यह लेख सिम्बायोसिस लॉ स्कूल, नोएडा की Anushka Singhal ने लिखा है। इस लेख में, वह एनडीपीएस अधिनियम की धारा 37 पर चर्चा करती है। इस लेख का अनुवाद Sameer Choudhary ने किया है।
Table of Contents
परिचय
नारकोटिक ड्रग्स एंड साइकोट्रोपिक सब्सटेंस अधिनियम, 1985 (एनडीपीएस अधिनियम) देश में दवाओं के संबंध में प्रावधानों को नियंत्रित करता है। इस अधिनियम में 83 धाराएं और 6 अध्याय हैं। यह दंड के संबंध में प्रावधान निर्धारित करता है और दवाओं और मनोदैहिक (साइकोट्रोपिक) पदार्थों के संचालन को नियंत्रित करने के लिए नियम और विनियम (रेगुलेशन) प्रदान करता है। हाल ही में, इस अधिनियम की धारा 37 तब चर्चा में आई जब माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि एनडीपीएस अधिनियम के तहत जमानत देते समय उदार दृष्टिकोण (लिबरल अप्रोच) नहीं अपनाया जा सकता है। आइए हम इस धारा को और अधिक विस्तार करें और इसकी व्याख्या करें।
एनडीपीएस अधिनियम की धारा 37
एनडीपीएस अधिनियम की धारा 37 इस अधिनियम के तहत अपराधों के लिए प्रावधान करती है। इस अधिनियम के तहत अपराध संज्ञेय (कॉग्निजेबल) और गैर-जमानती हैं। इस अधिनियम के अंतर्गत निम्नलिखित प्रावधान निर्धारित किए गए हैं-
- इस अधिनियम के तहत अपराध संज्ञेय हैं, अर्थात ऐसा अपराध जिसके लिए पुलिस बिना वारंट के गिरफ्तार कर सकती है।
- इस अधिनियम के तहत अपराध तब तक गैर-जमानती हैं जब तक कि लोक अभियोजक (पब्लिक प्रॉसिक्यूटर) को आवेदन का विरोध करने की अनुमति नहीं दी गई है और अदालत संतुष्ट है कि आरोपी को रिहा कर दिया जाएगा।
- इस विशेष धारा में जमानत संबंधी प्रावधान दंड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी), 1973 के तहत निर्धारित प्रावधानों के अतिरिक्त हैं।
न्यायालयों द्वारा व्याख्या
केरल राज्य और अन्य बनाम राजेश और अन्य (2020)
इस मामले में क्षेत्र के आबकारी निरीक्षक ने भांग का तेल ले जा रहे एक आरोपी को गिरफ्तार किया था। आरोपी ने जमानत की गुहार लगाई। ट्रायल न्यायालय ने जमानत के अनुरोध को खारिज कर दिया और कहा कि एनडीपीएस अधिनियम की धारा 37 के तहत उसे जमानत नहीं दी जा सकती क्योंकि उसके दोषी होने का प्रथम दृष्टया (प्राइमा फेसी) सबूत था। उच्च न्यायालय ने आदेश को पलट दिया और एनडीपीएस अधिनियम की धारा 37 पर ध्यान दिए बिना ही उन्हें जमानत दे दी। सर्वोच्च न्यायालय ने फैसले को पलट दिया और कहा कि उच्च न्यायालय की एकल–न्यायाधीश पीठ गलत थी। न्यायालय ने माना कि ‘उचित आधार’ शब्द का अर्थ ‘प्रथम दृष्टया आधार से अधिक’ है। न्यायालय ने कहा कि उच्च न्यायालय ने बहुत उदार रुख अपनाया और एनडीपीएस अधिनियम की धारा 37 की अनदेखी की।
भारत संघ बनाम थमीशरसी और अन्य (1995)
इस मामले में, न्यायालय ने माना कि दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (सीआरपीसी) की धारा 167 और एनडीपीएस अधिनियम की धारा 37 एक-दूसरे के विरोध में नहीं हैं। यह माना गया कि तब एनडीपीएस अधिनियम की धारा 37 के तहत सीमाएं लागू नहीं होती हैं, जब सीआरपीसी की धारा 167 के तहत जमानत का अनुदान स्वचालित (ऑटोमैटिक) होता है, यानी, जब शिकायत उस अधिकतम अवधि के भीतर दायर नहीं की जाती है, जिसके तहत आम तौर पर शिकायत दायर की जाती है। मामले ने धारा 143 सीआरपीसी और एनडीपीएस एक्ट की धारा 37 के बीच अंतर को भी उजागर किया। यह निर्धारित किया गया कि बाद वाला एक अधिक कठोर प्रावधान था। धारा 37 के तहत, आरोपी पर यह साबित करने का दायित्व है कि वह दोषी नहीं है, जबकि सीआरपीसी के तहत, अभियोजक (प्रॉसिक्यूटर) पर यह साबित करने का भार है कि आरोपी वास्तव में दोषी है और इस प्रकार उसे जमानत नहीं दी जानी चाहिए।
सतपाल सिंह बनाम पंजाब राज्य, (2018)
इस मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि ड्रग्स से संबंधित मामलों में एनडीपीएस अधिनियम की धारा 37 को ध्यान में रखते हुए आदेश पारित किया जाना चाहिए। सीआरपीसी के तहत संबंधित प्रावधानों को धारा 37 की अनदेखी करके लागू नहीं किया जा सकता है। इस मामले में माननीय उच्च न्यायालय ने सीआरपीसी की धारा 438 और 439 को ध्यान में रखते हुए जमानत दी थी। अदालत ने पुलिस और अभियोजक को याद दिलाया कि उन्हें एनडीपीएस अधिनियम के तहत मामलों से निपटने के दौरान उचित परिश्रम और सतर्कता दिखाने की जरूरत है।
दिल्ली राज्य (एनसीटी) बनाम लोकेश चड्ढा, (2021)
इस मामले में, एक कार्यालय से कुछ पार्सल जब्त किए गए क्योंकि उनमें कुछ प्रतिबंधित दवाएं थीं। प्रतिवादी को गिरफ्तार कर लिया गया। ट्रायल न्यायालय ने प्रतिवादी को दोषी ठहराया लेकिन उच्च न्यायालय ने उसे बरी कर दिया। मामला सर्वोच्च न्यायालय तक गया। यह माना गया कि जमानत देने के लिए मजबूत बाध्यकारी कारण होने चाहिए और चूंकि ऐसा कोई कारण नहीं था, इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालय के फैसले को पलट दिया।
अपराध जिनके लिए धारा 37 लागू है
एनडीपीएस अधिनियम के अध्याय V में अपराध और दंड का प्रावधान है। इस अधिनियम के तहत किए गए सभी अपराध उसी अधिनियम की धारा 37 के तहत असंज्ञेय अपराध होंगे। इस अधिनियम के तहत अपराध निम्नलिखित हैं-
- अधिनियम की धारा 25 में गोदाम में संग्रहित पोस्त (वेयरहाउस्ड पॉपी) (एक दवा) के उपयोग, खरीद, बिक्री, परिवहन (ट्रांसपोर्टेशन), आयात (इंपोर्ट) या निर्यात (एक्सपोर्ट) के लिए दंड का प्रावधान है। इस अधिनियम के तहत दंड को तीन श्रेणियों में बांटा गया है, जो पोस्त के भूसे (स्ट्रा) की मात्रा पर निर्भर करता है।
- अधिनियम की धारा 16 कोका के पत्तों के उपयोग, खरीद, बिक्री, परिवहन, आयात या निर्यात के लिए दंडात्मक उद्देश्यों को निर्धारित करती है।
- धारा 17 में तैयार अफीम से संबंधित अपराधों के लिए दंड का प्रावधान है जबकि धारा 18 में अफीम और अफीम पोस्त के लिए दंडात्मक प्रावधान हैं। अधिनियम की धारा 19 में अफीम से संबंधित अपराधों के लिए भी प्रावधान हैं। इसमें प्रावधान है कि यदि कोई अधिकृत किसान अफीम का अवैध कारोबार करता है, तो उसे कम से कम 10 साल और अधिक से अधिक 20 साल की कठोर सजा के लिए दंडित किया जाएगा।
- धारा 20 में भांग से संबंधित अपराध करने वालों को दंडित करने की मांग की गई है। इस अधिनियम के तहत अपराधियों को उनके द्वारा उपयोग की जाने वाली मात्रा के आधार पर तीन श्रेणियों में बांटा गया है।
- अधिनियम की धारा 21 निर्मित ड्रग्स से जुड़े काम करने वालों के लिए दंडात्मक प्रावधान करती है। निर्मित ड्रग्स या इनमें से किसी भी अन्य पदार्थ में काम करने वालों को दंडित किया जाएगा।
- धारा 22 और धारा 23 नारकोटिक और साइकोट्रोपिक पदार्थों से संबंधित अपराधों से संबंधित है। जबकि धारा 22 साइकोट्रोपिक पदार्थों से संबंधित अन्य अपराधों के लिए दंड देती है, धारा 23 विशेष रूप से ऐसी दवाओं के आयात और निर्यात के लिए दंड का प्रावधान करती है।
- यह अधिनियम ड्रग्स का सेवन करने वालों को दंडित करने का भी संकल्प करता है। अधिनियम की धारा 27 में दंड का प्रावधान है। यदि सेवन की गई दवा कोकीन, मॉर्फिन, डायसेटाइल-मॉर्फिन या किसी अन्य नारकोटिक या साइकोट्रोपिक पदार्थ के रूप में है, तो निर्धारित सजा 1 वर्ष की कैद या 2000 रुपये का जुर्माना या दोनों है। जहां सेवन किया गया पदार्थ इन पदार्थों के अलावा अन्य है, तो निर्धारित सजा 6 महीने की कैद या जुर्माना जो दस हजार रुपये तक हो सकता है या दोनों हो सकता है। इसके अलावा, जो कोई भी ड्रग्स में शामिल किसी व्यक्ति को वित्तपोषित (फाइनेंशियल सपोर्ट) करता है या उसकी गतिविधियों में शामिल होता है तो उसे धारा 27-A के तहत दंडित किया जाएगा।
इसी तरह, एनडीपीएस अधिनियम के तहत प्रयास, उकसाने, आपराधिक साजिश और अपराध करने की तैयारी के लिए दंड का प्रावधान है। अदालतों द्वारा यह माना गया है कि अधिनियम की धारा 37 केवल तभी लागू होती है जब अपराध 5 साल की सजा या 5 साल तक की सजा के साथ दंडनीय हो। एवी धर्म सिंह बनाम कर्नाटक राज्य, (1992) के मामले में माननीय कर्नाटक उच्च न्यायालय ने कहा कि विधायी मंशा (लेजिस्लेटिव इंटेंट) 5 साल की सजा के साथ अपराधों के लिए धारा 37 को लागू करना था और इस प्रकार इसका पालन किया जाना चाहिए। प्रावधानों में अस्पष्टता है और अदालतों को इस सवाल से निपटना पड़ा है कि क्या 5 साल की सजा का मतलब न्यूनतम 5 साल की सजा या 5 साल तक की सजा है। पीटर बनाम केरल राज्य, (1993) के मामले में केरल उच्च न्यायालय ने माना कि धारा 37(b) के तहत उल्लिखित 5 साल के कारावास को न्यूनतम 5 साल की सजा के रूप में पढ़ना संभव नहीं है।
धारा 37 के तहत जमानत देने के सिद्धांत
एनडीपीएस अधिनियम, 1985 की धारा 37 के अनुसार किसी आरोपी को तब तक जमानत नहीं दी जानी चाहिए जब तक कि आरोपी यह सिद्ध करने में सक्षम न हो जाए:
- यह मानने का उचित आधार कि आरोपी ऐसे अपराध का दोषी नहीं है।
- आरोपी पर अतिरिक्त बोझ यह है कि जमानत मिलने पर आरोपी अपराध नहीं करेगा या अपराध करने की संभावना नहीं है।
माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने भारत संघ बनाम शिव शंकर केसरी, (2007) के मामले में एक दृष्टिकोण निर्धारित करने का प्रयास किया था जिसे एनडीपीएस अधिनियम की धारा 37 के तहत जमानत देते समय अपनाए जाने की आवश्यकता है। न्यायालय को उन अभिलेखों (रिकॉर्ड्स) को नहीं देखना चाहिए जो कहते हैं कि आरोपी दोषी नहीं है, बल्कि उचित आधारों की तलाश करनी चाहिए जो इंगित करते हैं कि आरोपी दोषी नहीं है और फिर जमानत देने का अपना निर्णय लेना चाहिए। इस प्रकार, एक अदालत को प्रावधानों को देखना होता है और फिर आरोपी को जमानत देने की व्यवहार्यता (फिसिबिलिटी) तय करनी होती है।
एनडीपीएस अधिनियम की धारा 37 और अन्य भारतीय कानूनों के बीच टकराव
जबकि अन्य भारतीय कानूनों के तहत जमानत नियम है, एनडीपीएस अधिनियम के तहत जमानत एक अपवाद (एक्सेप्शन) है। भारतीय संविधान का अनुच्छेद 19 हमें आजादी और स्वतंत्रता का अधिकार देता है जबकि एनडीपीएस अधिनियम की धारा 37 (2) इसे प्रतिबंधित करती है। इस धारा के तहत आरोपी को तब तक जमानत पर रिहा नहीं किया जा सकता जब तक कि कुछ सख्त शर्तें पूरी नहीं हो जातीं। जमानत एनडीपीएस अधिनियम की इस धारा के तहत अपवाद है जबकि अधिनियम की अन्य धाराओं के तहत जमानत एक नियम है। ‘अपवाद के रूप में जमानत’ का यह नियम इस धारा को अनुच्छेद 19 की भावना के विरुद्ध बनाता है। माननीय पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने, अंकुश कुमार बनाम पंजाब राज्य, (2018) के मामले में सवाल उठाया कि यह धारा संविधान के लिए अधिकारहीन लगती है। न्यायालय ने इस प्रश्न पर विचार नहीं किया क्योंकि उसके पास ऐसा करने का कोई अधिकार नहीं था। इस प्रकार, न्यायालय ने माना कि सीआरपीसी की धारा 239 के तहत किसी आरोपी को जमानत देने से पहले एनडीपीएस अधिनियम की धारा 37 के प्रावधानों का पालन किया जाना चाहिए। इस धारा की संवैधानिक वैधता पर सवाल उठाया गया था लेकिन फिर भी, इस पर कोई आम सहमति नहीं है।
अन्य कानून जहां जमानत अपवाद है
एनडीपीएस अधिनियम की धारा 37 के अलावा, कई अन्य अपराध हैं जो संज्ञेय और गैर-जमानती हैं। निम्नलिखित कुछ कानून हैं जिनके तहत जमानत एक अपवाद है-
राष्ट्रीय सुरक्षा अधिनियम, 1980
इस अधिनियम के तहत, किसी व्यक्ति को राष्ट्र की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए केंद्र या राज्य सरकार के आदेश के तहत 12 महीने तक हिरासत में रखा जा सकता है। अन्य अपराधों के विपरीत, जहां किसी को सीआरपीसी की धारा 50 के तहत जमानत का अधिकार है, इस अधिनियम के तहत एक दोषी व्यक्ति से ऐसा अधिकार छीन लेता है।
गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम, 1967
अधिनियम की धारा 43D के तहत, एक आरोपी व्यक्ति को जमानत का अधिकार नहीं है अगर अदालत को लगता है कि उसकी नजरबंदी (डिटेंशन) के लिए उचित आधार हैं। साथ ही, यह अधिनियम यह निर्धारित करता है कि यदि किसी गैर-भारतीय को इस अधिनियम के तहत दोषी ठहराया गया है, चाहे कुछ भी हो, उसे जमानत नहीं दी जाएगी।
आईपीसी के तहत गैर-जमानती अपराध
भारतीय दंड संहिता, 1860 के तहत कुछ गैर-जमानती अपराध हैं। उदाहरण के लिए, देश के खिलाफ युद्ध छेड़ना (धारा 121), राजद्रोह (124-A), ड्रग्स में मिलावट (धारा 274) आदि।
निष्कर्ष
जब ड्रग्स से संबंधित अपराधों की बात आती है तो एनडीपीएस अधिनियम की धारा 37 एक निवारक के रूप में काम करती है। यह आवश्यक है क्योंकि इससे लोगों में यह भय पैदा होता है कि यदि वे इस अधिनियम के तहत अपराध करते हैं तो उन्हें जमानत नहीं दी जाएगी। दूसरी ओर, यह प्रावधान कभी-कभी कठोर हो जाता है क्योंकि निर्दोष लोगों को कारावास की सजा हो जाती है। इस प्रकार, न्यायपालिका को न्याय सुनिश्चित करने के लिए एक सतर्क सिद्धांत अपनाने की आवश्यकता है।
संदर्भ