इस लेख को Aayush Akar और Hitesh Gangwani ने लिखा है। इस लेख में वह, स्वतंत्रता से पहले और बाद में, भारत में भाषा को लेकर हुए विवादों के बारे में चर्चा करते है और उससे सम्बंधित संविधान में प्रावधान (प्रोविजंस) और एक्ट्स के बारे में भी बताते हैं। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja द्वारा किया गया है।
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परिचय (इंट्रोडक्शन)
भारत हजारों वर्षों से एक बहुभाषी (मल्टीलिंगुअल) देश रहा है और यहां हर क्षेत्र (रीजन) और हर स्टेट की एक अलग भाषा है और हर भाषा का उस विशेष क्षेत्र में भारी प्रभाव होता है। भारत की विशालता और भव्यता (मैग्नेनिमिटी) को दुनिया भर में हर कोई जानता है। भारत एक ऐसा देश है जहां हर तरफ से क्षेत्रीय, धार्मिक, सांस्कृतिक, जाति, पंथ (क्रीड) और अलग भाषा बोलने वाले 1.3 बिलियन से अधिक लोग हैं।
देश की भाषाई विविधता (लिंग्विस्टिक डायवर्सिटी) का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि आज की तारीख में पूरे देश में 22 शेड्यूल्ड भाषाएं, 100 नॉन-शेड्यूल्ड भाषाएं और 1700 से अधिक बोलियां और अन्य स्थानीय भाषाएं बोली जाती हैं। भाषा विज्ञान (फिलॉजिकल) के आधार पर देखें तो भारत में हर 8 किलोमीटर पर भाषा बदल जाती है। यह उल्लेख (मेंशन) करने के लिए संदर्भ (कॉन्टेक्स्ट) से बाहर नहीं हो सकता है कि भारत में प्रत्येक शेड्यूल्ड भाषा 10 लाख से अधिक लोगों द्वारा बोली जाती है, प्रत्येक नॉन-शेड्यूल्ड भाषा कम से कम 10,000 लोगों द्वारा और अन्य बोलियां क्षेत्र के अन्य समूहों, संप्रदायों (सेक्ट्स), क्षेत्रों आदि द्वारा बोली जाती है।
भारतीय राजनीति में सबसे विवादित (कॉन्ट्रोवर्शियल) और राजनीतिक मुद्दों में से एक भाषा की समस्याओं से संबंधित है। स्वतंत्रता प्राप्त करने के बाद, भारत सरकार ने स्वतंत्र भारत की एकमात्र राजभाषा (ऑफिशियल लैंग्वेज) के रूप में हिंदी को एक्टित (इनैक्ट) करने का निर्णय लिया था। हिंदी, आर्य भाषाओं की वंशावली (लिनीएज) से संबंधित थी। जो लोग अन्य भाषाएं बोलते थे, विशेष रूप से द्रविड़ियन, ने इस निर्णय में अपनी भाषा संस्कृतियों को मिटाने का प्रयास देखा था। लेकिन भारतीय संविधान ने घोषणा की थी कि अंग्रेजी का इस्तेमाल आधिकारिक उद्देश्यों के लिए भी किया जा सकता है।
भारत की स्वतंत्रता के बाद जब हिंदी को भारत की राजभाषा के रूप में चुना गया, तो ‘हिंदी’ भाषा ना बोलने वाले लोगों ने अपनी भाषाओं की आधिकारिक मान्यता की मांग करना शुरू कर दिया। मैथली और पंजाबी बोलने वालों ने भी अपनी भाषाओं को हिंदी से अलग भाषाओं के रूप में मान्यता देने की मांग की। विभिन्न ‘हिंदी’ भाषाओं में से केवल पंजाबी को ही यह मान्यता मिली। अन्य ‘हिंदी’ भाषाओं को हिंदी की बोलियां माना जाता है और भारत के विभिन्न स्टेट्स में उनकी स्थिति स्पष्ट नहीं है और विभिन्न पार्टीज द्वारा इसकी अलग-अलग व्याख्या (इंटरप्रेट) की जाती है। विभिन्न राजनीतिक पार्टीज के इतने संघर्षों (स्ट्रगल) के बाद, भारत सरकार ने विभिन्न स्टेट सरकारों को अपनी राजभाषा रखने की अनुमति दी और स्टेट्स में तीन-भाषा सूत्र (फॉर्मूला) बनाया।
भारत में कॉपरेटिव फेडेरलिज़्म
फेडेरलिज़्म, केंद्र और उसके विभिन्न अंगों, जैसे प्रांतों (प्रोविंसेस), स्टेट्स, छावनियों (कैंटोंस) आदि के बीच सत्ता का विभाजन (डिविजन ऑफ़ पॉवर) है। कॉपरेटिव फेडरेशन का मतलब है कि सरकार के दोनों सेट एक ही संविधान से शक्ति प्राप्त करते हैं और सुचारू (स्मूथ) शासन सुनिश्चित करने के लिए कॉपरेटिव रूप से काम करते हैं।
फेडेरलिज़्म के भारतीय मॉडल को कानूनी विद्वानों द्वारा क्वासी-फेडरल के रूप में मान्यता प्राप्त है क्योंकि इसमें यूनियन और फेडरेशन दोनों की विशेषताएं शामिल हैं। जब सरकार विभिन्न राजनीतिक इकाइयों (यूनिट्स) और एक केंद्रीय प्राधिकरण (अथॉरिटी) के बीच विभाजित हो जाती है तो उस प्रणाली (सिस्टम) को फेडेरलिज़्म के रूप में मान्यता दी जाती है। भारत के संविधान को भारत सरकार द्वारा एक फेडरल ढांचे (स्ट्रक्चर) के रूप में स्थापित किया गया है और मान्यता दी गई है, इसलिए इसे ‘स्टेट्स का यूनियन’ घोषित किया गया है।
भारत ने कॉपरेटिव फेडेरलिज़्म को क्यों माना?
भारत में फेडेरलिज़्म “विनाशकारी (डिस्ट्रक्टिबल) स्टेट्स का एक अविनाशी (इंडिस्ट्रक्टिबल) यूनियन” है। संविधान सभा में यह माना गया था कि स्टेट्स को भारत का एक अभिन्न (इंटीग्रल) अंग होना चाहिए जो अलग होने के किसी भी अधिकार से इनकार करता है। इसलिए, एक मजबूत यूनियन की आवश्यकता का अनुमान लगाया गया और संविधान ने केंद्र सरकार को प्रमुख शक्ति प्रदान की।
हालांकि, स्थानीय सरकार को प्रभावी रूप से प्रशासित (एडमिनिस्टर) और संचालित (गवर्न) करने के लिए स्टेट्स को पर्याप्त शक्तियाँ भी प्रदान की गईं है। ऐसी व्यवस्थाओं को 7वें शेड्यूल की यूनियन, स्टेट, और कंकर्रेंट लिस्ट में बताया गया है। विकास प्रक्रिया को सुव्यवस्थित (स्ट्रीमलाइन) करने और सभी क्षेत्रों की प्रगति को बढ़ाने के लिए, केंद्र और स्टेट के बीच सहयोग अत्यंत आवश्यक है। भारत के मामले में इसकी विशालता और अत्यधिक विविधता (डायवर्सिटी) के कारण कॉपरेटिव फेडेरलिज़्म के इस तरह के रूप की अधिक आवश्यकता है।
भारत में कॉपरेटिव फेडेरलिज़्म कैसे काम करता है?
भारत में कॉपरेटिव फेडेरलिज़्म निम्नलिखित द्वारा माना जाता है:
- शक्तियों का वितरण (डिस्ट्रीब्यूशन);
- संविधान की सर्वोच्चता (सुप्रीमेसी);
- लिखित संविधान;
- कठोरता (रिजिडिटी); तथा
- कोर्ट का प्राधिकरण।
संविधान में इस अवधारणा के तहत, केंद्र को अधिक शक्ति मिली है, जैसा कि निम्नलिखित से स्पष्ट है:
- स्टेट की एग्जीक्यूटिव शक्ति का प्रयोग स्टेट द्वारा, केंद्र द्वारा बनाए गए कानूनों के पालन के साथ किया जाना चाहिए और उसे यूनियन की एग्जीक्यूटिव शक्ति में देरी नहीं करनी चाहिए।
- केंद्र, राज्यसभा की अनुमति से स्टेट के लेजिस्लेटिव विवेक (डिस्क्रीशन) को भी ले सकता है। गवर्नर्स को, केंद्र सरकार के विवेक पर या उनके द्वारा नियुक्त (अपॉइंट) किया जा सकता है, ताकि वह आपने स्टेट की सीमा में रहते हुए उन्हें सुपरवाईज कर सकें।
- राष्ट्रीय सुरक्षा या संवैधानिक तंत्र (कांस्टीट्यूशनल मशीनरी) के स्ट्रक्चर में अशांति के मुद्दों पर केंद्र, स्टेट्स की एग्जीक्यूटिव शक्ति को भी अपने हाथ में ले सकता है।
भारत में कॉपरेटिव फेडेरलिज़्म का पालन निम्नलिखित नॉर्म्स के तहत किया जाता है
- संविधान के आर्टिकल 263 के तहत, केंद्र और स्टेट के बीच संबंधों के बेहतर तालमेल (कॉर्डिनेशन) के लिए जांच, चर्चा और सिफारिश (रिकमेंडेशन) के लिए इंटर-स्टेट काउंसिल को इंप्लीमेंट करने के प्रावधान दिए गए हैं।
- स्टेट रिऑर्गेनाइजेशन एक्ट, 1956 द्वारा स्थापित जोनल काउंसिल, यूनियन-स्टेट और इंटर-स्टेट सहयोग के लिए, विवादों को सुधारने और उनके सहयोग के ढांचे और कामकाज को मजबूत करने के लिए एक और संवैधानिक तंत्र प्रदान करता हैं। नेशनल डेवलपमेंट काउंसिल और नेशनल इंटीग्रेशन काउंसिल दो अन्य महत्वपूर्ण फोरम हैं जो दोनो के बीच की असमानताओंं को सुलझाने के लिए चर्चा का अवसर प्रदान करते हैं।
हिन्दी का विकास
संविधान बनाते समय एक तर्क हुआ की हिंदी भाषा के विकास में, अंग्रेजी से हिंदी भाषा में वापस बदलने में एक लंबी अवधि लगी। यह कहा गया था कि हिंदी भाषा अविकसित भाषा है और अंग्रेजी भाषा की जगह लेने से पहले इसे विकसित करने की आवश्यकता है।
आर्टिकल 351 के तहत, केंद्र सरकार को हिंदी के प्रसार (स्प्रेड) और विकास को बढ़ावा देने के लिए कार्य करने की जिम्मेदारी दी गई है। इसमें यह भी बताया गया है कि भविष्य में हिंदी को किस रूप में विकसित किया जाना चाहिए, ताकि यह भारत की विभिन्न संस्कृति के सभी लोगों के लिए, उनके एक्सप्रेशन का माध्यम बन सके और अपनी प्रतिभा (जीनियस) के साथ हस्तक्षेप (इंटरफेयर) किए बिना, अपनी समृद्धि (एंरिचमेंट) के साथ मिलकर, विभिन्न लोगों द्वारा पालन किए जाने वाले फॉर्म्स, स्टाइल और एक्सप्रेशन जिसे एक हिंदुस्तानी द्वारा इस्तेमाल किया जाता है और संविधान की 8वें शेड्यूल में उल्लिखित (मेंशन) अन्य भाषाओं को सुरक्षित कर सके।
इस प्रावधान में बहुत सारे कॉम्प्रोमाइज हैं और ऐसा लगता है कि हिंदी के विकास और समृद्धि के संबंध में, प्योरिस्ट और लिबरलिस्ट के बीच संतुलन (बैलेंस) है। प्योरिस्ट, संस्कृत का उपयोग करना चाहते है जबकि लिबरलिस्ट इस उद्देश्य के लिए सभी क्षेत्रीय भाषाओं और हिंदुस्तानी का उपयोग करना चाहते है।
इसमें कोई शक नहीं कि आर्टिकल 351 में, निर्धारित (लेड डाउन) लाइंस द्वारा विकसित हुई हिंदी अपने वर्तमान रूप से बहुत अलग होगी। उनका, क्षेत्रीय भाषाओं के शब्दों को हिंदी शब्दों के साथ मिलाने का विचार सुविधाजनक (कन्वेनिएंट) या सहायक है, लेकिन पूरी तरह से नैतिक (मोरल) नहीं है क्योंकि यह उन भाषाई समूहों (लिंग्विस्टिक ग्रुप्स) के परिणाम के बारे में संदेह या आशंका (अप्रीहैंशन) की भावना को दूर करेगा जिनकी भाषाओं में संस्कृत आधार नहीं है।
भारत में क्षेत्रीय भाषाएँ (रीजनल लैंग्वेजेस इन इंडिया)
जो लोग संविधान का बना रहे थे, उनके सामने क्षेत्रीय भाषाओं के भविष्य की भूमिका के संबंध में एक महत्वपूर्ण प्रश्न था। उनका विचार था कि इन क्षेत्रीय भाषाओं को अपग्रेड और विकसित किया जाना चाहिए ताकि यह भाषाएं देश के भविष्य की स्थापना में एक उचित भूमिका निभा सकें। भाषा अल्पसंख्यकों (माइनोरिटीज़) की सुरक्षा सुनिश्चित (इंश्योर) करने के लिए संविधान अमेंडमेंट एक्ट, 1956 द्वारा आर्टिकल 350(a) और 350(b) डाला गया था।
इन उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए, संविधान के 8वें शेड्यूल में 22 क्षेत्रीय भाषाएं प्रदान की गई हैं जिसमें, असमिया, बंगाली, बोडो, डोगरी, गुजराती, हिंदी, कन्नड़, कश्मीरी, कोंकणी, मैथिली, मलयालम, मणिपुरी, मराठी, नेपाली, उड़िया, पंजाबी, संस्कृत, संथाली, सिंधी, तमिल, तेलुगु और उर्दू शामिल हैं। इन भाषाओं का प्रतिनिधित्व (रिप्रेजेंट), आर्टिकल 344(1) के तहत नियुक्त होने वाले एक ऑफिशियल लैंग्वेज कमिशन में किया जाएगा।
सरकारों के बीच संचार (इंटर-गवर्नमेंटल कम्युनिकेशन)
संविधान बनाने वालो के सामने एक और समस्या थी जो सरकारों के बीच संचार (कम्युनिकेशन) में उपयोग की जाने वाली भाषा से संबंधित एक फॉर्मूला तैयार करने से संबंधित थी। विभिन्न स्टेट्स द्वारा अलग-अलग राजभाषाओं को अपनाने की संभावना को देखते हुए यह आवश्यक हो जाता है।
अत: आर्टिकल 345 में कहा गया है कि दो स्टेट्स या केंद्र और स्टेट के बीच संचार के उद्देश्य के लिए, केंद्र की राजभाषा का उपयोग किया जाना चाहिए, हालांकि दो स्टेट इस उद्देश्य के लिए हिंदी का उपयोग करने के लिए सहमत हो सकते हैं। आर्टिकल 345 और 347 एक राजभाषा की घोषणा के लिए प्रक्रिया प्रदान करते हैं, लेकिन यह प्रक्रिया पूरी तरह से अलग है क्योंकि आर्टिकल 345 स्टेट के लेजिस्लेचर्स की शक्ति से संबंधित है और आर्टिकल 347 भारत के राष्ट्रपति की शक्ति से संबंधित है। दोनों आर्टिकल्स की आवश्यकताएं अलग हैं और एक दुसरे से बदलने योग्य नहीं हैं।
भारत में भाषा के संवैधानिक प्रावधान (कांस्टीट्यूशनल प्रोविजन्स ऑफ लैंग्वेज इन इंडिया)
संविधान में भाषा की समस्याओं से संबंधित विस्तृत (डिटेल्ड) प्रावधान है। इन प्रावधानों में हिंदी समर्थक (सपोर्टर्स) के विरोधी विचार शामिल हैं। संवैधानिक सूत्र में विभिन्न प्रकार के संबंधित घटक (कंपोनेंट्स) शामिल हैं-
- अगले 15 वर्षों के लिए अंग्रेजी एक अतिरिक्त (एडिशनल) राजभाषा होगी;
- राजभाषा के रूप में अंग्रेजी के साथ-साथ हिंदी भी काम करेगी;
- इस बीच, हिंदी के विस्तार को बढ़ावा देने के लिए विभिन्न कदम उठाए जाएंगे;
- स्टेट अपनी राजभाषा के रूप में किसी अन्य भाषा को अपना सकता है।
आर्टिकल 343(1) के अनुसार देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली हिंदी को राजभाषा के रूप में मान्यता दी जाएगी। राष्ट्रीय भाषा की जगह हिंदी को राजभाषा के रूप में नामित (डेसिगनेट) करने के पीछे का कारण यह है कि न केवल हिंदी को राष्ट्रीय भाषा के रूप में माना जाता है बल्कि सभी क्षेत्रीय भाषाओं को राष्ट्रीय माना जाता है, लेकिन किसी विदेशी भाषा के रूप में नहीं माना जाता है। यह हिंदी को राजभाषा घोषित करने के लिए अंतिम लक्ष्य निर्धारित करता है और दक्षिण भारतीयों को शांत करने के लिए इस उद्देश्य के लिए 15 वर्ष की अवधि निर्धारित करता है। इसलिए, यह परिकल्पना (एनवीसेज) की गई थी कि 26 जनवरी, 1950 से, हिंदी भाषा को केंद्र में एक राजभाषा के रूप में माना जाएगा, इस बीच, अंग्रेजी भाषा का उपयोग सभी आधिकारिक उद्देश्यों के लिए किया जाएगा।
आर्टिकल 343(2), अन्य बातों के अलावा, संविधान के शुरुआती 15 वर्षों की अवधि के लिए यूनियन के विभिन्न उद्देश्यों के लिए अंग्रेजी के निरंतर उपयोग का प्रावधान करता है। संविधान 15 वर्ष को एक पूर्ण समय सीमा मानता है और इस व्यवस्था के अंदर कुछ लचीलापन (फ्लेक्सिबिलिटी) भी पेश किया गया है। इस प्रकार, आर्टिकल 343(3)(a) संसद को उस समय की अवधि के बाद भी एक कानून बनाने के लिए अधिकार देता है यानी की संसद इस प्रकार 15 वर्ष की अवधि के बाद भी, यूनियन के कुछ या सभी आधिकारिक उद्देश्यों के लिए अंग्रेजी भाषा के उपयोग की अनुमति दे सकती है।
ऑफिशियल लैंग्वेज कमिशन
आर्टिकल 344(1) संविधान के लागू होने के 5 वर्ष के बाद और इसके लागू होने के बाद 10 वर्षों के अंत में, ऑफिशियल लैंग्वेज कमिशन के प्रेसिडेंट की नियुक्ति के बारे में बताता है। कमिशन विभिन्न प्रकार की क्षेत्रीय भाषा का प्रतिनिधित्व करने वाले चैयरमैन और ऐसे विभिन्न सदस्यों से कॉम्प्रोमाइज करता है जिसका उल्लेख संविधान के 8वें शेड्यूल में किया गया है।
आर्टिकल 344(2) के अनुसार, कमिशन का कर्तव्य इन मुद्दो पर सिफारिश करना या देना है;
- यूनियन के आधिकारिक उद्देश्य के लिए हिंदी भाषा का अधिक उपयोग,
- यूनियन के सभी या किसी आधिकारिक उद्देश्य के लिए अंग्रेजी भाषा के उपयोग पर प्रतिबंध (रिस्ट्रिक्शन),
- सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट्स के भीतर कार्यवाही के लिए इस्तेमाल की जाने वाली भाषा और इसके तहत बनाए गए स्टेट के कानून और प्रत्यायोजित (डेलिगेटेड) कानून।
संविधान में प्रावधान है कि इस कमिशन का मुख्य कार्य, ट्रांसिशन काल के दौरान अंग्रेजी भाषा की तुलना में हिंदी भाषा के उपयोग को सुविधाजनक बनाना है ताकि जब उसमे बदलाव हो तो सभी के लिए अंग्रेजी से हिंदी में बदलाव आसानी से हो सके। जो लोग हिंदी नही बोलते उनको एक अच्छा सौदा दिया गया क्योंकि वे हिंदी के उपयोग से अंग्रेजी भाषा को बदलने के लिए बहुमत में हैं। कमिशन का सिद्धांत देश के उद्योगपति (इंडस्ट्रियलिस्ट) और सांस्कृतिक प्रगति को ध्यान में रखना और हिंदी न बोलने वाले लोगों की समस्या को पहचानना है ताकि वे जल्दी से अंग्रेजी भाषा से हिंदी भाषा में बदल सकें।
कमिशन द्वारा की गई सिफारिश की जांच पार्लियामेंट्री कमिटी द्वारा की जाती है जिसमें, लोकसभा से 10 सदस्य और राज्य सभा से 20 सदस्यों को प्रोपोजिशनल प्रतिनिधित्व (रिप्रेजेंटेशन) प्रणाली द्वारा, यानी कि एक ट्रांसफरेबल वोट से चुना जाएगा, जैसा कि आर्टिकल 344(1) में उल्लिखित है। राष्ट्रपति, कमिटी की पूरी रिपोर्ट या उसके किसी भी हिस्से के संबंध में निर्देश दे सकते हैं, आर्टिकल 343 में दिए गए प्रावधान में से कुछ भी, यानी अंग्रेजी भाषा के उपयोग को प्रतिबंधित करने और हिंदी भाषा को बढ़ावा देने के संबंध में निर्देश दे सकते है। हिंदी ना बोलने वाले लोगों के पक्ष में इतने सारे सुरक्षा उपाय किए गए कि इंटरिम अवधि के दौरान जल्दबाजी में कोई भी कार्रवाई नहीं की गई और अंग्रेजी भाषा का भी इस्तेमाल किया जा सकता था।
भारत में स्टेट्स का भाषाई विभाजन (लिंग्विस्टिक डिवीजन ऑफ़ स्टेट्स इन इंडिया)
भाषा प्रतीकों (सिंबल) का समूह है, जिसे किसी भी समूह में संचार के माध्यम के रूप में स्वीकार किया जाता है। यह किसी भी व्यक्ति के जीवन में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। पहले केवल तदर्थ (एड हॉक) आधार पर स्टेट जुड़े हुए थे, इसलिए स्वतंत्रता के दौरान बहुभाषी समूहों और उनकी संस्कृति के बढ़ने के कारण, स्टेट्स को स्थायी (पर्मानेंट) रूप से बनाने की आवश्यकता सामने आई।
भाषाई स्टेट्स के लिए आंदोलन (मूवमेंट फॉर द लिंग्विस्टिक स्टेट)
भाषाई आधार पर स्टेट्स को बनाने की मांग स्वतंत्रता के बाद से यानी ब्रिटिश काल से शुरू हो गई थी। इस तरह का पहला आंदोलन उड़ीसा स्टेट को बनाने के लिए शुरू किया गया था। यह एक सदी पहले शुरू हुए आंदोलन का परिणाम था। मुख्य मुद्दा यह था कि ब्रिटिश सरकार ने हिंदी को एक राजभाषा के रूप में बनाया था, लेकिन संभलपुर को तब मध्य प्रदेश में शामिल किया गया था, इसलिए उड़िया लोगों पर हिंदी को जबरदस्ती थोपा गया था। 1902 में, उड़ीसा स्टेट को बनाने के लिए, भारत के वायसराय लॉर्ड कर्जन को एक प्रस्ताव दिया गया था। 1927 में केंद्रीय विधानसभा (सेंट्रल असेंबली) के सदस्य के रूप में नीलकंठ दास ने उड़ीसा स्टेट को बनाने के लिए प्रस्ताव पास किया और अंत मे, 1935 में इंडियन एडमिनिस्ट्रेटिव एक्ट के तहत उड़ीसा स्टेट को बनाया गया था।
स्वतंत्रता के बाद राजनीतिक एकता और 1950 का संविधान
जैसा कि हम सभी जानते हैं कि अंग्रेजों ने 15 अगस्त, 1947 को भारत को स्वतंत्रता प्रदान की और भारतीय सब-कॉन्टिनेंट को, भारत और पाकिस्तान में विभाजित कर दिया। आजादी के बाद अंग्रेजों ने 500 से अधिक रियासतों के साथ अपनी ट्रिटी को खत्म कर दिया और उन रियासतों के लिए एक विकल्प रखा गया की या तो वह भारत का हिस्सा या पाकिस्तान का हिस्सा बन सकते है, लेकिन ऐसा करने के लिए उन पर कोई बाध्यता (कंपल्शन) नहीं थी। इन रियासतों के रूप में कश्मीर, भूटान और हैदराबाद ने स्वतंत्र रहने का विकल्प चुना और बाद में, हैदराबाद भारत का हिस्सा बन गया।
26 जनवरी, 1950 को, भारत का नया संविधान बनाया गया जिसने भारत को एक संप्रभु (सोवरेन), लोकतांत्रिक (डेमोक्रेटिक) गणस्टेट (रिपब्लिक) बना दिया। स्टेट्स को 3 भागों में विभाजित किया गया था- भाग A उन स्टेट्स से संबंधित है जहां गवर्नर की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाएगी और वहां स्टेट की लेजिस्लेचर, लोगों द्वारा चुनी जाएगी। इसमें मद्रास, पंजाब, ओडिशा आदि स्टेट शामिल थे। भाग B में वह स्टेट शामिल थे जहां शासक स्टेट के राजप्रमुख होंगे और इसमें मध्य भारत, कोचीन आदि की रियासतें शामिल थी। भाग C में वह स्टेट शामिल थे जिनका प्रशासन देश के मुखिया (हेड) द्वारा नियुक्त चीफ कमिश्नर द्वारा किया जाएगा, इसमें कूर्ग, दिल्ली, हिमाचल प्रदेश आदि स्टेट शामिल थे।
1948 में इलाहाबाद हाई कोर्ट के रिटायर्ड जस्टिस एस.के. धर की अध्यक्षता में जे.वी.पी. कमिटी बनाई गई थी, जो यह जांचने के लिए थी कि क्या भाषा के आधार पर स्टेट्स के फिर से बनाने (रिस्ट्रक्चर) की संभावना होगी या नहीं। कमिटी, देश के स्टेट्स को भाषा के आधार पर दुबारा बनाने के विचार से सहमत नहीं थी और प्रशासनिक सुविधा के आधार पर स्टेट्स के विभाजन को संदर्भित करती थी।
स्टेट रिऑर्गेनाइजेशन कमिशन
1953 में, भारत के प्रधानमंत्री ने भाषाई आधार के सूत्र पर स्टेट को दुबारा बनाने के लिए निम्नलिखित कमिशन को नियुक्त किया। कमिशन की अध्यक्षता सुप्रीम कोर्ट के रिटायर्ड जज, फजल अली द्वारा की गई थी और कमिटी में निम्नलिखित सदस्य, जैसे एच.एन. कुंजरू और के.एम. पणिक्कर, शामिल थे। क्योंकि, आंध्र प्रदेश को अलग करने के लिए मद्रास के दक्षिणी स्टेट में व्यापक विरोध हुआ था क्योंकि तेलुगु लोगों ने सोचा कि उन पर तमिल भाषा जबरदस्ती थोपी जाएगी। इसलिए पी.एम. नेहरू ने भाषा के आधार पर पहला स्टेट बनाया जिसका नाम आंध्र प्रदेश रखा गया। इसी तरह अन्य स्टेट्स के लिए भी इसी आधार पर मांग उठी थी। जबकि नेहरू ने कमिशन की पूरी सिफारिश को स्वीकार नहीं किया, उन्होंने स्टेट रिऑर्गेनाइजेशन एक्ट, 1956 के तहत भारत को 14 स्टेट्स और 6 केंद्र शासित प्रदेशों में बांटा गया।
केंद्र सरकार की युनिटरी शक्ति
स्टेट्स के भाषाई विभाजन की अवधारणा ने भारत में कॉपरेटिव फेडरेशन को कमजोर कर दिया था। बाबूलाल पराटे बनाम स्टेट ऑफ़ बॉम्बे और अन्य, 1960 के मामले में यह सवाल उठा कि क्या नया स्टेट बनाने के लिए स्टेट लेजिस्लेचर की सहमति आवश्यक है और 5वें संविधान अमेंडमेंट एक्ट, 1955 की वैधता के संबंध में भी प्रश्न उठे ।
5वें अमेंडमेंट में कहा गया कि भारत के राष्ट्रपति को एक नया स्टेट बनाने के संबंध में स्टेट लेजिस्लेचर की सहमति के लिए समय सीमा निर्धारित करने का कानूनी अधिकार है। सुप्रीम कोर्ट ने माना कि आर्टिकल 3 का कोई उल्लंघन नहीं होगा, जिसमें यह कहा गया है कि भारत की संसद को, संदर्भ के लिए विशिष्ट समय अवधि के अंदर-अंदर संबंधित स्टेट लेजिस्लेचर के विचार जानकर, एक नया स्टेट बनाने का पूर्ण अधिकार है। इसलिए माननीय सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में यह माना कि आर्टिकल 3 में केंद्र सरकार के लिए स्टेट लेजिस्लेचर के विचारों पर कोइ कार्य करने के लिए कुछ भी उल्लेख नहीं किया गया है। यह केंद्र और स्टेट के बीच संबंधों को प्रभावित करता है क्योंकि नए स्टेट्स बनाने में केंद्र सरकार की ओर से स्टेट सरकार की सहमति अनिवार्य नहीं है और इसलिए, कोई कॉपरेटिव फेडरेशन नहीं होगा।
आंध्र प्रदेश रीऑर्गेनाइजेशन एक्ट, 2014 के तहत 2014 में, संबंधित स्टेट सरकार ने, आंध्र प्रदेश से अलग, तेलंगाना स्टेट बनाने में, जिसमें 10 जिले शामिल थे, केंद्र के कार्यों का विरोध किया। लेकिन 5वें अमेंडमेंट के अनुसार, आंध्र प्रदेश के लेजिस्लेचर के विचार, केंद्र पर बाध्यकारी नहीं थे। अंत में, भारत की संसद ने आंध्र प्रदेश को विभाजित किया और तेलंगाना के नए स्टेट का जन्म हुआ, जिसे अब भारतीय यूनियन के 29वें स्टेट के रूप में मान्यता प्राप्त है।
भारत में राष्ट्रीय भाषा विवाद (नेशनल लैंग्वेज कॉन्ट्रोवर्सी इन इंडिया)
तमिलनाडु के गवर्नर बनवारीलाल पुरोहित से मिलने के बाद, द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डी.एम.के.) के प्रेसिडेंट एम.के. स्टेलिन ने कहा कि हिंदी भाषा को लागू करने के खिलाफ, तमिलनाडु में होने वाला विरोध 2019 में नहीं होगा। अमित शाह ने एक विवादित बयान दिया, जिसमे उन्होंने पूरे देश भर के लिए, हिंदी दिवस पर, हिंदी को एक भाषा के रूप में मान्यता देने के लिए कहा।
2017 में यूनियन मिनिस्टर वेंकैया नायडू ने भी हिंदी भाषा को लेकर एक विवादित बयान दिया था, जिसमें उन्होंने कहा कि स्टेट सरकारों को हिंदी भाषा को बढ़ावा देना चाहिए। इतनी सुंदर भाषा बोलने में हर नागरिक को गर्व महसूस होना चाहिए और हिंदी हमारी राष्ट्रीय भाषा है और यह राष्ट्र की संपर्क (लिंक) भाषा हो सकती है। उन्होंने कहा कि हम भारतीय, कॉलोनियल भाषा ‘अंग्रेजी’ को पूरे देश के लिए संपर्क भाषा के रूप में अपना रहे हैं। लेकिन 2001 की जनगणना (सेंसस) में यूनियन मिनिस्टर के बयान का ठीक उल्टा साबित हुआ। इसमें यह पता चला कि पूरे देश में केवल 40% हिंदी बोलते हैं और 25% हिंदी अपनी मातृभाषा के रूप में बोलते हैं।
इतिहास के अनुसार, भारत बहुभाषी देश है जहां संविधान स्वयं आर्टिकल 29 के तहत हर समुदाय से संबंधित भाषा का सम्मान करता है। प्राचीन काल में संस्कृत और उर्दू का उपयोग पूरे देश में, संचार के माध्यम के रूप में किया जाता था। अंग्रेजों के आने से देश में अंग्रेज़ी भाषा जल्दी ही लोकप्रिय (पॉपुलर) हो गई। शुरुआत में, अंग्रेजों ने कोर्ट में संचार के लिए, स्थानीय भाषा का इस्तेमाल किया, लेकिन उनकी सुविधा के लिए, उन्होंने अंग्रेज़ी को कोर्ट्स में राजभाषा के रूप में ज्यादा प्राथमिकता (प्रेफरेंस) दी।
आजादी के बाद भारत में राष्ट्रभाषा को लेकर बहस शुरू हो गई थी। सबसे पहले बहस मुख्य रूप से हिंदी और उर्दू भाषा के बीच हुई। तमिल, बंगाली जैसी अन्य क्षेत्रीय भाषाओं के स्टेट भी चाहते थे कि यह भाषाएँ भारत की राष्ट्रीय भाषा हों, लेकिन जैसा कि हम जानते हैं कि भौगोलिक (ज्योग्राफिक) समस्याओं और देश में हिंदी बोलने वाले लोगो की आबादी ज्यादा होने के कारण तमिल को राष्ट्रीय भाषा बनाना संभव नहीं था।
एकल भाषा के लिए विवाद (डिबेट फॉर सिंगल लैंग्वेज)
जैसे ही संविधान बनाने की प्रक्रिया शुरू हुई, संविधान निर्माताओं के मन में यह सवाल उठा कि राष्ट्र की संपर्क भाषा के रूप में किस भाषा का उपयोग किया जाना चाहिए। क्योंकि देश का भूभाग (लैंडमास) बहुत बड़ा था, इसलिए राष्ट्रभाषा के संबंध में विवाद शुरू हो गया। हिंदी भाषी क्षेत्रों में हिंदी संपर्क भाषा हो सकती है, लेकिन हिंदी ना बोलने वाले भाषी क्षेत्रों में किस भाषा का उपयोग हो सकता है।
संविधान सभा के ज्यादातर प्रतिष्ठित (डिस्टिंग्विश) सदस्य, राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के सपने को पूरा करना चाहते थे, जिसमें वह भारत की राष्ट्रीय भाषा के रूप में एक ही भाषा रखना चाहते थे, ताकि सांस्कृतिक पहचान प्राप्त की जा सके। डॉ. एन.जी.अय्यंगार, विधानसभा में अपने एक भाषण में कहते हैं, “एक बात थी जिसके बारे में हम बिना किसी विरोध के निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि हमें भारत में एक भाषा को पूरे देश की आम भाषा के रूप में चुनना चाहिए, वह भाषा जिसे यूनियन के आधिकारिक उद्देश्यों के लिए इस्तेमाल किया जाना चाहिए।”
बी.आर. अम्बेडकर ने अंग्रेजी में लिखित संविधान को अपनाने के लिए तर्क दिया जो अधिक स्पष्ट था। लेकिन कई उत्तर भारतीय सदस्यों ने संविधान को हिंदी भाषा में अपनाने की मांग की क्योंकि अंग्रेजी कॉलोनियल भाषा थी। सेठ गोविंद दास ने अपने एक भाषण में कहा, कि हिंदी भारत की राष्ट्रीय भाषा होगी। केवल कुछ सदस्य अंग्रेजी को राष्ट्र भाषा के रूप में चाहते थे और दक्षिण भारत के लिए अंग्रेजी सीमित समय के लिए सामान्य भाषा (लिंगुआ फ्रैंका) हो सकती है, तो हिंदी भाषा भारत की राष्ट्रीय भाषा होगी।
हिंदी-हिंदुस्तानी भाषा विवाद तब समाप्त हुआ जब भारतीय संविधान के आर्टिकल 99 में कहा गया है कि संसद में आधिकारिक प्रयोग के लिए अंग्रेजी या हिंदी भाषा का उपयोग किया जा सकता है। लोकमान्य तिलक, गांधी जी, सी. राजगोपालाचारी, सुभाष बोस और सरदार पटेल चाहते थे कि हिंदी भाषा, भारत की राष्ट्रीय भाषा बन जाए, जिससे देश में राष्ट्रीय मेल-जोल होगा।
चूंकि इस संवेदनशील (सेंसिटिव) मुद्दे को लेकर विधानसभा की एकता टूटने वाली थी, इसलिए पूरी सभा ने मुंशी-अयंगर तंत्र को अपनाने का फैसला किया। इस तंत्र के अनुसार, कोर्ट में और सार्वजनिक (पब्लिक) सेवा में सभी आधिकारिक कार्यवाही (प्रोसीडिंग) अंग्रेजी में की जाएगी। यह तंत्र, भारत में 1965 तक लागू रहेगा और उसके बाद पूरे भारत में हिंदी बिना किसी विरोध के अपनाई जाएगी। जब 15 वर्ष का समय समाप्त होने वाला था, तब पी.एम. लाल बहादुर शास्त्री, तमिलनाडु के दबाव में थे क्योंकि वह दक्षिणी स्टेट, द्रविड़ नाडु बनाकर भारत छोड़ने वाला था और उस स्टेट ने अभी तक हिंदी को भारत की राष्ट्रीय भाषा के रूप में अपनाया नहीं है, उन्होंने ‘ऑफिशियल लैंग्वेजेस एक्ट, 1963’ पास किया, जहां अखिल भारतीय सेवा (ऑल इंडिया सर्विस) में आधिकारिक उद्देश्य के लिए, हिंदी ना बोलने वाले लोगों को हिंदी के साथ-साथ अंग्रेजी की अनुमति भी दी गई। 1967 में इंदिरा गांधी ने इस संवेदनशील मुद्दे को हल करने के लिए एक ऑफिशियल (अमेंडमेंट) लैंग्वेजेस एक्ट पास किया, जहां अंग्रेजी के साथ हिंदी भारत की राजभाषा होगी।
मद्रास में हिंदी आंदोलन (हिंदी एजिटेशन इन मद्रास)
मद्रास में हिंदी आंदोलन भारत में एकल भाषा से संबंधित एक गंभीर मुद्दा था। इसने स्वतंत्रता के पहले और बाद के भारत के दौरान, भारतीय इतिहास में अपनी छवि को फिर से बनाया। इस आंदोलन में स्टेट में हिंदी को राजभाषा बनाने के लिए कई छात्र, महिलाएं, पेशेवर आदि शामिल हुए थे।
1937 में, सी. राजगोपालाचारी की अध्यक्षता में कांग्रेस की सरकार बहुमत (मेजोरिटी) के साथ सत्ता में आई और हम जानते हैं कि वह हिंदी को सबसे बेहतर भाषा मानते थे, जिन्होंने प्रांत (प्रोविंस) में हिंदी को अनिवार्य बना दिया था। इसका विरोध, पार्टी के नेता जस्टिस ई.वी. रामास्वामी ने किया था। आंदोलन में सम्मेलनों (कॉन्फ्रेंस), व्रतों आदि के रूप में कई विरोध शामिल थे। जब 1939 में कांग्रेस सरकार ने इस्तीफा दिया, तो उस समय के गवर्नर, लॉर्ड एर्स्किन के व्यापक (वाइडस्प्रेड) विरोध के कारण आदेश को बाद में वापस ले लिया गया था।
भारत के संविधान के निर्माण के लिए डिबेट्स के बाद, संविधान सभा ने हिंदी के साथ एक सहयोगी (एसोसिएट) राजभाषा बनाने का निर्णय लिया और वह भाषा हिंदी की अवधि के लिए अंग्रेजी थी। भारत सरकार के प्रयासों को उस समय असाधारण (एक्सट्रेवेजेंट) रूप से बदल दिया गया जब हिंदी को भारत की एकमात्र राजभाषा बनाने के लिए 1965 तक प्रयास करने के बावजूद भी, हिंदी ना बोलने वाले स्टेट, विशेष रूप से दक्षिणी स्टेट तमिलनाडु, इसे स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे।
26 जनवरी, 1965 को, मदुराई में व्यापक विरोध हुआ क्योंकि यह भारत की अतिरिक्त भाषा के रूप में अंग्रेजी के 15 वर्ष के समय का आखिरी दिन था और अगले दिन से, हिंदी भारत की एकमात्र राजभाषा बनेगी। इसलिए स्थिति को शांत करने के लिए, प्रधानमंत्री शास्त्री ने एक ऑफिशियल लैंग्वेज एक्ट, 1963, पास किया जिसमें हिंदी के साथ अंग्रेजी को एक अतिरिक्त राजभाषा के रूप में जारी रखा गया। 1949 में द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डी.एम.के.) का गठन किया गया था, जो पूरी तरह से स्टेट के लोगों पर हिंदी थोपने के खिलाफ था। 1953 में एम. करुणानिधि ने हजारों प्रोटेस्टर्स के साथ डालमियापुरम रेलवे स्टेशन का नाम बदलने का विरोध किया और इसका हिंदी नाम मिटा दिया। स्वतंत्रता से पहले के समय में, इसने तमिलों के लिए एक अलग देश के लिए द्रविड़ नाडु की मांग करना शुरू कर दिया। लेकिन चीन और भारत के युद्ध और 16वें संविधान अमेंडमेंट एक्ट 1963 के लागू होने के कारण, इसने द्रविड़ नाडु बनाने की अपनी मांग को छोड़ दिया, जिसके परिणामस्वरूप, 1967 में तमिलनाडु में डी.एम.के. सत्ता में आई और उस समय तक स्टेट में केवल द्रविड़ दलों की ही सत्ता थी।
1965 में, कांग्रेस सरकार ने हिंदी ना बोलने वाले स्टेट्स के लिए तीन-भाषा तंत्र पास किया, जहां स्कूलों में हिंदी, अंग्रेजी और क्षेत्रीय भाषा सिखाई जानी थी। तमिलनाडु में इसे भी खत्म कर दिया गया क्योंकि लोग स्कूलों में हिंदी के इस्तेमाल के खिलाफ पूरी तरह से थे और हिंदी भाषा के खिलाफ व्यापक विरोध हुआ था। अब तक तमिलनाडु के स्टेट स्कूलों में केवल तमिल और अंग्रेजी का ही प्रयोग किया जाता है।
कर्नाटक में हिंदी आंदोलन (हिंदी एजिटेशन इन कर्नाटक)
कर्नाटक के लोगों ने नम्मा मेट्रो में हिंदी के प्रयोग पर अपनी चिंता पेश की। यहां तक कि सी.एम. सिद्धरमैया ने भी मास ट्रांजिट ट्रांसपोर्टेशन में हिंदी भाषा के इस्तेमाल को लेकर केंद्र से असंतोष जताया है। ज्यादातर सामाजिक कार्यकर्ताओं ने मेट्रो में हिंदी साइनबोर्ड के इस्तेमाल को लेकर केंद्र के मनमाने (आर्बिट्ररी) कार्य का विरोध किया। यहां तक कि वह बेंगलुरू मेट्रो कॉरपोरेशन से उन लोगों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करने की गुहार लगा रहे थे जो मेट्रो में प्रचार का इस्तेमाल कर रहे थे।
भारत में अंग्रेजी की तुलना में हिंदी विवाद
भारत में कई सारी भाषाओं के होने के बावजूद भी भारत ने अब तक अपनी राष्ट्रीय भाषा के इस संवेदनशील मुद्दे को सुलझाया है। कई विद्वानों ने भारत की एकमात्र राजभाषा के रूप में अंग्रेजी के उपयोग की मांग की क्योंकि इसका उपयोग भारत में अंग्रेजों द्वारा 1 शताब्दी के लिए किया गया था और भारतीय अब आदी हो गए हैं और कॉलोनियल विरासत में मिली भाषा के साथ सहज (कंफर्टेबल) महसूस करते हैं। इस अंग्रेजी भाषा ने समानता, स्वतंत्रता, न्याय और निष्पक्षता (फेयरनेस) के विचार को बड़ावा देने वाली संस्थाओं (इंस्टीट्यूशंस) के निर्माण में बहुत योगदान दिया है। इस प्रकार अंग्रेजी को भारत की एकमात्र राजभाषा के रूप में अपनाने के कई फायदे हैं, जो इस प्रकार हैं-
- क्योंकि अंग्रेजी भाषा की दुनिया भर में एक स्थिति (स्टेटस) बन चुकी है और इसे यूनाइटेड नेशंस की राजभाषाओं में से एक के रूप में भी अपनाया गया है, इसलिए यह भारतीयों को और लोगों के साथ संवाद करने में मदद करेगा।
- इस भाषा में अंतरराष्ट्र का एक समृद्ध स्रोत (रिच सोर्स) है,
- अंग्रेजी की तुलना में भारतीय भाषाएं व्यापक रूप से लोकप्रिय नहीं हैं, जो कि कई देशों में कॉलोनियल भाषा है।
हिंदी, भारतीय सब-कॉन्टिनेंट की सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषाओं में से एक है। 1951 की जनगणना के अनुसार देश की 42% जनसंख्या हिन्दी बोलती है, लेकिन निम्नलिखित कारणों से, हिंदी अकेले भारत की राजभाषा नहीं हो सकती है:
- हिंदी विरोधी प्रदर्शन के कारण, जिसके कारण तमिलनाडु में डी.एम.के. सत्ता में आई;
- हिंदी भाषा शुरू में हिंदी ना बोलने वाले स्टेट्स के लोगों पर जबरदस्ती थोपी गई थी, इसलिए हिंदी ना बोलने वाले स्टेट के लोगों के लिए हिंदी को एकमात्र आधिकारिक भाषा के रूप में अपनाना बहुत मुश्किल हो गया था।
- भाषा के आधार पर स्टेट्स के निर्माण ने केंद्र सरकार के लिए हिंदी भाषा को राष्ट्रीय भाषा के रूप में प्रचारित (प्रमोट) करने में एक बाधा उत्पन्न की।
इसलिए हिंदी और अंग्रेजी दोनों का उपयोग भारत की राजभाषा के रूप में किया जाता है, क्योंकि भारत के प्रशासन पर अंग्रेजी का बहुत शक्तिशाली प्रभाव है। हिंदी ना बोलने वाले स्टेट्स में हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए हिंदी के अलग-अलग डिपार्टमेंट्स बनाए गए हैं।
भाषा से संबंधित विवाद का विकास (फर्दर डेवलपमेंट ऑफ़ लैंग्वेज कॉन्ट्रोवर्सी)
संवैधानिक प्रावधान भाषा की समस्या हल करने में विफल रहे और इस संबंध में समय-समय पर विवाद उत्पन्न होते रहे हैं।
संविधान के आर्टिकल 344(1) द्वारा प्रदान की गई एक ऑफिशियल लैंग्वेज कमिशन को 7 जून 1995 को नियुक्त किया गया था और 1957 में इसकी रिपोर्ट दी गई थी। कमिशन ने बताया कि अंग्रेजी भाषा, एक यूनियन के लिए बहुत लंबे समय तक आधिकारिक भाषा के रूप में नहीं रह सकती है, क्योंकि यह राष्ट्रीय स्वाभिमान (सेल्फ-रिस्पेक्ट) के खिलाफ होगा और केवल एक भारतीय भाषा के माध्यम से ही राष्ट्रीय जीवन की लोकप्रियता में वृद्धि हो सकती है।
इसकी सिफारिशों का मुख्य बल यह था कि, 26 जनवरी 1965 को हिंदी भाषा में बदलाव सुनिश्चित करने के लिए तुरंत प्रभावी कदम उठाए जाने चाहिए। कमिशन की राय यह थी कि भारत सरकार कर्मचारियों की ट्रेनिंग के लिए जो स्वैच्छिक (वॉलंटरी) आधार पर व्यवस्था कर रही है, उसे हिंदी में होना चाहिए, यदि उनके अनुभव (एक्सपीरियंस) से उसमें कोई उचित परिणाम नहीं आता है, तो सरकार को आवश्यक कदम उठाने चाहिए, जिससे कर्मचारियों को दी गई विशेष परिस्थितियों (सर्कमस्टेंस) और विनियमों (रेगुलेशन) में दी गई अवधि में खुद को हिंदी भाषा में क्वालीफाई करना होगा।
कमिशन की सिफारिशों को आर्टिकल 344(4) द्वारा संसदीय कमिटी के समक्ष रखा गया था। कमिटी की राय थी कि सरकार को सरकारी कर्मचारियों को हिंदी भाषा में क्वालीफाई करने के लिए कानूनी आवश्यकताएं देनी चाहिए।
कमिटी की रिपोर्ट पर विचार करने के बाद राष्ट्रपति ने 27 अप्रैल, 1960 को एक आदेश जारी किया।
कमिशन द्वारा जारी की गई रिपोर्ट में, हिंदी ना बोलने वाले भाषी क्षेत्र में विवाद उत्पन्न हो गया। इन लोगों की अप्रिय (अनप्लीजेंट) या तीव्र (इंटेंस) भावना को दूर करने के लिए, प्रधानमंत्री नेहरू जी ने आश्वासन दिया कि जब तक वे चाहें तब तक, अंग्रेजी भाषा “सहयोगी (एसोसिएट)”, आधिकारिक या लिंक भाषा बनी रहेगी।
ऑफिशियल लैंग्वेज (अमेंडमेंट) एक्ट, 1963
कमिटी द्वारा दी गई सलाह की संसदीय कमिटी द्वारा जांच की गई और संसद ने एक ऑफिशियल लैंग्वेज एक्ट, 1963 पास किया क्योंकि संसद आर्टिकल 343(3) के तहत अपनी शक्ति का प्रयोग कर सकती है। संसद द्वारा पास किया गया एक्ट यह था कि अंग्रेजी भाषा का उपयोग जारी रखा जा सकता है, लेकिन ऐसा हिंदी के अतिरिक्त होगा। 15 वर्ष की समय सीमा के पूरा होने के बाद भी, अंग्रेजी का उपयोग यूनियन के सभी आधिकारिक उद्देश्यों के लिए किया जाएगा, जिसके लिए इसका उपयोग पहले भी किया गया था।
एक्ट की धारा 3 के अनुसार दो महत्वपूर्ण चीजों पर ध्यान देने की आवश्यकता है-
- ‘मे’ शब्द का प्रयोग किया गया है;
- हिंदी के अतिरिक्त अंग्रेजी भाषा का उपयोग किया जाना चाहिए
इसलिए एक्ट में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि 1965 से पहले अंग्रेजी के अतिरिक्त हिंदी का इस्तेमाल किया गया था, लेकिन 1965 के बाद हिंदी के अतिरिक्त अंग्रेजी का इस्तेमाल किया जाना चाहिए।
आगे के समय में भाषा की समस्या पर दुबारा सोचने के लिए, यह एक्ट राष्ट्रपति की पिछली मंजूरी को हल करने के लिए नेशनल लैंग्वेज पर एक पार्लियामेंट्री कमिटी के डिजिग्नेशन के लिए एक्ट स्वीकार किया गया है जो दोनों सदनों द्वारा पास किया गया है। मूल रूप से, कमिटी में लोकसभा से 20 सदस्य होते हैं और राज्य सभा से 10 सदस्य प्रोपोर्शनल प्रतिनिधित्व के आधार पर चुने जाते हैं।
इस एक्ट में कानून बनाने या कानून के हिंदी वर्जन को अंग्रेजी में बदलने और कानून के अंग्रेजी वर्जन को किसी क्षेत्रीय भाषा में बदलने के प्रावधान भी शामिल हैं। संसद में बिल को अंग्रेजी और हिंदी दोनों भाषाओं में पेश किया जाना चाहिए। केंद्रीय लेजिस्लेशन के महत्वपूर्ण कानूनों को अंग्रेजी में होना चाहिए।
एक्ट में यह कहा गया है कि जो स्टेट, लेजिस्लेटिव उद्देश्य के लिए हिंदी के अलावा किसी अन्य भाषा का उपयोग करते है, तो आर्टिकल 348(3) के अनुसार उस एक्ट को हिंदी भाषा के साथ-साथ अंग्रेजी भाषा में भी बदला जाएगा और फिर इसे स्टेट के राजपत्र (गैजेट) में प्रकाशित किया जाएगा।
लोअर कोर्ट्स में क्षेत्रीय भाषाओं का इस्तेमाल किया जाना चाहिए, लेकिन हाई और सुप्रीम कोर्ट्स में अंग्रेजी भाषा का ही इस्तेमाल किया जाएगा। आर्टिकल 348(1) और आर्टिकल 348(2) में कहा गया है कि हाई कोर्ट में इस्तेमाल की जाने वाली भाषा अंग्रेजी में होनी चाहिए। हाई कोर्ट की कार्यवाही की भाषा केवल, राष्ट्रपति की अनुमति से, गवर्नर द्वारा बदली जा सकती है, हाई कोर्ट का निर्णय अंग्रेजी के अलावा किसी अन्य भाषा में भी दिया या सुनाया जा सकता है। एक्ट में प्रावधान है कि स्टेट सरकार, राष्ट्रपति से अनुमति प्राप्त करने के बाद निर्णय देने के उद्देश्यों के लिए अंग्रेजी भाषा के अलावा हिंदी या क्षेत्रीय भाषाओं का उपयोग करने की अनुमति दे सकती है। यह प्रावधान भाषाओं की असमानता की समस्या को भी उठता है जिसमें सुप्रीम कोर्ट द्वारा स्वीकार किए जाने वाले अनुवाद में से केवल अंग्रेजी भाषा को ही अपनाया जाएगा।
ऑफिशियल लैंग्वेज (अमेंडमेंट), 1967
26 जनवरी 1965 को, एक तर्क अचानक सामने आया कि क्या 1965 का एक्ट अनिश्चित (इंडेफिनेट) समय तक अंग्रेजी भाषा के निरंतर उपयोग के संबंध में पर्याप्त है या नहीं, जैसा कि नेहरू जी ने आश्वासन (एश्योर) दिया था। धारा 3 में उल्लिखित, ‘मे’ शब्द का प्रयोग कमजोर हो सकता है और यह निर्दिष्ट नहीं किया गया था कि इसे केंद्र में कब तक इस्तेमाल किया जाएगा। इसलिए, केंद्र में एक सहयोगी भाषा के रूप में उपयोग की जाने वाली अंग्रेजी भाषा की संवैधानिक गारंटी की मांग की गई। मांग को पूरा करने के लिए, संसद ने ऑफिशियल लैंग्वेज अमेंडमेंट एक्ट, 1967 पास किया था।
अमेंडमेंट एक्ट के प्रमुख प्रावधान इस प्रकार हैं-
- 15 वर्ष (1950-1965) की समय सीमा पूरी होने के बाद अंग्रेजी भाषा का उपयोग लेकिन, यूनियन के आधिकारिक उद्देश्य के लिए, अंग्रेजी का उपयोग हिंदी के अतिरिक्त ही किया जाएगा;
- केंद्र और हिंदी ना बोलने वाले स्टेट्स के बीच अंग्रेजी भाषा का प्रयोग होगा;
- यदि हिंदी ना बोलने वाले और हिंदी बोलने वाले लोगों के बीच हिंदी का उपयोग किया जाता है तो उसके साथ एक अंग्रेजी वर्जन का उपयोग किया जाना होगा।
इसमें, अंतिम प्रावधान सबसे अधिक महत्व का है, क्योंकि यह वैधानिक (स्टेच्यूटरी) आश्वासन देता है कि अंग्रेजी भाषा केंद्रीय स्तर (लेवल) पर एक सहयोगी भाषा के रूप में काम करेगी। अंग्रेजी को जारी रखने का निर्णय अब हिंदी ना बोलने वाले स्टेट पर छोड़ दिया गया है क्योंकि उन्होंने हिंदी को एकमात्र राजभाषा के रूप में नहीं अपनाया था। इस एक्ट ने यह भी सुनिश्चित किया कि केंद्रीय स्तर पर हिंदी के अतिरिक्त अंग्रेजी का प्रयोग अनिवार्य किया जाना चाहिए और अंग्रेजी ना बोलने वाले लोगों के हितों (इंटरेस्ट) की रक्षा की जानी चाहिए।
केंद्र के लिए, सरकारो के बीच का संचार बहुत महत्वपूर्ण है, इसलिए इसने 2 राजभाषाओं, अंग्रेजी और हिंदी को आर्टिकल 346 के अनुसार अपनाया। उनमें से किसी का भी उपयोग, सरकारों के बीच संचार के लिए किया जा सकता है क्योंकि हिंदी ना बोलने वाले स्टेट संचार के लिए हिंदी का उपयोग नहीं करते हैं।
भारत में राष्ट्रीय भाषा की स्थिति (नेशनल लैंग्वेज स्टेटस इन इंडिया)
गुजरात हाई कोर्ट ने फैसला दिया था जिसमे उसने कहा कि गुजरातियों के लिए हिंदी को एक विदेशी भाषा माना जाता है और यह भी कहा कि स्टेट सरकार द्वारा चलाए जा रहे प्राइमरी स्कूलों में केवल गुजराती ही पढ़ाई जानी चाहिए क्योंकि यह उनकी मातृभाषा है। जूनागढ़ के किसानों द्वारा दायर किए गए मामले की सुनवाई के बाद यह फैसला आया था, उन्होंने इस मामले में नेशनल हाईवेज अथॉरिटी ऑफ इंडिया द्वारा, हिंदी भाषा में भेजी गई नोटिफिकेशन पर आपत्ति (ऑब्जेक्ट) जताई थी। यह सब तब शुरू हुआ जब एन.एच.ए.आई. ने 2006 में पहले से मौजूद दो लेन वाले राष्ट्रीय राजमार्ग 8डी से चार लेन को चौड़ा करने की योजना बनाई थी, लेकिन पिछले वर्ष विभिन्न आधारों पर यह योजना बदल दी गई थी।
जूनागढ़ और राजकोट के किसान, नोटिफिकेशन से बहुत परेशान हुए थे और उन्होंने हाई कोर्ट का रुख किया था क्योंकि राजमार्ग को चौड़ा करने के लिए उनकी जमीन का अधिग्रहण (एक्विजिशन) किया गया था, और अब, जैसा कि पिछले वर्ष योजना बदल दी गई है, तो किसान यह मान रहे हैं कि यह प्रभावशाली (इनफ्लुएंशल) लोगों के लाभ के लिए इसे बदला गया है। हाई कोर्ट ने कहा कि नेशनल हाईवेज एक्ट की धारा 3(a)(3) के अनुसार योजना में बदलाव के संबंध में नोटिफिकेशन गुजराती में प्रकाशित की गई थी क्योंकि वह एक क्षेत्रीय भाषा है।
हाई कोर्ट के जस्टिस वी.एम. सहाय जिसने मामले की सुनवाई की थी, वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि एन.एच.ए.आई. ने गुजराती भाषा में नोटिफिकेशन प्रकाशित न करके एक गलती की है। उन्होंने उस नोटिफिकेशन को भी रद्द (कैंसल) कर दिया क्योंकि यह केवल हिंदी और अंग्रेजी में ही प्रकाशित हुई थी और इसे अस्वीकार्य और अमान्य घोषित किया था, लेकिन प्रोजेक्ट को रद्द करने से इनकार कर दिया था।
गुजरात हाई कोर्ट ने सुरेश कच्छडिया बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया के मामले में घोषणा की कि हिंदी भारत की राष्ट्रीय भाषा नहीं है। याचिकाकर्ता (पेटीशनर) सुरेश कच्छडिया ने कोर्ट से कहा कि वह केंद्र को मैंडेमस जारी करे, जिसमें वह, उत्पादों (प्रोडक्ट) के पैकेट पर, निर्माण की तारीख, कीमत आदि सहित अन्य चीजों के लिए हिंदी को अनिवार्य करें। इसलिए कोर्ट ने याचिकाकर्ता से यह उल्लेख करने को कहा कि क्या हिंदी देश की एक राष्ट्रीय भाषा है, जैसा कि संविधान इसे अंग्रेजी के साथ देश की राजभाषा के रूप में वर्णित करता है। कोर्ट ने कहा कि उत्पादों में हिंदी या अंग्रेजी का उपयोग करना निर्माता (मैन्युफैक्चरर) का अधिकार होता है।
स्टेट के हाई कोर्ट्स और भारत के सुप्रीम कोर्ट में भाषा विवाद (लैंग्वेज कॉन्ट्रोवर्सी इन हाई कोर्ट ऑफ़ स्टेट्स एंड सुप्रीम कोर्ट ऑफ़ इंडिया)
आर्टिकल 348(1) के अनुसार, भारत के सुप्रीम कोर्ट और प्रत्येक स्टेट के हाई कोर्ट्स में सभी कार्यवाही अंग्रेजी में की जाएगी, जब तक संसद इसके विपरीत कानून ना बना ले। आर्टिकल 348(2) के तहत, गवर्नर राष्ट्रपति की सहमति से उस स्टेट के कोर्ट में हिंदी या किसी अन्य क्षेत्रीय भाषा के प्रयोग की अनुमति दे सकता है। ऐसा ही प्रावधान ऑफिशियल लैंग्वेजेस एक्ट, 1963 की धारा 7 में किया गया है।
बिहार, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और राजस्थान के हाई कोर्ट्स में हिंदी के वैकल्पिक (ऑप्शनल) उपयोग को अनुमति दी गई है। लेकिन दक्षिणी स्टेट्स में इसी तरह के अनुरोधों (रिक्वेस्ट्स) की अनुमति नहीं थी।
तमिलनाडु
केंद्र सरकार ने तमिलनाडु के लेजिस्लेचर को नोटिस जारी किया कि तमिल को मद्रास हाई कोर्ट की राजभाषा बनाने की उसकी मांग को, 2012 में सुप्रीम कोर्ट के आदेश को देखते हुए, खारिज कर दिया जाएगा। 2006 में तमिलनाडु के लेजिस्लेचर ने असेंबली में एक रेजोल्यूशन पास किया, जिसमें उन्होंने तमिल भाषा को मद्रास हाई कोर्ट में राजभाषा बनाने के लिए केंद्र के आगे सिफारिश की। जब यह रेजोल्यूशन एक अतारांकित (अनस्टेयर्ड) प्रश्न के रूप में राज्य सभा में प्रस्तुत किया गया, तो इसका उत्तर मिनिस्ट्री ऑफ़ स्टेट फॉर लॉ, जस्टिस एंड कॉर्पोरेट अफेयर्स ने दिया था और यह व्यक्त किया कि रेजोल्यूशन को भारत के चीफ जस्टिस को परामर्श के लिए भेजा गया था और 2012 में इस पर विचार के बाद इसे सुप्रीम कोर्ट द्वारा खारिज कर दिया गया था।
केंद्र सरकार को तमिलनाडु के सांसदों से, तमिल को मद्रास के हाई कोर्ट की राजभाषा बनाने का प्रस्ताव (प्रोपोजल) मिला था। 1997 और 1999 के वर्षों के बीच में में, सुप्रीम कोर्ट ने पहले मद्रास हाई कोर्ट की राजभाषा को तमिल बनाने के इसी तरह के रेजोल्यूशन को खारिज कर दिया था।
कर्नाटक
कर्नाटक हाई कोर्ट ने कन्नड़ को स्टेट के हाई कोर्ट की राजभाषा बनाने के लिए पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन (पी.आई.एल.) को खारिज कर दिया था। कोर्ट ने कहा कि हालांकि अंग्रेजी के साथ अन्य भाषाओं के उपयोग की अनुमति है, लेकिन भाषा का कोई अन्य विकल्प उपलब्ध नहीं है। फिर भी अंग्रेजी और कन्नड़ दोनों में शपथ की अनुमति है लेकिन कन्नड़ को हाई कोर्ट की राजभाषा बनाने से भारतीय संविधान के आर्टिकल 348 का उल्लंघन होगा। कोर्ट ने यह भी माना कि हिंदी क्षेत्र में इसी तरह की याचिका दायर की गई थी और कोर्ट द्वारा खारिज कर दी गई थी, क्योंकि भारत के सभी कोर्ट्स के बीच एक लिंक भाषा होनी चाहिए ताकि लोगो का पेशा आसानी से किया जा सके। बेंच ने कहा कि मार्च 2003 में हाई कोर्ट के आदेश में फैमिली कोट्स सहित सभी लोअर कोर्ट्स में कन्नड़ में कार्यवाही करने का आदेश दिया गया था।
सुप्रीम कोर्ट
केंद्र ने तमिलनाडु, कर्नाटक और छत्तीसगढ़ स्टेट्स की सरकार को सूचित किया कि सुप्रीम कोर्ट ने इन निम्नलिखित स्टेट्स के संबंधित हाई कोर्ट में अंग्रेजी के अलावा किसी अन्य भाषा को उपयोग करने की अनुमति नहीं दी है। सुप्रीम कोर्ट ने हिंदी को हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट की राजभाषा बनाने की याचिका को खारिज कर दिया। यह माना गया कि हालांकि, अंग्रेजी को कोर्ट के पहले 15 वर्षों के लिए ही अनुमति दी गई थी लेकिन इस समय सीमा को कानून द्वारा बढ़ाया जा सकता है।
निष्कर्ष (कंक्लूज़न)
इसलिए हम कह सकते हैं कि भारत में भाषा का विवाद एक संवेदनशील मुद्दा है, जो हमारे संविधान निर्माताओं के विचार से कहीं अधिक उलझा हुआ है। आंध्र प्रदेश का विभाजन भी भाषाई विवाद का परिणाम था क्योंकि उर्दू लोगों ने सोचा कि उन्हें तेलुगु लोगों द्वारा अपमानित किया जा रहा है। तो अब यह साबित हो गया है कि भारत के सांस्कृतिक और संरचनात्मक (स्ट्रक्चरल) विभाजन में भाषा की प्रधानता (प्राइमेसी) है।
इस विशाल बहुभाषी देश के लिए राष्ट्रभाषा के निर्माण पर जोर देने की दृष्टि (व्यू) से, इस बात को भूलना नहीं चाहिए कि भारत में सबसे ज्यादा क्षेत्रीय भाषाएं बोली जाती है और उनकी सुरक्षा के लिए उचित कदम उठाना आवश्यक है। गांधी जी ने भी इस संबंध में अपने विचार व्यक्त किए थे और कहा था कि, “जब तक हम हिंदी को उसकी प्राकृतिक स्थिति और प्रांतीय भाषाओं को लोगों के जीवन में उनका उचित स्थान नहीं देते है, तब तक स्वराज की सभी बातें बेकार हैं।”
14 सितंबर को हम हर वर्ष हिंदी दिवस मनाते हैं, क्योंकि इस दिन, इस मुद्दे की लंबी और महत्वपूर्ण बहस के बाद हिंदी को देवनागरी लिपि में भारत की राजभाषा के रूप में अपनाया गया था। लेकिन हिंदी भाषा को भारत की एकमात्र राजभाषा के रूप में अपनाने के लिए, मद्रास द्वारा लंबे विरोध के बाद, भारत सरकार ने इतने विशाल बड़े भूभाग में एकता बनाए रखने के लिए अंग्रेजी को केवल 15 वर्षों के लिए वैकल्पिक राजभाषा बनाया। ब्रिटेन से आजादी के 70 वर्ष के बाद भी, हमने अब तक इस मुद्दे का समाधान नहीं किया है और अब हम अंग्रेजी और हिंदी भाषा को भारत की राजभाषा के रूप में अपना रहे हैं।
गांधी जी जानते थे कि भारत, भाषा के माध्यम से ही स्वराज हासिल कर सकता है। वह दक्षिण भारत में हिंदी को बढ़ावा देना चाहते थे इसलिए वे वहां हिंदी मिशनरीज को भेजते थे। उन्होंने 1923 में दक्षिण भारत हिंदी महासभा की भी स्थापना की थी।
सच तो यह है कि अंग्रेजी भाषा अब तक उत्तर भारत में इतनी लोकप्रिय नहीं है, जितनी हिंदी है क्योंकि वहां हिंदी व्यापक रूप से बोली जाती है। दक्षिण भारत में हिंदी विरोधी आक्रामकता (एग्रेशन) का एक इन्हेरेंट तत्व है क्योंकि वहां एक बार हिंदी भाषा को अनिवार्य कर दिया गया था, लोग ने हिंदी भाषा जानने के बावजूद विरोध करना शुरू कर दिया। सबसे बड़ी समस्या तमिलनाडु में थी, जो भाषा के मुद्दों के लिए अपनी गंदी राजनीति के लिए जाना जाता है। भारत में कॉपरेटिव फेडरेशन को बनाए रखने के लिए संविधान निर्माताओं ने हिंदी को भारत की राष्ट्रीय भाषा नहीं बनाया। पढ़ने वालों के मन में हमेशा यह सवाल उठता है कि जब अन्य द्रविड़ स्टेट्स को हिंदी को लेकर कोई समस्या नहीं थी तो केवल तमिलनाडु में ही ऐसी समस्या क्यों थी। यहां तक कि हिंदी ना बोलने वाले स्टेट्स, जैसे की ओडिशा और पश्चिम बंगाल में भी हिंदी व्यापक रूप से लोकप्रिय है। देश को ब्रिटिशर्स से मिली कॉलोनियल भाषा, अंग्रेजी से समझौता करने की जरूरत है क्योंकि संविधान के अनुसार एक स्टेट के कारण, किसी भी स्टेट में कोई भाषा नहीं थोपी जा सकती है, ताकि भारत में एकता के तत्व को बनाए रखा जा सके।
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