सीपीसी की धारा 9 का विश्लेषण

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Ciuil Procedure Code
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यह लेख नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी ओडिशा से Indrasish Majumder and Akshita Singh द्वारा लिखा गया है। इस लेख में लेखक ने सिविल प्रक्रिया संहिता (सीपीसी) की धारा 9 के बारे में विस्तार से बताया है। इस लेख का अनुवाद Archana Chaudhary द्वारा किया गया है।

परिचय

सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 9 भारत में सिविल न्यायालयों के क्षेत्राधिकार (ज्यूरिसडिक्शन) की व्याख्या करती है। धारा में यह प्रावधान है कि निहित या स्पष्ट रूप से वर्जित संज्ञान (कॉग्नाइजेंस) को छोड़कर, एक न्यायालय के पास सिविल प्रकृति के सभी मुकदमों पर निर्णय लेने का क्षेत्राधिकार होगा। किसी वाद पर क्षेत्राधिकार का प्रयोग करने के लिए सिविल न्यायालय के लिए दो शर्तों को पूरा करना आवश्यक है: 

  1. वाद सिविल होना चाहिए
  2. इस तरह के एक वाद के लिए संज्ञान निहित या स्पष्ट रूप से वर्जित ((एक्सप्रेसली एंड इम्प्लाइडली बार्ड) नहीं होना चाहिए।

किसी भी अधिनियम में सिविल वाद को परिभाषित नहीं किया गया है। गैर-आपराधिक प्रकृति का कोई भी वाद जो सिविल अधिकारों की पुष्टि या निर्धारण करता है, उसे सिविल वाद कहा जा सकता है। सर्वोच्च न्यायालय ने केहर सिन्हा निहाल सिंह बनाम कस्टोडियन जनरल में एक सिविल कार्यवाही की परिभाषा को निगमों या मनुष्यों के निजी अधिकारों के अनुमोदन (एप्रोबेशन) के रूप में बताया है। निजी संपत्ति के लिए इनाम या पुनर्प्राप्ति (रिट्रीवल) एक सिविल कार्रवाई का उद्देश्य है। एक सिविल कार्रवाई, दूसरे शब्दों में, निजी अधिकारों के निवारण, निर्धारण या कार्यान्वयन (इंप्लीमेंटेशन) के लिए दो पक्षों के बीच कानूनी कार्यवाही के रूप में परिभाषित की जा सकती है।

नागरिकों के निजी अधिकार और दायित्व सिविल प्रकृति के वाद के अंतर्गत आते हैं। एक राजनीतिक या धार्मिक प्रश्न पर एक सिविल वाद दायर नहीं की जाएगी। हालांकि, यदि किसी मुकदमे में विवादास्पद (मूट) प्रश्न संपत्ति से संबंधित है और जाति या धर्म से जुड़े कुछ सहायक प्रश्न हैं, तो जाति या धार्मिक संस्कार से संबंधित निर्णय वाद को सिविल प्रकृति का होने से समाप्त नहीं करेगा। न्यायालयों के पास सिविल मामलों पर निर्णय लेने का क्षेत्राधिकार है।

सिद्धांत का प्रत्येक वाक्यांश अधिकारों के आवंटन (एलोकेशन) के उद्देश्य के लिए अपने क्षेत्राधिकार को लागू करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय के कर्तव्य की पुष्टि करता है। यदि किसी विशेष मामले में धारा 9 के तहत आवश्यकताओं को पूरा किया जाता है, तो कोई भी न्यायालय संबंधित मामले की जांच करने से इनकार नहीं कर सकती है। सिविल शब्द की परिभाषा इसे किसी नागरिक या व्यक्ति से संबंधित करती है। किसी व्यक्ति/वस्तु के निहित गुणों को उसकी प्रकृति कहा जा सकता है। सिविल कार्यवाही वाक्यांश की तुलना में वाक्यांश सिविल प्रकृति अधिक व्यापक है। पी.एम.ए मेट्रोपॉलिटन बनाम एम.एम मार्थोमा में सर्वोच्च न्यायालय ने क्षेत्राधिकार शब्द का अर्थ स्पष्ट किया था। न्यायालय ने देखा कि धारा की प्रकृति सकारात्मक और नकारात्मक दोनों वाक्यांशविज्ञान (फ्रेसियोलॉजी) के उपयोग से प्रदर्शित होती है और इस्तेमाल की जाने वाली भाषा सरल लेकिन साफ और स्पष्ट है। यह एक सभ्य न्यायशास्त्र (ज्यूरिस्प्रूडेंस) जो अधिकारों को लागू करने के लिए मशीनरी के अभाव में इसे बेकार बना देता है के आधार पर संरचित है। शीर्षक जो सामान्य रूप से धारा की कुंजी है, स्पष्ट रूप से सामने लाता है कि सभी सिविल वाद जब तक कि वर्जित न हो संज्ञेय हैं। इसका क्या अर्थ है, इसे और स्पष्ट किया गया है, जब तक कि स्पष्ट रूप से या निहित रूप से वर्जित न हो, तब तक ‘होगा’ शब्द का उपयोग करके और सिविल प्रकृति के सभी वादों को व्यक्त करके धारा के दायरे का विस्तार किया जा सकता है।

शब्दों और अभिव्यक्तियों सहित वाक्यांश न्यायालय को अधिकारों के आवेदन के उद्देश्य से अपने क्षेत्राधिकार का उपयोग करने के लिए बाध्य करते हैं। आगे “होगा” शब्द का उपयोग अनिवार्य है। जब तक कोई मुकदमा धारा में वर्णित प्रकृति से संबंधित है, उसे न्यायालय द्वारा अस्वीकार नहीं किया जा सकता है। ‘सिविल प्रकृति के सभी वादों’ की अभिव्यक्ति इस कर्तव्य को बढ़ाती है। उपरोक्त तर्क की शंकर नारायणन बनाम के. श्रीदेवी के मामले में फिर से पुष्टि की गई, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय ने देखा कि सिविल न्यायालय का सीपीसी की धारा 9 के अनुसार सभी प्रकार के सिविल मामलों में जब तक कि कार्रवाई स्पष्ट रूप से या निहित रूप से वर्जित न हो में प्राथमिक क्षेत्राधिकार है। निर्णय में निहित है कि एक सिविल न्यायालय के क्षेत्राधिकार को विधायिका द्वारा अधिनियम में संशोधन या अपने आप में एक प्रावधान जोड़कर हटाया जा सकता है।  न्यायालय को श्री पंचनगर बनाम पुरुषोत्तम दास के मामले में निर्देश दिया गया था कि यदि किसी क़ानून में किसी विशिष्ट शर्तों की कमी है, तो किसी भी डिज़ाइन, योजना, या क़ानून के उपयुक्त प्रावधानों में उल्लिखित सिविल न्यायालयों के क्षेत्राधिकार की एक निहित बर्खास्तगी का पता लगाने के लिए आदेश दिया गया था।  

इसलिए, एक वाद जो संपत्ति के सवाल से संबंधित है, सिविल प्रकृति का एक वाद है, भले ही इस तरह के वाद में धार्मिक समारोहों या अनुष्ठानों से संबंधित प्रश्न शामिल हो सकते हैं और शिकायतकर्ता के पास सिविल वाद शुरू करने का अधिकार है जब तक कि उसका  क्षेत्राधिकार “स्पष्ट रूप से या निहित रूप से” न्यायालय द्वारा निषिद्ध न हो। न्यायालय के क्षेत्राधिकार को साबित करने का भार उन पक्षों पर है जो इसे खारिज करने का प्रयास करते हैं। न्यायालय के क्षेत्राधिकार को खारिज करने वाले क़ानून को अच्छी तरह से समझाया और स्थापित किया जाना चाहिए। यदि इसके बारे में कोई संदेह है तो न्यायालय को क्षेत्राधिकार के सिद्धांत का उल्लेख करना चाहिए। जबकि एक सिविल न्यायालय अपने क्षेत्राधिकार से संबंधित एक वाद पर फैसला करने के लिए अधिकृत (ऑथराइज) है, हालांकि, यह स्थापित किया जा सकता है कि न्यायालय के पास मामले का फैसला करने का क्षेत्राधिकार नहीं है।

परियोजना एक व्यापक और विश्लेषणात्मक तरीके से धारा 9 की कई बारीकियों को समझने का प्रयास करती है। धारा के तहत कई महत्वपूर्ण अवधारणाओं को बेहतर ढंग से समझने की दृष्टि से, परियोजना इस मुद्दे पर कई महत्वपूर्ण निर्णयों के साथ धारा 9 का विश्लेषण प्रस्तुत करती है। लेखक धारा पर अपनी अंतर्दृष्टि और टिप्पणियां प्रदान करके समाप्त करते हैं। 

धारा 9 के तहत महत्वपूर्ण अवधारणाएं 

क्षेत्राधिकार

कानून की दुनिया में, पहला बिंदु जो एक वकील को साबित करना होता है, वह यह है कि जिस न्यायालय में उसके द्वारा संपर्क किया गया है, उसके पास वाद को चलाने का क्षेत्राधिकार है। हालांकि, न तो प्रक्रियात्मक और न ही वास्तविक कानून यह वर्णन करने का प्रयास करते हैं कि क्षेत्राधिकार शब्द का अर्थ क्या है। क्षेत्राधिकार को अंग्रेजी में ज्यूरिस्डिक्शन कहा जाता है जिसे लैटिन वाक्यांश “ज्यूरिस” जिसका अर्थ कानून और डिसेरे जिसका अर्थ “बोलना” है, से निकाला गया है। सरल शब्दों में, इसे किसी मामले को तय करने या डिक्री जारी करने के लिए न्यायालय की शक्ति के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। एक  न्यायालय को वाद के लिए क्षेत्राधिकार कहा जाता है जब उसके पास न केवल वाद की सुनवाई करने की शक्ति होती है, बल्कि उसके संबंध में आदेश या डिक्री भी पास करने की शक्ति होती है।

वर्ष 1928 में, कलकत्ता उच्च न्यायालय ने हृदय नाथ रॉय बनाम अखिल चंद्र रॉय के मामले में क्षेत्राधिकार शब्द का अर्थ समझाने का प्रयास किया था, न्यायालय ने कहा कि क्षेत्राधिकार न्यायालय की शक्ति है जो किसी कारण को सुनने और निर्धारित करने, उसके संबंध में न्याय करने और न्यायिक शक्तियों का प्रयोग करने की शक्ति है। इसने आगे बढ़कर तीन अलग-अलग श्रेणियों के क्षेत्राधिकार का सीमांकन (डिमार्केटेड) किया:

  1. विषय वस्तु क्षेत्राधिकार (सब्जेक्ट मैटर ज्यूरिसडिक्शन) – विषय वस्तु का तात्पर्य किसी विशेष प्रकृति के मुख्य या मौलिक मामले से है जो प्रश्न के अधीन है। विषय वस्तु क्षेत्राधिकार अनिवार्य रूप से बताता है कि क्या न्यायालय के पास विचाराधीन विषय पर विचार करने का अधिकार है। यह मुख्य रूप से निर्दिष्ट करता है कि क्या न्यायालयों को एक निश्चित प्रकृति के मामलों की सुनवाई करने की अनुमति है। यदि ऐसा नहीं, तो न्यायालय उस विशेष मामले की सुनवाई नहीं कर सकती हैं। 
  2. आर्थिक क्षेत्राधिकार (पिक्यूनियरी ज्यूरिसडिक्शन)– आर्थिक का तात्पर्य पूंजी से संबंधित है। इसका मतलब एक निश्चित मौद्रिक मूल्य (मॉनेटरी वैल्यू) है। एक न्यायालय की कुछ वित्तीय सीमाएँ हो सकती हैं जिनका न्यायालयों को पालन करना चाहिए और जिसके आगे न्यायालय मामले की सुनवाई नहीं कर सकती हैं। आर्थिक क्षेत्राधिकार स्थापित करने का प्राथमिक उद्देश्य उच्च न्यायालयों पर बोझ भड़ाने से रोकना और साथ ही पक्षों को सहायता प्रदान करना है।
  3. क्षेत्रीय क्षेत्राधिकार (टेरिटोरियल ज्यूरिसडिक्शन) – इसे स्थानीय क्षेत्राधिकार के रूप में भी जाना जाता है, क्षेत्रीय क्षेत्राधिकार न्यायालय के अधिकार की भौगोलिक सीमा (ज्योग्राफिकल लिमिट) निर्धारित करता है। यह सुनिश्चित करता है कि न्यायालयों की ऐसी सीमाओं को स्पष्ट रूप से और विशेष रूप से स्पष्ट किया गया है। कोई भी न्यायालय उन मामलों की सुनवाई के लिए अधिकृत नहीं है जो उनकी संबंधित क्षेत्रीय सीमा के बाहर मौजूद हैं।

उपरोक्त तीन वर्गीकरणों के अलावा, क्षेत्राधिकार मूल (ओरिजिनल), और अपीलीय क्षेत्राधिकार या अनन्य (एक्सक्लूसिव) और समवर्ती क्षेत्राधिकार (कंकर्रेंट ज्यूरिसडिक्शन) के आधार पर भी विभाजित हैं। इसके अतिरिक्त, न्यायालय का क्षेत्राधिकार बचाव पक्ष की दलीलों पर नहीं बल्कि शिकायत में लगाए गए आरोपों के आधार पर तय होता है। क्षेत्राधिकार की कमी वाले न्यायालय द्वारा पास एक आदेश रद्द कर दिया जाता है और कानून द्वारा लागू नहीं किया जा सकता है। जब सिविल न्यायालयों की बात आती है तो वे सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 द्वारा शासित होते हैं, जो प्रक्रियात्मक कानून है। सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 की धारा 9 के तहत सिविल न्यायालयों के क्षेत्राधिकार से निपटा जाता है।

सिविल प्रकृति के वाद

सिविल शब्द कार्रवाई द्वारा मांगे गए अधिकारों और उपचारों को दर्शाता है। यह एक ऐसे वाद से संबंधित है जो प्रकृति में आपराधिक नहीं है और निजी व्यक्तियों के रूप में माने जाने वाले व्यक्तियों के अधिकारों और गलत कार्यों से संबंधित है। धारा 9 पर एक सरसरी निगाह यह स्पष्ट करती है कि अधिनियम के प्रावधानों के अधीन सभी सिविल न्यायालयों के पास सिविल प्रकृति के सभी वाद की सुनवाई करने का क्षेत्राधिकार है सिवाय इसके कि संज्ञान या तो स्पष्ट रूप से या निहित रूप से वर्जित है। इसलिए, अनिवार्य रूप से सिविल प्रकृति के किसी भी वाद की न्यायालय द्वारा सुनवाई की जा सकती है, जब तक कि यह या तो स्पष्ट रूप से या निहित रूप से वर्जित न हो। इसका तात्पर्य यह है कि कोई भी न्यायालय ऐसे किसी मामले की सुनवाई नहीं कर सकता जो सिविल प्रकृति का नहीं है।  

जैसा कि स्पष्टीकरणों से देखा जा सकता है कि सिविल प्रकृति के वादों का अर्थ एक ऐसे वाद से है जो किसी सिविल वाद के अधिनिर्णय (एड्जूडिकेशन) के लिए विशेष रूप से संपत्ति या कार्यालय के अधिकार को निर्धारित करने के लिए सिविल न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है। शंकर नारायण पोट्टी बनाम के श्रीदेवी के ऐतिहासिक मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि यह स्पष्ट है कि सभी प्रकार के सिविल विवादों में सिविल न्यायालयों को सीपीसी की धारा 9 के अनुसार क्षेत्राधिकार स्पष्ट रूप से या किसी अन्य न्यायाधिकरण https://rb.gy/o0lec9(ट्रिब्यूनल) या प्राधिकरण (अथॉरिटी) को प्रदत्त (कॉन्फर) किसी वैधानिक (स्टेच्यूटरी) प्रावधान द्वारा आवश्यक निहितार्थ (इंप्लीकेशन) द्वारा विरासत में मिला है, जब तक कि क्षेत्राधिकार का एक हिस्सा इस तरह से तैयार नहीं किया जाता है।

स्पष्ट रूप से या निहित रूप से वर्जित 

  1. स्पष्ट रूप से वर्जित वाद – कुछ समय के लिए लागू एक अधिनियम द्वारा वर्जित वाद को स्पष्ट रूप से वर्जित कहा जाता है। एक सक्षम विधायिका सिविल प्रकृति के वादों के एक विशेष वर्ग के संबंध में सिविल न्यायालयों  के क्षेत्राधिकार पर रोक लगा सकती है, बशर्ते कि ऐसा करने में वह खुद को उस पर प्रदत्त कानून के क्षेत्र में रखता है और संविधान के किसी प्रावधान का उल्लंघन नहीं करता है। इसलिए, किसी वाद को तब स्पष्ट रूप से वर्जित कहा जाता है, जब वह उस समय लागू क़ानून द्वारा निषिद्ध हो।
  2. निहित रूप से वर्जित वाद – कानून के सामान्य सिद्धांतों द्वारा वर्जित वाद को निहित रूप से वर्जित कहा जाता है। जहां क़ानून एक विशिष्ट उपाय प्रदान करता है, वह व्यक्ति को किसी अन्य रूप के उपाय से वंचित करता है। इसी प्रकार, लोक नीति (पब्लिक पॉलिसी) के आधार पर सिविल वादों को भी सिविल न्यायालय के संज्ञान से प्रतिबंधित कर दिया गया है। जब किसी वाद को विधि के सामान्य सिद्धांतों द्वारा अपवर्जित (एक्सक्लूड) कहा जाता है तो उसे निहित रूप से वर्जित कहा जाता है। जब क़ानून द्वारा एक विशिष्ट उपाय दिया जाता है, तो यह उस व्यक्ति से इनकार करता है जिसे क़ानून द्वारा दिए गए किसी भी भिन्न रूप के उपाय की आवश्यकता होती है।

राजा राम कुमार भार्गव बनाम भारत संघ में, सर्वोच्च न्यायालय ने सिविल न्यायालय के क्षेत्राधिकार के निहित बहिष्कार के निर्धारण के लिए कुछ महत्वपूर्ण विचार निर्धारित किए। वो हैं: 

  • क्या एक अधिकार, जो सामान्य कानून में पहले से मौजूद नहीं है, एक क़ानून द्वारा बनाया गया है।
  • उस क़ानून ने ही उस अधिकार को लागू करने के लिए मशीनरी प्रदान की है।
  • अधिकार और उपचार दोनों को एक समान बनाया गया है।
  • अंतिम रूप से वैधानिक कार्यवाही का परिणाम होने का इरादा है।

जब तक प्रासंगिक (रेलीवेंट) क़ानून स्पष्ट रूप से एक प्रावधान को शामिल नहीं करता है या एक अपरिहार्य (इनएविटेबल)/ आवश्यक निहितार्थ को इंगित नहीं करता है, जिसमें कहा गया है कि सिविल न्यायालयों के क्षेत्राधिकार को तत्काल मामले की सुनवाई के लिए बाहर रखा गया है तो इसे सिविल न्यायालयों के क्षेत्राधिकार का बहिष्कार नहीं माना जाएगा। सामान्य नियम में कहा गया है कि एक सिविल न्यायालय में वाद चलाने के अधिकार के अस्तित्व के पक्ष में अनुमान लगाया जाएगा, जबकि इसका बहिष्कार एक अपवाद (एक्सेप्शन) माना जाएगा। यदि किसी सिविल न्यायालय के क्षेत्राधिकार को हटाने के संबंध में कोई संदेह है, तो न्यायालय एक व्याख्या करेगा जो क्षेत्राधिकार को बनाए रखेगा।

धारा के तहत प्रासंगिक अधिकार

यह धारा अपने दायरे में तीन महत्वपूर्ण अधिकारों को शामिल करती है। पहला है संपत्ति का अधिकार। इस अधिकार का तात्पर्य चल (मूवेबल), अचल (इम्मूवेबल), बौद्धिक (इंटेलेक्चुअल), विरासत में मिली संपत्ति है जो किसी अनुबंध, समझौते, मुकदमेबाजी या किसी अन्य सिविल अधिकारों से उत्पन्न होती है। पूर्व के अलावा, कार्यालय का भी अधिकार है, जैसा कि स्पष्टीकरण के तहत दिया गया है। संपत्ति के अधिकार के विपरीत, जो केवल स्वामित्व से संबंधित है, कार्यालय के अधिकार का तात्पर्य है कि दोनों को एक पद प्राप्त करने और बाद में इसका प्रयोग करने का अधिकार है। इसमें नौकरी, धर्म आदि में कोई भी पद शामिल हो सकता है।

जिसने विवाद और बहस को जन्म दिया है, उसमें धर्म के अधिकार को भी सिविल अधिकार घोषित किया गया है। यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि कोई भी वाद जिसका प्राथमिक प्रश्न धर्म या जाति से संबंधित है, सिविल प्रकृति से संबंधित नहीं है। हालांकि, यदि किसी वाद में ऐसा प्रश्न सिविल प्रकृति (संपत्ति या कार्यालय के अधिकार) का है और ऐसा होता है कि निर्णय में संयोग से एक तत्व शामिल होता है जिसमें जाति या धार्मिक संस्कारों और समारोहों से संबंधित विवाद शामिल होता है और उसके लिए एक वाद दायर करता है तो एक सिविल प्रकृति का होना बंद नहीं होता है।

सीपीसी की धारा 9 का विश्लेषण

अनुमान (प्रिजंप्शन) और दायरा

यह एक सामान्य धारणा है कि जब किसी सिविल न्यायालय के समक्ष कोई वाद लंबित (पेंडिंग) होता है, तो उसपर फैसला सुनाने का अधिकार भी होगा। यदि कोई पक्ष न्यायालय की क्षमता को चुनौती देना चाहता है, तो उसे संबंधित अधिकारियों के साथ यह साबित करना होगा कि ऐसा क्यों है और इस तरह के दावों को प्रथम दृष्टया (प्राइमा फैसी) तथ्य के अवलोकन पर स्वीकार नहीं किया जाता है। इसके अलावा, भले ही विशेष दावे को सुनने के लिए न्यायालय की अक्षमता का दावा हो, न्यायालय अभी भी उन मामलों के लिए क्षेत्राधिकार का प्रयोग कर सकती है जहां वैधानिक निकायों या न्यायाधिकरण ने अपने क्षेत्राधिकार से परे मामलों की सुनवाई की है।

यह बिल्कुल स्पष्ट है कि सीपीसी की धारा 9 में वाद की सुनवाई के लिए न्यायालय का क्षेत्राधिकार शामिल है। हालांकि, यह ध्यान रखना उचित है कि दो आवश्यक पूर्वापेक्षाएँ (प्रीरिक्विसाइट) हैं जिन्हें वाद की सुनवाई से पहले पूरा करने की आवश्यकता है।

  • सबसे पहली, कार्रवाई का कारण (कॉज ऑफ एक्शन) होना चाहिए। यह साबित किए बिना कि कार्रवाई का एक उचित कारण था, वाद को सरसरी (समरिली) तौर पर खारिज किया जा सकता है। इसके अतिरिक्त, न्यायालयों ने यह राय दी है कि अस्थायी निषेधाज्ञा (टेंपरेरी इनजंक्शन) के लिए वाद चलने योग्य नहीं है।
  • दूसरी, प्रतिवादी पर मुकदमा चलाने के लिए वादी के एक अंतर्निहित (इन्हेरेंट) अधिकार की आवश्यकता होती है। यह ध्यान देने योग्य है कि सामान्य कानून इसे सभी व्यक्तियों को एक वाद दायर करने के लिए एक अंतर्निहित अधिकार के रूप में प्रदान करता है। हालांकि, यह अपील के मामलों में भिन्न होगा क्योंकि अपील के मामले में ऐसे वैधानिक प्रावधान हैं जो यह नियंत्रित करते हैं कि कौन अपील कर सकता है और कौन नहीं, लेकिन वाद स्थापित करने के मामले में ऐसा नहीं है।

इसके अलावा, जिन सिद्धांतों को लागू किया जाना है, उन्हें माननीय सर्वोच्च न्यायालय की एक संविधान पीठ (कांस्टीट्यूशनल बेंच) द्वारा बहुत स्पष्ट रूप से निर्धारित किया गया है जिसमें धारा 9 के उद्देश्य और दायरे पर चर्चा की गई है।

क्षेत्राधिकार के बहिष्करण से संबंधित सीमाएं

सामान्य धारणा बताती है, सिविल न्यायालयों के पास किसी भी वाद की सुनवाई का क्षेत्राधिकार है और अभियोजन (प्रॉसिक्यूशन) पक्ष के पास जब तक कि स्पष्ट रूप से या निहित रूप से वर्जित न हो किसी भी क़ानून से स्वतंत्र सिविल न्यायालय में सिविल प्रकृति का वाद शुरू करने की शक्ति है। हालांकि, उपर्युक्त नियम अपवादों के बिना नहीं है। एक न्यायालय के पास यह निर्णय लेने का अधिकार है कि क्या अधिनियम और उसके तहत दिए गए नियमों के प्रावधानों का पालन किया गया है या नहीं, यदि आदेश कानून के विपरीत है, दुर्भावनापूर्ण, अल्ट्रा वायर्स, विकृत, मनमाना, कथित है या है प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के विपरीत कोई सबूत नहीं है का नियम आदि पर आधारित है या नहीं। सेक्रेटरी ऑफ स्टेट बनाम मास्क एंड कंपनी में प्रिवी काउंसिल ने टिप्पणी की कि यह स्थापित कानून है कि सिविल न्यायालयों के क्षेत्राधिकार का स्पष्ट रूप से अनुमान नहीं लगाया जाना चाहिए, लेकिन किसी भी क़ानून द्वारा स्पष्ट रूप से वर्जित या स्पष्ट रूप से व्यक्त किया जाना चाहिए। न्यायालय ने आगे कहा कि सिविल न्यायालयों को उन मामलों की जांच करने का अधिकार है जो न्यायिक प्रक्रिया के मौलिक सिद्धांतों का पालन नहीं कर सकते हैं।

आंध्र प्रदेश राज्य बनाम मंजेत लक्ष्मीकांत राव में, सर्वोच्च न्यायालय ने सिविल न्यायालयों के क्षेत्राधिकार के उन्मूलन (एलिमिनेशन) की जांच की थी। सबसे पहले, न्यायालय को सीधे या निहित रूप से वाद को हटाने के विधायी इरादे पर फैसला करने की जरूरत है। जबकि न्यायालय सिविल न्यायालयों के क्षेत्राधिकार के बहिष्कार के कारणों को समझने और उसी के लिए स्पष्टीकरण खोजने के लिए बाध्य हैं, कारण न्यायिक जांच के अधीन नहीं है। इसके बाद, न्यायालय को कारणों से आश्वस्त होने के बाद इस पर विचार करने की आवश्यकता है कि क्या क्षेत्राधिकार को प्रतिबंधित करने वाला क़ानून वैकल्पिक उपाय की अनुमति देता है। यदि कोई वैकल्पिक उपाय नहीं बताया गया है तो सिविल न्यायालय के क्षेत्राधिकार को समाप्त नहीं किया जा सकता है। हालांकि, बलावा बनाम हसनबी में, यह कहा गया था कि एक सिविल न्यायालय के क्षेत्राधिकार को केवल एक क़ानून द्वारा स्थापित न्यायाधिकरण से संबंधित उस हद तक बाहर रखा गया है जब न्यायाधिकरण द्वारा अनुमोदित समर्थन पर सवाल उठाया जाता है।

न्यायमूर्ति सुब्बाराव ने राधा किशन बनाम लुधियाना नगर पालिका के मामले में, सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 9 के तहत न्यायालयों के क्षेत्राधिकार से संबंधित उचित कानूनी स्थिति की गणना की, न्यायालय के पास सिविल प्रकृति के सभी वादों पर सुनवाई करने का क्षेत्राधिकार होगा, उन वादों को छोड़कर जिनमें संज्ञान या तो स्पष्ट रूप से या निहित रूप से वर्जित है। इसलिए, एक क़ानून, स्पष्ट रूप से या आवश्यक निहितार्थ से किसी विशेष मामले के संबंध में सिविल न्यायालयों के क्षेत्राधिकार को रोक सकता है। उक्त मामले के संबंध में किसी न्यायाधिकरण को केवल विशेष क्षेत्राधिकार प्रदान करना अपने आप में सिविल न्यायालयों के क्षेत्राधिकार को बाहर नहीं करता है। क़ानून विशेष रूप से सिविल न्यायालयों के क्षेत्राधिकार को हटाने के लिए प्रदान कर सकता है; भले ही ऐसा कोई विशिष्ट बहिष्करण नहीं था, यदि यह पहले से मौजूद नहीं है और पीड़ित पक्ष के लिए एक विशेष उपाय देता है, तो उसके द्वारा प्रदान किए गए उपाय का पालन किया जाना चाहिए। यही सिद्धांत लागू होगा यदि क़ानून उस विशेष मंच के लिए प्रदान करता है जिसमें उपाय किया जा सकता है। ऐसे मामलों में भी, सिविल न्यायालय के क्षेत्राधिकार को पूरी तरह से हटाया नहीं जाता है। सिविल न्यायालय में एक वाद हमेशा क़ानून द्वारा बनाए गए न्यायाधिकरण के आदेश पर सवाल उठाएगा, भले ही उसका आदेश स्पष्ट रूप से या आवश्यक निहितार्थ से अंतिम हो, यदि उक्त न्यायाधिकरण अपनी शक्ति का दुरुपयोग करता है या अधिनियम के तहत कार्य नहीं करता है।

ऐतिहासिक फैसलों पर एक नजर

उपरोक्त चर्चा स्पष्ट करती है कि सिविल न्यायालयों का क्षेत्राधिकार तब तक सर्वव्यापी (एनकंपासिंग) है जब तक कि कानून द्वारा या ऐसे कानून से उत्पन्न होने वाले इरादों को स्पष्ट रूप से बाहर नहीं किया जाता है। 

धूलाभाई बनाम मध्य प्रदेश राज्य

न्यायमूर्ति हिदायतुल्ला ने धूलाभाई बनाम मध्य प्रदेश राज्य के मामले में सिविल न्यायालयों  के क्षेत्राधिकार के बहिष्कार से संबंधित कुछ सिद्धांतों की गणना की थी। उपरोक्त मामले के निर्धारित तथ्य और सिद्धांत नीचे सूचीबद्ध हैं: 

  • तथ्य

इस मामले में अपीलकर्ता उज्जैन में काम कर रहे तंबाकू के कारोबारी थे। धूम्रपान, खाने और बीड़ी बनाने के लिए तंबाकू खरीदा और बेचा जाता है। इसी दौरान 1 मई 1950 को मध्य भारत बिक्री कर (सेल्स टैक्स) अधिनियम, 1950 की गणना की गई। अधिनियम की धारा 3 के अनुसार, प्रत्येक कारोबारी जिसका व्यवसाय पिछले वर्ष में 12,000 रुपये से अधिक हो गया था, बिक्री से संबंधित कर का भुगतान करने के लिए उत्तरदायी था। यह अधिनियम की धारा 5 के तहत स्पष्ट किया गया था, कर एक बिंदु प्रकृति का था, और निर्दिष्ट प्रावधान सरकार बिक्री के बिंदु को इंगित करने के लिए उत्तरदायी है जब कर का भुगतान किया जाना था। धारा ने कर के अधिकतम और न्यूनतम स्तर को निर्दिष्ट किया है, जिससे संबंधित सरकार को वास्तविक दर तय करने की अनुमति मिलती है। सरकार द्वारा अप्रैल 1950 से जनवरी 1954 तक अनेक अधिसूचनाएँ जारी की गईं जिनमें ऊपर वर्णित अनुसार तम्बाकू पर विभिन्न दरों पर कर लगाया गया। हालांकि, उपरोक्त दर पर कर एकत्र नहीं किया गया था। मध्य प्रदेश में तंबाकू की खरीद-बिक्री पर कर नहीं लगाया जाता था। कर वादी से अलग-अलग तिमाहियों के लिए अलग-अलग मात्रा में अधिकारियों द्वारा जमा किया गया था। वादी ने सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 80 के तहत नोटिस जारी करते हुए स्पष्ट किया कि 2 महीने के नोटिस के पूरा होने तक सरकारी अधिकारी/सरकार के खिलाफ कोई वाद नहीं चलाया जा सकता है।

  • सिद्धांतों का निर्धारण

  1. जहां अंतिम रूप से विशेष न्यायाधिकरणों के आदेशों के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता है, सिविल न्यायालयों के क्षेत्राधिकार को बाहर रखा गया माना जाता है यदि सामान्य रूप से एक वाद में सिविल न्यायालय हालांकि, ऐसे मामले जिनमें किसी विशेष अधिनियम के प्रावधानों का पालन नहीं किया गया है या न्यायिक प्रक्रिया के मौलिक सिद्धांतों का पालन वैधानिक न्यायाधिकरण द्वारा नहीं किया गया है, को प्रावधान द्वारा बाहर रखा गया है।
  2. जहां एक न्यायालय के क्षेत्राधिकार में एक स्पष्ट प्रतिबंध मौजूद है, किसी विशेष अधिनियम की योजना की जांच करके प्रदान किए गए उपायों की तर्कसंगतता (रीजनेबलनेस) और पर्याप्तता (सफिशिएंसी) को खोजने के लिए प्रासंगिक माना जा सकता है लेकिन सिविल न्यायालय के क्षेत्राधिकार को संरक्षित करने के लिए अनिर्णायक (इनडिसाइसिव) माना जा सकता है। हालांकि, जब कोई निश्चित बहिष्कार मौजूद नहीं होता है, तो इरादे को सही करने के लिए किसी विशेष अधिनियम के उपायों और योजना की जांच आवश्यक हो जाती है और जांच का परिणाम निर्णायक हो सकता है। बाद के मामले में यह स्पष्ट करना आवश्यक है कि क्या क़ानून किसी विशेष अधिकार या देनदारियों (लायबिलिटी) की गणना करता है और इसके निर्धारण के लिए प्रदान करता है। क़ानून आगे उसी अधिकार और देनदारियों से संबंधित प्रश्नों की गणना करता है जैसा कि गठित न्यायाधिकरणों द्वारा निर्धारित किया गया है और क्या सिविल न्यायालयों में कार्रवाई से संबंधित उपचार उक्त क़ानून द्वारा निर्धारित किए गए हैं या नहीं किए गए हैं।
  3. किसी विशेष अधिनियम के प्रावधानों को अल्ट्रा वायर्स के रूप में चुनौती देने वाला कोई भी वाद इस अधिनियम के तहत बनाए गए न्यायाधिकरण के समक्ष नहीं लाया जा सकता है। न तो उच्च न्यायालय, न्यायाधिकरणों के निर्णयों के संदर्भ या संशोधन पर इस तरह के प्रश्न पर विचार कर सकते हैं।
  4. एक ऐसे मामले में वाद दायर किया जा सकता है जिसमें प्रावधान की संवैधानिकता पर सवाल उठाया जाता है या असंवैधानिक समझा जाता है।
  5. एक वाद में जहां एक विशेष अधिनियम में अवैध रूप से या संवैधानिक सीमाओं पर एकत्रित कर की वापसी के लिए कोई तंत्र शामिल नहीं होता है वह गलत है।
  6. यदि अधिकारियों के निर्देशों को अंतिम माना जाता है और अधिनियम में एक स्पष्ट निषेध की गणना की जाती है, तो एक सिविल वाद न्यायालय के सामने नहीं लाया जा सकता है। एक आकलन की शुद्धता के बारे में चिंताओं, इसकी संवैधानिकता से संबंधित प्रश्नों को छोड़कर, अपेक्षित अधिकारियों द्वारा तय किया जाता है। जांच की प्रासंगिकता पर विचार करते हुए किसी भी मामले में किसी विशेष अधिनियम की योजना की जांच की जानी चाहिए।
  7. जब तक उपरोक्त शर्तों को पूरा नहीं किया जाता है, तब तक सिविल न्यायालय के क्षेत्राधिकार के बहिष्कार से संबंधित प्रश्नों का अनुमान नहीं लगाया जाना चाहिए। 

क़ानूनों के तहत आदेशों के मूल्यांकन की सटीकता तय करने में प्रगणित (एनुमेरेट) सिद्धांत आवश्यक हैं। 

प्रीमियर ऑटोमोबाइल बनाम के.डी. वाडके

प्रीमियर ऑटोमोबाइल्स बनाम के.डी. वाडके में सर्वोच्च न्यायालय ने सिविल न्यायालयों के क्षेत्राधिकार से संबंधित औद्योगिक विवादों (इंडस्ट्रियल डिस्प्यूट) से संबंधित कुछ निर्देश दिए है। निर्धारित तथ्यों और सिद्धांतों का उल्लेख नीचे किया गया है।

  • तथ्य

यह मामला औद्योगिक विवाद अधिनियम की धारा 18(1) से संबंधित है जो नियोक्ता (एंप्लॉयर) और कर्मचारी के बीच विवाद और क्या इस तरह के विवाद का फैसला सिविल न्यायालय द्वारा किया जा सकता है से संबंधित है। औद्योगिक विवाद सिद्धांतों से संबंधित क्षेत्राधिकार सिविल न्यायालय के पास है। औद्योगिक विवाद अधिनियम की धारा 10 A मध्यस्थता (आर्बिट्रेशन) अधिनिर्णय के लिए सिविल न्यायालयों के क्षेत्राधिकार के बारे में बताती है। 

  • सिद्धांतों का निर्धारण

  1. यदि वाद एक औद्योगिक विवाद नहीं है और यह औद्योगिक विवाद अधिनियम के तहत किसी भी अधिकार के प्रवर्तन के अनुरूप नहीं है, तो यह सिविल न्यायालयों के दायरे में आएगा।
  2. यदि विवाद सार्वजनिक या सामान्य कानून के तहत किसी अधिकार या दायित्व से उत्पन्न होने वाला औद्योगिक संघर्ष है और आईडी अधिनियम के तहत नहीं है, तो सिविल न्यायालय का क्षेत्राधिकार अपीलकर्ता (संबंधित व्यक्ति) द्वारा तय किया जाता है।
  3. यदि औद्योगिक विवाद अधिनियम के तहत उल्लिखित किसी अधिकार या दायित्व के प्रवर्तन से संबंधित है, तो आवेदक को केवल औद्योगिक विवाद अधिनियम के तहत ही समाधान मिल सकता है। 

राजस्थान राज्य सड़क निगम बनाम कृष्णा कांत

सर्वोच्च न्यायालय ने राजस्थान राज्य सड़क निगम बनाम कृष्ण कांत में इस विषय पर कई प्रमुख निर्णयों का उल्लेख करने के बाद औद्योगिक विवादों पर लागू सिद्धांतों का पुनर्पूंजीकरण (रिकैप्टुलेटेड) किया है।

  • तथ्य

इस मामले में प्रतिवादी अपीलकर्ता निगम अर्थात राजस्थान राज्य बोर्ड परिवहन निगम के कर्मचारी हैं। कदाचार (मिसकंडक्ट) के आरोप में उनके खिलाफ शुरू की गई अनुशासनात्मक कार्यवाही (डिसिप्लिनरी प्रोसीडिंग) के बाद कर्मचारियों की सेवाएं बंद कर दी गईं थी। उत्तरदाताओं (रिस्पोंडेंट) ने उनके द्वारा दायर सिविल वाद में तर्क दिया कि उनकी सेवाओं को समाप्त करने का निर्देश अवैध है। उन्होंने आगे न्यायालय द्वारा एक घोषणा के लिए तर्क दिया कि वे अभी भी निगम के लिए काम करना जारी रखते हैं और इसलिए सभी परिणामी लाभों के लिए पात्र हैं। वाद को स्वीकार करने के लिए सिविल न्यायालयों के क्षेत्राधिकार की कमी के आधार पर निगम द्वारा वाद को चुनौती दी गई थी।

  • सिद्धांतों का निर्धारण

  1. जब एक सिविल न्यायालय में अनुबंध के सामान्य कानून से एक वाद उत्पन्न होता है, और अनुबंध के सामान्य कानून के आधार पर राहत का दावा किया जाता है, तो इसे बनाए रखने योग्य नहीं माना जा सकता है, भले ही विवाद औद्योगिक विवाद अधिनियम, 1947 की धारा 2 (k) या धारा 2-A के अर्थ के भीतर एक औद्योगिक प्रकृति का हो।
  2. हालांकि, जहां संघर्ष में औद्योगिक विवाद अधिनियम से उत्पन्न होने वाले किसी भी अधिकार और दायित्वों का पालन, मान्यता या प्रवर्तन शामिल है, मंच से संपर्क करने का तरीका उसी अधिनियम की धारा 2 (k), 2-A के तत्वावधान में है।
  3. यह कहना गलत है कि “औद्योगिक विवाद अधिनियम” के तहत उपचार इतने प्रभावी नहीं हैं क्योंकि मंच तक पहुंच उपयुक्त सरकार द्वारा दिए गए संदर्भ पर निर्भर है।
  4. हालांकि सरकार जांच करने की शक्ति को मंजूरी दे सकती है, लेकिन वितरित की गई शक्ति सुझाव देने की शक्ति नहीं बल्कि निर्णय लेने की शक्ति है।
  5. पूर्वोक्त कानून के अनुरूप यानी संसद और राज्य विधानमंडल को अधिनियम की धारा 2-A के तहत औद्योगिक विवाद के एक वाद में सरकार की सिफारिश के बिना श्रम न्यायालय (लेबर कोर्ट) को संबोधित करने के लिए एक कर्मचारी को सक्षम करने वाले प्रावधान को अधिनियमित करने का आदेश देना शामिल है। इससे औद्योगिक विवाद अधिनियम के तहत बताए गए उपायों की प्रभावशीलता के संबंध में किसी भी तरह की शंकाओं को दूर करने में मदद मिलेगी।

अंत में, सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में चंद्रकांत तुकाराम बनाम अहमदाबाद के नगर निगम में, पिछले निर्णयों में उल्लिखित सिद्धांतों को बहाल किया। संबंधित अपील गुजरात उच्च न्यायालय की डिवीजन बेंच द्वारा एकल न्यायाधीश द्वारा दिनांक 22 सितंबर 1990 को दिए गए तीन निर्णयों के खिलाफ निर्देशित हैं। सेवा समाप्ति/बर्खास्तगी के आदेशों को चुनौती देते हुए अहमदाबाद नगर निगम के कर्मचारियों द्वारा एक सिविल वाद दायर किया गया था। सिटी सिविल न्यायालय द्वारा चार मुद्दे तय किए गए थे, जिनमें से एक ने वाद पर विचार करने के लिए सिविल न्यायालय के क्षेत्राधिकार को चुनौती दी थी।

यह माना गया कि यह विवादित नहीं हो सकता है कि सिविल न्यायालयों द्वारा अपनाई जाने वाली प्रक्रिया बहुत लंबी है और फलस्वरूप, औद्योगिक विवादों को तेजी से हल करने के लिए एक प्रभावशाली मंच नहीं है। औद्योगिक न्यायालयों की शक्ति भी व्यापक है और ऐसे मंचों को पर्याप्त राहत देने का अधिकार है क्योंकि वे उचित और उपयुक्त हैं। यह कामगारों के हित में है कि अवैध बर्खास्तगी के विवाद सहित उनके विवादों का निर्णय एक औद्योगिक मंच द्वारा किया जाता है।

निष्कर्ष

परियोजना के निष्कर्ष इस प्रकार सुझाव देते हैं कि सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 9 एक कारण पर विचार करने के लिए एक सिविल न्यायालय के क्षेत्राधिकार से संबंधित है। धारा 10, 11, 12, 13, 47, 66, 83, 84, 91, 115 के प्रावधानों के अधीन सिविल न्यायालयों के पास किसी भी वाद पर विचार करने का एक अंतर्निहित क्षेत्राधिकार है, जब तक कि इसका संज्ञान स्पष्ट रूप से या निहित रूप से प्रतिबंधित नहीं है। सिविल न्यायालय अपने क्षेत्राधिकार से संबंधित एक वाद पर फैसला करने का हकदार है, हालांकि, इसके परिणामस्वरूप, यह पता चल सकता है कि न्यायालय के पास इस मामले पर कोई क्षेत्राधिकार नहीं है। सिविल न्यायालयों के पास यह तय करने का क्षेत्राधिकार है कि क्या न्यायाधिकरण, अर्ध-न्यायिक निकाय (क्वासी ज्यूडिशियल बॉडी) या वैधानिक प्राधिकरण अपने क्षेत्राधिकार में काम करते हैं। एक बार यह स्थापित हो जाने के बाद कि ऐसा प्राधिकरण उदाहरण के लिए एक प्रमाण पत्र अधिकारी के पास प्रारंभिक क्षेत्राधिकार है, ऐसी परिस्थिति में उसके द्वारा किसी भी गलत आदेश से वाद से संबंधित किसी भी संपार्श्विक हमले (कोलेटरल अटैक) की संभावना नहीं होगी। यह उन मामलों के बीच एक आवश्यक या स्पष्ट अंतर के कारण है, जिनमें न्यायालयों के पास मामलों का फैसला करने के लिए क्षेत्राधिकार की कमी होती है और जहां न्यायालय क्षेत्राधिकार का अनियमित रूप से प्रयोग करती है। हालांकि, सर्वोच्च न्यायालय ने अभी तक एक सिविल न्यायालय के क्षेत्राधिकार से संबंधित मामले के साथ स्थिति को स्पष्ट नहीं किया है, जिसमें उसका क्षेत्राधिकार आंशिक रूप से, निहित रूप से, स्पष्ट रूप से वर्जित है, या जहां यह मौजूद नहीं है।

संदर्भ 

  • A.N Saha’s, The Code of Civil Procedure (first published 1stJanuary 2019, Premier Publishing Company)
  • “PMA Metropolitan V. M.M Marthoma[1995] 4 SCC 226 (318-19)” 
  • Shankar Narayanan v. K. Sreedevi(1959) 58 (P&H).
  • Bharat Aluminum Co. v. Kaiser Aluminum Technical services Inc. 2012 (9) SCC 552
  • Ganga Bai v. Vijai Kumar, AIR 1974 SC 1126
  • State v. Mask and Co. [1940] 105; 67 IA 222 (PC).
  • State of A.P. v. Manjeti LaxmiKanth Rao[2000] 2220 SCC (SC)

 

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