भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा आईबीसी 2016 की धारा 7(5)(a) की व्याख्या

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Insolvency and Bankruptcy Code

यह लेख कॉरपोरेट लिटिगेशन में डिप्लोमा कर रहे Prasanth M द्वारा लिखा गया है और इसे Oishika Banerji (टीम लॉसिखो) द्वारा संपादित किया गया है। इस लेख में भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा आईबीसी 2016 की धारा 7(5)(a) की व्याख्या और इससे संबंधित मामलों पर चर्चा की गई है। इस लेख का अनुवाद Sakshi Gupta के द्वारा किया गया है।

परिचय

जब कोई कंपनी या सीमित दायित्व भागीदारी (लिमिटेड लायबिलिटी पार्टनरशिप / एलएलपी) बैंक या वित्तीय संस्थान से ऋण उधार लेती है और ऐसे ऋण को चुकाने में चूक करती है तो ऐसी परिस्थितियों में ऐसे बैंक या वित्तीय संस्थान या तो स्वयं या अन्य लेनदारों के साथ मिलकर उल्लंघन करने वाली कंपनी या एलएलपी के खिलाफ कॉर्पोरेट दिवाला (इंसोलवेंसी) समाधान प्रक्रिया (सीआईआरपी) शुरू कर सकते हैं। दिवाला और शोधन अक्षमता (बैंकरुप्सी) संहिता, 2016 (आईबीसी) की धारा 7 का सार भी यही है। जब किसी वित्तीय ऋणदाता यानी बैंक या वित्तीय संस्थान द्वारा किसी उल्लंघन के संबंध में दिए गए आवेदन को राष्ट्रीय कंपनी कानून न्यायाधिकरण (नेशनल कंपनी लॉ ट्रिब्यूनल) एनसीएलटी द्वारा स्वीकार कर लिया जाता है, तो सीआईआरपी शुरू की गई मानी जाती है। इसका तात्पर्य यह है कि उल्लंघन करने वाली कंपनी का प्रबंधन उसके निदेशकों (डायरेक्टर) से हटकर दिवाला पेशेवर के पास चला जाता है जो कंपनी के मामलों का प्रबंधन करेगा और इस संहिता के प्रावधानों के अनुसार अपने सभी कर्तव्य का पालन करेगा। यह लेख विशेष रूप से आईबीसी की धारा 7(5)(a) पर प्रकाश डालता है जो निर्णायक प्राधिकारी (अथॉरिटी) को सीआईआरपी शुरू करने के लिए वित्तीय ऋणदाता के आवेदन को स्वीकार करने की विवेकाधीन शक्ति प्रदान करता है।

दिवाला और शोधन अक्षमता संहिता, 2016 की धारा 7(5)(a) पर एक अंतर्दृष्टि

सबसे पहले, एक उल्लंघन का गठन करने के लिए ऋण का, पूर्ण या उसके किसी भी हिस्से का भुगतान नहीं किया जाना चाहिए जो देय हो जाता है, और जिसका कॉर्पोरेट देनदार यानी कंपनी या एलएलपी द्वारा भुगतान नहीं किया जाता है।

दूसरे, आवेदन को धारा 7(2) के तहत निहित प्रावधान को पूरा करना होगा जो “दिवाला और शोधन अक्षमता (निर्णयन प्राधिकारी के लिए आवेदन) नियम, 2016” के तहत निर्धारित फॉर्म, तरीके, शुल्क के बारे में बात करता है।

अंत में प्रस्तावित अंतरिम (इंटरिम) समाधान पेशेवर के खिलाफ भारतीय दिवाला और शोधन अक्षमता बोर्ड, जो कि आईपी का नियामक प्राधिकरण है, के पास कोई अनुशासनात्मक कार्यवाही लंबित नहीं होनी चाहिए।

आईबीसी 2016 की धारा 7(5)(a) की व्याख्या करते हुए सर्वोच्च न्यायालय का फैसला

हाल ही में 12 जुलाई 2022 को सर्वोच्च न्यायालय ने विदर्भ इंडस्ट्रीज पावर लिमिटेड बनाम एक्सिस बैंक लिमिटेड (2022) के एक फैसले के अनुसार, किसी कॉर्पोरेट देनदार द्वारा ऋण के अस्तित्व और उल्लंघन की जांच करते समय निर्णय लेने वाले प्राधिकारी के पास, दिवाला और शोधन अक्षमता संहिता, 2016 की धारा 7 के तहत प्रस्तुत सीआईआरपी आवेदन को स्वीकार या अस्वीकार करने का विवेक है। एक वित्तीय ऋणदाता द्वारा किए गए दावों की स्वीकृति को संहिता की धारा 7(5) में संबोधित किया गया है, जबकि एक परिचालन (ऑपरेशनल) ऋणदाता द्वारा दायर दावों की स्वीकृति को धारा 9(5) में संबोधित किया गया है। इस फैसले के साथ-साथ कुछ और भी हैं जहां प्रावधान की व्याख्या ने सबका ध्यान खींचा है। उसी पर नीचे चर्चा की गई है।

विदर्भ इंडस्ट्रीज पावर लिमिटेड बनाम एक्सिस बैंक लिमिटेड (2022)

मामले के तथ्य

विदर्भ इंडस्ट्रीज महाराष्ट्र विद्युत (इलेक्ट्रिसिटी) नियामक (रेगुलेटरी) आयोग के साथ पंजीकृत एक पावर उत्पादन कंपनी है। एक्सिस बैंक लिमिटेड ने सीआईआरपी शुरू करने के लिए एनसीएलटी, मुंबई के समक्ष आईबीसी की धारा 7(2) के तहत एक आवेदन दायर किया।

विदर्भ इंडस्ट्रीज ने संहिता की धारा 7 के तहत कार्यवाही पर रोक लगाने के लिए एनसीएलटी, मुंबई के समक्ष एक आवेदन दायर किया, जिसमें कहा गया कि विदर्भ इंडस्ट्रीज द्वारा एक्सिस बैंक लिमिटेड पर 700/- करोड़ रुपए का वित्तीय ऋण बकाया था, जबकि विद्युत अपीलीय न्यायाधिकरण (ट्रिब्युनल) के एक आदेश के आधार पर विदर्भ इंडस्ट्रीज 1730 करोड़ रुपये की राशि का हकदार था और उक्त आदेश पर अपील भारत के सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष लंबित थी।

एनसीएलटी, मुंबई और एनसीएलएटी दोनों ने केवल  वित्तीय ऋण और एक उल्लंघन की उपस्थिति थी को ध्यान में रखते हुए धारा 7(5)(a) के तहत कार्यवाही पर रोक लगाने के आवेदन को खारिज कर दिया। हालाँकि, एनसीएलएटी के आदेश के खिलाफ विदर्भ इंडस्ट्रीज द्वारा भारत के सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष एक अपील दायर की गई थी।

मामले का मुद्दा

सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष मुद्दा यह था कि क्या धारा 7(5)(a) के प्रावधान विवेकाधीन या अनिवार्य प्रकृति के हैं।

निर्णय और विश्लेषण

सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि विधायिका ने अपने विवेक से, संहिता की धारा 7(5)(a) में अभिव्यक्ति “हो सकता है” का उपयोग करने का विकल्प चुना है। यह बताया गया की यदि एनसीएलटी संतुष्ट है कि कोई उल्लंघन हुआ है और वित्तीय ऋणदाता द्वारा किया गया आवेदन पूरा हो गया है और प्रस्तावित अंतरिम समाधान पेशेवर के खिलाफ कोई अनुशासनात्मक कार्यवाही लंबित नहीं है, तो एनसीएलटी आवेदन स्वीकार कर सकता है।

सर्वोच्च न्यायालय ने आगे कहा कि धारा 9(5) जो परिचालन ऋणदाता द्वारा किए गए आवेदन को संदर्भित करती है, वह अनिवार्य प्रकृति की है। हालाँकि, धारा 7(5)(a) के तहत एक वित्तीय ऋणदाता द्वारा दायर आवेदन के मामले में, एनसीएलटी को कॉर्पोरेट देनदार की समग्र वित्तीय स्थिरता और व्यवहार्यता (वियबिलिटी) सहित सभी प्रासंगिक तथ्यों और परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए, सीआईआरपी की शुरुआत की उपयुक्तता की जांच करनी होगी।

सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि एनसीएलटी और राष्ट्रीय कंपनी कानून अपीलीय न्यायाधिकरण (एनसीएलएटी) दोनों ने यह मानने में गलती की है कि एक बार जब यह पाया जाता है कि ऋण मौजूद है, और कॉर्पोरेट देनदार ऋण के भुगतान में उल्लंघन कर रहा है, तो एनसीएलटी के पास संहिता की धारा 7 के तहत याचिका स्वीकार करने के अलावा कोई विकल्प नहीं होगा। सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि एनसीएलटी और एनसीएलएटी दोनों ने अपीलकर्ता के मामले को खारिज कर दिया है, जबकि 1,730 करोड़ रुपये की राशि वसूली योग्य थी।

सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि आईबीसी का उद्देश्य सीआईआरपी शुरू करके अस्थायी उल्लंघन के लिए श्रण मुक्त कंपनियों को दंडित करना नहीं है। आगे यह देखा गया कि निर्णायक प्राधिकारी आईबीसी की धारा 7(5)(a) के तहत विवेकाधीन शक्ति का उपयोग मनमाने ढंग से या स्वेच्छा से नहीं करेगा।

सर्वोच्च न्यायालय के फैसले ने कॉर्पोरेट देनदार द्वारा विभिन्न बचावों के लिए मार्ग प्रशस्त (पेव) किया है, खासकर जहां कोई मुकदमा लंबित हो और जिसमें आदेश या पंचाट (अवॉर्ड) का नतीजा कॉर्पोरेट देनदार के उल्लंघन को रद्द कर देगा जिसके तहत सीआईआरपी शुरू करने का इरादा है।

के परमसिवम बनाम करूर वैश्य बैंक लिमिटेड और अन्य (2022)

यह एक और मामला है जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने आईबीसी की धारा 7 के प्रावधान को समझने पर बेहतर स्पष्टीकरण प्रदान करने का प्रयास किया है।

मामले के तथ्य

इस मामले का संक्षिप्त तथ्य यह है कि करूर वैश्य बैंक लिमिटेड ने (i) श्री महाराजा रिफाइनरीज, एक भागीदारी फर्म; (ii) श्री महाराजा इंडस्ट्रीज, के परमसिवम की स्वामित्व वाली कंपनी; और (iii) श्री महाराजा एंटरप्राइजेज, पी. सथियामूर्ति की स्वामित्व वाली कंपनी को ऋण दिया और उपरोक्त सभी श्रेय की गारंटी महाराजा थीम पार्क और रिसॉर्ट्स प्राइवेट लिमिटेड द्वारा दी जाती है। अपील का आधार यह था कि महाराजा थीम पार्क और रिसॉर्ट्स प्राइवेट लिमिटेड आईबीसी की धारा 3(8) के तहत परिभाषित दायरे में कॉर्पोरेट देनदार नहीं है और न ही वह आईबीसी की धारा 5(5A) के तहत परिभाषित गारंटर है।

मामले का मुद्दा

यहां मुद्दा यह था कि क्या एक वित्तीय ऋणदाता मुख्य उधारकर्ता के खिलाफ कार्रवाई किए बिना गारंटर के खिलाफ सीआईआरपी प्रक्रिया शुरू कर सकता है। दूसरे शब्दों में, क्या गारंटर की देनदारी प्रिंसिपल उधारकर्ता की देनदारी के साथ सह-व्यापक (को एक्सटेंसिव) है।

मामले का फैसला

सर्वोच्च न्यायालय ने लक्ष्मी पाट सुराणा बनाम यूनियन बैंक ऑफ इंडिया और अन्य (2020) के सुस्थापित तीन पीठ के फैसले पर भरोसा किया। जिसमें यह माना गया था कि कॉर्पोरेट देनदार के खिलाफ कार्यवाही किए बिना भी व्यक्तिगत गारंटर के खिलाफ सीआईआरपी शुरू की जा सकती है और गारंटर की देनदारी कॉर्पोरेट देनदार के जैसे संयुक्त रूप से और अलग-अलग भी है।

ई एस कृष्णमूर्ति और अन्य बनाम मेसर्स भारती टेक बिल्डर्स (2021)

मामले के तथ्य

इस मामले का संक्षिप्त तथ्य यह था कि मेसर्स भारत हाई टेक बिल्डर्स रियल एस्टेट परियोजनाओं (प्रोजेक्ट) के निर्माण के व्यवसाय में लगा हुआ था, जिसने निर्धारित समय के भीतर आवंटित भूखंडों का निर्माण और पंजीकरण (रजिस्ट्रेशन) करने का वादा किया था, ऐसा न करने पर आवंटी (अलोटी) ब्याज सहित संपूर्ण राशि पाने के हकदार थे। निर्माता दायित्व का पालन करने में विफल रहा और इसलिए आवंटियो ने आईबीसी की धारा 7 के तहत एक आवेदन दायर किया। निर्माता का कहना था कि आवंटियों के साथ समझौते की प्रक्रिया चल रही है।

मामले का मुद्दा

इस वर्तमान मामले में सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष अंतर्निहित मुद्दा यह है कि क्या निर्णायक प्राधिकारी आईबीसी की धारा 7 के तहत दायर याचिका को इस आधार पर खारिज कर सकता है कि पक्ष इस मुद्दे को अदालत के बाहर सुलझाने का प्रयास कर रहे थे।

मामले का फैसला

इस मामले में एनसीएलटी ने पक्षों को विवाद को सुलझाने के लिए 3 महीने की समय सीमा प्रदान की थी क्योंकि समझौता चल रहा था और यदि अन्यथा, पक्षों को अपील दायर करने और आईबीसी की धारा 7 के तहत दायर याचिका को खारिज करने की अनुमति दी गई थी। याचिकाकर्ता ने एनसीएलटी के आदेश के खिलाफ एनसीएलएटी में अपील की जिसने फैसले को बरकरार रखा। सर्वोच्च न्यायालय ने आईबीसी की धारा 7(5) के प्रावधान की शाब्दिक व्याख्या की और कहा कि एनसीएलटी या एनसीएलएटी याचिका स्वीकार कर भी सकता है और नहीं भी, हालांकि पक्षों को अदालत से बाहर समझौता करने के लिए संदर्भित करने का कोई कानून नहीं है।

निष्कर्ष

जैसा कि हमने चर्चा किए गए मामलों में देखा है, सर्वोच्च न्यायालय ने समय-समय पर अपने विभिन्न निर्णयों में धारा 7(5)(a) की व्याख्या की है और यह अब एक अच्छी तरह से स्थापित कानून का भाग है। सीआईआरपी का उद्देश्य धन वसूली नहीं है, बल्कि कॉर्पोरेट देनदार को उसके डूबते व्यवसाय को पुनर्जीवित करने में सहायता करना है और इस तरह बड़े पैमाने पर हितधारक और जनता प्रभावित नहीं होती है।

 

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