यह लेख पंजाब विश्वविद्यालय, चंडीगढ़ के कानून विभाग से Aksshay Sharma द्वारा लिखा गया है। इस लेख का उद्देश्य हिंदू कानून के तहत संपत्ति के उत्तराधिकार (इन्हेरिटेंस) के पारंपरिक कानून की व्याख्या करना है। यह लेख हिंदू कानून के तहत उत्तराधिकार से संबंधित महत्वपूर्ण शब्दों की व्याख्या करता है, साथ ही यह सहदायिकता (कोपार्सनरी) की अवधारणा, मिताक्षरा और दयाभाग स्कूल के तहत संपत्ति के हस्तांतरण (ट्रांसफर) की व्याख्या करता है। यह लेख मुख्य रूप से पारंपरिक हिंदू कानून के तहत उत्तराधिकार से संबंधित है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja द्वारा किया गया है।
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परिचय
पारंपरिक हिंदू कानून दुनिया के सबसे पुराने व्यक्तिगत कानूनों में से एक है। सकारात्मक कानून के विपरीत, जिसके अनुसार कानून वे होते हैं जो एक संप्रभु (सोवरेन) (एक मानव) द्वारा बनाए जाते हैं, हिंदू कानून वेदों को कानून के सबसे पुराने स्रोतों के रूप में देखता था। प्राचीन हिंदू न्यायशास्त्र (ज्यूरिस्प्रूडेंस) के अनुसार, वेद “धर्म” का स्रोत थे, जिसका अर्थ है एक व्यक्ति के नैतिक, सामाजिक और कानूनी कर्तव्य, जिनका एक व्यक्ति से पालन करने की अपेक्षा की जाती है। हालाँकि, वेद (जिन्हें श्रुति भी कहा जाता है) हिंदू कानून के औपचारिक स्रोत नहीं थे। स्मृतियाँ औपचारिक स्रोत थीं जो वेदों पर आधारित थीं। स्मृतियाँ धर्म (मुल्ला) के नियमों का प्रतिपादन करती हैं। श्रुति, जिसका स्पष्ट अर्थ है वेद, सिद्धांत रूप में, धर्म का मूल स्रोत था। पारंपरिक हिंदू कानून, विशेषकर उत्तराधिकार के संदर्भ में, पितृसत्तात्मक (पैट्रीअर्कल) था और पुरुष पहलू पर अधिक जोर दिया जाता था। हालाँकि, हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम ने उस अवधारणा को मौलिक रूप से बदल दिया है और इस प्रकार हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के तहत परिवर्तनों का विशिष्ट संदर्भ भी बताया गया है ।
हिंदू कानून के स्कूल
विभिन्न टिप्पणियों के परिणामस्वरूप हिंदू कानून के दो स्कूलों, मिताक्षरा और दयाभाग का उदय हुआ, जिसमें उत्तराधिकार का कानून शामिल था। इन स्कूलों के अपने स्वयं के परिचालन क्षेत्र थे और ये भारत के विभिन्न हिस्सों में मान्यता प्राप्त थे। ब्रिटिश शासन के आगमन से पहले, भारत में उत्तराधिकार के प्रमुख कानूनों की जड़ें या तो धर्म में थीं या वे व्यक्तिगत कानूनों से गहराई से प्रभावित थे जो धर्म और रीति-रिवाजों के प्रति अपनी निष्ठा रखते थे। इन दोनों स्कूलों के बीच मूलभूत अंतर उस सिद्धांत पर है जिसके आधार पर उत्तराधिकार का अधिकार निर्धारित किया जाना है।
उत्तराधिकार के मिताक्षरा स्कूल में, संपत्ति उत्तराधिकारियों (सहदायिकों) को केवल इस तथ्य के आधार पर उत्तराधिकार में मिलती है कि वे संपत्ति धारकों के परिवार में पैदा हुए थे और दयाभाग के मामले में संपत्ति पिता या संपत्ति के धारक की मृत्यु पर उत्तराधिकारियों (सहदायिकों) के पास चली जाती है।
मिताक्षरा को महिलाओं के प्रति अधिक पक्षपाती माना जाता था और उन्हें उत्तराधिकार में संपत्ति पाने का सबसे कम अधिकार दिया जाता था। हालाँकि दयाभाग भी पक्षपाती था, फिर भी इसने महिलाओं को अधिक अधिकार दिए और इस प्रकार इसे एक उदार (लिबरल) स्कूल माना जाता था।
मिताक्षरा स्कूल, जिसकी व्याख्या विजनेश्वर की कमेंट्री द्वारा की गई थी और बंगाल और असम को छोड़कर पूरे भारत में प्रचलित थी, जबकि दयाभाग, जैसा कि जीणुतवाहन ने व्याख्या की थी, केवल बंगाल और असम में प्रचलित थी।
उत्तराधिकार के नियम को समझना
उत्तराधिकार के हिंदू कानून को समझने के लिए पहले कुछ अवधारणाओं को समझने की आवश्यकता है।
संयुक्त हिंदू परिवार
संयुक्त हिंदू परिवारों में वे सभी सदस्य शामिल होते हैं जो सामान्य पुरुष पूर्वजों के वंशज होते हैं और ऐसे सदस्यों में बेटियां, पत्नियां और विधवाएं भी शामिल होती हैं। पुरुष पूर्वज, संयुक्त हिंदू परिवार का मुखिया होता है। इस प्रकार, एक संयुक्त हिंदू परिवार में उनकी पत्नियों और अविवाहित बेटियों और बेटों, संपार्श्विक (कोलेटरल) और उनकी पत्नियों, बेटों और अविवाहित बेटियों के सामान्य पुरुष पूर्वज शामिल होते हैं। हिंदू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 13(1)(ib) के तहत पति द्वारा पत्नी को छोड़ दिया गया है, यानी पति ने 1 वर्ष से अधिक समय तक बिना किसी कारण के पत्नी को छोड़ दिया है। अवरोही (डिसेंडिंग) पीढ़ियों की संख्या की कोई सीमा नहीं थी। पारंपरिक संदर्भ में यह संयुक्त हिंदू परिवार था।
विवाह के बाद एक अविवाहित बेटी अपने पिता के संयुक्त परिवार का हिस्सा नहीं रह जाती है और अपने पति के संयुक्त परिवार में उसकी पत्नी के रूप में शामिल हो जाती है। यदि कोई बेटी विधवा हो जाती है या उसके पति द्वारा छोड़ दी जाती है और वह स्थायी रूप से अपने पिता के घर लौट आती है, तो वह फिर से अपने पिता के संयुक्त परिवार की सदस्य बन जाती है। हालाँकि, उसके बच्चे उसके पिता के संयुक्त परिवार के सदस्य नहीं बनते हैं और अपने पिता के संयुक्त परिवार के सदस्य बने रहते हैं। संयुक्त परिवार के सदस्यों को जो डोर आपस में जोड़ती है, वह संपत्ति नहीं, बल्कि एक-दूसरे का रिश्ता होता है।
सरल शब्दों में, संयुक्त हिंदू परिवार रक्त और रिश्तेदारी से संबंधित रिश्तेदारों का एक समूह है। इसमें सामान्य पुरुष पूर्वज, उन सभी लोगों की पत्नियाँ जो सामान्य पुरुष पूर्वज से संबंधित हैं, उनके बेटे, उनकी अविवाहित बेटियाँ और चाचा, चाची, उनके भतीजे, भतीजी आदि लोग शामिल हैं। संयुक्त और अविभाजित हिंदू परिवार हिंदू समाज की सामान्य स्थिति है।
मिताक्षरा स्कूल
मिताक्षरा के अंतर्गत सहदायिकता दयाभाग के अंतर्गत सहदायिकता से भिन्न है।
सहदायिकता
सहदायिकता की अनूठी अवधारणा प्राचीन हिंदू न्यायशास्त्र का उत्पाद है जो बाद में सामान्य रूप से हिंदू कानून और विशेष रूप से हिंदू कानून के मिताक्षरा स्कूल की अनिवार्य विशेषता बन गई। अंग्रेजी कानून के तहत सामान्य अर्थ में समझी जाने वाली सहदायिकता की अवधारणा का भारत या हिंदू कानूनी प्रणाली में एक अलग अर्थ है। अंग्रेजी कानून में, सहदायिकता पक्षों के कार्य का निर्माण या कानून का निर्माण है। हिंदू कानून में, सहदायिकता पक्षों के कार्यों द्वारा नहीं बनाई जा सकती है, हालांकि, इसे पक्षों के कार्यों द्वारा समाप्त किया जा सकता है।
जैसा कि पहले कहा गया है, संयुक्त हिंदू परिवार में एक सामान्य पुरुष पूर्वज से आने वाली पीढ़ियों की संख्या की कोई सीमा नहीं थी। हालाँकि, सहदायिकता में ऐसा मामला नहीं है। सहदायिकता एक प्रकार का रिश्ता है जो संयुक्त हिंदू परिवार की तुलना में संकीर्ण या छोटा होता है, इसकी पीढ़ियाँ सीमित होती हैं।
एक संयुक्त हिंदू परिवार के भीतर, व्यक्तियों का एक और समूह होता है जिसे सहदायिक कहा जाता है जिसमें एक पिता, उसका पुत्र, उसका पोता और उसका परपोता शामिल होता है। इस प्रकार, एक सामान्य पुरुष पूर्वज से, केवल 3 पीढ़ियों तक आने वाले पुरुषों को ही सहदायिक माना जाता था और केवल इन सहदायिकों को जन्म के समय सहदायिक संपत्ति प्राप्त करने का अधिकार था, क्योंकि वे कुछ समय के लिए संपत्ति के धारकों के बेटे, पोते और परपोते होते थे।
उदाहरण के लिए, यदि F एक सामान्य पुरुष पूर्वज है तो सहदायिक में उसके नीचे की 3 पीढ़ियाँ शामिल होंगी, जो F के वंशज हैं यानी F का बेटा, F का पोता और F का परपोता। F तीनों वंशजों में समान अवरोही है। अंतिम पुरुष धारक को छोड़कर तीन पीढ़ियों की गणना की जाती है।
इस प्रकार, पारंपरिक हिंदू कानून के तहत सहदायिकता में केवल पुरुष सदस्य शामिल थे, महिलाओं को बाहर रखा गया था। केवल पुरुषों (सहदायिक) को सहदायिक संपत्ति प्राप्त करने का अधिकार था और केवल वे ही विभाजन की मांग कर सकते थे। इसलिए, पत्नी और बेटियाँ सहदायिकता की सदस्य नहीं थीं। परंपरागत रूप से, सहदायिक वे होते थे जो अंतिम संस्कार कर सकते थे और यह केवल पुरुषों के लिए उपलब्ध था।
सहदायिक संपत्ति या पैतृक संपत्ति वह संपत्ति है जो सहदायिक को अपने पिता, दादा या परदादा से उत्तराधिकार में मिली होती है। उक्त संपत्ति उत्तराधिकार में मिलनी चाहिए और वसीयत या उपहार के माध्यम से प्राप्त नहीं की जानी चाहिए। इसके अलावा, मिताक्षरा सहदायिकता के तहत, ऐसी संपत्ति का अधिकार केवल बेटे, पोते और परपोते को ही उपलब्ध होता है, जिन्होंने मिताक्षरा स्कूल के तहत सहदायिकता का गठन किया था, और किसी भी महिला को ऐसी संपत्ति का अधिकार नहीं था। इस प्रकार, दूसरे शब्दों में, केवल सगोत्र (एग्नेट्स) को ही ऐसी संपत्ति का अधिकार था, सजातीय (कॉग्नेट्स) को नहीं। हालाँकि महिलाएँ सहदायिक संपत्ति का हिस्सा नहीं थीं, फिर भी वे सहदायिक संपत्ति से गुजरे भत्ते (मेंटेनेस) की हकदार थीं।
यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि सहदायिकता की उपरोक्त परिभाषा और विभाजन मांगने की मांग पारंपरिक हिंदू कानून के तहत है, अब हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 में 2005 के संशोधन के बाद सहदायिकता का अर्थ बदल दिया गया है। 2005 के संशोधन के बाद, बेटियों को भी बेटे के समान अर्थ में सहदायिकता में शामिल किया गया है जैसे कि वह भी बेटा है।
संपत्ति का हस्तांतरण
सहदायिक संपत्ति का अधिकार एक सहदायिक को उसके जन्म के समय ही मिल जाता है, जो मिताक्षरा सहदायिकता की एक महत्वपूर्ण विशेषता है। इस प्रकार, संपत्ति के पुरुष मालिक का अस्तित्व सहदायिक संपत्ति के अधिग्रहण (एक्विजिशन) में बाधा नहीं था, क्योंकि जन्म का तथ्य संपत्ति का अधिकार प्रदान करने के लिए पर्याप्त था। इसलिए, यह कहा जाता है कि एक सहदायिक के पास सहदायिक संपत्ति की “अबाधित उत्तराधिकार” होते है यानी ऐसी संपत्ति का अधिकार पुरुष पूर्वज यानी पिता, दादा और परदादा के अस्तित्व से बाधित नहीं होता है। उत्तराधिकार में मिली संपत्ति का आवंटन जन्म से स्वामित्व के कानून पर आधारित था।
इसके अलावा, मिताक्षरा स्कूल के तहत, संपत्ति उत्तरजीविता (सर्वाइवरशिप) के अनुसार हस्तांतरित की जाती है यानी अंतिम पुरुष धारक की मृत्यु पर संपत्ति उन सहदायिकों को समान हिस्से में हस्तांतरित की जाएगी जो सहदायिक के भीतर जीवित हैं। इसका मतलब यह है कि यदि अंतिम पुरुष धारक के अलावा किसी अन्य सहदायिक की मृत्यु हो जाती है, तो उसका (मृत) संभावित हिस्सा सहदायिक के जीवित सदस्यों के बीच वितरित किया जाएगा। वह अपने पीछे ऐसा कुछ भी नहीं छोड़ता जिसे संयुक्त संपत्ति में उसका अपना हिस्सा कहा जा सके।
उदाहरण के लिए, एक सहदायिकता में पिता और उसके दो बेटे शामिल होते हैं। अविभाजित स्थिति कायम रहने तक उनमें से प्रत्येक के पास संपत्ति में संभावित 1/3 हिस्सा होता है। बेटों में से एक की मृत्यु पर, संपत्ति में उसका संभावित 1/3 हिस्सा जीवित सहदायिक यानी पिता और जीवित भाई द्वारा ले लिया जाता है और मृतक सहदायिक संपत्ति में किसी भी हिस्से के बिना मर जाएगा। पिता और जीवित पुत्र का हिस्सा संभावित आधे तक बढ़ा दिया जाएगा। उत्तरजीविता का अधिकार सहदायिक के मूल अधिकारों में से एक है। इस प्रकार, एक व्यक्तिगत सहदायिक के हित की मात्रा निश्चित नहीं है क्योंकि यह परिवार में मृत्यु और जन्म के साथ बदलती रहती है।
इसे ऐसे भी समझा जा सकता है क्योंकि स्वामित्व (सह-मालिकों) का एक समुदाय होता है और सहदायिकों द्वारा सहदायिक संपत्ति पर कब्जे की एकता होती है, उनका विशिष्ट हिस्सा तय नहीं होता है या वे सहदायिक संपत्ति के एक विशिष्ट हिस्से को तब तक अपना नहीं कह सकते जब तक कि विभाजन न हो जाए। सहदायिकों द्वारा सहदायिकता संपत्ति का एक सामान्य आनंद लिया जाता है।
उत्तरजीविता की इस अवधारणा को हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम में 2005 के संशोधन के बाद हटा दिया गया है, अब संपत्ति के हस्तांतरण का एकमात्र तरीका या तो वसीयत (वसीयतनामा) या हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के तहत दिए गए निर्वसीयत (इंटेस्टेट) उत्तराधिकार के नियमों द्वारा है।
दयाभाग स्कूल
सहदायिकता
मिताक्षरा की तुलना में दयाभाग स्कूल के अंतर्गत संयुक्त परिवार की कोई अवधारणा नहीं है। इसमें पिता, पुत्र, पुत्र का पुत्र (पोता), पुत्र के पुत्र का पुत्र (परपोता) शामिल नहीं है। दयाभाग सहदायिक का अस्तित्व पिता की मृत्यु के बाद ही आता है, जिसके बाद पुत्र को उसकी संपत्ति उत्तराधिकार में मिलती है और वह सहदायिक बनता है। इस स्कूल में बेटे को जन्म से कोई अधिकार नहीं दिया जाता है। अलग और सहदायिक संपत्ति के बीच भी कोई अंतर नहीं है और पूरी अवधारणा उत्तराधिकार पर आधारित है, यानी कि बेटों को अपने पिता की मृत्यु के बाद उनकी संपत्ति उत्तराधिकार में मिलती है।
दयाभाग संयुक्त परिवार में, पिता के पास अलग और सहदायिक संपत्ति के प्रबंधन और निपटान की पूर्ण शक्तियाँ होती हैं और बेटों के पास केवल गुजारा भत्ता का दावा होता है। यही कारण है कि दयाभाग परिवार में सहदायिकों के हितों में उतार-चढ़ाव की कोई अवधारणा नहीं है, क्योंकि सहदायिकों के जन्म और मृत्यु, पिता के संपत्ति के पूर्ण अधिकार को प्रभावित नहीं करते हैं।
जैसा कि पहले कहा गया है, हालाँकि पिता और उसके पुरुष वंशजों के बीच कोई सहदायिक नहीं है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि दो भाइयों के बीच कोई सहदायिक नहीं हो सकता है। उदाहरण के लिए, F एक निश्चित संपत्ति का पूर्ण धारक है। उनके 2 बेटे S1 और S2 हैं। अब चूंकि यह एक दयाभाग परिवार है, इसलिए F और उसके बेटों, जो उसके वंशज हैं, के बीच कोई सहदायिक संबंध नहीं है। F की मृत्यु के बाद संपत्ति उसके बेटों को मिल जाएगी। लेकिन अब संपत्ति के वितरण के लिए S1 और S2 के बीच सहदायिक संबंध हो सकता है। इस प्रकार, यह कहना गलत है कि दयाभाग परिवार में सहदायिक अवधारणा पूरी तरह से अनुपस्थित है।
इसके अलावा, महिलाएं भी दयाभाग सहदायिकता की सदस्य बन सकती हैं। यदि कोई पुरुष बिना पुत्र छोड़े मर जाता है, तो उसका स्थान उसकी पत्नी (अब विधवा) या यदि विधवाएँ भी मर जाती हैं तो बेटियाँ ले लेती हैं। इस प्रकार, दयाभाग स्कूल मिताक्षरा स्कूल की तुलना में अधिक उदार है, हालांकि, फिर भी, पुरुष सदस्य प्रमुख थे। इसलिए, दयाभाग सहदायिकता में उत्तरजीविता की कोई अवधारणा नहीं है।
संपत्ति का हस्तांतरण
मिताक्षरा स्कूल के विपरीत, जिसमें सहदायिक को उसके जन्म से ही संपत्ति पर अधिकार होता है, दयाभाग के तहत संपत्ति का उत्तराधिकार का अधिकार केवल पिता की मृत्यु पर उत्पन्न होता है। इस प्रकार, जन्म का संपत्ति के उत्तराधिकार के अधिकार से कोई लेना-देना नहीं है, इसलिए यह कहा जाता है कि दयाभाग स्कूल के तहत, एक सहदायिक के पास अबाधित उत्तराधिकार होता है। दयाभाग स्कूल में संपत्ति उस व्यक्ति की मृत्यु के बाद उत्तराधिकार में मिलती है जिसके पास वह था।
चूंकि दयाभाग के तहत सहदायिकों को परिवार में जन्म लेने के कारण संपत्ति का कोई अधिकार नहीं है, इसलिए पिता को सभी प्रकार की संपत्ति, अलग और पैतृक, बिक्री, उपहार या वसीयत के माध्यम से निपटाने का पूर्ण अधिकार है। इस प्रकार, सहदायिक संपत्ति के कब्जे और सामान्य स्वामित्व की कोई एकता नहीं है। दूसरे शब्दों में, पिता की मृत्यु पर, जहां उसके दो या दो से अधिक बेटे जीवित रहते हैं, वे सभी उसकी संपत्ति को संयुक्त रूप से प्राप्त करते हैं और इसे समान किरायेदारी के रूप में रखते हैं। दयाभाग के तहत पिता को संपत्ति के हस्तांतरण का पूर्ण अधिकार है, चाहे वह स्व-अर्जित हो या पैतृक हो।
निष्कर्ष
पारंपरिक हिंदू कानून महिलाओं को पुरुषों के समान नहीं मानता था, उन्हें पुरुषों के समान अधिकार नहीं दिए गए थे। महिलाओं को पैतृक संपत्ति का अधिकार देने वाले सबसे शुरुआती अधिनियमों में से एक हिंदू महिला संपत्ति अधिकार अधिनियम, 1937 था। हालाँकि, पैतृक संपत्ति में महिलाओं की स्थिति में ऐतिहासिक बदलाव, हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 में संशोधन द्वारा लाया गया था। इसने पहली बार महिलाओं को सहदायिक बनने और पैतृक संपत्ति में वही अधिकार प्राप्त करने में सक्षम बनाया जो उन्हें बेटा होने पर होता। हालाँकि, इसके बावजूद, विशेष रूप से प्रकाश बनाम फुलावती (2015) में अदालत द्वारा अधिनियम की व्याख्या से सभी महिलाओं को अधिकार नहीं दिए गए। जिन बेटियों के पिता का निधन 2005 के लागू होने से पहले हो गया था, उन्हें नए संशोधन के तहत शामिल नहीं किया गया। हालाँकि, इसे विनीता शर्मा बनाम राकेश शर्मा मामले में भी सुधारा गया था, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने 2005 के संशोधन को पूर्वव्यापी (रेट्रोस्पेक्टिव) प्रभाव दिया और सही मायने में महिलाओं को बेटे के समान ही सहदायिक बना दिया। इस फैसले ने महिलाओं के पैतृक संपत्ति के अधिकार में आ रही आखिरी बाधा को दूर कर दिया है।
संदर्भ