अहमद जी.एच.आरिफ बनाम संपत्ति कर आयुक्त (1971)

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यह लेख Meenakshi Kalra द्वारा लिखा गया है। यह लेख अहमद जी.एच.आरिफ बनाम संपत्ति कर आयुक्त (1969) के मामले में तथ्यों, उठाए गए मुद्दों, प्रस्तुत तर्कों और पारित निर्णय का विश्लेषण करता है। इस मामले ने स्पष्ट किया कि वक्फ से आय प्राप्त करने का अधिकार, भले ही वह रखरखाव और सहायता के लिए हो, संपत्ति कर अधिनियम, 1957 के तहत एक कर योग्य संपत्ति है। इस लेख का अनुवाद Chitrangda Sharma के द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय

अहमद जी.एच. आरिफ बनाम संपत्ति कर आयुक्त (1969) का मामला मुख्य रूप से संपत्ति कर अधिनियम, 1957 (जिसे आगे संपत्ति कर अधिनियम कहा जाएगा) के इर्द-गिर्द घूमता है और संपत्ति कर अधिनियम की धारा 2(e) (परिसंपत्तियों (एसेट्स) की परिभाषा) के दायरे की व्याख्या करने का प्रयास करती है। वर्तमान मामले में, विवाद तब उत्पन्न हुआ जब अपीलकर्ताओं पर एक वक्फ संपत्ति से उत्पन्न आय के उनके हिस्से पर कर लगाया गया, जिसे एक हनफी मुस्लिम ने अपनी मृत्यु के बाद उनके समर्थन और रखरखाव के लिए स्थापित किया था। 

यह मामला पीड़ित अपीलकर्ताओं द्वारा दायर अपीलों के माध्यम से सर्वोच्च न्यायालय में पहुंचा, जिन्होंने महसूस किया कि वक्फ-अल-औलाद से आय प्राप्त करने के उनके अधिकार को कम किया जा रहा है और संपत्ति कर अधिकारी द्वारा इसे गलत तरीके से “परिसंपत्ति” कहा जा रहा है। 

इस लेख में भारत में संपत्ति कर की गणना से संबंधित मुद्दों का समाधान ढूंढने का प्रयास किया गया, तथा इन कानूनों की व्याख्या करते समय उत्पन्न होने वाली जटिलताओं और चुनौतियों पर प्रकाश डाला गया है। किसी भी देश में, कर सरकार के लिए राजस्व और वित्तीय ढांचे के विकास के मुख्य स्रोतों में से एक है। इन कराधान कानूनों का उचित कार्यान्वयन यह सुनिश्चित करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है कि सामाजिक समानता बनी रहे और अर्थव्यवस्था विनियमित बनी रहे। 

इस मामले के तथ्यों, मुद्दों और निर्णय की जांच करके, संपत्ति कर के निहितार्थ और इसके आसपास के कानूनी परिदृश्य की व्याख्या करने का प्रयास किया गया है। 

मामले का विवरण

अपीलकर्ता

अहमद जी.एच.आरिफ़ और अन्य

प्रतिवादी

संपत्ति कर आयुक्त, कलकत्ता

मामले का प्रकार

सिविल अपील संख्या 2129 से 2132, 1968।

न्यायालय

भारत का सर्वोच्च न्यायालय

न्यायपीठ

मुख्य न्यायाधीश जे.सी. शाह, न्यायमूर्ति ए.एन. ग्रोवर, न्यायमूर्ति वी. रामास्वामी

निर्णय की तिथि

20 अगस्त, 1969

समतुल्य उद्धरण

1971 एआईआर 1691,1970 एससीआर (2) 19, एआईआर 1971 सर्वोच्च न्यायालय 1691,1971 टैक्स.एल.आर.952

शामिल कानूनी प्रावधान

  1. संपत्ति कर अधिनियम, 1957 की धारा 2(e)
  2. संपत्ति कर अधिनियम, 1957 की धारा 5
  3. संपत्ति कर अधिनियम, 1957 की धारा 27
  4. मुसलमान वक्फ वैधीकरण अधिनियम, 1913 की धारा 3

मामले की पृष्ठभूमि

यह मामला कलकत्ता उच्च न्यायालय द्वारा कर मामले संख्या 69, 62 और 64/1963 में 4 दिसंबर, 1964 को दिए गए निर्णय और आदेश के विरुद्ध अपील का परिणाम है। 

वक्फ-अल-औलाद, जिसका सरल शब्दों में अर्थ है पारिवारिक न्यास (ट्रस्ट), एक हनफी मुस्लिम, गुलाम हुसैन कासिम आरिफ (जिसे सेटलर (व्यवस्थापक) भी कहा जाता है) द्वारा अपनी मृत्यु के बाद अपनी पत्नी और अपने तीन बेटों और उत्तराधिकारियों के लिए लाभ सुरक्षित करने के लिए बनाया गया था। आगे कहा गया कि यदि वसीयतकर्ता के वंशज बिना वसीयत बनाए मर जाते हैं, तो उसके परिवार और वंशजों के लिए आरक्षित लाभ, अंतिम लाभ के रूप में गरीब मुसलमानों और सुन्नी समुदाय को उनकी बेहतरी के लिए दिए जाने चाहिए। 

अपीलकर्ता पहले से ही वक्फ विलेख (डीड) के तहत उन्हें दी जा रही राशि और लाभों पर आयकर का भुगतान कर रहे थे। 1957 में संपत्ति कर अधिनियम पारित किया गया और अब आयकर के साथ-साथ अपीलकर्ताओं को संपत्ति कर भी देना आवश्यक था। इसका आकलन संपत्ति कर अधिकारी द्वारा उनके द्वारा प्राप्त आय और कर निर्धारण वर्ष 1957-58 और 1958-59 के दौरान वक्फ संपत्ति में उनके हिस्से के अनुसार किया जाएगा। 

वर्तमान मामले में संपत्ति कर अधिकारी ने वक्फ संपदा (एस्टेट) की अचल संपत्ति का मूल्य वार्षिक नगरपालिका मूल्यांकन से 20 गुना अधिक आंका हैं। इसके अलावा, प्रत्येक करदाता की शुद्ध संपत्ति का मूल्यांकन वक्फ संपदा में अचल संपत्ति के कुल मूल्य का सोलहवां हिस्सा किया गया था। 

अहमद जी.एच.आरिफ बनाम संपत्ति कर आयुक्त (1971) के तथ्य

  1. 19 नवंबर 1928 के एक विलेख द्वारा तथा 5 जुलाई 1930 के एक सुधार विलेख द्वारा, जिसे संशोधित किया गया था, व्यवस्थापक ने स्वयं को कलकत्ता के नूरमुल लोहिया लेन और अर्मेनियाई स्ट्रीट में स्थित अपनी संपत्तियों के लिए स्थापित वक्फ-अल-औलाद का एकमात्र मुतवल्ली (वक्फ का प्रबंधक) चुना। अपने विलेख में उन्होंने कहा कि उनकी मृत्यु के बाद उनके बेटे और उनकी विधवा मिलकर मुतवल्ली बनेंगे। 
  2. ऐसा उनकी पत्नी, बेटों और उनके उत्तराधिकारियों के लिए लाभ सुनिश्चित करने के उद्देश्य से किया गया था। उन्हें संपत्ति से होने वाली शुद्ध मासिक आय में से एक हिस्सा मिलेगा। 1 जनवरी, 1937 को उनकी मृत्यु हो गई और उनके परिवार में उनकी विधवा और तीन पुत्र बचे, जो वर्तमान मामले में अपीलकर्ता बन गए। 
  3. उन्हें दिए जाने वाले लाभ संशोधित वक्फ विलेख के खंड 5 द्वारा निर्धारित किए जाएंगे, जिसमें कहा गया है कि- सभी शुल्कों, जैसे स्थापना शुल्क, संग्रह शुल्क, राजस्व कर, मरम्मत की लागत, कानूनी शुल्क और वक्फ संपत्ति के रखरखाव और प्रबंधन के लिए अन्य लागतों के भुगतान के बाद, संपत्ति से उत्पन्न होने वाली शुद्ध आय का उपयोग मुतवल्ली या मुतवालिस द्वारा किया जाएगा। इस मामले में, यह इस प्रकार होगा: 
  • शुद्ध आय का पांचवां हिस्सा गुलाम हुसैन कासिम आरिफ  को मासिक किश्तों में दिया जाएगा। 
  • शुद्ध आय का छठा हिस्सा तीनों पुत्रों को जीवनपर्यन्त मासिक किश्तों में दिया जाएगा। 
  • शुद्ध आय का दसवां हिस्सा गुलाम हुसैन कासिम आरिफ की पत्नी को उसके जीवनकाल तक मासिक किश्तों के माध्यम से दिया जाएगा। 

4. इसके अलावा, यह भी कहा गया कि उक्त संपत्तियों में बेटों के हिस्से से होने वाली शुद्ध आय को, उनकी शिक्षा और वयस्क होने तक के भरण-पोषण के लिए आवश्यक खर्चों को घटाने के बाद निवेश किया जाना था। ऐसा निवेश उचित प्रतिभूतियों (सिक्योरिटीज) में या कलकत्ता में संपत्तियों में निवेश करके किया जाना था। पुत्रों के वयस्क होने पर ये संपत्तियां और प्रतिभूतियां उन्हें हस्तांतरित कर दी जाएंगी। 

5. विलेख में यह भी कहा गया था कि यदि व्यवस्थापक के वंशज बिना वसीयत के मर जाते हैं, तो ऐसे परिवार और वंशजों को मिलने वाले सभी लाभ, अंतिम लाभ के रूप में गरीब मुसलमानों और सुन्नी समुदाय को उनकी मदद के लिए दिए जाएंगे। 

6. 1957 में संपत्ति कर अधिनियम लागू हुआ, जिसके तहत अपीलकर्ताओं को आयकर का भुगतान करने के साथ-साथ, कर निर्धारण वर्ष 1957-58 और 1958-59 के लिए वक्फ संपदा से आय पर संपत्ति कर का भुगतान करने के लिए भी उत्तरदायी बताया गया। संपत्ति से आय का आकलन करते समय, संपत्ति कर अधिकारी ने निर्धारित किया कि अचल संपत्ति का कुल मूल्य वार्षिक नगरपालिका मूल्यांकन का 20 गुना था और प्रत्येक करदाता को उसकी शुद्ध संपत्ति के रूप में संपत्ति के मूल्य के सोलहवें हिस्से के बराबर मूल्यांकित किया जाना था। 

7. इससे व्यथित होकर अपीलकर्ताओं ने अपीलीय सहायक आयुक्त, संपत्ति कर तथा उसके बाद आयकर अपीलीय न्यायाधिकरण (ट्रिब्यूनल) का दरवाजा खटखटाया, लेकिन अपील खारिज कर दी गई तथा कोई विवाद नहीं उठाया गया। इसके बाद मामला संपत्ति कर अधिनियम की धारा 27 के अंतर्गत कलकत्ता उच्च न्यायालय में पहुंचा। यहां यह माना गया कि वक्फ आय का एक निर्दिष्ट हिस्सा प्राप्त करने का करदाता का अधिकार संपत्ति-कर के अधीन है और निर्णय करदाता के खिलाफ किया गया था। वर्तमान मामले में कलकत्ता उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर की गई थी। 

मामले मे उठाए गए मुद्दे 

क्या वक्फ संपदा से उत्पन्न शुद्ध आय में से हिस्सा प्राप्त करने का करदाता का अधिकार एक परिसंपत्ति है, जिसका मौद्रिक मूल्य संपत्ति कर के रूप में कर योग्य है? 

पक्षों के तर्क

अपीलकर्ता

अपीलकर्ताओं द्वारा यह तर्क दिया गया कि वक्फ विलेख द्वारा उन्हें दिया गया अधिकार केवल संपत्ति कर अधिनियम की धारा 2(e)(iv) के तहत दी गई वार्षिकी (एनुइटी) का अधिकार था, और इसलिए यह ऐसी संपत्ति नहीं थी जिसे संपत्ति कर के रूप में मूल्यांकित किया जाना चाहिए। 

इसके अलावा, यह तर्क दिया गया कि लाभार्थियों को देय आय गैर-हस्तांतरणीय थी, जैसा कि संपत्ति हस्तांतरण अधिनियम, 1882 (जिसे आगे टीपीए, 1882 के रूप में संदर्भित किया गया है) की धारा 6(d) (क्या हस्तांतरित किया जा सकता है) के तहत कहा गया है और यह उनके रखरखाव और जीविका के लिए था। उनको दी जाने वाली आय और लाभ का कोई बाजार मूल्य नहीं था। इस प्रकार, इसे लाभार्थियों की शुद्ध संपत्ति में शामिल नहीं किया जा सका। इसके अलावा, अपीलकर्ताओं ने दावा किया कि उनके द्वारा प्राप्त आय वक्फ विलेख के तहत भरण-पोषण के उद्देश्य से थी और इसलिए, उन्हें भरण-पोषण का अधिकार है। 

अपीलकर्ताओं का मुख्य तर्क यह था कि विलेख के तहत आय प्राप्त करने का उनका अधिकार “संपत्ति” के अर्थ में नहीं आ सकता, भले ही इसे व्यापक और उदार (लिबरल) तरीके से लिया जाए। इस्लाम के पैगम्बर द्वारा बताए गए नियम के अनुसार, जब संपत्ति को वक्फ घोषित कर दिया जाता है, तो वाकिफ के सभी अधिकार वहीं समाप्त हो जाते हैं और ईश्वर के पास चले जाते हैं। केवल स्वामित्व ही मुतवल्ली को हस्तांतरित किया जाता है, और वह भी इस अर्थ में कि ऐसा मुतवल्ली मूलतः संपत्ति का प्रबंधक होता है, न कि न्यासी (ट्रस्टी) प्रबंधक होता है। मुतवल्ली को न्यायालय की पूर्व अनुमति प्राप्त किए बिना वक्फ संपत्ति को बेचने, बंधक (मॉर्टगेज) करने या विनिमय (एक्सचेंज) करने का कोई अधिकार नहीं है, जब तक कि वक्फ विलेख में अन्यथा उल्लेख न किया गया हो। वक्फ संपदा में संपत्ति की बुनियादी विशेषताओं का अभाव है, क्योंकि मुसलमान वक्फ वैधीकरण अधिनियम, 1913 में कहा गया है कि अधिनियम के प्रावधानों के अनुपालन के लिए, एक हनफी मुसलमान को संपदा से प्राप्त आय का उपयोग केवल अपने भरण-पोषण और सहायता के लिए करना चाहिए, इस प्रकार यह अहस्तांतरणीय है और कुर्की (अटैचमेंट) के लिए उत्तरदायी नहीं है। यदि आय का उपयोग अन्यथा किया जाता है, तो यह अधिनियम में निर्धारित प्रावधानों के विरुद्ध होगा तथा हस्तांतरणीय और कुर्क योग्य हो जाएगा। इसलिए, वक्फ विलेख के खंड 5 की व्याख्या इस प्रकार की जानी चाहिए कि लाभार्थियों को दी जाने वाली आय का हिस्सा उनके भरण-पोषण और सहायता के लिए है। अन्यथा, सम्पूर्ण विलेख शून्य हो जाएगा। 

प्रतिवादी

प्रतिवादियों की ओर से तर्क दिया गया कि वक्फ संपत्ति से प्राप्त अपीलकर्ताओं की शुद्ध आय का हिस्सा, संपत्ति कर अधिनियम की धारा 2(e) के तहत “परिसंपत्ति” शब्द के दायरे में आता है। यह केवल लाभार्थियों का वार्षिकी पाने का अधिकार नहीं था। बल्कि, वक्फ संपत्तियों से आय का हिस्सा प्राप्त करने के करदाता के अधिकार और वार्षिकी के बीच स्पष्ट अंतर था। 

इसके अलावा, यह तर्क दिया गया कि भले ही परिसंपत्ति गैर-हस्तांतरणीय प्रकृति की हो और उसका कोई वास्तविक बाजार मूल्य न हो, फिर भी संपत्ति कर अधिकारी द्वारा इस आधार पर उसका मूल्यांकन किया जाना चाहिए कि इसे खुले बाजार में बेचा जा सकता है और मूल्य का आकलन तदनुसार किया जा सकता है। आय में हिस्सेदारी के अधिकार की बिक्री का अर्थ अधिकार की वास्तविक बिक्री नहीं है। इसका अर्थ यह है कि यह मान लिया गया है कि यदि कोई बिक्री होने वाली है, तो बाजार में ऐसे अधिकार की क्या कीमत मिलेगी। 

इसके अलावा, संपत्ति कर अधिनियम की धारा 5 में कुछ ऐसी संपत्तियों की सूची दी गई है जो संपत्ति कर से मुक्त हैं। केवल ये परिसंपत्तियां ही कर से मुक्त हैं तथा रखरखाव का अधिकार भी रखती हैं। अपीलकर्ताओं द्वारा दावा की गई परिसंपत्तियों का उल्लेख धारा के अंतर्गत नहीं किया गया है। इसलिए, उन्हें छूट नहीं दी जा सकती है।

अहमद जी.एच.आरिफ बनाम संपत्ति कर आयुक्त (1971) मामले में शामिल कानून

संपत्ति कर अधिनियम, 1957 की धारा 2(e)

यह धारा “परिसंपत्ति” शब्द का अर्थ समस्त संपत्ति से लगाती है जो प्रकृति में चल या अचल हो सकती है और यह भी बताती है कि परिसंपत्तियों के अंतर्गत क्या शामिल नहीं है: 

उप-खण्ड (1) के अधीन, 1 अप्रैल, 1969 या उससे पहले प्रारम्भ होने वाले कर निर्धारण वर्ष के संबंध में, इस शब्द के दायरे में निम्नलिखित शामिल नहीं हैं- 

  1. कृषि भूमि और उस पर फसलें, घास, खड़े पेड़ उगाना।
  2. कोई भी इमारत जो किसी कृषक या कृषि भूमि से प्राप्त होने वाले राजस्व/किराए के प्राप्तकर्ता के स्वामित्व में हो या उसके कब्जे में हो
  3. पशु
  4. वार्षिकी का अधिकार, जहां शर्तों में कहा गया है कि इसे एकमुश्त भुगतान में परिवर्तित नहीं किया जा सकता।
  5. संपत्ति में कोई भी हित, जहां ऐसा हित, उसके अर्जित होने की तारीख से 6 वर्ष से अधिक के लिए न हो। 

उप-खण्ड (2) के अधीन, 1 अप्रैल, 1970 से प्रारम्भ होने वाले तथा उसके पश्चात् किन्तु 1 अप्रैल, 1993 से पूर्व के किसी भी वर्ष के संबंध में, इसमें निम्नलिखित सम्मिलित नहीं है- 

  1. पशु
  2. वार्षिकी का अधिकार (उन वार्षिकी को छोड़कर जो करदाता या किसी अन्य व्यक्ति द्वारा खरीदी गई हो जिसने करदाता के साथ अनुबंध किया हो) जिसे एकमुश्त भुगतान में परिवर्तित नहीं किया जा सकता।
  3. संपत्ति में कोई भी हित, जहां ऐसा हित, उसके अर्जित होने की तारीख से 6 वर्ष से अधिक के लिए न हो।

1 अप्रैल, 1981 और 1 अप्रैल, 1982 से शुरू होने वाले कर निर्धारण वर्ष के संबंध में, उप-खण्ड (1) की मद संख्या (i), जो कृषि भूमि और ऐसी भूमि पर उगने वाली फसलों, घास और खड़े पेड़ों के बारे में बात करती है, को निम्नलिखित द्वारा प्रतिस्थापित किया जाएगा: 

  1. चाय, कॉफी, रबर या इलायची उगाने के लिए उपयोग की जाने वाली भूमि को छोड़कर कृषि भूमि।
  2. कोई भी भवन जो किसी कृषक या किसी ऐसे व्यक्ति के स्वामित्व में हो या उसके कब्जे में हो जो चाय, कॉफी, रबर या इलायची उगाने के लिए उपयोग की जाने वाली भूमि को छोड़कर कृषि भूमि से किराया/राजस्व प्राप्त करता हो।
  3. पशु

1 अप्रैल, 1983 से शुरू होने वाले कर निर्धारण वर्ष या उसके बाद के किसी भी कर निर्धारण वर्ष के संबंध में, उप-खण्ड (1) की मद संख्या (i) जो चाय, कॉफी, रबर या इलायची उगाने के लिए उपयोग की जाने वाली भूमि को छोड़कर कृषि भूमि के बारे में बात करती है, को निम्नलिखित द्वारा प्रतिस्थापित किया जाएगा: 

  1. कृषि भूमि और उस पर फसलें उगाना (पेड़ों पर उगने वाले फलों सहित), घास और खड़े पेड़।
  2. भवन/इमारत जो किसी कृषक या कृषि भूमि से प्राप्त होने वाले किराए या राजस्व के प्राप्तकर्ता के स्वामित्व में हों या उसके कब्जे में हों।
  3. पशु

जम्मू और कश्मीर राज्य के लिए, उप-खंड (1) के मद (i) से (iii) में सूचीबद्ध परिसंपत्तियों (अर्थात (i) कृषि भूमि और ऐसी भूमि पर उगाई जाने वाली फसलें, घास, खड़े पेड़, (ii) कोई भी इमारत जो किसी कृषक या कृषि भूमि से उत्पन्न होने वाले राजस्व/किराए के प्राप्तकर्ता के स्वामित्व में है या उसके कब्जे में है, (iii) पशु) का उपयोग उपरोक्त उप-खंड (2) के मद (i) में सूचीबद्ध परिसंपत्तियों (अर्थात (i) कृषि भूमि और ऐसी भूमि पर उगाई जाने वाली फसलें (पेड़ों पर उगने वाले फलों सहित), घास और खड़े पेड़) के स्थान पर किया जाना है। 

संपत्ति कर अधिनियम, 1957 की धारा 5

यह धारा उन छूटों का उल्लेख करती है जो सूचीबद्ध परिसंपत्तियों के मामले में दी जा सकती हैं, जहां करदाता किसी भी संपत्ति कर का भुगतान करने के लिए उत्तरदायी नहीं है और उन परिसंपत्तियों को करदाता की शुद्ध संपत्ति में नहीं गिना जाएगा: 

  1. ऐसी संपत्ति पर संपत्ति कर देय नहीं होगा जो करदाता द्वारा किसी न्यास या किसी अन्य कानूनी दायित्व के हिस्से के रूप में रखी गई हो और जिसका उपयोग भारत में किसी धर्मार्थ या धार्मिक उद्देश्य के लिए किया जा रहा हो। 

इसमें किसी व्यवसाय में उपयोग की जा रही संपत्ति शामिल नहीं है, जब तक कि वह आयकर अधिनियम, 1961 की धारा 11(4A) में वर्णित व्यवसाय न हो, ऐसे व्यवसाय की अलग खाता बही होनी चाहिए या यह आयकर अधिनियम, 1961 की धारा 10(23B) या धारा 10(23C) में वर्णित किसी संस्था, निधि या न्यास द्वारा संचालित व्यवसाय होना चाहिए। 

  1. करदाता को उस हिन्दू अविभाजित परिवार की सहदायिकी (कोपार्सनरी) सम्पत्ति पर संपत्ति कर नहीं देना होगा जिसका वह सदस्य है। 
  2. किसी शासक द्वारा अधिभोग (ऑक्यूपेंसी) की गई इमारत पर संपत्ति कर का भुगतान नहीं किया जाएगा, बशर्ते कि वह छब्बीसवें संवैधानिक संशोधन अधिनियम, 1971 से ठीक पहले उसका आधिकारिक निवास था, जैसा कि केंद्रीय सरकार द्वारा विलीन राज्य (कराधान रियायतें) आदेश, 1949 के परिच्छेद (पैराग्राफ) 13, या भाग ‘B’ राज्य (कराधान रियायतें) आदेश, 1950 के परिच्छेद 15 के तहत घोषित किया गया है। 
  3. किसी शासक के पास रहे आभूषणों पर संपत्ति कर देय नहीं होगा, बशर्ते कि वे उसकी निजी संपत्ति न हों और केन्द्रीय सरकार द्वारा संपत्ति कर अधिनियम लागू होने से पहले उन्हें विरासत का दर्जा दिया गया हो। यदि ऐसी कोई मान्यता नहीं दी गई है, तो बोर्ड केन्द्रीय सरकार द्वारा निर्धारित नियमों के अनुसार, संपत्ति-कर के प्रथम मूल्यांकन के दौरान इसे विरासत के रूप में मान्यता दे सकता है। 

परंतु

  • आभूषणों को स्थायी रूप से भारत में ही रखा जाएगा, सिवाय इसके कि ऐसे आभूषणों को हटाने के लिए बोर्ड द्वारा प्राधिकृत किया गया हो। 
  • जहां तक संभव हो, आभूषणों को अक्षुण्ण (इंटैक्ट) और प्रामाणिक स्थिति में रखने के लिए तर्कसंगत और व्यावहारिक कदम उठाए जाने चाहिए।
  • बोर्ड द्वारा प्राधिकृत सरकारी अधिकारी के पक्ष में हर समय आभूषणों की जांच करने के लिए वास्तविक प्रावधान किए जाएंगे। 

यदि शर्तों का पालन नहीं किया जाता है, तो बोर्ड लिखित रूप में अपने कारण बताते हुए, भारतीय राज्यों के शासक (विशेषाधिकारों का उन्मूलन (एबोलिशन)) अधिनियम, 1972 (अब निरस्त) की धारा 5 के खंड (b) की शुरुआत की तारीख से, पूर्वव्यापी (रेट्रोस्पेक्टिव) रूप से, आभूषण की विरासत के रूप में स्वीकृति वापस ले सकता है। यदि मान्यता वापस ले ली जाती है, तो शासक को उन सभी कर निर्धारण वर्षों के लिए संपत्ति कर का भुगतान करना होगा, जिनके लिए छूट दी गई थी। 

उपरोक्त खण्ड के लिए आभूषण का उचित बाजार मूल्य प्रत्येक पिछले कर निर्धारण वर्ष की निकासी तिथि पर आभूषण का मूल्य होगा। 

इसके अलावा, मान्यता वापस लेने के बाद आभूषण के लिए भुगतान किए जाने वाले कुल संपत्ति कर की राशि, उस कर निर्धारण वर्ष के लिए लागू मूल्यांकन तिथि को उसके उचित बाजार मूल्य के 50% से अधिक नहीं होगी, जिसमें उसकी मान्यता वापस ली गई थी। 

  1. यदि करदाता भारतीय मूल का व्यक्ति (या भारतीय नागरिक) है, जो सामान्यतः किसी विदेशी देश में रहता है, लेकिन स्थायी रूप से रहने के इरादे से भारत लौट आया है, तो संपत्ति कर देय नहीं होगा। ऐसे मामले में, उसके द्वारा खरीदी या अर्जित की गई संपत्तियां और धन (भारत लौटने के एक वर्ष के भीतर और लौटने के बाद किसी भी समय) संपत्ति के दायरे में आने से मुक्त हैं। यह छूट उस व्यक्ति के भारत लौटने से शुरू होकर लगातार सात कर निर्धारण वर्षों के लिए लागू होती है। 

किसी व्यक्ति को भारतीय मूल का कहा जाता है यदि वह, उसके माता-पिता या उसके दादा-दादी में से कोई भी अविभाजित भारत में पैदा हुआ हो। 

“धन” से तात्पर्य किसी भारतीय बैंक में गैर-निवासी (बाह्य (एक्सटर्नल)) खाते में मौजूद धन से है, जो विदेशी मुद्रा विनियमन अधिनियम, 1973 के तहत वर्णित प्रावधानों के अनुरूप है, व्यक्ति के भारत लौटने के समय, और इसे भारत में लाया गया धन माना जाता है। 

2. यदि मकान या मकान का कोई भाग या भूमि का कोई भूखण्ड उपलब्ध कराया जाता है, तथा भूमि का क्षेत्रफल 500 वर्ग मीटर या उससे कम है तथा वह किसी व्यक्ति या हिन्दू अविभाजित परिवार का है, तो संपत्ति कर देय नहीं होगा। 

संपत्ति कर अधिनियम, 1957 की धारा 27

यह धारा उच्च न्यायालय को संदर्भित करने के बारे में बात करती है, जिसमें या तो करदाता, मुख्य आयुक्त या आयुक्त, किसी आदेश से उत्पन्न होने वाले कानून के किसी भी प्रश्न को संदर्भित कर सकते हैं। आवेदन निर्धारित प्रपत्र में धारा 24 (अपील) या धारा 26 (वृद्धि के आदेशों से अपील) या धारा 35(1)(e) (गलतियों का सुधार) के अंतर्गत आदेश की तामील (सर्विस) (1 जून, 1999 से पहले) की तारीख से 60 दिनों के भीतर किया जाना चाहिए। यदि आवेदन करदाता द्वारा किया गया है तो उसे आवेदन के साथ दो सौ रुपये का शुल्क जमा करना होगा। धारा में वर्णित अन्य प्रावधानों के अनुसार, अपीलीय न्यायाधिकरण को उक्त आदेश से उत्पन्न किसी भी विधिक प्रश्न को उच्च न्यायालय को संदर्भित करने का अधिकार है। अपीलीय न्यायाधिकरण को संदर्भ के लिए आवेदन प्राप्त होने के 120 दिनों के भीतर मामले का विवरण तैयार करना होगा तथा उसे उच्च न्यायालय को भेजना होगा। 

यदि अपीलीय न्यायाधिकरण कारण से संतुष्ट हो जाता है और करदाता ने 60 दिनों की समयावधि के भीतर आवेदन प्रस्तुत करने में विफलता के संबंध में पर्याप्त सबूत प्रस्तुत कर दिए हैं, तो न्यायाधिकरण 30 दिनों तक का विस्तार दे सकता है। 

अपीलीय न्यायाधिकरण संदर्भ के लिए आवेदन को अस्वीकार कर सकता है यदि कोई कानूनी प्रश्न उत्पन्न नहीं हुआ है या आवेदन की समयावधि समाप्त हो चुकी है। यदि आवेदक इनकार से व्यथित है, तो वह ऐसे इनकार की प्राप्ति से 90 दिनों के भीतर उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटा सकता है। यदि उच्च न्यायालय को लगता है कि अपीलीय न्यायाधिकरण का आदेश गलत था, तो वह अपीलीय न्यायाधिकरण को मामला उच्च न्यायालय को बताने का निर्देश दे सकता है। 

यदि न्यायाधिकरण यह कहता है कि कोई कानूनी प्रश्न नहीं उठता है और करदाता के आवेदन को अस्वीकार कर देता है, और करदाता ऐसे अस्वीकार के 30 दिनों के भीतर आवेदन वापस ले लेता है, तो वह अपने द्वारा भुगतान की गई शुल्क की वापसी का हकदार है। 

यदि विधि के उस प्रश्न के संबंध में, जिस पर संदर्भ आवेदन किया गया है, उच्च न्यायालयों के निर्णयों के बीच कोई मतभेद उत्पन्न होता है, तो अपीलीय न्यायाधिकरण सीधे मामले का विवरण तैयार कर सकता है और उसे अपने अध्यक्ष के माध्यम से सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत कर सकता है। 

यदि पर्याप्त कारण दर्शाया गया हो तो उच्च न्यायालय 90 दिनों की समाप्ति के बाद भी आवेदन दायर करने की अनुमति दे सकता है। 

उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय में प्रस्तुत मामले के विवरण में तथ्य, अपीलीय न्यायाधिकरण द्वारा निकाला गया निष्कर्ष तथा विधि का प्रश्न, जिस पर मामला आधारित है, सम्मिलित होगा। 

यदि उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय न्यायाधिकरण द्वारा बताए गए मामले के विवरण से असंतुष्ट महसूस करता है, तथा विधि के प्रश्न का निष्कर्ष निकालने में असमर्थ है, तो वह न्यायाधिकरण को ऐसे विवरण में परिवर्तन करने का निर्देश दे सकता है। 

उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय मामले की सुनवाई के बाद उठाए गए विधि के प्रश्न पर निर्णय दे सकता है और यदि आवश्यक हो तो विधि के प्रश्न को संशोधित कर सकता है, उस पर निर्णय ले सकता है और निर्णय के आधार बताते हुए निर्णय दे सकता है। इसकी एक प्रति न्यायालय की मुहर और रजिस्ट्रार के हस्ताक्षर के साथ अपीलीय न्यायाधिकरण को भेजी जाएगी, जिसके बाद न्यायाधिकरण निर्णय के अनुसार मामले के निपटान के लिए महत्वपूर्ण अन्य आदेश पारित करेगा। 

उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय में किए गए संदर्भ की लागत, शुल्क को छोड़कर, न्यायालय द्वारा तय की जाएगी। 

मुसलमान वक्फ वैधीकरण अधिनियम, 1913 की धारा 3

धारा 3 मुसलमानों की कुछ वक्फ बनाने की शक्ति के बारे में बात करती है। इस धारा के अनुसार, मुस्लिम आस्था रखने वाला कोई भी व्यक्ति वक्फ बना सकता है, लेकिन यह मुस्लिम कानून के अनुरूप होना चाहिए और निम्नलिखित उद्देश्यों के लिए होना चाहिए: 

  1. यह उनके परिवार के समर्थन और भरण पोषण के लिए बनाया गया है जिसमें बच्चे या वंशज शामिल हैं।
  2. इसे हनफ़ी मुसलमान द्वारा अपने जीवन-पर्यन्त भरण-पोषण के लिए या संपत्ति से प्राप्त राजस्व या किराए से ऋण चुकाने के लिए बनाया जाता है। 

वक्फ से उत्पन्न होने वाला अंतिम लाभ, प्रत्यक्षतः या निहित रूप से, गरीबों के लिए सुरक्षित और अलग रखा जाना चाहिए, या लाभ मुस्लिम कानून द्वारा मान्यता प्राप्त स्थायी प्रकृति के धार्मिक, पवित्र या धर्मार्थ उद्देश्य के लिए होना चाहिए। 

अहमद जी.एच.आरिफ बनाम संपत्ति कर आयुक्त (1971) मामले में निर्णय

सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि वक्फ संपत्ति से उत्पन्न आय में हिस्सा प्राप्त करने के लिए बेटों के पक्ष में अधिकार और लाभ संपत्ति या संपत्ति में हित थे और यह संपत्ति कर अधिनियम की धारा 2(e) के तहत “संपत्ति” की परिभाषा के अंतर्गत आता है। संपत्ति का ऐसा उपभोग छह वर्ष की अवधि तक सीमित नहीं था और इसलिए, धारा 2(e) में निहित अपवाद के तहत कोई छूट का दावा नहीं किया जा सकता था। 

सर्वोच्च न्यायालय ने आगे कहा कि याचिकाकर्ताओं का यह दावा कि उनका अधिकार केवल वार्षिकी का अधिकार है, गलत है तथा वक्फ विलेख के तहत आय में हिस्सेदारी का अधिकार एक परिसंपत्ति के दायरे में आता है और इस प्रकार, इसका मूल्यांकन इसके मूल्य के आधार पर किया जा सकता है। 

न्यायालय ने यह भी कहा कि जिन मामलों में परिसंपत्ति का मूल्य निर्धारित नहीं किया जा सकता, वहां उसका मूल्यांकन संपत्ति कर अधिकारी द्वारा किया जाना चाहिए। मूल्य का अनुमान इस प्रकार लगाया जाना था मानो वह खुले बाजार में बेचा जा रहा हो। 

सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में अपना फैसला सुनाते हुए, उसके समक्ष दायर अपीलों को जुर्माने सहित खारिज कर दिया, तथा कहा कि अपीलकर्ता अपनी प्राप्त आय के हिस्से पर संपत्ति कर का भुगतान करने के लिए उत्तरदायी हैं, क्योंकि यह संपत्ति की परिभाषा के अंतर्गत आता है। 

निर्णय के पीछे तर्क

मामले में विवाद का मुख्य मुद्दा यह था कि क्या वक्फ-अल-औलाद से आय प्राप्त करने का अधिकार संपत्ति कर अधिनियम, 1957 की धारा 2(e) के तहत दिए गए “परिसंपत्ति” शब्द के दायरे में आता है। 

न्यायालय ने इस बात पर प्रकाश डाला कि संपत्ति कर अधिनियम के तहत परिभाषित “परिसंपत्ति” शब्द व्यापक है और इसमें सभी प्रकार की संपत्ति शामिल है, चाहे वह चल हो या अचल और इसलिए, इसमें हितों की एक विस्तृत श्रृंखला शामिल है जिस पर इस अधिनियम के दायरे के तहत कर लगाया जा सकता है। अपीलकर्ताओं का यह तर्क कि आय प्राप्त करने के अधिकार का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता, को भी न्यायालय ने खारिज कर दिया और जवाब में कहा गया कि यदि परिसंपत्ति का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता है, तो परिसंपत्ति का मूल्य अनुमान लगाना और उसका आकलन करना संपत्ति कर अधिकारी का काम है, जिसके आधार पर खुले बाजार में उसका मूल्य निर्धारित किया जाएगा। 

इस मामले में आय का हिस्सा प्राप्त करने के अधिकार की जांच की गई। न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि अपीलकर्ताओं का अधिकार केवल भरण-पोषण का अधिकार नहीं था। बल्कि, वक्फ संपदा से प्राप्त आय का उपयोग उनके द्वारा सिर्फ रखरखाव और सहायता के लिए ही नहीं किया जा रहा था, जिससे यह मूर्त मूल्य के साथ एक मालिकाना हक बन गया। इसके कारण, वक्फ संपदा से प्राप्त आय को संपत्ति की विशेषताएं कहा जा सकता है, जिससे यह एक परिसंपत्ति बन जाती है और इस प्रकार, इसे संपत्ति कर अधिनियम के तहत कर योग्य माना जाता है। 

मामले में संदर्भित प्रासंगिक निर्णय

विद्या वरुथी तीर्थ बनाम बालूसामी अय्यर (1921)

विद्या वरूथी बनाम बालूसामी अय्यर (1921) के मामले में, बॉम्बे उच्च न्यायालय ने कहा कि जैसे ही एक वक्फ बनाया जाता है और स्वामित्व मुतवल्ली को हस्तांतरित कर दिया जाता है, उस संपत्ति पर वक्फ का अधिकार समाप्त हो जाता है जिस पर इसे बनाया गया था। अधिकार वाकिफ से लेकर सर्वशक्तिमान के हाथों में सौंप दिए जाते हैं और चूंकि मुतवल्ली का उस संपत्ति पर कोई अधिकार नहीं होता जिससे वक्फ बनाया गया था, इसलिए उसे न्यासी भी नहीं कहा जा सकता था। 

अब्दुल करीम अदनवाला बनाम रहीमाबाई (1945)

अब्दुल करीम अदनवाला बनाम रहीमाबाई (1945) के मामले में, बॉम्बे उच्च न्यायालय ने एक हनफ़ी मुस्लिम व्यवस्थापक द्वारा वक्फ संपत्ति से उत्पन्न आय को अपने जीवनकाल के दौरान अपने स्वयं के समर्थन और रखरखाव के लिए बचाने और संपत्ति से आय को अपने जीवनकाल के दौरान पूर्ण उपयोग के लिए बचाने के बीच अंतर पर प्रकाश डाला, जो यह सुझाव देता है कि आय का उपयोग केवल उसके रखरखाव और समर्थन के अलावा और भी चीजों के लिए किया जा सकता है। मुसलमान वक्फ वैधीकरण अधिनियम, 1913 के तहत केवल रखरखाव और सहायता के लिए आय की बचत की अनुमति है और इसे टीपीए, 1882 के तहत हस्तांतरणीय संपत्ति नहीं माना जाता है। इसे सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के अंतर्गत कुर्की योग्य भी नहीं माना जाता है। हालांकि, यदि आय का उपयोग सिर्फ भरण पोषण  और सहायता के अलावा अन्य कार्यों के लिए किया जाता है, तो यह टीपीए, 1992 की धारा 6 के अधीन आएगा तथा सीपीसी, 1908 की धारा 60 के अंतर्गत हस्तांतरणीय और कुर्क योग्य भी हो जाएगा। 

द कमिश्नर, हिंदू रिलॉजियस एंडोवेंट्स, मद्रास बनाम श्री शिरुर मठ के श्री लक्ष्मीन्द्र तीर्थ स्वामीयार (1954)

द कमिश्नर, हिंदू रिलॉजियस एंडोवेंट्स,मद्रास बनाम श्री शिरुर मठ के श्री लक्ष्मीन्द्र तीर्थ स्वामी (1954) के मामले में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि संपत्ति की व्याख्या संकीर्ण (नैरो) तरीके से नहीं की जानी चाहिए, बल्कि इसकी व्यापक और लचीली व्याख्या की जानी चाहिए, जिसमें सभी प्रकार की संपत्तियों के साथ-साथ विभिन्न प्रकार की संपत्तियों में निहित विभिन्न प्रकार के हितों को भी शामिल किया जाना चाहिए। इसके अलावा, यह कहा गया कि भले ही महंती पद एक साधारण संपत्ति की तरह वंशानुगत नहीं है, फिर भी इसमें कुछ विशेषताएं हैं जो “संपत्ति” से मेल खाती हैं, जो इसे अनुच्छेद 19(1)(f) (संपत्ति का अधिकार; अब हटा दिया गया) के दायरे में लाने के लिए पर्याप्त है। 

कमिश्नर ऑफ वेल्थ फ़ैक्स, बॉम्बे सिटी बनाम पुरुषोत्तम एन.अमर्सी और अन्य (1968)

कमिश्नर ऑफ वेल्थ फैक्स, बॉम्बे सिटी बनाम पुरुषोत्तम एन. अमर्सी (1968) के मामले में, बॉम्बे उच्च न्यायालय ने कहा कि धारा 2(e) और धारा 2(5)(m) के तहत क्रमशः “संपत्ति” और “शुद्ध संपत्ति” की परिभाषाएं व्यापक और विस्तृत प्रावधान थे। अधिनियम के तहत परिसंपत्तियों की परिभाषा में सभी प्रकार की संपत्ति शामिल है, चाहे वह चल हो या अचल, तथा इसमें उन वस्तुओं की भी सूची दी गई है जिन्हें इसके दायरे से बाहर रखा गया है। 

अहमद जी.एच.आरिफ बनाम संपत्ति कर आयुक्त (1971) का विश्लेषण

अहमद जी.एच.आरिफ एवं अन्य बनाम संपत्ति कर आयुक्त (1969) मामले में दिए गए फैसले में इस तथ्य पर प्रकाश डाला गया कि संपत्ति कर अधिनियम के तहत दी गई परिभाषा के तहत वक्फ-अल-औलाद से आय प्राप्त करने का अधिकार एक परिसंपत्ति है। इसलिए, करदाता द्वारा देय कर की राशि निर्धारित करने के उद्देश्य से आय के आकलन के दौरान इसका मूल्यांकन किया जाना चाहिए। 

सर्वोच्च न्यायालय ने अपना निर्णय देने से पहले “संपत्ति” की परिभाषा के अंतर्गत आने वाले विभिन्न प्रकार के हितों पर विचार किया। यह निष्कर्ष निकाला गया कि वक्फ संपत्ति से आय प्राप्त करने का अधिकार वास्तव में संपत्ति कर अधिनियम के तहत एक परिसंपत्ति है। सबसे पहले, इसने अधिनियम द्वारा प्रदत्त “परिसंपत्तियों” की व्यापक परिभाषा पर विचार किया, जिसमें सभी प्रकार की संपत्तियां और हित शामिल थे, जो चल और अचल दोनों प्रकार के थे और कहा कि सिर्फ इसलिए कि आय प्राप्त करने का अधिकार भौतिक संपत्ति की पारंपरिक परिभाषा में नहीं आता है, इसका मतलब यह नहीं है कि इसे परिसंपत्ति नहीं माना जा सकता है। संपत्ति कर अधिनियम अत्यधिक समावेशी है तथा इसमें विभिन्न प्रकार के संपत्ति हितों को शामिल किया गया है, ताकि कराधान संबंधी मामलों से निपटने के लिए व्यापक गुंजाइश सुनिश्चित की जा सके। न्यायालय ने इस बात पर जोर दिया कि संपत्ति कर अधिनियम के पीछे विधायी मंशा न केवल भौतिक, मूर्त संपत्तियों को शामिल करना है, बल्कि आर्थिक मूल्य रखने वाले अमूर्त हितों को भी इसमें शामिल करना है। वक्फ संपत्ति से आय प्राप्त करने का अधिकार गंभीर आर्थिक मूल्य रखता है और ऐसे अधिकार को कर योग्य नहीं बनाना संपत्ति कर अधिनियम के उद्देश्यों और लक्ष्यों के विरुद्ध होगा। इसलिए, वक्फ संपत्ति से आय प्राप्त करने के अधिकार की तुलना इस बात से की जा सकती है कि संपत्ति से किराये की आय या शेयरों से प्राप्त लाभांश को किस प्रकार परिसंपत्ति माना जाता है। दूसरे, न्यायालय ने टिप्पणी की कि वर्तमान मामले में वक्फ संपदा से प्राप्त आय वार्षिकी का अधिकार नहीं है, न ही यह भरण-पोषण का अधिकार है, क्योंकि संपदा से प्राप्त आय का उपयोग सहायता और भरण-पोषण से परे है। इससे इस बारे में सभी संदेह दूर हो गए कि संपत्ति से प्राप्त आय को संपत्ति कर अधिनियम की धारा 2(e) के अंतर्गत छूट मिलेगी या नहीं। तीसरा, आगे विश्लेषण करने पर यह कहा जा सकता है कि इस निर्णय ने इस तथ्य को पुष्ट करने का प्रयास किया कि संपत्ति कर अधिनियम का दायरा व्यापक है, क्योंकि इसने सभी प्रकार की संपत्तियों और हितों को अपने दायरे में लाने का प्रयास किया तथा निष्पक्ष और उचित कराधान प्रथाओं को बनाए रखने का प्रयास किया। 

यह निर्णय न्यायशास्त्रीय दृष्टिकोण से भी महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह क़ानूनों की उदार व्याख्या पर आधारित है। इस प्रकार की व्याख्या आवश्यक है, क्योंकि यह लचीलापन प्रदान करती है और संपत्ति कर अधिनियम के उद्देश्य को बढ़ावा देने में मदद करती है, अर्थात, महत्वपूर्ण और भारी निवेश वाले व्यक्तियों की संपत्ति में अस्पष्टता और असमानताओं को दूर करना, और अमीर और गरीब के बीच के अंतर को खत्म करना क्योंकि यह सुनिश्चित करने में मदद करता है कि कर की न्यूनतम चोरी हो। 

निष्कर्ष

वक्फ का विकास धर्मार्थ एवं पवित्र उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किया गया था। भले ही पवित्र कुरान में वक्फ का कोई उल्लेख नहीं है, लेकिन वक्फ का विचार इस्लामी कानून में निहित है। मुस्लिम कानून के तहत, वक्फ का स्वामित्व सर्वशक्तिमान में निहित है और वक्फ संपत्ति से लाभ गरीबों को उनके विकास और सहायता के लिए दिया जाता है। 

यह मामला कानून के इस प्रश्न का उत्तर देने का प्रयास करता है कि क्या वक्फ संपत्ति से आय का हिस्सा प्राप्त करने का अधिकार, प्रासंगिक कर निर्धारण वर्ष के बाद संपत्ति के रूप में संपत्ति कर अधिनियम के तहत कर योग्य होगा। न्यायालय ने यह कहते हुए निष्कर्ष निकाला कि वर्तमान मामले में वक्फ-अल-औलाद से प्राप्त आय वास्तव में “परिसंपत्ति” शब्द के दायरे में आती है, क्योंकि भले ही संबंधित अधिकार धार्मिक उद्देश्यों और व्यक्तिगत रखरखाव और सहायता से संबंधित था, फिर भी इसका मूल्य था और इसलिए यह कर योग्य होगा। 

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

क्या संपत्ति कर समाप्त कर दिया गया है?

जी हाँ, संपत्ति कर को समाप्त कर दिया गया है। यह 28 फरवरी, 2016 को पेश किए गए 2015 के बजट के माध्यम से किया गया था, जो वित्तीय वर्ष 2015-2016 के लिए लागू था। यह कदम तत्कालीन केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने उठाया था। उक्त कर को समाप्त करने की आवश्यकता इसलिए पड़ी क्योंकि संपत्ति कर एकत्र करने के लाभ की तुलना में इसके नुकसान कहीं अधिक थे। 

संपत्ति कर किस पर लागू होता था?

संपत्ति कर व्यक्तियों, हिंदू अविभाजित परिवार (एचयूएफ) या कंपनी पर लागू होता है। अन्य संस्थाओं को अपनी परिसंपत्तियों पर कोई संपत्ति कर चुकाने की आवश्यकता नहीं है। यद्यपि अन्य संस्थाओं से जुड़े व्यक्तियों को अधिनियम की धारा 2(e) के तहत परिभाषित “परिसंपत्तियों” पर संपत्ति कर का भुगतान करना पड़ सकता है। 

संपत्ति कर कैसे लगाया जाता था?

संपत्ति कर अधिनियम, 1957 की धारा 3 में संपत्ति कर के प्रभार के बारे में बताया गया है। इस धारा के अनुसार, 1 अप्रैल, 1957 से आरम्भ होकर 1 अप्रैल, 1993 से पहले प्रत्येक कर निर्धारण वर्ष में संपत्ति कर लगाया जाएगा। यह कर मूल्यांकन की तिथि को सभी व्यक्तियों, हिन्दू अविभाजित परिवारों और कंपनियों की शुद्ध संपत्ति पर लागू होगा। संपत्ति कर अधिनियम में निर्धारित अन्य प्रावधानों के अनुसार, संपत्ति कर का भुगतान प्रत्येक निर्धारण वर्ष में किया जाएगा, जो 1 अप्रैल, 1993 से शुरू होकर 1 अप्रैल, 2016 से पहले होगा। प्रत्येक व्यक्ति, हिंदू अविभाजित परिवार और कंपनी की शुद्ध संपत्ति पर, मूल्यांकन तिथि को शुद्ध संपत्ति ₹15 लाख से अधिक होने पर 1% की दर से कर का भुगतान किया जाएगा। 1 अप्रैल, 2010 से प्रारंभ होने वाले प्रत्येक कर निर्धारण वर्ष में देय शुद्ध संपत्ति के संबंध में संपत्ति कर की राशि 15 लाख से बढ़ाकर 30 लाख कर दी जाएगी। 

संपत्ति का अधिकार क्या है?

अनुच्छेद 19(1)(f) को 1978 में 44वें संशोधन अधिनियम द्वारा हटा दिया गया था। इससे पहले, इसमें संपत्ति के अधिकार को शामिल किया गया था, जो एक मौलिक अधिकार था। इसके बाद इस अधिकार को संवैधानिक अधिकार के रूप में अनुच्छेद 300A के तहत जोड़ दिया गया। यह किसी व्यक्ति के अपनी संपत्ति से उत्पन्न होने वाले अधिकारों की रक्षा करता है, जैसे कि अपनी संपत्ति को रखने, अर्जित करने या निपटाने का अधिकार। 

संदर्भ

  • मुल्ला, मोहम्मडन कानून पर टिप्पणी, (द्वितीय संस्करण, द्विवेदी लॉ एजेंसी, 2009, इलाहाबाद)

 

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