सी.आर.पी.सी., 1973 की धारा 167

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Criminal Procedure Code

यह लेख बनस्थली विश्वविद्यालय में पढ़ रही कानून की छात्रा Shiwangi Singh ने लिखा है। यह सी.आर.पी.सी. की धारा 167 के विभिन्न पहलुओं, इस धारा के आवश्यक संशोधन और उसी के संबंध में महत्वपूर्ण निर्णयों के बारे में विस्तार से बात करता है। यह मुख्य रूप से सी.आर.पी.सी., 1973 में निर्धारित कानूनी प्रक्रियाओं का पालन करके एक आरोपी को हिरासत में लेने की पुलिस की शक्ति से संबंधित है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja के द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय

धारा 167 दंड प्रक्रिया संहिता का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है, जिसमें कहा गया है कि यदि किसी अपराध की जांच 24 घंटे के भीतर पूरी नहीं होती है और आरोपी हिरासत में है, तो संबंधित पुलिस अधिकारी आरोपी को निकटतम न्यायिक मजिस्ट्रेट के पास भेज देंगे। यह धारा मजिस्ट्रेट को जांच के दौरान, आरोपी को पुलिस हिरासत या न्यायिक हिरासत में भेजने का अधिकार देती है। इसमें यह भी कहा गया है कि अगर उसकी हिरासत के निर्धारित समय के भीतर, जांच में उसके खिलाफ ऐसा कोई ठोस सबूत नहीं मिलता है, तो उसे डिफ़ॉल्ट जमानत पर रिहा किया जा सकता है। इस धारा के प्रावधान व्यक्तिगत स्वतंत्रता के उसके मौलिक अधिकार की रक्षा करता हैं।

धारा 167 तब लागू होती है जब जांच शुरू की गई हो लेकिन 24 घंटे के भीतर पूरी नहीं की गई हो। यह एक आरोपी को गिरफ्तार करने से शुरू होकर एक रूपरेखा (फ्रेमवर्क) तैयार करती है और फिर एक जांच करती है जिसमें पूछताछ, सबूतों को इकठ्ठा करना, सबूतों से छेड़छाड़ की रोक आदि शामिल हैं। गिरफ्तारी, रिमांड और जमानत जांच से संबंधित कारक हैं।

दंड प्रक्रिया की धारा 57 में कहा गया है कि यदि किसी व्यक्ति को बिना वारंट के गिरफ्तार किया जाता है और पुलिस अधिकारी की हिरासत में रखा जाता है, तो उसे केवल उचित अवधि के लिए ही हिरासत में लिया जा सकता है, जिसका अर्थ है कि हिरासत 24 घंटे से अधिक नहीं होगी। पुलिस अधिकारियों को अगले 24 घंटे के भीतर अपनी जांच पूरी करनी होती है। धारा 167, धारा 57 के अधिकार क्षेत्र (ज्यूरिसिडिक्शन) को बढ़ाने के लिए प्रक्रिया निर्धारित करती है। यदि किसी व्यक्ति के खिलाफ जांच में अधिक समय की आवश्यकता होती है और 24 घंटे के भीतर पूरी नहीं होती है, तो अधिकारियों को मजिस्ट्रेट से अनुमति प्राप्त करने के लिए उचित आधार बताने होंगे कि क्यों जांच पूरी करने के लिए आरोपी को अधिक समय तक रखने की जरूरत है। ऐसी परिस्थितियों में, पुलिस को निकटतम मजिस्ट्रेट से संपर्क करना पड़ता है, चाहे उस मामले में उनका अधिकार क्षेत्र हो या नहीं।

सी.आर.पी.सी. की धारा 167

दंड प्रक्रिया संहिता के अध्याय XII में धारा 167 शामिल है, जो पुलिस की जानकारी और जांच करने की उनकी शक्तियों के बारे में बात करती है। यह अध्याय आरोपी के खिलाफ कानूनी कार्यवाही शुरू करने से पहले जांच करने के पुलिस के कानूनी अधिकारों के बारे में बताता है। जब भी किसी व्यक्ति को धारा 167 के तहत उचित आधार पर हिरासत में लिया जाता है, तो अदालतें, या तो धारा 482 या धारा 401 के तहत, मामले में हस्तक्षेप नहीं कर सकती हैं।

धारा 167 का उपयोग तब किया जाता है जब आरोपी को हिरासत में लिए जाने के 24 घंटे के भीतर उसे मजिस्ट्रेट के सामने पेश न करके उसके मौलिक अधिकार, जैसा कि अनुच्छेद 22 (2) द्वारा प्रदान किया गया है, का उल्लंघन किया जाता है। यह अनुच्छेद, जो सी.आर.पी.सी. की धारा 57 का पूरक (कंप्लीमेंट्री) है, में कहा गया है कि गिरफ्तार किए गए या हिरासत में लिए गए प्रत्येक व्यक्ति को 24 घंटे के भीतर निकटतम मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया जाएगा, जिसमें गिरफ्तारी के स्थान से मजिस्ट्रेट की अदालत तक की यात्रा में लगने वाला समय शामिल नही है, और किसी भी व्यक्ति को स्वयं मजिस्ट्रेट की अनुमति के बिना 24 घंटे से अधिक समय तक हिरासत में नहीं रखा जाएगा।

सी.आर.पी.सी. की धारा 167 के प्रावधान

यह प्रावधान एक जांच में उत्पन्न होने वाली विभिन्न प्रकार की स्थितियों के लिए विभिन्न प्रावधानों के बारे बताता है और मजिस्ट्रेट और पुलिस अधिकारियों की शक्तियों पर भी चर्चा करता है।

प्रक्रिया, जब 24 घंटे के भीतर जांच पूरी नहीं होती है

धारा 167(1)– जब किसी व्यक्ति को बिना वारंट के गिरफ्तार किया जाता और पुलिस हिरासत में रखा जाता है, और पुलिस अधिकारियों या जांच एजेंसी द्वारा यह माना जाता है कि धारा 57 द्वारा निर्धारित 24 घंटे की अवधि के भीतर पूछताछ पूरी नहीं होगी, और यह मानने के लिए उचित आधार हैं कि आरोपी के खिलाफ सबूत विश्वसनीय और अच्छी तरह से स्थापित है, फिर पुलिस स्टेशन के प्रभारी अधिकारी या पुलिस अधिकारी जिसके तहत जांच चल रही है, जो सब-इंस्पेक्टर के पद से नीचे का नहीं है, वह बिना किसी देरी के तुरंत न्यायिक मजिस्ट्रेट के सामने यह मांग करेगा कि वह मामले से संबंधित अपनी डायरी में दर्ज की गई प्रविष्टियों (एंट्रीज) की एक प्रति प्रस्तुत करके अवधि बढ़ाने के लिए न्यायिक मजिस्ट्रेट के सामने रखे, और साथ ही आरोपी को मजिस्ट्रेट के सामने पेश भी करें।

धारा 167(2) – इस धारा के तहत जिस मजिस्ट्रेट के पास आरोपी व्यक्ति को भेजा गया है, चाहे उसका अधिकार क्षेत्र हो या नहीं, वह समय-समय पर मामले की सुनवाई करेगा, और आरोपी को ऐसी पुलिस हिरासत में रखने के लिए अधिकृत (ऑथराइज) करेगा जैसा उसे ठीक लगे और उसे पंद्रह दिनों से अधिक की अवधि के लिए नहीं रखा जाएगा। यदि मजिस्ट्रेट के पास मामले की सुनवाई के लिए कोई अधिकार क्षेत्र नहीं है और वह मानता है कि आगे की हिरासत अप्रासंगिक (इररेलेवेंट) है, तो वह आरोपी के मुकदमे को उच्च पद के मजिस्ट्रेट जो इस धारा के तहत मामले की सुनवाई करने के लिए अधिकृत है, को भेजने का आदेश दे सकता है। 

सी.आर.पी.सी. की धारा 167 के तहत मजिस्ट्रेट की शक्तियां

धारा 167 (2) (a) – मजिस्ट्रेट के पास आरोपी व्यक्ति को हिरासत में लेने का आदेश देने की शक्ति है, लेकिन पुलिस हिरासत में नहीं है, अगर वह आश्वस्त है कि आरोपी को हिरासत में लेने के लिए उपयुक्त और उचित आधार हैं, लेकिन किसी भी स्थिति में, मजिस्ट्रेट निम्नलिखित से अधिक अवधि के लिए हिरासत का आदेश नहीं दे सकता:

  • 90 दिन, यदि आरोपी पर मृत्यु, आजीवन कारावास या कारावास जो दस वर्ष से कम नहीं है से दंडनीय अपराध का आरोप लगाया जाता है।
  • 60 दिन, यदि जांच किसी अन्य अपराध से संबंधित है। 60 दिनों या 90 दिनों की समय अवधि पूरी होने के बाद, आरोपी को जमानत पर रिहा किया जाएगा यदि वह जमानत देने में सक्षम है। इस अवधि की गिनती उस दिन से की जाती है जिस दिन उसे हिरासत में लिया गया था न कि गिरफ्तारी की तारीख से।
  • यदि 90 या 60 दिनों के भीतर जांच पूरी नहीं होती है, तो उसे धारा 167 (2) के प्रावधानों के तहत जमानत पर रिहा करना होगा।

सी.आर.पी.सी. की धारा 167 के तहत मजिस्ट्रेट की शक्तियों पर सीमाएं

धारा 167 (2) (B) – किसी भी मजिस्ट्रेट को इस धारा के तहत आरोपी को पुलिस हिरासत में रखने की शक्ति नहीं दी जाती है जब तक कि आरोपी को पहली बार व्यक्तिगत रूप से उसके सामने पेश नहीं किया जाता है और बाद में हर बार पुलिस हिरासत में रहने पर उसे पेश किया जाता है।

उच्च न्यायालय, द्वितीय श्रेणी के मजिस्ट्रेट को पुलिस की हिरासत में आरोपी को रखने का आदेश पारित करने का अधिकार नहीं देता है।

प्रभारी (इन चार्ज) अधिकारी एवं कार्यकारी (एग्जिक्यूटिव) मजिस्ट्रेट के कर्तव्य

धारा 2A – यदि किसी भी परिस्थिति में न्यायिक मजिस्ट्रेट मामले को लेने के लिए मौजूद नहीं है, तो मामले का प्रभारी अधिकारी मामले को निकटतम कार्यकारी मजिस्ट्रेट को संदर्भित करेगा, जिसको न्यायिक मजिस्ट्रेट या मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट की शक्तियां प्रदान की गईं हैं। उसे डायरी में प्रविष्टि की एक प्रति और हिरासत के कारणों के साथ प्रदान किया जाएगा, जिसके लिए वह आरोपी को सात दिनों से अधिक के लिए हिरासत मे रखने की अनुमति नहीं दे सकता है। निर्धारित अवधि की समाप्ति पर, आरोपी को जमानत पर रिहा कर दिया जाएगा, सिवाय इसके कि यदि किसी मजिस्ट्रेट द्वारा आरोपी के खिलाफ और हिरासत का कोई आदेश दिया जा रहा है, जो उसकी हिरासत की अवधि के लिए इस तरह की वृद्धि को पारित करने के लिए अधिकृत है।

अन्य प्रावधान

  • धारा 167(3) – मजिस्ट्रेट पुलिस द्वारा दिए गए कारणों को दर्ज करेगा कि आरोपी को हिरासत में क्यों लिया जा रहा है और पुलिस की हिरासत में क्यों रखा गया है।
  • धारा 167(4) – यदि मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के अलावा किसी अन्य मजिस्ट्रेट द्वारा कोई आदेश दिया जाता है, तो उसे आदेश देने के कारणों सहित उसकी एक प्रति भेजी जानी चाहिए।
  • धारा 167(5) – समन मामले में, यदि आरोपी की गिरफ्तारी की तारीख से छह महीने के भीतर जांच समाप्त नहीं हुई है, तो मजिस्ट्रेट उस मामले से संबंधित किसी भी आगे की जांच को रोकने का आदेश देगा, जब तक कि जांच करने वाला पुलिस अधिकारी न्याय के हित में छह महीने की अवधि से आगे जांच जारी रखने के लिए प्रासंगिक और विशेष कारण प्रस्तुत नहीं करता है।
  • धारा 167(6) – यदि मजिस्ट्रेट आगे की जांच को रोकने का आदेश घोषित करता है, तो उसके खिलाफ सत्र (सेशन) न्यायाधीश को आवेदन करने के बाद प्रासंगिक आधार प्रदान करके आदेश पारित किया जा सकता है कि आगे की जांच करना क्यों आवश्यक है। उप-धारा (5) के तहत न्यायाधीश के पास पिछले आदेश को समाप्त करने का अधिकार होता है।
  • 18 वर्ष से कम उम्र की महिला के मामले में, मजिस्ट्रेट उसे रिमांड होम या मान्यता प्राप्त सामाजिक संस्था की हिरासत में रखने के लिए अधिकृत करेगा।
  • यदि किसी व्यक्ति को पुलिस से न्यायिक हिरासत में स्थानांतरित (ट्रांसफर) किया जाता है, तो पुलिस हिरासत में बिताए गए दिनों की संख्या न्यायिक हिरासत में रिमांड के कुल दिनों में से काट ली जाएगी।

सी.आर.पी.सी. की धारा 167 में विभिन्न राज्य के संशोधन

अंडमान और निकोबार और लक्षद्वीप द्वीप 

  • केंद्र शासित प्रदेशों (यूनियन टेरिटरीज) और अंडमान और निकोबार द्वीप और लक्षद्वीप द्वीप के लिए, धारा 167 की उप-धारा (1) में कुछ प्रावधान जोड़ दिए गए थे, जो यह प्रावधान करता है कि यदि ऐसे द्वीप पर न्यायिक मजिस्ट्रेट मौजूद नहीं है, तो जो कार्यकारी मजिस्ट्रेट वहां कार्य कर रहा है उसे संदर्भित किया जाएगा।
  • उप-धारा (1) के बाद, इसका उल्लेख (1-A) के रूप में किया गया था, जिसमें कहा गया था कि पुलिस अधिकारी की डायरी में प्रविष्टियों की प्रति को कार्यकारी मजिस्ट्रेट के संदर्भ के रूप में व्याख्यायित (इंटरप्रेट) किया जाएगा।
  • उप-धारा (3) में, एक प्रावधान किया गया था जिसमें कहा गया था कि यदि एक कार्यकारी मजिस्ट्रेट मौजूद नहीं है, तो केवल एक उप-मंडल (सब डिविजनल) मजिस्ट्रेट या एक जिला मजिस्ट्रेट को राज्य सरकार द्वारा पुलिस हिरासत में रखने का आदेश पारित करने का अधिकार है। 
  • उप-धारा (4) में यह प्रावधान किया गया था कि यदि कार्यकारी मजिस्ट्रेट द्वारा कोई आदेश पारित किया जाता है तो आदेश देने वाला मजिस्ट्रेट आदेश की एक प्रति, इसे बनाने के कारणों को बताते हुए, कार्यकारी मजिस्ट्रेट जिसे वह तुरंत अधीनस्थ (सबोर्डिनेट) है, को भेजेगा।

आंध्र प्रदेश

  • उप-धारा (2), खंड (b) में, यह जोड़ा गया था कि आरोपी की न्यायिक हिरासत बढ़ाई जा सकती है और उसे व्यक्तिगत रूप से या इलेक्ट्रॉनिक वीडियो लिंकेज के माध्यम से न्यायाधीश के सामने पेश होना होगा। 
  • स्पष्टीकरण II में, खंड (c) के तहत, “एक आरोपी व्यक्ति को पेश किया गया था” को “एक आरोपी व्यक्ति को व्यक्तिगत रूप से या इलेक्ट्रॉनिक लिंकेज के माध्यम से, जैसा भी मामला हो, पेश किया गया था” के साथ प्रतिस्थापित (सब्सटीट्यूट) किया गया था।

केंद्र शासित प्रदेश चंडीगढ़

  • इसमें कहा गया है कि धारा 167 में ‘कार्यकारी मजिस्ट्रेट’ जैसे शब्दों को ‘न्यायिक मजिस्ट्रेट’ या ‘मजिस्ट्रेट’ शब्दों के विकल्प के रूप में पढ़ा जाएगा और ‘मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट’ शब्दों के लिए ‘जिला मजिस्ट्रेट’ शब्दों को प्रतिस्थापित किया जाएगा।

छत्तीसगढ

  • उप-धारा (2) में, खंड (b) के बाद, एक नया खंड (bb) जोड़ा गया था जिसमें कहा गया था कि कोई भी मजिस्ट्रेट किसी आरोपी को हिरासत में रखने के लिए अधिकृत नहीं कर सकता है, जिसे या तो व्यक्तिगत रूप से या इलेक्ट्रॉनिक वीडियो लिंकेज के माध्यम से पुलिस द्वारा उसके सामने पेश नहीं किया गया है, और उसका प्रतिनिधित्व अदालत में एक प्लीडर द्वारा किया जाना चाहिए।
  • स्पष्टीकरण II में, “पेश किया गया” शब्द जोड़ा गया और “पुलिस हिरासत से पेश किया गया” में बदल दिया गया।
  • स्पष्टीकरण II के बाद, एक नया स्पष्टीकरण III को जोड़ा गया जिसमें कहा गया था कि यदि कोई प्रश्न उठता है कि क्या किसी आरोपी व्यक्ति को पुलिस की हिरासत के अलावा, व्यक्तिगत रूप से या इलेक्ट्रॉनिक वीडियो लिंकेज के माध्यम से मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किया जाता है, तो हिरासत के आदेश पर आरोपी व्यक्ति को उसके कानूनी प्रतिनिधि के हस्ताक्षर से साबित किया जा सकता है।

दिल्ली

  • स्पष्टीकरण II के स्थान पर “आरोपी व्यक्ति की पेशी को उसे हिरासत में लेने के आदेश पर या कार्यवाही की वीडियो रिकॉर्डिंग से, उसके हस्ताक्षर से साबित किया जा सकता है”।

पश्चिम बंगाल

  • इसने उप-धारा (2) खंड (b) में परिवर्तन किया, जहां इसे – “इस धारा के तहत कोई भी मजिस्ट्रेट पुलिस की हिरासत को अधिकृत नहीं करेगा, जब तक कि आरोपी को हर बार पुलिस हिरासत में होने पर उसके सामने व्यक्तिगत रूप से पेश नहीं किया जाता है”, इसके साथ प्रतिस्थापित किया गया था- “न्यायिक हिरासत में जब तक कि आरोपी को उसके सामने या तो व्यक्तिगत रूप से या इलेक्ट्रॉनिक वीडियो लिंकेज के माध्यम से पेश नहीं किया जाता है”।
  • उप-धारा (6) में, वाक्यांश “और आरोपी को बारी कर दिया गया है” को “किसी अपराध में आगे की जांच को रोकने वाला कोई भी आदेश किया गया है” के शब्दों के बाद जोड़ा गया था।

त्रिपुरा

  • धारा 167, उप-धारा (2) में, ’90 दिन’ शब्दों को ‘180 दिन’ से और ’60 दिन’ शब्दों को ‘120 दिन’ से प्रतिस्थापित किया गया था।

तमिलनाडु

  • उप-धारा (2) में, खंड (b) के स्थान पर, यह प्रतिस्थापित किया जाता है कि कोई भी मजिस्ट्रेट इस धारा के तहत किसी आरोपी व्यक्ति को हिरासत में लेने का आदेश पारित नहीं करेगा यदि आरोपी पुलिस हिरासत में है और उसे उसके सामने शारीरिक रूप से पेश नहीं किया गया है। यदि आरोपी को पुलिस की हिरासत के अलावा अन्य किसी हिरासत में लिया जाता है, तो जब तक आरोपी को व्यक्तिगत रूप से या मीडिया या इलेक्ट्रॉनिक वीडियो लिंकेज के माध्यम से पेश नहीं किया जाता है, तब तक मजिस्ट्रेट आरोपी को हिरासत में लेने के लिए अधिकृत नहीं है।

पंजाब

  • धारा 167 की उप-धारा (2) में ’15 दिन’ शब्द को ’30 दिन’ से प्रतिस्थापित किया गया था।

हरयाणा

  • धारा 167 A को डाला गया था जिसमें कहा गया था कि “किसी भी संदेह से बचने के लिए, यह घोषित किया जाता है कि धारा 167 के प्रावधान किसी भी व्यक्ति पर लागू होंगे, जो किसी मजिस्ट्रेट, चाहे कार्यकारी या न्यायिक, के किसी भी आदेश या निर्देश के तहत गिरफ्तार किया गया हो।”

सी.आर.पी.सी. की धारा 167 के तहत हिरासत की अवधारणा

आम तौर पर, धारा 167 के तहत ‘हिरासत’ शब्द को ‘पुलिस हिरासत’ या ‘न्यायिक हिरासत’ के रूप में समझा जाता है। पुलिस हिरासत में, अधिकारियों की, आरोपी तक अधिक पहुंच होती है क्योंकि वह पुलिस अधिकारी की विशेष हिरासत में होता है। किसी भी मामले में सच का पता लगाने के लिए पुलिस विभाग का मुख्य ध्यान हिरासत की निर्धारित अवधि के अंदर पूछताछ करना है। जबकि न्यायिक हिरासत में आरोपी को जेल में रखा जाता है, जहां पुलिस अधिकारी या जांच एजेंसियां आरोपी से ​​अपनी मर्जी से प्रश्न नहीं पूछ सकती या उससे पूछताछ नहीं कर सकती हैं। जब भी अधिकारियों को जांच के लिए आरोपी से मिलना होता है, तो उन्हें अदालत से अनुमति लेनी होती है और अदालत द्वारा निर्धारित दिशा-निर्देशों और शर्तों का पालन करना होता है।

सी.आर.पी.सी. की धारा 167 के तहत हिरासत के दायरे का विस्तार

सर्वोच्च न्यायालय ने गौतम नवलखा बनाम राष्ट्रीय जांच एजेंसी (2021) के बेहद हाई-प्रोफाइल मामले में ‘घर में हिरासत मे रखना’ और ‘ट्रांजिट रिमांड’ की शर्तों को पेश करके हिरासत के दायरे का और ज्यादा विस्तार कर दिया गया था। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि निचली अदालतों द्वारा न्यायिक या पुलिस हिरासत के बजाय उचित मामलों में घर में हिरासत का आदेश दिया जा सकता है। यह, धारा 167 के तहत हिरासत की अवधारणा के विस्तार को दर्शाता है। यह तर्क देने का मार्ग प्रशस्त करेगा कि एक आरोपी को कुछ मामलों में पारंपरिक कारावास के बजाय घर में हिरासत में रखा जाना चाहिए।

मामले की पृष्ठभूमि (बैकग्राउंड)

28-08-2018 को, एक प्रसिद्ध मानवाधिकार कार्यकर्ता, गौतम नवलखा को उनके दिल्ली वाले घर से गिरफ्तार किया गया था क्योंकि पुणे में एक प्राथमिकी दर्ज की गई थी। उसके खिलाफ गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम (अनलॉफुल एक्टिविटीज प्रिवेंशन) अधिनियम, 1967 के तहत आतंकवादी गतिविधि के आरोप में प्राथमिकी दर्ज की गई थी।

गिरफ्तारी के बाद, उन्हें ‘ट्रांजिट रिमांड’ लेने के लिए दिल्ली के मुख्य मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट के पास ले जाया गया। सीएमएम ने निर्देश दिया कि उसे 30-08-2018 से पहले पुणे में मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया जाए। इस बीच, नवलखा ने दिल्ली उच्च न्यायालय के समक्ष एक रिट याचिका भी दायर की थी, जिसने उसी दिन मामले की सुनवाई की और ट्रांजिट रिमांड के आदेश को रद्द करने का निर्देश दिया और आदेश दिया कि नवलखा को उनके दिल्ली वाले घर पर ‘घर मे हिरासत’ में रखा जाए।

इस हिरासत ने उन्हें घर के सामान्य निवासियों और उनके वकीलों के अलावा किसी और के संपर्क में नहीं आने दिया। उन्हें घर से बाहर नहीं निकलने दिया गया, और उन्हें हिरासत में रखने के लिए उनके घर पर दो गार्ड लगाए गए थे। 34 दिनों की हिरासत के बाद, दिल्ली उच्च न्यायालय ने हिरासत को खत्म कर दिया। इसके बाद नवलखा ने पुणे में दर्ज प्राथमिकी को समाप्त करने के लिए बॉम्बे उच्च न्यायालय के समक्ष एक रिट याचिका दायर की और अग्रिम (एंटीसिपेटरी) जमानत देने का भी अनुरोध किया। दोनों अनुरोधों को बॉम्बे उच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया, और बाद में, अदालत ने आदेश दिया कि नवलखा को जांच अधिकारियों के सामने आत्मसमर्पण (सरेंडर) करना चाहिए, जो उन्होंने किया और नई दिल्ली में राष्ट्रीय जांच एजेंसी के साथ 11 दिन बिताए। उन्हें मुंबई स्थानांतरित कर दिया गया और 48 दिनों की अवधि के लिए न्यायिक हिरासत में रखा गया।

बाद में, नवलखा ने सी.आर.पी.सी. की धारा 167 के तहत डिफ़ॉल्ट जमानत के लिए एक आवेदन दायर किया, जहां यह तर्क दिया गया कि घर में हिरासत में उन्होंने जो 34 दिन बिताए थे, उन्हें डिफ़ॉल्ट जमानत के लिए आवश्यक अवधि के लिए गिना जाना चाहिए, जिसके परिणामस्वरूप उनके मामले में कुल 93 दिन थे, जिसमें क्रमशः 11 दिन और 48 दिन की पुलिस और न्यायिक हिरासत शामिल है, लेकिन निचली अदालतों ने डिफ़ॉल्ट जमानत के लिए इस आवेदन को खारिज कर दिया, जिसने नवलखा को फिर से और इस बार सर्वोच्च न्यायालय में अपील करने के लिए मजबूर किया।

ट्रांजिट रिमांड पर सर्वोच्च न्यायालय की व्याख्या

  • सर्वोच्च न्यायालय ने विश्लेषण किया कि क्या ट्रांजिट रिमांड धारा 167 के तहत हिरासत का एक रूप था और क्या इसे डिफ़ॉल्ट जमानत के लिए आवश्यक समय अवधि में शामिल किया जाएगा। एन.आई.ए. ने कहा कि ट्रांजिट रिमांड धारा 167 के तहत हिरासत के लिए रिमांड नहीं था, बल्कि आरोपी को एक मजिस्ट्रेट जिसके पास उस विशेष मामले में आदेश पारित करने का अधिकार था, के सामने ले जाने का आदेश था। 
  • अदालत ने कहा कि ट्रांजिट रिमांड का आदेश धारा 167 के दायरे में आएगा क्योंकि आरोपी को लगातार 24 घंटे की अवधि के लिए पुलिस हिरासत में रखा जाता है। इसने कहा कि अगर हम धारा 167 के तहत ट्रांजिट रिमांड पर विचार नहीं करते हैं, तो इसका मतलब यह होगा कि हिरासत 24 घंटे से अधिक है, जो कि सी.आर.पी.सी. की धारा 57 का उल्लंघन है।
  • सर्वोच्च न्यायालय ने ट्रांजिट रिमांड की प्रकृति का भी उल्लेख किया और कहा कि यह न्यायिक हिरासत का एक रूप नहीं है क्योंकि आरोपी को हिरासत के रूप में रखा जाता है जिसमें केवल पुलिस अधिकारी होते हैं। यह पुलिस अधिकारी हैं जो उसे मजिस्ट्रेट के सामने पेश करते हैं जिसके पास मामले पर विचार करने का अधिकार क्षेत्र होता है। इसलिए ट्रांजिट रिमांड को पुलिस कस्टडी मानने का निर्णय लिया गया।

घर में हिरासत पर सर्वोच्च न्यायालय का व्याख्या

  • सर्वोच्च न्यायालय ने सी.आर.पी.सी. की धारा 167 के तहत घर में हिरासत को हिरासत का एक रूप माना है। सर्वोच्च न्यायालय ने भारत में जेलों की भीड़भाड़ की मौजूदा समस्या के बारे में बात की और इसे अपने फैसले के पीछे अपनी प्रेरणा बताया।
  • न्यायालय द्वारा दिया गया कानूनी तर्क यह था कि चूंकि घर में हिरासत में रखना आरोपी को उसकी आवाजाही और स्वतंत्रता से वंचित करता है, इसलिए इसे धारा 167 के तहत हिरासत माना जा सकता है। न्यायालय ने कहा कि अगर धारा 167 के तहत घर में हिरासत का आदेश दिया जाता है, तो डिफॉल्ट जमानत देने के लिए कुल समय अवधि की गणना करने के लिए उन दिनों को हिरासत के दिनों में शामिल किया जाएगा।
  • न्यायालय ने यह भी विश्लेषण किया कि क्या घर में हिरासत को पुलिस हिरासत या न्यायिक हिरासत माना जाएगा, लेकिन इसे किसी भी स्थान पर वर्गीकृत नहीं किया जा सका। यह मामला-दर-मामला दृष्टिकोण अपनाने में विश्वास करता है। हालांकि, इस मामले में घर में हिरासत की सामग्री और आरोपी तक पहुंचने में पुलिस पर लगाई गई सीमा को ध्यान में रखते हुए इसे न्यायिक हिरासत बताया गया है। उपरोक्त निर्णय लेने के बावजूद, सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि नवलखा की 34 दिनों की अवधि के लिए हिरासत को सी.आर.पी.सी. की धारा 167 के तहत हिरासत के रूप में नहीं माना जाएगा। फैसले में दिया गया तर्क अस्पष्ट और विरोधाभासी (कांट्रेडिक्टरी) था। अदालत ने कहा कि उच्च न्यायालय ने धारा 167 के तहत घर में हिरासत को ‘कथित’ होने का आदेश नहीं दिया है। सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि इस परिदृश्य (सिनेरियो) में, घर में हिरासत को धारा 167 के तहत हिरासत के रूप में नहीं माना जाएगा, इसलिए उसकी नजरबंदी के दिनों को नवलखा के डिफ़ॉल्ट जमानत के आवेदन के लिए हिरासत के दिनों के रूप में नहीं गिना जाएगा।
  • यह निर्णय हमें धारा 167 के तहत पारित (कथित रूप से) आदेशों और उन आदेशों के बीच अंतर के बारे में भी बताता है, जो यह निर्धारित करने में महत्वपूर्ण कारक नहीं हैं कि क्या घर में हिरासत की अवधि धारा 167 के तहत ‘हिरासत’ मानी जाएगी ताकि उन दिनों को हिरासत में बिताए गए समय के रूप में गिना जा सके जब आरोपी द्वारा डिफ़ॉल्ट जमानत के लिए एक आवेदन दायर किया जाता है।
  • यह निर्णय विभिन्न निर्णयों और काल्पनिक उदाहरणों के माध्यम से यह समझाता है कि भले ही एक निर्णय अवैध तरीके से, कानून और व्यवस्था का पालन किए बिना किया गया हो, लेकिन अगर इसे धारा 167 के तहत पारित करने के लिए ‘कथित’ किया जाता है, जिसके परिणामस्वरूप आरोपी को हिरासत में लिया जाता है, तो इस अवधि को हिरासत के दिनों में गिना जाएगा, जो आगे अदालत से डिफ़ॉल्ट जमानत पाने में मदद करेगा।
  • न्यायालय ने यह स्पष्ट नहीं किया है कि धारा 167 के तहत पारित किए जाने वाले ‘कथित’ आदेश और ऐसा न करने वाले आदेश में क्या अंतर है। इसलिए, यह निर्णय कई मुद्दों के अधीन है, मार्गदर्शन का अभाव है, और सर्वोच्च न्यायालय के तर्क में भी कई विरोधाभास हैं।
  • धारा 167 के तहत पारित निर्णय होने के लिए ‘कथित’ का तात्पर्य है कि –
  1. अदालत को हमेशा स्पष्ट रूप से यह उल्लेख करना होगा कि वे धारा 167 के तहत एक आरोपी को हिरासत में लेने का आदेश दे रहे हैं ताकि उसे हिरासत के दिनों में गिना जा सके।
  2. जब भी उच्च न्यायालयों में किसी निर्णय की अपील की जाती है, तो उन्हें पहले निचली अदालतों के आदेशों के पीछे के इरादे की जांच करने की आवश्यकता होगी, फिर वे पुष्टि करेंगे कि क्या न्यायाधीशों ने हिरासत के आदेशों को धारा 167 के तहत “कथित” किया है।

हालाँकि, सर्वोच्च न्यायालय ने नवलखा की गिरफ्तारी की 34-दिन की अवधि को उसकी डिफ़ॉल्ट जमानत देने के लिए न गिनकर विरोधाभासी व्यवहार दिखाया है, भले ही उसने स्वयं संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत मौलिक अधिकार के बारे में बात की हो कि कोई भी व्यक्ति कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया को छोड़कर उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचितन नहीं होगा। यह स्पष्ट रूप से निर्णय की विरोधाभासी प्रकृति को दर्शाता है। यहां, सर्वोच्च न्यायालय ने उल्लेख किया कि घर में हिरासत में रखने की अवधि को धारा 167 के तहत हिरासत के रूप में नहीं माना जा सकता है, लेकिन वह यह समझाने में विफल रहा कि उच्च न्यायालय कानूनी रूप से इस हिरासत का आदेश कैसे पारित कर सकता है यदि यह धारा 167 के तहत दिया गया आदेश नहीं था।

ऐसे मामलों में जहां पारंपरिक जेल हिरासत की तुलना में घर में हिरासत को प्राथमिकता दी जाती है, इस फैसले में कहा गया है कि उपयुक्त मामलों में, धारा 167 के तहत घर में हिरासत का आदेश देना अदालत के विवेक पर होगा। हालांकि, सर्वोच्च न्यायालय ने इससे जुड़े दिशा-निर्देशों पर विस्तार से चर्चा नहीं की कि इस विवेक का इस्तेमाल कब किया जा सकता है। इसमें उम्र, स्वास्थ्य की स्थिति, आरोपी के अपराध के लिए पारित पूर्व निर्णय, अपराध की प्रकृति, हिरासत के अन्य रूपों की आवश्यकता, और क्या पुलिस अधिकारियों के लिए घर में हिरासत को लागू करना संभव होगा, जैसे कुछ मानदंडों (क्राइटेरिया) का उल्लेख किया गया है, जो किसी आरोपी को हिरासत में रखने के आदेश के लिए प्रासंगिक होगा।

इस मामले में यह भी स्पष्ट नहीं था कि घर में हिरासत को लागू करने का हकदार कौन था। यहां दिल्ली पुलिस के दो गार्ड थे, लेकिन यह नहीं बताया कि इस गतिविधि को करने के लिए हमेशा कौन अधिकृत (ऑथराइज) होगा, चाहे वह पुलिस हो या जेल अधिकारी हो, ताकि यह स्पष्ट हो सके कि यह न्यायिक हिरासत थी या पुलिस हिरासत।

आरोपी को आसानी प्रदान करने वाली, घर में हिरासत के अपने फायदे हैं, जैसे कि वे अपने जीवन में अनुचित परेशानियों को रोकेंगे, क्योंकि वे अपना रोजगार जारी रखने में सक्षम होंगे, लेकिन उन्हें न्यायालय द्वारा उल्लिखित शर्तों का पालन करना होगा। हिरासत के इस रूप को सफेदपोश (व्हाइट कॉलर) अपराधों से संबंधित मामलों में देखा जा सकता है, जो अहिंसक प्रकृति के हैं या ऐसे मामलों में जहां आरोपी ने पहली बार अपराध किया है और समाज में उसकी हमेशा एक अच्छी साफ छवि रही है। ऐसे मामलों में घर में हिरासत का अभ्यास किया जाना चाहिए और इसे प्रोत्साहित भी किया जाना चाहिए।

नरादा घोटाले का फैसला

हाल ही के मामले में, कलकत्ता उच्च न्यायालय ने 19-05-2021 को तृणमूल कांग्रेस के चार नेताओं को घर में हिरासत में रखने का आदेश दिया, लेकिन यह स्पष्ट रूप से उल्लेख नहीं किया कि यह आदेश सी.आर.पी.सी. की धारा 167 के तहत दिया गया था। उन्होंने कहा कि यह न्यायिक हिरासत है लेकिन उन्होंने यह उल्लेख नहीं किया कि वे सी.आर.पी.सी. की धारा 167 के तहत यह आदेश पारित कर रहे हैं, जिससे भ्रम पैदा हुआ। फैसले में सिर्फ इतना कहा गया था कि गौतम नवलखा मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए फैसलों का हवाला देकर और आरोपी की उम्र और स्वास्थ्य संबंधी चिंताओं के कारण न्यायिक हिरासत की पेशकश की जा रही थी, क्योंकि चार में से तीन आरोपियों को अस्पताल में भर्ती कराया गया था। इस मामले में आरोपियों को मेडिकल सुविधा मिल रही थी।

विभिन्न निर्णयों की व्याख्याएं:

  • मनोज बनाम मध्य प्रदेश राज्य (1999) में, न्यायालय ने माना कि जब हिरासत में रखा गया व्यक्ति, जो न तो एक विदेशी दुश्मन था और न ही निवारक निरोध (प्रिवेंटिव डिटेंशन) कानून के तहत गिरफ्तार किया गया था, उसे पुलिस अधिकारी द्वारा निकटतम न्यायिक मजिस्ट्रेट को पेश नहीं किया गया था। उसकी गिरफ्तारी के 24 घंटे बाद, उसकी आगे की हिरासत को कानूनी रूप से वैध नहीं माना जाएगा और उसे निराधार माना जाएगा। न्यायालय ने आगे कहा कि आरोपी को मजिस्ट्रेट के सामने पेश न करने का बहाना, इस आधार पर कि वह पहले से ही किसी अन्य राज्य में किसी अन्य मामले के संबंध में जेल में है, को वैध कारण नहीं माना जाएगा।
  • तमिलनाडु राज्य बनाम वी. कृष्णास्वामी नायडू और अन्य (1979) में यह माना गया था कि आपराधिक कानून संशोधन अधिनियम, 1952 के तहत एक विशेष न्यायाधीश, सी.आर.पी.सी. की धारा 167 में वर्णित मजिस्ट्रेट के समान शक्ति का प्रयोग कर सकता है, और एक आरोपी को हिरासत में लेने का आदेश दे सकता है, जो पुलिस कि हिरासत में है। 
  • प्रवर्तन निदेशालय (डायरेक्टरेट ऑफ़ एनफोर्समेंट) बनाम दीपक महाजन (1994) में, इस मामले से निपटा गया कि क्या एक मजिस्ट्रेट के पास एक आरोपी पर अधिकार क्षेत्र था जिसे प्रवर्तन निदेशालय द्वारा विदेशी मुद्रा विनियमन (फॉरेन एक्सचेंज रेगुलेशन) अधिनियम, 1973 के तहत गिरफ्तार किया गया था, और सी.आर.पी.सी. की धारा 167(2) के तहत न्यायिक रिमांड के लिए उसके सामने पेश किया गया था। इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली उच्च न्यायालय की पांच-न्यायाधीशों की खंडपीठ के फैसले को खारिज कर दिया और कहा कि सी.आर.पी.सी. की धारा 167 की उप-धाराएं (1) और (2), विदेशी मुद्रा विनियमन अधिनियम, 1973 की धारा 35 और सीमा शुल्क (कस्टम) अधिनियम, 1962 की धारा 104 के तहत गिरफ्तार व्यक्ति को पेश करने और हिरासत में रखने के संबंध में पूरी तरह से लागू होते हैं और यह कि मजिस्ट्रेट के पास इन अधिनियमों के तहत गिरफ्तार किए गए व्यक्ति की हिरासत को अधिकृत करने का अधिकार क्षेत्र है।
  • केंद्रीय जांच ब्यूरो दिल्ली बनाम अनुपम जे कुलकर्णी 8 मई 1992 में, यह माना गया था कि 90 या 60 दिनों की अवधि की गणना मजिस्ट्रेट द्वारा निर्देशित हिरासत की तारीख से की जाएगी, न कि पुलिस द्वारा गिरफ्तारी की तारीख से। 15 दिनों की हिरासत की अवधि समाप्त होने के बाद, आरोपी को पुलिस हिरासत से न्यायिक हिरासत में भेज दिया जाएगा।
  • डॉ. बिपिन शांति लाल पांचाल बनाम गुजरात राज्य (1996), नारकोटिक ड्रग्स एंड साइकोट्रोपिक सब्सटेंस एक्ट, 1985 के तहत एक मामला था, जहां सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि यदि आरोपी कानून द्वारा अनुमत समय के भीतर, आरोप पत्र (चार्ज शीट) दायर करने में अभियोजन पक्ष की विफलता के लिए, जमानत पर रिहा होने के अपने अधिकार का प्रयोग करने में विफल रहता है, तो वह यह तर्क नहीं दे सकता था कि आरोप-पत्र दाखिल करने के बाद भी उसे किसी भी समय इसका प्रयोग करने का अधिकार है। अगर उसने अधिकार का प्रयोग किया होता और आरोप पत्र दाखिल होने से पहले खुद को समय दिया होता, तो उसे मजिस्ट्रेट को आरोप पत्र जमा करने के बाद फिर से गिरफ्तार नहीं किया जा सकता था।
  • अब्दुल वाहिद बनाम महाराष्ट्र राज्य (1991) में यह माना गया कि निर्धारित समय के भीतर आरोप पत्र प्रस्तुत करने में विफल रहने पर आरोपी को डिफ़ॉल्ट जमानत प्राप्त करने का अधिकार पूर्ण अधिकार नहीं है। यदि निर्धारित समय के भीतर आरोप पत्र प्रस्तुत नहीं किया जाता है, तो यह जमानत देने का एकमात्र पूर्ण अधिकार देता है, लेकिन जमानत के बावजूद, निरोध को अधिकृत किया जाता है। इसलिए, वह अपने खिलाफ आरोप पत्र दायर होने से पहले ही उप-धारा (2) के प्रावधान के तहत इस अधिकार का उपयोग कर सकता है।
  • टी जगदीश्वर और अन्यब बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (2002) में न्यायालय ने कहा कि धारा 167 के तहत रिमांड आदेश एक न्यायिक आदेश है। रिमांड आदेश का विस्तार करने के लिए, निवेश अधिकारी को रिमांड आदेश को बढ़ाने के लिए उचित कारणों और परिणामों का उल्लेख करना चाहिए। यदि पुलिस या जेल अधिकारियों द्वारा अनुरोध नहीं किया जाता है, या पर्याप्त आधारों के अभाव में, रिमांड को बढ़ाया नहीं जाना चाहिए, और मजिस्ट्रेट को आरोपी को सूचित करना चाहिए कि उसे जमानत पर रिहा किया जा सकता है।
  • श्री जयंत बोरबोरा बनाम असम राज्य (1992), यह मामला उस हिरासत के संबंध में था जिसमें एक आरोपी को वैसे रखा जाएगा जैसा की मजिस्ट्रेट उचित समझे। न्यायालय ने कहा कि जब भी सेना के सदस्य कानून और व्यवस्था बनाए रखने के लिए नागरिक अधिकारियों की सहायता के लिए आते हैं, तो उन्हें जांच या पूछताछ करने का कोई अधिकार या शक्ति नहीं होती है। जांच अधिकारी की प्रार्थना पर आरोपी को सेना की हिरासत में नहीं रखा जा सकता है। अदालत ने कहा कि इसे अत्यधिक अनुचित, अवैध और संविधान का अधिकार नहीं माना जाएगा।
  • सुरेश कुमार भीकमचंद जैन बनाम महाराष्ट्र राज्य और अन्य (2013), धारा 167(2)(a)(ii) को संशोधित किया गया और अदालत ने माना कि आरोपी को डिफ़ॉल्ट जमानत दी जाएगी, भले ही अदालत ने इसे संज्ञान (कॉग्निजेंस) में लिया हो। हालांकि इस मामले में, पुलिस रिपोर्ट निर्धारित अवधि के भीतर प्रस्तुत की गई थी, लेकिन इसपर कोई संज्ञान नहीं लिया गया था क्योंकि मुकदमा चलाने की कोई मंजूरी नहीं थी। उच्च न्यायालय से धारा 167(2) के तहत जमानत न मिलने पर, विशेष अनुमति याचिकाओं द्वारा पूछताछ किए जाने तक मजिस्ट्रेट रिमांड देता रहा। सर्वोच्च न्यायालय ने स्पष्ट किया कि एक बार निर्धारित समय के भीतर पुलिस रिपोर्ट दर्ज करने के बाद, डिफ़ॉल्ट जमानत देने का सवाल ही नहीं उठता है। संज्ञान लिया गया है या नहीं, यह धारा 167 के संबंध में महत्वहीन है।
  • विपुल शाह प्रसाद अग्रवाल बनाम गुजरात राज्य और अन्य (2012), एक प्राथमिकी दर्ज की गई, आगे की जांच की गई, और निर्धारित अवधि के भीतर आरोप पत्र प्रस्तुत किया गया। हालांकि, की गई जांच को सर्वोच्च न्यायालय ने स्वीकार नहीं किया और न्यायालय ने सीबीआई द्वारा नए सिरे से जांच का आदेश दिया। सीबीआई ने ताजा प्राथमिकी दर्ज की। याचिकाकर्ता ने पहली जांच खारिज होने के कारण आरोप पत्र दाखिल करने में चूक के आधार पर जमानत का दावा किया था। तब सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि केवल इसलिए कि सीबीआई द्वारा एक नए सिरे से जांच का आदेश दिया गया है, इसका मतलब यह नहीं है कि जो आरोप पत्र पहले जमा किया गया था, वह छोड़ दिया जाता है।
  • असलम बाबालाल देसाई बनाम महाराष्ट्र राज्य, (1992) में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि एक बार आरोपी को धारा 167 (2) के तहत जमानत पर रिहा कर दिया जाता है, तो उसे केवल आरोप पत्र, जिससे एक गैर-जमानती अपराध के होने का पता चलता है, दाखिल करने पर वापस हिरासत में नहीं लिया जा सकता है, जब तक कि मजबूत कारण न हों कि केवल आरोप पत्र पेश करने पर जमानत रद्द क्यों नहीं की जा सकती।
  • खत्री और अन्य बनाम बिहार राज्य और अन्य (1980) में, मजिस्ट्रेट या सत्र न्यायाधीश, जिनके सामने आरोपी पेश हुआ, ने न्यायाधीशों को सूचित किया कि वह अपनी कमजोर वित्तीय (फाइनेंशियल) स्थिति के कारण कानूनी सहायता नहीं दे सकता है, और गरीबी से जूझ रहा है, जिससे वह राज्य की कीमत पर मुफ्त कानूनी सेवा प्राप्त करने का हकदार था। सर्वोच्च न्यायालय ने इस संबंध में मजिस्ट्रेटों, सत्र न्यायाधीशों और राज्य सरकारों को आवश्यक दिशा-निर्देश दिए थे।
  • सुब्रतपात्र और अन्य बनाम पंचायत निदेशक और अन्य (1994) जब भी एक से अधिक आरोपी हों और यदि उन्हें एक ही दिन गिरफ्तार नहीं किया जाता है, तो जांच के निर्धारित समय की गणना पहले आरोपी की गिरफ्तारी या आत्मसमर्पण की तारीख से की जानी चाहिए।

निष्कर्ष

सी.आर.पी.सी. की धारा 167 किसी व्यक्ति पर किसी भी प्रकार का अपराध करने का आरोप होने पर और पुलिस या जांच एजेंसी द्वारा 24 घंटे के भीतर जांच पूरी नहीं होने पर उसे हिरासत में लेने की प्रक्रिया निर्धारित करती है। अगर अदालत को इसके बारे में कोई ठोस सबूत नहीं मिलता है तो यह हिरासत की अवधि बढ़ाने की अनुमति न देकर आरोपी को गैरकानूनी हिरासत से भी बचाता है। किसी आरोपी को पुलिस हिरासत में अधिकतम 15 दिन हिरासत में रखा जा सकता है, लेकिन मृत्यु, आजीवन कारावास, या कम से कम 10 वर्ष की अवधि के लिए कारावास से दंडनीय अपराध के मामले में इसे अधिकतम 90 दिनों के लिए न्यायिक हिरासत के रूप में बढ़ाया जा सकता है। यह धारा आरोपी को उसकी जांच में शामिल पुलिस द्वारा कोई सबूत या आरोप पत्र अदालत के सामने पेश नहीं करने पर अक्षम्य (इनडिफेसिबल) जमानत पाने का अधिकार भी सुरक्षित करती है। संविधान के अनुच्छेद 21 के अनुसार, डिफ़ॉल्ट जमानत का प्रावधान आरोपी के जीवन और स्वतंत्रता की सुरक्षा के मौलिक अधिकार को सुरक्षित करता है।

हिरासत के दो अलग-अलग रूप भी पूछताछ प्रक्रिया को प्रभावित करते हैं। जहां एक में, जांच एजेंसी की आरोपी तक अधिक पहुंच है, वहीं दूसरे में यह उन्हें जांच के लिए आरोपी से मिलने से पहले अदालत के नियमों और आदेशों का पालन करती है।

यह धारा संविधान के अनुच्छेद 21 का पालन करती है जो आरोपी व्यक्ति के जीवन, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और अधिकारों की सुरक्षा करता है। यह पुलिस की सीधी और लंबे समय तक पहुंच को रोकती है कि जो वे आरोपी पर रखते है क्योंकि गिरफ्तारी सीधे व्यक्ति की व्यक्तिगत स्वतंत्रता को कम करती है, और यह उसकी स्वतंत्रता पर हमला करती है। 

सर्वोच्च न्यायालय ने ट्रांजिट रिमांड और घर में हिरासत का भी जिक्र किया है और गौतम नवलखा के मामले में दोनों शर्तों को अच्छी तरह से समझाया है। इस मामले ने ‘हिरासत’ शब्द के अर्थ और दायरे को विस्तृत किया। इसमें कहा गया है कि हिरासत की अवधि की गणना केवल नजरबंदी के दिनों की गणना में की जाएगी यदि यह सी.आर.पी.सी. की धारा 167 के तहत पारित होने का “कथित” है, जिसने अंततः गौतम नवलखा के लिए डिफ़ॉल्ट जमानत की अपील को खारिज कर दिया था। सर्वोच्च न्यायालय ने उल्लेख किया कि निचली अदालत ने इसे धारा 167 के तहत आदेश नहीं दिया था, इसलिए इस पर विचार नहीं किया जाएगा।

अधिकतर पूछे जाने वाले सवाल

क्या पुलिस के अलावा अन्य अधिकारी सी.आर.पी.सी. की धारा 167 (2) के तहत किसी आरोपी को गिरफ्तार करने के लिए अधिकृत हैं?

हां, सर्वोच्च न्यायालय ने यह सिद्धांत निर्धारित किया है कि सी.आर.पी.सी. की धारा 167(1) को लागू करने के लिए, यह आवश्यक नहीं है कि गिरफ्तारी केवल एक पुलिस अधिकारी द्वारा की गई हो, और यह भी आवश्यक नहीं है कि केस डायरी में प्रविष्टियों का रिकॉर्ड होना चाहिए। मजिस्ट्रेट किसी ऐसे व्यक्ति को न्यायिक हिरासत में ले सकता है जिसे उसके सामने पेश किया जाता है यदि –

  • गिरफ्तार करने वाले अधिकारी को गिरफ्तारी करने के लिए कानूनी रूप से अनुमति दी जाती है या अधिकृत किया जाता है।
  • जिस अपराध के लिए व्यक्ति को गिरफ्तार किया गया है वह सुस्थापित (वेल फाउंड) होना चाहिए।

इसलिए, पुलिस के अलावा कई अन्य अधिकारी हैं जो इस धारा के तहत किसी व्यक्ति को हिरासत में लेने के लिए अधिकृत हैं, जैसे विदेशी मुद्रा प्रबंधन अधिनियम, सीमा शुल्क अधिनियम, या नारकोटिक ड्रग्स एंड साइकोट्रोपिक सब्सटेंस अधिनियम के तहत प्रवर्तन निदेशालय के अधिकारी। वे एक गिरफ्तार व्यक्ति की न्यायिक रिमांड लेने के लिए पर्याप्त रूप से सक्षम हैं।

सी.आर.पी.सी. की धारा 167 का उद्देश्य क्या है?

धारा 167 का उद्देश्य आरोपी को बेईमान या अनैतिक पुलिस हिरासत से बचाना है।

पुलिस हिरासत और न्यायिक हिरासत में क्या अंतर है?

पुलिस हिरासत न्यायिक हिरासत
आरोपी को पुलिस के अधीन रखा जाता है जो जांच का प्रभारी है। पुलिस के पास आरोपी की शारिरिक हिरासत होती है। हिरासत पर मजिस्ट्रेट का नियंत्रण होता है।
यह एक मजिस्ट्रेट के आदेश पर अधिकतम 15 दिनों के लिए हो सकता है। यह किए गए अपराध की गंभीरता के आधार पर 60 या 90 दिनों के लिए हो सकता है।
आरोपी को थाने में स्थित जेल में रखा जाता है जहां मामला दर्ज किया गया था। आरोपी को केन्द्रीय जेल में रखा जाता है।

संदर्भ

  • Ratanlal and Dhirajlal: Code of Criminal Procedure 23rd Edition

 

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