महत्वपूर्ण कानूनी कहावत : अर्थ, व्याख्या और न्यायिक निर्णय

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यह लेख कोलकाता के एमिटी लॉ स्कूल की छात्रा Oishika Banerji द्वारा लिखा गया है। यह लेख अपने पाठकों के लिए कुछ कानूनी कहावतों की एक विस्तृत सूची प्रदान करता है और साथ ही यह उनको कैसे लागू किया जाता है पर भी चर्चा करता है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja के द्वारा किया गया है। 

Table of Contents

परिचय

एक कानूनी कहावत एक अच्छी तरह से स्थापित कानूनी विचार, प्रस्ताव (प्रपोजल) या सिद्धांत है, जिसे आमतौर पर लैटिन में व्यक्त किया जाता है। इनमें से अधिकांश लैटिन कहावतें यूरोपीय देशों में मध्य युग में विकसित हुई थी जिन्होंने लैटिन भाषा का उपयोग अपनी आधिकारिक भाषा के रूप में किया था। ये कहावत दुनिया भर के न्यायालयों को वर्तमान कानूनों को निष्पक्ष और उचित तरीके से लागू करने में सहायता करती हैं, जिससे उन्हें उनके समक्ष मुद्दों को हल करने की अनुमति मिलती है। ऐसे सिद्धांतों में कानूनी बल नहीं होता है, लेकिन जब अदालतें कानूनी मामलों के निर्धारण में उनका उपयोग करती हैं या विधायिका उन्हें कानून बनाने में अपनाती है, तो वे कानून का आकार ले लेती हैं और अच्छे निर्णयों की नींव के रूप में काम करती हैं। व्यापक परिभाषाओं का उपयोग करने से बचने के लिए हम इसे एक शब्द या वाक्यांश के रूप में संदर्भित करते हैं। उदाहरण के लिए, काहावत ‘एब इनिशियो’ का उदाहरण लेते है, जिसका अर्थ है ‘शुरुआत से’ या ‘किसी भी चीज की शुरुआत से,’ इसलिए हम इस पूरे वाक्यांश को लिखने के बजाय, एब इनिशियो शब्द का उपयोग कर सकते हैं, जिसका उपयोग आम व्यवहार में भी किया जाता है। प्रारंभिक अंग्रेजी दार्शनिकों (फिलोसोफर) के कानूनी कहावतों को लागू करने के बारे में दृष्टिकोण प्रशंसनीय हैं। थॉमस हॉब्स ने अपने काम ‘डॉक्टर और छात्र‘ में, दावा किया था कि कानूनी कहावतों में कर्म और कानून के समान ही बल होता है। 

महत्वपूर्ण कानूनी कहावते

कानून या अधिनियम का हर एक हिस्सा एक निश्चित उद्देश्य को ध्यान में रखकर ही बनाया जाता है। न्यायपालिका की एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है कि वह प्रावधानों की इस तरह से व्याख्या करे कि एक कानून को बनाने की विधायकों की मंशा विफल न हो पाए। कानून की व्याख्या के लिए एक तरीका और मानक (स्टैंडर्ड) देकर न्यायपालिका की सहायता करने में कानूनी कहावत एक महत्वपूर्ण कार्य करती हैं।

एब इनिशियो

एब इनिशियो आम तौर पर इस्तेमाल किया जाने वाली एक लैटिन कहावत है जिसका अर्थ  ‘शुरुआत से ही’ है। 

शाब्दिक अर्थ

एब इनिशियो का शाब्दिक अर्थ है ‘किसी कानून या अधिनियम की शुरुआत से ही यह गलत था’। इस तरह के शब्द का इस्तेमाल कानूनों, समझौतों, पक्षों के बीच किए गए एक कार्य, शादी और संबंधित मामलों के संबंध में किया जाता है। जब किसी चीज़ को ‘वॉयड एब इनिशियो’ के रूप में वर्णित किया जाता है, तो इसका मतलब यह है कि वह चीज़ कभी भी बनाई ही नहीं गई थी या वह शुरू से ही शून्य थी।

एब इनिशियो की व्याख्या

जब कोई अदालत किसी भी चीज़ को एब इनिशियो के मामले के तहत मानती है, तो यह इंगित करता है कि अदालत का निर्णय उस क्षण से लागू होता है जब कोई कार्य हुआ था या विचाराधीन मामले की परिस्थितियाँ मौजूद थीं, न कि उस समय से जब अदालत ने वास्तव में उस विषय पर अपना फैसला सुनाया था। संविदा (कॉन्ट्रेक्ट), संपत्ति और विवाहों में, शून्य (वॉयड) एब इनिशियो शब्द का प्रयोग आम तौर पर किया जाता है। 

उदाहरण के लिए, जब एक पुलिस अधिकारी अदालत के आदेश में दी गई अनुमति के साथ ‘A’ की संपत्ति में प्रवेश करता है जो उसकी एक महंगी पेंटिंग को जब्त करने की अनुमति देता है, लेकिन इसके साथ ही वह एक सुंदर संगमरमर की मूर्ति भी अपने साथ ले जाता है, तो ऐसे में उसे शुरु से ही एक अतिचारक (ट्रेसपासर) के रूप में माना जाएगा। ऐसा इसलिए है क्योंकि उसने अदालत द्वारा दी गई शक्ति का दुरुपयोग किया है।

इस कानूनी कहावत के आधार पर न्यायिक निर्णय और उनके प्रासंगिक (रिलेवेंट) पैराग्राफ

1. केशवन माधव मेनन बनाम स्टेट ऑफ़ बॉम्बे (1951)

भारत के सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा केशवन माधव मेनन बनाम स्टेट ऑफ़ बॉम्बे (1951) के मामले पर निर्णय देते हुए फैसला सुनाया गया था कि भारत के संविधान का अनुच्छेद 13(1) इस मामले पर लागू नहीं होता है क्योंकि यह अपराध संविधान के लागू होने से पहले किया गया था, और इसलिए याचिकाकर्ता की 1949 की कार्यवाही इससे प्रभावित नहीं होती है। न्यायालय ने कहा कि पिछले और समाप्त लेनदेन, साथ ही अधिकार जो पहले से ही मौजूदा कानूनों के तहत निहित थे, संविधान के लागू होने से अप्रभावित रहेंगे, भले ही संविधान के अनुच्छेद 13 (1) के तहत कानून शून्य हो जाएंगे। न्यायालय के द्वारा  यह भी देखा गया था कि अनुच्छेद 13 (1) ने पिछले कानूनों को, जो मौलिक अधिकारों के साथ असंगत थे, को शुरुआत से ही या सभी मंशाओं या उद्देश्यों के लिए अमान्य घोषित नहीं किया था।

“भारतीय संविधान का अनुच्छेद 13(1) मौजूदा कानूनों को, जो मौलिक अधिकारों के साथ असंगत हैं, को प्रारंभ से ही शून्य घोषित नहीं करता है, बल्कि, यह संविधान की शुरुआत की तारीख को और उसके बाद इस्तेमाल किए गए मौलिक अधिकारों के संबंध में ऐसे कानूनों को अप्रभावी और शून्य बना देता है। इसका कोई पूर्वव्यापी (रेट्रोस्पेक्टिव) प्रभाव नहीं है, इसलिए यदि नए संविधान के प्रारंभ से पहले कोई कार्य किया गया था, जो उस समय लागू किसी भी कानून के प्रावधानों के उल्लंघन में था, तो उस कार्य के लिए किया गया कोई भी मुकदमा, जो संविधान के लागू होने से पहले शुरू हुआ था, तो ऐसे में उस मुकदमे को संविधान के लागू होने के बाद को उस कानून के अनुसार चलाया जा सकता है और आरोपी को उसके अनुसर दंडित भी किया जा सकता है।”

2. दिल्ली विकास प्राधिकरण (डेवलपमेंट अथॉरिटी) बनाम कोचर निर्माण कार्य और अन्य (1996)

भारत के सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा दिल्ली विकास प्राधिकरण बनाम कोचर निर्माण कार्य और अन्य (1996) के मामले पर निर्णय लेते हुए इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए लैटिन शब्द ‘एब इनिशियो’ का इस्तेमाल किया गया कि कार्यवाही शुरू से ही दोषपूर्ण थी क्योंकि जिस फर्म के नाम पर कार्रवाई शुरू की गई थी, उसे कार्यवाही के समय पंजीकृत (रजिस्टर) ही नहीं किया गया था। भारतीय भागीदारी (पार्टनरशिप) अधिनियम, 1932 की धारा 69 (2) और (3) की व्याख्या, जिसे मध्यस्थता (आर्बिट्रेशन) अधिनियम, 1940 की धारा 20 के साथ पढ़ा गया था, वर्तमान मामले में अपील का विषय है। प्रतिवादी, जो एक अपंजीकृत व्यवसाय है, के द्वारा मध्यस्थता अधिनियम, 1940 की धारा 20 के तहत दिल्ली उच्च न्यायालय में एक शिकायत दर्ज की गई थी। दिल्ली विकास प्राधिकरण के द्वारा एक प्रतिदावा (काउंटर क्लेम) दायर किया गया था, जिसमें यह दावा किया गया था कि कार्यवाही परिसिमा (लिमिटेशन) के क़ानून द्वारा वर्जित थी। वाद को एक विद्वान न्यायाधीश द्वारा अनुमोदित (अप्रूव) किया गया था, जिन्होंने मध्यस्थ की नियुक्ति का भी आदेश दिया था। प्रतिवादी ने उच्च न्यायालय की एक खंडपीठ के समक्ष उस फैसले के खिलाफ पहली अपील दायर की। उस अपील को यह कहते हुए खारिज कर दिया गया था कि फर्म के बाद के पंजीकरण ने प्रारंभिक दोष को ठीक कर दिया क्योंकि वह सीमा की अवधि के भीतर था। इसके बाद सर्वोच्च न्यायालय में एक अपील दायर की गई थी। 

“सर्वोच्च न्यायालय ने अपील को स्वीकार करते हुए, उच्च न्यायालय के फैसले को उलट दिया था और यह फैसला सुनाया कि कार्यवाही शुरू से ही दोषपूर्ण थी क्योंकि जिस व्यवसाय के नाम पर कार्रवाई शुरू की गई थी, वह कार्यवाही करने के समय पंजीकृत नहीं था”।

3. शिव कुमार और अन्य बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (2019)

शिव कुमार और अन्य बनाम भारत संघ (2019) के मामले पर निर्णय लेते समय भारत के सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष मुद्दा यह था कि क्या कोई संपत्ति का खरीदार भूमि अधिग्रहण (एक्विजिशन) अधिनियम, 1894 की धारा 4 के तहत अधिसूचना (नोटिफिकेशन) प्राप्त करने के बाद, भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास (रिहैबिलिटेशन) और पुनःस्थापन (रीसेटलमेंट) में उचित मुआवजे और पारदर्शिता (ट्रांसपेरेंसी) के अधिकार अधिनियम की धारा 24 के प्रावधानों का उपयोग कर सकता है। । 

सर्वोच्च न्यायालय ने आवाज उठाई थी कि एक खरीदार जो भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 1894 की धारा 4 के तहत नोटिस प्राप्त करता है, उसे भूमि में कोई अधिकार प्राप्त नहीं होता है और उसे पॉलिसी के तहत भूमि का दावा करने का कोई अधिकार नहीं है क्योंकि बिक्री शुरू से ही शून्य है। चर्चा किए गए कहावतों के संबंध में कुछ उल्लेखनीय पैरा नीचे दिए गए हैं:

यह स्थापित किया गया है कि खरीदार किसी भी आधार पर कब्जा लेने की प्रक्रिया पर आपत्ति नहीं कर सकता है। एक खरीदार जो धारा 4 के तहत नोटिस प्राप्त करता है, उसे जमीन में कोई अधिकार नहीं मिलता है क्योंकि बिक्री शुरू से ही शून्य है, और उसे पॉलिसी के तहत जमीन पर दावा करने का कोई अधिकार भी नहीं होता है।

2013 के अधिनियम के द्वारा उन खरीदारों को कोई अधिकार प्रदान नहीं किया गया है जिनकी बिक्री शुरू से ही शून्य है। इस तरह के शून्य लेनदेन 2013 के अधिनियम के तहत मान्य नहीं हैं। 2013 के अधिनियम में निहित प्रावधानों द्वारा ऐसे खरीदार पर राज्य के खिलाफ कोई अधिकार नहीं दिया गया है।

कोई व्यक्ति भूमि या घोषणा का दावा नहीं कर सकता है, क्योंकि उसे यह तर्क देने के लिए कोई शीर्षक नहीं दिया गया है, कि भूमि उसे वापस सौंप दी जानी चाहिए क्योंकि यह एब इनिशियो यानी की शुरू से ही शून्य है, और साथ ही निष्क्रिय (इन ऑपरेटिव) भी है। 2013 के अधिनियम की धारा 24 के तहत एक घोषणा का अनुरोध करके, एक व्यक्ति संपत्ति के स्वामित्व और नियंत्रण का दावा शुरू करने के लिए एक शून्य लेनदेन के आधार पर कानूनों को लागू नहीं कर सकता है, इस से लाभ प्रदान किया जा सकता है, जिसकी कल्पना कानून द्वारा भी नहीं की जा सकती है।

एक्टस लेजिस नेमिनी फैसिट इंजुरियम

एक्टस लेजिस नेमिनी फैसिट इंजुरियम एक अच्छी तरह से स्थापित लैटिन कहावत है जो ‘कानून का कार्य किसी को चोट नहीं पहुंचाता है’ को दर्शाती है। 

शाब्दिक अर्थ

इस कहावत की शाब्दिक व्याख्या यह है कि कोई भी न्यायिक कार्रवाई से प्रभावित नहीं होता है और वैध कार्रवाई के लिए किसी योग्यता की आवश्यकता नहीं होती है। एक प्रचलित धारणा यह है कि किसी अन्य पक्ष के खिलाफ मुकदमा शुरू करने से कोई दूसरा पक्ष प्रभावित नहीं होता है (एक तुच्छ (फ्रिवलस) कार्रवाई के अलावा)। नतीजतन, कानूनी कार्रवाई से किसी को नुकसान नहीं पहुंचाया जा सकता है। विधायिका के एक अधिनियम को उसके लागू करने की सीमा में प्रतिबंधित किया जाना चाहिए ताकि वह किसी के अधिकारों का उल्लंघन न करे।

एक्टस लेजिस नेमिनी फैसिट इंजुरियम की व्याख्या

विशेष कानून जो जनहित में होते हैं, वह कुछ लोगों के लिए हानिकारक हो सकते हैं। हालांकि, इस तरह के नुकसान के लिए कोई मौजूदा उपचार नहीं हैं, क्योंकि कानून सभी पर समान रूप से लागू होता है, कानून में संशोधन कम संख्या में व्यक्तियों को लाभ पहुंचाने के लिए नहीं किया जा सकता है। जब किसी कानून द्वारा दिए गए अधिकार का दुरुपयोग किया जाता है, तो कानून उसका दुरुपयोग करने वाले व्यक्ति को उसी स्थिति में रखता है जैसे कि उन्होंने पूरी तरह से बिना किसी अधिकार के वैसा कार्य किया हो और यह टिप्पणी की गई है, यह इस कहावत पर आधारित एक न्यायसंगत सिद्धांत है कि कानून किसी भी व्यक्ति के साथ गलत नहीं करता है।

एक किरायेदार जिसका घर आग या तूफान से क्षतिग्रस्त हो गया है, वह खुद के नुकसान के लिए घर का पुनर्निर्माण करने के लिए बाध्य नहीं है, भले ही वह अपनी किरायेदारी से अपने मकान मालिक के नुकसान के लिए बर्खास्त न हो, जब तक की वह आग, आंधी, या अन्य आपदाओं की स्थिति को छोड़कर, उस परिसर की मरम्मत और रखरखाव के लिए प्रतिबद्धता (कमिटमेंट) की वाचा (कॉवेनेंट) नहीं बनाता, तब तक उसे पुनर्निर्माण करने की आवश्यकता होगी यदि परिसर आग या अन्य आपदाओं से नष्ट हो जाता है। यदि वह एक पट्टेदार (लेसी) है, तो उसे अपनी अवधि के अंत तक, या यदि वह एक किरायेदार है, तो साल-दर-साल, जब तक वह नोटिस द्वारा किरायेदारी का निर्धारण नहीं करता है, तब तक उसे किराए का भुगतान करना होगा। मकान मालिक भी आग लगने की स्थिति में पुनर्निर्माण के लिए बाध्य नहीं है, भले ही उसने संपत्ति का बीमा किया हो और बीमा कंपनी से भुगतान प्राप्त किया हो। किराएदार को इन सभी बाधाओं से बचाने के लिए, उसे पट्टे (लीज) या समझौते में एक विशेष खंड शामिल करना होगा। कानूनी कहावत, एक्टस लेजिस नेमिनी फैसिट इंजुरियम, इस स्थिति में लागू किया जाएगा।

इस कानूनी कहावत के आधार पर न्यायिक निर्णय और उनके प्रासंगिक पैराग्राफ 

  1. बाबूराव गणपत्रो तिर्मल्ले बनाम भीमप्पा वेंकप्पा कंडाकुर (1996)

बाबूराव गणपात्रो तिर्मल्ले बनाम भीमप्पा वेंकप्पा कंडकुर (1996) के मामले में, न्यायालय एक्टस लेजिस नेमिनी फैसिट इंजुरियम की अवधारणा को लागू करने और उन लोगों को न्याय प्रदान करने के लिए बाध्य है जिनके साथ अन्याय हुआ है। न्यायालय को तब उचित निर्देश जारी करना चाहिए जिससे किरायेदार को पिछले निर्णय के अनुसार परिसर का पुनर्निर्माण करने की अनुमति मिल सके और, यदि संभव हो तो, अधिकृत (ऑथराइज्ड) योजना के अनुसार, लेकिन केवल किरायेदार को समायोजित (एकोमोडेट) करने के लिए आवश्यक डिग्री तक ही अनुमति दी जानी चाहिए। इस संबंध में खर्च की गई लागत को कवर करने के लिए मकान मालिक जिम्मेदार है।

“पट्टा अभी भी प्रभावी है, और पट्टादाता (लेसर) द्वारा पट्टेदार को परिसर से बेदखल नहीं किया जा सकता है। जब वह न्यायालय की शक्ति का दुरुपयोग करता है, तो ऐसा लगता है कि उसके पास पहले स्थान पर संरचना को ध्वस्त करने का अधिकार क्षेत्र (ज्यूरिस्डिक्शन) नहीं था। ऐसे मामले में, न्यायालय, कानूनी कहावत एक्टस लेजिस नेमिनी फैसिट इंजुरियम को लागू करने और उन लोगों को न्याय प्रदान करने के लिए बाध्य है जिनके साथ अन्याय हुआ है।”

2. के. शाहजहां बनाम सुब्रमणि गौंडर (2008)

के . शाजहां बनाम सुब्रमणि गौंडर (2008) के मामले में, मद्रास उच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया था कि कानूनी कहावत एक्टस लेजिस नेमिनी फैसिट इंजुरियम का तात्पर्य यह है और यह सुझाव देती है कि कोई भी विरोध नही कर सकता या यह आरोप नहीं लगा सकता है कि न्यायालय द्वारा की गई किसी भी कार्रवाई के द्वारा उसके साथ कोई दुर्व्यवहार किया गया है। इस मामले में, पुलिस के द्वारा भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 447 , 506(2) जिसे धारा 34 के साथ पढ़ा गया था, के तहत अपराध के आरोपियों के खिलाफ आपराधिक प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 173 के तहत पुलिस रिपोर्ट रखी थी। आरोपी द्वारा दोषी न होने और आवश्यक प्रक्रियाओं और औपचारिकताओं (फॉर्मेलिटी) को पूरा करने के बाद, मुकदमा शुरू किया गया था। अंततः विद्वान मजिस्ट्रेट ने आरोपी को बरी कर दिया था। प्रारंभिक निर्णय में अनियमितताओं को चुनौती देते हुए मद्रास उच्च न्यायालय के समक्ष एक पुनरीक्षण (रिवीजन) याचिका दायर की गई थी। 

“एक्टस लेजिस नेमिनी फैसिट इंजुरियम का मतलब है कि कोई भी विरोध नही कर सकता या यह नहीं कह सकता है कि अदालत के कार्यों से उसके साथ दुर्व्यवहार किया गया है। इस मामले में, यह स्पष्ट होता है कि अभियोजन (प्रॉसिक्यूशन) पक्ष के गवाहों में से एक ने अदालत की प्रक्रिया द्वारा संपत्ति का वितरण (डिलीवरी) सुरक्षित कर लिया है, और मजिस्ट्रेट ने इसको ध्यान में रखते हुए ही अपना निष्कर्ष निकाला है। हालांकि, मजिस्ट्रेट ने एक अन्य गवाह के बयान के आधार पर फैसला सुनाया कि किया गया वितरण सिर्फ एक कागजी वितरण था, कोई वास्तविक वितरण नहीं था और यह कि कब्जा आरोपी के पास रहा था। वास्तव में, मजिस्ट्रेट ने इसे ध्यान में रखते हुए मामले का रुख किया और गलत निर्णय के साथ मामले का निष्कर्ष दिया।

3. पी.जी पट्टाबी बनाम मैथिली (2010)

पी.जी पट्टाबी बनाम मैथिली (2010) के मामले में, मद्रास के उच्च न्यायालय ने घोषणा की थी कि लैटिन कहावत, एक्टस लेजिस नेमिनी फैसिट इंजुरियम, के अनुसार कोई भी इस पर आपत्ति नहीं कर सकता है या यह आरोप नहीं लगा सकता है कि उसे अदालत की कानूनी कार्रवाइयों से क्षति हुई है। इस मामले में, न्यायालय ने पाया था कि पुनरीक्षण याचिकाकर्ता की सभी शिकायतें प्रक्रियाओं का पालन करने के लिए न्यायालय में दोष खोजने के समान होंगी। ऐसे उदाहरण में, यह निर्धारित किया जाना चाहिए कि क्या पुनरीक्षण याचिकाकर्ता को निष्पादन (एग्जिक्यूशन) प्रक्रियाओं के दौरान कोई भौतिक नुकसान हुआ है या नहीं।

“कानूनी कहावत एक्टस लेजिस नेमिनी फैसिट इंजुरीयम का अर्थ यह होगा कि कोई भी इस पर आपत्ति नहीं कर सकता या आरोप नहीं लगा सकता है कि अदालत की कानूनी कार्रवाइयों से उसके साथ दुर्व्यवहार किया गया था। पुनरीक्षण याचिकाकर्ता की शिकायतें प्रक्रियाओं का पालन करने के लिए न्यायालय के साथ दोष खोजने के समान होंगी। ऐसे उदाहरण में, यह निर्धारित किया जाना चाहिए कि क्या पुनरीक्षण याचिकाकर्ता को निष्पादन प्रक्रियाओं के दौरान कोई भौतिक क्षति हुई है। केवल न्यायालय के तरीके में खामियों को इंगित करने के लिए अन्यथा वैध अदालत के आदेश को पलटना पर्याप्त नहीं होगा।”

एक्टस नॉन फेसिट रीअम, निसी मेन्स सिट रीआ

एक्टस रीअस और मेन्स रीआ आपराधिक कानून के दो मुख्य घटक हैं। जबकि गैर कानूनी कार्य को एक्टस रीअस के रूप में जाना जाता है, मन की स्थिति जो इस तरह के कार्य की ओर ले जाती है उसे मेन्स रीआ के रूप में जाना जाता है। मेन्स रीआ लैटिन कानूनी कहावत एक्टस नॉन फैसिट रीअम निसी मेन्स सिट रीआ का स्रोत है। यह कहावत आपराधिक कानून में मेन्स रीआ के लागू होने को स्पष्ट करती है।

शाब्दिक अर्थ

जानी मानी कानूनी कहावत एक्टस नॉन फैसिट रीअम निसी मेन्स सिट रीआ का शाब्दिक अर्थ, यह है कि “एक कार्य किसी को तब तक दोषी नहीं बना सकता है जब तक कि कोई आपराधिक इरादा या दोषी मन न हो”।

एक्टस नॉन फेसिट रीअम निसी मेन्स सिट रीआ की व्याख्या 

एक्टस नॉन फेसिट रीअम निसी मेन्स सिट रीआ का कहना यह है कि कोई भी कार्य अपराध की प्रकृति का होने के लिए दोषी मन से किया जाना चाहिए। प्रतिवादी को दोषी ठहराने के लिए, यह स्थापित किया जाना चाहिए कि गैर कानूनी आचरण अपराध करने के इरादे से किया गया था। अरोपी का सटीक आचरण करने का उद्देश्य उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कि आरोपी के अपराध को साबित करने में उसके स्वयं का कार्य। नतीजतन, केवल एक आपराधिक कार्य को करने या कानून का उल्लंघन करना, अपराध को स्थापित करने के लिए पर्याप्त नहीं है। इसका उपयोग गलत कार्य करने के साथ संयोजन (कंजंक्शन) में किया जाना चाहिए। इसके अलावा, किए गए अपराध की गंभीरता को निर्धारित करने में मेन्स रीआ एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। 

दोषपूर्ण मानसिक स्थिति सबसे महत्वपूर्ण घटक है। इसकी अनुपस्थिति आरोपी की जिम्मेदारी को अशक्त (नल) और शून्य बना सकती है। हालांकि, इसके कई अपवाद भी हैं, जैसे कि सख्त जिम्मेदारी, इस धारणा के लिए कि दोषी मन के बिना कोई अपराध नहीं होता है। यह साबित करना आवश्यक नहीं है कि एक प्रतिवादी के पास सख्त जिम्मेदारी के तहत किए गए कार्य के लिए अपेक्षित मेन्स रीआ का अधिकार था। इस कहावत का महत्व भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 की धारा 14 में देखा जा सकता है । यह इंगित करता है कि किसी व्यक्ति की मन की स्थिति या इरादे को प्रकट करने वाली जानकारी, मामले के लिए एक महत्वपूर्ण तथ्य हैं।

इस कानूनी कहावत के आधार पर न्यायिक निर्णय और उनसे सम्बन्धित कुछ प्रासंगिक पैराग्राफ

1. ब्रेंड बनाम वुड (1946)

ब्रेंड बनाम वुड (1946) के मामले में, न्यायालय ने बहस की कि क्या यह मान लेना आवश्यक है कि अपराध के लिए दोषसिद्धि (कनविक्शन) के लिए मेन्स रीआ की वास्तविकता के प्रमाण की आवश्यकता होती है। मुख्य न्यायाधीश लॉर्ड गोडार्ड ने देखा था कि यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि सामान्य कानून के तहत, अपराध करने के लिए हमेशा एक मेन्स रीआ मौजूद होना चाहिए। यदि कोई व्यक्ति यह स्थापित कर सकता है कि उसने बिना किसी मेन्स रीआ के कोई कार्य किया है, तो वह एक आपराधिक कार्य के खिलाफ अपना बचाव कर सकता है। हालांकि ऐसे कानून और विनियम (रेगुलेशन) हैं जिनमें संसद ने अपराध बनाने और आपराधिक अदालतों के समक्ष व्यक्तियों को जवाबदेह ठहराने के लिए उचित समझा है, भले ही उन अपराधी में मेन्स रीआ की कमी ही क्यों न हो। यह निर्धारित करना अदालत की जिम्मेदारी नहीं है कि मेन्स रीआ अपराध का एक अनिवार्य घटक नहीं है।

“किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता की सुरक्षा के लिए यह महत्वपूर्ण है कि एक अदालत यह याद रखे कि जब तक कोई कानून स्पष्ट रूप से या आवश्यक अनुमान द्वारा अपराध के एक अनिवार्य हिस्से के रूप में मेन्स रीआ को बाहर नहीं करता है, तब तक अदालत को किसी व्यक्ति को आपराधिक कानून के खिलाफ अपराध का दोषी घोषित नहीं करना चाहिए, जब तक कि उसकी दोषी मानसिकता साबित न हो। ”

2. आर. बालकृष्ण पिल्लई बनाम स्टेट ऑफ़ केरल (2003)

आर. बालकृष्ण पिल्लई बनाम स्टेट ऑफ़ केरल (2003) के मामले में अपीलकर्ताओं को भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1947 की धारा 5(2), जिसे अधिनियम की धारा 5(1)(d) के साथ पढ़ा गया था, के तहत दोषी ठहराया गया था क्योंकि उन्होंने मेसर्स ग्रेफाइट इंडिया लिमिटेड, बैंगलोर, को अवैध रूप से एक मूल्यवान चीज अर्थात् बिजली प्राप्त कराई थी, जिसे उन्होंने उक्त कंपनी को अवैध रूप से और अपने लोक सेवक के रूप में अपने आधिकारिक पद का दुरुपयोग करते हुए बेचा था और जिसके परिणामस्वरूप मेसर्स जी.आई.एल. को 19 लाख रुपये का मौद्रिक लाभ हुआ था।

“यदि किसी व्यक्ति ने कानून तोड़ा है तो उसकी आपराधिक अपराधीता जुड़ी होती है। हालांकि यह मानदंड (नॉर्म), पूर्ण नहीं है, और यह लैटिन कहावत एक्टस नॉन फैसिट रीअम, निसी मेन्स सिट रीआ में निर्धारित की गई बाधाओं के अधीन है। इसका मतलब यह है कि बिना दोषी दिमाग के कोई अपराध नहीं किया जा सकता है। किसी को आपराधिक रूप से जिम्मेदार ठहराने के लिए, यह साबित किया जाना चाहिए कि उसके कार्यों के परिणामस्वरूप एक अवैध कार्य हुआ, और यह कि उसके कार्यों के साथ कानूनी रूप से दोषपूर्ण मानसिक रवैया था। नतीजतन, प्रत्येक अपराध के दो महत्वपूर्ण घटक होते हैं, एक भौतिक (फिजिकल) तत्व और एक मानसिक तत्व, जिसे क्रमशः एक्टस रीअस और मेन्स रीआ के रूप में जाना जाता है।”

एक्टोरी इनक्यूम्बिट ऑनस प्रोबेंडी

एक्टोरी इनक्यूम्बिट ऑनस प्रोबेंडी, लैटिन में एक कानूनी कहावत है, जिसमें कहा गया है कि कानून में एक वादी (प्लेंटिफ) या इक्विटी पर एक शिकायत अपने मामले को जीत सकते है, उन्हें एक ठोस शीर्षक या दावा स्थापित करना होता है।

शाब्दिक अर्थ

कानूनी कहावत का शाब्दिक अर्थ यह है कि सबूत का भार वादी पर होता है।

एक्टोरी इनक्यूम्बिट ऑनस प्रोबेंडी की व्याख्या

इस कानूनी कहावत का व्यापक विचार यह है कि जो पक्ष किसी मुद्दे को उठाता है, उसके उपर ही साक्ष्य को साबित करने का बोझ होता है, इसे लैटिन वाक्यांश एक्टोरी इनक्यूम्बिट ऑनस प्रोबेंडी से लिया गया है। निष्पक्ष सुनवाई के लिए यह एक आवश्यक आधार है क्योंकि इसमें दावेदार और प्रतिवादी दोनों को उन पर लगाए गए किसी भी तथ्यात्मक आरोप का समर्थन करने की आवश्यकता होती है। एक दीवानी (सिविल) मामले में, अदालत जांच करती है, लेकिन वादी इसे पूरा करने और सभी सबूत और साक्ष्य अदालत में पेश करने के लिए जिम्मेदार होता है। मुकदमा जीतने के लिए किसी मामले को दर्ज करना ही पर्याप्त नहीं है, जूरी को मामले में दिए गए तर्कों पर मनाने के लिए ठोस और पर्याप्त सबूतों के साथ उसका समर्थन भी करना चाहिए। आपराधिक मामलों में अभियोजक के पास सबूत का भार होता है। सबूत के बोझ के दायरे और विषय वस्तु में साक्ष्य और दलील जैसे विषय शामिल हो सकते हैं।

इस कानूनी कहावत के आधार पर न्यायिक निर्णय और उनसे संबंधित प्रासंगिक पैराग्राफ

  1. श्री केदार नाथ कोहली बनाम श्री सरदुल सिंह (2003)

श्री केदार नाथ कोहली बनाम श्री सरदुल सिंह (2003) के मामले में निर्णय लिया गया था कि कानून का एक नियम जो ‘एक्टोरी इनक्यूम्बिट ऑनस प्रोबेंडी’ है, वह यह दर्शाता है कि वादी या अभियोजन पक्ष को सबूत का बोझ उठाना पड़ता है। वादी को अपने मामले को खुद से साबित करना चाहिए, और वादी यह दावा नहीं कर सकता कि उसका दावा सिद्ध हो गया है क्योंकि प्रतिवादी का तर्क कमजोर है।

2. कुथलिंग नादर बनाम डी.डी. मुरुगेसन (2011)

कुथलिंग नादर बनाम डी.डी मुरुगेसन (2011) के मामले में एक निर्णय पर पहुंचने के लिए कानूनी कहावत एक्टोरी इनक्यूम्बिट ऑनस प्रोबेंडी को लागू किया गया था। मूल वादी ने दूसरी अपील दायर की थी, जिसमें दावा किया गया था कि सूट की दूसरी वस्तु संपत्ति (7 सेंट) सूट की पहली वस्तु संपत्ति का हिस्सा है। वादी के अनुसार, प्रतिवादी, वादी के सूट की दूसरी संपत्ति (7 सेंट) के आनंद में हस्तक्षेप करता है। वादी के ऊपर उसे दिखाने के लिए सबूत का बोझ था, और जैसा कि वह ऐसा करने में विफल रहा था, मद्रास उच्च न्यायालय ने दूसरी अपील को अस्वीकार कर दिया था। 

“कथन एक्टोरी इनक्यूम्बिट ऑनस प्रोबेंडी के अनुसार, वादी के पास अपने मामले को साबित करने के लिए सबूत का बोझ होता है, और वह प्रतिवादी के मामले में बार बार हस्तक्षेप नहीं कर सकता है और उसे यह साबित करने के लिए नहीं कह सकता है कि वादी के पास सूट की संपत्ति का कोई अधिकार नहीं है।”

एक्टस क्यूरी नेमिनेम ग्रेवाबिट

यह विचार कि न्यायालय की त्रुटि (एरर) या कार्यवाही में देरी के परिणामस्वरूप किसी को भी कोई नुकसान नहीं होना चाहिए, न्याय प्रणाली और भारतीय कानून के लिए इसको लागू करना बहुत महत्वपूर्ण माना गया है। इसी सिद्धांत को कानूनी कहावत ‘एक्टस क्यूरी नेमिनेम ग्रेवाबिट’ के माध्यम से शामिल किया गया है। 

शाब्दिक अर्थ

इस कानूनी कहावत ‘एक्टस क्यूरी नेमिनेम ग्रेवाबिट’ का अर्थ है कि न्यायालय का कार्य किसी भी व्यक्ति पर प्रतिकूल (प्रेजुडिस) प्रभाव नहीं डालेगा।

एक्टस क्यूरी नेमिनेम ग्रेवाबिट की व्याख्या

यदि न्यायालय सूचना प्रदान करने में गलती करता है, तो वादी का कर्तव्य, जबकि पूरी तरह समाप्त नहीं हुआ है, कम से कम न्यायालय द्वारा साझा किया जाता है। यदि वादी ज्ञान के आधार पर कार्य करता है, तो अदालत उसे उस गलती के लिए उत्तरदायी नहीं ठहराएगी जो उसने की थी। न्यायालय का मार्गदर्शन करने के लिए इससे बड़ा कोई मानक नहीं है कि न्यायालय के किसी भी कार्य से वादी को चोट न पहुंचे, और यह सुनिश्चित करना न्यायालय का बाध्य दायित्व है कि यदि किसी व्यक्ति को न्यायालय की त्रुटि से नुकसान होता है, तो उसे उस स्थिति में बहाल (रिस्टोर) किया जाता है। कानूनी कहावत एक्टस क्यूरी नेमिनेम ग्रेवाबिट इसी को उचित रूप से सारांशित (समराइज) करती है।

इस कानूनी कहावत के आधार पर न्यायिक निर्णय और उनसे संबंधित कुछ प्रासंगिक पैराग्राफ

1. कलाभारती एडवरटाइजिंग बनाम हेमंत विमलनाथ नरिचानिया और अन्य (2010)

कलाभारती एडवरटाइजिंग बनाम हेमंत विमलनाथ नरीचनिया और अन्य (2010) के मामले में, मुद्दा अपीलकर्ता को लेकर था, जिसने बॉम्बे में एक विज्ञापन होर्डिंग फर्म का प्रबंधन (मैनेज) किया था और 2001 में  समाज में एक 40’x20′ होर्डिंग स्थापित करने की अनुमति का अनुरोध करने के लिए एक सोसायटी से संपर्क किया था।

“जब एक परिदृश्य (सिनेरियो) का अनुमान लगाया जाता है जिसमें न्यायालय के द्वारा किए गए कार्य से एक पक्ष के साथ किए गए अन्याय को दूर करने के लिए न्यायालय का कर्तव्य है, तो कानूनी कहावत ‘एक्टस क्यूरी नेमिनेम ग्रेवाबिट’, जो कहती है कि अदालत के आचरण से किसी भी व्यक्ति को नुकसान नहीं होगा, सामने आती है। उपर्युक्त कहावत को उस मामले में लागू किया जाता है जहां न्यायालय के अधिकार क्षेत्र (ज्यूरिसडिक्शन) का अनुरोध करने वाले पक्ष ने एक अनर्जित (अनअर्न्ड) या अनुचित लाभ प्राप्त किया है जिसे उसके द्वारा नकारा जाना था।

2. नीरज कुमार सैनी और अन्य बनाम स्टेट ऑफ यू.पी. और अन्य (2017)

नीरज कुमार सैनी और अन्य बनाम स्टेट ऑफ़ यू.पी. और अन्य (2017) का मामला यू.पी.पी.जी.ए.म.ई.ई.-2016 की परीक्षा के संबंध में परामर्श (काउंसलिंग) प्रक्रियाओं में चूक से संबंधित है। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने फैसला किया था कि कानूनी कहावत, एक्टस क्यूरी नेमिनेम ग्रेवाबिट को अलगाव (आइसोलेशन) में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है। तथ्यों के द्वारा इसे समर्थित किया जाना चाहिए।

बेनिग्ने फ़ेसिएंडे संट इंटरप्रिटेशनेस चार्टारम, अट रेस मैगिस वैलेट क्वाम पेरेट

शाब्दिक अर्थ

उदारवादी अर्थान्व्यन (लिबरल कंस्ट्रक्शन) और व्याख्याएं अलग हैं, इसलिए विफल होने के बजाय उनका कुछ प्रभाव होता  है।

बेनिग्ने फ़ेसिएंडे संट इंटरप्रिटेशनेस चार्टारम, अट रेस मैगिस वैलेट क्वाम पेरेट की व्याख्या

कानूनी कहावत ‘बेनिग्ने फ़ेसिएंडे संट इंटरप्रिटेशन चार्टरम, अट रेस मैगिस वैलेट क्वाम पेरेट’ का अर्थ है कि दस्तावेजों का अर्थान्व्यन अनुकूल तरीके से किया जाना चाहिए, ताकि उस उपकरण (इंस्ट्रूमेंट) को नष्ट करने के बजाय उसका लाभ उठाया जा सके। सीधे शब्दों में कहें तो, दस्तावेजों का अर्थान्व्यन इस तरह से किया जाना चाहिए कि उपकरण विफल होने के बजाय किसी काम में इस्तमाल किया जा सके।

इस कानूनी कहावत के आधार पर न्यायिक निर्णय और उनसे संबंधित कुछ प्रासंगिक पैराग्राफ

1. हरिहर बनर्जी और अन्य बनाम रामसाशी रॉय और अन्य (1918)

बॉम्बे के उच्च न्यायालय के द्वारा हरिहर बनर्जी और अन्य बनाम रामसाशी रॉय और अन्य (1918) के मामले पर फैसला सुनाते हुए एक अपील पर विचार किया गया था जिसमें भूमि के मालिकों या कब्जाधारियों द्वारा अतिचारियों (ट्रेसपासर) के खिलाफ नहीं, बल्कि अपने पूर्व किरायेदारों के खिलाफ जमीन के एक विशिष्ट टुकड़े के जमींदारों द्वारा इस आधार पर कब्जा वापस ले लिया गया था की उनकी किरायेदारी एक प्रभावी नोटिस के द्वारा तय की गई है जिसे विधिवत तामील (सर्व) किया गया था और जिसके अनुसार वह वैध रूप से उस भूमि को छोड़ सकते हैं। 

“यह कि उनकी पर्याप्तता की परीक्षा का मतलब यह है कि वे किरायेदारों को उन सभी तथ्यों और परिस्थितियों से परिचित कराएंगे जिनके बारे में वे संदर्भित करना चाहते हैं, न कि उन सभी तथ्यों और परिस्थितियों से जो उनके लिए अनजान और अजनबी प्रतीत होंगी; और, आगे, कि उन्हें अट रेस मैजिस वैलेट क्वॉम पेरीट समझा जाना चाहिए, न कि उनमें ऐसे दोष खोजने की इच्छा के साथ जो उन्हें दोषपूर्ण बना दें।”

2. भैलाल जगदीश बनाम एडिशनल डेप्युटी कमिश्नर एंड अदर (1952)

भैलाल जगदीश बनाम एडिशनल डेप्युटी कमिश्नर एंड अदर (1952) का मामला, जो मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के समक्ष पेश किया गया था, किरायेदारी की समाप्ति के आसपास के मुद्दों से संबंधित हैं। इस मामले में न्यायालय का कार्य, एक लिखित दस्तावेज और उसके दायरे की व्याख्या करना था। 

“एक उपकरण की व्याख्या ‘अट रेस मैजिस वैलेट क्वाम पेरीट’ की जानी चाहिए, न कि इसमें कोई दोष खोजने के इरादे से जो इसे पूर्ण रूप से दोषी बना दे। एक लिखित दस्तावेज को एक व्यापक व्याख्या दी जानी चाहिए और ऐसा अर्थ दिया जाना चाहिए जो पक्षों की इच्छा को अधिकतम संभव सीमा तक पूरा कर सके। यह नियम किसी क़ानून के पाठ की व्याख्या पर लागू किया जाता है।”

डेलिगेटस नॉन पोटेस्ट डेलिगेयर

शाब्दिक अर्थ 

डेलिगेटस नॉन पोटेस्ट डेलिगेयर के सिद्धांत के अनुसार, “जिसे प्रत्यायोजित (डेलीगेट) किया जा चुका है, वह उसे फिर से प्रत्यायोजित नहीं कर सकता है अर्थात एक प्रतिनिधि आगे किसी और को प्रतिनिधि नहीं बना सकता है।”

डेलिगेटस नॉन पोटेस्ट डेलिगेयर के सिद्धांत की व्याख्या

कानूनी कहावत ‘डेलीगेटस नॉन पोटेस्ट डेलिगेयर’ अर्थान्व्यन का एक नियम है जिसके तहत यह कहा गया है कि एक क़ानून द्वारा प्रदत्त विवेक प्रथम दृष्टया (प्राइमा फेसी) उस अधिकारी द्वारा ही प्रयोग किया जाना चाहिए जिसे कानून द्वारा किसी इरादे से यह प्रदान किया गया है और कोई अन्य अधिकारी इस विवेक का उपयोग नहीं कर सकता, लेकिन यह इरादा क़ानून की भाषा, दायरे, या उद्देश्य में पाए जाने वाले किसी भी विपरीत प्रावधान से अस्वीकृत हो सकता है।

इस कानूनी कहावत के आधार पर न्यायिक निर्णय और उनसे संबंधित प्रासंगिक पैराग्राफ

1. हमदर्द दवाखाना बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (1959)

हमदर्द दवाखाना बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (1959) का वर्तमान मामला जो भारत के सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष पेश हुआ था, यह इस मुद्दे से संबंधित था कि क्या कार्यपालिका (एग्जिक्यूटिव) को, क़ानून की त्रुटि के अंतर्गत आने वाली बीमारियों को जोड़ने की शक्ति, विधायी शक्ति के एक प्रत्यायोजन के बराबर है या नहीं।

“सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में यह फैसला सुनाया था कि विधायिका द्वारा कार्यपालिका को विधायी शक्ति का प्रत्यायोजन हमारे संविधान द्वारा निषिद्ध (प्रोहिबिट) नहीं है। हालांंकि, अब यह आम तौर पर स्थापित हो गया है कि विधायिका मौलिक विधायी शक्तियों को कार्यपालिका को हस्तांतरित (ट्रांसफर) नहीं कर सकती है। इस से यह स्पष्ट होता है कि विधायी नीति (पॉलिसी) विधायिका द्वारा स्थापित की जानी चाहिए और विधायिका इस भूमिका को प्रशासन (एडमिनिस्ट्रेशन) को सौंप कर समानांतर (पैरलल) विधायिका नहीं बना सकती है। विधायी अधिकार का प्रत्यायोजन का अर्थ यह नहीं है की, महत्वपूर्ण विधायी कार्यों को छोड़ दिया जाए।”

2. अल्ट्रा टेक सीमेंट लिमिटेड बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया और अन्य (2014)

केरल उच्च न्यायालय के समक्ष अल्ट्रा टेक सीमेंट लिमिटेड बनाम यूनियन ऑफ इंडिया और अन्य (2014) के मामले पर निर्णय लेते समय, अदालत के समाने अहम मुद्दा रेलवे अधिनियम, 1989 की धारा 30 की संवैधानिकता थी जिसमें कहा गया था कि इस प्रावधान के तहत प्रदान की गई शक्तियां आगे रेलवे अधिकारियों को प्रत्यायोजित नहीं जा सकती हैं।

“केरल उच्च न्यायालय ने इस मामले में देखा था कि उप-प्रत्यायोजन (सब डेलीगेशन) में उसी अधिकारी का दूसरा प्रत्यायोजन शामिल है, जो पहले विधायिका द्वारा दिया गया था। इस नियंत्रण का आधार यह है कि प्रत्यायोजन के विधायी अधिकारों का प्रयोग केवल उसी व्यक्ति द्वारा किया जाना चाहिए जिसे यह अधिकार प्रत्यायोजित किए गए है। एक प्रतिनिधि केवल तभी अपनी शक्ति को आगे बढ़ा सकता है जब मूल कानून इसकी अनुमति देता है। सिद्धांत ‘डेलीगेटस नॉन पोटेस्ट डेलिगेयर’, जिसमें कहा गया है कि एक प्रतिनिधि आगे किसी और को प्रतिनिधि नहीं बना सकता, दिए गए परिदृश्य में सामने आता है। इस प्रकार, यदि कोई कानून केंद्र सरकार को नियम बनाने का अधिकार देता है, तो वह ऐसे अधिकार को किसी अन्य अधिकारी को तब तक हस्तांतरित नहीं कर सकता जब तक कि मूल कानून स्पष्ट रूप से सरकार को ऐसा करने के लिए अधिकृत (ऑथराइज) नहीं करता हो। ”

डैमनम साइन इंजुरिया

डैमनम साइन इंजुरिया एक कानूनी कहावत है जो वादी को हुई क्षति के बारे में बात करती है लेकिन किसी व्यक्ति के कानूनी अधिकारों का उल्लंघन नहीं करती है।

शाब्दिक अर्थ

डैमनम साइन इंजुरिया का शाब्दिक अर्थ है ‘किसी भी कानूनी अधिकार के उल्लंघन के बिना होने वाली हानि जो, धन, संपत्ति, या किसी भी शारीरिक हानि के मामले में नुकसान या क्षति के रूप में हो सकती है।’ भले ही कोई कार्य किसी उद्देश्य के साथ किया गया था और किसी और को चोट पहुंचाने के उद्देश्य से किया गया था, लेकिन व्यक्ति के कानूनी अधिकारों का उल्लंघन किए बिना, यह कानून में कार्रवाई योग्य नहीं है।

डैमनम साइन इंजुरिया की व्याख्या

चोट के बिना नुकसान, या नुकसान जिसमें कानूनी अधिकार का कोई उल्लंघन नहीं किया गया है, यह इस कानूनी कहावत का अर्थ है जो यह दर्शाती है। डैमनम साइन इंजुरिया के मामले में, कार्रवाई का कोई आधार नहीं है क्योंकि कानूनी अधिकार का कोई उल्लंघन नहीं होता है। एक अस्पष्ट कानूनी अवधारणा है कि किसी भी नैतिक (मॉरल) उल्लंघन के लिए कोई उपाय नहीं दिया जा सकता है जब तक कि कानूनी अधिकार का उल्लंघन नहीं किया जाता है। भले ही गलत काम करने वाले का व्यवहार जानबूझकर ही क्यों न किया गया हो, लेकिन तब भी अदालत हर्जाना प्रदान करने से इनकार कर सकती है।

इस कानूनी कहावत के आधार पर न्यायिक निर्णय और उनसे संबंधित प्रासंगिक पैराग्राफ

  1. ग्लूसेस्टर ग्रामर स्कूल मामला (1410)

ग्लूसेस्टर ग्रामर स्कूल मामले में, प्रतिवादी वादी के स्कूल में एक शिक्षक था, जिसने एक विवाद के बाद अपना पद छोड़ दिया था और उसी स्कूल के पड़ोस में एक नया स्कूल खोल लिया था। उस शिक्षक की लोकप्रियता के कारण, कई छात्रों ने उनके नक्शेकदम पर चलते हुए उनके स्कूल में दाखिला ले लिया था। जिसके परिणामस्वरूप, वादी को बहुत वित्तीय नुकसान (फाइनेंशियल लॉस) का सामना करना पड़ा, जिससे कानून की अदालत में क्षतिपूर्ति के लिए मुकदमा दायर करने के लिए प्रेरित हो गया था। अदालत के समक्ष मुद्दा यह था कि क्या प्रतिवादी को डैमनम साइन इंजुरिया’ के सिद्धांत के तहत उत्तरदायी पाया जा सकता है या नहीं।

“यह निर्णय डैमनम साइन इंजुरिया की कानूनी कहावत को ध्यान में रखते हुए किया गया था। यह पूरी तरह से इस विचार पर आधारित था कि एक व्यक्ति जो कानूनी रूप से गलत कार्य का शिकार नहीं हुआ है, वह मुआवजे का हकदार नहीं है। कुछ परिस्थितियों में, मनमाने आधार पर मुआवजे की मांग की जाती है। हालांकि, अन्य मामलों में, यह दर्शन (फिलोसोफी) गलत प्रतीत होता है, क्योंकि कई सच्चे अपराधी निर्दोष होते हैं, जिसके परिणामस्वरूप निर्दोष लोगों को कई प्रकार की हानि होती है। कानून की अवधारणाएं समय के साथ बदलती रहती हैं, और नई धारणाओं को आवश्यकता के अनुसार स्वीकार किया जाता है। किसी मामले का न्याय करने से पहले, इस दृष्टिकोण को लागू करने के लिए विभिन्न अतिरिक्त कारकों पर विचार करना आवश्यक है। किसी व्यक्ति को हिरासत में लेने से पहले, उसकी पृष्ठभूमि (बैकग्राउंड), परिस्थिति और उद्देश्य सभी की जांच की जानी चाहिए।”

2. उषाबेन बनाम भाग्यलक्ष्मी चित्रा मंदिर (1978)

उषाबेन बनाम भाग्यलक्ष्मी चित्रा मंदिर के मामले में, वादी ने दावा किया कि धार्मिक आह्वान (इन्वोकेशन) की लगातार आवाजें उसकी धार्मिक भावनाओं का उल्लंघन कर रही थीं, और उसने न्यायिक निषेधाज्ञा (इनजंक्शन) का अनुरोध किया था। वादी के अनुरोध को अस्वीकार कर दिया गया था क्योंकि अदालत ने फैसला सुनाया कि धार्मिक संवेदनाओं को किसी भी तरह के नुकसान को कानूनी अधिकारों के उल्लंघन के रूप में नहीं देखा जा सकता है।

“वादी और अन्य हिंदू, प्रश्न में देवी के लिए सम्मान महसूस कर सकते हैं, लेकिन प्रतिवादी अपने प्रथम दृष्टया कानूनी अधिकार का प्रयोग करते हुए वीडियो की स्क्रीनिंग करके उन्हें किस कानूनी अधिकार से वंचित करता है? प्रतिवादी प्रमाणित फिल्म का प्रदर्शन करता है और वह अपने कानूनी अधिकार का प्रयोग करते हुए ऐसा करता है। और ऐसे में वादी के किसी कानूनी अधिकार का उल्लंघन नहीं होता है।”

एजुस्डेम जेनेरिस

व्याख्या के कुछ सामान्य सिद्धांत हैं जो समय-समय पर न्यायालयों द्वारा लागू किए गए हैं और उनमें से एक अर्थान्व्यन का नियम एजुस्डेम जेनेरिस है।

शाब्दिक अर्थ

एजुस्डेम जेनेरिस एक लैटिन वाक्यांश है जिसका अर्थ है ‘एक ही तरह के’। इसका उपयोग अव्यवस्थित ढंग से लिखे गए कानूनों की व्याख्या करने के लिए किया जाता है। जब कोई कानून लोगों या चीजों के सामान्य रूप से संदर्भित करने से पहले उनके लिए कुछ वर्गीकरणों का उल्लेख करता है, तो सामान्य अभिकथन (जनरल एसर्शन) केवल उन्हीं लोगों या चीजों पर लागू होते हैं जिन्हें स्पष्ट रूप से नामित किया गया है। उदाहरण के लिए, यदि कानून में ऑटोमोबाइल, ट्रक, ट्रैक्टर, मोटरसाइकिल और अन्य मोटर चालित वाहनों का उल्लेख है, तो ‘वाहन’ शब्द में विमान शामिल नहीं होता है क्योंकि यह सूची भूमि-आधारित परिवहन (ट्रांपोर्टेशन) तक ही सीमित है।

एजुस्डेम जेनेरिस की व्याख्या

एक तुलनीय प्रकार के शब्दों को एजुस्डेम जेनेरिस कहा जाता है। नियम यह है कि यदि दो या दो से अधिक शब्दों में समान गुण हैं (उदाहरण के लिए, वे एक ही वर्ग के हैं), तो किसी भी बाद के सामान्य शब्दों की व्याख्या केवल उस वर्ग के संदर्भ में ही की जानी चाहिए। जब तक संदर्भ इसके विपरीत निर्देशित न किया जाए, सामान्य शब्दों को अन्य सभी शब्दों की तरह उनका प्राकृतिक अर्थ ही दिया जाना चाहिए। हालांकि, जब एक सामान्य शब्द के बाद एक अलग श्रेणी के विशेष शब्द आते हैं, तो सामान्य शब्द को उसी श्रेणी से अधिक सीमित अर्थ सौंपा जा सकता है। जैसा कि विधायिका ने एक अलग जीनस के विशेष शब्दों को नियोजित (एंप्लॉय) करके उस आशय का अपना उद्देश्य प्रकट किया है, सामान्य कथन पूर्ववर्ती (प्रीसीडिंग) विशेष अभिव्यक्तियों से अपना अर्थ लेता है।

एजुस्डेम जेनेरिस का सिद्धांत हर जगह लागू नहीं होता है। यदि कानून का संदर्भ इस नियम के उपयोग को रोकता है, तो इसका इस बात पर कोई असर नहीं पड़ता कि व्यापक वाक्यांशों की व्याख्या कैसे की जाती है। एजुस्डेम जेनेरिस की अवधारणा इस आधार पर आधारित है कि यदि विधायिका चाहती है कि सामान्य शब्दों को असीमित अर्थ में नियोजित किया जाए, तो उसने ऐसा करने में विशिष्ट शब्दों को बिल्कुल भी नहीं चुना होगा।

इस कानूनी कहावत के आधार पर न्यायिक निर्णय और उनसे संबंधित कुछ प्रासंगिक पैराग्राफ

  1. ठाकुर अमर सिंहजी बनाम स्टेट ऑफ राजस्थान (1955)

राजस्थान भूमि सुधार और जागीरों की बहाली अधिनियम (राजस्थान लैंड रिफॉर्म एंड रिजंप्शन ऑफ़ जागीर), 1952 की वैधता को ठाकुर अमर सिंहजी बनाम स्टेट ऑफ़ राजस्थान (1955) के मामले में चुनौती दी गई थी। इस मामले में यह दावा किया गया था कि एक कार्यकाल के धारक, जिसे भोमीचार कार्यकाल के रूप में जाना जाता है, वह जागीरदार नहीं थे।

“हम इस तर्क के आधार पर इस निष्कर्ष पर नहीं पहुंचते हैं कि संविधान के अनुच्छेद 31-A में ‘जागीर’ शब्द को ‘अन्य समान अनुदान (ग्रांट)’ के साथ एजुस्डेम जेनेरिस, अर्थात एक ही समान तरीके से पढ़ा जाना चाहिए, क्योंकि ‘एजुस्डेम जेनेरिस’ नियम का सही दायरा यह है कि विशिष्ट और विशेष शब्दों का अनुसरण (फॉलो) करने वाले सामान्य प्रकृति के शब्दों को उसी प्रकृति की चीजों तक ही सीमित माना जाना चाहिए जैसा कि निर्दिष्ट किया गया है, न कि इसके विपरीत किया जाना चाहिए, जहां विशिष्ट शब्द पहले आने वाले सामान्य शब्दों द्वारा नियंत्रित होते हैं।”

2. लीलावती बाई बनाम बॉम्बे स्टेट (1957)

लीलावती बाई बनाम बॉम्बे स्टेट (1957) के मामले में याचिकाकर्ता संपत्ति के एक किरायेदार की विधवा थी, जिसने उस सम्पत्ति को छोड़ दिया था। प्रतिवादी के द्वारा एक सरकारी अधिकारी के आवास के सार्वजनिक उद्देश्य के लिए बॉम्बे भूमि अधिग्रहण (एक्विजिशन) अधिनियम, 1948 की धारा 6(4)(a) के तहत परिसर के खाली होने का पता लगाने के बाद उस की मांग की गई थी।

“नियम एजुस्डेम जेनेरिस, जिसे याचिकाकर्ता के समर्थन में व्यक्त करने की मांग की गई थी, वह लागू हो भी सकता है और नहीं भी लागू हो सकता। जब विधायिका के द्वारा ‘या अन्यथा’ शब्दों का इस्तेमाल किया गया था, तो यह अन्य स्थितियों को कवर करता प्रतीत होता है जो पिछले वर्गों के दायरे में नहीं आती हैं, जैसे कि ऐसी स्थिति जहां किसी तीसरे पक्ष द्वारा अतिचार (ट्रेसपास) के कारण किरायेदार का कब्जा समाप्त कर दिया गया था। कानून सभी संभावित परिदृश्यों को संबोधित करना चाहता था जिसमें किसी भी कारण से रिक्ति उत्पन्न हो सकती है। जिसके परिणामस्वरूप, व्याख्या के पिछले वाक्यों के संयोजन में एजुस्डेम जेनेरिस शब्दों का उपयोग करने के बजाय, विधायिका ने उनका व्यापक अर्थ में उपयोग किया है।

फंक्शस ऑफिशियो 

शाब्दिक अर्थ 

फंक्शस ऑफिशियो का सिद्धांत (अर्थात, अपना कार्य पूर्ण करना) कहता है कि एक बार जब मध्यस्थ (आर्बिट्रेटर) उसके सामने पेश किए गए मामलों पर निर्णय लेता है, तो उसके पास उस पर पुनर्विचार करने की कोई क्षमता नहीं होती है। इस विचार का अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता में एक लंबा इतिहास रहा है और कई राष्ट्रीय कानूनों द्वारा इसे मान्यता प्रदान की गई है।

फंक्शस ऑफिशियो की कहावत की व्याख्या

एक मामले में हारने वाला वादी अक्सर एक अनदेखे किए गए बिंदु या नए साक्ष्य लाकर अदालत को फिर से उस मामले पर विचारण करने की कोशिश करता है। यह न्यायिक निर्णय की अंतिमता के बारे में उनकी समझ की कमी के कारण है। न्यायिक अधिनियम, 1873 के साथ, वर्तमान निर्णय को अंतिम रूप देने और उच्च प्राधिकारी (अथॉरिटी) को अपील करने की अनुमति देने के लिए इस विचार को सामान्य कानून के अभ्यास में पेश किया गया था। यदि किसी मामले में न्यायिक निर्णय अंतिम नहीं होंगे और सभी असंतुष्ट वादी के अनुरोध और आवेदन पर मामले को फिर से खोला जाएगा तो विवाद कभी समाप्त नहीं होंगे और न्याय कभी भी प्रशासित नहीं किया जा सकता है। नतीजतन, एक बार निर्णय हो जाने के बाद, न्यायाधीश के पास उस पर उसी मामले पर निर्णय देने की क्षमता नहीं रह जाती है।

इस कानूनी कहावत के आधार पर न्यायिक निर्णय और उनसे संबंधित प्रसांगिक पैराग्राफ

1. स्टेट बैंक आफ इंडिया और अन्य बनाम एस.एन. गोयल (2008)

स्टेट बैंक ऑफ इंडिया और अन्य बनाम एस.एन. गोयल (2008) के मामले में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा, पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के एक फैसले के खिलाफ एक अपील पर विचार किया जा रहा था, जो प्रतिवादी नियोक्ता (एंप्लॉयर) (स्टेट बैंक ऑफ इंडिया) द्वारा दायर किया गया था। इस मामले में नियोक्ता को उसके पद से हटाने के लिए सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई थी। 

“प्रतिवादी के विद्वान अधिवक्ता ने तर्क दिया कि एक बार जब नियुक्ति प्राधिकारी, अनुशासनात्मक (डिसिप्लिनरी) प्राधिकारी द्वारा प्रस्तावित दंड से सहमत होते हुए दिनांक 18.1.1955 का आदेश पारित कर देता है और उसके बाद वह उक्त आदेश को संशोधित/समीक्षा (रिव्यू) या उसमे कोई बदलाव नहीं कर सकता है, तो वह फंक्शस ऑफिशियो बन जाता है।”

2. री वी.जी.एम. होल्डिंग्स लिमिटेड (1942)

प्रथम विश्व युद्ध के बाद, संसद ने कुछ जानें माने घोटालों की प्रतिक्रिया में एक फर्म अपने स्वयं के शेयरों को प्राप्त करने के उद्देश्य से वित्तीय सहायता प्रदान करने और संपत्ति स्ट्रिपर्स की सट्टा (स्पेक्युलेटिव) कार्रवाइयों द्वारा बनाई गई व्यापक नाखुशी को अपराधी बनाने के लिए मतदान किया था। री वी.जी.एम. होल्डिंग्स लिमिटेड (1942) का मामला इस मुद्दे से संबंधित है। 

“अदालत ने इस मामले में फैसला सुनाया था कि एक बार जब किसी न्यायाधीश के द्वारा रजिस्टर में दर्ज किए गए आदेश पर हस्ताक्षर किया जाता है, तो वह फंक्शस ऑफिशियो बन जाते है। इसका मतलब यह है कि वह उसके बाद अपने आदेश मे दिए गए तर्कों को नहीं बदल सकते है। इसके बाद आदेश को बदलने का अधिकार केवल एक उच्च न्यायालय के पास ही होता है।”

इग्नोरेंशिया फैक्टी एक्सक्यूसैट; इग्नोरेंशिया ज्यूरिस नॉन एक्सक्यूसैट

शाब्दिक अर्थ 

लैटिन कानूनी कहावत इग्नोरेंशिया ज्यूरिस नॉन एक्सक्यूसैट का अर्थ है कानून का ज्ञान न होना कोई बहाना नहीं हो सकता है और लैटिन कानूनी कहावत इग्नोरेंशिया फैक्टी एक्सुसैट का अर्थ है तथ्य के बारे में अज्ञानता होना एक बहाना हो सकता है। 

इग्नोरेंशिया फैक्टी एक्सक्यूसैट; इग्नोरेंशिया ज्यूरिस नॉन एक्सक्यूसैट की व्याख्या 

जहां पूरब होता है वहां ही पश्चिम मौजूद रहता है। यह हर समय एक विरोधी वस्तु की उपस्थिति को दर्शाता है। जिसके परिणाम स्वरूप यह कहा जा सकता है की जहां ज्ञानता होती है वहां अज्ञानता भी हो सकती है। इग्नोरेंशिया फैक्टी एक्सक्यूसैट एक लैटिन कहावत है जिसमें कहा गया है कि किसी तथ्य को जानना या तथ्य से संबंधित कोई गलती करना एक बहाना है। इसका उपयोग दीवानी (सिविल) और अपराधिक दोनों प्रकार की कार्यवाहीयों में किया जा सकता है। इसमें कहा गया है कि यदि किसी अपराध का आरोपी व्यक्ति दावा करता है कि उसे किसी तथ्य की जानकारी नहीं है, तो इस अज्ञानता को एक बहाना माना जाएगा। इग्नोरेंशिया का अनुवाद अज्ञानता और गलती दोनों के रूप में ही किया जा सकता है, और दोनो अवधारणाओं का उपयोग एक दुसरे  की जगह पर किया जा सकता हैं। इस कहावत के अनुसार, जब कोई व्यक्ति एक महत्वपूर्ण सत्य के होने से अनजान होता है या कोई अवैध कार्य करता है जिसके लिए वह गैर कानूनी परिणामों का अनुमान या इरादा नहीं करता है, तो वह आपराधिक और दीवानी दायित्व से मुक्त हो जाता है।

कानून कई प्रकार के होते हैं, जैसे कि पारिवारिक कानून, दीवानी कानून, आपराधिक कानून, अनुबंध (कॉन्ट्रैक्ट) कानून, और इसी तरह के और भी प्रकार के होते हैं। आमतौर पर सब को यह ज्ञात होता है कि जो कोई भी व्यक्ति इनमें से किसी भी कानून की अवहेलना करेगा या उसका उल्लंघन करेगा, उसे उस कानून के तहत जवाबदेह ठहराया जाएगा। कानूनी कहावत इग्नोरेंशिया ज्यूरिस नॉन एक्सक्यूसैट इस सिद्धांत की ही व्याख्या करता है। यह एक लैटिन कहावत है जिसमें कहा गया है कि कानून की अज्ञानता, समझ की कमी, या कानूनी आवश्यकताओं के संबंध में कोई भी कानूनी त्रुटि कोई बहाना नहीं है, और इसलिए ऐसे मामलों में आरोपी का दायित्व उत्पन्न होता है। कानून की अज्ञानता, किसी व्यक्ति के उन कानूनों के ज्ञान की कमी को संदर्भित करती है जिन्हें जानना उस व्यक्ति के लिए आवश्यक है, भले ही वे पूर्ण हों या न हो। ये त्रुटियां दो प्रकार के कानूनों की हो सकती हैं: ये भारतीय कानूनों में त्रुटियां या विदेशी कानूनों में त्रुटियां हो सकती हैं। यदि गलती भारतीय कानूनों के तहत की गई है, तो कानून की अज्ञानता कोई बहाना नहीं है।

इस कानूनी कहावत के आधार पर न्यायिक निर्णय और उनसे संबंधित कुछ प्रसांगिक पैराग्राफ

  1. आर बनाम टॉल्सन (1889)

आर बनाम टॉल्सन के मामले में, अपीलकर्ता ने सितंबर 1880 में शादी की थी, और उसका पति कुछ ही समय बाद लापता हो गया था। ऐसा कहा गया था कि वह एक जहाज पर था और वहां से लापता हो गया था। तो अपीलकर्ता ने सात साल बाद फिर से शादी कर ली, यह मानते हुए कि उसका पति मर चुका है, लेकिन उसका पति वापस आ गया और उस पर द्विविवाह (बायगेमी) का आरोप लगाया गया था। तो यहां यह निर्धारित किया गया था कि वह दोषी नहीं थी, और यह एक तथ्यात्मक त्रुटि थी, क्योंकि उसके पति को मृत मान लिया गया था। 

“जानबूझकर द्विविवाह करना” या “विचार पूर्वक द्विविवाह करना” जैसे शब्दों की कमी के बावजूद, जिसने उसे माफ़ कर दिया होगा, अपील अदालत ने कहा कि टॉल्सन को इस परिदृश्य में एक पुराने सामान्य कानून मानदंड (नॉर्म) द्वारा संरक्षित किया गया था। अदालत ने पाया कि परिस्थितियों के अस्तित्व में एक “ईमानदार और उचित विश्वास”, जो अगर सच है, तो आरोपी के कार्यों को निर्दोष बना देगा, और यह एक वैध बचाव था।”

2. अशोक कुमार शर्मा बनाम स्टेट ऑफ राजस्थान (2013)

अशोक कुमार शर्मा बनाम स्टेट ऑफ़ राजस्थान (2013) के मामले में भारत के सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष पेश किया गया मुद्दा यह था कि क्या नारकोटिक ड्रग्स एंड साइकोट्रोपिक सब्सटेंस एक्ट, 1985 (एन.डी.पी.एस. अधिनियम) की धारा 50 के तहत कार्य कर रहा अधिकार प्राप्त अधिकारी, किसी राजपत्रित (गैजेटेड) अधिकारी या मजिस्ट्रेट के समक्ष तलाशी के अपने अधिकार से आरोपी को अवगत कराने के लिए कानूनी रूप से बाध्य है और क्या अधिनियम के प्रावधानों के तहत ऐसी प्रक्रिया अनिवार्य है। 

“इस संबंध में, हम सामान्य सिद्धांत “इग्नोरेंशिया ज्यूरिस नॉन एक्सक्यूसैट” पर विचार कर सकते हैं और यदि, ऐसे मामले में, आरोपी एन.डी.पी.एस. अधिनियम की धारा 50 में उल्लिखित कानून से अज्ञान होने का दावा करता है। क्योंकि एक व्यक्ति को कानून का ज्ञान होना चाहिए, अज्ञानता का बहाना आमतौर पर आपराधिक कानून के तहत बचाव प्रदान नहीं करता है। निस्संदेह, कानून की अज्ञानता वास्तव में होती है, भले ही वह सच हो, हालांकि एक सामान्य प्रस्ताव के रूप में, यह सच है कि कानून का ज्ञान हर व्यक्ति को दिया जाना चाहिए।”

इंजुरिया साइन डेमनो

शाब्दिक अर्थ

इंजुरिया साइन डेमनो बिना किसी वास्तविक नुकसान या क्षति के एक पूर्ण निजी अधिकार के उल्लंघन के मामलों को संदर्भित करता है। सीधे शब्दों में कहें तो बिना किसी नुकसान के हानि होना। 

इंजुरिया साइन डेमनो की व्याख्या

इंजुरिया साइन डेमनो एक वैध अधिकार का उल्लंघन है जिसके परिणामस्वरूप पीड़ित पक्ष को कोई हानि, दुर्भाग्य या नुकसान नहीं होता है, और जब भी किसी वैध अधिकार का उल्लंघन होता है, तो वह व्यक्ति जो अधिकार का मालिक है वह कार्रवाई करने के लिए योग्य है। प्रत्येक व्यक्ति को अपनी संपत्ति पर, अपनी अभेद्यता (वलनरेबिलिटी) और अपनी स्वतंत्रता पर एक अविभाज्य (इनएलियनेबल) अधिकार है, और इस अधिकार के किसी भी उल्लंघन को गंभीर माना जाता है। एक व्यक्ति जिसके वैध अधिकार का उल्लंघन किया गया है, उसके पास कार्रवाई का कारण है।

इस कानूनी कहावत के आधार पर न्यायिक निर्णय और उनसे संबंधित प्रसांगिक पैराग्राफ

  1. रवि यशवंत भोईर बनाम जिला कलेक्टर, रायगढ़ (2012)

रवि यशवंत भोईर बनाम जिला कलेक्टर, रायगढ़ (2012) के मामले में, जो भारत के सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष पेश हुआ था, वह महाराष्ट्र नगर परिषदों, नगर पंचायतों और औद्योगिक टाउनशिप अधिनियम, 1965 को धारा 55 B के तहत उरण नगर परिषद के सदस्य के रूप में निर्वाचित (इलेक्टेड) अपीलकर्ता (रवि यशवंत भोईर) के खिलाफ की गई कार्रवाई के संबंध में था।  

“कानूनी अधिकार, कानून के आधार पर पात्रता का दावा है। वास्तव में, यह कानून के शासन के द्वारा किसी व्यक्ति को दिया गया अधिकार है। जिसके परिणामस्वरूप, एक व्यक्ति जो कानूनी रूप से पीड़ित हो गया है, वह केवल किसी कार्य या चूक को चुनौती दे सकता है। कुछ हानि या नुकसान हो सकता है जो कानून की नजर में अन्यायपूर्ण नहीं है क्योंकि इससे शिकायतकर्ता के कानूनी अधिकार या कानूनी रूप से संरक्षित हित को हानि नहीं पहुंचती है, लेकिन इस प्रकार के नुकसान को डेमनम साइन इंजुरिया के रूप में जाना जाता है। शिकायत में यह दिखाना होता है कि उसके कानूनी अधिकार को नकारा गया था या उससे वंचित किया गया है, साथ ही साथ उसे कानूनी रूप से संरक्षित किसी भी हित को नुकसान पहुंचा है। उसे सूची में एक पक्ष के रूप में नहीं सुना जा सकता है यदि उसके पास न्यायोचित दावे के लिए कानूनी आधार नहीं है। एक काल्पनिक या भावुक शिकायत व्यक्तिगत रूप से मुकदमा करने का अधिकार देने के लिए पर्याप्त नहीं हो सकती है। एक हानि या नुकसान होना चाहिए या एक कानूनी शिकायत होनी चाहिए, जिसे बिना किसी औचित्य (जस्टिफिकेशन) के दावे के बजाय समझा जा सकता है जिसे स्टेट प्रो रेशन वॉलंटेस के रूप में जाना जाता है।

2. भीम सिंह बनाम स्टेट ऑफ जम्मू और कश्मीर (1985)

भीम सिंह बनाम स्टेट ऑफ जम्मू और कश्मीर (1985) के मामले में, जम्मू और कश्मीर के एक विधायक श्री भीम सिंह को गिरफ्तार कर लिया गया था और पुलिस हिरासत में रखा गया था, जिससे उन्हें आधिकारिक निकायों (बॉडीज) की बैठकों में भाग लेने से रोका गया था। हालांकि, जिस व्यक्ति को उसे वोट डालने की जरूरत थी, वह जीत गया, और उसका वोट देने का अधिकार छीन लिया गया था। इस मामले में व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हनन (इनवेजन) शामिल है जिसमें पुलिस गिरफ्तार व्यक्ति की रिमांड लेती है लेकिन उसे आवश्यक समय सीमा के भीतर न्यायाधीश के सामने लाने में विफल रहती है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 और 22 के तहत विशेषाधिकारों (प्रिविलेज) का घोर उल्लंघन किया गया था।

“यह तय किया गया था कि एक द्वेषपूर्ण इरादे से उसे हिरासत में रखा गया था, और पीड़ित 50,000 रुपये के पारिश्रमिक (रिम्यूनरेशन) का हकदार था, क्योंकि प्रशासनिक सभा के एक व्यक्ति का आधिकारिक सभा के रास्ते में व्यपहरण (किडनैप) कर लिया गया था, जिससे उनके लिए आसन्न सभा में शामिल होना मुश्किल हो गया था। इंजुरिया साइन डैमनम के मामले में, अदालत के पास उचित मौद्रिक मुआवजा देकर पीड़ित पक्ष को मुआवजा देने का अधिकार है।”

लेक्स फोरी

शाब्दिक अर्थ

लेक्स फोरी अदालत के कानून को दर्शाता है जिसमें कार्यवाही लाई जाती है।

लेक्स फोरी की व्याख्या

लेक्स फोरी कानून की पसंद को संदर्भित करता है। यह निर्दिष्ट करता है कि उस अधिकार क्षेत्र या स्थान का कानून जहां कानूनी कार्रवाई दायर की गई है, वह प्रासंगिक होने पर ही लागू होता है। फोरम का कानून, या लेक्स फोरी सिद्धांत, लक्षण वर्णन (करैक्टराईजेशन) की समस्या को संबोधित करने का एक तरीका है। लक्षण वर्णन की धारणा कानूनी असहमति के मुद्दे को नियंत्रित करती है। लक्षण वर्णन की धारणा एक अदालत को यह निर्धारित करने में सक्षम बनाती है कि दी गई स्थिति में कौन सा कानून लागू होगा। जब तक इसका समाधान नहीं हो जाता है, तब तक कानून के उचित विरोध को लागू करना मुश्किल होता है। इस सिद्धांत के अनुसार, किसी विशेष मुद्दे को, इन दोनों यानी की, लागू घरेलू कानूनों और कानून के विदेशी मानदंडों के निकटतम और समान घरेलू कानूनो के अनुसार ही वर्गीकृत किया जाना चाहिए।

इस कानूनी कहावत के आधार पर न्यायिक निर्णय और उनसे संबंधित प्रसांगिक पैराग्राफ

  1. ओग्डेन बनाम ओग्डेन (1907)

ओग्डेन बनाम ओग्डेन के मामले मे इंग्लैंड में, एक फ्रांसीसी व्यक्ति (प्रतिवादी) ने एक अंग्रेजी महिला (वादी) से शादी की थी। हालाँकि, उन्होंने शादी से पहले अपने माता-पिता की सहमति नहीं ली थी। फ्रांसीसी कानून के अनुसार, एक नियम है जिसमें विवाह के लिए माता-पिता की सहमति की आवश्यकता होती है। इसके परिणामस्वरूप, इस शादी को फ्रांसीसी अदालत के फैसले से रद्द कर दिया गया था, इस तथ्य के आधार पर कि फ्रांसीसी कानून के द्वारा आवश्यक माता-पिता की सहमति हासिल नहीं की गई थी। उसके बाद, प्रतिवादी ने फ्रांस में एक फ्रांसीसी महिला से शादी की। बाद में, वादी के द्वारा इंग्लैंड में एक मुकदमा दायर किया गया था, जिसमे उसके द्वारा प्रतिवादी से व्यभिचार (एडलटरी) और परित्याग (अबंडनमेंट) के आधार पर उसकी शादी को भंग करने की मांग की गई थी।

“फोरम के प्रश्न के रूप में फ्रांसीसी कानून की आवश्यकता का विश्लेषण करने के बाद, अंग्रेजी न्यायालय ने अंग्रेजी संघर्ष नियम को अपनाया, जिसमें कहा गया था कि विवाह समारोह का स्थान इंग्लैंड था। जिसके परिणामस्वरूप, अदालत के द्वारा फ्रांसीसी कानून को, जिसमे माता-पिता की सहमति की आवश्यकता होती है, को असंवैधानिक घोषित कर दिया गया था और विवाह की वैधता को बनाए रखा गया था। हालाँकि, उस ही विवाह की वैधता का निर्धारण करते समय, एक फ्रांसीसी अदालत ने फ्रांसीसी संघर्ष नियम का इस्तेमाल किया था। जहां अदालत ने शादी के लिए माता-पिता की सहमति की आवश्यकता को रेखांकित करते हुए विवाह को शून्य और अमान्य घोषित कर दिया था। यह जीतने के लिए लेक्स लोकी कॉन्ट्रैक्टस पर निर्भर करता है और इसलिए प्रतिवादी की बाद की शादी को द्विविवाह के अपराध के तहत लाया जाना चाहिए और उसे रद्द कर दिया जाना चाहिए।

2. रे बेर्चटोल्ड (1922)

रे बेर्चटोल्ड के मामले में, हंगरी के एक व्यक्ति की मृत्यु हो गई थी और वह अपने पीछे एक वसीयत छोड़ गया था जो उसकी अंग्रेजी संपत्ति से संबंधित थी। उसने उस वसीयत के माध्यम से अपनी सभी फ्रीहोल्ड संपत्ति, अपनी सभी अन्य अचल संपत्ति, और यूनाइटेड किंगडम में अपनी सभी निजी संपत्ति को अपने ट्रस्टियों को बिक्री और रूपांतरण (कन्वर्जन) के लिए दे दिया था। वह हंगरी में अधिवासित (डोमिसाइल) था, और इस प्रकार, चल संपत्ति को नियंत्रित करने वाले अंग्रेजी निर्वसियत (इंटेस्टेसी) के कानूनों के तहत, अधिवास का कानून, जो की हंगरी में अधिवासित है, वह लागू होगा। 

“चल और अचल संपत्ति का निर्धारण करने में, अदालत ने लेक्स साइटस नियम को लागू करने के लिए चुना, फ्रीहोल्ड को पैसे के रूप में माना। जब किसी अन्य देश में रहने वाला व्यक्ति निर्वसीयत मर जाता है और ट्रस्ट में रखे गए अंग्रेजी फ्रीहोल्ड की बिक्री की आय में अपना हित छोड़ देता है, लेकिन जिसे अभी तक बेचा नहीं गया है, तो वह हित अचल होता है, और इसका उत्तराधिकार (सक्सेशन) लेक्स साइटस द्वारा शासित होता है।

लिस पेंडेंस

शाब्दिक अर्थ

लिस पेंडेंस का शाब्दिक अर्थ ‘लंबित मुकदमेबाजी’ या ‘लंबित मुकदमा’ होता है। यह कहावत “पेंडेंट लाइट निहिल इनोवेचर” से ली गई है, जिसमें कहा गया है कि मुकदमेबाजी या मुकदमा लंबित होने के दौरान कुछ भी नया पेश नहीं किया जाना चाहिए।

लिस पेंडेंस की व्याख्या

लिस पेंडेंस के सिद्धांत में कहा गया है कि जब अचल संपत्ति के संबंध में शीर्षक या उससे सीधे उत्पन्न होने वाले किसी भी अधिकार पर वर्तमान मुकदमेबाजी होती है, तो संपत्ति का हस्तांतरण प्रतिबंधित होता है। मुकदमेबाजी तब शुरू होती है जब कोई शिकायत दर्ज की जाती है या जब संबंधित अदालत में प्रक्रिया शुरू होती है, और यह तब समाप्त हो जाती है जब अदालत एक आदेश पारित कर देती है।

यह सिद्धांत आवश्यक है क्योंकि यह अदालत की सहमति के बिना किसी भी विवादित संपत्ति के स्वामित्व के हस्तांतरण को रोकता है, अन्यथा, अंतहीन मुकदमेबाजी शुरू हो जाएगी, और यदि अलगाव को प्रबल (प्रीवेल) होने की अनुमति दी जाती है और वाचा (कॉवेनेंट) को लागू नहीं किया जाता है तो एक सफल निष्कर्ष पर मुकदमा लाना असंभव हो जाएगा। ‘ट्रांसफ़री पेंडेंट लाइट’ फैसले से उसी तरह से बंधी होता है जैसे वे खुद दावे के पक्ष हो, और लंबित मुकदमे के परिणाम पर स्थानांतरण को आकस्मिक (कंटिंजेंट) बनाया जाएगा।

इस कानूनी कहावत के आधार पर न्यायिक निर्णय और उनसे संबंधित कुछ महत्त्वपूर्ण पैराग्राफ

  1. कोयली बनाम स्टेट ऑफ राजस्थान (2008)

कोयली बनाम स्टेट ऑफ राजस्थान (2008) के मामले में विवादित भूमि मूल रूप से वादी के पति के नाम पर पंजीकृत (रजिस्टर्ड) थी। उनकी मृत्यु के बाद, उनके भाई, यह जानते हुए कि मृतक की पत्नी अभी भी जीवित है और वह ही एकमात्र कानूनी उत्तराधिकारी है, ने खातेदारी अधिकार प्राप्त करने के लिए एक मुकदमा दायर किया, और पत्नी को यह दलील देने के लिए मजबूर किया गया कि वह ही दर्ज खातेदार की एकमात्र कानूनी उत्तराधिकारी थी। इसके बाद भाई ने अदालत में इस मामले के चलने के बावजूद जमीन को हस्तांतरित करना शुरू कर दिया था और उसने ऐसा पहले अदालत से अनुमति प्राप्त किए बिना किया था।

“इस प्रकार, संदर्भित निर्णयों से, यह स्पष्ट हो जाता है कि अदालत में मुकदमे के लंबित रहने के दौरान, अदालत की अनुमति के बिना संपत्ति का हस्तांतरण या अलगाव संपत्ति के हस्तांतरण अधिनियम, 1882 की धारा 52 के तहत प्रदान किए गए लिस पेंडेंस के सिद्धांत से प्रभावित होता है और क्रेता (पर्चेजर) मूल मुकदमेबाजी के पक्ष और बाद के खरीदार के बीच की डिक्री से बाध्य होता है, और मामले के लंबित होने के दौरान वह न तो एक आवश्यक और न ही एक उचित पक्ष है।

2. अशोक कुमार बनाम गोविंदम्मल और अन्य (2010)

अशोक कुमार बनाम गोविंदम्मल और अन्य (2010) का मामला पेंडेंट लाइट-हस्तांतरण के मुद्दे पर अदालत के रुख की व्याख्या करता है। इस मामले में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा यह पुष्टि की गई थी कि एक पेंडेंट लाइट अर्थात संपत्ति जिसके संबंध में अदालत में मुकदमा चल रहा है, को उस संपत्ति के लिए स्थानांतरित नहीं किया जा सकता है जिसका शीर्षक विवाद में है।

“भले ही 11.4.1990 को अपीलकर्ता के पक्ष में दूसरे प्रतिवादी द्वारा की गई बिक्री को लिस पेंडेंस के सिद्धांत द्वारा रोक दिया गया था, लेकिन हमारा मानना यह ​​​​है कि दावे को पूरी तरह से खारिज नहीं किया जाना चाहिए था। चूंकि लंबित बंटवारे के मामले में उसे अनन्य (एक्सक्लूसिव) मालिक नहीं पाया गया था, इसलिए दूसरा प्रतिवादी उसके द्वारा की गई बिक्री से बच नहीं सकता है। जिसके परिणामस्वरूप, अपीलकर्ता के दावे को खारिज करने के बजाय, निचली अदालतों को दूसरे प्रतिवादी के हिस्से में जाने वाली वाद संपत्ति के हिस्से के आधार पर आंशिक (पार्ट) रूप से डिक्री पारित करनी चाहिए थी।”

निमो डिबेट बिस वेक्सारी प्रो एडेम कॉसा

शाब्दिक अर्थ

कानूनी कहावत निमो डिबेट बिस वेक्सारी प्रो एडेम कॉसा का शाब्दिक अर्थ यह है कि किसी को भी एक ही कार्य के लिए दो बार दंडित नहीं किया जाना चाहिए। यह एक लैटिन कहावत है जो आपराधिक कानून के तहत दोहरे दंड के खिलाफ नियम के रूप में जाने वाले सिद्धांत को दर्शाती है, यानी यह विचार कि एक व्यक्ति को एक ही आरोप के लिए एक से अधिक बार “दंडित” नहीं किया जाना चाहिए या उस पर विचारण करके या उसे सजा दे कर, उस पर लगाए गए आरोपों के खिलाफ जवाब देने के लिए मजबूर नहीं किया जाना चाहिए।

निमो डिबेट बिस वेक्सारी प्रो एडेम कॉसा की व्याख्या

सामान्य तौर पर, इस सिद्धांत के दो नियम हैं जिनका व्यापक रूप से न्यायशास्त्र (ज्यूरिस्प्रूडेंस) में उपयोग किया जाता है:-, 

  1. पहले विचारण का फैसला कानूनी होना चाहिए। 
  2. दूसरा, यह सिद्धांत तब लागू नहीं होता है जब पहले विचारण के बाद नए साक्ष्य की खोज की जाती है या यदि मूल विचारण में निर्णय धोखाधड़ी के माध्यम से प्राप्त किया गया था। 

‘दोहरे दंड’ की सबसे हाल ही की व्याख्याओं में इस लैटिन कहावत को शामिल किया गया है। उदाहरण के लिए, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 20 (2) में कहा गया है कि “किसी भी व्यक्ति पर एक ही कार्य के लिए एक से अधिक बार मुकदमा नही चलाया जाएगा और उसे एक से अधिक बार दंडित नहीं किया जाएगा।” यह एक ऐसी स्थिति है जिसमें आप दोहरे दंड में होते हैं। जब किसी आरोपी व्यक्ति पर विचारण किया जाता है, तो उसे दोषी पाए जाने के जोखिम का सामना करना पड़ता है।

व्यापक अर्थ से देखा जाए तो, यह कहावत समाज और राज्य के हितों पर भी विचार करती है। न्यायिक फैसलों को सही माना जाना चाहिए, अन्यथा, यदि कार्रवाई के एक ही कारण के लिए एक मुकदमा अनिश्चित काल के लिए लाया जा सकता है, तो अदालत मे मौजूदा मुकदमों की बढ़ती संख्या से निपटने में वह असमर्थ होगी। अंतहीन सामग्री या स्थायी मुकदमेबाजी समाज की शांति को बाधित करती है और अराजकता (क्योस) और अनिश्चितता की ओर ले जाती है। सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 11 के अनुसार,”कोई भी अदालत किसी भी ऐसे मुकदमे या मुद्दे पर विचारण नहीं करेगी, जिसमें मुद्दे सीधे और पर्याप्त रूप से, पिछले मुकदमे के मुद्दो से सीधे और पर्याप्त रूप से समान है, जो एक ही पक्ष के बीच है या उन पक्षों के बीच है जिनके तहत वे सब या उनमें से कोई एक दावा करता है, जिसमें वह उसी समान शीर्षक के तहत मुकदमेबाजी कर रहे है और ऐसे न्यायालय में जो इस तरह के बाद के मुकदमे या उस मुकदमे में, जिसमें इस तरह के मुद्दे को बाद में उठाया गया है, का विचारण करने के लिए सक्षम अदालत है, और ऐसे मामले को पहले सुना गया था और अंत में इस पर फैसला किया गया था।”

इस कानूनी कहावत के आधार पर न्यायिक निर्णय और उनसे संबंधित कुछ प्रसांगिक पैराग्राफ

  1. डचेस ऑफ किंगस्टोन का मामला (1776)

डचेस ऑफ किंगस्टोन के मामले में, एलिजाबेथ चडली, किंग्स्टन के डाउअजर डचेस, ब्रिस्टल की काउंटेस, को 1776 में हाउस ऑफ लॉर्ड्स में द्विविवाह का दोषी पाया गया था।

“ये दो निष्कर्ष दीवानी मुकदमे में साक्ष्य के रूप मे दिए जा रहे निर्णयों से संबंधित विभिन्न मामलों में आम तौर पर सही लगते हैं: पहला, समवर्ती (कंकरेंट) अधिकार क्षेत्र की अदालत का निर्णय सीधे मुद्दो पर बोलना, एक याचिका के रूप में, प्रतिबंधित है, या सबूत के रूप में, एक ही मामले पर एक ही पक्ष के बीच निर्णायक (कंक्लूसिव) हो सकता है, जो सीधे किसी अन्य अदालत में प्रश्न में हो सकता है। 

2. मैसर्स दीपक ग्रिट उद्योग और अन्य बनाम स्टेट ऑफ हरियाणा और अन्य (1995)

मैसर्स दीपक ग्रिट उद्योग और अन्य बनाम स्टेट ऑफ हरियाणा और अन्य के मामले में दर्ज की गई याचिका अमीर लोगों द्वारा हजारों लोगों के मानव स्वास्थ्य और कल्याण को ध्यान में रखते हुए पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय की मदद लेने के लिए एक निरर्थक (फ्यूटाइल) कोशिश थी, जहां याचिकाकर्ताओं (मैसर्स दीपक ग्रिट उद्योग और अन्य) और अन्य लोगो के द्वारा बार-बार हजारों लोगों के स्वास्थ्य, सुरक्षा और जीवन को खतरे में डाला जा रहा था। 

“ऊपर उल्लिखित तथ्यों ने हमें इस निष्कर्ष पर पहुँचाया है कि वर्तमान रिट याचिका को रेस जुडिकाटा की अवधारणा से बाहर रखा गया है। उपरोक्त सिद्धांत को समानता, निष्पक्षता और अच्छे विवेक पर आधारित होने के रूप में मान्यता दी गई है, और इसे उसी पक्ष के बीच किसी भी बाद के मुकदमे में तय किए गए मामलों के निर्णय को निष्कर्ष प्रदान करने के लिए डिज़ाइन किया गया है। रेस जुडिकाटा का सिद्धांत आंशिक रूप से रोमन न्यायशास्त्र के तहत कानूनी कहावत इंटरेस्ट रिपब्लिक अट सिट फिनिस लिटियम पर आधारित है जो राज्य से संबंधित है कि मुकदमे समाप्त हो जाते हैं – और यह आंशिक रूप से कानूनी कहावत निमो डिबेट बिस वेक्सारी प्रो उना एट एडेम कॉसा पर आधारित है जिसका अर्थ है किसी भी व्यक्ति को एक ही कारण के लिए दो बार दंडित नहीं किया जाना चाहिए। इस तरह के एक नियम के अभाव में, एक अच्छा मौका है कि बहुत सारे मुकदमे होंगे, जिसका कोई अंत नहीं होगा, और लोगों के अधिकार अंतहीन अस्पष्टता में उलझे रहेंगे, जहां कानून की आड़ में बहुत सारे अन्याय किए जाएंगे।

नोवा कॉन्स्टिट्यूटियो फ्यूचरिस फॉर्मम इम्पोनेरे डेबेट, नॉन प्रेटेरिटिस

शाब्दिक अर्थ

नोवा कॉन्स्टिट्यूटियो फ्यूचरिस फॉर्मम इम्पोनेरे डेबेट, नॉन प्रेटेरिटिस का मतलब यह है कि एक नए कानून को प्रत्याशित (प्रोस्पेक्टिव) होना चाहिए और इसे इसके संचालन में पूर्वव्यापी (रेट्रोस्पेक्टिव) नहीं होना चाहिए। इसलिए, एक नए क़ानून को भविष्य को प्रभावित करना है, न कि अतीत को।

नोवा कॉन्स्टिट्यूटियो फ्यूचरिस फॉर्मम इम्पोनेरे डेबेट, नॉन प्रेटेरिटिस की व्याख्या

एक उदाहरण के माध्यम से इस कहावत को सबसे अच्छी तरह से समझा जा सकता है। उदाहरण के लिए, नया कर (टैक्स) कानून पिछली कमाई पर कर नहीं लगा सकता है, लेकिन यह भविष्य मे होने वाली कमाई पर कर लगा सकता है। चर्चा की गई कहावत में कहा गया है कि, असाधारण परिस्थितियों को छोड़कर, नया कानून इस तरह से लिखा जाना चाहिए कि यह मौजूदा अधिकारों के साथ जितना संभव हो उतना कम हस्तक्षेप करे। इसमें स्थापना का एक विशेष नियम शामिल था जो केवल तभी लागू होता है जब संसदीय अधिनियम का शब्दांकन अस्पष्ट हो। जिसके परिणामस्वरूप, यदि एक पूर्वव्यापी अधिनियमन की आवश्यकता है, तो इसकी व्याख्या की जानी चाहिए।

इस कानूनी कहावत के आधार पर न्यायिक निर्णय और उनसे संबंधित कुछ प्रसांगिक पैराग्राफ

  1. अमीरेड्डी राजा गोपाल राव बनाम अमीरेड्डी सीतारमम्मा (1965)

अमिरेड्डी राजा गोपाल राव बनाम अमीरेड्डी सीतारमम्मा (1965) के मामले पर फैसला करते समय भारत के सर्वोच्च न्यायालय के सामने जो मुद्दा पेश हुआ, वह यह था कि क्या ब्राह्मण महिला और शूद्र पिता से पैदा हुआ बच्चा हिंदू दत्तक ग्रहण और भरण पोषण (एडॉप्शन एंड मेंटेनेंस) अधिनियम, 1956 से प्रभावित होगा। यह माना गया कि बच्चा 1965 के अधिनियम के तहत भरण-पोषण का हकदार था।

“हालांकि, यह माना जाता है कि विधायिका का उद्देश्य कुछ कानूनों को पूर्वव्यापी रूप से लागू करने की प्रवृत्ति (ट्रेंड) को रोकना नहीं है। नए कानूनों को आम तौर पर केवल उन घटनाओं या तथ्यों पर लागू करने के लिए समझा जाता है जो उनके अधिनियमन (इनैक्टमेंट) के बाद उत्पन्न होती हैं। यह भी स्थापित किया गया है कि किसी भी क़ानून का पूर्वव्यापी प्रभाव तब तक नहीं माना जा सकता है जब तक कि ऐसा कार्य अधिनियमों की शर्तों में बहुत स्पष्ट रूप से प्रकट नहीं होता है या आवश्यक और विशिष्ट अनुमान से नहीं उभरता है।”

2. रीड बनाम रीड (1989)

रीड बनाम रीड (1989) के मामले में, एक दंपति (कपल) के चार बच्चे थे और उनकी शादी को 19 साल हो चुके थे। उन्हें कुछ वैवाहिक समस्याएं थीं, जिसके कारण उन्हें निरर्थक परामर्श से गुजरना पड़ा और पत्नी ने वैवाहिक घर छोड़ दिया। पत्नी ने दो महीने बाद रचनात्मक परित्याग (कंस्ट्रक्टिव डिजर्शन) का दावा करते हुए तलाक के लिए अर्जी दी। निचली अदालत ने पक्षों को बिना किसी गलती के तलाक और पत्नी को भरण पोषण दिया। पति ने आयुक्त (कमिश्नर) के सुझावों की अपील की जहां यह बोला गया था कि पति और पत्नी को गलती के आधार पर तलाक देने से इनकार कर दिया जाए, कि बिना किसी गलती के तलाक की डिक्री को दर्ज किया जाए, और पति को बच्चे और पत्नी को भरण पोषण, मौद्रिक अवॉर्ड, साथ ही पत्नी के खर्चों का भुगतान और वकील की फीस का भुगतान करने का आदेश भी दिया जाए।

“सामान्य नियम के तार्किक (लॉजिकल) परिणाम के रूप में कि पूर्वव्यापी संचालन का इरादा तब तक नहीं लिया जाता है जब तक कि यह स्पष्ट शब्दों या आवश्यक निहितार्थ (इंप्लीकेशन) से प्रकट न हो, एक अधीनस्थ नियम यह है कि एक क़ानून या उसके एक भाग का उतना ही पूर्वव्यापी संचालन हो सकता है जितनी की कानून की भाषा द्वारा अनुमति दी गई हो, और यह इस से ज्यादा नहीं हो सकता है।”

निमो टेनेटर एक्यूसेयर से इप्सम निसी कोरम डे

शाब्दिक अर्थ

कानूनी कहावत निमो टेनेटर एक्यूसेयर से इप्सम निसी कोरम डे का शाब्दिक अर्थ यह है कि कोई भी व्यक्ति खुद पर आरोप लगाने के लिए बाध्य नहीं है, सिवाय भगवान के सामने। यह कहावत पुरानी है और आधुनिक समय में भी प्रयोग की जाती है। इस कहावत की व्याख्या कई न्यायविदों (ज्यूरिस्ट) ने कई मामलों में की है।

निमो टेनेटर एक्यूसेयर से इप्सम निसी कोरम डे की व्याख्या

यह एक कहावत है जिसमें अनिवार्य आत्म दोषारोपण (सेल्फ इंक्रिमिनेशन) पर प्रतिबंध लगाना शामिल है। 

  1. ‘निमो’ का अर्थ है ‘नहीं’ 
  2. ‘टेनेटर’ का अर्थ है धारण,
  3. ‘इप्से’ का अर्थ है उसे / उसका स्वयं, 
  4. एक्यूसेयर का अर्थ है आरोप लगाना/अभियोग (इंडिक्ट) लगाना। 

इसी तरह के वाक्यांशों में शामिल हैं: 

  1. निमो टेनेटर अरमेयर एडवरसेरियम कॉन्ट्रा से (कोई भी अपने खिलाफ एक विपरीत पक्ष की मदद करने के लिए बाध्य नहीं है): जिसका अर्थ है कि एक प्रतिवादी किसी भी तरह से अभियोजक को अपने स्वयं के नुकसान के लिए सहायता करने के लिए बाध्य नहीं है।
  2. निमो टेनेटर डेरे इंस्ट्रुमेंटा कॉन्ट्रा से (कोई भी खुद के खिलाफ दस्तावेज पेश करने के लिए बाध्य नहीं है): जिसका अर्थ है कि एक प्रतिवादी खुद के खिलाफ इस्तेमाल की जाने वाली सामग्री प्रदान करने के लिए बाध्य नहीं है (यह रोमन कानून में सच है और आधुनिक आपराधिक कानून में आज भी इसका उपयोग किया जा रहा है लेकिन आधुनिक दीवानी कानून में अब इसका उपयोग नहीं किया जाता है)।
  3. निमो टेनेर प्रो डेरे से इप्सम (कोई भी खुद को धोखा देने के लिए बाध्य नहीं है): जिसका अर्थ है कि एक प्रतिवादी खुद के खिलाफ गवाही देने के लिए बाध्य नहीं है।

इस कानूनी कहावत के आधार पर न्यायिक निर्णय और उनसे संबंधित कुछ प्रसांगिक पैराग्राफ

  1. मिरांडा बनाम एरिज़ोना (1966)

मिरांडा बनाम एरिज़ोना के मामले में मिरांडा को उसके घर से पकड़ लिया गया था और एक पुलिस स्टेशन ले जाया गया, जहां शिकायत करने वाले गवाह ने उसकी पहचान की। उसके बाद दो पुलिस अधिकारियों ने उससे दो घंटे तक पूछताछ की, जिसका समापन एक हस्ताक्षरित, लिखित स्वीकारोक्ति (कन्फेशन) में हुआ। जूरी ने विचारण के दौरान मौखिक और लिखित स्वीकृति (एडमिशन) देखे। मिरांडा को व्यपहरण और बलात्कार का दोषी ठहराया गया था और प्रत्येक आरोप में 20-30 साल जेल की सजा सुनाई गई थी। अपील पर एरिज़ोना के सर्वोच्च न्यायालय के अनुसार, स्वीकारोक्ति प्राप्त करने में मिरांडा के संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं किया गया था।

“कानूनी कहावत, निमो टेनेटर से इप्सम एक्यूसेयर, आरोपी व्यक्तियों से पूछताछ के जिज्ञासु (इनक्विजिटोरियल) और प्रकट रूप से अन्यायपूर्ण तरीकों के विरोध से उत्पन्न है, जो लंबे समय से महाद्वीपीय (कॉन्टिनेंटल) प्रणाली में प्रचलित थी, और यह इंग्लैंड में भी असामान्य नहीं थी जब तक कि स्टुअर्ट्स को अंग्रेजों से निष्कासित (एक्सपैल) नहीं किया गया था। 1688 में ब्रिटिश सिंहासन, और मनमानी शक्ति के प्रयोग के खिलाफ लोगों की सुरक्षा के लिए अतिरिक्त बाधाएं खड़ी की गईं थी। जबकि स्वेच्छा से और स्वतंत्र रूप से अपराध कबूल किए जाने पर कैदी की स्वीकृति या स्वीकारोक्ति को हमेशा अपराध करने वाले साक्ष्य के पैमाने पर उच्च स्थान दिया गया है, अगर किसी आरोपी व्यक्ति को जांच के तहत अपराध के लिए अपने स्पष्ट संबंध की व्याख्या करने के लिए कहा जाता है, तो जिज्ञासु स्वर में आसानी से सवाल पूछे जा सकते हैं।”

2. सेल्वी और अन्य बनाम स्टेट ऑफ़ कर्नाटक और अन्य (2010)

सेल्वी और अन्य बनाम स्टेट ऑफ़ कर्नाटक और अन्य के मामले में आपराधिक अपीलों के एक बैच में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष जो कानूनी प्रश्न आया वह कुछ वैज्ञानिक तकनीकों के अनैच्छिक प्रशासन अर्थात् नार्को विश्लेषण, पॉलीग्राफ परीक्षा, और ब्रेन इलेक्ट्रिकल एक्टिवेशन प्रोफाइल (बी.ई.ए.पी.) परीक्षण से संबंधित था और यह अपील आपराधिक मामलों में जांच के प्रयासों में सुधार लाने के उद्देश्य से की गईं थी।

“कानूनी कहावत, निमो टेनेटर से इप्सम एक्यूसेयर, आरोपी व्यक्तियों से पूछताछ के जिज्ञासु (इनक्विजिटोरियल) और प्रकट रूप से अन्यायपूर्ण तरीकों के विरोध से उत्पन्न है है, जो लंबे समय से महाद्वीपीय (कॉन्टिनेंटल) प्रणाली में प्रचलित थी, और यह इंग्लैंड में भी असामान्य नहीं थी जब तक कि स्टुअर्ट्स को अंग्रेजों से निष्कासित (एक्सपैल) नहीं किया गया था। 1688 में ब्रिटिश सिंहासन, और मनमानी शक्ति के प्रयोग के खिलाफ लोगों की सुरक्षा के लिए अतिरिक्त बाधाएं खड़ी की गईं थी।”

प्रायर टेंपोर पोशर इयर या लेक्स पोस्टीरियर

शाब्दिक अर्थ

कानूनी कहावत, प्रायर टेंपोर पोशर इयर का शाब्दिक अर्थ यह है की यह एक कानूनी कहावत है कि पुराने कानूनों को नए कानूनों पर वरीयता (प्रेसीडेंस) दी जाती है। इस सिद्धांत का दूसरा नाम लेक्स पोस्टीरियर है।

प्रायर टेंपोर पोशर इयर या लेक्स पोस्टीरियर की व्याख्या

इस कानूनी कहावत की व्याख्या ऐसे की जा सकती है की जो सबसे पहले से है, वह दावा करने में मजबूत है। इस कानूनी कहावत के पीछे का सिद्धान्त यह है कि पुराने कानूनों को नए कानूनों पर वरीयता दी जाती है।

इस कानूनी कहावत के आधार पर न्यायिक निर्णय और उनसे संबंधित कुछ प्रसांगिक पैराग्राफ

  1. पिक ‘एन पे रिटेलर्स (पी.टी.वाई) लिमिटेड एंड अदर बनाम ईयर्स नो एंड अदर (2011)

पिक ‘एन पे रिटेलर्स (पी.टी.वाई) लिमिटेड और अन्य बनाम ईयर्स नो एंड अदर (2011) का मामला अग्रक्रय (प्री एंप्शन) के अधिकार के धारक और शेयरों के खरीदार और कंपनी के खिलाफ दावों के बीच विवाद से संबंधित है।

“इस प्रकार, 30 दिनों से अधिक समय से अग्रक्रय के अधिकार को अस्तित्व में रखने का अधिकार, मेरी राय में, 22 अप्रैल 2010 को शेयरों की बिक्री के समझौते के समापन के समय निहित नहीं था, और तदनुसार, नियम क्वी प्रायर एस्ट टेंपोर पोशर एस्ट ज्यूरे को लागू करने पर पहले की तुलना में, विस्तारित अवधि के संबंध में [क्रेता] द्वारा प्राप्त किए गए अधिकार बाद में [फ्रेंचाइज़र] द्वारा प्राप्त किए गए अधिकारों की तुलना में अधिक बल वाले होते हैं।”

पैक्टा सन सर्वांडा

शाब्दिक अर्थ 

पैक्टा सन सर्वांडा एक लैटिन शब्द है जो दर्शाता है कि समझौतों को बरकरार रखा जाना चाहिए। यह घरेलू और अंतरराष्ट्रीय कानून दोनों में पाया जा सकता है। इसका मतलब है कि अंतरराष्ट्रीय कानून के तहत, हर संधि (ट्रीटी) पक्षों के लिए बाध्यकारी है और इसे अच्छे विश्वास के साथ पूरा किया जाना चाहिए। द्वेष के बिना जिम्मेदारियों को निभाने का सच्चा इरादा सद्भावना कहलाता है। इस संधि के पक्ष को अपनी प्रतिबद्धताओं (कमिटमेंट) को निभाने और अपने कर्तव्यों को पूरा करने के लिए अपनी शक्ति में सब कुछ करना चाहिए।

पैक्टा सन सर्वांडा की व्याख्या

संधियों के कानून पर वियना कन्वेंशन, 1969 के अनुच्छेद 18 के अनुसार, राज्यों को ऐसा कुछ भी करने से परहेज करने के लिए कहा जाता है जिससे संधि के परिणाम को खतरा हो। यह इस शर्त के अधीन है कि राज्य ने विचाराधीन संधि पर हस्ताक्षर किए हैं और उसे मंजूरी दी है। यह तब तक है जब तक कि उसने अपने इरादे स्पष्ट नहीं कर दिए हैं कि वह संधि का एक पक्ष नहीं बनना चाहता है। यह इस बात पर भी निर्भर करता है कि इसे संधि में शामिल करने के लिए अनावश्यक रूप से स्थगित नहीं किया गया है। नतीजतन, अगर संधि एक बुनियादी कानून का उल्लंघन नहीं करती है, तो देशों को संधि की आवश्यकताओं का पालन करना चाहिए, भले ही वे अपने घरेलू कानूनों के तहत इसे लागू करने योग्य न हों। 

इस कानूनी कहावत के आधार पर न्यायिक निर्णय और उनसे संबंधित कुछ प्रसांगिक पैराग्राफ

  1. न्यूक्लियर टेस्ट केस, ऑस्ट बनाम फ्रांस (1973)

न्यूक्लियर टेस्ट केस अर्थात ऑस्ट बनाम फ्रांस, के मामले में 9 मई 1973 को, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड दोनों ने न्यूक्लियर हथियारों के परीक्षण पर फ्रांस के खिलाफ मुकदमा दायर किया जिसे फ्रांस ने दक्षिण प्रशांत (पेसिफिक) क्षेत्र के वातावरण में आयोजित करने की योजना बनाई थी। फ्रांस ने घोषणा की कि वह सार्वजनिक सत्र में शामिल नहीं हुआ या कोई याचिका दायर नहीं की क्योंकि उसका मानना ​​​​था कि न्यायालय में अधिकार क्षेत्र का अभाव है। ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड के अनुरोध पर, न्यायालय ने 22 जून 1973 को दो आदेश जारी किए, जिसमें अस्थायी उपायों का संकेत दिया गया था, जिसमें यह भी शामिल था कि फ़्रांस को ऐसे न्यूक्लियर परीक्षणों को रोकना चाहिए जिनके परिणामस्वरूप ऑस्ट्रेलिया या न्यूज़ीलैंड क्षेत्र पर रेडियोएक्टिव प्रभाव पड़ेगा। ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड सार्वजनिक बयान से संतुष्ट नहीं थे क्योंकि किसी ने भी फ्रांस को अपना विचार बदलने और वायुमंडलीय न्यूक्लियर परीक्षण जारी रखने से नहीं रोका। न्याय की अंतरराष्ट्रीय अदालत ने उनकी दूसरी अपील को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि फ्रांसीसी घोषणा ने पहले ही वह हासिल कर लिया है जो ऑस्ट्रेलिया चाहता था, यानी की न्यूक्लियर परीक्षण का अंत।

“न्यायालय ने फ्रांसीसी कथन की विश्वसनीयता का निर्धारण करने के लिए पैक्टा सन सर्वांडा के सिद्धांत का उपयोग किया (अर्थात वादों को अवश्य बनाए रखा जाना चाहिए)। अंतर्राष्ट्रीय सहयोग में विश्वास ही सबसे महत्त्वपूर्ण तत्व है, विशेष रूप से ऐसे युग में जब विभिन्न विषयों में सहयोग तेजी से महत्वपूर्ण होता जा रहा है। नतीजतन, इच्छुक राज्य एकतरफा घोषणाओं पर ध्यान दे सकते हैं और उन पर अपना भरोसा रख सकते हैं, और उन्हें यह मांग करने का अधिकार है कि इस प्रकार गठित दायित्व का सम्मान किया जाए।”

2. ऑल पाकिस्तान सी.एन.जी. एसोसिएशन बनाम पाकिस्तान स्टेट ऑयल कंपनी लिमिटेड (2015)

ऑल पाकिस्तान सी.एन.जी. एसोसिएशन बनाम पाकिस्तान स्टेट ऑयल कंपनी लिमिटेड के मामले में, पक्षों ने सी.एन.जी. लाइसेंस समझौते में प्रवेश किया था और उक्त समझौते के खंड 17 के अनुसार, ए.पी.सी.एन.जी.ए. ने विवाद को पक्षों की सहमति से नियुक्त मध्यस्थ को संदर्भित किया, जो पक्षों की आपत्तियों को सुनने और उनके साक्ष्य को उचित रूप से जोड़ने का अवसर प्रदान करेगा और उसमे अंततः अवॉर्ड की घोषणा की गई थी, जिसके बाद याचिकाकर्ता ने इसे न्यायालय के नियम के रूप में बनाने के लिए एक याचिका दायर की, जबकि, उक्त अवॉर्ड से पीड़ित प्रतिवादियों ने इसे रद्द करने के लिए मध्यस्थता याचिका संख्या 20/2010 दायर की थी। 

“पैक्टा सन सर्वांडा इंगित करता है कि समझौतों का सम्मान किया जाना चाहिए यदि निजी संविदा खंड पक्षों के बीच शासी कानून हैं और उन्हें यथासंभव अधिकतम सीमा तक बरकरार रखा जाना चाहिए। अनुबंध की शुचिता (सैंक्टीटी) बनाए रखने के लिए हर संभव प्रयास किया जाना चाहिए।”

विजिलेंटिबस नॉन डॉर्मिएंटिबस इयर सबवेनियंट

शाब्दिक अर्थ 

इस कानूनी कहावत का अर्थ है कि कानून उन लोगों की सहायता करता है जो अपने अधिकारों के प्रति सचेत होते हैं न कि उन लोगों की जो अपने अधिकारों से अनजान होते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि जो व्यक्ति अपने अधिकारों के प्रति गैर-जिम्मेदार हैं, उन्हें कानून द्वारा मदद नहीं मिल सकती। यह दावा करने के लिए कि कोई अपने अधिकार का प्रयोग कर रहा है, उस व्यक्ति को उन अधिकारों के बारे में भी पता होना चाहिए। एक व्यक्ति जो वैधानिक अवधि के दौरान चुप रहने का विकल्प चुनता है, वह अपने अधिकारों को लागू करने का दावा करने में असमर्थ होता है।

विजिलेंटिबस नॉन डॉर्मिएंटिबस इयर सबवेनियंट की व्याख्या

परिसीमा (लिमिटेशन) अधिनियम, 1963 इस अवधारणा की सबसे स्पष्ट अभिव्यक्ति है। अनिवार्य रूप से, यदि किसी अपराध को किया गया माना जाता है, तो पीड़ित व्यक्ति को परिसीमा अधिनियम, 1963 द्वारा परिभाषित ‘निर्धारित अवधि’ के भीतर कानूनी कार्रवाई करनी चाहिए। अन्यथा, शिकायत को खारिज किया जा सकता है। कानूनी भाषा में, कानूनी अधिकार का दावा करने वाले लोगों को इसे लागू करने में सतर्क रहना चाहिए। इसके विपरीत भी सच है, जो लोग दावा करते हैं कि उनके साथ अन्याय हुआ है, उन्हें जल्द से जल्द अपना दावा दायर करना चाहिए। उदाहरण के लिए, यदि X दहेज के कारण अपने पति और परिवार द्वारा दुर्व्यवहार का शिकार हुई है, तो वह शादी के सात साल बाद निवारण की मांग नहीं कर सकती है। 

इस कानूनी कहावत के आधार पर न्यायिक निर्णय उनसे संबंधित कुछ प्रसांगिक पैराग्राफ

  1. कॉन्ट्रैक्ट फ़ॉरवर्डिंग (पी.टी.वाई.) लिमिटेड बनाम चेस्टरफिन (पी.टी.वाई) लिमिटेड और अन्य (2002)

कॉन्ट्रैक्ट फ़ॉरवर्डिंग (पी.टी.वाई.) लिमिटेड बनाम चेस्टरफिन (पी.टी.वाई) लिमिटेड और अन्य के मामले में एक कॉन्करसस क्रेडिटोरियम के कामकाज के प्रकाश में, जो एक लेनदार को अन्य लेनदारों की हानि के लिए अपनी स्थिति को आगे बढ़ाने से रोककर दिवालिया (इंसोलवेंट) की स्थिति को क्रिस्टलाइज करता है, इस मामले में मुद्दा एक अस्थायी आदेश पर पर्यवेक्षण परिसमापन (सुपरवेनिंग लिक्विडेशन) के प्रभाव से संबंधित है जो चल सम्पत्ति पर एक सामान्य नोटरी बॉन्ड को पूरा करने के लिए लेनदार को अनुमति देता है।

“अगर मैं लैटिन, विजिल्टीबस नॉन डॉर्मिएंटिबस यूरा सबवेनियंट का उपयोग कर सकता हूं, जिसका अर्थ है कि नियम उन लोगों को लाभान्वित करते हैं जो अपने अधिकारों से अनजान रहने के बजाय सतर्क रहते हैं। (दोनों अवधारणाएं न्यायालय के ‘निष्पक्ष और न्यायसंगत’ सिद्धांत की तुलना में सही निष्कर्ष के लिए अधिक विश्वसनीय मार्गदर्शक हैं।) यह तथ्य कि सतर्क व्यक्ति अपने अधिकारों को पहले पूर्ण करता है, ‘भाग्यशाली’ है, लेकिन यह कार्य को अन्यायपूर्ण या असमान नहीं बनाता है।”

निष्कर्ष

विभिन्न अदालती प्रक्रियाओं और अन्य क्षेत्रों में नियमित आधार पर कई अलग-अलग कानूनी कहावतों को नियोजित किया जाता है। नतीजतन, एक कानूनी कहावत को एक बयान के रूप में परिभाषित किया जाता है जो एक कानूनी कहावत, प्रस्ताव या धारणा को स्पष्ट करता है। सैकड़ों कानूनी कहावतें हैं जो उन परिस्थितियों के संबंध में अपनाई जाती हैं जिनमें उन्हें लागू किया जाना है। हालांकि इस लेख में उन सभी कानूनी कहावतों का उल्लेख नहीं है जो वर्तमान में मौजूद हैं, यह महत्वपूर्ण और अक्सर उपयोग किए जाने वालो को कवर करने का इरादा रखता है।

संदर्भ 

  • All Pakistan CNG Association v. Pakistan State Oil Company Ltd. (17.04.2015 – HIPK): LEX/HIPK/0431/2015

 

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