यह लेख स्कूल ऑफ लॉ, क्राइस्ट यूनिवर्सिटी, बैंगलोर के छात्र Diganth Raj Sehgal और Gautam Badlani जो चाणक्य नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, पटना के छात्र है, के द्वारा लिखा गया है। इस लेख के लेखक ने भारत के संविधान के अनुच्छेद 12 के दायरे और सीमा और इसके महत्व पर चर्चा की है। इस लेख का अनुवाद Shreya Prakash के द्वारा किया गया है।
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परिचय
मौलिक अधिकार, अधिकारों का एक समूह है जिसकी गारंटी भारत के संविधान द्वारा भाग III के तहत देश के सभी नागरिकों को दी गई है। ये अधिकार राष्ट्र में रहने वाले सभी नागरिकों पर सार्वभौमिक रूप (यूनिवर्सली) से लागू होते हैं, चाहे उनकी जाति, जन्म स्थान, धर्म या लिंग कुछ भी हो। उन्हें कानून द्वारा, सरकार से उच्च स्तर की सुरक्षा की आवश्यकता वाले अधिकारों के रूप में मान्यता प्राप्त है और सरकार द्वारा उनका उल्लंघन नहीं किया जा सकता है। मौलिक अधिकारों को व्यक्तियों और निजी संस्थाओं के विरुद्ध लागू नहीं किया जा सकता है। इन अधिकारों की रक्षा का दायित्व सरकार या राज्य या उसके अधिकारियों पर है।
नागरिकों को प्रदान किए गए अधिकांश मौलिक अधिकारों का दावा राज्य और उसके साधनों के खिलाफ किया जाता है, न कि निजी निकायों के खिलाफ। अनुच्छेद 12 ‘राज्य’ शब्द को विस्तृत महत्व देता है। यह निर्धारित करना बहुत महत्वपूर्ण है कि राज्य की परिभाषा के अंतर्गत कौन से निकाय आते हैं ताकि यह निर्धारित किया जा सके कि जिम्मेदारी किस पर डाली जानी चाहिए।
संविधान निर्माताओं ने ‘राज्य’ शब्द का प्रयोग सामान्य या संकीर्ण अर्थ की तुलना में व्यापक अर्थ में किया। इसका तात्पर्य केवल संघ के राज्यों से नहीं है। अनुच्छेद में ‘शामिल’ शब्द से पता चलता है कि परिभाषा संपूर्ण नहीं है और न्यायिक व्याख्याओं के माध्यम से, अदालत ने अनुच्छेद के दायरे को उससे कहीं अधिक बढ़ा दिया है, जो संविधान के निर्माण के दौरान अनुच्छेद 12 के निर्माताओं के मन में भी रहा होगा।
राज्य को परिभाषित करने का उद्देश्य एवं आवश्यकता
भारत के संविधान के तहत राज्य का उद्देश्य एक कल्याणकारी समाज की स्थापना करना है। संविधान निर्माता कल्याणकारी राज्य के विचार से प्रेरित थे। कल्याणकारी राज्य की अवधारणा जर्मनी में विकसित की गई थी और इसमें एक ऐसे राज्य के निर्माण की परिकल्पना की गई है जो अपने सभी नागरिकों को बुनियादी आर्थिक सुरक्षा सुनिश्चित करता है। संविधान राज्य पर मौलिक अधिकारों के रूप में एक नकारात्मक कर्तव्य और राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों के रूप में एक सकारात्मक कर्तव्य लगाता है। मौलिक अधिकार संविधान के भाग III में निहित हैं और निर्देशक सिद्धांत संविधान के भाग IV में वर्णित हैं।
दुनिया भर के अधिकांश संविधान केवल राज्य के खिलाफ मौलिक अधिकारों की गारंटी देते हैं, यानी, यदि नागरिक के अधिकारों का उनके राज्य द्वारा उल्लंघन किया जाता है तो वे अदालतों का दरवाजा खटखटा सकते हैं, लेकिन यदि उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन निजी व्यक्ति द्वारा किया जाता है तो वे अदालत में उपाय नहीं ढूंढ सकते हैं। यह वहां भी सच है जहां संविधान स्पष्ट रूप से यह नहीं कहता है कि मौलिक अधिकार राज्य के विरुद्ध लागू किए जा सकेंगे। वीएन शुक्ला ने अपनी पुस्तक कॉन्स्टिट्यूशन ऑफ इंडिया में कहा है कि भले ही संयुक्त राज्य अमेरिका के संविधान के तहत, यह स्पष्ट रूप से नहीं कहा गया है कि मौलिक अधिकारों की गारंटी केवल राज्य के खिलाफ है, फिर भी न्यायपालिका ने इसका अर्थ यह निकाला है कि मौलिक अधिकारों की गारंटी केवल राज्य के विरुद्ध ही लागू की जानी चाहिए, निजी व्यक्तियों के विरुद्ध नहीं।
भारतीय संविधान का भी यही हाल है। इस प्रकार, ‘राज्य’ शब्द के अर्थ को सटीक और संक्षिप्त रूप से परिभाषित करना महत्वपूर्ण और आवश्यक हो जाता है। भारतीय संविधान के तहत, राज्य को अनुच्छेद 12 के तहत परिभाषित किया गया है, जो भारत के संविधान के भाग III जो मौलिक अधिकारों की गणना करता है का प्रारंभिक अनुच्छेद है।
पी.डी. शामदासानी बनाम सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया (1951), के मामले में याचिकाकर्ता पर बकाया कर्ज की वसूली के लिए याचिकाकर्ता के कुछ शेयर सेंट्रल बैंक ऑफ इंडिया द्वारा बेचे गए थे। इसे अनुच्छेद 19 और 31 (अब हटा दिया गया है) का उल्लंघन होने के आधार पर चुनौती दी गई थी। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने याचिका को खारिज करते हुए कहा कि चूंकि याचिकाकर्ता के अधिकारों का एक निजी बैंक द्वारा उल्लंघन किया गया था, इसलिए अनुच्छेद 32 के तहत उपाय नहीं मांगा जा सकता है। अनुच्छेद 32 का सहारा केवल उन मामलों में लिया जा सकता है जहां राज्य अधिकार का उल्लंघन करता है। निजी पक्षों के विरुद्ध उपाय सामान्य कानून के तहत उपलब्ध हैं।
हाल ही में, कौशल किशोर बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2023), के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि अनुच्छेद 19 और 21 के तहत गारंटीकृत मौलिक अधिकारों को क्रमशः राज्य के साथ-साथ गैर-राज्य संस्थानों के खिलाफ भी लागू किया जा सकता है।
‘राज्य’ शब्द को परिभाषित करते समय, यह ध्यान रखना आवश्यक है कि मौलिक अधिकारों का उल्लंघन राज्य द्वारा प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से किया जा सकता है। प्रत्यक्ष उल्लंघन में, सरकार अपनी विधायी या अन्य शक्तियों के माध्यम से मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करती है। अप्रत्यक्ष उल्लंघन में, राज्य की ओर से कार्य करने वाली एजेंसियों और अधिकारियों के माध्यम से नागरिकों के अधिकारों का उल्लंघन किया जाता है। इस प्रकार, राज्य की किसी भी मनमानी कार्रवाई से नागरिकों के अधिकारों का उल्लंघन होने से बचाने के लिए राज्य की समावेशी (इंक्लूसिव) तरीके से व्याख्या करना आवश्यक है।
भारतीय संविधान में कुछ मौलिक कर्तव्यों का भी उल्लेख किया गया है जो नागरिकों को राज्य के प्रति देय हैं। 1976 के 42वें संशोधन द्वारा भारतीय संविधान में मौलिक कर्तव्यों को शामिल किया गया। ये कर्तव्य भारतीय संविधान के अनुच्छेद 51A के तहत दिए गए हैं। कुछ मौलिक कर्तव्य हैं राष्ट्रीय ध्वज का सम्मान करना, भारत की संप्रभुता (सोवरेंटी) और अखंडता (इंटीग्रिटी) की रक्षा करना और सांस्कृतिक विरासत का संरक्षण करना।
अनुच्छेद 12 के अंतर्गत राज्य का अर्थ
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 12 में कहा गया है कि,
“इस भाग में, जब तक कि संदर्भ से अन्यथा अपेक्षित न हो, “राज्य” के अंतर्गत भारत की सरकार और संसद तथा राज्यों में से प्रत्येक राज्य की सरकार और विधान- मंडल तथा भारत के राज्यक्षेत्र के भीतर या भारत सरकार के नियंत्रण के अधीन सभी स्थानीय और अन्य प्राधिकारी हैं।”
दूसरे शब्दों में, संविधान के भाग III के प्रयोजनों के लिए, राज्य में निम्नलिखित शामिल हैं:
- भारत की सरकार और संसद अर्थात संघ की कार्यपालिका (एक्जीक्यूटिव) और विधायिका।
- प्रत्येक राज्य की सरकार और विधानमंडल अर्थात भारत के विभिन्न राज्यों की कार्यपालिका और विधानमंडल।
- भारत के क्षेत्र के भीतर सभी स्थानीय या अन्य प्राधिकारी (अथॉरिटी)।
- सभी स्थानीय और अन्य प्राधिकरण जो भारत सरकार के नियंत्रण में हैं।
लेख के अंतर्गत चर्चा की गई प्रमुख शर्तें
- सरकार (संघ और राज्य)
- संसद और राज्य विधानमंडल
- स्थानीय प्राधिकारी
- अन्य प्राधिकारी
- भारत का क्षेत्र
- भारत सरकार का नियंत्रण
उपर्युक्त शब्दों को प्रासंगिक मामलों के साथ निम्नलिखित अनुभाग में बेहतर ढंग से समझाया गया है।
सरकार (संघ और राज्य), संसद और राज्य विधानमंडल
- संसद: संसद में भारत के राष्ट्रपति, संसद का निचला सदन यानी लोकसभा और साथ ही संसद का ऊपरी सदन यानी राज्यसभा शामिल है।
- कार्यपालिका: यह वह अंग है जो विधायिका द्वारा पारित कानूनों और सरकार की नीतियों को लागू करता है। कल्याणकारी राज्य के उदय ने राज्य और वास्तव में कार्यपालिका के कार्यों में जबरदस्त वृद्धि की है। आम उपयोग में, लोग कार्यपालिका की पहचान सरकार से करते हैं। समसामयिक (कंटेंपरेरी) काल में प्रत्येक राज्य में कार्यपालिका की शक्ति एवं भूमिका में बड़ी वृद्धि हुई है। कार्यपालिका में राष्ट्रपति, राज्यपाल, कैबिनेट मंत्री, पुलिस, नौकरशाह आदि शामिल हैं।
- विधायिका: विधायिका सरकार का वह अंग है जो सरकार के कानून बनाती है। यह वह एजेंसी है जिस पर राज्य की इच्छा तैयार करने और उसे कानूनी अधिकार और बल प्रदान करने की जिम्मेदारी है। सरल शब्दों में विधायिका सरकार का वह अंग है जो कानून बनाती है। प्रत्येक लोकतांत्रिक राज्य में विधायिका को अत्यंत विशेष एवं महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। यह जनता के निर्वाचित प्रतिनिधियों की सभा है और राष्ट्रीय जनमत तथा जनता की शक्ति का प्रतिनिधित्व करती है।
- सरकार: कानून बनाने वाली या विधायी शाखा और प्रशासनिक या कार्यकारी शाखा और कानून प्रवर्तन (एनफोर्समेंट) या न्यायिक शाखा और समाज के संगठन, सब लोकसभा (निचला सदन) और राज्यसभा (उच्च सदन) विधायी शाखा बनाते हैं। भारतीय राष्ट्रपति राज्य का प्रमुख होता है और अपनी शक्ति का प्रयोग सीधे या अपने अधीनस्थ अधिकारियों के माध्यम से करता है। सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय और जिला स्तर पर कई सिविल, आपराधिक और पारिवारिक अदालतें न्यायपालिका का निर्माण करती हैं।
- राज्य विधानमंडल: राज्य स्तर पर विधायी निकाय राज्य विधानमंडल है। इसमें राज्य विधान सभा और राज्य विधान परिषद शामिल हैं।
स्थानीय प्राधिकरण
यह समझने से पहले कि स्थानीय प्राधिकरण क्या है, प्राधिकरणों को परिभाषित करना महत्वपूर्ण है। वेबस्टर डिक्शनरी के अनुसार; “प्राधिकरण” का अर्थ है आदेश देने की शक्ति का प्रयोग करने वाला व्यक्ति या निकाय। जब इसे अनुच्छेद 12 के तहत पढ़ा जाता है, तो प्राधिकरण शब्द का अर्थ कानून (या आदेश, विनियम, उपनियम, अधिसूचना आदि) बनाने की शक्ति है। इसमें ऐसे कानूनों को लागू करने की शक्ति भी शामिल है।
स्थानीय प्राधिकरण: साधारण खंड अधिनियम (जेनरल क्लॉज एक्ट), 1897 की धारा 3(31) के अनुसार,
“स्थानीय प्राधिकरण का अर्थ एक नगरपालिका समिति, जिला बोर्ड, आयुक्त (कमिश्नर) का निकाय या अन्य प्राधिकारी होगा जो नगरपालिका या स्थानीय निधि के नियंत्रण या प्रबंधन का वैध रूप से हकदार है या जिले नियंत्रण या प्रबंधन सरकार द्वारा न्यायस्त है।”
स्थानीय प्राधिकरण शब्द में निम्नलिखित शामिल हैं:
- स्थानीय सरकार: VII अनुसूची की सूची II की प्रविष्टि (एंट्री) 5 के अनुसार ‘स्थानीय सरकार’ में स्थानीय स्वशासन (सेल्फ गवर्नमेंट) या ग्राम प्रशासन के उद्देश्य से एक नगर निगम, सुधार ट्रस्ट, जिला बोर्ड, खनन निपटान प्राधिकरण और अन्य स्थानीय प्राधिकरण शामिल हैं।
- ग्राम पंचायत: अजीत सिंह बनाम पंजाब राज्य के मामले में, यह माना गया कि स्थानीय प्राधिकरण शब्द के अर्थ में ग्राम पंचायत भी शामिल है।
स्थानीय प्राधिकारियों को निर्धारित करने के लिए परीक्षण
मोहम्मद यासीन बनाम टाउन एरिया कमेटी में, सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि संबंधित प्राधिकारी को ‘स्थानीय प्राधिकारी’ के रूप में जाना जाना चाहिए जब;
- एक कॉर्पोरेट निकाय के रूप में एक अलग कानूनी अस्तित्व होना चाहिए।
- केवल सरकारी एजेंसी न होकर कानूनी तौर पर एक स्वतंत्र इकाई होनी चाहिए।
- एक निर्धारित क्षेत्र में कार्य करना चाहिए।
- पूर्णतः या आंशिक रूप से, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से, क्षेत्र के निवासियों द्वारा चुना जाना चाहिए।
- स्वायत्तता (पूर्ण या आंशिक) की एक निश्चित डिग्री का आनंद लेंना चाहिए।
- क़ानून द्वारा ऐसे सरकारी कार्य और कर्तव्य सौंपे जाएं जो आमतौर पर स्थानीय स्तर पर सौंपे जाते हैं (जैसे स्वास्थ्य, शिक्षा, पानी, नगर नियोजन, बाज़ार, परिवहन, आदि)।
- करों, दरों, शुल्कों को लगाकर अपनी गतिविधियों को आगे बढ़ाने और अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए धन जुटाने की शक्ति होनी चाहिए।
अन्य प्राधिकारी
अनुच्छेद 12 में ‘अन्य प्राधिकरण’ शब्द को कहीं भी परिभाषित नहीं किया गया है। न तो संविधान में, न ही साधारण खंड अधिनियम, 1897 में और न ही भारत के किसी अन्य क़ानून में। इसलिए, इसकी व्याख्या में काफी कठिनाई हुई है, और समय के साथ न्यायिक राय में बदलाव आया है।
सरकार के कार्य या तो सरकारी विभागों और अधिकारियों द्वारा या विभागीय ढांचे के बाहर मौजूद स्वायत्त निकायों के माध्यम से किए जा सकते हैं। ऐसे स्वायत्त निकायों में कंपनियां, निगम आदि शामिल हो सकते हैं।
इसलिए, यह निर्धारित करने के उद्देश्य से कि राज्य के दायरे में कौन से ‘अन्य प्राधिकरण’ आते हैं, न्यायपालिका ने विभिन्न मामलों के तथ्यों और परिस्थितियों के अनुसार कई निर्णय दिए हैं।
मद्रास विश्वविद्यालय बनाम शांता बाई मामले में, मद्रास उच्च न्यायालय ने ‘एजस्डेम जेनेरिस’ यानी समान प्रकृति का सिद्धांत विकसित किया। इसका मतलब यह है कि केवल वे प्राधिकरण ही ‘अन्य प्राधिकरण’ अभिव्यक्ति के अंतर्गत आते हैं जो सरकारी या संप्रभु कार्य करते हैं। इसके अलावा, इसमें व्यक्ति, प्राकृतिक या न्यायिक, उदाहरण के लिए, गैर-सहायता प्राप्त विश्वविद्यालय शामिल नहीं हो सकते।
उज्जम्माबाई बनाम उत्तर राज्य के मामले में, अदालत ने उपरोक्त प्रतिबंधात्मक दायरे को खारिज कर दिया और माना कि ‘अन्य प्राधिकारियों’ की व्याख्या में ‘एजस्डेम जेनेरिस’ नियम का सहारा नहीं लिया जा सकता है। अनुच्छेद 12 के तहत नामित निकायों में कोई सामान्य जाति नहीं है और उन्हें किसी भी तर्कसंगत आधार पर एक ही श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है।
अंत में, राजस्थान बिजली बोर्ड बनाम मोहन लाल मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि ‘अन्य प्राधिकरणों’ में संविधान या क़ानून द्वारा बनाए गए सभी प्राधिकरण शामिल होंगे, जिन्हें कानून द्वारा शक्तियां प्रदान की गई हैं। ऐसे वैधानिक प्राधिकार को सरकारी या संप्रभु कार्य करने में संलग्न होने की आवश्यकता नहीं है। अदालत ने इस बात पर जोर दिया कि यह बात मायने नहीं रखती कि निकाय को दी गई शक्ति व्यावसायिक प्रकृति की है या नहीं।
राज्य की साधनात्मकता (इंस्ट्रूमेंटलिटी) का सिद्धांत
आधुनिक दुनिया में, राज्य के पास करने के लिए बहुत सारे कार्य हैं। अपने कार्यों और कर्तव्यों का निर्वहन करने के लिए, राज्य कुछ साधनों के माध्यम से कार्य करता है। साधन भी अनुच्छेद 12 में प्रयुक्त अभिव्यक्ति ‘राज्य’ के दायरे में आते हैं।
साधन वे साधन हैं जिनके माध्यम से राज्य अपने कार्यों का निर्वहन करता है और साधनात्मकता का सिद्धांत यह प्रदान करता है कि जिन एजेंसियों के माध्यम से वह अपने कार्यों का निर्वहन करता है उन्हें भी राज्य का अवतार माना जाना चाहिए। उदाहरण के लिए, भारतीय संविधान का अनुच्छेद 298 केंद्र और राज्य सरकारों को व्यापार और व्यवसाय चलाने का अधिकार देता है। सरकार कुछ निगमों के माध्यम से व्यापार करती है और इन निगमों को राज्य के साधन कहा जाता है।
रमना दयाराम शेट्टी बनाम भारतीय अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा प्राधिकरण और अन्य (1979), में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि सरकार के एजेंट या सहायक के रूप में कार्य करने वाले निगम अनुच्छेद 12 के तहत ‘अन्य प्राधिकरण’ अभिव्यक्ति के अर्थ में आएंगे।
हालाँकि, यह निर्धारित करना अक्सर मुश्किल होता है कि कोई इकाई सरकार का एक साधन है या नहीं।
साधनात्मकता निर्धारित करने के लिए परीक्षण
यह निर्धारित करने के लिए कि कोई इकाई एक एजेंसी या साधन है, निम्नलिखित कारकों को ध्यान में रखा जाना चाहिए:
- शेयर पूंजी और वित्तीय सहायता: यदि निगम की संपूर्ण शेयर पूंजी केंद्र या किसी राज्य सरकार के स्वामित्व में है, तो यह दिखाएगा कि निगम राज्य का एक साधन है। राज्य निगम को वित्तीय सहायता भी प्रदान कर सकता है।
सुखदेव सिंह बनाम भगतराम (1975) में, न्यायालय ने कहा कि राज्य के लिए निगम को सीधे वित्तीय सहायता प्रदान करना आवश्यक नहीं है। राज्य निगम को कर छूट या अन्य प्रकार की अप्रत्यक्ष वित्तीय सहायता भी प्रदान कर सकता है। यह निर्धारित करते समय अप्रत्यक्ष वित्तीय सहायता भी एक प्रासंगिक कारक होगी कि कोई निगम राज्य का एक साधन है या नहीं।
- राज्य नियंत्रण: यदि केंद्र या कोई राज्य सरकार इकाई पर व्यापक नियंत्रण रखती है, तो यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि निगम राज्य की एक एजेंसी है।
- एकाधिकार: कुछ निगम अपने संबंधित बाजारों में एकाधिकार का आनंद लेते हैं क्योंकि राज्य अन्य निगमों को उसी बाजार में काम करने से रोकता है। इस प्रकार, यदि किसी इकाई को राज्य द्वारा अधिनियमित कानून द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों के कारण एकाधिकार का दर्जा प्राप्त है, तो ऐसी इकाई को राज्य की एक एजेंसी या साधन माना जाने की संभावना है।
- कार्य: निगम द्वारा निष्पादित कार्यों की प्रकृति एक अन्य प्रासंगिक कारक है। यदि निगम ऐसे कार्य करता है या निर्वहन करता है जो बड़े पैमाने पर सार्वजनिक प्रकृति के हैं, तो ऐसे निगम को एक साधन माना जाएगा।
भारत का क्षेत्र
भारत के संविधान के अनुच्छेद 1(3) में कहा गया है कि;
“भारत के क्षेत्र में शामिल होंगे-
- राज्यों के क्षेत्र;
- पहली अनुसूची में निर्दिष्ट केंद्र शासित प्रदेश; और
- ऐसे अन्य क्षेत्र जिनका अधिग्रहण (एक्विजिशन) किया जा सकता है।”
मस्तान साहिब बनाम मुख्य आयुक्त के मामले में, अदालत ने माना कि अनुच्छेद 12 के प्रयोजनों के लिए भारत का क्षेत्र अनुच्छेद 1(3) में परिभाषित भारत का क्षेत्र है।
भारत सरकार का नियंत्रण
अनुच्छेद 12 के तहत, सरकार के नियंत्रण का मतलब यह नहीं है कि निकाय को पूर्ण रूप से सरकार के निर्देशन में होना चाहिए। इसका केवल यह अर्थ है कि सरकार का निकाय के कामकाज पर किसी न किसी रूप में नियंत्रण होना चाहिए। सिर्फ इसलिए कि कोई निकाय एक वैधानिक निकाय है, इसका मतलब यह नहीं है कि वह ‘राज्य’ है। वैधानिक और गैर-वैधानिक दोनों निकायों को एक ‘राज्य’ माना जा सकता है यदि उन्हें सरकार से वित्तीय संसाधन मिलते हैं और सरकार इस पर व्यापक नियंत्रण रखती है।
उदाहरण के लिए- राज्य में दिल्ली परिवहन निगम, ओएनजीसी और बिजली बोर्ड शामिल हैं, लेकिन एनसीईआरटी शामिल नहीं है क्योंकि न तो यह सरकार द्वारा पर्याप्त रूप से वित्तीय सहायता लेती है और न ही सरकार का नियंत्रण व्यापक है।
अजय हसिया के मामले में निर्धारित परीक्षण कठोर नहीं है और इसलिए यदि कोई निकाय उनके भीतर आता है, तो उसे अनुच्छेद 12 के अर्थ के तहत एक राज्य माना जाना चाहिए। मामले में यह चर्चा की गई थी कि- “क्या स्थापित संचयी (कम्युलेटिव) तथ्यों के प्रकाश में, निकाय वित्तीय, कार्यात्मक और प्रशासनिक रूप से सरकार के प्रभुत्व में या उसके नियंत्रण में है। ऐसा नियंत्रण संबंधित निकाय के लिए विशेष होना चाहिए और व्यापक होना चाहिए।
क्या राज्य में न्यायपालिका शामिल है?
संविधान का अनुच्छेद 12 विशेष रूप से ‘न्यायपालिका’ को परिभाषित नहीं करता है। यह न्यायिक अधिकारियों को ऐसे निर्णय सुनाने की शक्ति देता है जो किसी व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हो सकता है। यदि इसे ‘राज्य’ के रूप में माना जाता है, तो अनुच्छेद के अनुसार, यह दायित्व होगा कि नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं किया जाना चाहिए। तदनुसार, अदालतों द्वारा सुनाए गए निर्णयों को इस आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती कि वे किसी व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करते हैं। दूसरी ओर, यह देखा गया है कि अदालतों द्वारा अपनी प्रशासनिक क्षमता (सर्वोच्च न्यायालय सहित) में पारित आदेशों को नियमित रूप से मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करने वाले के रूप में चुनौती दी गई है।
इस प्रश्न का उत्तर न्यायालयों के न्यायिक और गैर-न्यायिक कार्यों के बीच अंतर में निहित है। जब अदालतें अपने गैर-न्यायिक कार्य करती हैं, तो वे ‘राज्य’ की परिभाषा के अंतर्गत आती हैं। जब अदालतें अपने न्यायिक कार्य करती हैं, तो वे ‘राज्य’ के दायरे में नहीं आती है।
इसलिए, यह ध्यान दिया जा सकता है कि किसी अदालत के न्यायिक निर्णय को मौलिक अधिकारों का उल्लंघन मानकर चुनौती नहीं दी जा सकती। लेकिन, किसी प्रशासनिक निर्णय या न्यायपालिका द्वारा बनाए गए नियम को मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के रूप में चुनौती दी जा सकती है, यदि वह तथ्यों द्वारा समर्थित हो। इसका कारण न्यायालयों के न्यायिक और गैर-न्यायिक कार्यों के बीच अंतर है।
नरेश श्रीधर मिराजकर बनाम महाराष्ट्र राज्य, एआईआर 1967 एससी 1 के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय की 9-न्यायाधीशों की पीठ ने माना कि उसके सामने लाए गए किसी मामले के संबंध में सक्षम अधिकार क्षेत्र के न्यायाधीश द्वारा सुनाया गया न्यायिक निर्णय नागरिकों के मौलिक अधिकारों को प्रभावित नहीं कर सकता क्योंकि न्यायिक निर्णय का उद्देश्य अदालत के समक्ष लाए गए पक्षों के बीच विवाद का फैसला करना है और इससे अधिक कुछ नहीं। इसलिए, ऐसे न्यायिक निर्णय को अनुच्छेद 13 के तहत चुनौती नहीं दी जा सकती।
संविधान के तहत, न्यायपालिका के पास नागरिकों को दिए गए मौलिक अधिकारों का दायरा निर्धारित करने की शक्ति है। इस शक्ति का प्रयोग करते समय, न्यायालय कुछ त्रुटियाँ कर सकते हैं। हालाँकि, मौलिक अधिकारों की व्याख्या में न्यायालयों द्वारा की गई त्रुटियाँ मौलिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं मानी जाएंगी। न्यायालयों के निर्णय के विरुद्ध रिट अधिकार क्षेत्र का प्रयोग नहीं किया जा सकता। न्यायिक निर्णयों के विरुद्ध उचित उपाय समीक्षा (रिव्यू) या अपीलीय अदालत के समक्ष अपील है। अगर सर्वोच्च न्यायालय से फैसला आता है तो पीड़ित पक्ष समीक्षा याचिका या सुधारात्मक याचिका (क्यूरेटिव पिटीशन) दाखिल कर सकता है।
खोडे डिस्टिलरीज लिमिटेड बनाम रजिस्ट्रार जनरल, भारत के सर्वोच्च न्यायालय (1995) में, सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि एक बार अनुच्छेद 136 के तहत न्यायालय का अंतिम निर्णय सुनाया गया है और समीक्षा याचिका में इसे बरकरार रखा गया है, तो आदेश की वैधता को चुनौती देने के लिए अनुच्छेद 32 के तहत न्यायालय के रिट अधिकार क्षेत्र का सहारा नहीं लिया जा सकता है।
यह ध्यान देने योग्य है कि केवल मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के आधार पर अदालतों के फैसलों को चुनौती नहीं दी जा सकती। हालाँकि, यदि कोई अर्ध-न्यायिक प्राधिकरण या प्रशासनिक प्राधिकरण जैसे कि न्यायाधिकरण अपने अधिकार क्षेत्र से आगे बढ़ता है या अपने अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करने में विफल रहता है, तो न्यायाधिकरण के फैसले को पीड़ित पक्ष के मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के आधार पर चुनौती दी जा सकती है। इस प्रकार, न्यायाधिकरणों और प्रशासनिक अधिकारियों के निर्णयों को चुनौती देने के लिए रिट अधिकार क्षेत्र का इस्तेमाल किया जा सकता है।
‘राज्य’ अभिव्यक्ति के अर्थ में न्यायपालिका को शामिल न करने की स्थिति इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए उचित है कि भारत में एकल एकीकृत न्यायिक प्रणाली है। एक अदालत के निर्णयों को अपीलीय अदालत के समक्ष चुनौती दी जा सकती है और पीड़ित पक्ष अदालतों के निर्णयों के प्रति उपचार नहीं है।
ऐतिहासिक फैसले
राजस्थान विद्युत बोर्ड बनाम मोहन लाल एवं अन्य (1967)
तथ्य
राजस्थान विद्युत बोर्ड बनाम मोहन लाल एवं अन्य (1967) के मामले में राज्य सरकार के 14 स्थायी कर्मचारियों को विद्युत बोर्ड में प्रतिनियुक्त (डिप्यूट) किया गया। बोर्ड के 11 कर्मचारियों को सहायक इंजीनियर के रूप में पदोन्नत किया गया लेकिन पहले प्रतिवादी को पदोन्नत नहीं किया गया था। उन्होंने विद्युत बोर्ड द्वारा उन्हें पदोन्नत न करने के फैसले को चुनौती दी और दलील दी कि यह फैसला संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत उनके मौलिक अधिकार का उल्लंघन करता है। उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 226 और 227 के तहत उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया था और उच्च न्यायालय ने याचिका को सुनवाई योग्य पाया।
मुद्दा
मुद्दा यह था कि क्या विद्युत आपूर्ति अधिनियम, 1948 के तहत गठित विद्युत बोर्ड को अनुच्छेद 12 के तहत ‘अन्य प्राधिकरण’ माना जा सकता है।
विवाद
अपीलकर्ताओं ने तर्क दिया था कि बोर्ड को एक राज्य नहीं माना जा सकता है। अनुच्छेद 12 की व्याख्या सामान्यतः की जानी चाहिए और चूंकि बोर्ड कानून में एक अलग कानूनी व्यक्ति था जिसे कुछ व्यावसायिक गतिविधियों को चलाने के उद्देश्य से स्थापित किया गया था, इसलिए इसे एक राज्य के रूप में नहीं माना जा सकता था। बोर्ड अनुच्छेद 12 के तहत गणित प्राधिकारियों के अंतर्गत नहीं आता था, अर्थात, बोर्ड न तो संघ या राज्य सरकार का हिस्सा था, न ही यह संघ या राज्य विधानमंडल का हिस्सा था। अपीलकर्ताओं ने शांता बाई मामले पर भी भरोसा जताया।
अपीलकर्ताओं ने आगे कहा कि केवल वे निकाय जो सरकारी कार्य करते हैं, अनुच्छेद 12 के अंतर्गत आते हैं। हालाँकि, बोर्ड ने व्यावसायिक गतिविधियाँ कीं जिन्हें सरकारी या सार्वजनिक कार्य नहीं माना जा सकता है।
फैसला
सर्वोच्च न्यायालय ने विद्युत बोर्ड को अनुच्छेद 12 के दायरे में आने वाला एक ‘अन्य प्राधिकरण’ माना था। यह कहा गया था कि चूंकि विद्युत बोर्ड सरकार के एक साधन के रूप में कार्य करता है और इसलिए ‘राज्य’ शब्द के अर्थ में आता है। यह बात अप्रासंगिक थी कि बोर्ड ने कुछ ऐसी गतिविधियाँ चलायीं जो वाणिज्यिक (कमर्शियल) प्रकृति की थीं।
बोर्ड एक संप्रभु निकाय है जिसे जनता के लिए बिजली पैदा करने और वितरित करने का काम सौंपा गया है। इसे अपने कार्यों को पूरा करने के उद्देश्य से कुछ योजनाएं शुरू करने और हाइड्रोलिक सर्वेक्षण करने का भी अधिकार दिया गया था। बोर्ड बिजली उपक्रमों (अंडरटेकिंग्स) पर नियंत्रण रखने के लिए नियम और विनियम भी बना सकता था और इस प्रकार इसे अनुच्छेद 12 के तहत एक ‘अन्य प्राधिकरण’ माना गया था।
एजस्डेम जेनेरिस के सिद्धांत के अनुप्रयोग के संबंध में, न्यायालय ने माना कि इस सिद्धांत को अनुच्छेद 12 की व्याख्या करते समय लागू नहीं किया जा सकता है। इस सिद्धांत के आवेदन पत्र के लिए, अनुच्छेद 12 में सूचीबद्ध निकायों के बीच एक ‘विशिष्ट जीनस’ या कुछ समानता होनी चाहिए। चूंकि अनुच्छेद 12 में उल्लिखित निकायों का कोई जीनस नहीं है, इसलिए अनुच्छेद 12 की व्याख्या करते समय एजस्डेम जेनेरिस के सिद्धांत को लागू नहीं किया जा सकता है।
सुखदेव सिंह बनाम भगतराम (1975)
तथ्य
इस मामले में, याचिकाकर्ता, जो एक वैधानिक निगम का कर्मचारी था, को सेवा से बर्खास्त कर दिया गया था। उन्होंने यह कहते हुए सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया कि निष्कासन संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है।
मुद्दा
न्यायालय को यह निर्धारित करना था कि जीवन बीमा निगम, ऑयल एंड नेचुरल गैस कॉरपोरेशन और इंडस्ट्रियल फाइनेंस कॉरपोरेशन जैसे वैधानिक निगमों को ‘राज्य’ माना जा सकता है।
फैसला
सर्वोच्च न्यायालय ने 4:1 के बहुमत से, अनुच्छेद 12 के अंतर्गत तीन वैधानिक निगमों को राज्य माना। न्यायालय ने माना कि तीन निगम राज्य की एजेंसियां और साधन हैं। उनके पास बाध्यकारी नियम बनाने और राज्य को उसके कार्यों के निर्वहन में सहायता करने की शक्ति है। सरकार इन निगमों पर व्यापक नियंत्रण भी रखती है।
मतभेद
अपनी असहमति में, न्यायमूर्ति अलागिरीस्वामी ने कहा कि वैधानिक निगमों द्वारा बनाए गए नियमों और सामान्य निगमों द्वारा बनाए गए नियमों के बीच कोई अंतर नहीं है। चूँकि निगम संप्रभु कार्य नहीं करते हैं, इसलिए उन्हें अनुच्छेद 12 के तहत एक राज्य के रूप में नहीं माना जा सकता है।
अजय हसिया बनाम खालिद मुजीब (1980)
तथ्य
इस मामले में, एक इंजीनियरिंग कॉलेज का प्रबंधन एक सोसायटी द्वारा किया जाता था जो जम्मू और कश्मीर सोसायटी पंजीकरण अधिनियम, 1898 के तहत पंजीकृत थी। कॉलेज में प्रवेश के लिए आवेदन करने वाले उम्मीदवारों में से एक को इंटरव्यू के लिए बुलाया गया था। इंटरव्यू में उनसे उनके माता-पिता और निवास के बारे में सवाल पूछे गए। इन प्रश्नों का उस विषय से कोई संबंध नहीं था जिसके लिए इंटरव्यू आयोजित किया जा रहा था। इसके बाद, उम्मीदवार ने इंटरव्यू प्रक्रिया को मनमाना और संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन बताते हुए चुनौती दी।
मुद्दा
न्यायालय को यह निर्धारित करना था कि अधिनियम के तहत पंजीकृत सोसायटी अनुच्छेद 12 के अर्थ के तहत एक राज्य बनने के योग्य है या नहीं।
फैसला
सर्वोच्च न्यायालय की 5-न्यायाधीशों की पीठ ने सर्वसम्मति से माना कि कॉलेज का संचालन करने वाली सोसायटी अनुच्छेद 12 के तहत राज्य थी और यह माना कि सोसायटी राज्य का एक साधन थी। यह बात अप्रासंगिक थी कि न्यायिक व्यक्ति को कैसे अस्तित्व में लाया गया। जो कारक प्रासंगिक था वह उद्देश्य था जिसके लिए कॉलेज का गठन किया गया था।
कॉलेज का संचालन करने वाली सोसायटी एक क़ानून के तहत पंजीकृत थी। सरकार ने सोसायटी के कामकाज पर नियंत्रण रखा। इस प्रकार, सोसायटी सरकार की एक एजेंसी थी।
ज़ी टेलीफिल्म्स बनाम भारत संघ और अन्य (2005)
तथ्य
इस मामले में, मुद्दा यह था कि क्या भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (बीसीसीआई), तमिलनाडु सोसायटी पंजीकरण अधिनियम, 1975 के तहत पंजीकृत एक राज्य है या नहीं।
विवाद
याचिकाकर्ता ने दलील दी थी कि बीसीसीआई को एक राज्य माना जाना चाहिए। बीसीसीआई को क्रिकेट पर एकाधिकार नियंत्रण प्राप्त है, जो भारत में एक प्रमुख खेल है। बीसीसीआई द्वारा चुनी गई टीम को भारतीय टीम कहा जाता है जो भारतीय राष्ट्रीय ध्वज पहनती है और अंतरराष्ट्रीय टूर्नामेंटों में देश का प्रतिनिधि मानी जाती है। बीसीसीआई अपनी अनुशासनात्मक शक्तियों का प्रयोग करते हुए क्रिकेटरों को खेलने से भी रोक सकता है। याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि चूंकि बीसीसीआई खिलाड़ियों के मौलिक अधिकारों को प्रभावित कर सकता है, जिन्हें देश का प्रतिनिधि माना जाता है, इसलिए इसे अनुच्छेद 12 के तहत एक राज्य माना जाना चाहिए।
फैसला
सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि सरकार के पास न तो बीसीसीआई का कोई बड़ा हिस्सा है और न ही वह इसके प्रबंधन और मामलों पर कोई गहरा या व्यापक नियंत्रण रखती है। बीसीसीआई की स्थापना किसी क़ानून द्वारा नहीं की गई थी और यह सरकार की एजेंसी के रूप में कार्य नहीं करती है।
न्यायालय ने माना कि बीसीसीआई को अनुच्छेद 12 के तहत एक राज्य के रूप में नहीं माना जा सकता है। इस प्रकार, यदि बीसीसीआई किसी व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है, तो अनुच्छेद 32 के तहत एक रिट याचिका सुनवाई योग्य नहीं होगी क्योंकि अनुच्छेद 32 को केवल तभी लागू किया जा सकता है जब राज्य किसी भी व्यक्ति के मौलिक अधिकार का उल्लंघन करता है। मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के लिए बीसीसीआई के खिलाफ कार्रवाई संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत की जाएगी।
जीतरानी उदगाता बनाम भारत संघ (2021)
तथ्य और मुद्दा
इस मामले में, याचिकाकर्ता रत्न और आभूषण निर्यात संवर्धन परिषद (जेम्स एंड ज्वैलरी एक्सपोर्ट प्रमोशन काउंसिल) (जीजेईपीसी) की कर्मचारी थी और परिषद ने उसकी सेवा समाप्त कर दी थी। याचिकाकर्ता ने मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होने के आधार पर समाप्ति नोटिस को चुनौती दी।
दिल्ली उच्च न्यायालय के समक्ष मुद्दा यह था कि क्या जीजेईपीसी को अनुच्छेद 12 के तहत एक राज्य माना जा सकता है।
फैसला
न्यायालय ने कहा कि आधुनिक समय में कल्याणकारी राज्य की अवधारणा इस हद तक विकसित हो गई है कि लगभग हर निगम और संस्था राज्य के नियंत्रण के अधीन है। इस प्रकार, यह निर्धारित करते समय कि क्या किसी संस्था या निगम को राज्य का एक साधन माना जा सकता है, यह विश्लेषण करना आवश्यक है कि क्या राज्य निगम पर व्यापक नियंत्रण रखता है। अकेले वित्तीय सहायता राज्य नियंत्रण का निर्णायक सबूत नहीं हो सकती। राज्य की एक एजेंसी माने जाने के लिए, निगम को पर्याप्त वित्तीय सहायता मिलनी चाहिए और उसे असामान्य राज्य नियंत्रण के अधीन होना चाहिए।
यदि सरकार संस्था को इतनी पर्याप्त वित्तीय सहायता प्रदान करती है जो संस्था के लगभग सभी खर्चों को पूरा करने के लिए पर्याप्त है, तो यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि संस्था अनुच्छेद 12 के तहत एक राज्य है।
न्यायालय ने कहा कि जीजेईपीसी महज रत्न और आभूषण निर्यातकों का एक संघ है। यह केवल निर्यातकों की सामूहिक समस्याओं को सरकार के समक्ष रखता है। इस प्रकार, परिषद सरकार के नीतिगत निर्णयों में कोई भूमिका नहीं निभाती है।
अंत में, न्यायालय ने कहा कि भले ही सरकार परिषद को कुछ वित्तीय सहायता प्रदान करती है, लेकिन सहायता केवल कुछ विशिष्ट उद्देश्यों के लिए ही दी जाती है। सरकार यह निगरानी करने के लिए ज़िम्मेदार है कि धनराशि का उपयोग केवल उसी उद्देश्य के लिए किया जाता है जिसके लिए उन्हें दिया गया है। केवल इसलिए कि सरकार के पास परिषद की वित्तीय पुस्तकों का निरीक्षण करने की शक्ति है, यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता है कि सरकार परिषद के कामकाज पर व्यापक नियंत्रण रखती है।
इस प्रकार, न्यायालय ने माना कि जीजेईपीसी अनुच्छेद 12 के दायरे में एक राज्य नहीं है और याचिका खारिज कर दी।
शाइनी जॉर्ज अम्बाट बनाम भारत संघ (2023)
तथ्य
इस मामले में, याचिकाकर्ता भारतीय प्रबंधन संस्थान (आईआईएम), कोझिकोड के मुख्य वित्त अधिकारी थे। उन्हें सेवा से बर्खास्त कर दिया गया क्योंकि संस्थान प्रशासन ने उनका प्रदर्शन असंतोषजनक पाया। इसके बाद, याचिकाकर्ता ने अनुच्छेद 226 के तहत केरल उच्च न्यायालय के अधिकार क्षेत्र का इस्तेमाल किया और आईआईएम कोझिकोड के फैसले को चुनौती दी।
मुद्दा
केरल उच्च न्यायालय के समक्ष मुद्दा यह था कि क्या आईआईएम कोझिकोड को राज्य का एक साधन माना जा सकता है। न्यायालय को यह निर्धारित करना था कि अनुच्छेद 226 के तहत रिट याचिका सुनवाई योग्य है या नहीं।
फैसला
न्यायालय ने कहा कि आईआईएम कोझिकोड एक स्वायत्त निकाय है जिसे भारतीय प्रबंधन संस्थान अधिनियम, 2007 के तहत स्थापित किया गया है। संस्थान को न तो एकाधिकार का दर्जा प्राप्त था और न ही इसके लिए कोई क़ानून बनाया गया था। संस्था को पहले एक सोसायटी के रूप में पंजीकृत किया गया था और 2007 का अधिनियम केवल सोसायटी के कामकाज को अधिनियम के दायरे में लाता है।
केंद्र सरकार का संस्थान के आंतरिक प्रबंधन पर कोई प्रभावी नियंत्रण नहीं है। हालाँकि संस्थान को सरकार से कुछ वित्तीय सहायता मिलती है, लेकिन इसे पर्याप्त वित्तीय सहायता नहीं कहा जा सकता है, और संस्थान के अधिकांश खर्च उसके स्वयं के राजस्व से पूरे होते हैं।
अंत में, न्यायालय ने पाया कि संस्था के कर्मचारियों के आचरण को विनियमित करने के लिए सरकार द्वारा कोई वैधानिक नियम निर्धारित नहीं थे। कर्मचारियों की सेवाएँ राज्य द्वारा विनियमित नहीं थीं। भले ही संस्था को अपने खाते भारत के लेखा परीक्षक और महानियंत्रक (ऑडिटर एंड कंट्रोलर जनरल ऑफ इंडिया) को प्रस्तुत करने और किसी भी अचल संपत्ति को हस्तांतरित (ट्रांसफर) करने से पहले सरकार की पूर्व मंजूरी प्राप्त करने की आवश्यकता होती है, इसे राज्य द्वारा व्यापक नियंत्रण माना जा सकता है।
उच्च न्यायालय ने इस प्रकार निष्कर्ष निकाला कि आईआईएम कोझिकोड राज्य का एक साधन नहीं है और यह अनुच्छेद 12 के दायरे में नहीं आता है। रिट याचिका को न्यायालय ने खारिज कर दिया था।
एजस्डेम जेनेरिस क्या है
एजस्डेम जेनेरिस एक संवैधानिक कानून सिद्धांत है जिसका तात्पर्य ‘समान प्रकार’ से है। इसका मतलब यह है कि जब सामान्य शब्दों के बाद विशिष्ट शब्द आते हैं, तो सामान्य शब्दों की व्याख्या केवल उन वस्तुओं और चीजों को शामिल करने के लिए की जानी चाहिए जो विशिष्ट शब्दों में गिनाई गई हैं। हालाँकि, अगर अदालत को पता चलता है कि कानून बनाने वाले का इरादा क़ानून को व्यापक अर्थ देने का है, तो वह सामान्य शब्दों की व्यापक व्याख्या कर सकता है।
एजस्डेम जेनेरिस व्याख्या का एक सिद्धांत है जिसे कई न्यायालयों में मान्यता प्राप्त है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 12 की व्याख्या भी इसी सिद्धांत के आलोक में की गई है।
नॉट बनाम ब्लैकबर्न (1944) के अंग्रेजी मामले में, वैग्रेंसी एक्ट, 1824 में प्रावधान किया गया था कि यदि कोई व्यक्ति किसी गैरकानूनी उद्देश्य के लिए, किसी भी आवासीय घर, गोदाम, कोच-हाउस, अस्तबल या आउटहाउस या किसी भी संलग्न यार्ड, उद्यान या क्षेत्र पर पाया जाता है, तो ऐसे व्यक्ति को कानून के तहत दुष्ट माना जाएगा। यह मुद्दा किंग की पीठ के समक्ष आया कि क्या रेलवे साइडिंग अधिनियम के प्रावधानों के अंतर्गत आएगी। न्यायालय ने एजस्डेम जेनेरिस के सिद्धांत को लागू किया और माना कि यह प्रावधान केवल उन स्थानों पर लागू होगा जो बगीचे या यार्ड के समान हैं।
अनुच्छेद 12 में एजस्डेम जेनेरिस सिद्धांत की प्रयोज्यता (एप्लीकेशन) का मुद्दा उज्जम बाई बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1961) के मामले में न्यायपालिका के सामने आया। याचिकाकर्ताओं ने कहा कि अभिव्यक्ति ‘अन्य प्राधिकारी’ एक सामान्य अभिव्यक्ति है जो केंद्र और राज्य विधानसभाओं और संघ और राज्य कार्यकारी जैसे विशिष्ट शब्दों के बाद आती है। इस प्रकार, अभिव्यक्ति ‘अन्य प्राधिकरण’ की व्याख्या एजस्डेम जेनेरिस के सिद्धांत के प्रकाश में की जानी चाहिए। हालाँकि, न्यायमूर्ति अय्यंगार ने कहा कि अनुच्छेद 12 के तहत संदर्भित प्राधिकरण के बीच कोई समानता नहीं थी।
इस प्रकार, एजस्डेम जेनेरिस के सिद्धांत को अनुच्छेद 12 पर लागू नहीं किया जा सकता है। अभिव्यक्ति ‘अन्य प्राधिकरण’ की व्यापक अर्थ में व्याख्या की गई थी और सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि यह एक अवशिष्ट अभिव्यक्ति थी जिसमें राज्य द्वारा स्थापित सभी साधन शामिल होंगे। इसका उद्देश्य अपने कार्यों का निर्वहन करना और इसके द्वारा अधिनियमित कानूनों को लागू करना है।
निष्कर्ष
भारत का संविधान न केवल नागरिकों को मौलिक अधिकार देता है बल्कि राज्य पर यह कर्तव्य भी लगाता है कि वह मौलिक अधिकारों की रक्षा सुनिश्चित करे। न्यायालय ने अपनी व्याख्याओं के माध्यम से राज्य शब्द के दायरे को व्यापक बनाते हुए विभिन्न वैधानिक और गैर-वैधानिक निकायों को अपनी छत्रछाया में शामिल कर लिया है।
यह निर्धारित करने की आवश्यकता है कि राज्य के अर्थ में क्या आता है, उस पक्ष को सौंपना है जिस पर इस तरह के अधिकार को लागू करने का कर्तव्य रखा गया है। इतना ही नहीं, अनुच्छेद 12 के तहत राज्य की परिभाषा में ऐसे कई शब्द हैं जिनके निश्चित अर्थ नहीं हो सकते हैं, स्थानीय प्राधिकरण, सरकार का नियंत्रण, अन्य प्राधिकरण इत्यादि जैसे शब्द और जैसा कि उपरोक्त अनुभागों में देखा गया है, अदालतों ने इसके माध्यम से अपने निर्णयों के दौरान, एक परीक्षण करके और शब्दों के अर्थ पर चर्चा करके लेख की सीमा का वर्णन किया।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)
क्या अनुच्छेद 12 के तहत राज्य की परिभाषा संविधान के अन्य अनुच्छेदों पर भी लागू होती है?
यह ध्यान रखना उचित है कि अनुच्छेद 12 मौलिक अधिकारों को लागू करने के उद्देश्य से राज्य को परिभाषित करता है। इस प्रकार, मौलिक अधिकारों की अधिकतम सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए अभिव्यक्ति की उदारतापूर्वक (लिबरल) व्याख्या करना आवश्यक है। हालाँकि, राज्य की समान उदार व्याख्या को संविधान के अन्य अनुच्छेदों तक विस्तारित नहीं किया जा सका। इस प्रकार, अनुच्छेद 12 के बाहर प्रयुक्त अभिव्यक्ति ‘राज्य’ की व्याख्या अनुच्छेद 12 के मामले में उतनी उदारतापूर्वक और समावेशी रूप से नहीं की जा सकती है।
संदर्भ