम्मीदवारों के प्रवेश प्रभावित न हों। इसने इस कथन पर भी गौर किया कि मौखिक साक्षात्कार दो अलग-अलग मंडलों द्वारा आयोजित योग्यता परीक्षा के आधार पर निर्धारित करने के बजाय साक्षात्कार के माध्यम से एक समान मानक पर उम्मीदवारों की तुलनात्मक योग्यता के निर्धारण में सहायता करता है। इसलिए, न्यायालय ने कहा कि वह केवल इस आधार पर प्रवेश प्रक्रिया को मनमाना नहीं मानेगा कि उसने मौखिक प्रवेश परीक्षा के माध्यम से प्रवेश को विनियमित किया और योग्यता परीक्षा में प्राप्त अंकों पर विचार नहीं किया।

हालांकि न्यायालय ने कहा कि मौखिक परीक्षा को दी गई चुनौती पूरी तरह अनुचित नहीं है, लेकिन उसने यह भी कहा कि उम्मीदवारों की क्षमता का निर्धारण करने के लिए अधिकांश प्रवेश परीक्षाओं में यह परीक्षा बहुत प्रासंगिक है। यह गौर किया गया कि इस परीक्षा को विभिन्न मामलों में न्यायालयों द्वारा मान्यता दी गई है। इसने आर. चित्रलेखा बनाम मैसूर राज्य (1964) में दिए गए फैसले पर ध्यान दिया, जहां न्यायालय ने मौखिक साक्षात्कार को मनमाना, अनुचित या अप्रासंगिक घोषित करने से इनकार कर दिया था। इसने पीरियाकरुप्पन बनाम तमिलनाडु राज्य (1970) के फैसले पर भी ध्यान दिया , जहां न्यायालय ने इस तर्क से सहमत होने से इनकार कर दिया था कि मौखिक साक्षात्कार एक हद तक दोषपूर्ण है कि इसे बेकार घोषित किया जाए। 

तदनुसार, यह देखते हुए भी कि मौखिक साक्षात्कार उम्मीदवार की योग्यता और क्षमता निर्धारित करने के लिए पर्याप्त परीक्षण नहीं हो सकता है, उसने इसे मनमाना, अप्रासंगिक या अनुचित मानने से इनकार कर दिया।

न्यायालय ने याचिकाकर्ताओं की इस दलील को स्वीकार कर लिया कि मौखिक साक्षात्कार के लिए आवंटित अंक अपेक्षाकृत अधिक थे। यह नोट किया गया कि केवल मौखिक साक्षात्कार के लिए इतने अधिक प्रतिशत अंकों का आवंटन नैतिक मूल्यों के लुप्त होने और पक्षपात और भ्रष्टाचार में वृद्धि को देखते हुए मनमानी से पूरी तरह मुक्त नहीं माना जा सकता है। इसने पीरियाकरुप्पन बनाम तमिलनाडु राज्य (1970) और निशी मघु बनाम जम्मू और कश्मीर राज्य (1980) के मामलों में दिए गए फैसलों पर ध्यान दिया , जहां न्यायालय ने मौखिक साक्षात्कार के लिए अत्यधिक अंकों के आवंटन के संबंध में टिप्पणियां की थीं। उक्त मामले में न्यायालय ने नोट किया था कि साक्षात्कार के लिए 150 में से 50 अंक आरक्षित करना अत्यधिक था, खासकर जब साक्षात्कार के लिए आवंटित समय केवल 4 मिनट के आसपास था।

न्यायालय ने आगे कहा कि सिविल सेवा के विभिन्न विभागों, जिनमें व्यक्तिगत चरित्र और योग्यता का बहुत महत्व है, के लिए उम्मीदवारों के चयन के लिए यूपी.एस.सी परीक्षा में मौखिक साक्षात्कार के लिए आवंटित अंक कुल अंकों का केवल 12.5% ​​​​है। इसलिए, न्यायालय ने फैसला सुनाया कि केवल मौखिक साक्षात्कार के लिए एक तिहाई (33.33%) अंकों का आवंटन मनमाना है, और इस तरह की प्रक्रिया के आधार पर किए गए प्रवेश अमान्य हैं। हालांकि, यह देखा गया कि 18 महीने की लंबी अवधि के बाद शैक्षणिक वर्ष 1979-80 में किए गए प्रवेशों को रद्द करने से उन छात्रों के प्रवेश खतरे में पड़ जाएंगे जिनके प्रवेश वैध हैं और मनमाने नहीं हैं और जिन्होंने पाठ्यक्रम के 3 सेमेस्टर पूरे कर लिए हैं। यह भी गौर किया गया कि याचिकाकर्ताओं के लिए उसी बैच में शामिल होना संभव नहीं होगा क्योंकि इतनी लंबी अवधि बीत चुकी है।

फिर भी, न्यायालय ने माना कि यदि याचिकाकर्ताओं ने साक्षात्कार लेने वाली समिति की दुर्भावनापूर्ण कार्रवाइयों को स्थापित कर दिया होता, तो वह ऊपर बताए गए कारणों के बावजूद भी प्रवेश बहाल करने के लिए कदम उठाता, लेकिन याचिकाकर्ता ऐसा करने में विफल रहे। इसने चिन्हित किया कि साक्षात्कार लेने वाली समिति के खिलाफ़ दुर्भावनापूर्ण कार्रवाइयों के आरोपों पर फैसला सुनाने और उसे जवाबदेह ठहराने के लिए और अधिक ठोस सबूतों की आवश्यकता थी।

न्यायालय ने साक्षात्कार की अवधि के बारे में याचिकाकर्ताओं द्वारा उठाए गए तर्क को स्वीकार कर लिया। यह पाया गया कि साक्षात्कार 2 या 3 मिनट से अधिक समय तक नहीं चला, जिससे उम्मीदवारों की क्षमता का आकलन करना अनुचित और अमान्य हो गया, खासकर तब जब उम्मीदवारों की योग्यता निर्धारित करने वाले कारकों से संबंधित कोई प्रश्न नहीं पूछे गए थे। न्यायालय ने साक्षात्कार के दौरान कॉलेज के प्रतिनिधि की अनुपस्थिति को देखते हुए इस तर्क को अस्वीकार करने पर विचार करने से इनकार कर दिया। यह भी पाया गया कि साक्षात्कारकर्ताओं में से कोई भी आरोप से इनकार करने के लिए आगे नहीं आया, जिसके कारण न्यायालय ने यह धारणा बनाई कि मौखिक साक्षात्कार अधिकतम 2 से 3 मिनट तक चला।

विश्लेषण

माननीय न्यायालय ने इस मामले में अधिकांश टिप्पणियां संविधान के अनुच्छेद 12 के तहत ‘प्राधिकरण’ और उसके बाद ‘राज्य’ अभिव्यक्ति के अर्थ और दायरे तथा विचारणीयता के मुद्दे पर ही कीं। याचिका की विचारणीयता की जांच करते हुए, इसने उक्त प्रावधान के तहत ‘राज्य’ अभिव्यक्ति के अर्थ और दायरे के संबंध में एक स्पष्ट कानून बनाया।

न्यायालय ने याचिका की स्वीकार्यता, या यों कहें कि अनुच्छेद 12 के तहत ‘प्राधिकरण’ अभिव्यक्ति के दायरे के संबंध में स्पष्ट और विस्तृत स्पष्टीकरण और तर्क प्रदान किया। इसने स्पष्ट किया कि किस प्रकार की सोसायटियों, कंपनियों या निगमों को उक्त प्रावधान में “अन्य प्राधिकरणों” शब्द के अर्थ में प्राधिकरण माना जा सकता है। न्यायालय ने इस मुद्दे पर की गई विभिन्न टिप्पणियों और फैसलों पर गौर किया और इस संबंध में कानून के सिद्धांतों को और सरल बनाया, जिसमें उन उदाहरणों को सूचीबद्ध किया गया जब किसी निगम को सरकार का संस्थान या एजेंसी माना जा सकता है और इस प्रकार उसे अनुच्छेद 12 के अर्थ में, ऐसे निगम की विशेषताओं पर विचार करते हुए, प्राधिकरण माना जा सकता है। हालांकि, यह गौर करना महत्वपूर्ण है कि उदाहरणों की सरलीकृत सूची संपूर्ण नहीं है, बल्कि केवल उन निगमों की प्रकृति को दर्शाती है जिन्हें उक्त प्रावधान के तहत प्राधिकरण माना जा सकता है। 

इसके अलावा, न्यायालय ने अनुच्छेद 12 के तहत प्राधिकरण के अर्थ में या “राज्य” के व्यापक दायरे में आने वाले किसी भी प्राधिकरण के महत्व पर भी बल दिया। इसने संविधान के भाग III के तहत निहित मौलिक अधिकारों का सम्मान करने और उनका पालन करने के संवैधानिक दायित्व के विस्तार की ओर ध्यान आकर्षित किया, क्योंकि वे अनुच्छेद 12 के अर्थ और दायरे में शामिल किए गए हैं। अनुच्छेद 12 के तहत “राज्य” के अर्थ और दायरे का विस्तार करने का अर्थ है व्यक्तियों के मौलिक अधिकारों की अधिक सुरक्षा और सरकार के लिए निगमों और समितियों आदि की स्थापना करके सार्वजनिक कार्यों को करने के जरिए उन अधिकारों को खत्म करने की कम गुंजाइश। न्यायालय ने “राज्य” अभिव्यक्ति के दायरे का विस्तार न करने के खतरों को चिन्हित किया और कहा कि निगमों और समितियों (विशेषकर जिनके कार्यों में महत्वपूर्ण सरकारी हस्तक्षेप या दखल शामिल है) को संवैधानिक आदेशों का पालन न करने की अनुमति देने से अंततः ऐसे आदेश केवल कागज पर एक सपने के रूप में रह जाएंगे, न कि वास्तविकता के रूप में।

न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत समानता के अधिकार की विषय-वस्तु और दायरे पर भी प्रकाश डाला तथा ई.पी. रोयप्पा बनाम तमिलनाडु राज्य (1973) के मामले में दिए गए ऐतिहासिक फैसले की पुष्टि की और उसका उल्लेख किया, जिसमें कहा गया था कि समानता के अधिकार में स्वाभाविक रूप से मनमानी के विरुद्ध अधिकार भी शामिल है।

माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने अनुच्छेद 12 और 14 के दायरे को विस्तृत रूप से स्पष्ट करने के बाद मामले की योग्यता की जांच की। प्रवेश प्रक्रिया की वैधता को चुनौती देने वाली मुख्य दलील के अलावा, न्यायालय ने याचिकाकर्ताओं की अन्य तीन दलीलों को भी वैध और उचित माना। 

न्यायालय पहले दो तर्कों पर एक बड़े परिप्रेक्ष्य से विचार कर रहा था और खुद को वर्तमान मामले तक सीमित नहीं कर रहा था। पहले दो तर्क प्रवेश प्रक्रिया और सामान्य रूप से मौखिक साक्षात्कार को चुनौती देने के बारे में थे। इन दो तर्कों पर न्यायालय का निर्णय नकारात्मक था, जहाँ न्यायालय ने याचिकाकर्ताओं के तर्कों को स्वीकार करने से इनकार कर दिया। इसने अभ्यर्थियों की योग्यता का आकलन करने और निर्धारण करने के एक समान मानक को बनाए रखने के लिए प्रवेश परीक्षा के माध्यम से प्रवेश प्रक्रिया के विनियमन की आवश्यकता पर विचार करते हुए याचिकाकर्ताओं के मुख्य तर्क को खारिज कर दिया। इसके अलावा, चुनौती के दूसरे आधार के संबंध में, न्यायालय ने शुरू में याचिकाकर्ताओं के तर्क को स्वीकार किया कि मौखिक साक्षात्कार परीक्षा का एक उपयुक्त तरीका नहीं हो सकता है, लेकिन इसने अभ्यर्थियों की क्षमता या योग्यता निर्धारित करने के लिए परीक्षा या परीक्षण के किसी अन्य बेहतर या पर्याप्त तरीके की अनुपस्थिति पर विचार करते हुए मौखिक साक्षात्कार को अमान्य घोषित करने से इनकार कर दिया। 

हालांकि, न्यायालय ने दूसरे आधार के संबंध में मात्र सिफारिशी उद्देश्य पूरा किया, जहां उसने बताया कि साक्षात्कारकर्ताओं की क्षमता के संबंध में आत्मनिरीक्षण की आवश्यकता है और यह भी सिफारिश की कि मौखिक साक्षात्कार को उम्मीदवार की योग्यता निर्धारित करने का एकमात्र आधार नहीं माना जाना चाहिए।

चुनौती के अन्य दो आधार विशेष रूप से इस मामले से संबंधित थे और इसमें कोई बड़ा परिप्रेक्ष्य शामिल नहीं था। माननीय न्यायालय ने चुनौती के उक्त दो आधारों पर सकारात्मक निर्णय लिया, याचिकाकर्ताओं की दलीलों को बरकरार रखा, लेकिन प्रवेश होने के बाद से 18 महीने बीत जाने पर विचार करते हुए याचिकाकर्ताओं को कोई ठोस राहत नहीं दे सका। इसने उन्हें अमान्य घोषित करने से परहेज किया क्योंकि इससे अन्य छात्रों पर भी असर पड़ेगा जिनका इस मामले से कोई संबंध नहीं है और जिनके प्रवेश वैध थे, हालांकि इसने इस मामले में प्रवेश प्रक्रिया को अनुचित माना क्योंकि इसमें केवल साक्षात्कार के लिए अंकों का उच्च प्रतिशत आवंटित किया गया था। इसी तरह, न्यायालय ने साक्षात्कार की अवधि के संबंध में याचिकाकर्ताओं की अंतिम दलील को भी बरकरार रखा, लेकिन उन्हीं पूर्वोक्त कारणों से कोई राहत देने से परहेज किया। 

हालांकि, चुनौती के अंतिम दो आधारों पर निर्णय लेते हुए न्यायालय ने कुछ दिशा-निर्देश या नियम निर्धारित किए हैं जिनका पालन गैर-मनमाना और उचित प्रक्रियाओं को सुनिश्चित करने के लिए किया जाना चाहिए। इसने मौखिक साक्षात्कार के लिए आवंटित किए जाने वाले कुल अंकों की 15% की ऊपरी सीमा निर्धारित की, और यह भी स्पष्ट किया कि मौखिक साक्षात्कार के दौरान केवल प्रासंगिक प्रश्न ही पूछे जाने चाहिए। न्यायालय ने पारदर्शिता और स्पष्टता सुनिश्चित करने के लिए मौखिक साक्षात्कारों की वीडियोग्राफी की भी सिफारिश की।

हालांकि न्यायालय ने याचिकाकर्ताओं द्वारा चुनौती दिए गए 4 में से 3 आधारों को स्वीकार कर लिया, लेकिन लंबी अवधि बीत जाने और अन्य स्पष्ट कारणों के कारण याचिकाकर्ताओं को कोई ठोस राहत नहीं दी। न्यायालय द्वारा दी गई एकमात्र राहत याचिकाकर्ताओं को शैक्षणिक वर्ष 1981-82 के लिए प्रवेश प्रदान करना था।

इस मामले में न्यायालय की भूमिका एक संस्तुतिकारी (रिकमेंडेटरी) प्राधिकरण की अधिक थी क्योंकि राहत के अधिकांश क्रियाशील भाग राज्य को संस्तुतियों या सुझावों के रूप में थे। यद्यपि न्यायालय ने इस मामले में मौखिक साक्षात्कार और प्रवेश को मनमाना और अनुचित माना, लेकिन समय बीत जाने के कारण और याचिकाकर्ताओं की ओर से यह साबित करने के लिए ठोस भौतिक साक्ष्य की कमी के कारण प्रवेश को रद्द करने से परहेज किया कि मौखिक साक्षात्कार पूरी तरह से पक्षपातपूर्ण, अनुचित और मनमाना था। फिर भी, इस बात पर ध्यान देना आवश्यक है कि यह निर्णय महत्वपूर्ण मूल्य रखता है और किसी भी उद्देश्य के लिए उम्मीदवारों की पात्रता या चयन से संबंधित मामलों के लिए एक मिसाल के रूप में कार्य करता है। साक्षात्कार प्रक्रिया के माध्यम से चयन के दौरान बनाए रखने वाली सीमाओं से संबंधित दिशानिर्देश बहुत महत्वपूर्ण और मूल्यवान हैं।

वर्तमान समय में मामले का महत्व

संविधान के भाग III के तहत निर्धारित मौलिक अधिकारों के संवैधानिक दायित्व के प्रवर्तन और पूर्ति के लिए “राज्य” अभिव्यक्ति के दायरे और इसके अर्थ के भीतर विभिन्न प्राधिकरणों के संबंध में यह निर्णय उल्लेखनीय महत्व रखता है। नागरिकों के मौलिक अधिकारों को हल्के में न लिया जाए, यह सुनिश्चित करने के लिए राज्य के दायरे का विस्तार अत्यंत आवश्यक है, खासकर तब जब सार्वजनिक कार्यों को करने में सरकार के भीतर निगमित कार्यप्रणाली अधिक प्रचलित हो रही है। ऐसा विस्तार बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह सरकार को सार्वजनिक कार्यों को करने के लिए निजी या निगमित संस्थानों का सहारा लेकर मौलिक अधिकारों की अवहेलना करने से रोकता है।

हाल ही में देखा गया है कि सार्वजनिक कार्य करने वाली कई संस्थाओं का निगमीकरण या निजीकरण लोकप्रिय हो रहा है, जो आम तौर पर राज्य, सरकार और उसके अधिकारियों द्वारा किए जाते हैं। हाल ही में एक उदाहरण देश भर में सार्वजनिक निजी भागीदारी (पी पी पी) मॉडल के माध्यम से कुछ हवाई अड्डों का निजीकरण है, जो हवाई अड्डों के संचालन और प्रबंधन के लिए निजी खिलाड़ियों को दीर्घकालिक आधार पर पट्टे पर देकर किया गया है। इस तरह की स्थितियों में, “राज्य” और “प्राधिकरण” शब्दों का दायरा व्यक्तियों के मौलिक अधिकारों की जवाबदेही और सुरक्षा सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यदि उपर्युक्त शब्दों का दायरा ऐसे निगमों तक नहीं फैलता है जो सार्वजनिक कार्य करने वाली संस्थाओं (दिए गए मामले में हवाई अड्डे) पर कब्ज़ा कर लेते हैं, तो सरकार के लिए निगमों के माध्यम से मौलिक अधिकारों को दरकिनार करना आसान हो जाता है। इसलिए, यह सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण है कि सार्वजनिक कार्य करने वाला कोई भी निगम मौलिक अधिकारों का सम्मान करे और उनकी अवहेलना न करे और सरकार की तरह ही जवाबदेह हो।

इस संबंध में एक उल्लेखनीय अवलोकन मद्रास विश्वविद्यालय बनाम शांता बाई और अन्य (1953) के फैसले में किया गया था , जहां न्यायालय ने कहा था कि “अन्य प्राधिकरण” शब्द का तात्पर्य सरकारी कार्य करने वाले किसी भी प्राधिकरण से है। यह अवलोकन, वर्तमान मामले, अजय हसिया बनाम खालिद मुजीब (1981) में निर्धारित स्पष्ट कानून के साथ, अनुच्छेद 12 के तहत “राज्य” और “अन्य प्राधिकरणों” के दायरे के बारे में, व्यक्तियों के मौलिक अधिकारों की रक्षा करते हुए निगमों और समाजों के माध्यम से अपने कार्यों को पूरा करने और दायित्वों को पूरा करने के लिए सरकार के लिए लचीलापन सुनिश्चित करने में बहुत महत्व रखता है।

इस संबंध में एक और हालिया फैसला माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने कौशल किशोर बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2023) के मामले में सुनाया , जिसमें उसने फैसला सुनाया कि संविधान के अनुच्छेद 19 और 21 के तहत मौलिक अधिकारों को राज्य और उसके संस्थानों के अलावा अन्य व्यक्तियों के खिलाफ भी लागू किया जा सकता है। इसके बाद, यह फैसला यह प्रावधान करता है कि उपरोक्त दो प्रावधानों के तहत मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन के लिए अनुच्छेद 12 के तहत राज्य या उसके किसी भी संस्थान की आवश्यकता नहीं है। केवल इन दो प्रावधानों के तहत मौलिक अधिकारों को निजी व्यक्तियों के खिलाफ भी लागू किया जा सकता है। इसका तात्पर्य यह है कि जब संविधान के अनुच्छेद 19 और 21 के तहत दिए गए मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन की बात आती है तो अनुच्छेद 12 के तहत अभिव्यक्ति का दायरा अप्रासंगिक है।

निष्कर्ष

माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा विभिन्न निर्णयों में उल्लेखित मौलिक अधिकारों की अधिकतम संभव सीमा तक तथा हर संभव तरीके से सुरक्षा सुनिश्चित करना अत्यंत आवश्यक है, जिससे मौलिक अधिकार केवल कागज का टुकड़ा बनकर रह जाएं। अनेक उदाहरणों में सरकार मौलिक अधिकारों की रक्षा के संवैधानिक दायित्व या आदेश को जानबूझकर या कभी-कभी कुछ कार्यों के निष्पादन के लिए दरकिनार कर सकती है। हालांकि, यह सुनिश्चित करना न्यायालयों का कर्तव्य है कि किसी भी सार्वजनिक कार्य का निष्पादन असंवैधानिक या मनमाना न हो, जैसा कि वर्तमान मामले तथा कुछ अन्य मामलों में किया गया। माननीय न्यायालय ने ऐसे उदाहरण प्रस्तुत करके जहां किसी भी संस्था को प्राधिकरण माना जा सकता है, अनुच्छेद 12 के अंतर्गत राज्य के अर्थ में प्राधिकरणों की प्रकृति से संबंधित स्पष्ट कानून बनाया है। न्यायालय ने शिक्षा, रोजगार या इनमें से किसी में प्रवेश की प्रक्रियाओं के क्षेत्र में किए जाने वाले परिवर्तनों के संबंध में भी महत्वपूर्ण सिफारिशें की हैं। यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि मौजूदा प्रक्रियाओं में आत्मनिरीक्षण की आवश्यकता है तथा ऐसे आत्मनिरीक्षण के पश्चात आवश्यक परिवर्तन किए जाने चाहिए। कुल मिलाकर, हालांकि यह निर्णय कॉलेज में कुछ प्रवेशों से संबंधित है, फिर भी इस निर्णय में की गई विभिन्न टिप्पणियां और सिफारिशें महत्वपूर्ण मूल्य की हैं।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफ.ए.क्यू)

संवैधानिक प्रावधान के रूप में अनुच्छेद 12 का क्या महत्व है?

संविधान का अनुच्छेद 12 “राज्य” शब्द के अर्थ में प्राधिकरण को परिभाषित करता है। हालाँकि, जैसा कि वर्तमान मामले में उल्लेख किया गया है, प्राधिकरण की यह परिभाषा और इसका अनुप्रयोग संविधान के भाग III के तहत मौलिक अधिकारों और अनुच्छेद 36 के आधार पर भाग IV तक ही सीमित है। हालाँकि, न्यायालय ने स्पष्ट किया कि यह परिभाषा अन्य संवैधानिक प्रावधानों में उल्लिखित उद्देश्यों तक विस्तारित नहीं होती है।

वे कौन से प्राधिकारी हैं जिनके विरुद्ध मौलिक अधिकार लागू किये जा सकते हैं?

अनुच्छेद 12 में यह निर्धारित किया गया है कि मौलिक अधिकारों को किसके विरुद्ध लागू किया जा सकता है। इस प्रावधान में शामिल संस्थान हैं – केंद्र और राज्य विधानमंडल तथा सरकारें, स्थानीय प्राधिकरण और अन्य प्राधिकरण।

कौशल किशोर बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2023) में कहा गया है कि केवल अनुच्छेद 19 और 21 के तहत मौलिक अधिकारों को राज्य और उसके संस्थानों के अलावा अन्य व्यक्तियों के विरुद्ध लागू किया जा सकता है।

क्या मनमानी के विरुद्ध अधिकार एक मौलिक अधिकार है?

हां, ई.पी. रोयप्पा बनाम तमिलनाडु राज्य (1973) में माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत समानता के अधिकार के एक भाग के रूप में मनमानी के खिलाफ अधिकार को उल्लेखित किया गया है।

क्या निजी संस्थाओं को अनुच्छेद 12 के अंतर्गत प्राधिकरण या राज्य माना जा सकता है?

हां, किसी भी निजी संस्थान को प्राधिकरण या राज्य माना जा सकता है, यदि वह सरकार की संस्थान या एजेंसी के परीक्षण को पूरा करता है, जिसे माननीय न्यायालय ने राजस्थान राज्य विद्युत मंडल बनाम मोहनलाल (1967) और सुखदेव सिंह बनाम भगत राम (1975) जैसे विभिन्न फैसलों में निर्धारित किया था । 

सरल शब्दों में, किसी भी निजी संस्थान को प्राधिकरण या राज्य माना जा सकता है यदि उसमें सरकार का पर्याप्त हस्तक्षेप शामिल हो या उसे सरकार से महत्वपूर्ण वित्तीय निधि या सहायता प्राप्त हो।

संदर्भ

 

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