प्रमति शैक्षिक एवं सांकृतिक ट्रस्ट बनाम भारत संघ (2014) 

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यह लेख Meenakshi Kalra द्वारा लिखा गया है। यह प्रमति शैक्षिक एवं सांकृतिक ट्रस्ट बनाम भारत संघ (2014) के मामले में भारत के सर्वोच्च न्यायालय के ऐतिहासिक फैसले का विश्लेषण करने का प्रयास करता है। यह मामला अनुच्छेद 15(5) और अनुच्छेद 21A की संवैधानिकता से संबंधित है, जिन्हें क्रमशः छियासी (86) संविधान संशोधन अधिनियम, 2002 और तिरानबे (93) संविधान संशोधन अधिनियम, 2005 द्वारा डाला गया था, और साथ ही बच्चों के निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा के अधिकार अधिनियम, 2009 की संवैधानिक वैधता से भी संबंधित है। इस लेख का अनुवाद Shreya Prakash के द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय 

भारत कई विविध संस्कृतियों, धर्मों, भाषाओं, जातियों और समुदायों का घर है। यह दुनिया के सबसे विविध देशों में से एक होने पर गर्व करता है और विविधता में एकता की अवधारणा को बढ़ावा देता है। भारत में विभिन्न वर्ग और जातियाँ मौजूद हैं, हालाँकि, इन सभी समुदायों को समान अवसर नहीं दिए गए हैं। भारत के संविधान में अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़े वर्गों जैसे समुदायों के लिए विशेष प्रावधान हैं, जिन्हें ऐतिहासिक रूप से असमानता का सामना करना पड़ा है, खासकर उनके उत्थान के लिए सामाजिक और शैक्षिक पहलुओं में।

इन वर्गों के अधिकारों में कटौती का सामना करने के लिए, शिक्षा और सरकारी नौकरियों जैसे विभिन्न क्षेत्रों में आरक्षण नीतियाँ शुरू की गईं। ऐसा इन वर्गों के लोगों के उत्थान के उद्देश्य से किया गया था। प्रमति शैक्षिक एवं सांकृतिक ट्रस्ट बनाम भारत संघ (2014) 8 एससीसी 1 का मामला अधिकारों के टकराव से उत्पन्न हुआ, जो याचिकाकर्ताओं द्वारा यह दावा करने के कारण हुआ कि अनुच्छेद 15(5) और अनुच्छेद 21A, अनुच्छेद 19(1)(g) में वर्णित उनके अधिकारों के विरुद्ध हैं।

मामले की पृष्ठभूमि

प्रमति शैक्षिक एवं सांकृतिक ट्रस्ट बनाम भारत संघ (2014) का मामला, राजस्थान गैर-सहायता प्राप्त निजी स्कूल सोसायटी बनाम भारत संघ एवं अन्य (2012) के मामले में 6 सितंबर, 2010 के आदेश के माध्यम से तीन न्यायाधीशों की पीठ द्वारा सर्वोच्च न्यायालय में किए गए संदर्भ से उत्पन्न हुआ है।

उक्त आदेश की वैधता को चुनौती दी गई:

  • भारतीय संविधान का अनुच्छेद 15(5), जिसे 93वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2005 द्वारा पेश किया गया था, सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए निजी, गैर-सहायता प्राप्त शैक्षणिक संस्थानों में आरक्षण की बात करता है।
  • भारतीय संविधान का अनुच्छेद 21A, जिसे 86वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2002 द्वारा शामिल किया गया था, 6 से 14 वर्ष के आयु के बच्चों के लिए मौलिक अधिकार के रूप में शिक्षा के अधिकार की बात करता है।

यह मामला अनुच्छेद 21A के तहत शिक्षा के अधिकार के दायरे को परिभाषित करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है और विभिन्न अन्य निर्णयों में छोड़ी गई खामियों को दूर करने का प्रयास करता है, जैसे कि टीएमए पाई फाउंडेशन और अन्य बनाम कर्नाटक राज्य और अन्य (2002) और पीए इनामदार और अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य और अन्य (2005)। ऐसा करके, भारत में निजी, गैर-सहायता प्राप्त शैक्षणिक संस्थानों के दायित्वों और अधिकारों को स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है।

मामले का विवरण

मामले का शीर्षक

प्रमति शैक्षिक एवं सांकृतिक ट्रस्ट बनाम भारत संघ

फैसले की तारीख

6 मई, 2014

पक्ष

याचिकाकर्ता

प्रमति शैक्षिक और सांस्कृतिक ट्रस्ट और अन्य।

प्रतिवादी

भारत संघ एवं अन्य।

समतुल्य उद्धरण

एआईआर 2014 सर्वोच्च न्यायालय 2114

मामले का प्रकार

सिविल मूल क्षेत्राधिकार

अदालत

भारत का सर्वोच्च न्यायालय

पीठ

न्यायाधीश आरएम लोढ़ा, न्यायाधीश एके पटनायक, न्यायाधीश एसजे मुखोपाध्याय, न्यायाधीश दीपक मिश्रा और न्यायाधीश एफएम इब्राहिम कलीफुल्ला। 

निर्णय के लेखक

ए.के. पटनायक

प्रमति शैक्षिक एवं सांकृतिक ट्रस्ट बनाम भारत संघ (2014) के तथ्य

  1. अशोक कुमार ठाकुर बनाम भारत संघ (2008) के मामले में, अनुच्छेद 15(5) की संवैधानिक वैधता को न्यायालय के समक्ष चुनौती दी गई थी, जहाँ उक्त खंड को वैध माना गया था और संविधान के मूल ढांचे के सिद्धांत के अनुरूप माना गया था। न्यायालय ने यह भी कहा कि राज्य द्वारा संचालित संस्थानों और सहायता प्राप्त शैक्षणिक संस्थानों में अनुच्छेद 15(5) के तहत किए गए प्रवेश को सुरक्षित करने के लिए राज्य द्वारा किए गए विशेष प्रावधान वैध थे और मूल ढांचे के विरुद्ध नहीं थे।
  2. हालाँकि, उपरोक्त मामले में, न्यायालय ने “निजी गैर-सहायता प्राप्त” शैक्षणिक संस्थानों के संदर्भ में अनुच्छेद 15(5) की वैधता के बारे में प्रश्न का उत्तर नहीं दिया क्योंकि वे न्यायालय में उपस्थित नहीं थे। निजी, गैर-सहायता प्राप्त शैक्षणिक संस्थानों ने तब अनुच्छेद 15(5) की वैधता और मूल संरचना सिद्धांत के अनुरूप होने के संबंध में न्यायालय के समक्ष कई रिट याचिकाएँ दायर कीं, जिसमें यह पूछा गया कि क्या वे इसके दायरे में आते हैं।
  3. इसके अलावा, राजस्थान गैर-सहायता प्राप्त निजी स्कूल सोसायटी बनाम भारत संघ (2012) के मामले में तीन न्यायाधीशों की पीठ ने अनुच्छेद 21A और अनुच्छेद 15(5) की वैधता पर बहस करने के लिए 6 सितंबर, 2010 के आदेश के माध्यम से मामले को पांच न्यायाधीशों की पीठ को भेज दिया, जिन्हें क्रमशः 86वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2002 और 93वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2005 द्वारा संविधान में शामिल किया गया था। 
  4. माननीय न्यायालय ने अपने निर्णय में कहा कि अनुच्छेद 21A के तहत 6 से 14 वर्ष की आयु के सभी बच्चों के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान गैर-सहायता प्राप्त अल्पसंख्यक स्कूलों पर लागू नहीं होगा। 
  5. इसके अलावा, उपरोक्त मामले में तीन न्यायाधीशों की पीठ में से दो न्यायाधीशों ने बच्चों को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009, जिसे 2009 में शिक्षा का अधिकार अधिनियम (आरटीई अधिनियम) के रूप में भी जाना जाता है, को संवैधानिक रूप से वैध माना, लेकिन इस पर कोई टिप्पणी नहीं की कि अनुच्छेद 15 (5) या अनुच्छेद 21 A संवैधानिक रूप से वैध हैं या नहीं और संविधान के मूल ढांचे के अनुरूप हैं या नहीं।
  6. इस प्रकार, यह मामला अनुच्छेद 15(5) और 21 A की वैधता पर निर्णय लेने के लिए उपरोक्त मामले में तीन न्यायाधीशों की पीठ द्वारा दिए गए आदेश के संदर्भ से उत्पन्न होता है।

प्रमति शैक्षिक एवं सांकृतिक ट्रस्ट बनाम भारत संघ (2014) में उठाए गए मुद्दे

  1. क्या भारत के संविधान का अनुच्छेद 15(5) संवैधानिक रूप से वैध है और संविधान के मूल ढांचे के अनुरूप है?
  2. क्या भारत के संविधान का अनुच्छेद 21A संवैधानिक रूप से वैध है और संविधान के मूल ढांचे के अनुरूप है?

पक्षों के तर्क

संविधान के अनुच्छेद 15(5) की वैधता के संबंध में याचिकाकर्ताओं द्वारा उठाए गए तर्क

प्रमति शैक्षिक एवं सांकृतिक ट्रस्ट बनाम भारत संघ (2014) में दिए गए तर्क 

रिट याचिका (सी) संख्या 416/2012 में याचिकाकर्ताओं के वकील श्री मुकुल रोहतगी थे। उन्होंने तर्क दिया कि टीएमए पाई फाउंडेशन एवं अन्य बनाम कर्नाटक राज्य एवं अन्य (2002) के मामले में ग्यारह न्यायाधीशों की पीठ के अनुसार, यह माना गया है कि संविधान का अनुच्छेद 19(1)(g) किसी भी व्यवसाय को चलाने के अधिकार की गारंटी देता है। इस अधिकार में एक निजी, गैर-सहायता प्राप्त शैक्षणिक संस्थान को चलाने और प्रबंधित करने का अधिकार भी शामिल है।

अनुच्छेद 14, 19 और  21 स्वर्णिम त्रिभुज (गोल्डन ट्रायंगल) का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो इस देश के लोगों को नागरिकों के स्वतंत्रता, समानता और सम्मान के अधिकार की रक्षा करके एक समतावादी (इगेलिटेरियन) समाज में उनके मौलिक अधिकारों को मजबूत करके संविधान की प्रस्तावना द्वारा गारंटीकृत उनके अधिकारों और सुरक्षा का आश्वासन देता है। यह मिनर्वा मिल्स लिमिटेड एवं अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य (1980) के मामले में भी माना गया था। संविधान (बयालीसवां संशोधन) अधिनियम, 1976 की धारा 4 में संसद द्वारा संशोधन नहीं किया जा सकता है। इसमें संशोधन करना संविधान के मूल ढांचे के खिलाफ होगा और इस प्रकार यह अनुच्छेद 14 और 19 में निहित व्यक्तियों के अधिकारों में कटौती करेगा। यदि ऐसा किया जाता है, तो यह किसी भी ऐसे संशोधन को शून्य कर देगा। इसके अलावा, कानूनी प्रतिनिधि द्वारा आई.आर. कोएलो (मृत) बनाम तमिलनाडु राज्य (2007) के मामले जिसमें मिनर्वा मिल्स मामले पर भी भरोसा किया गया था, में यह माना गया था कि अनुच्छेद 14, 19 और 21 संविधान की आधारशिला हैं और उन्हें किसी भी परिस्थिति में कम नहीं किया जाना चाहिए।

इन अनुच्छेदों को सामूहिक रूप से स्वर्णिम त्रिभुज के रूप में जाना जाता है, क्योंकि ये एक साथ मिलकर नागरिकों को व्यक्तिगत अधिकार और स्वतंत्रता प्रदान करते हैं, जो संविधान की नींव बनाते हैं। वे कानून और समानता के शासन को बढ़ावा देते हैं और नागरिकों के अधिकारों पर किसी भी तरह के अतिक्रमण से सुरक्षा प्रदान करते हैं। सरल शब्दों में कहें तो स्वर्णिम त्रिभुज इन अनुच्छेदों में निहित मौलिक अधिकारों की परस्पर निर्भरता और पारस्परिक सुदृढ़ीकरण को दर्शाता है।

अनुच्छेद 19(1)(g) संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा है और अनुच्छेद 15(5) को शामिल करके संविधान के मूल ढांचे को नुकसान पहुंचाया जा रहा है। अनुच्छेद 15(5) में कहा गया है कि राज्य के पास सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों, अनुसूचित जातियों या अनुसूचित जनजातियों के विकास के संबंध में शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश सुनिश्चित करने के संबंध में विशेष कानून बनाने की क्षमता होगी। इसमें निजी शैक्षणिक संस्थान भी शामिल होंगे और अनुच्छेद 19(1)(g) में निहित कोई भी बात राज्य की ऐसी कोई व्यवस्था करने की क्षमता में हस्तक्षेप नहीं करेगी।

स्वर्ण त्रिभुज द्वारा गारंटीकृत मौलिक अधिकार महत्वपूर्ण हैं और इन अधिकारों को कम करने वाला कोई भी कानून न्यायिक समीक्षा के अधीन होगा। इसके अतिरिक्त, न्यायालय ने यह भी कहा कि भले ही संसद के पास संविधान में संशोधन करने की शक्ति है, लेकिन किसी भी परिस्थिति में, बहुमत के साथ भी, यह संविधान के भाग III में संशोधन नहीं कर सकता और इसे संविधान के मूल ढांचे से बाहर नहीं कर सकता। ऐसा संशोधन, यदि किया जाता है, तो उसे अनुच्छेद 14, 19 और 21 में प्रदत्त मूल ढांचे के अनुरूप होना चाहिए। यह स्पष्ट किया गया कि केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) के मामले में मूल संरचना सिद्धांत विकसित होने के बाद, संसद द्वारा बनाए गए कानून न्यायिक समीक्षा से संरक्षित नहीं हैं। यह तब भी मामला बना रहेगा, जब उपर्युक्त मौलिक अधिकार संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा नहीं होते 

इसलिए, संविधान के 93वें संविधान संशोधन अधिनियम (2005) के तहत अशोक कुमार ठाकुर बनाम भारत संघ (2008) के मामले में गैर-सहायता प्राप्त संस्थानों में आरक्षण के लिए किए गए प्रावधान अनुच्छेद 19(1)(g) में निहित अधिकार के विपरीत हैं, जिससे वे संविधान के अधिकार क्षेत्र से बाहर हो जाते हैं।

सभी के लिए गुणवत्तापूर्ण शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए फोरम बनाम भारत संघ (2014) में दिए गए तर्क

इस याचिका के तहत तर्क श्री आर.एफ. नरीमन द्वारा प्रस्तुत किए गए, जिन्होंने कहा कि संविधान का अनुच्छेद 15(5) अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करता है क्योंकि यह नागरिकों के विभिन्न वर्गों के बीच असमानता पैदा करता है। 

याचिकाकर्ताओं के अनुसार, सहायता प्राप्त और गैर-सहायता प्राप्त शिक्षण संस्थानों के बीच अंतर के संबंध में स्पष्टता की कमी थी। सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के नागरिकों को प्रवेश लाभ प्रदान करने के मामले में दोनों प्रकार के संस्थानों को समान स्तर पर रखा गया था। सहायता प्राप्त संस्थान उन संस्थानों को संदर्भित करते हैं जो सरकार द्वारा वित्त पोषित होते हैं और जब उनके प्रबंधन की बात आती है तो वे अक्सर सरकारी नियमों के अधीन होते हैं। दूसरी ओर, गैर-सहायता प्राप्त संस्थानों को सरकार से कोई धन नहीं मिलता है और वे संस्थान चलाने वाली संस्थाओं के निजी धन पर चलते हैं। इन संस्थानों को अपनी प्रबंधन प्रक्रिया निर्धारित करने के लिए अधिक स्वायत्तता है।

टीएमए पाई फाउंडेशन मामले में निजी, गैर-सहायता प्राप्त संस्थानों और सरकारी सहायता प्राप्त संस्थानों के बीच अंतर स्पष्ट रूप से बताया गया है। दो प्रकार के संस्थानों को एक ही तरीके से नहीं निपटा जा सकता है और उन्हें एक ही स्तर पर रखना अनुचित होगा क्योंकि अनुदान (फंडिंग) प्रक्रिया, प्रवेश प्रक्रिया और संस्थानों द्वारा अपनाई जा सकने वाली स्वायत्तता की डिग्री के बीच बहुत अंतर है। इसके अलावा, न्यायालय ने कहा कि यदि राज्य निजी, गैर-सहायता प्राप्त शैक्षणिक संस्थानों को अपने मानदंडों के आधार पर छात्रों को प्रवेश देने के लिए मजबूर करता है और अनुच्छेद 15(5) के तहत उनकी प्रवेश प्रक्रिया में हस्तक्षेप करता है, तो यह अनुच्छेद 19(1)(g) के तहत संस्थानों के अधिकारों का उल्लंघन होगा।

इसके अतिरिक्त, याचिकाकर्ताओं ने प्रस्तुत किया कि अनुच्छेद 15(5) निजी शिक्षण संस्थानों पर राज्य द्वारा चुने गए व्यक्तियों के लिए अपनी कुछ सीटें आरक्षित करने का दायित्व डालता है जिसे अनुच्छेद 19(1)(g) के तहत उचित प्रतिबंध या नियामक प्रावधान नहीं कहा जा सकता है जैसा कि अनुच्छेद 19(6) में कहा गया है। पीए इनामदार एवं अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य एवं अन्य (2005) के मामले के अनुसार, याचिकाकर्ताओं ने कहा कि निजी शिक्षण संस्थानों को अपनी प्रवेश प्रक्रिया चुनने में पूर्ण स्वायत्तता है क्योंकि वे राज्य के धन का उपयोग नहीं करते हैं। निजी शिक्षण संस्थानों को आरक्षण नीति का पालन करने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता है और उन्हें ऐसी प्रक्रिया चुनने की अनुमति दी जानी चाहिए जो निष्पक्ष, पारदर्शी और योग्यता पर आधारित हो। यदि आरक्षण नीति निजी शिक्षण संस्थानों और गैर-सहायता प्राप्त निजी शिक्षण संस्थानों पर लागू की जाती है, तो इन संस्थानों द्वारा प्रदान की जाने वाली शिक्षा की गुणवत्ता में भारी गिरावट आएगी। ऐसा इसलिए है क्योंकि आरक्षित सीटें योग्यता के आधार पर नहीं बल्कि वर्ग के आधार पर भरी जाएंगी। यह अनुच्छेद 15(5) को 19(1)(g) में निहित अधिकारों का उल्लंघन बनाता है।

याचिकाकर्ताओं द्वारा उद्धृत एक अन्य मामला मोहिनी जैन (सुश्री) बनाम कर्नाटक राज्य एवं अन्य (1992) था जिसमें यह माना गया था कि जीवन का अधिकार कई महत्वपूर्ण अधिकारों से बना है, जिनमें से एक शिक्षा का अधिकार है। ये अधिकार सुनिश्चित करते हैं कि एक व्यक्ति एक सम्मानजनक और सम्मानपूर्ण जीवन जिए और इन अधिकारों की रक्षा के बिना, एक सम्मानजनक जीवन की गारंटी नहीं दी जा सकती। नागरिकों का यह मौलिक कर्तव्य है कि वे राष्ट्र की प्रगति में मदद करने के लिए सभी क्षेत्रों में उत्कृष्टता प्राप्त करने का प्रयास करें, जैसा कि अनुच्छेद 51 A(J) के तहत कहा गया है। उत्कृष्टता प्राप्त करने के लिए, शैक्षणिक संस्थानों को उत्कृष्ट मानकों को बनाए रखना होगा और राज्य द्वारा किए गए विशेष प्रावधानों को लागू करने से प्रदान की जाने वाली शिक्षा की गुणवत्ता में बाधा आएगी। इसलिए, राज्य द्वारा सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों, अनुसूचित जातियों या अनुसूचित जनजातियों के लिए अनुच्छेद 15(5) के तहत किए गए विशेष प्रावधान 

श्री नरीमन ने यह भी कहा कि संविधान के भाग IV के तहत वर्णित राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांतों (डीपीएसपी) को प्राप्त करने के लिए , किसी भी तरह से भाग III के तहत वर्णित मौलिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं किया जाना चाहिए। जबकि अनुच्छेद 15(5) के तहत संशोधन का उद्देश्य डीपीएसपी को पूरा करना है, यह व्यक्तियों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है। मिनर्वा मिल्स मामले में भी यही दोहराया गया है, जिसमें यह भी कहा गया है कि संविधान के भाग III और भाग IV दोनों को सामंजस्य में काम करना चाहिए और जो कुछ भी दोनों के बीच संतुलन को बिगाड़ता है, वह स्वचालित रूप से संविधान के मूल ढांचे को कलंकित और ख़राब करेगा। इस प्रकार, अनुच्छेद 15(5) स्वर्णिम त्रिभुज में निहित अधिकारों के खिलाफ है और इसलिए इसे संसद की संशोधन शक्ति के भीतर नहीं कहा जा सकता है।

फेडरेशन ऑफ पब्लिक स्कूल्स बनाम भारत संघ (2013) में दिए गए तर्क

इस याचिका के तहत दलीलें डॉ. राजीव धवन ने पेश कीं, जिन्होंने कहा कि एम. नागराज और अन्य बनाम भारत संघ और अन्य (2006) के फैसले के अनुसार, ‘पहचान परीक्षण’ और ‘चौड़ाई परीक्षण’ हैं जिनका उपयोग यह निर्धारित करने के लिए किया जाता है कि कोई संवैधानिक संशोधन संविधान के मूल ढांचे को बाधित करता है या नहीं। न्यायालय को यह निर्धारित करना और देखना चाहिए कि न्यायपालिका द्वारा व्याख्या किए गए मौलिक अधिकार का सार बरकरार है या नहीं और संवैधानिक संशोधन पेश किए जाने पर इसकी शक्ति की चौड़ाई से व्यवधान से मुक्त है या नहीं। यदि ऐसा संशोधन अधिकार की पहचान को बाधित कर रहा है, तो यह कहा जा सकता है कि यह संविधान के मूल ढांचे को भी बाधित कर रहा है।

टीएमए पाई फाउंडेशन मामले के अनुसार एक निजी शैक्षणिक संस्थान के लिए  अनुच्छेद 19(1)(g) के तहत अधिकार के दायरे में अनिवार्य रूप से निम्नलिखित शामिल हैं:

  1. दान, 
  2. स्वायत्तता (ऑटोनोमी), 
  3. स्वैच्छिकता, 
  4. राज्य सरकारों और निजी संस्थानों के बीच सीटों का बंटवारा न होना, 
  5. सह-चुनाव, और 
  6. तर्कसंगतता 

अनुच्छेद 15(5) के तहत राज्य को सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग के नागरिकों या अनुसूचित जातियों या अनुसूचित जनजातियों के लिए निजी शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश सुनिश्चित करने के लिए विशेष प्रावधान करने की व्यापक शक्ति प्राप्त है। ऐसा करने से अनुच्छेद 19(1)(g) के तहत दिए गए मौलिक अधिकार की पहचान से समझौता होगा। इसके अलावा, अगर राज्य को शक्तियों का इतना व्यापक दायरा दिया जाता है, तो संविधान का मूल ढांचा नष्ट हो जाएगा।

विद्यावर्धक संघ (पंजीकृत) बनाम भारत संघ (2014) में दिए गए तर्क

इस मामले में, श्री अनिल बी. दीवान ने इस बात पर प्रकाश डाला कि न्यायालयों का यह दायित्व है कि वे हमेशा सतर्क और चौकस रहें तथा सुनिश्चित करें कि नागरिकों के अधिकारों को किसी भी तरह के उल्लंघन से बचाया जाए। यह पहली बार एडवर्ड ए. बॉयड और जॉर्ज एच. बॉयड बनाम यूनाइटेड स्टेट्स (1886) के मामले में माना गया था। इसके अलावा, द्वारकादास श्रीनिवास बनाम शोलापुर स्पिनिंग और वीविंग कंपनी लिमिटेड और अन्य (1953) के मामले ने एडवर्ड ए. बॉयड और जॉर्ज एच. बॉयड मामले में न्यायालय की राय को दोहराया। उन्होंने यह भी कहा कि अनुच्छेद 15(5) की वैधता का विश्लेषण करते समय न्यायालय को उपरोक्त मामलों में की गई टिप्पणियों पर भी ध्यान देना चाहिए।

इसके अतिरिक्त, उन्होंने तर्क दिया कि बड़े समूहों के राजनीतिक प्रभाव से वर्गों के बीच पक्षपात और विभाजन हो सकता है और व्यक्तियों की स्वतंत्रता की रक्षा करने की आवश्यकता तब और भी महत्वपूर्ण हो जाती है जब सरकार के उद्देश्य लाभकारी हों। आगे यह तर्क दिया गया कि अनुच्छेद 15(5) संशोधन राजनीतिक दलों द्वारा अपने वोट बैंक को बढ़ाने और समाज के एक वर्ग को संतुष्ट करने के लिए लाया गया है। ऐसा इसलिए है क्योंकि यह सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों, अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों को वरीयता देता है। यह सुनिश्चित करना न्यायालय का काम है कि अनुच्छेद 19(1)(g) के तहत बताए गए निजी शैक्षणिक संस्थानों के मौलिक अधिकारों की रक्षा की जाए, जैसा कि टीएमए पाई फाउंडेशन मामले में भी दोहराया गया है।

अहमदाबाद सेंट जेवियर्स कॉलेज सोसाइटी एवं अन्य बनाम गुजरात राज्य एवं अन्य (1974) के मामले में कहा गया था कि अनुच्छेद 30 के तहत अल्पसंख्यकों को अधिकार देने का उद्देश्य अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक के बीच असमानता को कम करना था। लेकिन अनुच्छेद 15(5) केवल गैर-अल्पसंख्यक निजी शिक्षण संस्थानों पर लागू होता है, अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थानों पर नहीं, जैसा कि अनुच्छेद 30(1) में कहा गया है। अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थानों को अनुच्छेद 15(5) के दायरे से बाहर रखना तर्कहीन है और उन्हें अनुचित लाभ और फायदा देता है, इसलिए अनुच्छेद 14 के तहत समानता के अधिकार का उल्लंघन करता है। अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थानों को बाहर रखकर अल्पसंख्यकों को विशेष अधिकार दिए जा रहे हैं, जिससे उन्हें अतिरिक्त लाभ और ऊपरी हाथ मिलेगा, जो इस अधिकार का उद्देश्य नहीं है। यह सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण है कि बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक संस्थानों के साथ कैसा व्यवहार किया जाता है, इसमें समानता हो। धर्मनिरपेक्षता संविधान का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है क्योंकि यह समानता के अधिकार का एक अनिवार्य तत्व है, जो संविधान में सबसे महत्वपूर्ण विषय है। यह डॉ. एम. इस्माइल फारुकी और अन्य बनाम भारत संघ और अन्य (1994) के मामले में माना गया था। अनुच्छेद 30(1) में उल्लिखित अल्पसंख्यक संस्थानों को अनुच्छेद 15(5) के दायरे से बाहर रखा गया है, जिससे यह अनुच्छेद न केवल अनुच्छेद 14 के विरुद्ध है, बल्कि धर्मनिरपेक्षता के भी विरुद्ध है। 

संविधान के अनुच्छेद 21A की वैधता के संबंध में याचिकाकर्ताओं द्वारा उठाए गए तर्क

याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि 86वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2002 के माध्यम से अनुच्छेद 21A को जोड़ने से संविधान के मूल ढांचे में परिवर्तन हो गया है और इसलिए यह संशोधन संवैधानिक रूप से वैध नहीं है।

अनुच्छेद 21A के तहत, राज्य 6 से 14 वर्ष की आयु के सभी बच्चों को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने का प्रावधान करेगा। इस अनुच्छेद में शिक्षा का अधिकार निहित है और इस अधिकार की शुरुआत के साथ ही संसद ने आरटीई अधिनियम, 2009 भी पेश किया, जिसमें 6 से 14 वर्ष की आयु के सभी बच्चों के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान किया गया है। 

राजस्थान गैर-सहायता प्राप्त निजी स्कूल सोसायटी बनाम भारत संघ एवं अन्य (2012) के मामले में आरटीई अधिनियम की वैधता पर सवाल उठाया गया था और इसे वैध माना गया था। लेकिन आरटीई अधिनियम की धारा 12(1)(c) और 18(3) को गैर-सहायता प्राप्त अल्पसंख्यक स्कूलों को अनुच्छेद 30(1) के तहत दिए गए मौलिक अधिकारों का उल्लंघन माना गया था। इसलिए, यह माना गया था कि आरटीई अधिनियम के प्रावधानों में गैर-सहायता प्राप्त अल्पसंख्यक स्कूल शामिल नहीं होंगे। हालांकि, माननीय न्यायमूर्ति राधाकृष्णन द्वारा दिए गए अल्पमत के मत में, उन्होंने कहा कि आरटीई अधिनियम के तहत 6 से 14 वर्ष की आयु के बच्चों को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा के लिए दायित्व राज्य पर रखे गए थे, न कि गैर-सहायता प्राप्त गैर-अल्पसंख्यक और गैर-सहायता प्राप्त अल्पसंख्यक स्कूलों पर। राजस्थान गैर-सहायता प्राप्त निजी स्कूल सोसायटी बनाम भारत संघ (2012) के फैसले के बाद 2009 के आरटीई अधिनियम को 2012 में संशोधित किया गया था । उक्त संशोधन द्वारा आरटीई अधिनियम, 2009 में धारा 1(4) जोड़ी गई, जिसमें यह प्रावधान किया गया कि अनुच्छेद 29 और 30 में अल्पसंख्यक अधिकारों के लिए निर्धारित प्रावधानों को ध्यान में रखते हुए, बच्चों को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार देने के लिए आरटीई अधिनियम लागू होगा। 

प्रमति शैक्षिक एवं सांकृतिक ट्रस्ट बनाम भारत संघ (2012) में दिए गए तर्क

याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि अनुच्छेद 21A के तहत निजी, गैर-सहायता प्राप्त शैक्षणिक संस्थान पर कोई बाध्यता नहीं है, अनुच्छेद 12 के तहत बताए गए अनुसार केवल राज्य और उसकी विभिन्न एजेंसियों पर ही दायित्व है। याचिकाकर्ताओं का मानना ​​है कि राजस्थान गैर-सहायता प्राप्त निजी स्कूल सोसायटी बनाम भारत संघ और अन्य के मामले में दी गई अल्पमत की राय वास्तव में अनुच्छेद 21A का सही विश्लेषण है। इसके अलावा, यदि निजी, गैर-सहायता प्राप्त शैक्षणिक संस्थानों को अनुच्छेद 21A के दायरे में शामिल किया जाता है, तो यह संविधान के मूल ढांचे के खिलाफ होगा क्योंकि यह अनुच्छेद 19(1)(g) के तहत दिए गए निजी शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना और प्रशासन के अधिकार का उल्लंघन करेगा।

मनजीत सिंह सचदेवा बनाम भारत संघ (2014) में दिए गए तर्क

पीडी शमदासानी बनाम सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया लिमिटेड (1951) के मामले में, न्यायालय ने माना कि अनुच्छेद 19 के तहत वर्णित स्वतंत्रता को केवल राज्य की कार्रवाई के खिलाफ ही संरक्षित किया जा सकता है। न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद की भाषा और संरचना और संविधान के भाग III में अनुच्छेद 19 का स्थान यह दर्शाता है कि यह जिन स्वतंत्रताओं और संपत्ति के अधिकारों की गारंटी देता है, उन्हें व्यक्तियों के खिलाफ लागू नहीं किया जा सकता है। एक अन्य मामले, श्रीमती विद्या वर्मा बनाम डॉ शिव नारायण वर्मा (1955) में, न्यायालय ने स्पष्ट किया कि अनुच्छेद 21 के तहत दिए गए व्यक्तिगत स्वतंत्रता के अधिकार को केवल राज्य के खिलाफ ही लागू किया जा सकता है, निजी व्यक्तियों के खिलाफ नहीं। इन दोनों मामलों के अनुसार, अनुच्छेद 21 A के तहत “राज्य” में निजी, गैर-सहायता प्राप्त शैक्षणिक संस्थान या निजी व्यक्ति शामिल नहीं होंगे।

इसलिए, उपर्युक्त मामलों के अनुसार, अनुच्छेद 21A की व्याख्या उसी तरह की जानी चाहिए जिस तरह से अनुच्छेद 12 के तहत राज्य को परिभाषित किया गया है, जिसमें भारत सरकार, भारत की संसद (जिसमें लोकसभा और राज्यसभा दोनों शामिल होंगे), राज्य सरकारें, राज्य विधानसभाएं (जिसमें राज्य की विधानसभा और विधान परिषद शामिल होगी), सभी स्थानीय प्राधिकरण (जैसे नगर पालिकाएं, पंचायतें, जिला बोर्ड, आदि) और अन्य प्राधिकरण (जैसे राष्ट्रीय  मानवाधिकार आयोग, लोकपाल और लोकायुक्त, राष्ट्रीय महिला आयोग, आदि) शामिल होंगे।

अनुच्छेद 45 के तहत संविधान के लागू होने की तारीख से 10 वर्षों के भीतर 14 वर्ष की आयु पूरी करने तक सभी बच्चों के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने के लिए राज्य को प्रयास करने की आवश्यकता है। जिस तरह से अनुच्छेद 45 तैयार किया गया है, उससे यह समझा जा सकता है कि केवल राज्य ही 14 वर्ष की आयु तक के सभी बच्चों को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने के लिए उत्तरदायी और बाध्य है। 86 वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम, 2002 के बाद अनुच्छेद 45 को बदलने के लिए अनुच्छेद 21A डाला गया था। अनुच्छेद 21 A के तहत, शब्द “के लिए” हटा दिया गया था, लेकिन सिर्फ “के लिए” शब्द की चूक के कारण, बच्चों के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का दायित्व निजी, गैर-सहायता प्राप्त शैक्षणिक संस्थानों पर नहीं डाला जा सकता है। टीएमए पाई फाउंडेशन मामले के निर्णय के अनुसार, यदि राज्य को अनुच्छेद 21A के तहत 14 वर्ष से कम आयु के लोगों को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने के संबंध में अपने दायित्वों को पूरा करने के लिए प्रावधान करने की शक्ति दी जाती है और उसे अपने दायित्वों को निजी गैर-सहायता प्राप्त स्कूलों पर स्थानांतरित करने की अनुमति दी जाती है, तो यह अनुच्छेद 21A को अनुच्छेद 19(1)(g) के तहत निजी गैर-सहायता प्राप्त स्कूलों के अधिकारों का उल्लंघन बना देगा।

इसके अलावा, आरटीई विधेयक के उद्देश्यों और कारणों में कहा गया है कि आरटीई अधिनियम अनुच्छेद 21A के अनुरूप बनाया गया है। विधेयक में अनुच्छेद 15(5) का कोई उल्लेख नहीं किया गया है, इसलिए आरटीई अधिनियम की वैधता का परीक्षण केवल अनुच्छेद 21A के अनुसार किया जा सकता है न कि अनुच्छेद 15(5) के अनुसार। याचिकाकर्ताओं का कहना है कि आरटीई अधिनियम की धारा 12(1)(c), जिसमें कहा गया है कि एक निजी गैर-सहायता प्राप्त स्कूल अपने कक्षा 1 के कम से कम 25% छात्रों को समाज के कमजोर और पिछड़े वर्गों के बच्चों को प्रवेश देने का प्रावधान करेगा, अनुच्छेद 19(1)(g) के तहत उनके अधिकार का उल्लंघन है। अपने तर्क का समर्थन करने के लिए, उन्होंने टीएमए पाई फाउंडेशन और पीए इनामदार के निर्णयों को भी उजागर किया है। इस प्रकार, याचिकाकर्ताओं के अनुसार, राजस्थान गैर-सहायता प्राप्त निजी स्कूल सोसायटी बनाम भारत संघ और अन्य (2012) के मामले में तीन न्यायाधीशों की पीठ द्वारा दिया गया निर्णय गलत है।

मुस्लिम अल्पसंख्यक स्कूल प्रबंधन संघ बनाम भारत संघ (2013) और विद्यावर्द्धक संघ (पंजीकृत) बनाम भारत संघ (2014) में दिए गए तर्क

याचिकाकर्ताओं, मुस्लिम अल्पसंख्यक स्कूल प्रबंधक संघ जिसका प्रतिनिधित्व रिट याचिका (सी) संख्या 1081/2013 में श्री अजमल खान ने और ला मार्टिनियर स्कूल जिसका प्रतिनिधित्व रिट याचिका (सी) संख्या 60/2014 में श्री टीआर अंध्यारुजिना ने किया, ने केरल शैक्षिक विधेयक मामले से लेकर टीएमए पाई मामले तक कई मामलों को उजागर किया, जिसमें उनके अधिकारों के उल्लंघन के बारे में उनके तर्क का समर्थन किया गया, यदि अल्पसंख्यक समूह से संबंधित बच्चों के अलावा अन्य बच्चों को अल्पसंख्यक संस्थान स्थापित करने वाले लोगों द्वारा, चाहे सहायता प्राप्त हो या गैर-सहायता प्राप्त, राज्य द्वारा जबरन प्रवेश दिया जाता है। राज्य को उनके धर्म या भाषा के आधार पर अल्पसंख्यकों को दिए गए अनुच्छेद 30(1) के तहत अधिकारों का उल्लंघन करने की अनुमति नहीं है। अनुच्छेद 30(1) के तहत उनके अधिकारों में शैक्षिक संस्थानों की स्थापना और प्रशासन का अधिकार शामिल है 

उपरोक्त प्रस्तुतियों के आधार पर, याचिकाकर्ताओं का दावा है कि आरटीई अधिनियम की धारा 1(4) को अधिकारतीत (अल्ट्रा वायर) घोषित किया जाना चाहिए। 

संविधान के अनुच्छेद 15(5) की वैधता के संबंध में प्रतिवादी द्वारा उठाए गए तर्क

प्रतिवादियों का प्रतिनिधित्व विद्वान महा याचक (सॉलिसिटर जनरल) श्री मोहन परासरन ने किया। उन्होंने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 19(1)(g) के तहत, निजी शिक्षण संस्थानों, सहायता प्राप्त या गैर-सहायता प्राप्त, में कुछ सीटें समाज के कमजोर, गरीब और पिछड़े वर्गों के लिए अनुच्छेद 15(5) के तहत आरक्षित करके निजी शिक्षण संस्थानों के अधिकारों का उल्लंघन नहीं किया जा रहा है। टीएमए पाई फाउंडेशन मामले के फैसले में भी यही माना गया है। उन्होंने आगे कहा कि अनुच्छेद 15(5) केवल एक सक्षम करने वाला प्रावधान है क्योंकि यह राज्य को नागरिकों के सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों या अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के विकास के लिए विशेष कानून बनाने की शक्ति देता है। यह निजी शिक्षण संस्थानों सहित शैक्षणिक संस्थानों में उनके प्रवेश के लिए सीटें आरक्षित करके किया जाता है, जैसा कि अशोक कुमार ठाकुर बनाम भारत संघ (2008) के मामले में माना गया है।

उन्होंने आगे कहा कि इस्लामिक अकादमी ऑफ एजुकेशन एवं अन्य बनाम कर्नाटक राज्य एवं अन्य (2003) के फैसले के अनुसार, जो टीएमए पाई फाउंडेशन मामले के बाद आया था, गैर-अल्पसंख्यक पेशेवर कॉलेजों में कुछ सीटें समाज के गरीब और पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षित की जानी थीं। लेकिन पीए इनामदार मामले में, पीठ ने माना कि टीएमए पाई फाउंडेशन मामले में दिए गए फैसले की किसी भी तरह से इस तरह से व्याख्या नहीं की जानी चाहिए कि राज्य को गैर-सहायता प्राप्त पेशेवर शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश की प्रक्रिया में कहने की अनुमति है, न ही उन्हें राज्य द्वारा चुने गए उम्मीदवारों के लिए सीटें आरक्षित करने या राज्य द्वारा बनाई गई आरक्षण नीति को लागू करने के लिए मजबूर करना है। परिणामस्वरूप, संविधान में अनुच्छेद 15(5) को शामिल करने के लिए संसद द्वारा 93वां संशोधन अधिनियम, 2005 पेश किया गया था। इससे राज्य को निजी संस्थानों सहित सभी शैक्षणिक संस्थानों में सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों, अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के प्रवेश के लिए विशेष कानून बनाने की अनुमति मिल गई, भले ही वे राज्य द्वारा सहायता प्राप्त हों या गैर-सहायता प्राप्त हों। प्रतिवादियों के अनुसार, अनुच्छेद 19(1)(g) के तहत निजी शिक्षण संस्थानों के अधिकारों का उल्लंघन नहीं किया गया है। उनका दावा है कि अनुच्छेद 15(5) निजी शिक्षण संस्थानों की स्थापना और प्रशासन के अधिकार और टीएमए पाई फाउंडेशन मामले में दिए गए फैसले के अनुरूप है।

अनुच्छेद 15(5) अनुच्छेद 30 के तहत वर्णित अल्पसंख्यक संस्थानों को इसके दायरे से बाहर रखता है और उन्हें एक विशेष दर्जा देता है। अशोक कुमार ठाकुर बनाम भारत संघ (2008) के मामले के अनुसार, ऐसा बहिष्करण अनुच्छेद 14 का उल्लंघन नहीं है क्योंकि अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थान संविधान के तहत अलग-अलग अधिकारों वाले विभिन्न वर्गों में आते हैं, इसलिए, यह नहीं कहा जा सकता है कि अनुच्छेद 15(5) अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करता है।

संविधान के अनुच्छेद 21A की वैधता के संबंध में प्रतिवादी द्वारा उठाए गए तर्क

प्रतिवादी का प्रतिनिधित्व विद्वान अतिरिक्त महा याचक श्री केवी विश्वनाथन ने किया। विधेयक के उद्देश्यों और कारणों के विवरण में उनके द्वारा प्रस्तुत किए गए प्रस्तुतीकरण के अनुसार, जो बाद में संविधान (छियासीवाँ संशोधन) अधिनियम, 2002 बन गया, 21A को सम्मिलित करने का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना था कि राज्य 6 से 14 वर्ष की आयु के सभी बच्चों को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने में सक्षम है। संविधान को अपनाने के 50 वर्ष बाद भी, 14 वर्ष की आयु तक के बच्चों के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए अनुच्छेद 45 की अपर्याप्तता को संबोधित करने के लिए ऐसा किया गया था।

यह भी कहा गया कि आरटीई अधिनियम, 2009 का गठन यह सुनिश्चित करने के लिए किया गया है कि अनुच्छेद 21A का उद्देश्य पूरा हो, यानी राज्य 14 वर्ष की आयु तक के बच्चों के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करेगा। इसके अलावा, आरटीई अधिनियम की धारा 12(1)(c) के तहत समाज के कमजोर और पिछड़े वर्गों के बच्चों को निजी गैर-सहायता प्राप्त स्कूलों की कक्षा 1 में प्रवेश दिलाने में मदद करने के लिए प्रावधान किए गए हैं, जिसमें कम से कम 25% सीटें इस उद्देश्य के लिए आरक्षित होंगी।

यह तर्क दिया गया है कि निजी, गैर-सहायता प्राप्त स्कूल राज्य के समान कार्य कर रहे हैं और इसलिए उन्हें कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। निजी, गैर-सहायता प्राप्त स्कूलों पर कार्यात्मक परीक्षण लागू करके, यह कहा जा सकता है कि उन्हें अनुच्छेद 12 के तहत राज्य माना जाना चाहिए। इसलिए, याचिकाकर्ताओं द्वारा दिया गया तर्क कि राज्य निजी शैक्षणिक संस्थानों को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने की अपनी जिम्मेदारी नहीं दे सकता, बेमानी है।

टीएमए पाई फाउंडेशन मामले के अनुसार, जबकि निजी, गैर-सहायता प्राप्त शिक्षण संस्थानों को अपने छात्रों को चुनने का अधिकार है, उन्हें समाज के कमज़ोर वर्गों के कुछ छात्रों को मुफ़्त या छात्रवृत्ति के माध्यम से प्रवेश देने से पीछे नहीं हटना चाहिए। न्यायालय ने यह भी कहा कि सीटों का एक छोटा हिस्सा समाज के गरीब और कमज़ोर वर्गों के लिए आरक्षित होना चाहिए। इस उद्देश्य के लिए, 2009 का आरटीई अधिनियम बनाया गया था, जिसके तहत धारा 12 (1) (c) में प्रावधान है कि एक गैर-सहायता प्राप्त निजी स्कूल भी कक्षा 1 में कम से कम 25% सीटें गरीब और कमज़ोर पृष्ठभूमि के बच्चों के लिए आरक्षित रखेगा, इसलिए, आरटीई अधिनियम अनुच्छेद 19 (1) (g) की शक्तियों से परे नहीं है।

राजस्थान गैर-सहायता प्राप्त निजी स्कूल सोसायटी बनाम भारत संघ (2012) के मामले में , यह माना गया कि आरटीई अधिनियम अपने दायरे में गैर-सहायता प्राप्त अल्पसंख्यक स्कूलों को शामिल नहीं करेगा, बल्कि इसमें सहायता प्राप्त अल्पसंख्यक स्कूल शामिल होंगे। श्री विश्वनाथन ने प्रस्तुत किया कि अनुच्छेद 30(1) के तहत अल्पसंख्यक संस्थानों को समान दर्जा प्राप्त है, परिणामस्वरूप, 2009 के अधिनियम में खामियों को दूर करने के लिए बच्चों को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार (संशोधन) अधिनियम, 2012 लाया गया, जिसमें धारा 1(4) के तहत कहा गया था कि अधिनियम के प्रावधान इस तरह से लागू होंगे ताकि बच्चों के निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा के अधिकारों को बढ़ावा दिया जा सके, लेकिन ऐसे प्रावधान संविधान के अनुच्छेद 29 और 30 के अधीन होंगे, जो अल्पसंख्यकों के अधिकार प्रदान करते हैं। 

शामिल प्रावधान और क़ानून

भारतीय संविधान, 1950 का अनुच्छेद 15(5)

अनुच्छेद 15 नागरिकों को धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव से सुरक्षा प्रदान करता है। यह अनुच्छेद इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह अस्पृश्यता को संबोधित करता है और अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और अन्य पिछड़े वर्गों को आरक्षण प्रदान करके जातिगत भेदभाव की समस्या को हल करने का प्रयास करता है।

अनुच्छेद 15(5) को 2005 में 93वें संविधान संशोधन अधिनियम के माध्यम से भारत के संविधान में जोड़ा गया था। इसमें कहा गया है कि अनुच्छेद 15 और अनुच्छेद 19(1)(g) में निहित कुछ भी अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के साथ-साथ शैक्षिक रूप से पिछड़े नागरिकों के विकास के लिए विशेष कानून बनाने की राज्य की शक्ति पर कोई प्रभाव नहीं डालेगा। राज्य निजी और सार्वजनिक, सहायता प्राप्त और गैर-सहायता प्राप्त दोनों संस्थानों के लिए कानून बना सकता है। अनुच्छेद 30(1) के तहत उनके अधिकारों की रक्षा के लिए अल्पसंख्यक संस्थानों को अनुच्छेद 15(5) के दायरे से बाहर रखा गया है ।

भारतीय संविधान, 1950 का अनुच्छेद 19(1)(g)

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 19(1) भारत के सभी नागरिकों को 6 स्वतंत्रताएँ प्रदान करता है। ये स्वतंत्रताएँ निरपेक्ष प्रकृति की नहीं हैं और इन्हें राज्य द्वारा लगाए जा सकने वाले उचित प्रतिबंधों द्वारा विनियमित किया जाता है।

अनुच्छेद 19(1)(g) भारत के सभी नागरिकों को कोई भी पेशा अपनाने या कोई व्यवसाय, व्यापार या कारोबार करने का अधिकार देता है। वे अपनी पसंद की कोई भी आर्थिक गतिविधि कर सकते हैं, लेकिन यह अधिकार अनुच्छेद 19 (6) में निर्धारित कुछ सीमाओं के अधीन है ।

भारतीय संविधान, 1950 का अनुच्छेद 21A

अनुच्छेद 21A को 86वें संविधान संशोधन अधिनियम 2002 द्वारा संविधान में जोड़ा गया। इस अनुच्छेद में प्रावधान है कि 6 से 14 वर्ष की आयु के प्रत्येक बच्चे को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार होगा।

इस अनुच्छेद के शामिल किए जाने से यह पुष्टि हो गई कि शिक्षा संविधान के भाग III के तहत संरक्षित एक मौलिक अधिकार है। 

इस अनुच्छेद के तहत राज्य बच्चों के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने के अपने लक्ष्य को भी पूरा कर सकता है, जिसका उल्लेख अनुच्छेद 45 में किया गया है ।

परिणामस्वरूप, इस अनुच्छेद के लागू होने के बाद, संसद ने शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 भी पारित किया, जिसका उद्देश्य भारत में शैक्षिक प्रणाली का विकास और उसे सुव्यवस्थित करना है।

भारतीय संविधान, 1950 का अनुच्छेद 30(1)

अनुच्छेद 30(1) देश में रहने वाले अल्पसंख्यकों के अधिकारों की सुरक्षा प्रदान करता है। यह अनुच्छेद भारत के विभिन्न समूहों के बीच धर्मनिरपेक्षता और समानता की अवधारणा को बढ़ावा देता है।

इस अनुच्छेद के तहत अल्पसंख्यकों को शिक्षण संस्थान स्थापित करने और उन पर पूर्ण स्वायत्तता रखने का अधिकार है। ये संस्थान भाषाई या धार्मिक अल्पसंख्यकों द्वारा स्थापित किए जा सकते हैं, ऐसा इसलिए किया जाता है ताकि वे अपनी परंपराओं और संस्कृतियों की रक्षा कर सकें। अनुच्छेद 30 के तहत ये अधिकार केवल अल्पसंख्यकों को दिए गए हैं, अन्य नागरिकों को नहीं।

ये अधिकार निरपेक्ष (एब्सोल्यूट) नहीं हैं और उन पर कुछ प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं, लेकिन ऐसे विनियमन इस प्रकार नहीं लगाए जाने चाहिए कि इससे अल्पसंख्यकों के अधिकारों का उल्लंघन हो।

प्रमति शैक्षिक एवं सांकृतिक ट्रस्ट बनाम भारत संघ (2014) का निर्णय

अनुच्छेद 15(5) पर न्यायालय की राय

न्यायालय का मत है कि अनुच्छेद 15(5) का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि अनुच्छेद 30(1) के तहत परिभाषित अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानों के अलावा सभी शैक्षणिक संस्थानों में अध्ययन करने के लिए राज्य द्वारा प्रदान किए गए अवसरों के संदर्भ में सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के नागरिकों या अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के साथ निष्पक्ष और समान व्यवहार किया जाए।

संविधान (तिरानवेवां संशोधन) अधिनियम, 2005 के विधेयक के उद्देश्यों और कारणों का विवरण, जिसमें अनुच्छेद 15(5) शामिल है, में कहा गया है कि सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के नागरिकों या अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए सीटें बहुत सीमित हैं और यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता बढ़ती जा रही है कि व्यावसायिक शिक्षा सहित उच्च शिक्षा प्रदान करने वाले संस्थानों में सीटों के ऐसे आरक्षण का विस्तार किया जाए।

अनुच्छेद 46 के तहत वर्णित डी.पी.एस.पी. के अनुसार, राज्य का यह कर्तव्य है कि वह सुनिश्चित करे कि समाज के कमज़ोर वर्गों को उनके शैक्षिक और आर्थिक अधिकारों की रक्षा के मामले में विशेष ध्यान दिया जाए। इसे सुनिश्चित करने के लिए, उन्हें समान अवसर प्रदान करने और अनुच्छेद 30(1) में वर्णित अल्पसंख्यक शिक्षण संस्थानों के अलावा अन्य गैर-सहायता प्राप्त शिक्षण संस्थानों में प्रवेश के लिए सीटें आरक्षित करके उनके शैक्षिक विकास को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है। इस उद्देश्य के लिए, अनुच्छेद 15(5) पेश किया गया है।

अनुच्छेद 15(1) के तहत राज्य को किसी व्यक्ति के साथ धर्म, नस्ल, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव करने से रोका गया है। इसके अलावा, अनुच्छेद 15(2) में कहा गया है कि किसी भी नागरिक को दुकानों, सार्वजनिक रेस्तरां, होटलों और सार्वजनिक मनोरंजन के स्थानों में प्रवेश करने से प्रतिबंधित नहीं किया जाएगा या उन्हें कुओं, तालाबों, स्नान घाटों, सड़कों और सार्वजनिक रिसॉर्ट के स्थानों का उपयोग करने से नहीं रोका जाएगा, जो पूरी तरह या आंशिक रूप से राज्य के धन से बनाए गए हैं या आम जनता के उपयोग के लिए स्थापित किए गए हैं। 

इस अनुच्छेद के अस्तित्व के बावजूद, जो राज्य द्वारा सभी के लिए समान व्यवहार और पहुँच सुनिश्चित करता है, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति जैसे कुछ समुदाय हाशिए पर और पिछड़े रह गए हैं और उन्हें उनकी उन्नति के लिए समान अवसर नहीं दिए गए हैं। अनुच्छेद 15 में मौजूद खामियों को दूर करने और यह सुनिश्चित करने के लिए अनुच्छेद 15(5) जोड़ा गया है कि शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश हासिल करने के मामले में वर्गों के बीच मौजूद असमानता से निपटा जाए। इस प्रकार, यह कहा जा सकता है कि अनुच्छेद 15(5) एक सक्षम प्रावधान है और इसे अनुच्छेद 15 के तहत एक प्रावधान या अपवाद के रूप में नहीं माना जा सकता है, क्योंकि इसके खंड 1 और 2 भी प्रस्तावना द्वारा गारंटीकृत समान अवसरों को सुरक्षित करने के प्रावधान करते हैं और इसे वास्तविकता बनाने में मदद करते हैं।

न्यायालय केरल राज्य एवं अन्य बनाम एनएम थॉमस एवं अन्य (1976) के फैसले पर निर्भर करता है, जिसमें कहा गया है कि अनुच्छेद 15(5) और 16(4) के प्रारंभिक शब्द समान हैं और अनुच्छेद 16(4) को परंतुक या अपवाद के रूप में नहीं माना जाता है। इन दोनों प्रावधानों का उद्देश्य पिछड़े वर्गों को समान अवसर प्रदान करना है। इसके अलावा, इंद्रा साहनी एवं अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य (1992) के मामले में, एनएम थॉमस मामले के बाद, यह माना गया कि अनुच्छेद 16(4) एक सक्षम करने वाला प्रावधान है जिसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि पिछड़े नागरिकों को सार्वजनिक रोजगार सुरक्षित करने के समान अवसर दिए जाएं और इसे अनुच्छेद 16(1) का अपवाद नहीं माना जाना चाहिए। इन मामलों का हवाला अशोक कुमार ठाकुर मामले में माननीय मुख्य न्यायाधीश केजी बालाकृष्णन द्वारा इस तथ्य को कायम रखने के लिए भी दिया गया था।

इस तर्क पर कि अनुच्छेद 15(5) अनुच्छेद 19(1)(g) का उल्लंघन करता है, न्यायालय ने टीएमए पाई फाउंडेशन मामले का हवाला दिया। इसने कहा कि अनुच्छेद 19(1)(g) के तहत एक शैक्षणिक संस्थान की देखरेख और स्थापना को एक “व्यवसाय” माना जाता है। इस मामले में, पहली बार, माननीय मुख्य न्यायाधीश कृपाल ने गैर-सहायता प्राप्त गैर-अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानों के संबंध में अनुच्छेद 19 और 26 (a) के तहत बताए गए अधिकारों के चार तत्वों के बारे में बात करते हुए कहा कि शिक्षा को एक ऐसी गतिविधि माना जाता है जो स्वाभाविक रूप से धर्मार्थ है।

इसके अलावा, न्यायालय ने टीएमए पाई फाउंडेशन मामले का हवाला देते हुए यह भी कहा कि उसका मानना ​​है कि निजी शिक्षण संस्थानों को दाखिला दिए जाने वाले छात्रों को चुनने का अधिकार है, लेकिन समाज के कमजोर और पिछड़े वर्गों के छात्रों की एक छोटी संख्या को दाखिला देने से प्रवेश प्रक्रिया में संस्थान की स्वतंत्रता किसी भी तरह प्रभावित नहीं होगी। अगर शैक्षिक और सामाजिक रूप से पिछड़े नागरिकों के वर्गों के साथ-साथ अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के छात्रों को निजी शिक्षण संस्थानों में दाखिला दिया जाता है, तो यह केवल दान के तत्व के बराबर होगा, जो कि अनुच्छेद 19(1)(g) के तहत दिए गए निजी शिक्षण संस्थानों की स्थापना और प्रशासन के अधिकार का एक हिस्सा भी है, इसलिए यह कहा जा सकता है कि अनुच्छेद 19(1)(g) के तहत दिए गए अधिकार की “पहचान” पर अंकुश नहीं लगाया जा रहा है।

पीए इनामदार मामले में, न्यायालय ने कहा कि टीएमए पाई फाउंडेशन के फैसले के तहत l, राज्य के पास 19(6) के तहत यह शक्ति नहीं है कि वह गैर-सहायता प्राप्त शैक्षणिक संस्थानों को राज्य को अपनी सीटों का हिस्सा देने के लिए मजबूर करे ताकि वह आरक्षण नीति को लागू कर सके। ऐसा इसलिए माना गया क्योंकि गैर-सहायता प्राप्त शैक्षणिक संस्थानों में सीटें आरक्षित करने का राज्य द्वारा किया गया प्रयास एक नियामक उपाय नहीं था और इसलिए यह अनुच्छेद 19(6) के तहत परिभाषित एक उचित प्रतिबंध नहीं था। 

न्यायालय का विचार है कि चूंकि अनुच्छेद 19(6) के अलावा अनुच्छेद 19(1)(g) के तहत वर्णित अधिकार के लिए प्रतिबंध प्रदान करने का कोई अन्य तरीका नहीं है, इसलिए संसद को इस स्थिति का मुकाबला करने के लिए संविधान (तिरानबेवां संशोधन) अधिनियम, 2005 लाना पड़ा। उक्त संशोधन के बाद जोड़े गए संविधान के अनुच्छेद 15(5) में कहा गया है कि अनुच्छेद 19(1)(g) में निहित कुछ भी राज्य को निजी शैक्षणिक संस्थानों सहित शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश के लिए कोई विशेष नया कानून बनाने से नहीं रोकेगा, चाहे वे राज्य द्वारा सहायता प्राप्त हों या नहीं, जिसका उद्देश्य नागरिकों के किसी सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग या अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति के लिए उन्नति करना हो। यह अनुच्छेद 15(5) को अनुच्छेद 19(6) में दी गई नियामक शक्ति से अलग बनाता है और इसे एक नई तरह की शक्ति प्रदान करता है अब यह तय करना न्यायालय पर है कि अनुच्छेद 15(5) के तहत दी गई यह शक्ति अनुच्छेद 19(1)(g) के तहत दिए गए अधिकार को नुकसान पहुंचाती है या नहीं।

इसके अलावा, डॉ. धवन द्वारा उठाए गए तर्क पर कि अनुच्छेद 19(1)(g) के तहत एक निजी शैक्षणिक संस्थान के अधिकार में एक स्वैच्छिक तत्व शामिल है जैसा कि टीएमए पाई फाउंडेशन मामले में माना गया था, अदालत की राय है कि, पीए इनामदार मामले और टीएमए पाई फाउंडेशन मामले के निर्णयों के अनुसार, जबकि गैर-सहायता प्राप्त निजी संस्थानों की प्रवेश प्रक्रिया में एक स्वैच्छिक तत्व शामिल है, ऐसे संस्थानों को प्रवेश के लिए केवल योग्यता आधारित प्रणाली पर भरोसा करने के बजाय राज्य के साथ सीटें साझा करने या चयन के लिए राज्य की सामान्य प्रवेश परीक्षा को नियोजित करने के लिए स्वेच्छा से सहमति देने का प्रयास करना चाहिए। 

टीएमए पाई फाउंडेशन मामले में आगे कहा गया है कि इन संस्थानों को गरीब और पिछड़े वर्गों के छात्रों को छात्रवृत्ति प्रदान करने का भी प्रावधान करना चाहिए। इन संस्थानों को अपने तरीके से अपना काम करने की स्वतंत्रता है, जिसमें निर्णय लेने का स्वैच्छिक तत्व भी शामिल है, लेकिन अनुच्छेद 19(1)(g) के तहत प्रदान की गई ये स्वतंत्रताएं अनुच्छेद 19(2) और 19(6) के तहत उचित प्रतिबंधों द्वारा भी विनियमित होती हैं। टीएमए पाई फाउंडेशन और पीए इनामदार दोनों के मामले में यह दोहराया गया है। इसलिए, प्रवेश के लिए छात्रों को नामांकित करना अनुच्छेद 19(6) के तहत अनुचित प्रतिबंध के रूप में गिना जाएगा, जैसा कि उपरोक्त दोनों निर्णयों में माना गया था। इसका मुकाबला करने के लिए, अनुच्छेद 368 के तहत संशोधन की अपनी शक्ति का प्रयोग करके संसद द्वारा अनुच्छेद 15(5) पेश किया गया था । यह नहीं कहा जा सकता है कि उक्त प्रावधान ने अनुच्छेद 19(1)(g) के तहत दिए गए अधिकार में मौजूद स्वैच्छिक तत्व को बहुत अधिक प्रभावित किया है। इसलिए, न्यायालय का मत है कि अनुच्छेद 19(1)(g) के तहत गैर-सहायता प्राप्त निजी संस्थानों को दिए गए उक्त अधिकार की पहचान उतनी गंभीर रूप से प्रभावित नहीं हुई है, जितनी कि अनुच्छेद 15(5) को जोड़कर याचिकाकर्ताओं द्वारा चित्रित की गई है।

इसके अलावा, न्यायालय ने इस तर्क की जांच की कि क्या संविधान (तिरानबेवां संशोधन) अधिनियम, 2005, चौड़ाई परीक्षण के अनुरूप है। न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 15(5) के तहत राज्य को दी गई शक्ति का उपयोग केवल पिछड़े वर्गों, अनुसूचित वर्गों और जनजातियों को शैक्षिक विकास के मामले में मदद करने के लिए कानून बनाने के उद्देश्य से किया जा सकता है, लेकिन अगर कानून किसी अन्य वर्ग के लिए बनाया जाता है, तो यह अनुच्छेद 15(5) के दायरे से बाहर होगा। कानून केवल सहायता प्राप्त और गैर-सहायता प्राप्त संस्थानों में प्रवेश के लिए होना चाहिए, किसी अन्य उद्देश्य के लिए नहीं, अगर यह किसी अन्य उद्देश्य के लिए बनाया जाता है या शिक्षा संस्थानों की स्वायत्तता को प्रभावित करता है, जो कि टीएमए पाई फाउंडेशन मामले में बताई गई बातों के दायरे से बाहर है, तो ऐसा कानून अनुच्छेद 15(5) के तहत राज्य की शक्ति के दायरे से बाहर होगा। 

इस प्रकार, यह कहा जा सकता है कि अनुच्छेद के तहत राज्य को प्रदान की गई शक्ति काफी सीमित है और इसका उपयोग केवल पिछड़े वर्गों की उन्नति के लिए कानून बनाने के संदर्भ में मार्गदर्शन के लिए किया जाना है। यदि शक्ति का उपयोग किसी अन्य उद्देश्य के लिए किया जाता है, तो यह न्यायालय पर निर्भर करता है कि वह इस बात की जांच करे कि अनुच्छेद 15(5) के तहत किया गया प्रावधान शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश सुनिश्चित करने तक सीमित है या नहीं। यदि शक्ति का उपयोग उस विशिष्ट उद्देश्य के लिए नहीं किया गया है, तो इसे अनुच्छेद 19(1)(g) में निहित अधिकारों के दायरे से बाहर घोषित किया जाएगा। वर्तमान परिदृश्य में, चूंकि अनुच्छेद 15(5) प्रवेश सुनिश्चित करने के विशिष्ट उद्देश्य के लिए है, इसलिए इसे अनुच्छेद 19(1)(g) का उल्लंघन नहीं कहा जा सकता है और इसलिए यह चौड़ाई परीक्षण को भी संतुष्ट करता है।

न्यायालय ने सहायता प्राप्त और गैर-सहायता प्राप्त शिक्षण संस्थानों के बीच अंतर के बारे में याचिकाकर्ताओं द्वारा उठाए गए तर्क को भी स्पष्ट किया। दोनों के बीच अंतर यह है कि एक निजी सहायता प्राप्त शिक्षण संस्थान को अपने कामकाज और धन के संबंध में राज्य से सहायता मिलती है, जबकि एक गैर-सहायता प्राप्त संस्थान को राज्य से कोई भी सहायता नहीं मिलती है। इसलिए, जब अनुच्छेद 15(5) के तहत कोई कानून बनाया जाता है, तो इसकी जांच की जानी चाहिए क्योंकि निजी, गैर-सहायता प्राप्त शिक्षण संस्थानों को पिछड़े वर्गों को समायोजित करने के लिए उनके द्वारा किए गए प्रावधानों के लिए मुआवजा देने की आवश्यकता होगी, क्योंकि उन्हें राज्य द्वारा किसी भी तरह से सहायता नहीं दी जाती है। इसलिए, अनुच्छेद 15(5) के तहत बनाया गया कानून जो दोनों प्रकार के शिक्षण संस्थानों को एक समान तरीके से मानता है, अनुच्छेद 14 के तहत चुनौती के लिए अतिसंवेदनशील नहीं है। अनुच्छेद 15(5) में केवल यह उल्लेख किया गया है कि अनुच्छेद 15 या 19(1)(g) में कही गई कोई भी बात राज्य को पिछड़े वर्गों के लिए कोई विशेष कानून बनाने से नहीं रोकती है, ताकि उन्हें राज्य द्वारा सहायता प्राप्त या गैर-सहायता प्राप्त दोनों तरह के निजी शिक्षण संस्थानों सहित शिक्षण संस्थानों में प्रवेश सुरक्षित करने में मदद मिल सके। इसलिए, यह नहीं कहा जा सकता कि अनुच्छेद 15 अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करता है, क्योंकि यह निजी शिक्षण संस्थानों, चाहे वे सहायता प्राप्त हों या गैर-सहायता प्राप्त, के साथ एक जैसा व्यवहार करता है।

इस तर्क के संबंध में कि सहायता प्राप्त और गैर-सहायता प्राप्त अल्पसंख्यक संस्थानों को अनुच्छेद 15(5) के दायरे से बाहर रखना अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है, न्यायालय ने टीएमए पाई फाउंडेशन मामले में दिए गए फैसले को दोहराया। इसने कहा कि जब सहायता प्राप्त या गैर-सहायता प्राप्त अल्पसंख्यक संस्थान में प्रवेश की बात आती है, तो अनुच्छेद 29(2), 30(1) और 30(2) को ध्यान में रखा जाना चाहिए। यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि संस्थान की स्थापना करने वाले अल्पसंख्यक समुदाय के अलावा अन्य छात्रों को प्रवेश देकर संस्थानों का अल्पसंख्यक चरित्र नष्ट न हो। 

अनुच्छेद 15(5) के तहत उन लोगों के लिए सीटें आरक्षित करने का प्रावधान करना जो उस अल्पसंख्यक समुदाय का हिस्सा नहीं हैं जिसने संस्था स्थापित की है, अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानों के अधिकारों के साथ टकराव करता है। इस कारण से, अल्पसंख्यक संस्थानों को अनुच्छेद 15(5) के दायरे से बाहर रखा गया है। अल्पसंख्यक संस्थान अलग-अलग अधिकारों के साथ एक अलग वर्ग का गठन करते हैं और उन्हें अनुच्छेद 30 के तहत संरक्षण दिया जाता है, जैसा कि अशोक कुमार ठाकुर मामले में कहा गया है, इस प्रकार, इस तरह के बहिष्कार को अनुच्छेद 14 के खिलाफ नहीं माना जा सकता है।

यह बताया गया कि न्यायालय का यह मत नहीं है कि अनुच्छेद 15(5) धर्मनिरपेक्षता का उल्लंघन करता है, क्योंकि अनुच्छेद 30(1) के अंतर्गत वर्णित धार्मिक अल्पसंख्यक संस्थाओं को इसके दायरे से बाहर रखा गया है।  डॉ. एम. इस्माइल फारुकी मामले में न्यायालय ने माना कि धर्मनिरपेक्षता एक ऐसा सिद्धांत है जिसे देश के लोगों ने अपनाया है। धर्मनिरपेक्षता को लोगों ने संविधान की प्रस्तावना में अनुच्छेद 15 से 28 के साथ-साथ इसके अस्तित्व के माध्यम से समझा है। 

धर्मनिरपेक्षता को संविधान के मूल ढांचे का एक महत्वपूर्ण हिस्सा माना जाता है, लेकिन अनुच्छेद 15(5) के तहत धार्मिक अल्पसंख्यक संस्थानों को बाहर रखने से मूल ढांचे पर कोई असर नहीं पड़ता है। धर्मनिरपेक्षता की भावना देश में मौजूद इस अंतर को स्वीकार करने और उसकी रक्षा करने में निहित है; यह बात टीएमए पाई फाउंडेशन मामले में भी कही गई है। इसलिए, यह तर्क गलत है कि अनुच्छेद 30(1) धर्मनिरपेक्षता को नकारात्मक तरीके से प्रभावित करता है, बल्कि यह भारत के धर्मनिरपेक्ष तत्व की रक्षा करता है।

माननीय न्यायालय इस तर्क से सहमत नहीं था क्योंकि प्रतिष्ठित शैक्षणिक संस्थान जैसे केंद्रीय विद्यालय, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान, अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान और सरकारी मेडिकल कॉलेज सभी पिछड़े वर्गों, अनुसूचित जनजातियों और अनुसूचित वर्गों के छात्रों के लिए प्रवेश के दौरान सीटों का आरक्षण प्रदान करते हैं, और फिर भी वे उत्कृष्ट परिणाम और गुणवत्ता वाले छात्र देने में सक्षम हैं जो हर क्षेत्र में अग्रणी व्यक्ति बनते हैं जिसे वे चुनते हैं। इस प्रकार, यह नहीं कहा जा सकता है कि निजी शैक्षणिक संस्थानों में पिछड़े वर्गों को प्रवेश देने से उत्कृष्टता को खतरा होगा। इसके अलावा, यह सुनिश्चित करने के लिए कि प्रस्तावना में वर्णित बंधुत्व, एकता और अखंडता के लक्ष्य पूरे हों, यह महत्वपूर्ण है कि नागरिकों के पिछड़े वर्गों को समाज में उनकी उन्नति के अवसर दिए जाएं। यह तर्क कि अनुच्छेद 15(5) अनुच्छेद 21 का उल्लंघन करता है, निराधार है।

निष्कर्ष के तौर पर, न्यायालय का मानना ​​है कि अनुच्छेद 15(5) संविधान के अनुच्छेद 14, 19(1)(g) और 21 के तहत वर्णित किसी भी अधिकार का उल्लंघन नहीं करता है। इसलिए, 93वें संशोधन को वैध माना गया और अशोक कुमार ठाकुर बनाम भारत संघ (2008) में न्यायालय द्वारा गैर-सहायता प्राप्त संस्थानों पर आरक्षण नीति लागू करने के संबंध में दिए गए निर्णय को अनुच्छेद 19(1)(g) में वर्णित अधिकारों के विरुद्ध माना गया।

अनुच्छेद 21A और 2009 अधिनियम पर न्यायालय की राय

न्यायालय का मत है कि संविधान (तिरासीवां (83) संशोधन) विधेयक, 1997 के उद्देश्यों और कारणों के कथन से, अनुच्छेद 45 के अंतर्गत वर्णित लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए, अस्सी-छठे संविधान संशोधन अधिनियम, 2002 द्वारा संविधान के भाग III के अंतर्गत अनुच्छेद 21A को सम्मिलित किया गया था। 

श्री रोहतगी और श्री नरीमन द्वारा अनुच्छेद 21A के तहत निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने के दायित्व के बारे में दिए गए तर्क सही हैं, न कि गैर-सहायता प्राप्त शैक्षणिक संस्थानों में। अनुच्छेद 21A में ‘राज्य’ शब्द का तात्पर्य विशेष रूप से “राज्य” से है जो कानून बना सकता है। अनुच्छेद 21A में कहा गया है कि यह राज्य ही है जिसे वह प्रक्रिया सुनिश्चित करनी चाहिए जिसके द्वारा वह निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने के अपने कर्तव्य को पूरा करेगा। यह राज्य को अनुच्छेद 21A की पूर्ति सुनिश्चित करने के लिए एक नई शक्ति देता है। हालांकि, वेंकटरमण देवरू बनाम मैसूर राज्य (1957) के मामले के अनुसार, अनुच्छेद 21A की व्याख्या संविधान के अनुच्छेद 19(1)(g) और अनुच्छेद 30(1) के अनुरूप की जानी चाहिए। न्यायालय ने कहा कि अनुच्छेद 21A के तहत ऐसा कुछ भी नहीं कहा गया है जिससे अनुच्छेद 19(1)(g) या अनुच्छेद 30(1) के तहत दिए गए अधिकारों के साथ टकराव हो सकता है, लेकिन ऐसी संभावना है कि अनुच्छेद 21A के तहत बनाया गया कानून टकराव का कारण बन सकता है, इसलिए राज्य को यह सुनिश्चित करना होगा कि बच्चों को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने के लिए इसके तहत किए गए प्रावधान भी अनुच्छेद 19(1)(g) और 30(1) के अनुरूप हों।

न्यायालय ने दोहराया कि समाज के गरीब और कमजोर वर्गों से संबंधित छात्रों के एक छोटे से हिस्से को प्रवेश देना टीएमए पाई फाउंडेशन में जो कुछ भी कहा गया था और अनुच्छेद 19(1)(g) के तहत वर्णित अधिकारों के साथ विवाद में नहीं होगा और इसलिए इसकी अनुमति है। बाद में, पीए इनामदार मामले में यह स्पष्ट किया गया कि राज्य निजी, गैर-सहायता प्राप्त शैक्षणिक संस्थानों को समाज के गरीब और कमजोर वर्गों से संबंधित छात्रों को प्रवेश देने के लिए मजबूर नहीं कर सकता क्योंकि अनुच्छेद 19(6) के तहत राज्य को दी गई शक्ति केवल प्रकृति में नियामक है और वह ऐसे प्रवेशों को मजबूर नहीं कर सकता है। अनुच्छेद 19(1) के तहत दी गई स्वैच्छिकता का तत्व एक और चीज है जिस पर कानून बनाते समय विचार करने की आवश्यकता है। 

86 वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2002, राज्य को अनुच्छेद 21A के तहत एक नई शक्ति देता है, जिसके तहत वह निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने के उद्देश्य को पूरा करने और डीपीएसपी के रूप में अनुच्छेद 45 में निर्धारित लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए इस्तेमाल की जाने वाली प्रक्रिया तय कर सकता है। राज्य को दी गई यह नई शक्ति अनुच्छेद 19(6) के तहत राज्य को दी गई शक्ति से अलग है और यह अनुच्छेद 19(1)(g) के तहत दी गई स्वैच्छिकता के तत्व को प्रभावित करती है।

अनुच्छेद 21A के तहत राज्य अब निजी, गैर-सहायता प्राप्त स्कूलों को अनुच्छेद 21A के तहत निहित शक्ति का प्रयोग करके समाज के गरीब और कमजोर वर्गों के छात्रों को प्रवेश देने के लिए मजबूर कर सकता है। शक्ति का प्रयोग केवल उन मामलों में किया जा सकता है जहां बनाया जा रहा कानून 6 से 14 वर्ष की आयु के छात्रों के प्रवेश के लिए है और वे समाज के गरीब, कमजोर और पिछड़े वर्गों से हैं। सीटों का एक छोटा हिस्सा उनके लिए आरक्षित किया जाना है, क्योंकि यह अवसर की समानता और सामाजिक न्याय से संबंधित लक्ष्यों को प्राप्त करने में मदद करेगा, जिन्हें प्रस्तावना में भी कहा गया है। इस प्रकार, ऊपर उल्लिखित उद्देश्यों के लिए अनुच्छेद 21A के तहत राज्य द्वारा बनाया गया कानून अनुच्छेद 19(1)(g) के तहत दिए गए निजी, गैर-सहायता प्राप्त शैक्षणिक संस्थानों के अधिकारों के विपरीत नहीं होगा।

आरटीई अधिनियम, 2009 को अधिनियमित करके, संसद समानता, सामाजिक न्याय, लोकतंत्र और निष्पक्ष और धर्मार्थ समाज बनाने से संबंधित लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए दृढ़ संकल्पित थी। ये लक्ष्य केवल समाज के गरीब और कमजोर वर्गों सहित सभी के लिए शिक्षा के माध्यम से प्राप्त किए जा सकते हैं। सभी संस्थानों, चाहे वे सहायता प्राप्त हों या गैर-सहायता प्राप्त, की जिम्मेदारी है कि वे समाज के सभी वर्गों को निःशुल्क और समान रूप से शिक्षा प्रदान करें।

आरटीई अधिनियम की धारा 2(n)(iv) के साथ धारा 12(1)(c) की जांच करने पर पता चलता है कि एक गैर-सहायता प्राप्त स्कूल को, भले ही वह राज्य से कोई धनराशि प्राप्त नहीं कर रहा हो, निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने के उद्देश्य से समाज के कमजोर और गरीब वर्गों से कक्षा 1 में कुल छात्रों के कम से कम 25% को प्रवेश देना आवश्यक है। आरटीई अधिनियम की धारा 12(2) में कहा गया है कि स्कूल को ऐसे बच्चों को प्रवेश देने में हुए खर्च या बच्चे से ली गई वास्तविक राशि, जो भी कम हो, की प्रतिपूर्ति (रियंबर्समेंट) राज्य द्वारा की जाएगी। इसलिए, अंततः यह राज्य ही है जो समाज के कमजोर और गरीब वर्गों के इन बच्चों की शिक्षा का वित्तपोषण कर रहा है, जो अधिनियम और इसके प्रावधानों को अनुच्छेद 19(1)(g) के तहत निजी, गैर-सहायता प्राप्त संस्थानों को प्रदान किए गए अधिकारों के साथ सामंजस्यपूर्ण बनाता है, जैसा कि  टीएमए पाई फाउंडेशन मामले में कहा गया है। अतः अनुच्छेद 21A, अनुच्छेद 19(1)(g) के तहत दिए गए गैर-अल्पसंख्यक निजी स्कूलों के अधिकारों का उल्लंघन नहीं करता है तथा अवसर की समानता और कमजोर वर्गों व वंचित समूहों के बच्चों को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने से संबंधित संविधान द्वारा निर्धारित लक्ष्यों को प्राप्त करने में मदद करता है।

सभी धार्मिक और भाषाई अल्पसंख्यकों को अनुच्छेद 30(1) के तहत अपनी पसंद के शैक्षणिक संस्थान स्थापित करने और उनका प्रबंधन करने का अधिकार है। राज्य को दी गई कोई भी शक्ति इस अधिकार को कम नहीं कर सकती है और राज्य के पास ऐसा कोई प्रावधान करने का अधिकार नहीं है जिससे गैर-अल्पसंख्यक समूह के छात्रों को ऐसे संस्थानों में जबरन प्रवेश मिले, क्योंकि यह उनके अल्पसंख्यक चरित्र के खिलाफ होगा। केशवानंद भारती मामले में, अदालत ने माना कि अल्पसंख्यकों के अधिकारों की हमेशा रक्षा की जानी चाहिए और संसद की किसी भी संशोधन शक्ति का उपयोग उनके अधिकारों को कम करने के लिए नहीं किया जा सकता है। इस प्रकार, राज्य अनुच्छेद 21A के तहत कोई भी कानून नहीं बना सकता है जिससे संस्थानों की स्थापना से संबंधित अल्पसंख्यकों के अधिकारों का उल्लंघन हो।

धारा 12(1)(b), धारा 2(n)(iii) के साथ पढ़ने पर यह स्पष्ट होता है कि राज्य से सहायता प्राप्त करने वाले स्कूल को छात्रों के एक ऐसे अनुपात को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने की बाध्यता है जो उसके वार्षिक व्यय में प्राप्त सहायता के अनुपात से मेल खाता हो, इस उद्देश्य के लिए कम से कम 25% निधि आरक्षित की जानी चाहिए। यह सहायता प्राप्त अल्पसंख्यक स्कूलों पर भी लागू होता है, उन्हें उन बच्चों के प्रवेश के लिए प्रावधान करने की आवश्यकता होती है जो स्कूल की स्थापना करने वाले अल्पसंख्यक समूह से संबंधित नहीं हो सकते हैं और उन्हें निःशुल्क और अनिवार्य प्रारंभिक शिक्षा प्रदान करते हैं।

इसके अतिरिक्त, धारा 12(1)(c), धारा 2(n)(iv) के साथ पढ़ने पर यह निर्देश मिलता है कि गैर-सहायता प्राप्त स्कूलों को समाज के कमजोर और गरीब वर्गों के छात्रों को भी प्रवेश देना चाहिए। उन पर कक्षा 1 में 25% सीटें आरक्षित करने का कानूनी दायित्व रखा गया है, इसमें गैर-सहायता प्राप्त अल्पसंख्यक स्कूल भी शामिल हैं, जिन पर ऐसे छात्रों के लिए 25% सीटें आरक्षित करने का दायित्व है, भले ही वे उस अल्पसंख्यक समूह से संबंधित हों जिसने स्कूल की स्थापना की है।

वर्तमान मामले में, न्यायालय का मानना ​​है कि यदि अल्पसंख्यक संस्थानों, चाहे वे सहायता प्राप्त हों या गैर-सहायता प्राप्त, को छात्रों को प्रवेश देने के लिए मजबूर किया जाता है, तो ऐसे संस्थानों का अल्पसंख्यक चरित्र नष्ट हो जाएगा और यह अनुच्छेद 30(1) के तहत वर्णित अल्पसंख्यक अधिकारों का उल्लंघन होगा। इसलिए, अल्पसंख्यक विद्यालयों पर लागू होने वाले आरटीई अधिनियम 2009 के प्रावधान अमान्य और असंवैधानिक हैं। नतीजतन, राजस्थान गैर-सहायता प्राप्त निजी स्कूल सोसायटी बनाम भारत संघ और अन्य (2012) में बहुमत के फैसले का वह हिस्सा जो कहता है कि सहायता प्राप्त अल्पसंख्यक विद्यालय 2009 के अधिनियम के दायरे में आते हैं जो लागू है, वह भी गलत है।

न्यायालय ने घोषित किया कि 93वां संविधान संशोधन अधिनियम, 2005, जिसके अंतर्गत अनुच्छेद 15(5) जोड़ा गया तथा 86वां संविधान संशोधन अधिनियम, 2002, जिसके अंतर्गत अनुच्छेद 21A जोड़ा गया, संविधान के मूल ढांचे के अनुरूप हैं तथा उसमें हस्तक्षेप नहीं करते हैं।

आरटीई अधिनियम, 2009 अनुच्छेद 19(1)(g) का उल्लंघन नहीं करता है। हालांकि, अल्पसंख्यक संस्थानों की स्थापना और प्रबंधन में अल्पसंख्यकों के अधिकारों को प्रभावित करने वाले प्रावधान, चाहे वे सहायता प्राप्त हों या गैर-सहायता प्राप्त, संविधान के अनुच्छेद 30(1) के तहत वर्णित अल्पसंख्यक अधिकारों का उल्लंघन करते हैं। इसलिए, न्यायालय ने मुस्लिम अल्पसंख्यक स्कूल प्रबंधक संघ की ओर से दायर रिट याचिका (सी) संख्या 1081/2013 और गैर-अल्पसंख्यक निजी गैर-सहायता प्राप्त शैक्षणिक संस्थानों द्वारा दायर रिट याचिका (सी) संख्या 416/2012, 152/2013, 60/2014, 95/2014, 106/2014, 128/2014, 144/2014, 145/2014, 160/2014 और 136/2014 को खारिज करने की अनुमति दी। सभी अंतरिम आवेदनों का भी निपटारा कर दिया गया। प्रत्येक पक्ष को अपना खर्च स्वयं वहन करने का निर्देश दिया गया।

निर्णय के पीछे तर्क

इस मामले में निर्णय के पीछे तर्क यह सुनिश्चित करना था कि सभी व्यक्तियों को, चाहे वे किसी भी वर्ग से संबंधित हों, उचित शिक्षा प्राप्त करने के अवसर प्रदान करने के मामले में निष्पक्ष और समान व्यवहार दिया जाए। ऐसा इसलिए किया गया ताकि समाज के कमजोर वर्गों के शैक्षिक और आर्थिक हितों को बढ़ावा देने के संबंध में अनुच्छेद 45 के तहत राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांतों के तहत बताए गए लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सके।

न्यायालय के अनुसार, अनुच्छेद 15(5) एक सक्षमकारी प्रावधान है और इसे अनुच्छेद 15 के अपवाद या परंतुक के रूप में नहीं पढ़ा जाना चाहिए। इसे अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों और सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों सहित सभी नागरिकों को अनुच्छेद 30(1) के तहत संरक्षित अल्पसंख्यक संस्थानों को छोड़कर सभी शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश सुरक्षित करने के लिए समान अवसर देकर वर्गों के बीच मौजूद असमानता की समस्या को संबोधित करने और हल करने के लिए अधिनियमित किया गया है।

न्यायालय ने याचिकाकर्ताओं द्वारा अनुच्छेद 15(5) के धर्मनिरपेक्षता के विरुद्ध होने तथा अनुच्छेद 19(1)(g) का उल्लंघन करने से संबंधित उठाए गए सभी विवादों को भी दूर कर दिया। इसके पीछे तर्क यह था कि अनुच्छेद 15(5) के दायरे से अल्पसंख्यक संस्थानों को बाहर रखने से अनुच्छेद 30(1) के तहत उन्हें दिए गए अधिकारों की रक्षा होती है, जो वास्तव में धर्मनिरपेक्षता को बढ़ावा देने तथा विविधता की रक्षा करने में मदद करता है। इसके अलावा, अनुच्छेद 19(1)(g) के तहत बताए गए निजी शिक्षण संस्थानों के किसी भी अधिकार का उल्लंघन नहीं किया जा रहा है। उन्हें दिए गए अधिकारों में एक धर्मार्थ तत्व भी शामिल है तथा समाज के कमजोर वर्गों के लिए सीटों का एक छोटा हिस्सा आरक्षित करने से स्वैच्छिक तत्व पर कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा, जो संस्थानों की स्थापना तथा प्रबंधन के लिए उन्हें दिए गए अधिकार में बताया गया है।

इसके अलावा, आरटीई अधिनियम में धारा 12(2) जैसे प्रावधान हैं, जिसमें कहा गया है कि निजी स्कूलों को कमजोर वर्गों के छात्रों को दाखिला देने पर होने वाले खर्चों की प्रतिपूर्ति की जाएगी। इससे न केवल निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा के लक्ष्य को पूरा करने में मदद मिलेगी, बल्कि अनुच्छेद 19(1)(g) के तहत गैर-सहायता प्राप्त निजी स्कूलों के अधिकारों की भी रक्षा होगी।

न्यायालय ने कहा कि निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करना राज्य की जिम्मेदारी है, लेकिन इस उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए निजी गैर-सहायता प्राप्त स्कूलों को भी राज्य के साथ मिलकर जिम्मेदारी साझा करनी चाहिए। 6 से 14 वर्ष की आयु के बच्चों को निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने के इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए, अनुच्छेद 21A को अनुच्छेद 45 में वर्णित लंबे समय से लंबित उद्देश्य को प्राप्त करने की उम्मीद में अधिनियमित किया गया था।

संदर्भित उदाहरण

अशोक कुमार ठाकुर बनाम भारत संघ एवं अन्य (2008)

यह मामला भारत के संविधान, 1950 के अनुच्छेद 15(5) के इर्द-गिर्द घूमता है, जिसमें 93वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2005 के साथ-साथ केंद्रीय शैक्षणिक संस्थान अधिनियम, 2006 के तहत बताई गई आरक्षण नीति को चुनौती देने वाली कई याचिकाएँ दायर की गई थीं। इन याचिकाओं को एक साथ मिलाकर भारत के सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष लाया गया। याचिकाकर्ताओं ने दावा किया कि अनुच्छेद 15(5) और 93वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2005 द्वारा संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन किया जा रहा है। न्यायालय ने आरक्षण नीति और 93वें संविधान संशोधन अधिनियम, 2005 दोनों को संवैधानिक रूप से वैध माना और कहा कि ये प्रावधान वर्गों के बीच समानता को बढ़ावा देने के लिए महत्वपूर्ण हैं।

डॉ. एम. इस्माइल फ़ारूक़ी और अन्य बनाम भारत संघ और अन्य (1994)

भारत में धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा को मान्यता देने के मामले में यह एक महत्वपूर्ण मामला है। न्यायालय ने कहा कि धर्मनिरपेक्षता भारतीय संविधान में मौजूद सबसे महत्वपूर्ण तत्वों में से एक है। न्यायालय के अनुसार, धर्मनिरपेक्षता वास्तव में समानता के अधिकार का एक हिस्सा है और यह संविधान का एक केंद्रीय विषय है और इसलिए, इसे संरक्षित किया जाना चाहिए। प्रस्तावना के साथ अनुच्छेद 15 से 28 धर्मनिरपेक्षता के महत्व को उजागर करते हैं और यह बताते हैं कि भारत के लोगों ने इसे अपने अस्तित्व के अभिन्न अंग के रूप में कैसे अपनाया है।

द्वारकादास श्रीनिवास बनाम शोलापुर स्पिनिंग और वीविंग कंपनी लिमिटेड और अन्य (1953)

यह मामला शोलापुर स्पिनिंग और वीविंग कंपनी (आपातकालीन प्रावधान) अध्यादेश II, 1950 और अधिनियम XXVIII, 1950 की वैधता के इर्द-गिर्द घूमता है। प्रतिवादी ने दावा किया कि उक्त अधिनियम और अध्यादेश संविधान के अनुच्छेद 14, 19 और 31 के तहत उसके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करते हैं। मामला सर्वोच्च न्यायालय पहुंचा, जहां यह माना गया कि अधिनियम और अध्यादेश वास्तव में उक्त मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करते हैं। यह भी कहा गया कि नागरिकों के अधिकारों और स्वतंत्रता को उनके अधिकारों के छिपे हुए आक्रमणों से सुरक्षित रखना न्यायालय का कर्तव्य है। एडवर्ड ए. बॉयड और जॉर्ज एच. बॉयड बनाम संयुक्त राज्य अमेरिका के मामले में माननीय न्यायमूर्ति ब्रैडली ने भी इस बात पर ध्यान दिया था।

एडवर्ड ए. बॉयड और जॉर्ज एच. बॉयड बनाम संयुक्त राज्य अमेरिका (1886)

इस मामले का निर्णय संयुक्त राज्य अमेरिका के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा किया गया, जिसमें संवैधानिक स्वतंत्रता और सुरक्षा से संबंधित महत्वपूर्ण सिद्धांतों पर चर्चा की गई। निजता के अधिकार के मामले में यह एक ऐतिहासिक निर्णय है। इस मामले में, मुद्दा चौथे और पांचवें संशोधन द्वारा साझा किए गए संबंधों के इर्द-गिर्द घूमता है। बॉयड्स को रिकॉर्ड के अनिवार्य उत्पादन के लिए एक आदेश प्रस्तुत किया गया था, उन्होंने कहा कि रिकॉर्ड का अनिवार्य उत्पादन चौथे संशोधन और पांचवें संशोधन के तहत उनके अधिकारों का उल्लंघन होगा, जो क्रमशः अनुचित खोजों और जब्ती से सुरक्षा और अनिवार्य आत्म-अपराध से स्वतंत्रता प्रदान करता है। न्यायालय ने बॉयड्स के पक्ष में फैसला सुनाया और माननीय न्यायमूर्ति ब्रैडली ने कहा कि व्यक्तियों को उनके अधिकारों के हनन से बचाना न्यायालय पर निर्भर है और इसे हमेशा व्यक्तियों की स्वतंत्रता और अधिकारों पर छिपे हमलों की तलाश में रहना चाहिए।

परम पावन केशवानंद भारती श्रीपदगलवरु बनाम केरल राज्य और अन्य (1973)

यह मामला मौलिक अधिकार मामले के नाम से लोकप्रिय है। यह भारतीय न्यायपालिका द्वारा सुनाए गए सबसे महत्वपूर्ण मामलों में से एक है। इस मामले में केरल भूमि सुधारों को चुनौती दी गई थी और इस मामले का फैसला 13 न्यायाधीशों की पीठ ने किया था। इस मामले से उत्पन्न सबसे महत्वपूर्ण विकास मूल संरचना सिद्धांत था, जिसके अनुसार संविधान में लाया जाने वाला कोई भी संशोधन संविधान के मूल ढांचे को प्रभावित नहीं करेगा, अगर कोई संशोधन करता है, तो उसे असंवैधानिक करार दिया जाएगा। इसने गोलक नाथ बनाम पंजाब राज्य (1967) के मामले को भी खारिज कर दिया।

कानूनी प्रतिनिधि द्वारा आई.आर. कोएलो (मृत) बनाम टीएन राज्य (2007)

इस मामले को 9वीं अनुसूची मामले के नाम से भी जाना जाता है और इसका फैसला 9 न्यायाधीशों की पीठ ने किया था। इस मामले में संविधान के मूल ढांचे की श्रेष्ठता को बरकरार रखा गया और कहा गया कि अगर कोई संशोधन संविधान के मूल ढांचे और मौलिक अधिकारों के खिलाफ है, तो उसे खारिज किया जा सकता है, जिससे न्यायिक समीक्षा का दायरा बढ़ जाता है और न्यायपालिका की शक्ति मजबूत होती है।

इंद्रा साहनी एवं अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य (1992)

यह मामला भारत में आरक्षण नीति को आकार देने वाले मिलों में से एक है। यह मुद्दा मंडल आयोग द्वारा दिए गए सुझावों के कार्यान्वयन के इर्द-गिर्द घूमता है, जिसमें सुझाव दिया गया था कि केंद्र सरकार की नौकरियों में ओबीसी के लिए 27% सीटें आरक्षित होनी चाहिए। इस मामले ने आरक्षण के एकमात्र मानदंड के रूप में आर्थिक आधार को हटा दिया और कहा कि क्रीमी लेयर को बाहर रखा जाना चाहिए।

इस्लामिक एकेडमी ऑफ एजुकेशन एवं अन्य बनाम कर्नाटक राज्य एवं अन्य (2003)

यह मामला अनुच्छेद 30 के तहत शैक्षणिक संस्थान स्थापित करने के अल्पसंख्यकों के अधिकारों पर प्रकाश डालता है। यह अनुच्छेद उन्हें ऐसे संस्थानों के प्रशासन और निर्माण पर पूर्ण नियंत्रण देता है। इसके अलावा, यह भारत में मौजूद विभिन्न समुदायों के सांस्कृतिक और शैक्षिक मतभेदों की रक्षा करता है। न्यायालय ने इस्लामिक अकादमी ऑफ एजुकेशन के पक्ष में फैसला सुनाया और अनुच्छेद 30 के तहत उसके अधिकारों की रक्षा की क्योंकि यह एक अल्पसंख्यक संस्थान था।

एम. नागराज एवं अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य (2006)

इस मामले में न्यायालय ने अनुच्छेद 16(4) की जांच की, जो सार्वजनिक क्षेत्र में रोजगार के अवसरों में समानता की बात करता है। इस अनुच्छेद को इस आधार पर चुनौती दी गई कि यह संविधान के मूल ढांचे के खिलाफ है और यह अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षण द्वारा समानता के अधिकार को कम करता है। न्यायालय ने माना कि अनुच्छेद 16(4) में किए गए संशोधन वैध थे, लेकिन आरक्षण नीति के दुरुपयोग को रोकने के लिए उचित कदम उठाए जाने चाहिए। 

मिनर्वा मिल्स लिमिटेड एवं अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य (1980)

यह एक ऐतिहासिक मामला है जिसने मूल संरचना सिद्धांत के विकास में मदद की है। इस मामले में, न्यायालय ने माना कि संसद के पास संविधान में संशोधन करने की असीमित शक्ति नहीं है; बल्कि, इसे संविधान द्वारा सीमित किया गया है। संसद के पास केवल मूल संरचना को बरकरार रखते हुए संविधान में संशोधन करने की शक्ति है और यह सुनिश्चित करना है कि संशोधन की प्रक्रिया में मूल संरचना नष्ट न हो।

मोहिनी जैन (सुश्री) बनाम कर्नाटक राज्य एवं अन्य (1992)

यह मामला निजी शिक्षण संस्थानों द्वारा प्रवेश देने के लिए लगाए जाने वाले अतिरिक्त प्रति व्यक्ति शुल्क (कैपिटेशन फीस) के मुद्दे पर केंद्रित था। न्यायालय ने माना कि शिक्षा का अधिकार, जिसे मौलिक अधिकारों के तहत स्पष्ट रूप से नहीं बताया गया है, फिर भी अनुच्छेद 21 का एक महत्वपूर्ण तत्व है। इसलिए, न्यायालय ने स्पष्ट किया कि शिक्षा के अधिकार को मौलिक अधिकार के रूप में माना जाना चाहिए और प्रति व्यक्ति शुल्क वसूलने की प्रथा संविधान द्वारा गारंटीकृत इस अधिकार का उल्लंघन है। 

पीए इनामदार एवं अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य एवं अन्य (2005)

अल्पसंख्यकों के शैक्षणिक संस्थान स्थापित करने के अधिकारों के मामले में यह एक ऐतिहासिक मामला है। इस मामले ने अल्पसंख्यक संस्थानों की स्वायत्तता की रक्षा करने और यह सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण प्रगति की है कि सभी नागरिकों को समान शैक्षणिक अवसर दिए जाएं। इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानों को ऐसे संस्थानों में छात्रों के प्रवेश के बारे में निर्णय लेने की पूरी स्वायत्तता है। राज्य की आरक्षण नीति का अल्पसंख्यक शैक्षणिक संस्थानों द्वारा चुनी गई प्रवेश प्रक्रिया पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है।

पी.डी. शमदासानी बनाम सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया लिमिटेड (1951)

इस मामले में न्यायालय ने कहा कि संविधान के भाग III में अनुच्छेद 19 की स्थिति और भाषा तथा निर्माण से पता चलता है कि अनुच्छेद का उद्देश्य राज्य की कार्रवाइयों से इसके अंतर्गत वर्णित स्वतंत्रता की रक्षा करना है। अन्य व्यक्तियों द्वारा संपत्ति के अधिकारों का कोई भी उल्लंघन अनुच्छेद 19 के दायरे में नहीं आएगा।

श्रीमती विद्या वर्मा बनाम डॉ. शिव नारायण वर्मा (1955)

इस मामले में न्यायालय द्वारा की गई सबसे महत्वपूर्ण टिप्पणियों में से एक यह थी कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार, जो अनुच्छेद 21 के तहत एक मौलिक अधिकार है, केवल राज्य के विरुद्ध ही लागू किया जा सकता है, निजी व्यक्तियों के विरुद्ध नहीं, यदि इसका उल्लंघन किया जाता है।

राजस्थान गैर-सहायता प्राप्त निजी स्कूल सोसायटी बनाम भारत संघ एवं अन्य (2012)

इस मामले में, आरटीई अधिनियम, 2009 की वैधता को यह कहते हुए चुनौती दी गई थी कि यह अधिनियम अनुच्छेद 14 और अनुच्छेद 19(1)(g) के विरुद्ध है क्योंकि यह निजी शिक्षण संस्थानों के लिए आरक्षण नीतियों को लागू करके उनके अधिकारों का उल्लंघन करता है। न्यायालय ने माना कि आरटीई अधिनियम वैध था और उसने आगे कहा कि यदि राज्य समाज के कमजोर वर्गों के छात्रों के प्रवेश के लिए उन्हें प्रतिपूर्ति करने का प्रावधान नहीं करता है, तो गैर-सहायता प्राप्त निजी स्कूल आरक्षण नीति का पालन करने के लिए बाध्य नहीं हैं। 

केरल राज्य एवं अन्य बनाम एनएम थॉमस एवं अन्य (1975)

इस मामले में न्यायालय ने रोजगार क्षेत्र में आरक्षण नीतियों की स्थिति स्पष्ट की। न्यायालय ने माना कि राज्य के पास देश में मौजूद विभिन्न वर्गों के बीच समानता सुनिश्चित करने के लिए आरक्षण के प्रावधान करने का अधिकार है। केरल सरकार द्वारा अधीनस्थ सेवाओं के लिए लोगों के चयन के संबंध में एक नियम पारित किए जाने पर विवाद उत्पन्न हुआ। इन नियमों को असंवैधानिक होने और अनुच्छेद 16 के विरुद्ध होने के आधार पर चुनौती दी गई। न्यायालय ने माना कि नियम वैध थे और अनुच्छेद 16(4) को अनुच्छेद 16(1) के अपवाद के रूप में नहीं बल्कि पूरक (कंप्लीमेंट्री) प्रावधानों के रूप में माना जाना चाहिए जिन्हें एक साथ पढ़ा जाना चाहिए।

टीएमए पाई फाउंडेशन एवं अन्य बनाम कर्नाटक राज्य एवं अन्य (2002)

यह एक बहुत ही महत्वपूर्ण मामला है जिसका फैसला 2002 में 11 न्यायाधीशों की पीठ ने किया था। इस फैसले ने निजी संस्थानों के प्रशासन से संबंधित महत्वपूर्ण दिशा-निर्देशों का मार्ग प्रशस्त किया। इस मामले में अनुच्छेद 30 के तहत अल्पसंख्यकों के अधिकार भी शामिल थे, जो उन्हें शैक्षणिक संस्थान स्थापित करने का अधिकार और शक्ति देता है। न्यायालय ने माना कि निजी शैक्षणिक संस्थानों को अनुच्छेद 19(1)(g) के तहत अपने संस्थानों को अपनी इच्छानुसार स्थापित करने और नियंत्रित करने की पूरी स्वायत्तता है।

अहमदाबाद सेंट जेवियर्स कॉलेज सोसायटी और अन्य बनाम गुजरात राज्य और अन्य (1974)

इस मामले के निर्णय का उद्देश्य अनुच्छेद 30 के तहत भारत में मौजूद विशिष्ट भाषाई और सांस्कृतिक अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा करना था। न्यायालय ने माना कि अनुच्छेद 30 के तहत अल्पसंख्यकों को अपनी पसंद के शैक्षणिक संस्थान की स्थापना और प्रबंधन का पूरा अधिकार है, लेकिन इसे अनुच्छेद 29 की तरह ही पढ़ा जाना चाहिए, क्योंकि यह असंवैधानिक होगा। न्यायालय ने यह भी माना कि अनुच्छेद 30 यह सुनिश्चित करने का प्रयास करता है कि अल्पसंख्यकों और बहुसंख्यकों के बीच समानता हो, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि अल्पसंख्यकों को संविधान के तहत कुछ अतिरिक्त अधिकार दिए गए हैं या उन्हें विशेषाधिकार प्राप्त हैं। 

वेंकटरमन देवरू बनाम मैसूर राज्य (1957)

इस मामले में, न्यायालय ने माना कि, यदि कानून के दो प्रावधानों के बीच कोई विवाद है, तो उन्हें सामंजस्यपूर्ण निर्माण के नियम का उपयोग करके सामंजस्यपूर्ण तरीके से पढ़ा जाना चाहिए। इससे यह सुनिश्चित होगा कि विवाद को इस तरह से हल किया जाए कि किसी भी व्यक्ति के अधिकारों में बाधा न आए। सामंजस्यपूर्ण निर्माण का उद्देश्य इस तरह से व्याख्या प्रदान करना है कि किसी एक को त्यागने के बजाय दोनों प्रावधानों को लागू करना संभव हो।

जटिल अन्वेषण

इस मामले में मुख्य रूप से अनुच्छेद 15(5) और 21A को जोड़े जाने पर चर्चा की गई और यह भी कि क्या यह जोड़ा जाना संवैधानिक रूप से वैध है या नहीं। याचिकाकर्ताओं द्वारा दिए गए तर्कों में मुख्य रूप से कहा गया है कि ये दोनों अनुच्छेद स्वर्णिम त्रिभुज, यानी अनुच्छेद 14, 19 और 21 का उल्लंघन करते हैं। लेकिन न्यायालय इससे संतुष्ट नहीं हुआ और उसने प्रतिवादियों के पक्ष में फैसला सुनाया कि अनुच्छेद 15(5) और 21A को शामिल करने से किसी अनुच्छेद का उल्लंघन नहीं हो रहा है।

अनुच्छेद 15(5) अनुच्छेद 19(1)(g) का उल्लंघन है

कई विद्वानों का मानना ​​है कि न्यायालय ने यह कहते हुए निर्णय देते समय गलती की कि अनुच्छेद 15(5) को शामिल करना अनुच्छेद 19(1)(g) के तहत निजी गैर-सहायता प्राप्त संस्थानों के अधिकारों के विपरीत नहीं है। याचिकाकर्ताओं ने अपने तर्कों को मजबूत उदाहरणों के साथ यह साबित करने के लिए समर्थन दिया कि उनके अधिकारों का उल्लंघन किया जा रहा है, लेकिन न्यायालय ने केवल यह कहा कि उनके संस्थानों में कुछ सीटें आरक्षित करने से अनुच्छेद 19(1)(g) के तहत उनके अधिकारों को नुकसान नहीं होगा। यह एक स्थापित स्थिति है कि निजी, गैर-सहायता प्राप्त संस्थानों को बिना किसी राज्य के हस्तक्षेप के अपने संस्थानों को स्थापित करने और संचालित करने की पूरी स्वायत्तता है। न्यायालय द्वारा दिया गया निर्णय निजी, गैर-सहायता प्राप्त संस्थानों में आरक्षण को मजबूर करके इस स्थापित सिद्धांत के खिलाफ जाता है।

अनुच्छेद 21A और इसके दायरे में अस्पष्टता

याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया कि मौलिक अधिकारों को केवल राज्य के विरुद्ध ही लागू किया जा सकता है, निजी संस्थाओं के विरुद्ध नहीं, इसलिए, निःशुल्क और निष्पक्ष शिक्षा प्राप्त करने के लक्ष्य को पूरा करने का दायित्व राज्य का है, न कि निजी, गैर-सहायता प्राप्त संस्थानों का।

न्यायालय ने इस तर्क को स्वीकार किया, लेकिन यह भी कहा कि अनुच्छेद 21A के तहत दायित्व राज्य के पास है, लेकिन वह अपने लक्ष्यों और कर्तव्यों को पूरा करने के लिए निजी, गैर-सहायता प्राप्त संस्थानों पर अनुच्छेद 21A के तहत किए गए प्रावधानों को भी लागू कर सकता है। यह स्थिति एक अंतर पैदा करती है क्योंकि अगर राज्य अपनी नीतियों को निजी, गैर-सहायता प्राप्त संस्थानों पर लागू करता है, तो यह उनके संवैधानिक अधिकारों और स्वायत्तता का उल्लंघन कर सकता है। इससे एक जटिल और समस्याग्रस्त परिदृश्य पैदा होगा।

अल्पसंख्यक संस्थानों को आरटीई अधिनियम, 2009 के दायरे से बाहर रखा गया है

न्यायालय ने कहा कि राज्य की आरक्षण नीति अल्पसंख्यक संस्थानों पर लागू नहीं होगी क्योंकि इससे अनुच्छेद 30(1) के तहत अल्पसंख्यक संस्थानों को दिए गए अधिकारों में कटौती होगी। न्यायालय द्वारा निकाले गए इस निष्कर्ष में उचित तर्क और विश्लेषण का अभाव है, क्योंकि एक ओर, ऐसा लगता है कि न्यायालय अल्पसंख्यक समुदाय और अन्य समुदायों के एकीकरण को बढ़ावा देने की कोशिश कर रहा है। दूसरी ओर, यह कह रहा है कि अल्पसंख्यक संस्थान में अन्य समुदायों के छात्रों को प्रवेश देने से अल्पसंख्यक समुदाय के लिए खतरा पैदा होगा।

अनुच्छेद 30(1) और 19(1)(g) पर सर्वोच्च न्यायालय की व्याख्या

अनुच्छेद 30(1) के तहत वर्णित शब्द “स्थापना” और “प्रशासन” को एकीकृत तरीके से एक साथ पढ़ा जाना चाहिए। इसका मतलब यह होगा कि अल्पसंख्यक संस्थान एक निश्चित समुदाय द्वारा स्थापित किया गया है और उसी समुदाय के सदस्यों द्वारा प्रशासित भी किया जा रहा है।

निजी शिक्षण संस्थानों के लिए अनुच्छेद 19(1)(g) में भी यही दो शब्द दिए गए हैं। इसका मतलब यह होगा कि राज्य सीटों के आरक्षण के प्रावधान करने के अलावा किसी भी निर्णय लेने या प्रशासनिक प्रक्रिया में न्यूनतम हस्तक्षेप करेगा।

टीएमए पाई और इनामदार मामलों में न्यायालय ने यह निष्कर्ष निकाला था कि अनुच्छेद 30(1) के तहत अल्पसंख्यकों के अधिकार और अनुच्छेद 19(1)(g) के तहत निजी संस्थानों के अधिकार सरकारी हस्तक्षेप के मामले में समानार्थी हैं। इसलिए, अगर आरक्षण नीति निजी संस्थानों पर लागू की जा रही है तो अल्पसंख्यक संस्थानों पर भी लागू होनी चाहिए। अगर अल्पसंख्यक संस्थान आरक्षण नीति के तहत सीटें आरक्षित करने के लिए बाध्य नहीं हैं तो निजी संस्थानों पर भी ऐसा करने की बाध्यता नहीं हो सकती।

लेकिन प्रमति शैक्षिक एवं सांकृतिक ट्रस्ट बनाम भारत संघ (2014) के मामले में, न्यायालय ने निजी संस्थानों को समान अधिकार नहीं दिए, जिससे निजी संस्थानों के अधिकारों में कटौती की संभावना बढ़ गई।

निष्कर्ष 

प्रमति शैक्षिक एवं सांकृतिक ट्रस्ट बनाम भारत संघ (2014) का मामला भारतीय शिक्षा प्रणाली और संवैधानिक कानून पर इसके प्रभाव के संदर्भ में सबसे महत्वपूर्ण मामलों में से एक है। इस मामले में, न्यायालय ने शिक्षा के अधिकार से संबंधित महत्वपूर्ण मुद्दों को संबोधित किया और यह भी कि राज्य को निजी शिक्षण संस्थानों के कामकाज और प्रशासन में हस्तक्षेप करने की कितनी शक्ति है। 

इस मामले में अनुच्छेद 15(5) और 21A के साथ-साथ आरटीई अधिनियम, 2009 की वैधता का परीक्षण किया गया, तथा तीनों को संवैधानिक रूप से वैध माना गया। इस मामले के निर्णय में राज्य में निहित निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा सुनिश्चित करने की शक्ति और अनुच्छेद 19(1)(g) के तहत निजी शिक्षण संस्थानों को दी गई स्वायत्तता के बीच संतुलन बनाने की कोशिश की गई, साथ ही अनुच्छेद 30(1) के तहत संरक्षित संस्थानों की स्थापना से संबंधित अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा भी की गई।

इस मामले में आगे आरटीई अधिनियम के दायरे और यह अल्पसंख्यक संस्थानों पर लागू होगा या नहीं, इसका निर्धारण किया गया, जिसके संबंध में न्यायालय ने कहा कि आरटीई अधिनियम के प्रावधान अल्पसंख्यक संस्थानों पर लागू नहीं होंगे।

यह मामला न केवल आरटीई अधिनियम के दायरे के बारे में स्पष्टता प्रदान करता है, बल्कि भारत में मौजूद विविध परिदृश्य की रक्षा के महत्व को भी उजागर करता है। यह निर्णय अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक अधिकारों को समान सम्मान देता है, साथ ही सार्वजनिक और निजी हितों के बीच संतुलन भी बनाए रखता है।

संदर्भ

 

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