यह लेख विवेकानंद इंस्टीट्यूट ऑफ प्रोफेशनल स्टडीज (वीआईपीएस), जीजीएसआईपीयू, नई दिल्ली की Nimisha Dublish द्वारा लिखा गया है। यह लेख वैकल्पिक विवाद समाधान (अल्टरनेटिव डिस्प्यूट रेजोल्यूशन) (एडीआर) के तरीकों के रूप में सुलह (कॉन्सिलिएशन) और बातचीत (नेगोशिएशन) के बीच के अंतर पर केंद्रित है। इस लेख का अनुवाद Sakshi Gupta द्वारा किया गया है।
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परिचय
हालांकि मुकदमेबाजी कई वर्षों से चलन में है, यह हर मुवक्किल (क्लाइंट) के हितों की सेवा नहीं करता है। मुकदमेबाजी को अक्सर महंगा, अप्रत्याशित (अनप्रिडिक्टेबल), धीमा माना जाता है और आमतौर पर इसका हल बहुत कम होता है। अदालतों को एक आवश्यक संस्था माना जाता है जो समाज को अराजकता से बचने में मदद करती है, और उनके महत्व पर पर्याप्त बल नहीं दिया जा सकता है। कई विवाद न्यायिक अधिकारियों के हस्तक्षेप के बिना हल किए जा सकते हैं। इस प्रकार के विवादों को उनके लक्ष्यों को प्राप्त करने और पूरा करने के लिए कुछ विशिष्ट प्रकार के औपचारिक (फॉर्मल) दिशानिर्देशों की आवश्यकता होती है। न्यायिक अधिकारियों के इस बोझ को कम करने के लिए, विवाद समाधान की अवधारणा लागू होती है। पक्षों को एक सौहार्दपूर्ण समाधान तक पहुंचने में मदद करने के लिए, वैकल्पिक विवाद समाधान (एडीआर) के तरीके और तकनीकें उन्हें अपने मतभेदों को सुलझाने की अनुमति देती हैं। अब, एडीआर को व्यापक रूप से स्वीकार किया जाता है और इसे राष्ट्रीय के साथ-साथ अंतर्राष्ट्रीय मान्यता भी प्राप्त हुई है। हालांकि एडीआर के ये तरीके सभ्यता के परिष्कार (सोफेस्टिकेशन) से बहुत पहले अस्तित्व में रहे हैं, लेकिन उन्होंने हाल ही में वैश्विक मान्यता प्राप्त की है। तीसरे पक्ष द्वारा किसी विवाद को सुलझाने या समाधान करने के लिए लगातार प्रयास किए जाते हैं। आम तौर पर, यह तीसरा पक्ष विवादित पक्षों की सहमति से नियुक्त एक तटस्थ (न्यूट्रल) पक्ष होता है। एडीआर में कानून और पहलुओं की एक विस्तृत श्रृंखला शामिल होती है। संक्षेप में, आज के युग में, लोग मुकदमेबाजी के लिए विशाल संसाधनों को एकत्र करने से बचते हैं और व्यक्तियों या व्यक्तियो के समूहों या संगठनों के बीच विवादों को हल करने के लिए एडीआर तरीकों के लिए जाते हैं। मध्यस्थता (आर्बिट्रेशन), बीच-बचाव (मीडिएशन), सुलह और बातचीत एडीआर के व्यापक रूप से स्वीकृत तरीके हैं।
यह लेख सुलह और बातचीत के बीच के अंतर से संबंधित है।
अर्थ
सुलह
एक गोपनीय, स्वैच्छिक और निजी विवाद समाधान तरीका जिसमें एक व्यक्ति (तटस्थ) को पक्षों को समझौते तक पहुंचने में मदद करने के लिए नियुक्त किया जाता है, सुलह कहलाती है। विवादित पक्षों को तीसरे पक्ष द्वारा प्रदान किए गए विकल्पों का पता लगाने और उनका विश्लेषण करने का अवसर प्रदान किया जाता है ताकि यह निर्धारित किया जा सके कि समझौता संभव है या नहीं। प्रक्रिया एक सुलहकर्ता (कॉन्सिलिएटर) द्वारा की जाती है, जो एक सौहार्दपूर्ण समझौते पर आने के लिए पक्षों के साथ अलग-अलग मिलते हैं। यह एक लचीली प्रक्रिया है, और निर्णय तनाव कम करके, संचार (कम्यूनिकेशन) में सुधार करके और अन्य तरीकों को अपनाकर लिए जाते हैं। यह एक जोखिम-मुक्त तरीका है और विवादित पक्षों पर तब तक बाध्यकारी नहीं है जब तक कि वे इस पर हस्ताक्षर नहीं करते हैं।
बातचीत
एक प्रक्रिया जिसमें संचार के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूपों का उपयोग किया जाता है और जिसके माध्यम से पक्षों के बीच विवाद को हल करने के उद्देश्य से एक संयुक्त कार्रवाई होती है, बातचीत कहलाती है। बातचीत के इतिहास का पता राजशाही के युग से लगाया जा सकता है, जब राजा युद्ध के समय रक्तपात (ब्लडशेड) को रोकने के लिए बातचीत करते थे। समय बीतने के साथ बातचीत का दायरा बढ़ता गया है। बातचीत भारी कागजी कार्रवाई, अत्यधिक समय की खपत, विलंबित प्रक्रिया और मुकदमेबाजी के महंगे नुकसान को ओवरराइड करती है।
कानूनी मानदंड
सुलह
मध्यस्थता और सुलह अधिनियम, 1996, सुलह से संबंधित घरेलू और अंतर्राष्ट्रीय दोनों विवादों को शामिल करता है। जहां तक अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति के सुलह का संबंध है, यह केवल विवादों की व्यावसायिक (कमर्शियल) प्रकृति तक ही सीमित है। अधिनियम अंतरराष्ट्रीय सुलह को दो या दो से अधिक पक्षों के बीच विवाद से संबंधित कार्यवाही के रूप में परिभाषित करता है, जहां कम से कम एक पक्ष विदेशी है। एक विदेशी पक्ष एक व्यक्ति (एक विदेशी नागरिक), एक कंपनी (भारत के बाहर निगमित (इनकॉरपोरेटेड)), या एक विदेशी देश की सरकार हो सकती है।
सुलह पर यूनिसिटरल नियम, 1980 के तहत दिए गए नियमों का अधिनियम के भाग III के तहत भारतीय विधायकों द्वारा बारीकी से पालन किया जाता है। ये नियम सुलह को अंतरराष्ट्रीय वाणिज्यिक संबंधों और विभिन्न कानूनी, सामाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि से संबंधित देशों द्वारा समान सुलह नियमों को अपनाने के संदर्भ में उत्पन्न होने वाले विवादों को सौहार्दपूर्ण ढंग से निपटाने की एक विधि के रूप में परिभाषित करते हैं।
1999 में सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (सीपीसी) में एक संशोधन ने अदालतों को एक सौहार्दपूर्ण समाधान तक पहुंचने के लिए लंबित मामलों को एडीआर को संदर्भित करने में सक्षम बनाया। जब से सीपीसी में धारा 89 को जोड़ा गया था, जिसके तहत एक अदालत किसी मामले जहां कहीं भी अदालत को यह प्रतीत होता है कि निपटान के तत्व हैं जो विवादित पक्षों को स्वीकार्य हो सकते हैं, को मध्यस्थता, सुलह या बीच-बचाव के लिए संदर्भित कर सकती है।
बातचीत
भारत में, बातचीत को वैधानिक मान्यता प्राप्त नहीं है। एडीआर के एक तरीके के रूप में बातचीत के लिए कोई विशेष क़ानून नहीं है। बल्कि यह विवाद को सुलझाने के लिए पक्षों के बीच आत्म-परामर्श का एक रूप है। यह विवादों के निवारण का सबसे सरल साधन है। पक्ष तीसरे पक्ष के हस्तक्षेप के बिना एक दूसरे से बात करके शुरू करते हैं। बातचीत एक संवाद के रूप में कार्य करती है जिसका उद्देश्य विवाद को हल करना और सामूहिक लाभ के लिए कार्रवाई और सौदेबाजी के कारण को सामने लाने के लिए एक समझौता करना है।
एक सुलहकर्ता (कॉन्सिलिएटर) और बातचीतकर्ता (नेगोशिएटर) की भूमिका
सुलहकर्ता
एक सुलहकर्ता की मुख्य भूमिका अधिनियम की धारा 67 के तहत एक सौहार्दपूर्ण विवाद तक पहुंचना है। जहां तक धारा 80 का संबंध है, सुलहकर्ता विवादित पक्षों को विकल्प उत्पन्न करने और दोनों पक्षों के लिए अनुकूल समाधान खोजने में सहायता करने का प्रयास करता है। सुलहकर्ता वह व्यक्ति नहीं है जो पक्षों के लिए निर्णय लेता है; बल्कि, वह केवल उनका समर्थन करता है और उन्हें एक सामान्य समाधान तक पहुँचने में मदद करता है। धारा 67(4) विशेष रूप से सुलहकर्ता को विवादों के निपटारे के लिए सुलह की कार्यवाही के किसी भी स्तर पर प्रस्ताव देने में सक्षम बनाती है। इन सभी को प्राप्त करने के लिए, एक सुलहकर्ता को स्वतंत्र रूप से और निष्पक्ष रूप से कार्य करना चाहिए और निष्पक्षता और न्याय के सभी सिद्धांतों का पालन करना चाहिए।
बातचीतकर्ता
एक बातचीतकर्ता वह व्यक्ति होता है जो अपने पक्ष का प्रतिनिधित्व करता है, और उसका कर्तव्य उस पक्ष के लिए सबसे अच्छा सौदा संभव बनाना है। बातचीतकर्ता पक्षों को एक सामान्य समझौते पर लाने के लिए समाधान तकनीकों और अन्य संचार विधियों के विभिन्न रूपों का उपयोग करता है। इन सभी व्यवस्थाओं का मुख्य उद्देश्य एक ऐसे समझौते पर पहुंचना है जो निष्पक्ष हो और विवाद के पक्षों को स्वीकार्य हो।
चरण (स्टेज)
सुलह
सुलह की कार्यवाही की शुरुआत
अधिनियम की धारा 62 के तहत कार्यवाही प्रारंभ करने की बात कही गई है। एक लिखित आमंत्रण होना चाहिए जिसे किसी भी पक्ष द्वारा विवाद के लिए भेजा जाना चाहिए। पक्ष आमंत्रण के साथ तभी आगे बढ़ सकते हैं जब प्राप्तकर्ता पक्ष इसे स्वीकार करे। 30 दिनों के भीतर उत्तर न मिलने पर आमंत्रण को अस्वीकृत माना जाएगा।
सुलहकर्ताओं की नियुक्ति
यदि दोनों पक्ष एक दूसरे के नियमों और शर्तों से सहमत हैं तो वे एक सुलहकर्ता नियुक्त कर सकते हैं। यदि वे ऐसा नहीं करते हैं, तो वे दो सुलहकर्ता नियुक्त कर सकते हैं, प्रत्येक के लिए एक। यदि पक्ष तीन सुलहकर्ताओं को चुनना चाहते हैं, तो वे प्रत्येक सुलहकर्ता को नियुक्त करेंगे, और तीसरे सुलहकर्ता को पारस्परिक (म्यूचुअली) रूप से तय किया जा सकता है।
सुलहकर्ता को लिखित बयान प्रस्तुत करना
सुलहकर्ता, अपने विवेक से, दोनों पक्षों से एक लिखित बयान मांग सकता है जिसमें मामले के बारे में तथ्य और अन्य संबंधित जानकारी शामिल होगी। सुलहकर्ता के साथ-साथ, पक्षों से यह भी उम्मीद की जाती है कि वे इस लिखित बयान को एक-दूसरे को भी भेजें।
सुलह की कार्यवाही के नियम और संचालन
अधिनियम की धारा 67(3) और धारा 69(1) के अनुसार, सुलह कार्यवाही के संचालन को परिभाषित किया गया है। पक्षों के साथ संचार या तो मौखिक या लिखित या दोनों रूपों में हो सकता है, जैसा कि वे सहमत हो सकते हैं। सुलहकर्ता एक साथ या अलग से मिलने का निर्णय ले सकता है।
प्रशासनिक सहायता
आवश्यकता महसूस होने पर सुलहकर्ता किसी संस्था या व्यक्ति से प्रशासनिक सहायता माँग सकता है। प्रशासनिक सहायता प्राप्त करने के लिए दोनों पक्षों की सहमति अनिवार्य है। सुलहकर्ता अपने विवेक से प्रशासनिक सहायता के साथ आगे नहीं बढ़ सकता है।
बातचीत
प्रारंभिक आकलन
बातचीत एक स्वैच्छिक प्रक्रिया है, और यह जानना महत्वपूर्ण है कि दोनों पक्ष बातचीत के लिए सहमत हैं या नहीं। यह सौदेबाजी की इच्छा दिखाते हुए एक संचार के संकेत के साथ शुरू होता है। बातचीत शुरू होने से पहले, यह निर्धारित करना महत्वपूर्ण है कि यह कब और कहाँ होगी, साथ ही चर्चा और बातचीत सत्र में कौन शामिल होगा।
चर्चाएँ
एक बार जब यह स्थापित हो जाता है कि पक्ष बातचीत के लिए सहमत हैं, तो तीसरे पक्ष के साथ आगे की व्यवस्था की जाती है। इस चरण में पक्ष अपना मामला सामने रखते हैं और इसके विपरीत स्थिति को भी समझने की कोशिश करते हैं। बातचीत करने वाले पक्ष को एक समान अवसर दिया जाएगा, और सभी स्पष्टीकरणों और असहमतियों के बारे में बोला और सुना जाएगा।
लक्ष्यों का स्पष्टीकरण
दूसरे चरण को पूरा करने के बाद और सभी पक्षों को क्या कहना है यह सुनने के बाद, इस समझौते के लिए बातचीत करने वाले पक्ष के दृष्टिकोण को और स्पष्ट करने की आवश्यकता है। एक सामान्य मैदान स्थापित किया जाएगा। स्पष्टीकरण बातचीत का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है क्योंकि अगर इसे बिना किसी अस्पष्टता के सामने नहीं रखा गया तो एक आम समाधान पर आना मुश्किल हो जाएगा।
जीत-जीत (विन-विन) की स्थिति की ओर बातचीत
यहां से, यह बहुत स्पष्ट हो जाता है कि पक्ष के लिए हमेशा जीत की स्थिति नहीं होती है, लेकिन उन्हें सबसे उपयुक्त समाधान तक पहुंचने के लिए अपनी पूरी कोशिश करनी चाहिए। इस चरण में, पक्ष उन विचारों पर ध्यान केंद्रित करते हैं जिन्हें जीत-जीत परिणाम कहा जा सकता है जहां दोनों पक्ष संतुष्ट हो जाते हैं।
समझौता
पक्ष एक सामान्य समाधान पर तभी पहुंच सकते हैं जब वे एक-दूसरे के दृष्टिकोण को उनके हित के साथ-साथ समझें।
क्रिया का कार्यान्वयन (इंप्लीमेंटेशन)
एक बार अगर पक्षों ने सभी परिणामों और संभावनाओं का विश्लेषण कर लिया है और कार्रवाई के उचित तरीके पर पहुंच गए हैं, तो उन्हें इसके कार्यान्वयन पर काम करना शुरू कर देना चाहिए ताकि निर्णय लिया जा सके।
फायदे और नुकसान – एक सारणीबद्ध प्रतिनिधित्व (टैबुलर रिप्रेजेंटेशन)
सुलह
फायदा | नुकसान |
लचीला है क्योंकि प्रक्रिया अनौपचारिक (इनफॉर्मल) है। | पक्ष प्रक्रिया से बंधे नहीं होते हैं। |
विवादित क्षेत्र में सुलहकर्ताओं की विशेषज्ञता एक सौहार्दपूर्ण समाधान तक पहुँचने में मदद करती है। | अपील के लिए कोई उपाय नहीं है। |
मुकदमेबाजी की तुलना में यह प्रकृति में आर्थिक है। | इस बात की संभावना है कि पक्ष किसी समझौते पर नहीं पहुंच सकते हैं। |
यदि पक्ष कार्यवाही से संतुष्ट नहीं हैं, तो वे कानून की अदालत में जा सकते हैं। | कानून की अदालत तक पहुंचना एडीआर के उद्देश्य को पराजित करता है। |
बातचीत
फायदा | नुकसान |
एक अनौपचारिक प्रक्रिया होने के कारण से यह लचीला है। | इस बात की संभावना है कि किसी विवाद के पक्ष किसी समझौते पर न पहुंचें। |
मुकदमेबाजी की तुलना में त्वरित समाधान है। | विवाद के लिए पक्षों के लिए कानूनी सुरक्षा का अभाव है। |
एक निजी वातावरण में होता है। | पक्षों के बीच शक्तियों का असंतुलन हो सकता है। |
विवादित पक्षों के बीच एक स्वस्थ संबंध बनाए रखता है। |
सुलह और बातचीत के बीच मुख्य अंतर – एक सारणीबद्ध प्रतिनिधित्व
आधार | सुलह | बातचीत |
तटस्थ तृतीय-पक्ष | सूत्रधार (फैसिलिटेटर), मूल्यांकनकर्ता (इवेल्युएटर), और सुलहकर्ता | सूत्रधार, बातचीतकर्ता। |
गोपनीयता का स्तर | जैसा कि कानून द्वारा निर्धारित किया गया है। | भरोसे पर आधारित है। |
कानूनी परिप्रेक्ष्य (पर्सपेक्टिव) | इसका वैधानिक अस्तित्व है। | यह वैधानिक प्रावधानों में निर्धारित नहीं है। |
निष्कर्ष
एडीआर प्रणाली के विभिन्न तरीके मौजूद हैं, लेकिन हमने मुख्य रूप से सुलह और बातचीत के बीच के अंतरों पर चर्चा की है। दोनों तरीके एक दूसरे से अनूठे हैं और पक्षों की आवश्यकताओं के अनुसार इसका उपयोग किया जा सकता है। यह एक विवाद से दूसरे विवाद में भिन्न होता है कि इसे हल करने के लिए किस तरीके का उपयोग किया जाना चाहिए। इन तरीकों का उद्देश्य विभिन्न तकनीकों को प्रदान करना है जिनका उपयोग पक्षों को विवाद को सौहार्दपूर्ण ढंग से हल करने में मदद करने के लिए किया जा सकता है।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)
सुलह का मुख्य नुकसान या सीमा क्या है?
सुलह की प्रमुख सीमा यह है कि यह विवाद के पक्षों के लिए यह बाध्यकारी नहीं है। संभावना है कि पक्ष विवाद को हल करने में सक्षम नहीं भी हो सकते हैं।
विवादों को सुलझाने के लिए बातचीत को एडीआर के एक तरीके के रूप में क्यों इस्तेमाल किया जाता है?
बातचीत को अन्य प्रक्रियाओं के बीच एडीआर का सबसे अनौपचारिक और लचीला रूप माना जाता है। पक्ष विवाद वाले मामलों पर या तो सीधे या बातचीतकर्ता के माध्यम से एक समझौते पर आने का प्रयास करते हैं। यह आम तौर पर विवाद में शामिल निजी व्यक्तियों द्वारा उपयोग किया जाता है।
क्या बातचीत एडीआर का एक अनौपचारिक रूप है?
हां, यह एडीआर का सबसे लचीला और अनौपचारिक रूप है। यह स्वैच्छिक होने के साथ-साथ पक्षों पर गैर-बाध्यकारी भी है।
संदर्भ
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