यह लेख इंदौर इंस्टीट्यूट ऑफ लॉ, इंदौर के छात्र Aditya Dubey ने लिखा है। इस लेख में लेखक ने भारत के संविधान के तहत परिभाषित अभिव्यक्ति और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन) की अवधारणा के साथ-साथ इसके महत्व और उन आधारों पर चर्चा की है जिन पर भारत सरकार द्वारा इसे प्रतिबंधित किया जा सकता है। इस लेख का अनुवाद Revati Magaonkar ने किया है।
Table of Contents
परिचय (इंट्रोडक्शन)
भाषण और अभिव्यक्ति (फ्रीडम ऑफ स्पीच एंड एक्सप्रेशन) की स्वतंत्रता को भारत के संविधान के अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत परिभाषित किया गया है जिसमें कहा गया है कि भारत के सभी नागरिकों को भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार है। इस अनुच्छेद के पीछे का दर्शन भारत के संविधान की प्रस्तावना (प्रिएंबल) में दिया गया है- ‘जहां अपने सभी नागरिकों को उनके विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सुरक्षित करने के लिए एक गंभीर संकल्प किया जाता है। हालाँकि, इस अधिकार का प्रयोग भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 (2) के तहत लगाए गए कुछ उद्देश्यों के लिए उचित प्रतिबंधों (संक्शन्स) के अधीन है।
भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मुख्य तत्व क्या हैं (व्हाट आर द मैन एलीमेंट्स ऑफ़ स्पीच एंड एक्सप्रेशन)
ये वाक्/बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के निम्नलिखित आवश्यक तत्व हैं:
- यह अधिकार पूरी तरह से भारत के एक नागरिक के लिए उपलब्ध है, न कि अन्य देशों के व्यक्तियों यानी विदेशी नागरिकों के लिए।
- अनुच्छेद 19(1)(a) के तहत बोलने की स्वतंत्रता में किसी भी तरह के मुद्दे के बारे में अपने विचार और राय व्यक्त करने का अधिकार शामिल है और इसे किसी भी तरह के माध्यम से किया जा सकता है, जैसे मुंह के शब्दों से, लिखकर, छपाई द्वारा, चित्रांकन (पोर्ट्रेचर) के माध्यम से या किसी फिल्म के माध्यम से किया जा सकता है।
- यह अधिकार सम्पूर्ण रूप से नहीं है क्योंकि यह भारत सरकार को ऐसे कानून बनाने की अनुमति देता है जो भारत की संप्रभुता और अखंडता (सोवर्गिनिटी एंड इंटिग्रिटी) या राज्य की सुरक्षा, या विदेशी राष्ट्रों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंधों (फ्रैंडली रिलेशन), शालीनता और नैतिकता (डीसेंसी एंड मोरालीटी) और अदालत की अवमानना (कंटेंप्ट ऑफ़ कोर्ट), मानहानि और अपराध के लिए उकसाना यहां तक कि सार्वजनिक व्यवस्था (पब्लिक आर्डर) से जुड़े मामलों में उचित प्रतिबंध लगा सकते हैं।
- किसी भी नागरिक की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर इस तरह का प्रतिबंध राज्य की कार्रवाई से उतना ही लगाया जा सकता है जितना कि उसकी निष्क्रियता (इनेक्शन) से लगाया जा सकता है। इस प्रकार, यदि राज्य की ओर से अपने सभी नागरिकों को वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार (फंडामेंटल राइट) की गारंटी देने में विफलता पाई जाती है, तो यह भी अनुच्छेद 19 (1) (a) का उल्लंघन होगा।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कैसे महत्वपूर्ण है (हाउ इज फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन इज इंपॉर्टेंट)
भारत जैसे लोकतंत्र (डेमोक्रेटिक) में, भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की अवधारणा (एक्रीडिटेशन) मुद्दों की स्वतंत्र चर्चा के द्वार खोलती है। भाषण की स्वतंत्रता पूरे देश में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक मामलों पर जनमत के बनाने और प्रदर्शन में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यह अपने दायरे के भीतर, विचारों के प्रसार और आदान-प्रदान से संबंधित स्वतंत्रता, सूचना के प्रसार को सुनिश्चित करता है, जो बाद में, कुछ मुद्दों पर उनके दृष्टिकोण (पॉइंट ऑफ व्यू) के साथ-साथ किसी की राय बनाने में मदद करता है और उन मामलों पर बहस को जन्म देता है जिनमें जनता शामिल होती है। जब तक अभिव्यक्ति राष्ट्रवाद, देशभक्ति और राष्ट्र प्रेम तक सीमित है, तब तक राष्ट्रीय ध्वज का उन भावनाओं की अभिव्यक्ति के रूप में उपयोग एक मौलिक अधिकार होगा।
भारत की स्वतंत्र न्यायपालिका ने माना है और कहा है कि यह एक राय है कि किसी भी जानकारी को प्राप्त करने का अधिकार भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का एक और हिस्सा है और किसी भी प्रकार के हस्तक्षेप (इंटरफेरेंस) के बिना किसी भी प्रकार की जानकारी को संप्रेषित (ट्रांसमिट) करने और प्राप्त करने का अधिकार एक महत्वपूर्ण है। इस अधिकार का पहलू ऐसा इसलिए है, क्योंकि कोई व्यक्ति पर्याप्त जानकारी प्राप्त किए बिना एक सूचित राय नहीं बना सकता है, या एक सूचित विकल्प (ऑप्शन) नहीं बना सकता है और सामाजिक, राजनीतिक या सांस्कृतिक (कल्चरल) रूप से प्रभावी ढंग से भाग ले सकता है।
देश के किसी भी नागरिक को किसी भी प्रकार की सूचना प्रसारित करने के लिए प्रिंट माध्यम एक शक्तिशाली उपकरण है। इस प्रकार, संविधान के तहत किसी व्यक्ति के भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार की संतुष्टि के लिए मुद्रित सामग्री (प्रिंटेड मटेरियल) तक पहुंचना बहुत महत्वपूर्ण है। यदि राज्य की ओर से वैकल्पिक सुलभ प्रारूपों (अल्टरनेटिव फॉर्मेट) में सामग्री के प्रिंट हानि वाले लोगों तक पहुंच को सक्षम करने के लिए विधायी प्रावधान (लेजिस्लेटिव प्रोविजन) करने में कोई विफलता पाई जाती है, तो यह भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार से वंचित होगा और इस तरह की निष्क्रियता राज्य (इनएक्टिवीटी स्टेट ) संविधान (कंस्टीट्यूशन) के गलत स्थान पर गिर जाएगा। यह सुनिश्चित करना राज्य की ओर से एक दायित्व है कि कानून में पर्याप्त प्रावधान किए गए हैं जो प्रिंट हानि वाले लोगों को सुलभ प्रारूपों में मुद्रित सामग्री तक पहुंचने में सक्षम बनाता है।
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के तहत प्रेस की स्वतंत्रता की कोई अलग गारंटी नहीं है क्योंकि यह पहले से ही अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में शामिल है, जो देश के सभी नागरिकों को दी जाती है।
प्रेस की स्वतंत्रता का क्या अर्थ है (व्हाट इज मींट बाय फ्रीडम ऑफ प्रेस)
भारत के संविधान में कहीं भी प्रेस की स्वतंत्रता का उल्लेख नहीं है। हालाँकि, यह संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत निर्धारित भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता (हालांकि सीधे व्यक्त नहीं) के अर्थ के तहत एक अधिकार के रूप में मौजूद है। यदि लोकतंत्र का अर्थ यह है कि सरकार देश की जनता की है, जनता की है और जनता के लिए है, तो यह आवश्यक है कि प्रत्येक नागरिक को राष्ट्र की लोकतांत्रिक प्रक्रिया (डेमोक्रेटिक प्रोसेस) में सक्रिय रूप से भाग लेने का अधिकार हो। स्वतंत्र प्रेस के बिना कुछ मामलों पर मुक्त बहस और खुली चर्चा संभव नहीं है।
प्रेस की स्वतंत्रता में लोकतंत्र का एक स्तंभ शामिल है और वास्तव में यह लोकतांत्रिक संगठन की नींव पर बना हुआ है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा कई निर्णयों में यह माना गया है कि प्रेस की स्वतंत्रता भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का एक हिस्सा है और भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (a) के तहत कवर किया गया है, इसका कारण यह है कि प्रेस की स्वतंत्रता और कुछ नहीं बल्कि भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का एक पहलू है। इसलिए, यह ठीक ही समझा गया है कि प्रेस यह लोगों के विचारों को सभी तक पहुँचाने के लिए एक माध्यम माना जाता है और फिर भी इसे उन सीमाओं से जुड़े रहना पड़ता है जो संविधान द्वारा अनुच्छेद 19 (2) के तहत उन पर थोपी गई हैं।
मामला (केस)
इंडियन एक्सप्रेस न्यूजपेपर्स (बॉम्बे) प्राइवेट लिमिटेड बनाम यूनियन ऑफ इंडिया
इस मामले में यह देखने के बाद स्थापित किया गया था कि “प्रेस की स्वतंत्रता” शब्द का प्रयोग अनुच्छेद 19 के परिभाषा के तहत नहीं किया गया है, लेकिन यह भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (ए) के भीतर इसके सार के रूप में दिया गया है, और इसलिए, प्रेस की स्वतंत्रता में कोई हस्तक्षेप (इंटर्फियरांस) नहीं हो सकता है जिसमें जनहित और सुरक्षा शामिल है। इसलिए, यह निष्कर्ष निकाला गया कि किसी पत्रिका (मैगज़ीन) के सेंसरशिप को लागू करना या किसी समाचार पत्र को किसी भी मुद्दे के बारे में अपने विचारों को प्रकाशित करने से रोकना जिसमें जनहित शामिल है, ऐसा कृत्य प्रेस की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध होगा।
वे कौन से आधार हैं जिन पर इस स्वतंत्रता को प्रतिबंधित किया जा सकता है (व्हाट आर द ग्राउंड्स ऑन व्हिच धिस फ्रीडम कैन बी रेस्ट्रिक्टेड)
ऐसे कई आधार हैं जिन पर राज्य द्वारा कुछ उचित प्रतिबंधों तक भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को प्रतिबंधित किया जा सकता है। इस तरह के प्रतिबंधों को भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 के खंड (क्लॉज) (2) के तहत परिभाषित किया गया है जो निम्नलिखित के तहत स्वतंत्र भाषण पर कुछ प्रतिबंध लगाता है:
- राज्य की सुरक्षा
- विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध
- सार्वजनिक व्यवस्था
- शालीनता और नैतिकता
- न्यायालय की अवमानना
- मानहानि
- किसी अपराध के लिए उकसाना, और
- भारत की संप्रभुता और अखंडता।
राज्य की सुरक्षा (सिक्युरिटी ऑफ़ स्टेट)
राज्य की सुरक्षा से जुड़े वर्गों में भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कुछ उचित प्रतिबंध (रिस्ट्रिक्शन) लगाए जा सकते हैं। ‘राज्य की सुरक्षा’ शब्द को ‘सार्वजनिक व्यवस्था’ शब्द से अलग करने की आवश्यकता है क्योंकि वे समान हैं लेकिन उनकी तीव्रता (इंटेंसिटी) के मामले कई और भिन्न हैं। इसलिए, राज्य की सुरक्षा सार्वजनिक अव्यवस्था (पब्लिक डिसऑर्डर) के गंभीर रूपों को बताती है, इसका एक उदाहरण विद्रोह (रेबेलियन) हो सकता है, जैसे कि राज्य के खिलाफ युद्ध छेड़ना, भले ही वह राज्य के एक हिस्से के खिलाफ हो, आदि।
केस : पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (एआईआर 1997 एससी 568)
यह मामला, देश में हो रहे टेलीफोन टैपिंग के लगातार मामलों के खिलाफ पीयूसीएल द्वारा भारत के संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत जनहित याचिका (पीआईएल) दायर की गई थी और इस प्रकार भारतीय टेलीग्राफ अधिनियम, 1885 की धारा 5(2) की वैधता को चुनौती दी गई। तब यह देखा गया कि “सार्वजनिक आपातकाल की घटना” और “सार्वजनिक सुरक्षा के हित में” धारा 5(2) के तहत दिए गए प्रावधानों (प्रोविजन) के आवेदन के लिए एक अनिवार्य शर्त है। यदि इन दोनों में से कोई भी शर्त मामले से अनुपस्थित है, तो भारत सरकार को इस धारा के तहत अपनी शक्ति का प्रयोग करने का कोई अधिकार नहीं है। इसलिए, टेलीफोन टैपिंग अनुच्छेद 19(1)(a) का उल्लंघन होगा जब तक कि यह अनुच्छेद 19(2) के तहत उचित प्रतिबंधों के आधार पर नहीं आता है।
विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंध (फ्रैंडली रिलेशन विथ फोरेन स्टेटस्)
प्रतिबंध के लिए यह आधार 1951 के संविधान (प्रथम संशोधन) अधिनियम द्वारा जोड़ा गया था। राज्य को बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर उचित प्रतिबंध लगाने का अधिकार है यदि यह अन्य राज्यों के साथ भारत के मैत्रीपूर्ण संबंधों को नकारात्मक (नेगेटिव) रूप से प्रभावित कर रहा है।
सार्वजनिक व्यवस्था (पब्लिक ऑर्डर)
प्रतिबंध के लिए यह आधार संविधान (प्रथम संशोधन) अधिनियम, 1951 द्वारा भी जोड़ा गया था, यह रोमेश थापर बनाम मद्रास राज्य (AIR 1950 SC 124) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय से उत्पन्न स्थिति को पूरा करने के लिए किया गया था। भारत के सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार, सार्वजनिक व्यवस्था कानून, व्यवस्था और राज्य की सुरक्षा से बहुत अलग है। ‘सार्वजनिक व्यवस्था’ शब्द सार्वजनिक शांति, सार्वजनिक सुरक्षा और शांति की भावना को दर्शाता है। जो कुछ भी सार्वजनिक शांति को भंग करता है, बदले में, जनता को परेशान करता है। लेकिन सिर्फ सरकार की आलोचना (क्रिटिसिजम) से लोक व्यवस्था (पब्लिक ऑर्डर) भंग नहीं हो जाती। एक कानून जो किसी भी वर्ग की धार्मिक भावनाओं को दुखाता है, उसे सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखने के उद्देश्य से वैध (वेलिड) और उचित प्रतिबंध माना गया है।
शालीनता और नैतिकता (डिसेंसी एंड मोरालिटी)
इन्हें भारतीय दंड संहिता 1860 (इंडियन पीनल कोड) की धारा 292 से 294 के तहत परिभाषित किया गया है, जो शालीनता और नैतिकता के आधार पर भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध के उदाहरण बताता है, और यह अश्लील शब्दों (ऑब्सेंस वर्ड्स) की बिक्री या वितरण या प्रदर्शन (डिलीवरी ऑर डिस्प्ले) को प्रतिबंधित करता है।
न्यायालय की अवमानना (कंटेंप्ट ऑफ़ कोर्ट)
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार किसी भी तरह से किसी व्यक्ति को अदालतों की अवमानना करने की अनुमति नहीं देता है। अदालत की अवमानना की अभिव्यक्ति को न्यायालय की अवमानना अधिनियम, 1971 की धारा 2 के तहत परिभाषित किया गया है। ‘अदालत की अवमानना’ शब्द अधिनियम के तहत दीवानी अवमानना (सिविल कंटेंप्ट) या आपराधिक अवमानना (क्रिमिनल कंटेंप्ट) से संबंधित है।
मानहानि (डिफेमेशन)
भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 का खंड (2) किसी भी व्यक्ति को ऐसा बयान देने से रोकता है जिससे समाज की नजर में दूसरे की प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचे। मानहानि भारत में एक गंभीर अपराध है और इसे भारतीय दंड संहिता की धारा 499 और 500 के तहत परिभाषित किया गया है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार अनिवार्य (मंडेटरी) रूप से पूर्ण नहीं है। इसका मतलब किसी अन्य व्यक्ति की प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचाने की आजादी नहीं है (जो संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत संरक्षित है)। हालांकि ‘सत्य’ को मानहानि के खिलाफ बचाव माना जाता है, लेकिन बचाव तभी मदद करेगा जब ‘बयान (स्टेटमेंट) जनता की भलाई के लिए’ दिया गया हो और यह स्वतंत्र न्यायपालिका (इंडिपेंडेंट ज्यूडिशियरी) द्वारा मूल्यांकन (एवालूएशन) किए जाने वाले तथ्य (फैक्ट) का सवाल है।
अपराध के लिए उकसाना (इनसाइटमेंट टू एन ऑफेंस)
यह एक और आधार है जिसे 1951 के संविधान (प्रथम संशोधन) अधिनियम द्वारा भी जोड़ा गया था। संविधान किसी व्यक्ति को ऐसा कोई भी बयान देने से रोकता है जो अन्य लोगों को अपराध करने के लिए उकसाता है या प्रोत्साहित करता है।
भारत की संप्रभुता और अखंडता (सोवर्गीनिटी एंड इंटिग्रिटी ऑफ़ इंडिया)
इस आधार को बाद में 1963 के संविधान (सोलहवां संशोधन) अधिनियम द्वारा जोड़ा गया था। इसका उद्देश्य केवल किसी को भी ऐसे बयान देने से रोकना या प्रतिबंधित करना है जो देश की अखंडता और संप्रभुता को सीधे चुनौती देते हैं।
निष्कर्ष (कंक्लूज़न)
भाषण के माध्यम से किसी की राय व्यक्त करना भारत के संविधान द्वारा गारंटीकृत मूल अधिकारों में से एक है और आधुनिक (मॉडर्न) संदर्भ में, भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार केवल शब्दों के माध्यम से अपने विचारों को व्यक्त करने तक ही सीमित नहीं है बल्कि इसमें लेखन के संदर्भ (रेफरेंस) में, या दृश्य-श्रव्य (ऑडियो विजुअल) के माध्यम से, या संचार (कम्युनिकेशन) के किसी अन्य तरीके के माध्यम से विचार उन लोगों का प्रसार भी शामिल है। इस अधिकार में प्रेस की स्वतंत्रता का अधिकार, सूचना का अधिकार आदि भी शामिल है। इसलिए इस लेख से यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि एक लोकतांत्रिक राज्य के समुचित कार्य (प्रॉपर फंक्शनिंग) के लिए स्वतंत्रता की अवधारणा बहुत आवश्यक है।
भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत बताए गए “सार्वजनिक व्यवस्था के हित में” और “उचित प्रतिबंध” शब्दों का उपयोग यह इंगित (पॉइंट) करने के लिए किया जाता है कि इस धारा के तहत प्रदान किए गए अधिकार पूर्ण नहीं हैं और उन्हें अन्य लोगों की सुरक्षा राष्ट्र की और सार्वजनिक व्यवस्था और शालीनता बनाए रखने के लिए के लिए प्रतिबंधित किया जा सकता है।