यह लेख Yash Kapadia ने लिखा है। इस लेख में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने श्रीहरि हनुमानदास टोटला बनाम हेमंत विट्ठल कामत और अन्य के मामले में उपरोक्त प्रश्न को विस्तार से निपटाया और 9 अगस्त 2021 को अपना फैसला सुनाया, जब हमारे देश की अदालतें महीनों के लॉकडाउन के बाद खुलने लगी थी, के बारे में चर्चा की गई है। इस लेख का अनुवाद Sakshi Gupta के द्वारा किया गया है।
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परिचय
माननीय सर्वोच्च न्यायालय की खंडपीठ (डिविजन बेंच) जिसमें न्यायमूर्ति श्री डॉ. डी.वाई. चंद्रचूद और न्यायमूर्ति श्री एम.आर. शाह ने सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (‘सीपीसी’) के आदेश 7 नियम 11 के तहत दायर एक आवेदन को खारिज करते हुए कर्नाटक उच्च न्यायालय द्वारा पारित एक आदेश को बरकरार रखा था।
श्रीहरि हनुमानदास टोटला बनाम हेमंत विट्ठल कामत और अन्य के मामले की पृष्ठभूमि और तथ्य
लीला विट्ठल कामत एक संपत्ति के शीर्षक की मूल धारक थीं, जो यहां विवाद में है। 16 मई 1996 को, लीला की मृत्यु के बाद, वाद (सूट) की संपत्ति को उनके कानूनी वारिसों यानी इस मामले में पहली प्रतिवादी और उनके भाई के नाम पर बदल दिया गया था।
पहले प्रतिवादी और उसके भाई ने कर्नाटक राज्य वित्त निगम (“केएसएफसी”) से ऋण लिया और ऋण राशि चुकाने के उद्देश्य से उक्त वाद की संपत्ति को सुरक्षा के रूप में बंधक (मॉर्टगेज) कर दिया। हालांकि, उनके द्वारा लिया गया ऋण चुकाया नहीं जा सका था, इसलिए केएसएफसी ने संपत्ति की नीलामी करने का फैसला किया।
यहां तीसरे प्रतिवादी ने, अपीलकर्ता के हित में पूर्ववर्ती (प्रेडिसेसर) होने के नाते, 15,00,000/- रुपये की उच्चतम सफल बोली प्रस्तुत की जिसके बाद तीसरे प्रतिवादी के पक्ष में 8 अगस्त 2006 को वाद की संपत्ति का बिक्री विलेख (डीड) निष्पादित (एग्जिक्यूट) किया गया था। बिक्री विलेख निष्पादित होने से अप्रभावित, पहले प्रतिवादी और उसके भाई ने उक्त वाद की संपत्ति का कब्जा उन्हे नहीं सौंपा।
2007 वाद दायर (ओएस नंबर 103/2007)
इन परिस्थितियों में, तीसरे प्रतिवादी जो एक सफल बोली के बावजूद वाद की संपत्ति का कब्जा प्राप्त नहीं कर सका के द्वारा कब्जे के लिए दिनांक 13 मार्च 2007 (“2007 वाद”) के लिए एक वाद दायर किया गया था। पहला प्रतिवादी, जो दूसरा अभियुक्त (डिफेंडेंट) था, ने अपना बचाव करते हुए एक लिखित बयान दाखिल किया। उन्होंने अपने लिखित बयान के माध्यम से कहा कि केएसएफसी के पास वाद की संपत्ति को बिक्री पर रखने का कोई अधिकार नहीं था। इस मामले में पहले प्रतिवादी ने किसी भी तरह से ऋण नहीं लिया था या केएफएससी के साथ किसी प्रकार का सौदा या लेनदेन भी नहीं किया था। वाद की संपत्ति को सुरक्षा के रूप में रखते हुए किसी भी दस्तावेज को निष्पादित या हस्ताक्षरित नहीं किया गया था।
2008 वाद दायर (ओएस नंबर 138/2008)
एक और वाद 2008 (“2008 वाद”) में घोषणा, विभाजन, कब्जे, और निषेधाज्ञा (इंजंक्शन) की एक परिणामी राहत के लिए दायर किया गया था। बिक्री विलेख जिसे केएसएफसी द्वारा तीसरे प्रतिवादी के पक्ष में निष्पादित किया गया था, को इस आधार पर चुनौती दी गई थी कि केएसएफसी को उक्त वाद की संपत्ति के लिए बिक्री करने का कोई अधिकार नहीं था।
उसके द्वारा यह प्रार्थना की गई थी कि वाद की संपत्ति का बंटवारा किया जाए और उसके हिस्से का कब्जा उसे दे दिया जाए। वादपत्र (प्लेंट) में, यह दावा किया गया था कि वाद की संपत्ति को सभी पक्षों की सहमति के बिना केएफएससी के पास बंधक किया गया था और यह पता लगाने के लिए कोई उचित परिश्रम नहीं किया गया था कि संपत्ति का शीर्षक किसके पास है। फिर भी, केएसएफसी ने लिए गए ऋण की सुरक्षा के रूप में वाद की संपत्ति को स्वीकार कर लिया था।
पहले प्रतिवादी ने भी संपत्ति को बंधक करने के लिए कभी भी सहमति नहीं दी थी। वास्तव में, जब वह तीसरे प्रतिवादी द्वारा दायर 2007 के वाद (ओएस नंबर 103/2007) में पेश हुआ, तो पता चला कि केएसएफसी और तीसरे प्रतिवादी के बीच एक बिक्री विलेख निष्पादित किया गया था।
26 फरवरी 2009 को, निचली अदालत के न्यायाधीश ने एक निर्णय पारित किया कि 2007 का वाद (ओएस नंबर 103/2007) तीसरे प्रतिवादी द्वारा स्थापित किया गया था और निर्देश पारित किया कि उसमें प्रतिवादी (अर्थात यहां पहला प्रतिवादी और उसका भाई) को वादी को वाद की संपत्ति का खाली और शांतिपूर्ण कब्जा सौंप देना चाहिए।
कर्नाटक उच्च न्यायालय में अपील
पहले प्रतिवादी ने उपरोक्त निर्णय के विरुद्ध कर्नाटक उच्च न्यायालय में अपील की। तीसरे प्रतिवादी ने 2008 के वाद की कार्यवाही पर इस आधार पर रोक लगाने के लिए सीपीसी की धारा 10 के तहत एक आवेदन दायर किया कि 2008 के वाद में शामिल मुद्दे सीधे 2007 के वाद के मुद्दों के समान थे। न्यायाधीश ने यह भी माना कि पहले प्रतिवादी द्वारा कब्जे की घोषणा के लिए दायर 2007 के वाद में शामिल मुख्य मुद्दे सीधे और काफी हद तक समान थे। इसलिए, अपील खारिज कर दी गई और अदालत ने निचली अदालत के फैसले को बरकरार रखा।
आदेश 7 नियम 11 के तहत एक वाद
माननीय उच्च न्यायालय द्वारा अपना निर्णय पारित करने के बाद, अपीलकर्ता जिसने वाद की संपत्ति खरीदी, ने सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश 7 नियम 11 के तहत यह कहते हुए एक आवेदन दायर किया कि अदालत शुल्क का भुगतान नहीं किया गया था, कार्रवाई का कारण प्रकट नही किया गया था और वाद को खारिज करना पड़ा था क्योंकि इसे रेस ज्यूडिकाटा ने रोक दिया था क्योंकि 2007 के वाद में बिक्री विलेख की वैधता से संबंधित प्रस्तुतीकरण (सबमिशन) और शीर्षक के मुद्दे को उठाया गया था। उक्त आवेदन को भी खारिज कर दिया गया था।
पुनरीक्षण (रिवीजन) याचिका
याचिकाकर्ता ने उच्च न्यायालय में पुनरीक्षण याचिका दायर की थी। उच्च न्यायालय ने आदेश 7 नियम 11 के तहत किया गए आवेदन में उठाये गये तीनों आधारों पर विचारण न्यायालय के तर्क को बरकरार रखते हुए अपील को खारिज कर दिया।
यह ध्यान देने योग्य है कि उच्च न्यायालय ने सौमित्र कुमार सेन बनाम श्यामल कुमार सेन में सर्वोच्च न्यायालय के फैसले पर भरोसा किया और पाया कि विद्वान विचारण न्यायाधीश की राय थी कि आदेश 7 नियम 11(d) के तहत रेस ज्यूडिकाटा के आधार पर दायर आवेदन का निर्णय वादपत्र के कथनों को पढ़कर तय नहीं किया जा सकता है।
आदेश 7 नियम 11 के तहत किसी भी वाद को केवल तभी खारिज किया जा सकता है, जब वह वादपत्र में शामिल अनुमानों के आधार पर अनुरक्षणीय (मेंटेनेबल) न हो। इसलिए, उच्च न्यायालय द्वारा अपीलकर्ता की पुनरीक्षण याचिका को खारिज करने के बाद, उन्होंने उच्च न्यायालय के आदेश को चुनौती देने के लिए सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया था।
अपीलकर्ता द्वारा प्रस्तुतीकरण
अपीलकर्ता ने अपनी अपील में कहा कि संपत्ति के शीर्षक से संबंधित मुद्दा 2007 के वाद में तीसरे प्रतिवादी के पक्ष में फैसला सुनाया गया था और उच्च न्यायालय ने कब्जे के लिए डिक्री को बरकरार रखा था। इसलिए, 2008 का वाद बिक्री विलेख पर समान मुद्दों और चुनौतियों पर अनुरक्षणीय (मेंटेनेबल) नहीं है और इस तरह से रेस ज्यूडिकाटा के सिद्धांतों का पालन करके इसे रोक दिया जाता है।
इसके अलावा, यह भी कहा गया कि अपीलकर्ता ने केएसएफसी और तीसरे प्रतिवादी के बीच निष्पादित बिक्री विलेख के मुद्दे को अमान्य बताया था। प्रस्तुतीकरण यह है कि केएसएफसी द्वारा निष्पादित मूल बिक्री विलेख 8 अगस्त 2006 का है।
मुद्दा
क्या रेस ज्यूडिकाटा वाद के खारिज होने का आधार हो सकता है?
निर्णय
माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने आदेश 7 नियम 11 में निर्धारित कानून और रेस ज्यूडिकाटा की अवधारणा की व्याख्या की।
सीपीसी के आदेश 7 नियम 11 (d) में कहा गया है कि एक वादपत्र को खारिज कर दिया जाएगा “जहां वादपत्र के बयान से यह प्रतीत होता है कि वाद किसी भी कानून द्वारा वर्जित है”। इसलिए, एक वादपत्र में दिए गए बयान का विश्लेषण और व्याख्या यह सुनिश्चित करने के लिए की जानी चाहिए कि क्या कोई वाद किसी कानून द्वारा वर्जित है या नहीं है। किसी भी न्यायालय को आदेश 7 नियम 11 (d) के तहत ऐसे आवेदनों का निर्णय करते समय केवल वादपत्र में दिए गए कथनों पर ध्यान देना चाहिए। यह एक वादपत्र में दिए गए बयानों से पता लगाया जाना चाहिए कि क्या किसी विशेष वाद को किसी कानून द्वारा वर्जित किया गया है, न कि मामले में लिखित बयान सहित अदालत के समक्ष किसी अन्य प्रस्तुतीकरण के आधार पर।
अदालत ने आगे सीपीसी की धारा 11 का उल्लेख किया जिसे नीचे बताया गया है:
“धारा 11 रेस ज्यूडिकाटा – कोई भी न्यायालय ऐसे किसी वाद या मुद्दे का विचारण नहीं करेगा जिसमें मामला प्रत्यक्ष और पर्याप्त रूप से एक ही पक्ष के बीच, या उन पक्षों के बीच, जिनके तहत वे या उनमें से कोई दावा करते हैं और एक ही शीर्षक के तहत मुकदमेबाजी करते है, एक ऐसे न्यायालय में है जो कि ऐसे परवर्ती (सब्सिक्वेंट) वाद अथवा ऐसे वाद जिसमें ऐसा मुद्दा बाद में उठाया गया है, के विचारण में सक्षम है, और जो ऐसे न्यायालय द्वारा सुना जा चुका है तथा अन्तिम रूप से निर्णीत हो चुका है।
सर्वोच्च न्यायालय ने आगे वी. राजेश्वरी बनाम टी.सी. सरवनबावा, के मामले पर विचार किया, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने रेस ज्यूडिकाटा की याचिका और इसको साबित करने के लिए आवश्यक चीजों पर राय दी थी। इस मामले में यह निर्णय लिया गया था कि रेस ज्यूडिकाटा की याचिका पर निर्णय करते समय मुद्दों, अभिवचनों (प्लीडिंग) और ‘पूर्व वाद’ के निर्णय का संदर्भ देना अत्यंत आवश्यक और अनिवार्य है।
संक्षेप में, कमला बनाम के.टी ईश्वर सा और चर्च ऑफ क्राइस्ट चैरिटेबल ट्रस्ट एंड एजुकेशनल चैरिटेबल सोसाइटी बनाम पोन्नियाम्मन एजुकेशनल ट्रस्ट, जैसे ऐतिहासिक निर्णयों पर भरोसा करने के बाद सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि इस तरह के परिदृश्य में निम्नलिखित दिशानिर्देश / दृष्टिकोण अपनाए जाने चाहिए:
- एक वादपत्र को इस आधार पर खारिज करने के लिए कि विशेष वाद किसी भी कानून द्वारा वर्जित है, केवल वादपत्र में दिए गए कथनों को संदर्भित करना चाहिए;
- आवेदन के गुण-दोष का निर्णय करते समय प्रतिवादी के बचाव को ध्यान में नहीं रखना चाहिए;
- यह निर्धारित करने के लिए कि क्या कोई वाद रेस ज्यूडिकाटा द्वारा प्रतिबंधित है, यह आवश्यक है कि
- ‘पूर्व वाद’ तय किया जाना चाहिए,
- परवर्ती वाद में मुद्दे सीध पूर्व वाद के मुद्दे के काफी हद तक समान होने चाहिए;
- पूर्व वाद उन्हीं पक्षों या उन पक्षों के बीच होना चाहिए जिनके माध्यम से वे दावा करते हैं और एक ही शीर्षक के तहत मुकदमेबाजी करते है; और
- इन मुद्दों का न्यायनिर्णयन (एडज्यूडिकेशन) किया जाना चाहिए और अंतत: एक सक्षम अदालत द्वारा निर्णय लिया जाना चाहिए”; तथा
- चूंकि रेस ज्यूडिकाटा की याचिका के निर्णय के लिए ‘पूर्व मुकदमे’ में अभिवचनो, मुद्दों और निर्णय पर विचार करने की आवश्यकता होती है, इसलिए ऐसी याचिका आदेश 7 नियम 11 (d) के दायरे से बाहर होगी, जहां केवल वाद में दिए गए बयान कथनों का अवलोकन करना होता है।”
अदालत ने आगे कहा कि 2008 के पहले प्रतिवादी द्वारा वाद दायर किए जाने के समय 2007 के वाद में कोई अंतिम आदेश या निर्णय पारित नहीं किया गया था। 2007 के मुकदमे में उठाए गए मुद्दों पर उस समय फैसला नहीं किया गया था।
इसलिए, वादपत्र ने किसी भी तरह से किसी भी तथ्य को प्रकट नहीं किया जो अदालत को यह निष्कर्ष निकालने में मदद करेगा कि यह वाद इस आधार पर खारिज करने योग्य है कि यह रेस ज्यूडिकाटा के सिद्धांतों द्वारा वर्जित है। निचली अदालतों का यह मानना सही था कि उन्हें वादपत्र के तर्कों से परे जाना होगा और अपीलकर्ता द्वारा उठाए गए तर्कों को ध्यान में रखने के लिए 2007 के वाद के अभिवचनो और निर्णय और डिक्री को पढ़ना होगा।
सर्वोच्च न्यायालय का मत था कि अदालत को किसी ऐसे वाद या मुद्दे की सुनवाई नहीं करनी चाहिए जिसमें प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जो मामला है वह ‘पूर्व वाद’ में सुना और तय किया गया हो। इसलिए, रेस ज्यूडिकाटा के मुद्दे पर न्यायनिर्णयन के उद्देश्य के लिए यह आवश्यक है कि वही मुद्दा (जो पहले से ही वाद में उठाया गया है) पूर्व वाद में न्यायनिर्णयन किया गया हो।
निष्कर्ष
सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि आदेश 7 नियम 11 के आवेदन का फैसला वादपत्र के चारों कोनों के भीतर होना चाहिए और इससे आगे कुछ भी नहीं। इसलिए यह माना गया कि विचारणीय और उच्च न्यायालय आवेदन को खारिज करने में सही थे और इसलिए इसके समक्ष दायर अपील खारिज कर दी गई थी।
सर्वोच्च न्यायालय ने फिर से आदेश 7 नियम 11 (d) के तहत खारिज करने के दायरे की व्याख्या की है, जो विभिन्न न्यायिक उदाहरणों के माध्यम से निर्धारित विभिन्न पहलुओं पर निर्भर है जिसे इस फैसले की आदेश प्रति में संदर्भित किया जा सकता है।
अंत में, न्यायमूर्ति डॉ. डी.वाई. चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति एम.आर. शाह ने उन मामलों में एक मजबूत नकारात्मक प्रतिक्रिया दी, जहां अदालत ने यह सवाल किया कि क्या रेज जुडिकाटा की याचिका आदेश 7 नियम 11 (d) के आवेदन के तहत एक वादपत्र को खारिज करने के लिए एक वैध आधार है। यहां यह भी उल्लेख करना उचित है कि माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने अपीलकर्ता को स्वतंत्रता प्रदान की, जिसने 2008 (ओएस नंबर 138/2008 में अतिरिक्त सिविल न्यायाधीश, बेलगाम के समक्ष दायर) के वाद की स्थिरता के मुद्दे को आगे बढ़ाने के लिए वाद की संपत्ति के खरीदार का असाइनी होने का दावा किया जिसे प्रारंभिक मुद्दों के प्रस्तुतीकरण की तारीख से 3 महीने के भीतर तय करने का निर्देश दिया गया था।