सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 के तहत प्रांन्याय

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Civil Procedure Code

यह लेख Yogesh Sharma और Arpit Sarangi द्वारा लिखा गया है। इस लेख में सिविल प्रक्रिया संहिता के तहत प्रांन्याय (रेस ज्यूडिकाटा), इसके अपवाद और इसकी खामियों के बारे मे विस्तार से चर्च की गई है। इस लेख का अनुवाद Sakshi Gupta के द्वारा किया गया है।

Table of Contents

प्रांन्याय के सिद्धांत की उत्पत्ति

प्रांन्याय का सिद्धांत दुनिया के इतिहास में सबसे पुराने सिद्धांतों में से एक है। प्रांन्याय “उतना ही पुराना है जितना स्वयं कानून” है। “रेस ज्यूडिकाटा प्रो वेरिटेट एक्सीपिटर” प्रांन्याय के सिद्धांत के लिए लैटिन कहावत है। प्रांन्याय के सिद्धांत की जड़ें विभिन्न प्राचीन कानूनी प्रणालियों में पाई जा सकती हैं। रोमनवादी दृष्टिकोण प्रांन्याय के विकास को मुद्दे के बहिष्कार से दावे के बहिष्कार तक बदल देता है।

इंग्लैंड के शुरुआती दिनों में अदालतें अव्यवस्थित और अविकसित थीं और प्रांन्याय जैसी अवधारणा का कोई अस्तित्व नहीं था। लेकिन इसके बाद इंग्लैण्ड में प्रांन्याय का सिद्धांत उभरा। प्रारंभिक चरणों में, इंग्लैंड की अदालतें विदेशी उपमाओं (एनालॉजीज) का उपयोग कर रही थीं, लेकिन बाद में अदालत ने इसे संशोधित किया और प्रांन्याय के अपने सिद्धांत का मसौदा तैयार किया।

भारतीय कानूनी प्रणाली ने सामान्य कानून से प्रांन्याय के सिद्धांत को अपनाया। प्रांन्याय के सिद्धांत को सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 11 में शामिल किया गया था। सिविल प्रक्रिया संहिता के बाद, प्रशासनिक कानून ने प्रांन्याय की प्रयोज्यता (एप्लीकेबिलिटी) को स्वीकार कर लिया। बाद में, इसे अन्य क़ानूनों और अधिनियमों द्वारा स्वीकार कर लिया गया और भारतीय कानूनी प्रणाली में प्रांन्याय का सिद्धांत बढ़ने लगा।

प्रांन्याय का सिद्धांत 3 रोमन कहावतों से उत्पन्न हुआ है:

  1. निमो डेबेट लिस वैक्सरी प्रो ईडेम कॉसा – इसका मतलब है कि किसी भी व्यक्ति को एक ही कारण से दो बार नाराज या परेशान नहीं किया जाना चाहिए;
  2. इंटरेस्ट रिपब्लिके यूट सिट फिनिस लिटियम – इसका मतलब है कि यह राज्य के हित में है कि मुकदमेबाजी का अंत होना चाहिए; और
  3. रेस ज्यूडिकाटा प्रो वेरिटेट एक्सीपिटर – इसका मतलब है कि न्यायालय के निर्णय को सत्य माना जाना चाहिए।

प्रांन्याय का अर्थ

अंग्रेजी में प्रांन्याय को रेस ज्यूडिकाटा कहा जाता है जिसमे रेस का अर्थ है “विषय वस्तु” और ज्यूडिकाटा का अर्थ है “निर्णय दिया गया” या निर्णय लिया गया और साथ में इसका अर्थ है “निर्णय दिया गया मामला”।

सरल शब्दों में, मामले का निर्णय न्यायालय द्वारा पहले ही किया जा चुका है, यानी जो मुद्दा है उसका निर्णय पहले ही एक न्यायालय के समक्ष और उन्हीं पक्षों के बीच किया जा चुका है। इसलिए, अदालत मामले को खारिज कर देगी क्योंकि इसका निर्णय किसी अन्य अदालत द्वारा किया गया है। प्रांन्याय का सिद्धांत सिविल और आपराधिक दोनों कानूनी प्रणालियों पर लागू होता है। किसी भी ऐसे वाद पर दोबारा मुकदमा नहीं चलाया जा सकता जिस पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से किसी पूर्व वाद में मुकदमा चलाया गया हो

प्रांन्याय के उदाहरण

  • ‘A’ ने ‘B’ पर वाद दायर किया क्योंकि उसने किराया नहीं चुकाया था। ‘B’ ने जमीन पर किराया कम करने का अनुरोध किया क्योंकि भूमि का क्षेत्रफल पट्टे (लीज) पर उल्लिखित मात्रा से कम था। न्यायालय ने पाया कि क्षेत्रफल पट्टे में दर्शाये गये क्षेत्रफल से अधिक है। क्षेत्र अतिरिक्त था और इसलिए प्रांन्याय का सिद्धांत लागू नहीं होंगा।
  • एक मामले में, ‘A’ द्वारा नया मुकदमा दायर किया गया था जिसमें प्रतिवादियों ने अनुरोध किया था कि अदालत प्रांन्याय की दलील के साथ मुकदमे को खारिज कर दे। उसे प्रांन्याय का दावा लाने से रोक दिया गया क्योंकि उसका पिछला दावा धोखाधड़ी के कारण खारिज कर दिया गया था। अदालत ने कहा कि प्रांन्याय के बचाव को सबूतों से साबित किया जाना चाहिए।

सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 11 के तहत प्रांन्याय

प्रांन्याय के सिद्धांत को सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 11 में परिभाषित किया गया है। प्रांन्याय के सिद्धांत का मतलब है कि मामले का फैसला पहले ही हो चुका है। इसका मतलब यह है कि किसी भी अदालत के पास किसी भी नए वाद या उन मुद्दों पर सुनवाई करने की शक्ति नहीं होगी जो समान पक्षों के बीच पूर्व वाद में पहले ही तय हो चुके हैं। इसके अलावा, अदालत उन पक्षों के बीच वाद और मुद्दों की सुनवाई नहीं करेगी जिनके तहत वह पक्ष एक ही शीर्षक के तहत मुकदमा कर रहे हैं और सक्षम अदालत द्वारा पहले ही मामले का फैसला और निर्णय लिया जा चुका है। जब अदालत को कोई ऐसा वाद या मुद्दा मिलता है जिसका निर्णय अदालत द्वारा पहले ही किया जा चुका है और किसी भी अदालत में पहले से कोई अपील लंबित नहीं है, तो अदालत के पास प्रांन्याय की डिक्री देकर मामले को निपटाने की शक्ति होती है। यह सिद्धांत इस आधार पर आधारित है कि यदि मामला सक्षम न्यायालय द्वारा पहले ही तय किया जा चुका है तो किसी को भी दुसरे वाद के साथ इसे फिर से खोलने का अधिकार नहीं है। यह समान पक्षों के बीच प्रत्येक बाद के मुकदमे में तय किए गए बिंदुओं पर निर्णय की निर्णायकता (कंक्लूजिवनेस) को भी अधिनियमित करता है। प्रांन्याय का सिद्धांत अदालत द्वारा लागू किया जाता है जहां पूर्व और वर्तमान वाद में समान पक्षों के बीच सीधे और महत्वपूर्ण रूप से शामिल मुद्दे समान होते हैं। उदाहरण के लिए, यह हो सकता है कि पूर्व वाद में संपत्ति का केवल एक हिस्सा शामिल था जबकि वर्तमान या बाद के वाद में पक्षों की पूरी संपत्ति शामिल है, फिर अदालत प्रांन्याय की डिक्री देगी।

पूर्वशर्तों का स्पष्टीकरण

वाद क्या है

सीपीसी में “वाद” शब्द को स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं किया गया है। हालाँकि, सीपीसी की धारा 26 में यह प्रावधान है कि प्रत्येक वाद एक वादपत्र (प्लेंट) की प्रस्तुति या किसी अन्य निर्धारित तरीके से गठित किया जाएगा। आदेश VI में प्रावधान है कि अभिवचन (प्लीडिंग) का अर्थ वादपत्र और लिखित बयान है। वादपत्र का विवरण आदेश VII में निहित है। इसके अलावा, हंसराज गुप्ता और अन्य बनाम देहरादून मसूरी इलेक्ट्रिक ट्रामवे कंपनी लिमिटेड के मामले में प्रिवी काउंसिल द्वारा “वाद” शब्द की व्याख्या एक वादपत्र की प्रस्तुति द्वारा शुरू की गई सिविल कार्यवाही के रूप में की गई थी।

मुद्दा क्या है

सिविल प्रक्रिया संहिता का आदेश XIV निर्णय किए जाने वाले “मुद्दों” के निर्धारण और कानून के मुद्दों पर उनके आगे के निर्धारण से संबंधित है। नियम 1 निम्नानुसार मुद्दों को तैयार करने से संबंधित है: अदालत निम्नलिखित सभी या किसी भी सामग्री से मुद्दों को तैयार कर सकती है”:—

  1. पक्षों द्वारा शपथ पर लगाया गया आरोप या ऐसे पक्षों के वकीलों द्वारा लगाया गया आरोप; 
  2. अभिवचनों में लगाए गए आरोप या वाद में की गई पूछताछ में दिए गए जवाब में लगाए गए आरोप; 
  3. किसी भी पक्ष द्वारा प्रस्तुत दस्तावेजों से जानकारी।

इसके अलावा, कोई मुद्दा तैयार होने के बाद यह तथ्य का मुद्दा, कानून का मुद्दा, या तथ्य और कानून का मिश्रित मुद्दा हो सकता है। मथुरा प्रसाद बाजू जयसवाल और अन्य बनाम डोसीबाई एन.बी. जीजीभोय के मामले में अदालत ने माना है कि सीपीसी की धारा 11 में “मुद्दे में मामला” का मतलब पक्षों के बीच मुकदमेबाजी का अधिकार है यानी वे तथ्य जिन पर अधिकार का दावा किया गया है या अस्वीकार किया गया है और उस मुद्दे के निपटारे के लिए लागू कानून है।

तथ्य का मुद्दा या सक्षम न्यायालय द्वारा तय किए गए मिश्रित कानून और तथ्य का मुद्दा अंततः पक्षों के बीच निर्धारित किया जाता है और किसी अन्य कार्यवाही में उनके बीच दोबारा नहीं खोला जा सकता है। हालाँकि, कानून के किसी मुद्दे पर निर्णय उन्हीं पक्षों के बीच बाद की कार्यवाही में न्यायिक रूप से तभी लिया जाएगा जब:

  1. आगामी कार्यवाही में कार्रवाई का कारण पिछली कार्यवाही के समान ही होगा।
  2. जब पहले के निर्णय के बाद से किसी सक्षम प्राधिकारी (अथॉरिटी) द्वारा कानून में कोई बदलाव नहीं किया गया हो।
  3. जब निर्णय पिछली कार्यवाही की सुनवाई करने वाले न्यायालय के अधिकार क्षेत्र (ज्यूरिस्डिक्शन) से संबंधित नहीं होता है।
  4. पहले का निर्णय उस लेनदेन को वैध घोषित नहीं करता जो कानून द्वारा निषिद्ध है।

एक ही पक्ष के बीच मामला प्रत्यक्ष एवं सारवान् (सब्सटेंशियल) रूप से कब मुद्दे में होता है

धारा 11 के शब्दों में यह प्रावधान है कि यह मुद्दा पूर्व वाद में सारवान् रूप से मुद्दे में होना चाहिए। हालाँकि, यह निर्धारित करने में कठिनाई उत्पन्न हो सकती है कि क्या पूर्व मुकदमे में कोई मुद्दा सारवान् या संपार्श्विक (कोलेटरल) है। वासुदेवानंद सरस्वती बनाम जगत गुरु शंकराचार्य के मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अंतर को समझने के लिए “स्पेंसर बोवर और टर्नर” द्वारा लिखित “प्रांन्याय का सिद्धांत” का हवाला दिया। यह माना गया कि किसी को यह जांचना होगा कि जिस निर्धारण पर रोक लगाने की मांग की गई है वह मूल निर्णय के लिए इतना मौलिक है कि बाद वाला पहले वाले के बिना खड़ा नहीं रह सकता है। इसके अलावा, इस जांच को एक और परीक्षण से गुजरना होगा यानी कि क्या निर्धारण केवल “प्रस्ताव संपार्श्विक या सहायक” के विपरीत निर्णय का “तत्काल आधार” है। इसलिए, यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि क्या सैद्धांतिक मुद्दे पर निर्णय लेने के लिए इस मुद्दे पर निर्णय लेना आवश्यक था, और, क्या निर्णय लिया गया था। इसके अलावा, राघो प्रसाद गुप्ता बनाम कृष्णा पोद्दार के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि किसी ऐसे प्रश्न पर जो मुद्दा नहीं है केवल राय की अभिव्यक्ति, प्रांन्याय के रूप में कार्य नहीं कर सकती है।

यदि मुद्दे के इर्द-गिर्द परिस्थितियाँ बदल जाएँ तो क्या होगा

मवेलिक्कारा पूर्व सैनिक बहुउद्देशीय सहकारी समिति बनाम पार्वती अम्मा राजम्मा के मामले में केरल उच्च न्यायालय ने माना कि प्रांन्याय के तहत विषय वस्तु की पहचान न केवल भौतिक अर्थ में बल्कि न्यायिक अर्थ में भी विषय वस्तु की पहचान है।

कृष्ण कुमार बनाम विमला सहगल के मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा कि जब परिस्थितियाँ बदलती हैं, तो खुद के कब्जे के लिए दूसरी याचिका दायर की जा सकती है, भले ही मकान मालिक का पिछला आवेदन किराया नियंत्रक द्वारा खारिज कर दिया गया हो। इसमें आगे कहा गया:-

1961 में जब मकान मालिक ने पहली याचिका दायर की तो उनकी ज़रूरतें सीमित थीं। उनका बेटा इंग्लैंड से नहीं आया था। उनके बच्चे काफी छोटे थे। ये सभी अब बड़े हो गए हैं। वह खुद 64 साल के शख्स हैं। वह रिटायर हो चुके हैं। इसलिए, यह कहना सही नहीं होगा कि पहली याचिका में निर्णय एक प्रांन्याय के रूप में कार्य करता है, क्योंकि यह जाहिर है, कि परिस्थितियां बदल गई हैं। बदली हुई परिस्थितियों में नई याचिका हमेशा लगाई जा सकती है।

समान पक्षों के बीच, या उन पक्षों के बीच, जिनके तहत वे या उनमें से कोई दावा करता है, एक ही शीर्षक के तहत फिर से मुकदमा करने का क्या मतलब है?

वासुदेवानंद सरस्वती बनाम जगत गुरु शंकराचार्य के मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा कि “समान शीर्षक” का अर्थ समान क्षमता है। परीक्षण यह है कि मुकदमा करने वाला पक्ष कानूनी रूप से वही है या अलग व्यक्ति है। यदि एक ही व्यक्ति एक अलग चरित्र वाला पक्ष है, तो पहले वाले वाद में निर्णय प्रांन्याय के रूप में कार्य नहीं करता है। इसी तरह, यदि दावा किए गए अधिकार अलग-अलग हैं, तो अगला वाद केवल इसलिए प्रांन्याय नहीं होगा क्योंकि संपत्ति समान है। इसलिए, शीर्षक का तात्पर्य कार्रवाई के कारण से नहीं बल्कि वाद करने वाले पक्ष के हित या क्षमता से है।

मुनीश कुमार अग्निहोत्री और अन्य बनाम लल्ली प्रसाद गुप्ता के मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने कहा कि प्रांन्याय का सिद्धांत केवल तभी लागू होगा जब कोई मुद्दा प्रत्यक्ष और सारवान् रूप से उन्हीं पक्षों के बीच या उन पक्षों जिनके तहत वे या उनमें से कोई एक ही शीर्षक के तहत मुकदमा करने का दावा करता है, के बीच पूर्व वाद में हो, उपरोक्त मामले में मुद्दा वही रहा, हालाँकि, पक्षों के शीर्षक भिन्न थे। पहले वाद में, व्यवसाय का दावा उनके पिता के माध्यम से किया गया था, लेकिन बाद के वाद में दावा किया गया कि व्यवसाय संयुक्त परिवार के धन की सहायता से शुरू किया गया था और इसलिए, अपीलकर्ता उक्त व्यवसाय और ऐसे संयुक्त पारिवारिक व्यवसाय निधि से अर्जित संपत्ति के हकदार थे। इसलिए, मुद्दे के समान होने पर भी प्रांन्याय के तर्क को स्वीकार नहीं किया गया।

कोई भी न्यायालय ऐसे दूसरे वाद का निर्धारण करने में सक्षम है, का क्या मतलब है

सीपीसी की धारा 11 में प्रावधान है कि जिस न्यायालय ने पहले वाद का फैसला किया था, वह दूसरे वाद या उस वाद की सुनवाई के लिए सक्षम न्यायालय होना चाहिए जिसमें बाद में ऐसा मुद्दा उठाया गया हो। हालाँकि, राज लक्ष्मी दासी और अन्य बनाम बनमाली सेन और अन्य के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि जब प्रांन्याय की याचिका कानून के सामान्य सिद्धांतों पर आधारित होती है, तो यह स्थापित करना आवश्यक है कि जिस न्यायालय ने पूर्व मामले की सुनवाई की और निर्णय लिया वह सक्षम अधिकार क्षेत्र वाला न्यायालय था। ऐसे मामलों में यह साबित करना आवश्यक नहीं है कि उसके पास बाद के वाद की सुनवाई का अधिकार क्षेत्र है।

प्रांन्याय के सिद्धांत का दायरा

प्रांन्याय का दायरा धारा 11 तक सीमित नहीं है। प्रांन्याय वह सिद्धांत है जो प्रशासनिक कानून, संवैधानिक कानून और आपराधिक मामलों पर भी लागू होता है। यह अन्य कानूनों और अधिनियमों पर भी लागू होता है। श्योप्रसाद सिंह बनाम रामनंदन प्रसाद सिंह, के मामले में सर लॉरेंस जेनकिंस ने प्रांन्याय के नियम को “नियम के रूप में देखा..जबकि प्राचीन मिसाल पर निर्णय एक ज्ञान द्वारा निर्धारित होता है जो सभी समय के लिए है।” दरियाओ बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के मामले में, अदालत ने कहा कि इस नियम के लिए मुकदमेबाजी का कोई अंत नहीं होगा और किसी भी व्यक्ति के लिए कोई सुरक्षा नहीं होगी; कानून की आड़ में होने वाले अंतहीन भ्रम और महान अन्याय में व्यक्ति के अधिकार शामिल हैं। प्रांन्याय का सिद्धांत सार्वजनिक नीति पर आधारित है और इस सिद्धांत का उद्देश्य न केवल एक नए निर्णय को रोकना है, बल्कि एक नई जांच को भी रोकना है ताकि एक ही व्यक्ति को एक ही प्रश्न पर विभिन्न वादों में बार-बार परेशान न किया जा सके।

सीपीसी की धारा 11 के तहत प्रांन्याय की अनिवार्यताएँ

प्रांन्याय की डिक्री देने से पहले निम्नलिखित शर्तों को पूरा किया जाना चाहिए:

  1. दो वाद होने चाहिए एक पूर्व (पहले से तय) वाद और दूसरा बाद का वाद।
  2. पूर्व और बाद के वाद के पक्ष या वे पक्ष जिनके तहत वे या उनमें से कोई दावा करता है, एक ही होने चाहिए।
  3. बाद वाले वाद की विषयवस्तु वास्तव में या रचनात्मक रूप से पहले वाले वाद के समान या संबंधित होनी चाहिए।
  4. मामले का अंतिम निर्णय पक्षों के बीच होना चाहिए।
  5. पूर्व वाद का निर्णय सक्षम न्यायालय द्वारा किया जाना चाहिए।
  6. पहले और बाद के वाद में पक्षों ने एक ही शीर्षक के तहत मुकदमा दायर किया होगा।

प्रांन्याय की याचिका के अपवाद

  1. मूल वाद में निर्णय धोखाधड़ी द्वारा प्राप्त किया गया था – यदि कोई अदालत सोचती है कि पूर्व वाद का निर्णय धोखाधड़ी द्वारा प्राप्त किया गया है, तो प्रांन्याय का सिद्धांत लागू नहीं होता है।
  2. जब पिछली विशेष अनुमति याचिका खारिज कर दी जाती है – जब विशेष अनुमति याचिका बिना निर्णय के खारिज कर दी जाती है तो प्रांन्याय लागू नहीं किया जाना चाहिए। प्रांन्याय के सिद्धांत को प्राप्त करने के लिए, औपचारिक (फॉर्मल) वाद का निर्णय अंतिम रूप से सक्षम न्यायालय द्वारा किया जाना चाहिए।
  3. कार्रवाई का एक अलग कारण – बाद के वाद में कार्रवाई का एक अलग कारण होने पर धारा 11 लागू नहीं की जाएगी। यदि वाद में कार्रवाई के अलग-अलग कारण हों तो अदालत बाद के वाद पर रोक नहीं लगा सकती है।
  4. जब अंतर्वर्ती (इंटरलोक्यूटरी) आदेश होता है – अंतर्वर्ती आदेश न्यायालय द्वारा पारित अंतरिम आदेश, डिक्री या सजा है। जब पूर्व वाद पर एक अंतरिम आदेश पारित किया जाता है तो प्रांन्याय का सिद्धांत लागू नहीं किया जाएगा। ऐसा इसलिए है क्योंकि अंतर्वर्ती आदेश में पक्षों को तत्काल राहत दी जाती है और इसे बाद के आवेदन द्वारा बदला जा सकता है और निर्णय की कोई अंतिमता नहीं होती है।
  5. प्रांन्याय की डिक्री का अधित्याग (वेवर) – प्रांन्याय की डिक्री एक दलील है जिसे पक्ष को अधित्याग करना चाहिए। यदि किसी पक्ष ने प्रांन्याय की दलील नहीं दी तो मामला उसके खिलाफ तय किया जाएगा। विरोधी पक्ष का यह कर्तव्य है कि वह पूर्व वाद में मामले के निर्णय के बारे में अदालत को अवगत कराए। यदि कोई पक्ष ऐसा करने में असफल रहता है तो मामला उसके खिलाफ तय हो जाता है।
  6. न्यायालय निर्णय देने में सक्षम नहीं है – जब पूर्व वाद का निर्णय उस न्यायालय द्वारा दिया जाता है जिसके पास मामले को तय करने का कोई अधिकार क्षेत्र नहीं है, तो प्रांन्याय का सिद्धांत बाद के वाद पर लागू नहीं होता है।
  7. जब कानून में कोई बदलाव होता है – जब कानून में कोई बदलाव होता है और नए कानून पक्षों के लिए नए अधिकार लाते हैं तो ऐसे अधिकारों पर धारा 11 द्वारा रोक नहीं लगाई जा सकती है।

जब न्यायालय प्रांन्याय के सिद्धांत को लागू करने में विफल रहता है

यदि अदालत प्रांन्याय को लागू करने में विफल रहती है और उसी मुद्दे पर विरोधाभासी निर्णय का आदेश देती है और बाद में मामले को तीसरी अदालत में सूचीबद्ध किया जाता है तो तीसरी अदालत पिछले वाद के निर्णय के आधार पर प्रांन्याय लागू करेगी। इस प्रकार यह वाद के पक्षों का कर्तव्य और जिम्मेदारी है कि वे पहले के मामले को अदालत के ध्यान में लाएँ और न्यायाधीश इस बात पर निर्णय लेंगे कि प्रांन्याय की याचिका को स्वीकार किया जाना चाहिए या नहीं।

क्या प्रांन्याय का सिद्धांत रिट कार्यवाही पर लागू होता है

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 32 और अनुच्छेद 226 में रिट को परिभाषित किया गया है। अनुच्छेद 32 में सर्वोच्च न्यायालय को रिट जारी करने की शक्ति दी गई है जबकि अनुच्छेद 226 में उच्च न्यायालयों को वही शक्ति दी गई है। रिट 5 प्रकार की होती हैं – उत्प्रेषण (सर्टिओरारी), परमादेश (मैंडामस), बंदी प्रत्यक्षीकरण (हेबियस कॉर्पस), निषेध (प्रोहिबिशन) और अधिकार-पृच्छा (क्वो वारंटो)।

यह प्रश्न कि क्या प्रांन्याय का सिद्धांत रिट कार्यवाही पर लागू होता है, अभी भी विवादास्पद है। यदि हम सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 141 की व्याख्याओं का अध्ययन करें तो हम पा सकते हैं कि धारा 11 संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत कार्यवाही पर लागू नहीं होती है। लेकिन प्रांन्याय के सिद्धांत को रिट कार्यवाही पर तब लागू किया जा सकता है जब संहिता की धारा 11 की कोई प्रयोज्यता न हो। एक बार जिस प्रश्न का निर्णय रिट याचिका द्वारा कर दिया गया है उसे अगली अपील द्वारा दोबारा नहीं खोला जा सकता है। यह स्थापित कानून है कि प्रांन्याय का सिद्धांत रिट कार्यवाही में लागू किया जाता है, लेकिन इसका एक अपवाद यह है कि प्रांन्याय की याचिका से नागरिक के किसी भी मौलिक अधिकार का उल्लंघन नहीं होना चाहिए। अदालत रिट याचिका में प्रांन्याय के सिद्धांत को लागू कर सकती है लेकिन अदालत के लिए आदेश पारित करना आवश्यक है। न्यायालय को प्रांन्याय लागू करते समय उचित तर्क देना चाहिए। बंदी प्रत्यक्षीकरण के रिट के लिए, रचनात्मक प्रांन्याय का सिद्धांत लागू नहीं होगा। यदि याचिका वापस लेकर खारिज कर दी जाती है तो यह अनुच्छेद 32 के तहत अगली याचिका पर रोक नहीं हो सकती है, क्योंकि ऐसे मामले में न्यायालय द्वारा गुण-दोष के आधार पर कोई निर्णय नहीं लिया गया है।

क्या प्रांन्याय का सिद्धांत जनहित याचिका, मध्यस्थता (आर्बिट्रेशन) और पंचाट (अवॉर्ड) और आयकर कार्यवाही पर लागू किया जा सकता है

  1. रूरल लिटिगेशन और एंटाइटेलमेंट केंद्र बनाम उत्तर प्रदेश राज्य के मामले में, अदालत ने माना कि प्रांन्याय का सिद्धांत जनहित याचिका के मामलों में लागू नहीं किया जा सकता है।
  2. के.वी. जॉर्ज बनाम सरकार के सचिव, के मामले में अदालत ने माना कि मध्यस्थता और पंचाट के मामलों में प्रांन्याय की दलील नहीं दी जा सकती।
  3. प्रांन्याय का सिद्धांत आयकर कार्यवाही में लागू नहीं किया जाता है। बी.एस.एन.एल बनाम भारत संघ के मामले में अदालत ने माना कि एक मूल्यांकन वर्ष के लिए दिया गया निर्णय अगले वर्ष में प्रांन्याय के रूप में कार्य नहीं करता है।

सह-वादी के बीच प्रांन्याय

सह-वादी के बीच किसी निर्णय को प्रांन्याय बनने के लिए आवश्यक शर्तें वही शर्तें हैं जो सह-प्रतिवादी के लिए आवश्यक होती हैं। वे हैं:

  1. संबंधित प्रतिवादियों के बीच हितों का टकराव होना चाहिए।
  2. वादी द्वारा दावा की गई राहत के लिए विवाद का निर्णय करना आवश्यक होना चाहिए।
  3. सह-प्रतिवादियों को वाद में आवश्यक या उचित पक्ष होना चाहिए।
  4. प्रतिवादी के बीच का प्रश्न अंततः उनके बीच तय हो गया होगा।

सीपीसी की धारा 11 के तहत लागू प्रांन्याय के सिद्धांत में खामियां

  1. प्रांन्याय का सिद्धांत अपीलों में लागू नहीं होता है।
  2. प्रांन्याय का नियम न्याय देने की प्रक्रिया को प्रतिबंधित करता है।
  3. कभी-कभी उन निर्णयों पर प्रांन्याय लागू किया जाता है जो कानून के विपरीत है।
  4. प्रांन्याय के सिद्धांत के सीमित अपवाद हैं।
  5. प्रांन्याय की दलील पर तय किए गए मामलों पर दोबारा मुकदमा चलाया जा सकता है।

निष्कर्ष

प्रांन्याय वह अवधारणा है जो दुनिया के सभी न्यायक्षेत्रों में प्रचलित है। प्रांन्याय का सिद्धांत भारतीय कानूनी प्रणाली का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया है। सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 11 में कहा गया है कि अदालत प्रांन्याय लागू कर सकती है जब उसे लगता है कि मामला पहले से ही पूर्व वाद द्वारा तय किया जा चुका है। यह सिद्धांत न केवल सिविल अदालतों पर बल्कि भारत में प्रशासनिक कानून और अन्य कानूनों पर भी लागू होता है। अंतिमता का सिद्धांत जिस पर प्रांन्याय की दलील निहित है, वह सार्वजनिक नीति का मामला है। प्रांन्याय का सिद्धांत कई निर्णयों को रोकना है और वादी को एक ही चोट पर प्रतिवादी से दो बार हर्जाना वसूलने के लिए प्रतिबंधित करके दूसरे पक्ष के अधिकारों की रक्षा करना है।

एंडनोट्स

  • Marsh v. Pier, 4 Rawle 273, 288 (Pa. 1833).
  • Satyadhyan Ghosal v. Deorajin Devi, AIR 1960 SC 941 : (1960) 3 SCR 590.
  • AIR 1916 PC 78.
  • AIR 1961 SC 1457 : (1962) 1 SCR 574 : (1962) 2 MLJ (SC) 6
  • Amalgamated Coalfields v. Janapada Sabha, AIR 1964 SC. 1013.
  • State of Gujarat v. Bhater Devi Ramniwas Sanwalram (2002) 7 SCC 500
  • Ashok Kumar Srivastava v. National Insurance Company Ltd. (1998) 4  SCC
  • Rabindra Nath Biswas v. General manager, N.F. Rly AIR 1988 Pat 138.
  • Daryao v. The State of U.P. AIR 1961 SC 1457
  • AIR 1988 SC 2187 (2195) : 1989 Supp (1) SCC 504.
  • AIR 1990 SC 53(59)
  • AIR 2006 SC 1383 (1390)

 

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