यह लेख वीआईपीएस, नई दिल्ली के छात्र Hardik Mishra ने लिखा है। इस लेख में आपराधिक प्रक्रिया संहिता के तहत विचारण (ट्रायल) के प्रकार के बारे में चर्चा की गई है। इस लेख का अनुवाद Sakshi Gupta के द्वारा किया गया है।
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परिचय
अंग्रेजों ने हमें जो सबसे अच्छी चीज दी है, वह है “कानून और कानूनी व्यवस्था”। विशेष रूप से आपराधिक न्याय प्रणाली और कानून। आपराधिक प्रक्रिया संहिता एक आपराधिक कार्यवाही में विभिन्न प्रक्रियाओं से संबंधित है। जिनमें से एक आपराधिक प्रक्रिया संहिता के तहत विचारण प्रणाली है।
विचारण क्या है?
आपराधिक प्रक्रिया संहिता में कहीं भी “विचारण” शब्द को परिभाषित नहीं किया गया है, हालांकि, इसका अर्थ है मुकदमे का एक सामान्य रूप से समझा जाने वाला चरण जो आरोप तय करने के बाद शुरू होता है और दोषसिद्धि या बरी होने के साथ समाप्त होता है।
सरल शब्दों में, आपराधिक या सिविल कार्यवाही के मामले में अपराध का फैसला करने के लिए, विचारण को एक न्यायाधीश द्वारा साक्ष्य की औपचारिक (फॉर्मल) जांच के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।
भारतीय कानूनी प्रणाली में विचारण के प्रकार
भारतीय आपराधिक कानून में आरोपी द्वारा किए गए अपराध की सजा के माध्यम से विचारण को विभाजित किया जाता है। आरोपी द्वारा किए गए अपराध के लिए उसके विचारण को चार प्रकारों में विभाजित किया गया है।
- सत्र (सेशन) विचारण- यदि किया गया अपराध 7 साल से अधिक कारावास या आजीवन कारावास या मृत्यु के साथ दंडनीय है, तो सत्र न्यायालय में एक मजिस्ट्रेट द्वारा अदालत में भेजे जाने या अग्रेषित (फॉरवर्ड) करने के बाद विचारण किया जाता है।
- वारंट विचारण– वारंट मामले में मृत्युदंड, आजीवन कारावास और 2 साल से अधिक कारावास के साथ दंडनीय अपराध शामिल हैं। वारंट मामले में मुकदमा या तो पुलिस स्टेशन में प्राथमिकी (एफआईआर) दर्ज करके या मजिस्ट्रेट के समक्ष दायर करके शुरू होता है।
- समन विचारण– यदि किया गया अपराध 2 साल से कम कारावास के साथ दंडनीय है, तो इसे समन मामले के रूप में लिया जाता है। इस अपराध के संबंध में आरोप तय करना आवश्यक नहीं है। मजिस्ट्रेट द्वारा सीआरपीसी, 1973 की धारा 204(1)(a) के तहत आरोपी को समन जारी किया जाता है। “समन मामले” का अर्थ एक अपराध से संबंधित मामला है, जो वारंट मामला नहीं है। सीआरपीसी, 1973 की धारा 251 से 259 में प्रदान किए गए ऐसे मामले से निपटने की प्रक्रिया है जो अन्य विचारणों (सत्र विचारण, पुलिस रिपोर्ट पर स्थापित वारंट मामला और पुलिस रिपोर्ट के अलावा अन्यथा स्थापित वारंट मामले) की तरह गंभीर/औपचारिक नहीं है।
- संक्षिप्त (समरी) विचारण- वे विचारण जिनमें मामलों को एक सरल प्रक्रिया के साथ तेजी से निपटाया जाता है और ऐसे विचारण की रिकॉर्डिंग संक्षिप्त में की जाती है। इस मुकदमे में केवल छोटे मामलों को ही लिया जाता है और जटिल मामलों को समन और वारंट विचारण के लिए आरक्षित किया जाता है। संक्षिप्त विचारण के लिए कानूनी प्रावधान सीआरपीसी, 1973 की धारा 260–265 के तहत दिए गए हैं।
आपराधिक प्रक्रिया संहिता में विचारण के लिए कानूनी प्रावधान
- धारा 225–237 सत्र न्यायालय द्वारा वारंट मामलों के विचारण से संबंधित है।
- धारा 238–250 मजिस्ट्रेट द्वारा वारंट मामलों की सुनवाई से संबंधित है।
- धारा 251-259 मजिस्ट्रेट द्वारा समन मामलों की सुनवाई के लिए प्रक्रिया प्रदान करती है।
- धारा 260-265 संक्षिप्त विचारणों से संबंधित प्रावधान प्रदान करती है।
विभिन्न प्रकार के आपराधिक विचारणों में प्रक्रिया
आपराधिक विचारण में सत्र न्यायालय की प्रक्रिया
सीआरपीसी का अध्याय XVIII धारा 225 से शुरू होकर धारा 237 पर समाप्त होने वाले सत्र न्यायालय के समक्ष मुकदमे को नियंत्रित करने वाले प्रावधानों से संबंधित है।
सत्र न्यायालय को विचारण के तीन चरणों से गुजरना पड़ता है:
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विचारण का पहला चरण
सत्र न्यायालय में, प्रत्येक मुकदमे का संचालन एक लोक अभियोजक (पब्लिक प्रॉसिक्यूटर) (धारा 225) द्वारा किया जाता है। सत्र न्यायालय न केवल धारा 199 के तहत अपराधों का संज्ञान (कॉग्निजेंस) लेने में जवाबदेह है बल्कि यह गंभीर प्रकृति के अपराध से संबंधित किसी भी मामले का संज्ञान भी ले सकता है। अधिक स्पष्ट और संक्षिप्त होने के लिए, सत्र न्यायालय जिला स्तर पर एक अदालत है जो केवल अधिक गंभीर मामलों के लिए अपनी सेवा प्रदान करता है। आरोपी को उसके अपराध के दोष के लिए अदालत में पेश किया जाता है। अभियोजक का पहला और सबसे महत्वपूर्ण काम आरोपी के दोष को साबित करने के लिए अदालत में साक्ष्य पेश करना है (धारा 226)।
बनवारी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य में, सर्वोच्च न्यायालय के लॉर्डशिप ने भी स्पष्ट रूप से देखा है कि धारा 239 में कहा गया है कि सत्र न्यायालय को आपराधिक प्रक्रिया संहिता के तहत किसी भी आरोप को छोड़ने की कोई शक्ति नहीं है जिसके तहत आरोपी विचारण के लिए प्रतिबद्ध है। न्यायालय आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 226 के तहत ऐसे मामलों में जहां कोई व्यक्ति बिना किसी आरोप या अपूर्ण (इंपरफेक्ट) या गलत आरोप के मुकदमे के लिए प्रतिबद्ध है, तो उसमे मजिस्ट्रेट शक्तियों के प्रयोग में आरोपो को लगा सकता है या आरोपो को जोड़ सकता है या अन्यथा बदल सकता है, जैसा भी मामला हो।
यदि साक्ष्यों पर विचार करने और आरोपी के प्रस्तुतीकरण के बाद, न्यायाधीश को लगता है कि आरोपी के विरुद्ध कार्यवाही करने के लिए पर्याप्त आधार नहीं है, तो वह ऐसा करने के कारण सहित आरोपी को आरोपमुक्त कर देगा (धारा 227)।
यदि विचार के बाद न्यायालय के पास यह मानने का आधार है कि आरोपी ने अपराध किया है जो अदालत द्वारा विचारणीय है तो अदालत अपराध के आरोपी के खिलाफ लिखित रूप से आरोप तय करेगी, लेकिन अगर मामला सत्र न्यायालय द्वारा विशेष रूप से विचारणीय नहीं है तो आरोप तय होने के बाद, मामला मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट या प्रथम श्रेणी के किसी न्यायिक मजिस्ट्रेट को स्थानांतरित (ट्रांसफर) कर दिया जाता है।
आरोपित आरोपों को आसानी से समझने योग्य भाषा में आरोपी के सामने जोर से और स्पष्ट रूप से पढ़ा जाना चाहिए और आरोपी से पूछा जाता है कि क्या वह उपरोक्त आरोपों के लिए दोषी है या नहीं (धारा 228)।
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विचारण का दूसरा चरण
यदि आरोपी लगाए गए आरोपों से अच्छी तरह वाकिफ है और उसी के लिए दोषी ठहराया जाता है तो न्यायाधीश उसकी याचिका को रिकॉर्ड करेगा और उसे दोषी ठहराएगा लेकिन सब कुछ न्यायाधीश के विवेक पर निर्भर करता है। धारा 229 के तहत, न्यायाधीश के पास आरोपी को दोषी ठहराने का विवेकाधिकार है, लेकिन यह वांछनीय (डिजायरेबल) है कि आरोपी को सीधे दोषी न ठहराया जाए। उचित तरीका यह होगा कि अभियोजन पक्ष से साक्ष्य लेकर उसे मामले को साबित करने के लिए कहा जाए।
यदि आरोपी धारा 229 के तहत याचना (प्लीड) करने से इंकार करता है तो न्यायाधीश गवाहों की अभियोजन जांच, किसी भी दस्तावेज को पेश करने आदि के लिए एक तारीख तय करेगे (धारा 230)।
निर्धारित तारीख पर न्यायाधीश गवाहों का विचारण करेगे जिसमें अभियोजन पक्ष के समर्थन में साक्ष्य प्रस्तुत किया जा सकता है।
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विचारण का तीसरा चरण
यदि आरोपी और अभियोजन द्वारा दिए गए साक्ष्य की जांच करने के बाद, न्यायाधीश को लगता है कि इस बात का कोई साक्ष्य नहीं है कि आरोपी ने अपराध किया है तो न्यायाधीश आरोपी को बरी कर देगा (धारा 232)।
यदि अभियोजन द्वारा दिए गए साक्ष्य स्पष्ट रूप से आरोप तय करने और आरोपी को बरी करने से इनकार करने में अदालत को सही ठहराते हैं तो बचाव पक्ष के वकील अपने मुवक्किल के समर्थन में साक्ष्य पेश करेंगे। यहां तक कि आरोपी भी किसी गवाह की उपस्थिति या किसी दस्तावेज या चीज को पेश करने के लिए किसी भी प्रक्रिया के लिए आवेदन कर सकता है लेकिन इससे न्यायालय को न्याय के लक्ष्य को हराने की गलत धारणा नहीं होनी चाहिए (धारा 233)।
दोनों पक्षों को सुनने के बाद, जब एक समापन बयान देने के लिए मुद्दा उठता है तो संहिता की धारा 314 लागू होती है और बचाव पक्ष द्वारा धारा 234 के तहत और अभियोजन पक्ष द्वारा धारा 235 के तहत समापन बयान दिया जाता है।
न्यायाधीश को सभी साक्ष्यों को ध्यान में रखते हुए अंतिम निर्णय करना चाहिए।
वारंट विचारण में प्रक्रिया
सीआरपीसी का अध्याय XIX, धारा 238 से शुरू होकर धारा 250 पर समाप्त होता है, जो वारंट विचारण को नियंत्रित करने वाले प्रावधानों से संबंधित है।
मजिस्ट्रेट द्वारा वारंट मामलों की सुनवाई के लिए प्रक्रियाएं निर्धारित की जाती हैं। एक प्रिक्रिया को पुलिस रिपोर्ट पर स्थापित मामलों में मजिस्ट्रेट द्वारा अपनाया जाता है, (सीआरपीसी की धारा 238 से 243 और सीआरपीसी की धारा 248 से 250) और दूसरी प्रिक्रिया को पुलिस रिपोर्ट के अलावा अन्य मामलों में अपनाया जाता है (सीआरपीसी की धारा 244 से 247 और 248 से 250, 275)
पुलिस मामला
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विचारण का पहला चरण
धारा 207 के अनुपालन के साथ, मजिस्ट्रेट को खुद को (धारा 238) के तहत संतुष्ट करना होगा कि उसे चार्जशीट के साथ सभी आवश्यक दस्तावेज प्रदान किए गए हैं। यदि धारा 173 के तहत दायर चार्जशीट पर विचार करने के बाद मजिस्ट्रेट आरोपी के खिलाफ आरोप को निराधार मानता है, तो वह आरोपी को आरोपमुक्त कर देगा और इस तरह के बरी करने के कारणों को दर्ज करेगा (धारा 239)। यदि मजिस्ट्रेट की राय है कि आरोपी विचारणीय है तो आरोपी के विरुद्ध आरोप तय किए जाएंगे (धारा 240)।
उत्तर प्रदेश राज्य बनाम लक्ष्मी ब्राह्मण का मामले प्रतिबद्धता के स्तर पर मजिस्ट्रेट के कर्तव्य के संदर्भ में है। न्यायालय ने सीआरपीसी की धारा 207 के पालन के संबंध में मजिस्ट्रेट के कर्तव्य की प्रकृति पर विचार किया और कहा कि धारा 207 के तहत मजिस्ट्रेट पर डाले गए कर्तव्यों को न्यायिक तरीके से निभाना होगा।
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विचारण का दूसरा चरण
धारा 240 के तहत आरोप तय करने के बाद, मजिस्ट्रेट को सीआरपीसी की धारा 242 के तहत इन आरोपों को साबित करना होता है और इस धारा की उपधारा (3) के तहत मजिस्ट्रेट ऐसे सभी साक्ष्य लेने के लिए बाध्य होता है जो अभियोजन पक्ष के समर्थन में पेश किए जा सकते हैं। सीआरपीसी की धारा 242 और धारा 243 की उपधारा (1) और (2) के प्रावधान अनिवार्य हैं। धारा 243 के प्रावधान पुलिस रिपोर्ट और निजी शिकायत के तहत स्थापित मामलों दोनों पर लागू होते हैं।
विजय राज बनाम राजस्थान राज्य के मामले में, आरोपी को अपने बचाव के लिए बुलाए जाने के बाद की जाने वाली प्रक्रिया पुलिस रिपोर्ट पर स्थापित और पुलिस रिपोर्ट के अलावा स्थापित दोनों मामलों में समान है।
पी. सरवनन बनाम पुलिस निरीक्षक द्वारा प्रस्तुत राज्य के मामले में, यह ध्यान देने योग्य है कि सीआरपीसी की धारा 229 के तहत सत्र मामले और धारा 241 के तहत वारंट मामले दोनो में दोषी की याचिका की रिकॉर्डिंग, केवल आरोपी को आरोप पढ़ कर की जाती है। आरोप विशिष्ट, स्पष्ट होना चाहिए और आरोपी द्वारा स्वीकार करना स्पष्ट और बिना शर्त के होना चाहिए।
निजी शिकायत
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विचारण का पहला चरण
यदि मामला एक निजी शिकायत पर स्थापित किया जाता है और आरोपी को मजिस्ट्रेट के सामने लाया जाता है तो अभियोजन पक्ष को पेश किए गए सभी साक्ष्यों से खुद को संतुष्ट करना चाहिए और अपने किसी भी गवाह को उपस्थित होने या कोई दस्तावेज पेश करने का निर्देश देते हुए समन जारी करना चाहिए (धारा 244)। धारा 244 के तहत सभी साक्ष्य लेने के बाद यदि मजिस्ट्रेट मामले के किसी भी पिछले चरण में आरोपी को आरोपमुक्त करना उचित समझता है तो वह उसके आरोपों को निराधार मान सकता है (धारा 245)।
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विचारण का दूसरा चरण
धारा 247 के अनुसार बचाव पक्ष के वकील आरोपी के समर्थन में अपना साक्ष्य पेश करते है। यदि आरोपी के विरुद्ध आरोपित आरोपों में मजिस्ट्रेट उसे दोषी नहीं पाता है तो बरी करने का आदेश जारी किया जाएगा।
यदि कोई मामला न्यायाधीश या पुलिस अधिकारी की आपत्ति पर आयोजित किया जाता है या किसी दोषी व्यक्ति को न्याय के समक्ष पेश किया जाता है और अधिकारी पाता है कि निंदा किए गए व्यक्ति के खिलाफ कोई आधार नहीं है तो उसे न्यायाधीश द्वारा जल्दी से रिहा कर दिया जाएगा, व्यक्ति विरोध करने वाले को यह स्पष्टीकरण देने के लिए बुलाया जाएगा कि जिस व्यक्ति के खिलाफ आरोप लगाया गया था, उसे अतिरिक्त भुगतान क्यों नहीं करना चाहिए।
नरपत सिंह बनाम राजस्थान राज्य और अन्य के मामले में, अमानवीय टिप्पणी को जिम्मेदार ठहराना और याचिकाकर्ताओं के खिलाफ सीआरपीसी की धारा 250 के तहत कार्यवाही शुरू करना प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन है। इसलिए, इस मामले में भी आक्षेपित कार्रवाई प्रति संवेदनशील (पर सी वनरेबल) है। यह भी उल्लेखनीय है कि याचिकाकर्ताओं द्वारा आरोपी व्यक्तियों के खिलाफ मामला दर्ज करना और उसके बाद जांच करना सीआरपीसी की धारा 156 (3) के तहत अदालत के आदेश के अनुसार था।
समन विचारण में प्रक्रिया
सीआरपीसी का अध्याय XX धारा 251 से शुरू होकर धारा 259 पर समाप्त होता है जो समन विचारण को नियंत्रित करने वाले प्रावधानों से संबंधित है।
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विचारण का पहला चरण
मजिस्ट्रेट के सामने आरोपी की उपस्थिति पर, उस अपराध का विवरण, जिसके लिए आरोपी पर आरोप लगाया गया है, उसे बताया जाना चाहिए और उससे पूछा जाना चाहिए कि क्या वह उन्हीं अपराधों के लिए दोषी है, जिसके लिए उस पर आरोप लगाया गया है (धारा 251)।
जहां आरोपी को धारा 206 के तहत समन जारी किया गया है और इसलिए, वह मजिस्ट्रेट के सामने पेश हुए बिना उसके लिए दोषी ठहराता है, वह डाक द्वारा या संदेशवाहक के माध्यम से मजिस्ट्रेट को प्रेषित करेगा। वह समन में जुर्माने के बारे में भी निर्दिष्ट करेगा, लेकिन यदि आरोपी उसके दोषी की दलील को स्वीकार नहीं करता है, तो मजिस्ट्रेट अपनी विवेकाधीन शक्तियों के साथ उसे समन में निर्दिष्ट जुर्माना देने की सजा देगा (धारा 253)।
बीरू राम बनाम ईशर सिंह और अन्य के मामले में, सीआरपीसी की धारा 253 की उप-धारा (2) में प्रावधान है कि इस धारा में कुछ भी मजिस्ट्रेट को आरोपी को किसी भी पिछले चरण में बरी करने से रोकने के लिए नहीं माना जाएगा, यदि, ऐसे मजिस्ट्रेट द्वारा रिकॉर्ड किए जाने वाले कारणों से, वह आरोप को निराधार मानता है।
प्रक्रिया जब धारा 252 या धारा 203 के तहत दोषी नहीं ठहराया जाता है– तब ऐसे मामले में एक मजिस्ट्रेट अभियोजन की सुनवाई करेगा और अभियोजन पक्ष के समर्थन में पेश किए गए साक्ष्यों को लेगा या किसी गवाह को समन जारी करेगा जिसमें उसे उपस्थित होने या किसी दस्तावेज़ को पेश करने का निर्देश दिया जाएगा।
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विचारण का दूसरा चरण
दोषमुक्ति या दोषसिद्धि– यदि मजिस्ट्रेट संतुष्ट है कि आरोपी आरोपित आरोप का दोषी है तो मजिस्ट्रेट आरोपी को धारा 252 या धारा 255 के तहत दोषी ठहरा सकता है और जहां मजिस्ट्रेट धारा 254 के तहत साक्ष्य लेने और आगे के साक्ष्यों पर आरोपी को दोषी नहीं पाता है, तो वह आरोपी को बरी करने का आदेश दर्ज करेगा।
शिकायत वापस लेना– अंतिम आदेश पारित होने से पहले, यदि शिकायतकर्ता मजिस्ट्रेट को संतुष्ट करता है कि आरोपी के खिलाफ अपनी शिकायत वापस लेने के लिए उसके पास पर्याप्त आधार हैं, तो फिर मजिस्ट्रेट उसे वापस लेने की अनुमति दे सकता है (धारा 257)।
समन मामलों को वारंट मामलों में बदलने की अदालत की शक्ति– 6 महीने से अधिक की अवधि के लिए दंडनीय अपराध के साथ समन मामले के विचारण में मजिस्ट्रेट न्याय के हित में वारंट मामले की प्रक्रिया का पालन करके और संहिता में दिए गए तरीके से मामले का विचारण करके समन मामले को वारंट मामले में कवर कर सकता है।
संक्षिप्त विचारण की प्रक्रिया
सीआरपीसी का अध्याय XXI धारा 260 से शुरू होता है और धारा 265 के साथ समाप्त होता है जो समन विचारण को नियंत्रित करने वाले प्रावधानों से संबंधित है।
संक्षिप्त विचारण का सबसे महत्वपूर्ण उद्देश्य मामलों का तेजी से निपटान करना है।
पालन की जाने वाली प्रक्रिया– संक्षिप्त विचारण के तहत पालन की जाने वाली प्रक्रिया समन विचारण के लिए निर्दिष्ट प्रक्रिया के समान है (धारा 262)।
यदि 200 रुपए से कम जुर्माने का दण्डादेश पारित किया गया है तो अपील का कोई अवसर नहीं दिया जाएगा।
संक्षिप्त सुनवाई के प्रत्येक मामले में यदि आरोपी दोषी नहीं मानता है तो मजिस्ट्रेट साक्ष्य के सार को दर्ज करेगा और जो निर्णय दिया जाएगा उसमें किसी विशेष निष्कर्ष में आने के कारण का एक संक्षिप्त विवरण भी होना चाहिए (धारा 264)।
धारा 265 इस बात पर जोर देती है कि ऐसा प्रत्येक रिकॉर्ड अर्थात धारा 263 में उल्लिखित विवरण और साक्ष्य और निर्णय का सार न्यायालय की भाषा में दर्ज किया जाना चाहिए।
शिवाजी संपत जगताप बनाम राजन हीरालाल अरोड़ा, में माननीय बॉम्बे उच्च न्यायालय ने कहा कि, “उत्तरवर्ती (सक्सीडिंग) मजिस्ट्रेट, हालांकि, एक मामले में, विशेष रूप से संहिता की धारा 263 और 264 के तहत विचार की गई प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया है, उन्हें एक डे नोवो विचारण आयोजित करने की आवश्यकता नहीं है”, और जेवी बहरुनी बनाम गुजरात राज्य 2015 में इस विचार को बरकरार रखा गया था।
संदर्भ
- 1962 AIR 1198
- AIR 1983 SC 439
- 1996 (2) WLC 18
- Crl.R.C. (MD)No. 354 of 2016
- AIR 1968 P H 274
- 2007 CriLJ 122