सीआरपीसी की धारा 374 

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Difference between Arbitration and Mediation

यह लेख क्राइस्ट (डीम्ड टू बी यूनिवर्सिटी), बेंगलुरु की कानून की छात्रा Sanjana Santhosh द्वारा लिखा गया है। यह लेख भारतीय आपराधिक कानून व्यवस्था के तहत अपील की अवधारणा की व्याख्या करता है, साथ ही उन परिस्थितियों को भी बताता है जिनमें ऐसी अपीलें आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 के तहत दायर की जा सकती हैं। इस लेख का अनुवाद Sakshi Gupta द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय

आपराधिक न्याय प्रणाली का किसी व्यक्ति के जीवन पर दूरगामी (फार रीचिंग) प्रभाव हो सकता है, सबसे महत्वपूर्ण रूप से उनके जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार को प्रभावित करता है। चूँकि अदालतें, किसी भी अन्य मानव-निर्मित संगठन की तरह, गलतियाँ करने की संभावना रखती हैं, इसका मतलब है कि वे जो निर्णय लेते हैं वे भी त्रुटियों के इस जोखिम के अधीन हैं। न्याय की गंभीर विफलता को रोकने के लिए, अधीनस्थ (सबॉर्डिनेट) न्यायालयों के फैसलों की सावधानीपूर्वक समीक्षा (रिव्यू) करने के लिए प्रक्रियाएं होनी चाहिए। इसे ध्यान में रखते हुए, आपराधिक न्यायालय के फैसले या आदेश की अपील करने के लिए कुछ उपायों को आपराधिक प्रक्रिया में शामिल किया गया है। आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 372 से लेकर धारा 394 तक अपील के संबंध में विस्तृत आवश्यकताएं दी गई हैं।

हालांकि, अपील करने का अवसर हमेशा उपलब्ध नहीं होता है। इस कारण से, उन परिस्थितियों में भी जहां सीआरपीसी द्वारा अपील का अधिकार सीमित कर दिया गया है, कानून निर्माताओं ने न्याय की किसी भी विफलता को पूरी तरह से रोकने के लिए विधायी प्रक्रिया में “पुनरीक्षण (रिवीजन)” नामक एक समीक्षा प्रक्रिया की अवधारणा को एकीकृत (इंटीग्रेट) किया है। उच्च न्यायालयों की पुनरीक्षण शक्तियाँ और उन शक्तियों का प्रयोग करने का तरीका धारा 397 से 405 के तहत निर्धारित किया गया हैं। ये प्राधिकरण (अथॉरिटी) व्यापक और तदर्थ (एड हॉक) हैं, जिन्हें ध्यान में रखा जाना चाहिए।

जबकि मुकदमा करने वालो को अधिकांश परिस्थितियों में अपील करने के अवसर की गारंटी दी जाती है, आपराधिक अदालतों के पास यह निर्णय लेने में व्यापक स्वतंत्रता होती है कि पुन: सुनवाई के लिए प्रस्ताव दिया जाए या नहीं, इसलिए पुनरीक्षण एक गारंटीकृत कानूनी अधिकार नहीं है। कानूनी तौर पर, एक अभियुक्त व्यक्ति को आपराधिक कार्यवाही में कम से कम एक अपील का अधिकार है, लेकिन पुनरीक्षण की स्थितियों में ऐसा कोई सहारा नहीं है। अपील और पुनरीक्षण के बीच के अंतर को अदालत में कई बार पुनरीक्षित किया गया है। हरि शंकर बनाम राव घरी चौधरी (1963), में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के अनुसार अपील और पुनरीक्षण के बीच का अंतर वास्तविक है। जब तक कि अपील का अधिकार प्रदान करने वाला क़ानून अन्यथा निर्दिष्ट नहीं करता है, तब तक अपील में फिर से सुनवाई में कानून और तथ्यों दोनों पर दोबारा सुनवाई शामिल है। ज्यादातर मामलों में, एक उच्च न्यायालय के पास यह सुनिश्चित करने के लिए पिछले फैसले की समीक्षा करने का अधिकार है कि मूल निर्णय कानून के अनुसार दिया गया था।

आपराधिक कानून के तहत अपील

हालांकि “अपील” शब्द को आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 में परिभाषित नहीं किया गया है, इसे उच्च न्यायालय द्वारा निचली अदालत के फैसले की समीक्षा के रूप में माना जा सकता है। इस बात पर जोर दिया जाना चाहिए कि आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973, या किसी भी अन्य कानून, जो लागू है, में दी गई विधायी प्रक्रियाओं के अलावा किसी आपराधिक अदालत के किसी भी निर्णय या आदेश से कोई अपील नहीं की जा सकती है। इसका मतलब यह है कि प्रारंभिक अपील भी कानून द्वारा समय-सीमित है; इसलिए, अपील करने का कोई “निहित (वेस्टेड) अधिकार” मौजूद नहीं है। इस सिद्धांत के पीछे तर्क यह है कि मामले की सुनवाई करने वाली अदालतों द्वारा मुकदमे को निष्पक्ष रूप से नियंत्रित किया गया था। बरी होने की स्थिति में, एक कम अपराध के लिए सजा, या अपर्याप्त मुआवजा दिया जाता है तो पीड़ित अदालत के फैसले के खिलाफ अपील दायर कर सकता है। सत्र न्यायालयों और उच्च न्यायालयों में अपील आमतौर पर नियमों और प्रक्रियाओं के समान सेट द्वारा शासित होती हैं। उच्च न्यायालय राज्य में अपील का सर्वोच्च न्यायालय है और उन मामलों में अधिक शक्तियाँ प्राप्त करता है जहाँ अपील की अनुमति है। सर्वोच्च न्यायालय देश की अपील की उच्चतम न्यायालय है, इसलिए इसके पास सभी अपीलों में अंतिम विवेक और पूर्ण शक्ति है। सर्वोच्च न्यायालय का अधिकार मुख्य रूप से भारतीय संविधान और सर्वोच्च न्यायालय (आपराधिक अपीलीय अधिकार क्षेत्र (ज्यूरिसडिक्शन) का विस्तार), 1970 के प्रावधानों द्वारा निर्धारित किया जाता है। यदि उच्च न्यायालय बरी होने के फैसले को पलट देता है और प्रतिवादी को आजीवन कारावास, 10 वर्ष की जेल या मृत्यु की सजा सुनाता है, तो प्रतिवादी को सर्वोच्च न्यायालय में अपील करने का अधिकार है। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 134(1) सर्वोच्च न्यायालय के अपीलीय अधिकार क्षेत्र के तहत उसी कानून को स्थापित करता है, जो उस अदालत में आपराधिक अपील के महत्व को पहचानता है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 134(2) के अनुसार, विधायिका ने सर्वोच्च न्यायालय (आपराधिक अपीलीय अधिकार क्षेत्र का विस्तार) अधिनियम, 1970 भी पारित किया, जो सर्वोच्च न्यायालय को कुछ मामलों में उच्च न्यायालय से अपील सुनने का अधिकार देता है। यदि मुकदमे में कई प्रतिवादी शामिल हैं और अदालत ने उन सभी के लिए सजा का आदेश जारी किया है, तो प्रत्येक प्रतिवादी को निर्णय की अपील करने का समान अधिकार है। हालाँकि, अपील करने के अधिकार को सीमित परिस्थितियों में छोड़ा जा सकता है। ये नियम धारा 265G, 375 और 376 में देखे जा सकते हैं। 1973 की आपराधिक प्रक्रिया संहिता निर्धारित करती है कि कुछ स्थितियों को छोड़कर फैसले और आदेशों की अपील नहीं की जा सकती है। यह अपीलों की गंभीर स्थिति को प्रदर्शित करता है।

एक आपराधिक प्रतिवादी मामले की प्रकृति के आधार पर सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय या सत्र न्यायालय में अपील दायर कर सकता है। अरुण कुमार बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (1989) में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के अनुसार इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने सत्र न्यायाधीश के बरी करने के फैसले को पलटा था और अपीलकर्ताओं को दोषी ठहराने का सही फैसला किया था, अगर यह निर्धारित किया गया था कि सत्र न्यायाधीश की स्थिति स्पष्ट रूप से गलत थी और यहां तक ​​कि न्याय की विफलता में भी योगदान दिया था। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने सत्य पाल सिंह बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2015) में फैसला सुनाया कि एक पीड़ित का अगला रिश्तेदार धारा 372 के प्रावधानों के तहत एक उच्च न्यायालय में सजा के खिलाफ अपील करने के लिए खड़ा है, बशर्ते कि मृतक पीड़ित के पिता पीड़ित की परिभाषा में शामिल हो। पीड़ित को बरी किए जाने के फैसले के खिलाफ अपील शुरू करने के लिए उच्च न्यायालय की अनुमति की आवश्यकता होती है, जैसा कि सर्वोच्च न्यायालय ने सत्य पाल सिंह बनाम मध्य प्रदेश राज्य के मामले में फैसला सुनाया था। ये सीआरपीसी के तहत अपील प्रक्रिया की आधारशिला (कॉरस्टोन) हैं:

  • अपील करने का अधिकार कानून द्वारा स्थापित होना चाहिए।
  • अपील मांगने का स्वत: अधिकार नहीं है।
  • केवल सजा के खिलाफ कोई अपील नहीं है।
  • छोटे मामले अंतिम होते हैं और उनकी अपील नहीं की जा सकती है।
  • दोष की दलील का परिणाम स्वत: सजा होता है; तो यहां अपील का अधिकार नहीं होता है।

अपील कौन कर सकता है

एक व्यक्ति जिसे परीक्षण में दोषी पाया जाता है, वह उस फैसले की अपील दायर कर सकता है। जब कोई अपील की जाती है, तो इसका अर्थ यह नहीं होता कि मामले की फिर से सुनवाई हो रही है। परीक्षण प्रतिलेख (ट्रांसक्रिप्ट) द्वारा उठाए गए मुद्दों का उपयोग अपील पर निर्णय लेने के लिए किया जाता है। अदालत अपीलकर्ता से नए साक्ष्य सुन सकती है यदि परिस्थितियाँ ऐसी होती हैं। इसे प्रदर्शित करने के लिए एक नए परीक्षण के लिए अपने तैयार किए गए बयानों का विवरण देने वाले गवाहों के हलफनामे (एफिडेविट) अदालत में प्रस्तुत किए जाने चाहिए। अदालत को राजी करने का भार अपीलकर्ता पर है कि वह:

  • दावा करता है कि जूरी के फैसले को पलट दिया जाना चाहिए क्योंकि यह मनमाना था या सबूतों द्वारा समर्थित नहीं था,
  • न्यायाधीश ने कानून की व्याख्या करने में गलती की है, या
  • न्याय की विफलता हुई थी।

अगर अपील दायर की जाती है, तो अदालत इसके साथ कुछ भी कर सकती है। अदालत सजा को बरकरार रख सकती है, सजा को पलट सकती है, बरी होने के फैसले को प्रतिस्थापित (सब्स्टीट्यूट) कर सकती है, या एक नए मुकदमे का आदेश दे सकती है। भले ही अदालत अपीलकर्ता के पक्ष में कानून की तकनीकीता पर फैसला सुनाती है, फिर भी वह अपील को खारिज करने का निर्णय ले सकती है यदि यह निर्धारित करती है कि न्याय की कोई गंभीर विफलता नहीं हुई थी। लोक अभियोजन के निदेशक (डायरेक्टर) भी अपील की अदालत के साथ एक अपील दायर कर सकते हैं, यह अनुरोध करते हुए कि अपील की अदालत एक बरी होने के आदेश को रद्द कर देती है और मामले का पुनः विचारण करती है, या एक अंतर्वर्ती (इंटरलोक्यूटरी) निर्णय के खिलाफ अपील दायर करती है।

बाद की अपील

एक व्यक्ति जो मुकदमे में दोषी पाया गया है, अपील न्यायालय के अनुमोदन (अप्रूवल) से, दूसरी या बाद की अपील कर सकता है। अपील करने की अनुमति मांगने वाले व्यक्ति को अदालत को विश्वास दिलाना चाहिए कि नए और प्रेरक (पर्सुएसिव) सबूत मौजूद हैं और उन्हें ध्यान में रखा जाना चाहिए। अगर अदालत का मानना ​​​​है कि न्याय की एक महत्वपूर्ण विफलता हुई थी, तो वह एक नई अपील सुन सकता है, सजा को उलट सकता है, और या तो बरी होने के फैसले को प्रतिस्थापित कर सकता है या एक नए मुकदमे का आदेश दे सकता है।

अपील के प्रकार

सीआरपीसी की धारा 373 – सत्र न्यायालय में अपील

यदि किसी व्यक्ति को शांति बनाए रखने या अच्छे व्यवहार के उद्देश्य से सुरक्षा प्रदान करने का आदेश दिया गया है, तो धारा 117 के अनुसार सत्र न्यायालय में आदेश के खिलाफ अपील दायर की जा सकती है।

जहां किसी व्यक्ति को ज़मानत स्वीकार करने या अस्वीकार करने से इनकार करने के किसी आदेश द्वारा गलत किया गया है, वह व्यक्ति धारा 121 के तहत निवारण (रिड्रेस) की मांग कर सकता है।

सीआरपीसी की धारा 374 – सजा से अपील

  • मूल आपराधिक अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करते हुए जारी की गई सजा के उच्च न्यायालय के आदेशों को सर्वोच्च न्यायालय में अपील करने का अधिकार है।
  • सत्र न्यायालय या अतिरिक्त सत्र न्यायालय द्वारा जारी सजा के आदेश उच्च न्यायालय में अपील योग्य होते हैं।
  • यदि सत्र न्यायालय या अतिरिक्त सत्र न्यायालय सात साल से अधिक की जेल की सजा देता है, तो प्रतिवादी उच्च न्यायालय में निर्णय की अपील कर सकता है।
  • मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट, न्यायिक मजिस्ट्रेट I, या न्यायिक मजिस्ट्रेट II द्वारा दी गई सजा के खिलाफ अपील सत्र न्यायालय में की जा सकती है।
  • सत्र न्यायालय आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 325 और 360 के तहत आपराधिक कार्यवाही के परिणामों से असंतुष्ट किसी भी व्यक्ति की अपील सुनता है।

धारा 374 के अपवाद

आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 374 के अपवाद सीआरपीसी की धारा 375 और 376 में पाए जाते हैं, जैसा कि नीचे दिया गया है:

  1. जहां प्रतिवादी ने दोषी होने की दलील दी है और उस याचिका के आधार पर दोषी पाया गया है, वहां सजा की अपील करने का कोई अधिकार नहीं है।
  2. एक व्यक्ति जिसे दोषी पाया गया है और उच्च न्यायालय द्वारा छह महीने से अधिक की कैद या एक हजार रुपये से अधिक का जुर्माना या इस तरह के कारावास और जुर्माना दोनों के लिए सजा सुनाई गई है, को उस सजा के खिलाफ अपील करने की अनुमति नहीं दी जाएगी।
  3. एक व्यक्ति जिसे दोषी पाया गया है और सत्र अदालत या मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट द्वारा तीन महीने से अधिक की कैद या दो सौ रुपये से अधिक का जुर्माना, या इस तरह के कारावास और जुर्माना दोनों के लिए सजा सुनाई गई है, तो इस सजा के खिलाफ अपील दायर करने की अनुमति नहीं दी जाएगी।
  4. जिस व्यक्ति पर प्रथम श्रेणी के मजिस्ट्रेट द्वारा एक सौ रुपये से कम का जुर्माना लगाया जा सकता है उसे उस सजा के खिलाफ अपील दायर करने की अनुमति नहीं दी जाएगी।

सीआरपीसी की धारा 377 और 378 – राज्य अपील

राज्य सरकार अपील कर सकती है :

  • धारा 377 के तहत, सजा की गंभीरता को बढ़ाने के लिए;
  • धारा 378 के तहत, एक अभियुक्त व्यक्ति के बरी होने के आदेश को पलटने के लिए

सीआरपीसी की धारा 377 – सजा के खिलाफ अपील

राज्य सरकार इस आधार पर सत्र न्यायालय या उच्च न्यायालय में सजा की अपील कर सकती है कि यह इस खंड के अनुसार अपर्याप्त है, जिसे लोक अभियोजक (पब्लिक प्रॉसिक्यूटर) के कार्यालय के माध्यम से किया जा सकता है।

यदि कोई मजिस्ट्रेट के सजा के फैसले से असहमत है, तो उसे सत्र न्यायालय में अपील दायर करने का अधिकार है। यदि निचली अदालत द्वारा सजा सुनाई जाती है, तो उच्च न्यायालय में अपील दायर की जा सकती है।

यदि दिल्ली विशेष पुलिस प्रतिष्ठान (एस्टेब्लिशमेंट) या अन्य केंद्रीय एजेंसी द्वारा जांच की जाती है, तो केंद्र सरकार लोक अभियोजक को निर्देश जारी करेगी।

यह उम्मीद की जाती है कि किसी भी अपील या उनकी सजा बढ़ाने के फैसले से पहले अभियुक्तों की निष्पक्ष सुनवाई की जाएगी।

सीआरपीसी की धारा 378 – बरी होने के मामले में अपील

यदि एक मजिस्ट्रेट एक व्यक्ति को संज्ञेय (कॉग्निजेबल) और गैर-जमानती अपराध से जुड़े मामले में बरी करता है, तो जिला मजिस्ट्रेट लोक अभियोजक को सत्र न्यायालय में निर्णय की अपील करने का निर्देश दे सकता है। यदि उच्च न्यायालय के अलावा किसी अन्य न्यायालय द्वारा बरी होने का आदेश जारी किया जाता है, तब भी राज्य उस न्यायालय में अपील दायर करके निर्णय की समीक्षा के लिए कह सकता है।

यदि दिल्ली विशेष पुलिस प्रतिष्ठान या किसी अन्य सरकारी निकाय द्वारा जांच की गई थी, तो अपील दायर करने के तरीके के बारे में केंद्र सरकार निर्देश देगी।

यह उल्लेख किया जाना चाहिए कि वहां अपील शुरू करने से पहले उच्च न्यायालय के प्राधिकरण (ऑथोराइजेशन) की मांग की जाएगी।

इस घटना में कि उच्च न्यायालय अपील करने के लिए विशेष अनुमति देता है, शिकायतकर्ता ऐसा उस स्थिति में कर सकता है जब शिकायत के आधार पर शुरू किया गया मामले में बाद में वह बरी हो जाता है। एक सरकारी कर्मचारी जो दोषी नहीं पाया गया है, बरी होने के छह महीने के भीतर एक नया आवेदन दायर कर सकता है।

यदि शिकायतकर्ता सरकारी कर्मचारी नहीं है तो बरी होने के फैसले के 60 दिनों के भीतर आवेदन दायर किया जा सकता है। अगर ऐसी अपील खारिज कर दी जाती है तो बरी होने के फैसले से कोई अपील नहीं होगी।

सीआरपीसी की धारा 379 – कुछ मामलों में उच्च न्यायालय द्वारा सजा के खिलाफ अपील

यदि उच्च न्यायालय द्वारा किसी व्यक्ति की बरी होने के आदेश को पलट दिया जाता है और बाद में उसे दोषी ठहराया जाता है और मृत्युदंड, आजीवन कारावास, या 10 साल या उससे अधिक की कैद की सजा सुनाई जाती है, तो अभियुक्त सर्वोच्च न्यायालय में अपील कर सकता है।

सीआरपीसी की धारा 380 – कुछ मामलों में अपील का विशेष अधिकार

अगर एक सह-प्रतिवादी को एक अपील योग्य सजा मिली है, तो दूसरे प्रतिवादी को इस प्रावधान के तहत अपनी गैर-अपील योग्य सजा की अपील करने का अधिकार है।

गैर-अपील योग्य मामले

सीआरपीसी की धारा 375 – कुछ दोषी दलीलें गैर-अपील योग्य हैं

कोई अपील नहीं होगी यदि प्रतिवादी उच्च न्यायालय के समक्ष दोषी होने की दलील देता है और अदालत ऐसी दलील दर्ज करती है और प्रतिवादी को दोषी पाती है।

यदि प्रतिवादी निचली अदालत में दोषी याचिका दर्ज करता है, तो उच्च न्यायालय में सजा की अपील की जा सकती है।

निम्नलिखित के आधार पर सजा की अपील करने का अधिकार है:

  1. सजा की समग्रता के लिए।
  2. सजा देने की प्रक्रिया का पालन कानून के मुताबिक किया गया है के लिए।

सीआरपीसी की धारा 376 – छोटे मामलों में अपील नहीं होती है

छोटे दुष्कर्म अपील के अधीन नहीं होंगे। छोटे मामलों को संभालने की प्रक्रियाएँ अधिकार क्षेत्र के अनुसार भिन्न होती हैं। निम्नलिखित छोटे अपराधों के उदाहरण हैं:

  • उच्च न्यायालय के मामले में, संभावित दंड में या तो 6 महीने तक का कारावास या 1000 रुपये तक का जुर्माना, या दोनों शामिल हैं।
  • सत्र न्यायालय में दोषी पाए जाने पर तीन महीने तक की जेल, 200 रुपये का जुर्माना या दोनों है। 
  • मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट द्वारा मुकदमा चलाने पर 3 महीने तक की जेल या 200 रुपये का जुर्माना हैं।
  • न्यायिक मजिस्ट्रेट के सामने कानून का उल्लंघन करने हुए पकड़े जाने पर 100 रुपये का जुर्माना है।
  • आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 260 के तहत अधिकृत मजिस्ट्रेट के मामले में 200 रुपये तक का जुर्माना है।

महत्वपूर्ण निर्णय

धनंजय राय बनाम बिहार राज्य (2022)

इस मामले में अभय एस.ओका और एम.एम सुंदरेश की बेंच ने फैसला किया कि आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 374 की उप-धारा (2) के तहत एक अभियुक्त द्वारा दायर सजा के खिलाफ अपील को इस आधार पर खारिज नहीं किया जा सकता है कि अभियुक्त फरार है। यह निर्णय आपराधिक न्याय के कारण को आगे बढ़ाने के लिए किया गया था।

अभियुक्त को 4 सितंबर, 2009 को सत्र न्यायालय द्वारा दोषी पाया गया था, और उसके खिलाफ भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 302 और 120B के साथ-साथ 1959 के शस्त्र अधिनियम की धारा 27(1) के तहत आरोप लगाए गए थे। अभियुक्त व्यक्ति अपना मामला पटना के उच्च न्यायालय में ले गया, जहाँ उन्होंने अपील दायर की। कुछ समय बाद, यह निर्धारित किया गया था कि वह गायब हो गया था। 25 अगस्त, 2015 को पटना उच्च न्यायालय की बेंच द्वारा सजा के खिलाफ अपील को खारिज कर दिया गया था, केवल इस कारण से कि अभियुक्त अपील की वैधता पर कोई विचार किए बिना, बिना किसी निशान के गायब हो गया था। उच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि भले ही अपील करने का अधिकार पर्याप्त है, अपीलकर्ता ने ऐसा करने का अपना अधिकार खो दिया, जिस क्षण उसने कैद से बचकर कानूनी प्रक्रिया का दुरुपयोग किया। यहां अपीलकर्ता का आचरण आपराधिक न्याय प्रणाली के प्रति जानबूझकर प्रतिरोध (रेजिस्टेंस) का गठन करता है।

लेकिन सर्वोच्च न्यायालय, उच्च न्यायालय के तरीके से सहमत नहीं था जब उच्च न्यायालय ने स्वीकार किया कि वह कानून की स्थापित स्थिति से हट रहा था।

न्यायालय ने कहा कि अधिकार क्षेत्र से भागकर न्याय से बचने में अपीलकर्ता के साहस के बारे में उच्च न्यायालय की व्यथा समझ में आती है। गैर-अभियोजन एक सजा की पूर्व में दी गई अपील के गुण-दोषों की अवहेलना करने का वैध कारण नहीं है।

नतीजतन, अदालत ने चुनौती दिए गए फैसले को उलट दिया और मामले को फिर से उच्च न्यायालय में उसके गुण-दोष के आधार पर सुनवाई के लिए वापस भेज दिया।

चूंकि अपील 2009 से है और भारतीय दंड संहिता की धारा 302 के तहत सजा को चुनौती देती है, अदालत ने कहा है कि इसे हल करने पर अत्यधिक ध्यान दिया जाना चाहिए। अदालत ने फैसला सुनाया कि “यदि उचित समय के भीतर अपील की सुनवाई नहीं की जा सकती है, तो उस स्थिति में, अपीलकर्ता को सजा के निलंबन की मांग करने की स्वतंत्रता दी जानी चाहिए” और उच्च न्यायालय से अपील पर यथाशीघ्र विचार करने के लिए कहा, आदर्श रूप से छह महीने के भीतर।

जोगी बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2021)

1973 की आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 374 के तहत एक मूल अपील की सुनवाई करते समय, उच्च न्यायालय को सबूतों का अपना विश्लेषण करना चाहिए और रिकॉर्ड में मौजूद सबूतों के अपने मूल्यांकन के आधार पर अभियुक्त के दोष या निर्दोषता के बारे में अपना निष्कर्ष निकालना चाहिए।

दिलीप एस. दहनुकर बनाम कोटक महिंद्रा कंपनी लिमिटेड (2007)

एक अपराधी जिसे दोषी ठहराया गया है, उसे संहिता की धारा 374 के प्रावधानों के तहत अपनी अपील का प्रयोग करने का अहस्तांतरणीय (अनएलिनेबल) अधिकार है। अनुच्छेद 21 की व्यापक परिभाषा के आलोक में, एक सजा की अपील करने की क्षमता जिसका किसी की स्वतंत्रता पर प्रभाव पड़ता है, वैसे ही एक मौलिक अधिकार है। इसलिए, अपील के अधिकार को किसी भी तरह से सीमित या किसी शर्त के अधीन नहीं किया जा सकता है। अपील करने का अधिकार भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 और आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 374 द्वारा गारंटीकृत है।

बिंदेश्वरी प्रसाद सिंह @ बी.पी बनाम बिहार राज्य (2002)

आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 374 के तहत बरी किए जाने वाली अपील से निपटने के दौरान, उच्च न्यायालय के पास आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 401 के तहत एक निजी पक्ष के उदाहरण पर बरी होने के आदेश के तहत अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करने वाले पुनरीक्षण (रिवीजनल) न्यायालय की तुलना में बहुत व्यापक अधिकार क्षेत्र है। सभी दलीलें जो पुनरीक्षण याचिका के पक्ष में दी जा सकती हैं, अपील में भी दी जा सकती हैं, लेकिन इसके विपरीत नहीं। जब बरी होने के फैसले के खिलाफ राज्य की अपील खारिज हो जाती है, तो निचली अदालत का फैसला अंतिम हो जाता है। तत्पश्चात किसी निजी पक्ष के कहने पर बरी होने के आदेश के खिलाफ आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 401 के तहत पुनरीक्षण अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करना ऐसे परिदृश्य में विवेक का उचित प्रयोग नहीं हो सकता है।

अपीलीय अदालत

आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 386 के तहत एक अपीलीय अदालत के अधिकार क्षेत्र का विस्तार से वर्णन किया गया है। हालांकि अपीलीय अदालत के पास किसी अपील को खारिज करने का अधिकार है, लेकिन वह ऐसा तभी करेगी जब धारा 384 के तहत अपील खारिज नहीं की गई हो। आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 386 के अनुसार, अपीलीय अदालत अपील को खारिज कर सकती है यदि उसे पता चलता है कि अपील के तहत आदेश में हस्तक्षेप करने के लिए अपर्याप्त कारण है।

यदि अपीलीय अदालत ने बताए गए कारणों से अपील को पहले ही खारिज नहीं किया है, तो निम्नलिखित हो सकता है:

  1. निचली अदालत के बरी करने के फैसले को उलट दें और मामले को आगे की जांच, एक नए मुकदमे या प्रतिबद्धता (कमिटमेंट) के लिए, जैसा उपयुक्त हो, वापस भेज दें; या प्रतिवादी को दोषी पाए और उचित सजा दे;
  2. निष्कर्ष और सजा को उलट दें और अभियुक्त को बरी या उन्मोचित (डिस्चार्ज) करें, या उसे ऐसे अपीलीय न्यायालय के अधीनस्थ (सबॉर्डिनेट) सक्षम अधिकार क्षेत्र के न्यायालय द्वारा पुन: परिक्षण करने का आदेश दें, या उसे परीक्षण के लिए भेज दे, या निष्कर्ष को बदल दें, निष्कर्ष में बदलाव के साथ या उसके बिना, प्रकृति या सीमा, या सजा की प्रकृति और सीमा में परिवर्तन करें, लेकिन ऐसा नहीं कि सजा की अपील में इसे बढ़ाया जा सके;
  3. निष्कर्ष और सजा को उलट दें और अभियुक्त को बरी या उन्मोचित कर दें या अपराध का परीक्षण करने के लिए सक्षम न्यायालय द्वारा उस पर फिर से मुकदमा चलाने का आदेश दें; सजा को बनाए रखने वाली खोज को बदलें; सजा की प्रकृति, सीमा, या दोनों को बदलें, ताकि इसे बढ़ाया या घटाया जा सके; खोज में परिवर्तन के साथ या उसके बिना, प्रकृति, सीमा, या दोनों में परिवर्तन करें;
  4. अपील लंबित में किसी पूर्व आदेश में संशोधन करे या पलट दे;
  5. सजा के लिए आवश्यक या उपयुक्त कोई भी समायोजन (एडजस्टमेंट) या आदेश करें; बशर्ते, सजा तब तक नहीं बढ़ाई जाएगी जब तक कि अभियुक्त को ऐसी वृद्धि के खिलाफ कारण बताने का मौका नहीं दिया गया हो।

इसके अलावा, अपीलीय न्यायालय प्रतिवादी पर उस अदालत द्वारा लगाए गए दंड से अधिक जुर्माना नहीं लगाएगा जिसने आदेश या सजा जारी की थी जो अपील का विषय है। सजा के आदेश से उत्पन्न अपील के संबंध में, धारा 386(b) अपीलीय न्यायालय को व्यापक शक्तियां प्रदान करती है, और अपीलीय न्यायालय के पास उस व्यक्ति को बरी करने का भी अधिकार है, जिसे अदालत द्वारा अपराध का दोषी पाया गया है।

आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 386 के अनुसार, एक व्यक्ति जिसे दोषी ठहराया गया है, उसे अपने मामले की अपील करने का अधिकार है, और अपीलीय अदालत के पास यह अधिकार है कि वह अपील के लंबित रहने के दौरान यह आदेश दे सकती है कि जिस सजा या आदेश के खिलाफ अपील की जा रही है, उसका निष्पादन निलंबित कर दिया जाए, और यह भी कि अगर वह व्यक्ति कैद में है, तो उसे जमानत पर या खुद के बॉन्ड रिहा कर दिया जाए।

निष्कर्ष

एक अपील के परिणामस्वरूप एक नया परीक्षण नहीं होता है। अपील करने के लिए पर्याप्त आधार हैं या नहीं, इसका मूल्यांकन करने के लिए, अपीलीय अदालत निचली अदालत की कार्यवाही के रिकॉर्ड की समीक्षा करती है। परीक्षण की एक पूरी प्रतिलेख के साथ-साथ सभी पूर्व और बाद के परीक्षण गतियों को रिकॉर्ड में शामिल किया जाता है। अपीलीय अदालतें मुकदमे में पेश किए गए सबूतों को ही नहीं देखती हैं; वे पक्षों द्वारा प्रस्तुत किए गए संक्षिप्त विवरण को भी पढ़ती हैं। अपीलीय संक्षेप एक अपील में किए गए तर्कों के लिए संदर्भ प्रदान करते हैं और संबंधित कानूनी मुद्दों को दांव पर लगाते हैं। चूंकि यह कानून द्वारा बनाया गया था, इसलिए अपीलीय अदालत के अधिकार और अधिकार क्षेत्र को कानून के दायरे में परिभाषित किया जाना चाहिए। उसी समय, एक अपील अदालत एक “त्रुटि का न्यायालय” है, जिसका उद्देश्य गलत होने पर निचली अदालत के फैसले को संशोधित करना है, और इसका अधिकार क्षेत्र निचली अदालत के समान होना चाहिए। इसे ऐसा कार्य नहीं करना चाहिए और न ही कर सकता है जिसे निष्पादित करने के लिए निचली अदालत के पास अधिकार क्षेत्र नहीं है। इसी तरह, ऐसी परिस्थितियों में जहां सजा के लिए मुकदमा उच्च न्यायालय में आयोजित नहीं किया गया था, राज्य सरकार के पास यह अधिकार है कि वह लोक अभियोजक को सजा के खिलाफ सत्र न्यायालय या उच्च न्यायालय में अपर्याप्तता के आधार पर अपील दायर करने का निर्देश दे सकती है। न तो पीड़ितों और न ही शिकायतकर्ताओं और न ही किसी और को इस आधार पर अपनी सजा को चुनौती देने वाली अपील दायर करने का अवसर दिया गया है कि वे अपर्याप्त हैं। इसके अलावा, अदालत को प्रतिवादी को किसी भी प्रस्तावित सजा वृद्धि के खिलाफ तर्क प्रस्तुत करने का उचित अवसर प्रदान करना चाहिए। प्रतिवादी को बरी होने के लिए या उसकी सजा कम करने के लिए कारण दिखाने का अधिकार है।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

अपील दायर करने का प्रारूप (फॉर्मेट) क्या है?

कोई अपील के लिए केवल लिखित रूप में याचिका दायर कर सकता है। अपील की एक लिखित याचिका अपीलकर्ता या उसके प्लीडर द्वारा दी जाएगी, और ऐसी हर याचिका (जब तक की अदालत में इसे अलग तरीके से प्रस्तुत करने के लिए नहीं कहा गया है) उस फैसले या आदेश की एक प्रति (कॉपी) के साथ होगी, जिसके खिलाफ अपील की गई है, जैसा कि धारा 382 में कहा गया है।

किन परिस्थितियों में अपील को खारिज किया जाना संभव है?

आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 394 में कहा गया है कि जुर्माने की अपील के अपवाद के साथ अभियुक्त की मृत्यु पर सजा की अपील करने का अधिकार खो जाता है।

जब मृत्यु या कारावास की सजा के खिलाफ अपील लंबित है, और अपीलकर्ता की अपील प्रक्रिया के दौरान मृत्यु हो जाती है, तो अपील को ख़त्म नहीं किया जाएगा यदि अपीलकर्ता के करीबी रिश्तेदारों में से कोई भी अपीलकर्ता की मृत्यु से 30 दिन के अंदर अपीलीय अदालत में अपील जारी रखने के लिए अनुमति के लिए आवेदन करता है।

अपील के आधार क्या हैं?

  1. कानूनी त्रुटि।
  2. जूरर कदाचार (मिसकंडक्ट)।
  3. वकील की अप्रभावी सहायता।

क्या पीड़ित को अपील करने की अनुमति है, और यदि हां, तो किस तरह के आदेश के खिलाफ?

पीड़ित के पास अपील दायर करने का विकल्प है। निम्नलिखित निर्णयों की अपील की जा सकती है:

  1. जहा दोषी होने का निर्णय दिया गया है,
  2. जहा अभियुक्त को निम्नतर अपराध का दोषी पाते हुए आदेश नहीं दिया गया है, और
  3. अपर्याप्त मुआवजा देने का आदेश दिया गया है।

वे कौन से मामले हैं जब अपील दायर की जाती है?

निम्नलिखित परिस्थितियों में अपील की आवश्यकता होती है:

  1. एक व्यक्ति जो एक उच्च न्यायालय द्वारा आयोजित मुकदमे में दोषी पाया गया है, सर्वोच्च न्यायालय में निर्णय की अपील कर सकता है। हालाँकि, यदि परीक्षण एक सत्र न्यायाधीश, अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश, या किसी अन्य अदालत के समक्ष होता है और दी गई सजा सात साल से अधिक है, तो प्रतिवादी सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर कर सकता है।
  2. किसी को भी किसी भी आदेश की अपील करने का अधिकार है जो सुरक्षा की मांग करता है या जो शांति या अच्छे व्यवहार को बनाए रखने के उद्देश्य से ज़मानत से इंकार या अस्वीकार करता है।
  3. आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 377 में यह प्रावधान है कि यदि राज्य या केंद्र सरकार का मानना ​​है कि अदालत द्वारा दी गई सजा बहुत कम है, तो वे लोक अभियोजक को फैसले के खिलाफ अपील करने का निर्देश दे सकती हैं।

वे कौन से मामले हैं जब अपील दायर नहीं की जाती है?

  • झूठी गवाही पर कोई भरोसा नहीं जब तक कि कानून द्वारा आवश्यक न हो: ज्यादातर मामलों में, अपील केवल तभी दर्ज की जाती है जब कानून इसकी अनुमति देता है। आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 372 के तहत कहा गया है, “इस संहिता में या किसी अन्य कानून के प्रभावी होने के कारण किसी भी निर्णय या किसी आपराधिक अदालत के आदेश से कोई अपील नहीं हो सकती है।”
  • छोटे मामलों में कोई अपील नहीं: धारा 376 में प्रावधान है कि एक मामूली अपराध के लिए दोषी ठहराया गया व्यक्ति अपनी सजा की अपील का हकदार नहीं होगा।

संदर्भ

 

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