सीपीसी, 1908 के तहत एक डीम्ड डिक्री

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Civil Procedure Code

यह लेख कोलकाता के एमिटी लॉ स्कूल की छात्रा Oishika Banerji ने लिखा है। यह लेख सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के तहत डीम्ड डिक्री की अवधारणा पर चर्चा करता है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja के द्वारा किया गया है।

परिचय 

सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 2(2) के तहत “डिक्री” को इस प्रकार परिभाषित किया गया है: 

“एक अधिनिर्णय (एडज्यूडिकेशन) की औपचारिक (फॉर्मल) अभिव्यक्ति, जहां ​​अदालत, इसे व्यक्त करने के संबंध में, मुकदमे में विवाद में सभी या किसी भी मामले के संबंध में पक्षों के अधिकारों को निर्णायक (कंक्लूसिव) रूप से निर्धारित करती है और यह या तो प्रारंभिक या अंतिम हो सकती है। इसमें एक वादपत्र (प्लेंट) की अस्वीकृति और धारा 144 के भीतर किसी भी प्रश्न का निर्धारण शामिल है, लेकिन इसमें निम्नलिखित शामिल नहीं होगा-

  1. कोई अधिनिर्णय जिसकी अपील, एक आदेश की अपील की भांति होती है, या
  2. चूक के लिए वाद खारिज करने का कोई आदेश।” 

इस परिभाषा से, यह स्पष्ट हो जाता है कि डिक्री के तीन वर्ग हैं, अर्थात्, 

  1. प्रारंभिक: एक डिक्री को तब प्रारंभिक कहा जाता है जब पक्षों के अधिकारों का निर्णय एक अधिनिर्णय द्वारा किया जाता है लेकिन वाद का पूरी तरह से निपटारा नहीं होता है। उदाहरण के लिए प्रिंसिपल और एजेंट के बीच खातों के लिए वाद।
  2. अंतिम: एक डिक्री को अंतिम तब कहा जाता है जब या तो उसके खिलाफ कोई अपील दायर नहीं की गई है क्योंकि मामला उच्चतम न्यायालय द्वारा तय किया गया है जिसने डिक्री जारी की है या डिक्री पारित करने वाली अदालत ने वाद का पूरी तरह से निपटारा कर दिया है।
  3. आंशिक रूप से प्रारंभिक और आंशिक रूप से अंतिम: एक डिक्री केवल मेस्ने लाभ के मामलों में ही आंशिक रूप से प्रारंभिक या आंशिक रूप से अंतिम हो सकती है, यहां संपत्ति के कब्जे के संबंध में अदालत द्वारा पारित डिक्री अंतिम डिक्री है, और डिक्री जो मेस्ने लाभ की जांच का निर्देश देती है वह प्रारंभिक डिक्री होगी।

इस प्रावधान में कहीं भी डीम्ड डिक्री की अवधारणा पर ध्यान नहीं दिया गया है और इसलिए यह स्पष्ट है कि हालांकि डीम्ड डिक्री किसी भी डिक्री का प्रतीक है जो धारा 2 (2) के तहत आवश्यकताओं को पूरा नहीं करती है, लेकीन फिर भी उसे डिक्री के रूप में माना जा सकता है। यह लेख डीम्ड डिक्री की अवधारणा और इसे सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 द्वारा कैसे माना जाता का एक अवलोकन (ओवरव्यू) प्रदान करेगा। 

डीम्ड डिक्री

हालंकि “डिक्री” शब्द से जुड़ा अर्थ सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 2 (2) के तहत शामिल किया गया है, यहां “डीम्ड” शब्द को भी महत्व दिया जाना चाहिए। “डीम्ड” शब्द की शाब्दिक व्याख्या “विचार करने” का प्रतीक है। इस शब्द को “डिक्री” के साथ जोड़ा गया है ताकि “डिक्री” शब्द को एक अलग अर्थ प्रदान करने के उद्देश्य से एक वैधानिक कल्पना तैयार की जा सके और इस प्रकार वह शब्द शामिल हो जो स्पष्टीकरण को स्पष्ट रूप से शामिल नहीं करता है, इसलिए, यह “डिक्री” शब्दों को “डीम्ड डिक्री” से अलग करता है। 

सीआईटी बनाम बॉम्बे ट्रस्ट कॉरपोरेशन (1930) के मामले में प्रिवी काउंसिल ने, यह माना कि जब भी किसी व्यक्ति को कुछ समझा जाता है, तो संसद के अधिनियम में उसके साथ कुछ ऐसा व्यवहार करने की आवश्यकता होती है जो वह वास्तव में नहीं है। यह ईस्ट एंड डवेलिंग्स सी. लिमिटेड बनाम फिन्सबरी बरो काउंसिल (1952) का मामला था जहां “डीम्ड” शब्द के कार्य पर प्रकाश डाला गया था जैसा कि पहले चर्चा की जा चुकी है। इसके अलावा, 1979 में, लकी कोचुवारी बनाम पी. मारिअप्पा गौंडर के मामले में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने, “डीम्ड” शब्द के उपयोग के पीछे विधायिका के इरादे को समझा और देखा कि जब भी किसी क़ानून को “डीम्ड” शब्द के साथ जोड़ा जाता है, तो वह किसी चीज़ या सामान्य रूप से एक व्यक्ति से जुड़ा होता है, इसका मतलब यह होगा कि विधायिका किसी वस्तु या व्यक्ति पर उचित विचार के बाद उस पर एक स्थिति निहित करती है। 

यह उल्लेखनीय है कि प्रत्येक डिक्री अपील योग्य है जब तक कि इसके विपरीत क़ानून में स्पष्ट रूप से नहीं कहा गया हो। इसी तरह, डीम्ड डिक्री भी प्रकृति में अपील योग्य होनी चाहिए। लेकिन, बी. नुकाराजू बनाम एमएसएन चैरिटीज (1994) के मामले में यह बात स्पष्ट हो जाती है, जहां अदालत ने माना कि चूंकि डीम्ड डिक्री की अवधारणा धारा 2(2) के दायरे में नहीं आती है, इसलिए इस प्रकार की डिक्री 1908 की संहिता की धारा 96, जो “मूल डिक्री से अपील” के बारे में बात करती है, के अनुसार आगे नहीं बढ़ेंगी।” इस प्रकार ऐसी स्थिति में, नियमित अपीलों के स्थान पर केवल विविध अपीलों को ही लागू किया जाएगा। 

सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के तहत डीम्ड डिक्री

सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 2(2) स्पष्ट रूप से डीम्ड डिक्री के बारे में बात नहीं करती है, लेकिन संहिता, सामान्य रूप से, इस प्रकार की डिक्री को कई तरह से मान्यता देती है, जिसकी चर्चा यहां की गई है। 

एक वादपत्र की अस्वीकृति

सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश 7 नियम 11 में एक वादपत्र को अस्वीकार करने का प्रावधान है। एक वादपत्र वादी द्वारा एक निवेदन है, जिसकी प्रस्तुति से एक सिविल कार्यवाही शुरू होती है। यह प्रावधान कुछ आधार प्रदान करता है जिन पर न्यायालय द्वारा वादपत्र को खारिज करते समय विचार किया जाना चाहिए। अब यह इंगित करना आवश्यक है कि किसी वादपत्र की अस्वीकृति को एक डीम्ड डिक्री के रूप में क्यों माना जाएगा। धारा 2(2) के शब्दों में ही कहा गया है कि प्रावधान को समावेशी (इंक्लूसिव) माना जाता है;

  1. एक वादपत्र की अस्वीकृति;
  2. सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 144 के तहत किसी भी प्रश्न का निर्धारण।

धारा 2(2) के तहत एक डिक्री के परिणाम के लिए, कुछ निश्चित आवश्यकताएं हैं जिनका इस प्रावधान में स्पष्ट रूप से पालन करने का उल्लेख है, जो हैं;

  1. एक अधिनिर्णय होना चाहिए;
  2. अधिनिर्णय एक वाद में किया जाना चाहिए;
  3. अधिनिर्णय को वाद के पक्षों के अधिकारों का निर्धारण करना चाहिए;
  4. निर्धारण को एक निर्णायक प्रकृति प्राप्त करनी चाहिए;
  5. अधिनिर्णय औपचारिक रूप से व्यक्त किया जाना चाहिए।

इन आधारों को ध्यान में रखते हुए, न्यायालय के एक निर्देश को एक डिक्री माना जाता है। यदि कोई वादपत्र न्यायालय द्वारा खारिज कर दिया जाता है, तो इसका तात्पर्य है कि कोई अधिनिर्णय नहीं हुआ है और इसलिए कोई वाद मौजूद नहीं है, क्योंकि वाद का अर्थ एक सिविल कार्यवाही है जो वादपत्र की प्रस्तुति द्वारा स्थापित की जाती है। इसलिए, एक वादपत्र की अस्वीकृति को एक डीम्ड डिक्री के बजाय धारा 2(2) के तहत एक डिक्री के रूप में नहीं माना जा सकता है, जैसा कि कानून में कहा गया है। 

धारा 144 के तहत प्रश्न का निर्धारण

सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 144 में बहाली (रेस्टिट्यूशन) के लिए आवेदन के बारे में बात की गई है। वादपत्र की अस्वीकृति की तरह, धारा 144 के तहत एक प्रश्न का निर्धारण करना भी एक डिक्री माना जाता है, जैसा कि संहिता की धारा 2(2) द्वारा स्पष्ट रूप से प्रदान किया गया है। धारा 144 अदालतों के लिए बहाली का आदेश देने का एक सशक्त प्रावधान है जब भी कोई आदेश या डिक्री अपील, या पुनरीक्षण (रिवीजन), या अन्य कार्यवाही के माध्यम से उलट दी जाती है। 

एस.एम देशमुख बनाम गणेश कृष्णजी खरे (1973) के मामले में बॉम्बे उच्च न्यायालय ने कहा था कि यह सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी कि अदालत की कोई कार्रवाई वाद के पक्ष को प्रभावित नहीं करती है, पूरी तरह से न्यायालयों पर निहित है। जब भी परिस्थितियाँ माँग करती हैं, न्यायालयों के पास बहाली प्रदान करने का अंतर्निहित अधिकार क्षेत्र (इन्हेरेंट ज्यूरिसडिक्शन) होता है। संहिता की धारा 144 को सामान्य रूप से डिक्री नहीं माना जा सकता है, क्योंकि धारा 2(2) के तहत एक डिक्री को निर्णायक निर्धारण से उत्पन्न होना चाहिए, जबकि धारा 144 किसी भी प्रकार की त्रुटि को सुधारती है जो डिक्री पारित करते समय न्यायालय द्वारा हो सकती है। इसलिए, त्रुटि मिट जाने के बाद, डिक्री धारा 2(2) के तहत अपने लक्षणों को बरकरार रखती है, और इस प्रकार कानून धारा 144 के तहत प्रश्न के निर्धारण को एक डिम्ड डिक्री के रूप में संदर्भित करने का इरादा रखती है।

आदेश 21 के नियम 58 के तहत अधिनिर्णय

अधिनिर्णय शब्द का अर्थ कानून के उस बिंदु का निर्धारण करना है जो विवाद में है। सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश 21 के नियम 58 में संपत्ति की कुर्की (अटैचमेंट) के दावों या आपत्तियों के अधिनिर्णय का प्रावधान है। सीधे शब्दों में कहें तो, नियम 58 अधिनिर्णय के बारे में बात करता है जो एक संपत्ति की कुर्की पर किए गए दावे के साथ-साथ एक डिक्री के निष्पादन (एग्जिक्यूशन) के आधार पर होता है कि ऐसी संपत्ति इस तरह की कुर्की के लिए उत्तरदायी नहीं है। नियम 58 का खंड 4 जो आदेश 21 के नियम 58 के तहत डीम्ड डिक्री की अवधारणा को लागू करता है, कहता है कि “जहां इस नियम के तहत किसी भी दावे या आपत्ति पर अधिनिर्णय लिया गया है, उस पर दिए गए आदेश में समान बल होगा और उसी शर्तों के अधीन होगा जैसा कि अपील करने के लिए या अन्यथा जैसे कि यह एक डिक्री थी।” इस खंड को साधारण रूप से पढ़ने से पता चलता है कि नियम 58 के तहत होने वाले अधिनिर्णय के परिणामस्वरूप संहिता की धारा 2 (2) के तहत एक डिक्री नहीं होगी, इसके बजाय जैसे खंड 4 के तहत उल्लेख किया गया है यह एक डीम्ड डिक्री मानी जाएगी। 

आदेश 21 का नियम 98

सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश 21 के नियम 98 में अधिनिर्णय के बाद आदेशों का प्रावधान है। इस प्रावधान को पढ़ने से पहले, यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि 1908 की संहिता की धारा 2 (2) के तहत डिक्री की परिभाषा स्पष्ट रूप से आदेश को समाप्त करती है। इसके बजाय, संहिता की धारा 2(14) के साथ पठित धारा 2 के खंड 2 के उप-खंड डिक्री को आदेश से अलग करते हैं। इसी तथ्य से, आदेश 21 का नियम 98 कानून के इरादे के अनुसार डिक्री के दायरे में आता है, लेकिन धारा 2 (2) के तहत डिक्री नहीं है। जफू जावीद बनाम वी. नरसिम्हा रेड्डी और अन्य (1998) के मामले में आंध्र उच्च न्यायालय ने देखा कि सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश 21 के नियम 98 में उन प्रश्नों से संबंधित अधिनिर्णय पर विचार किया गया है जो नियम 101 में संदर्भित हैं जो निर्धारित किए जाने वाले प्रश्नों से संबंधित हैं। अदालत ने आगे कहा कि जब तक कोई आदेश अधिनिर्णय के बराबर नहीं होता, उसे डिक्री के रूप में नहीं माना जा सकता है और इसलिए इस तरह के आदेश के खिलाफ कोई अपील दायर नहीं की जा सकती है। इस प्रकार इसे एक डिक्री नहीं माना जा सकता है, लेकिन इसे एक डीम्ड डिक्री के रूप में माना जा सकता है। 

आदेश 21 नियम 100

सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 का आदेश 21 का नियम 100, बेदखली की शिकायत करने वाले आवेदन पर पारित किए जाने वाले आदेश से संबंधित है। इस नियम को भी नियम 101 के साथ पढ़ने की जरूरत है जो निर्धारित किए जाने वाले प्रश्नों से संबंधित है। उसी व्याख्या को लागू करते हुए जैसा कि आदेश 21 नियम 98 में किया गया है, यह कहा जा सकता है कि उसी आदेश का नियम 100 एक डीम्ड डिक्री है क्योंकि इसमें एक अधिनिर्णय शामिल है जो औपचारिक रूप से संहिता की धारा 2 (2) के दायरे में शामिल नहीं होता है, लेकिन कानूनी कल्पना के कारण उसे डीम्ड डिक्री समझा जाता है। 

निष्कर्ष 

जैसा कि हम इस लेख के अंत में आते हैं, ऊपर दी गई डिक्री के बारे में चर्चा से जो निष्कर्ष निकाला जा सकता है, वह यह है कि इस प्रकार की डिक्री धारा 2 (2) के तहत डिक्री की तरह ही अत्यधिक महत्व रखती है। हालांकि किसी भी प्रावधान में इसका उल्लेख नहीं किया गया है, इस लेख में दिए गए उदाहरणों से यह पता चलता है सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के तहत डीम्ड डिक्री की एक बड़ी भूमिका है। 

संदर्भ 

 

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