सीआरपीसी की धारा 340 

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Criminal Procedure Code

यह लेख विवेकानंद इंस्टीट्यूट ऑफ प्रोफेशनल स्टडीज, जीजीएसआईपीयू, दिल्ली की Nimisha Dublish ने लिखा है। इस लेख में अपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 340 और उससे संबंधित प्रावधानों पर चर्चा की गई है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja के द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय

हमने ऐसे मामलों में बड़ी वृद्धि देखी है जिनमें किसी मामले के पक्ष सबूतों को बाधित करने और झूठे बयान देने की कोशिश करते हैं। इससे न केवल अदालतों का समय बर्बाद होता है बल्कि न्याय में भी देरी होती है। फर्जी मुकदमों के कारण, अदालत को बुनियादी पूछताछ पर वापस जाना पड़ता है और काम अधिक हो जाता है। इसके कारण, झूठी गवाही देने वालों को दंडित करने के लिए एक कानून सामने आया था। सीआरपीसी (अपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973) की धारा 340 का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि क्या कोई ऐसा अपराध किया गया है जो न्याय प्रशासन को प्रभावित करता है। अपराध न्यायालय के समक्ष कार्यवाही, न्यायालय में पेश किए गए दस्तावेजों और प्रस्तुत साक्ष्य से संबंधित है और साथ ही यह सब अदालत के हित में समीचीन (एक्सपीडिएंट) है। कानून का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि न्याय का प्रशासन निष्पक्ष और प्रभावी ढंग से किया जाता है। सीआरपीसी की धारा 340 आवश्यक प्रक्रिया प्रदान करके उद्देश्य को पूरा करती है। यह लेख उक्त प्रावधान से संबंधित है।

सीआरपीसी की धारा 340 

अपराधिक प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) को वर्ष 1973 में प्रख्यापित (प्रोमुलगेट) किया गया था और 1 अप्रैल 1973 को अधिनियमित (इनैक्ट) किया गया था। अध्याय 26 का शीर्षक “न्याय के प्रशासन को प्रभावित करने वाले अपराधों के संबंध में प्रावधान” है और इसमें धारा 340 शामिल है।

सीआरपीसी की धारा 340 के तहत कार्यवाही शुरू करने के लिए सबसे पहले मामले में सबूतों और बयानों के जरिए प्रथम दृष्टया (प्राइमा फेसी) अपराध सिद्ध किया जाता है। इसका मतलब यह है कि अदालत के समक्ष पेश की गई सभी सामग्री अपने आप में स्पष्ट होगी। साथ ही, अदालत में पेश किए गए सबूतों को सीआरपीसी की धारा 195(1)(b)(i) में संदर्भित किया जाना चाहिए। दूसरा, कथित अपराध की जांच होनी चाहिए। झूठी गवाही के अपराध को रोकने और झूठे बयान देने वाले लोगों को रोकने, सबूतों के साथ छेड़छाड़ करने और ढोंग और विश्वासघात के साथ अदालत को गुमराह करने के लिए प्रभावी कार्रवाई करने की आवश्यकता है। न्यायपालिका के सम्मान की रक्षा के लिए कड़ी कार्रवाई की जानी चाहिए। 

सीआरपीसी की धारा 340(1) 

जब भी किसी लोक सेवक या प्रभावित पक्ष द्वारा अदालत के समक्ष आवेदन दायर किया जाता है, तो अदालत में पेश होने से पहले एक प्रारंभिक जांच की जानी चाहिए, अगर अदालत की राय है कि यह न्याय के प्रशासन के लिए समीचीन है। अपराध, संहिता की धारा 195(1)(b) के तहत निर्धारित हैं। अगर अदालत को लगता है कि गलत या मनगढ़ंत दस्तावेज पेश किया गया है, जो सार्वजनिक व्यवस्था को नुकसान पहुंचा है या झूठे सबूत पेश करके कार्यवाही में बाधा उत्पन्न हुई है, तो अदालत, इस तरह की प्रारंभिक जांच करने के बाद, उस पहलू पर एक निष्कर्ष दर्ज कर सकती है; यदि अदालत की राय है कि अपराध किया गया है जिसके लिए आवेदन दायर किया गया था तो इसकी शिकायत की जा सकती हैं; मामले को प्रथम श्रेणी के अधिकार क्षेत्र (ज्यूरिस्डिकशन) वाले मजिस्ट्रेट को भेज सकती है, जहां भी अपराध का अधिकार क्षेत्र हो (वह स्थान जहां अपराध किया गया था); आरोपी की पेशी के लिए आरोपी से पर्याप्त सुरक्षा ले सकता है और आरोपी को संबंधित मजिस्ट्रेट की हिरासत में भेज सकता है; साथ ही किसी भी व्यक्ति को अदालत में पेश होने और सबूत देने के लिए बाध्य किया जा सकता है। 

सीआरपीसी की धारा 340(2) 

एक अपराध के संबंध में संहिता की धारा 340 की उप-धारा 1 में दी गई सभी शक्तियों का प्रयोग, जिसमें न्यायालय ने न तो धारा 340(1) के तहत शिकायत की है और न ही ऐसी शिकायत करने के लिए आवेदन को खारिज किया है, सीआरपीसी की धारा 195(4) के अर्थ के अनुसार उस न्यायालय द्वारा किया जाएगा जिसके अधीन पूर्व न्यायालय अधीनस्थ (सबोर्डिनेट) है।

सीआरपीसी की धारा 340(3) और धारा 340(4) 

सीआरपीसी की धारा 340(1) के तहत की गई शिकायत पर उच्च न्यायालय, जिसमें मामला सामने आया है, द्वारा नियुक्त अधिकारी द्वारा हस्ताक्षर किए जाने हैं। अन्य मामलों में, अदालत का पीठासीन (प्रेसाइडिंग) अधिकारी या अदालत द्वारा अधिकृत (ऑथराइज्ड) कोई भी अधिकारी शिकायत पर हस्ताक्षर कर सकता है। सीआरपीसी की धारा 195 के अनुसार अदालत कोई भी अदालत हो सकती है, जैसे आपराधिक, सिविल या न्यायाधीकरण (ट्रिब्यूनल)।

सीआरपीसी की धारा 340  के तहत कार्यवाही की प्रकृति

इस धारा के तहत निर्दिष्ट कार्यवाही, उन अदालतों के लिए एक मार्गदर्शक के रूप में कार्य करती है जो अधिनियम की धारा 195 के तहत आने वाले अपराधों के लिए कार्यवाही शुरू करना चाहते हैं। कार्यवाही की प्रकृति या तो सुओ मोटो या एक आवेदन के माध्यम से हो सकती है। अदालत या तो एक आवेदन प्राप्त करके या स्वत: संज्ञान (कॉग्निजेंस) द्वारा प्रक्रिया का पालन करती है। जांच की जाए या नहीं, यह तय करने का अधिकार केवल न्यायालय को है। प्रत्येक मामले में प्रारंभिक जांच करना अनिवार्य नहीं है, इसलिए न्यायालय को इस पर निर्णय लेने की शक्ति प्राप्त है। 

सीआरपीसी की धारा 340 के तहत झूठी गवाही के लिए शिकायत कैसे दर्ज करें

पक्षों के लिए यह समझना वास्तव में महत्वपूर्ण है कि उन्हें झूठे/ गलत बयान नहीं देने चाहिए और/ या उन तथ्यों नहीं को छुपाना चाहिए जो किसी मामले के लिए महत्वपूर्ण होते हैं। पक्षों को न्यायालय की कार्यवाही की पवित्रता और गंभीरता की कीमत पर सच्चाई को छिपाने या कुछ लाभ प्राप्त करने का प्रयास नहीं करना चाहिए। पक्ष, जो ऐसे साधनों को अपनाते है और भौतिक (फिजिकल) तथ्यों की गलत व्याख्या या उन्हें छिपाने की कोशिश करते है, इससे जुड़े दंडों और जोखिमों के पात्र होते है।

झूठी गवाही के तत्व 

  1. झूठा बयान उस व्यक्ति द्वारा किया जाना चाहिए जो या तो शपथ से बंधा हुआ है, कानून के एक स्पष्ट प्रावधान से बाध्य है, एक घोषणा से बाध्य है, जो किसी व्यक्ति को कानून द्वारा किसी भी विषय पर बयान देने के लिए प्रतिबंधित करती है, या जानता है कि वह बयान, उसके द्वारा बनाया गया झूठा बयान है और वह इसे सच नहीं मानता है।
  2. व्यक्ति द्वारा ली गई शपथ को सक्षम प्राधिकारी द्वारा प्रशासित किया जाना चाहिए। जो भी प्राधिकारी शपथ दिला रहा है वह सभी प्रकार से सक्षम होना चाहिए। जिस स्थान पर शपथ दिलाई जाती है, उसे कानून द्वारा स्वीकृत किया जाना चाहिए। 
  3. वादपत्र (प्लेंट), लिखित बयान और अन्य प्रकार की दलीलें, कानून के स्पष्ट प्रावधानों में शामिल हैं। सीपीसी (सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908) द्वारा सत्य को कहने का कानूनी कर्तव्य, अभिवचनों (प्लीडिंग्स) के सत्यापन (वेरिफिकेशन) के लिए एक कानूनी दायित्व के साथ लगाया जाता है।
  4. शपथ पत्र, शपथ के तहत की गई एक तरह की घोषणा है और इसे इसका एक हिस्सा माना जाता है।
  5. बयान या तो मौखिक या अन्य किसी भी रूप में होना चाहिए। 

इन सभी तत्वों के कारण, यह अपराध कुछ अन्य धाराओं को भी आकर्षित करता है, जिनका उपयोग सीआरपीसी की धारा 340 के साथ किया जा सकता है। आईपीसी (भारतीय दंड संहिता, 1860) की धारा 191, झूठे सबूत देने और न्यायिक झूठी गवाही देने के लिए आकर्षित होती है। आईपीसी की धारा 192 के तहत झूठे सबूतों को बनाने के अपराध को दंडित किया जाता है। उपरोक्त दोनों धाराओं के दंड का उल्लेख धारा 193 के तहत किया गया है, और इसलिए यह संबंधित मामलों में भी लागू होती है। आईपीसी की धारा 191 और 192 दोनों के गंभीर रूपों की चर्चा धारा 194 और 195 में की गई है। धारा 196 से धारा 229 उन अपराधों से संबंधित है जो झूठे सबूत बनाने या झूठे सबूत देने के लिए दंडनीय हैं और सार्वजनिक न्याय के खिलाफ हैं। 

झूठी गवाही का अपराध स्थापित करने के लिए मानदंड (क्राइटेरिया)

  1. झूठा बयान दिया जाना चाहिए।
  2. जिस व्यक्ति ने झूठा बयान दिया है उसे पता होना चाहिए या यह विश्वास होना चाहिए कि यह झूठा बयान है न कि सच है।
  3. झूठा बयान देने का इरादा होना चाहिए।

आरोपी की दोषसिद्धि को साबित करने के लिए इन तीन मानदंडों को साबित और पूरा किया जाना चाहिए। इसका सबसे महत्वपूर्ण मानदंड इरादा है। जो व्यक्ति बयान दे रहा है उसे इस तथ्य से अवगत होना चाहिए कि वह जो कुछ भी कह रहा है वह झूठ है और जानबूझकर न्यायिक कार्यवाही में सबूत को बाधित करने की कोशिश कर रहे है। अदालत को धोखा देने की मंशा मौजूद होनी चाहिए।  

मुकदमे का आधार

  1. पक्षों पर सच बोलने का कानूनी दायित्व होता है।
  2. एक झूठा बयान होगा।
  3. झूठे बयान में विश्वास होना चाहिए। 

सीआरपीसी की धारा 340 और धारा 195   

सीआरपीसी की धारा 195 

अपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 195, अदालत की अवमानना ​​(कंटेंप्ट) के लिए किसी व्यक्ति के खिलाफ मुकदमा चलाने और लोक सेवकों जैसे अन्य वैध अधिकारियों के बारे में बात करती है। यह धारा उन अपराधों के लिए है जो सार्वजनिक न्याय के विरोध में हैं और विशेष रूप से भारतीय दंड संहिता के अध्याय XI में उल्लिखित झूठे सबूतों से संबंधित हैं। धारा 195 केवल उन मामलों में सामने आती है जहां एक लोक सेवक या अदालत द्वारा लिखित शिकायत दर्ज की जाती है।  

सीआरपीसी की धारा 195 के साथ पठित धारा 340 

सीआरपीसी की धारा 195 उन आवश्यक पूर्व-आवश्यकताओं पर चर्चा करती है जिन्हें अदालत में निर्दिष्ट अपराधों के मामले पर निर्णय लेने से पहले लिया जाता है। जबकि, सीआरपीसी की धारा 340 ऐसे मामलों में अदालत द्वारा अपनाई जाने वाली प्रक्रिया को परिभाषित करती है। इन मामलों में, अदालत मामले की सुनवाई के दौरान किए गए अपराधों से संबंधित कार्यवाही शुरू करती है। 

हालांकि, संहिता की धारा 195 अदालत को लोक सेवकों के वैध अधिकार की अवमानना ​​के संबंध में मामलों का संज्ञान लेने से रोकती है। इसका एक अपवाद है। यदि लोक सेवक के खिलाफ लिखित शिकायत प्रस्तुत की जाती है, तो उस पर अदालत द्वारा विचार किया जा सकता है। इस धारा का मुख्य उद्देश्य व्यक्तियों को द्वेष, गलत इरादे, या अपर्याप्त सबूत या अपर्याप्त आधार के आधार पर तुच्छ स्वभाव के साथ कार्य करने वाले किसी व्यक्ति द्वारा, उसमें सूचीबद्ध अपराधों के लिए झूठा मुकदमा चलाने से बचाना है। सीआरपीसी की धारा 195 में उल्लिखित प्रतिबंध केवल एक निर्दोष व्यक्ति को एक निजी व्यक्ति द्वारा झूठी कार्यवाही से बचाने के लिए हैं। इसका उद्देश्य अपराध के खिलाफ उपायों को हटाना नहीं है। 

सर्वोच्च न्यायालय ने प्रीतीश बनाम महाराष्ट्र राज्य और अन्य (2001) में कहा कि सीआरपीसी की धारा 340 के तहत उल्लिखित प्रारंभिक जांच की प्रक्रिया का उपयोग यह तय करने के लिए एक उपकरण के रूप में नहीं किया जाता है कि पक्ष मजिस्ट्रेट के सामने दोषी है या निर्दोष है। अदालत ने आगे बताया कि धारा का उद्देश्य यह जांचना है कि क्या सबूतों के आधार पर न्याय के हित में यह जरूरी है कि जांच की जानी चाहिए या नहीं। न्यायालय ने कहा कि नैसर्गिक (नेचुरल) न्याय के सिद्धांतों का पालन किया जाना चाहिए और प्रत्येक पक्ष को अदालत में सुना भी जाना चाहिए। न्याय की प्रक्रिया में बाधा नहीं आएगी, भले ही प्रथम दृष्टया सबूत किसी पक्ष के खिलाफ हों। अदालत यह तय करने के लिए प्रक्रिया के आवश्यक चरणों का पालन करेगी कि व्यक्ति के खिलाफ कार्यवाही की जानी चाहिए या नहीं। 

सर्वोच्च न्यायालय ने शरद पवार बनाम जगमोहन डालमिया (2010) के फैसले में प्रीतीश बनाम महाराष्ट्र राज्य और अन्य में अपने पिछले फैसले का खंडन किया था। सर्वोच्च न्यायालय ने मौजूदा मामले में एक आदेश पारित किया और मामले को सीआरपीसी की धारा 340 के तहत नए सिरे से तय करने के लिए मामले को कलकत्ता उच्च न्यायालय में भेज दिया। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि पक्ष को उक्त प्रतिवादियों के खिलाफ शिकायत दर्ज करने का निर्देश देने से पहले, विद्वान एकल न्यायाधीश द्वारा प्रारंभिक जांच की जानी आवश्यक थी। सीआरपीसी की धारा 340 के तहत उल्लिखित जांच का अनुपालन किया जाना चाहिए, नैसर्गिक न्याय के सिद्धांतों का पालन किया जाना चाहिए और प्रतिवादी को सुनवाई का अवसर दिया जाना चाहिए। न्यायालय ने अपने पिछले फैसले पर विचार किए बिना यह फैसला सुनाया। हालांकि, न्यायालय ने सीआरपीसी की धारा 340 के उद्देश्यों और महत्व पर चर्चा नहीं की।

इन धाराओं के तहत सीधा मुकदमा नहीं चलाया जा सकता क्योंकि दोषसिद्धि की उचित संभावना भी होनी चाहिए। संबंधित साक्ष्य के साथ अपराध और सटीक तथ्यों को बताते हुए, पहले एक शिकायत की जानी चाहिए। मामला उस मुद्दे में अलग है जिसमें प्रथम दृष्टया मामला बन चुका है। जिन मामलों में पर्याप्त सबूत हैं और मौखिक साक्ष्य की आवश्यकता नहीं है, वे प्रारंभिक जांच को छोड़ सकते हैं। न्यायालय द्वारा यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि कार्यवाही किसी वादी के व्यक्तिगत द्वेष का परिणाम नहीं है। अभियोजन (प्रॉसिक्यूशन) पक्ष न्याय के हित में जरूरी होना चाहिए न कि केवल प्रभावित पक्ष को न्याय प्रदान किया जाना चाहिए। 

श्री मोहम्मद साबिर के मेहताब पुत्र बनाम भारत संघ (2011) के मामले में, अदालत ने इस तथ्य पर जोर दिया कि सीआरपीसी की धारा 340 में जो अपराध शामिल हैं, वे सीआरपीसी की धारा 195(1)(b) के तहत दिए गए हैं। इसमें झूठी गवाही, झूठे हलफनामे (एफिडेविट) और बयान आदि जैसे अपराध शामिल हैं, जो भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 193, धारा 199, धारा 200 और धारा 209 के तहत दंडनीय हैं। ऐसे मामलों में न्यायालय द्वारा स्वत: जांच का निर्देश दिया जा सकता है। उन मामलों में जहां अदालत संतुष्ट है और यह स्पष्ट है कि मुकदमा न्याय के हित में जरूरी है, वहां शिकायत लिखित रूप में की जानी चाहिए और अधिकारी द्वारा हस्ताक्षर किए जाने चाहिए (जैसा कि अदालत द्वारा निर्देशित किया गया है)। 

के. करुणाकरण बनाम ई. वारियर (1977) में, एक बंदी प्रत्यक्षीकरण (हैबियस कॉर्पस) की याचिका दायर की गई थी। यह पाया गया कि गृह मंत्री ने झूठा हलफनामा दायर किया था। संहिता की धारा 340 के तहत जांच शुरू होने के बाद उनके खिलाफ झूठी गवाही का मामला दर्ज किया गया था। उन्होंने भारत के सर्वोच्च न्यायालय में एक विशेष अनुमति याचिका दायर की, जहां न्यायालय ने कहा कि मुकदमे को मंजूरी देने के लिए न्याय के हित में यह कार्य जरूरी नहीं था। 

चिंताक्रिंडी वेंकटेश्वरली बनाम हेड कांस्टेबल (1997) में, एक झूठा बयान और एक शपथ ली गई, जिसने प्रशासन की प्रक्रिया में बाधा उत्पन्न की। मामला अदालत की आपराधिक अवमानना ​​का था और न्याय के लिए जरूरी था। कानून और इसके प्रशासकों को मज़ाक का विषय नहीं बनाया जाना चाहिए। पक्षों द्वारा मुकदमेबाजी के कार्यों को प्रतिबद्ध नहीं किया जाना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय ने इस तथ्य को दोहराया है कि वह उन मामलों में हस्तक्षेप नहीं करेगा जिनमें उच्च न्यायालय ने सीआरपीसी की धारा 340 के तहत मुकदमा चलाने का निर्देश दिया है। 

सीआरपीसी की धारा 195 के तहत शिकायत करने से पहले, क्या प्रारंभिक जांच अनिवार्य है?

भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा एक बड़ी पीठ को इस मुद्दे पर निर्णय लेने और चर्चा करने के लिए संदर्भित किया गया है कि क्या सीआरपीसी की धारा 340 के तहत, एक अदालत द्वारा सीआरपीसी की धारा 195 के तहत शिकायत करने से पहले प्रारंभिक जांच करना अनिवार्य है या नहीं।

पंजाब राज्य बनाम जसबीर सिंह (2020) के मामले में, उप-मंडल (सब डिविजनल) मजिस्ट्रेट को उपायुक्त (डेप्युटी कमिश्नर) द्वारा एक पक्ष के खिलाफ तत्काल प्रभाव से प्राथमिकी दर्ज करने का निर्देश दिया गया था। उन्होंने एसडीएम-सह-बिक्री आयुक्त के समक्ष अपील में झूठे और मनगढ़ंत दस्तावेज दिए जाने से पहले ही ऐसा करने के लिए कहा। प्राथमिकी को उच्च न्यायालय ने रद्द कर दिया था और यह माना कि कोई जांच नहीं की गई थी और किसी को भी इसके लिए निर्देशित नहीं किया गया था। संहिता की धारा 195 के साथ पठित धारा 340 के तहत आरोपी के खिलाफ कोई जांच नहीं की गई। अदालत ने निष्कर्ष निकाला कि चूंकि कोई प्रारंभिक जांच नहीं की गई थी और प्रतिवादी को सुनवाई का कोई मौका नहीं दिया गया था, इसलिए प्राथमिकी रद्द कर दी गई थी। 

सीआरपीसी की धारा 340 में कहा गया है कि यदि न्यायालय यह निर्णय लेता है कि संहिता की धारा 195(1)(b) में निर्दिष्ट अपराध के लिए न्यायालय में पेश होने से पहले जांच होनी है, तो प्रारंभिक जांच के बाद न्यायालय इस प्रभाव का निष्कर्ष रिकॉर्ड कर सकता है और उसकी लिखित रूप में शिकायत कर सकता है। हालाँकि, प्रीतीश बनाम महाराष्ट्र राज्य और शरद पवार बनाम जगमोहन डालमिया के मामले परस्पर विरोधी विचारों के थे।

न्यायालय ने प्रारंभिक जांच की अवधारणा के संबंध में इन परस्पर विरोधी विचारों को देखते हुए निर्णय लिया कि “किसी भी घटना में, यह देखते हुए कि शरद पवार के मामले में तीन-न्यायाधीशों की पीठ के निर्णय में कोई कारण नहीं बताया गया था कि वह सीआरपीसी की धारा 340 के तहत प्रारंभिक जांच की आवश्यकता के संबंध में प्रीतिश मामले में एक समन्वय (कोऑर्डिनेट) पीठ द्वारा व्यक्त की गई राय से क्यों हट रही थी, साथ ही इकबाल सिंह मारवाह ममाले में इस न्यायालय की एक संविधान पीठ द्वारा की गई टिप्पणियों को देखते हुए, हम वर्तमान मामले के विचार के लिए, विशेष रूप से निम्नलिखित प्रश्नों के उत्तर देने के लिए इसे एक बड़ी बेंच के समक्ष रखना आवश्यक समझते हैं: 

  1. क्या आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 340 किसी न्यायालय द्वारा संहिता की धारा 195 के तहत शिकायत किए जाने से पहले प्रारंभिक जांच और संभावित आरोपी को सुनवाई का अवसर प्रदान करती है?  
  2. इस तरह की प्रारंभिक जांच का दायरा क्या है?

भारत के सर्वोच्च न्यायालय की पीठ ने यह नोट किया कि सीआरपीसी की धारा 195 (3) के तहत “न्यायालय” शब्द को स्पष्ट किया गया है। जैसा कि उल्लेख किया गया है, “न्यायालय” शब्द का अर्थ आपराधिक, सिविल या राजस्व (रेवेन्यू) न्यायालय है। इसमें केंद्रीय, प्रांतीय (प्रोविंस) या राज्य अधिनियमों के तहत बनाए गए न्यायाधीकरण, यदि उन्हें संबंधित अधिनियम द्वारा उल्लिखित धारा की कार्यवाही के उद्देश्य से अदालत घोषित किया जाता है, भी शामिल हैं।

मामले

अफजल और अन्य बनाम हरियाणा राज्य (1996)

अफजल और अन्य बनाम हरियाणा राज्य (1996) के मामले में तथ्य यह था कि शिकायतकर्ता ने सीआरपीसी की धारा 153 के तहत अपनी शिकायत में झूठे बयान दिए थे। शिकायतकर्ता कानून की अदालत को गुमराह करना चाहता था और अदालत से अनुकूल निर्णय और आदेश प्राप्त करना चाहता था। शिकायतकर्ता ने ऐसा करके न्याय प्रशासन में बाधा डाली। शिकायतकर्ता इस तथ्य से अच्छी तरह वाकिफ था कि उसके द्वारा दिए गए बयान सही नहीं थे और मामले में निर्णय लेने के लिए महत्वपूर्ण थे। यहां शिकायतकर्ता के कार्य को गलत माना जाता है।

वर्तमान मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि शिकायतकर्ता को झूठी गवाही देने के अपराध के लिए दंडित किया जाना चाहिए। अदालत ने पाया कि शिकायतकर्ता द्वारा किया गया कार्य प्रकृति में जानबूझकर किया गया था और वह पूरी तरह से जानता था कि इस तरह के बयान कानून की अदालत को प्रभावित करेंगे। शिकायतकर्ता पर भारतीय दंड संहिता की धारा 191, धारा 192 और धारा 193 के तहत आरोप लगाया गया था। शिकायतकर्ता द्वारा किया गया कार्य जानबूझकर और अनुकूल आदेश प्राप्त करने के लिए न्यायिक कार्यवाही के उचित समय में बाधा डालने के बराबर है। यह अधिनियम अदालत की आपराधिक अवमानना ​​की श्रेणी में आता है। किसी मामले के प्रत्येक पक्ष को सच्चाई बताने और सही बयान देने के लिए बाध्य माना जाता है, जिसे वे कानून की अदालत में सच मानते हैं। 

प्रियंका श्रीवास्तव बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2015)

प्रियंका श्रीवास्तव बनाम उत्तर प्रदेश राज्य (2015) के मामले में, जानकारी छुपाई गई थी और अभियोजन पक्ष ने झूठ बोला था कि मामला महिला प्रकोष्ठ (सेल) के अधिकार क्षेत्र (ज्यूरिसडिक्शन) में था और परामर्श अभी लंबित है। शिकायतकर्ता ने महिला प्रकोष्ठ की बैठकों में भाग लेने से इनकार किया और समझौता करने से इनकार कर दिया। उसने वरिष्ठ पुलिस अधिकारी से भी झूठ बोला और तर्क दिया कि उसने शिकायत दर्ज कराई थी लेकिन कोई कार्रवाई नहीं की गई। यह देखा गया कि शिकायतकर्ता ने सीआरपीसी की धारा 156(3) के तहत दर्ज शिकायत में बिल्कुल गलत और अस्पष्ट बयान दिया था। बयान भ्रामक थे, और कुछ तथ्य भी छुपाए गए थे। 

अदालत ने माना कि शिकायतकर्ता द्वारा तथ्यों को छुपाना सीधे मुकदमा दर्ज करने के लिए जरूरी नहीं है और सीआरपीसी की धारा 340 के साथ पठित सीआरपीसी की धारा 195 के अनुसार जांच शुरू की जानी चाहिए। बाद में इस मामले में यह माना गया कि शिकायतकर्ता ने कई झूठे बयान दिए थे और अदालत को गुमराह किया था। यह शिकायतकर्ता को आवश्यक दंड के साथ सलाखों के पीछे डालने के लिए उत्तरदायी बनाता है। शिकायतकर्ता द्वारा किए गए झूठे बयान सीआरपीसी की धारा 340 के साथ पठित सीआरपीसी की धारा 195 के तहत आवश्यक कार्रवाई शुरू करने का आदेश देते हैं। 

चंद्र शशि बनाम अनिल कुमार वर्मा (1995)

चंद्र शशि बनाम अनिल कुमार वर्मा (1995) के मामले में, न्यायालय द्वारा प्रतिवादी के खिलाफ स्वत: संज्ञान लेने का प्रयास किया गया था। प्रतिवादी ने अपनी पत्नी की प्रार्थना का विरोध करने के लिए मनगढ़ंत दस्तावेज पेश किए। उसकी पत्नी ने वैवाहिक विवाद का मामला दर्ज कराया। प्रतिवादी का इरादा मामले को दिल्ली से उन्नाव मे स्थानांतरित (ट्रांसफर) करने का था। अदालत को धोखा देने और गुमराह करने के लिए झूठे और जाली दस्तावेज अदालत में दिए गए थे। 

न्यायालय ने माना कि न्यायालय को गुमराह करने और धोखा देने के इरादे से हेर फेर और झूठ, अदालत की अवमानना ​​के बराबर है। यह देखा गया कि यदि पक्षों के कार्यों को तदनुसार और उचित रूप से नहीं निपटाया गया, तो किसी भी न्यायालय के लिए न्याय करना असंभव होगा। इससे न्याय में देरी होगी। न्यायालय द्वारा यह जोड़ा गया कि यदि प्रतिवादी की इस कार्रवाई की उपेक्षा की जाती है, तो यह न्याय में बाधा उत्पन्न करेगा और इसके परिणामस्वरूप न्यायालय अपने कर्तव्यों को जिम्मेदारी से निभाएगा। 

निष्कर्ष 

सीआरपीसी की धारा 340 के साथ पठित सीआरपीसी की धारा 195, अदालत की न्याय प्रणाली के प्रशासन को सुनिश्चित करने के लिए बनाई गई है। यह कानून में एक स्थापित सिद्धांत है कि न्यायालय इन धाराओं के तहत मुकदमे का आदेश तभी दे सकता है जब मुकदमा न्याय और जनता के हित में जरूरी हो। इस लेख में चर्चा किए गए निर्णय भी इन वर्गों और उनके उपयोग की व्याख्या करते हैं। यह मामले के प्रक्रियात्मक पहलुओं को स्पष्ट करता है। निष्कर्ष निकालने के लिए, एक न्यायाधीश सीआरपीसी की धारा 340 के अनुसार दूसरे पक्ष को नहीं सुन सकता है। हालाँकि, वह आवेदक को सुन सकता है। जिस व्यक्ति के विरुद्ध कार्यवाही की जा रही है उसकी सुनवाई आवश्यक नहीं है। तो, इस तरह, धारा 340 झूठी गवाही की संभावना को कम करने और अदालत के समय को बचाने में मदद करती है। यह लोगों को दंडित करके झूठे बयान और सबूत देने से भी रोकता है।

अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)

क्या अपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 195 के अनुसार शिकायत से पहले प्रारंभिक जांच होना अनिवार्य है?

हां, प्रारंभिक जांच होना अनिवार्य है और आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 195 के तहत शिकायत दर्ज करने से पहले आरोपी को अपना पक्ष सुनाने का अवसर दिया जाएगा।

अपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 340 के तहत कब शिकायत दर्ज करनी चाहिए?

सही सबूत होने पर और उसके खिलाफ झूठा बयान देने पर सीआरपीसी की धारा 340 के तहत मामला दर्ज करना चाहिए।

न्याय प्रशासन को प्रभावित करने वाले अपराध से संबंधित सीआरपीसी की धारा 340 और धारा 344 के तहत उल्लिखित प्रावधानों के बीच अंतर का मूल तत्व क्या है?

सीआरपीसी की धारा 340 अधिनियम की धारा 195 के तहत दिए गए मामलों की प्रक्रिया के लिए प्रावधान करती है, जबकि धारा 344 उन मामलों में मुकदमे की सारांश (समरी) प्रक्रिया पर चर्चा करती है जिनमें झूठे सबूत पेश किए गए हैं। 

संदर्भ

 

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