यह लेख कोलकाता पुलिस लॉ इंस्टीट्यूट की Smaranika Sen ने लिखा है। यह लेख मुस्लिम व्यक्तिगत कानून के तहत महर की अवधारणा से संबंधित है। इस लेख का अनुवाद Sakshi Gupta द्वारा किया गया है।
Table of Contents
परिचय
भारत एक धर्मनिरपेक्ष (सेक्युलर) देश है। ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्द की व्याख्या इस प्रकार की जाती है कि राज्य का कोई भी धर्म नहीं है। यह सभी धर्मों को समान रूप से मानता है। भारतीय संविधान गारंटी देता है कि प्रत्येक व्यक्ति को अंतरात्मा की स्वतंत्रता और धर्म को मानने, अभ्यास करने और प्रचार करने का अधिकार है। इससे धर्म के संबंध में विभिन्न व्यक्तिगत कानूनों का निर्माण होता है। सभी मुसलमान आम तौर पर मुस्लिम व्यक्तिगत कानून द्वारा शासित होते हैं। मुस्लिम व्यक्तिगत कानून में विवाह, डॉवर, तलाक, वसीयत, भरण-पोषण आदि के संबंध में विभिन्न कानूनी प्रावधान हैं।
जैसा कि पहले ही ऊपर कहा जा चुका है, सभी मुसलमानों के लिए डाॅवर की अवधारणा मुस्लिम व्यक्तिगत कानून द्वारा शासित होती है। मुस्लिम कानून के तहत, डॉवर को ‘महर’ के रूप में जाना जाता है। महर वह राशि है जो पति को पत्नी से शादी करने पर देनी पड़ती है। इस लेख के माध्यम से हम मुस्लिम कानून के तहत महर की अवधारणा को समझेंगे।
महर की उत्पत्ति
पुराने पूर्व-इस्लामिक अरब में, विवाह की संस्था आज की तुलना में बहुत अलग थी। उस समय पुरुषों और महिलाओं के बीच विभिन्न प्रकार के यौन संबंध प्रचलित थे। आमतौर पर महिलाएं शोषण का शिकार होती थीं। पुरुष अपनी पत्नियों की स्थितियों को खराब करके छोड़ देते थे। विवाह के संबंध में ऐसी कोई उचित व्यवस्था नहीं थी, जिसके कारण पुरुष पत्नी को छोड़ने के बाद उसे कोई भी आर्थिक मदद देने से मना कर देते थे। उस समय विवाह का शिघर रूप देखा जाता था। शादी के इस रूप में, एक आदमी अपनी बेटी या बहन की दूसरे व्यक्ति से शादी करने के प्रतिफल (कंसीडरेशन) में उसकी बेटी या बहन को लेता था। विवाह के इस रूप में, पत्नियों को कोई डॉवर नहीं मिलता था।
विवाह का दूसरा रूप बीना विवाह था। विवाह के इस रूप में पति पत्नी से मिलने जाता था लेकिन घर नहीं लाता था, पत्नी को सादिका कहा जाता था और विवाह पर पत्नी को उपहार दिया जाता था जिसे सदक कहा जाता था। ऐसा माना जाता है कि इस्लाम में सदक, डॉवर का सबसे पहला रूप था।
बाल विवाह में महर की अवधारणा को पेश किया गया था। महर एक प्रकार का उपहार या मुआवजा था जो पत्नी के माता-पिता को बाल विवाह के रूप में दिया जाता था। महर आमतौर पर पत्नी के माता-पिता या अभिभावकों (गार्डियन) को दिया जाता था। हालांकि, समय के साथ, विवाह के प्राचीन रूप को धीरे-धीरे समाप्त कर दिया गया। इस्लाम के प्रचार ने शादी को निकाह का एक नया रूप दिया। विवाह के इस रूप में कहा गया है कि यदि कोई पुरुष अपनी पत्नी से अलग हो जाता है, तो उसे पत्नी को उदारता के साथ विदा करना चाहिए, और यह भी कि पुरुष वह सामान वापस नहीं ले सकता है जो एक बार पत्नी को दे दिया गया था। इस्लाम में विवाह की इस प्रथा की उत्पत्ति पति द्वारा पत्नी को उसके वृद्धावस्था में सहायता के साधन के रूप में, विवाह पर भुगतान देने की अवधारणा से हुई। इस्लामी कानून में महर केवल पत्नी का अधिकार है।
महर का अर्थ
शाब्दिक अर्थ में, अरबी शब्द ‘महर’ का अर्थ डॉवर है। यह वह राशि है जो विवाह पर पति द्वारा पत्नी को देय होती है। महर को या तो पक्षों के बीच समझौते या कानून के संचालन द्वारा निष्पादित (एग्जिक्यूट) किया जाता है। विभिन्न न्यायविदों ने माहर को परिभाषित करने का प्रयास किया है।
विल्सन के अनुसार, पत्नी द्वारा किसी व्यक्ति के आत्मसमर्पण के लिए महर या डॉवर प्रतिफल का एक रूप था।
मुल्ला के अनुसार, डॉवर या तो धन या संपत्ति है जो पत्नी पति से विवाह के प्रतिफल में प्राप्त करने की हकदार है।
अमीर अली के अनुसार दहेज एक प्रकार का प्रतिफल है जो पत्नी का होता है।
अब्दुल कादिर बनाम सलीमा,(1886) के मामले में, माननीय न्यायमूर्ति महमूद ने कहा कि मुस्लिम कानून के तहत डॉवर एक ऐसी राशि या संपत्ति है जिसे पति द्वारा शादी के लिए भुगतान या पत्नी को देने का वादा किया जाता है और यहां तक कि यदि विवाह के समय डॉवर का स्पष्ट रूप से उल्लेख नहीं किया गया है, तो भी पत्नी के पास डॉवर का अधिकार है।
अनुबंध में प्रतिफल और मुस्लिम कानून में प्रतिफल के बीच अंतर
उपरोक्त परिभाषाओं से, हमने ‘प्रतिफल’ शब्द का अवलोकन किया है। जो अस्पष्टता पैदा होती है वह यह है कि क्या ‘प्रतिफल’ शब्द अनुबंध के समान है या इससे अलग है। विभिन्न मामलों और वास्तविक जीवन में टिप्पणियों से, यह पुष्टि की गई है कि ‘प्रतिफल’ शब्द अनुबंध में प्रयुक्त शब्द से अलग है। प्रतिफल के बिना, एक अनुबंध आम तौर पर शून्य होता है लेकिन यदि विवाह के समय में डॉवर या प्रतिफल का उल्लेख नहीं किया जाता है, तो विवाह शून्य नहीं होता है। हालांकि, कानून में विवाह पर पत्नी को डॉवर का भुगतान करने की आवश्यकता होती है। इस्लामी कानून के तहत, महर के संबंध में, प्रतिफल का अर्थ पत्नी के सम्मान के निशान के रूप में कानून द्वारा पति पर लगाया गया दायित्व है।
‘महर’ और ‘दहेज’ के बीच विवाद
‘महर’ शब्द का शाब्दिक अर्थ डॉवर है, हालांकि, दोनों शब्दों में कुछ अंतर हैं। मुस्लिम कानून में महर की अवधारणा महिलाओं की वित्तीय सुरक्षा सुनिश्चित करना है। हालांकि दहेज एक सामाजिक बुराई है। दहेज आमतौर पर दुल्हन के परिवार से दूल्हे के परिजनों द्वारा शादी के लिए उपहार के रूप में मांगा जाता है। भारतीय कानून के तहत, दहेज को दहेज निषेध अधिनियम, 1961 की धारा 2 में परिभाषित किया गया है। इस प्रकार यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि महर और दहेज दो अलग-अलग अवधारणाएं हैं। एक सुरक्षा सुनिश्चित करता है और दूसरा सामाजिक बुराई है।
डॉवर का वर्गीकरण
डॉवर को निम्नलिखित में वर्गीकृत किया जा सकता है:
- निर्दिष्ट डाॅवर: इस प्रकार के डाॅवर में, विवाह अनुबंध में डाॅवर की राशि बताई जाती है। शादी से पहले या शादी के समय या शादी के बाद दोनों पक्षों के बीच डाॅवर का निपटारा किया जा सकता है। यदि विवाह नाबालिग या विकृत दिमाग के लड़के से होता है तो डाॅवर की राशि अभिभावक द्वारा तय की जा सकती है। पति कितना भी डाॅवर का इंतजाम कर सकता है। हालांकि, वह हनफ़ी कानून के अनुसार दस दिरहम से कम और मलिकी कानून के अनुसार तीन दिरहम से कम की राशि का निपटान नहीं कर सकता है। शिया कानून में डाॅवर की कोई न्यूनतम राशि नहीं बताई गई है। उन पतियों के मामले में जो बहुत गरीब हैं और दस दिरहम देने की स्थिति में नहीं हैं, तो पैगंबर के अनुसार, उन्हें डाॅवर के बजाय पत्नी को कुरान सिखाने का निर्देश दिया जाता है। डाॅवर की राशि की कोई अधिकतम सीमा नहीं है। निर्दिष्ट डाॅवर को निम्नलिखित में वर्गीकृत किया जा सकता है:
- तत्काल डाॅवर: यह मांग पर शादी के तुरंत बाद दिया जाता है।
- आस्थगित (डेफर्ड) डाॅवर: इसका भुगतान मृत्यु या तलाक के द्वारा विवाह के विघटन (डिजोल्यूशन) के बाद किया जाता है।
- उचित या प्रथागत डाॅवर: यदि विवाह अनुबंध में निर्धारित डाॅवर की राशि के बिना विवाह पूरा होता है या विवाह इस शर्त पर पूरा होता है कि पत्नी किसी भी डाॅवर का दावा नहीं करेगी, तो पत्नी उचित डाॅवर की हकदार है। उचित डाॅवर की राशि पिता के परिवार की अन्य महिला सदस्यों को दी जाने वाली डाॅवर की राशि को ध्यान में रखकर तय की जाती है। निम्नलिखित कारकों के संदर्भ में उचित डाॅवर को विनियमित किया जाता है:
- पत्नी की व्यक्तिगत योग्यता। जैसे उसकी उम्र, सुंदरता, गुण, भाग्य, आदि।
- उसके पिता के परिवार की सामाजिक स्थिति।
- महिला के पैतृक संबंधों की महिलाओं को दिया गया डाॅवर।
- पति की आर्थिक स्थिति।
- समय की परिस्थितियाँ।
सुन्नी कानून के तहत, उचित डाॅवर के लिए कोई अधिकतम सीमा नहीं है लेकिन शिया कानून के तहत, उचित डाॅवर 500 दिरहम से अधिक नहीं होना चाहिए।
अगर डाॅवर की राशि जानबूझकर कम दी जाए और पत्नी अपना भरण-पोषण नहीं कर सकती तो क्या करें?
कई बार यह देखा गया है कि कुछ पति जानबूझकर डाॅवर की राशि कम देते हैं, भले ही उनकी आर्थिक स्थिति ठीक होती है। डाॅवर की मात्रा इतनी कम देखी जा रही है, जिससे महिला अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ हो जाती है। यह समस्या डाॅवर के उद्देश्य को निरर्थक बना रही थी। इस समस्या को दूर करने के लिए, कानून बनाया गया ताकि एक उचित डाॅवर दिया जा सके। इसलिए, विधायिका को डाॅवर की राशि को बनाए रखने की पूरी शक्ति दी गई थी, बशर्ते कि अदालत विवाह विलेख (डीड) के अनुसार डाॅवर की राशि देने के लिए बाध्य नहीं होगी।
पत्नी के अधिकार जब उसे डाॅवर नहीं दिया जाता है
मुस्लिम कानून के तहत हर महिला को शादी होने पर डाॅवर का दावा करने का अधिकार है। किसी भी अन्य कानून की तरह, यदि इस तरह के अधिकार का उल्लंघन किया जाता है, तो महिला के पास कुछ उपाय हैं। मुस्लिम कानून पत्नी या विधवा को डाॅवर का भुगतान प्राप्त करने के लिए मजबूर करने के कुछ अधिकार प्रदान करता है:
सहवास करने से इंकार
यदि विवाह परिपूर्ण (कंज्यूमेट) नहीं हुआ है तो पत्नी को अपने पति के साथ सहवास करने से इंकार करने का अधिकार है जब तक कि तत्काल डाॅवर का भुगतान नहीं किया जाता है। यदि पत्नी नाबालिग या विकृत दिमाग की है, तो अभिभावक को यह अधिकार है कि वह उसे उसके पति के घर भेजने से मना कर दे, जब तक कि तत्काल डाॅवर का भुगतान नहीं किया जाता। अवधि के दौरान, पत्नी अपने अभिभावक के घर में रहती है, तो पति उसका भरण-पोषण करने के लिए बाध्य होता है।
हालांकि, यदि विवाह के बाद परिपूर्ण हो गया है, तो पत्नी तत्काल डाॅवर के भुगतान पर जोर देने का पूर्ण अधिकार खो देती है। ऐसा इसलिए है क्योंकि पति वैवाहिक अधिकारों की बहाली (रेस्टिट्यूशन) के लिए मुकदमा दायर कर सकता है। यदि पत्नी अभी भी अपने पति के साथ सहवास करने से इनकार करती है, तो वह केवल डाॅवर पर एक डिक्री सशर्त भुगतान की हकदार है। राबिया खातून बनाम मुख्तार अहमद, (1966) के मामले में, यह माना गया था कि यदि मुकदमा उसकी स्वतंत्र सहमति से संभोग के बाद लाया जाता है, तो पारित करने के लिए उचित डिक्री, बर्खास्तगी की डिक्री नहीं है, लेकिन तत्काल डाॅवर के भुगतान पर सशर्त बहाली की डिक्री है।
आस्थगित डाॅवर में, डाॅवर का भुगतान एक आकस्मिक (कंटिंजेंट) घटना है। अतः यह प्रश्न उठता है कि पत्नी पति को मना कर सकती है या नहीं यह दाम्पत्य अधिकार है या नहीं। इसको लेकर मतभेद हो गया है। प्रसिद्ध न्यायविद, अबू युसूफ का मानना है कि यदि आस्थगित डाॅवर का भुगतान नहीं किया जाता है तो वह सहवास करने से इंकार कर सकती हैं। हालांकि, प्रसिद्ध न्यायविद इमाम महमूद, शिया कानून का मानना है कि पत्नी आस्थगित डाॅवर के मामलों में सहवास करने से इंकार नहीं कर सकती है।
कर्ज के रूप में डाॅवर का अधिकार
प्रिवी काउंसिल के अनुसार, यह माना गया कि डाॅवर एक कर्ज के रूप में रैंक करता है और विधवा अन्य लेनदारों के साथ पति की मृत्यु पर उसकी संपत्ति से संतुष्ट होने की हकदार है। यदि पति जीवित है तो पत्नी उसके खिलाफ मुकदमा दायर कर डाॅवर की वसूली कर सकती है। ऐसे मामलों में जहां डाॅवर का कर्ज बकाया है, विधवा पति के वारिसो के खिलाफ मुकदमा दायर करके डाॅवर कर्ज के लिए अपने दावे को लागू कर सकती है। हालांकि, वारिस केवल उसी सीमा तक उत्तरदायी होते हैं, जिस अनुपात (प्रोपोर्शन) में उन्हें मृत पति की संपत्ति विरासत में मिलती है।
सैयद डेविड हुसैन बनाम फरज़ांद हुसैन (1937) के मामले में, यह माना गया था कि एक शिया मुसलमान अपने नाबालिग बेटे द्वारा डॉवर के भुगतान के लिए श्योरिटी था। उनकी मृत्यु के बाद, उनकी संपत्ति को उनके बेटे के महर के भुगतान के लिए उत्तरदायी ठहराया गया था और प्रत्येक वारिस को मृतक की संपत्ति में उसके हिस्से के अनुपात में पत्नी के दावे के एक हिस्से के लिए जिम्मेदार बनाया गया था।
बकाया डाॅवर के बदले में कब्जा रखने का अधिकार
डाॅवर एक कर्ज के रूप में रैंक करता है और पत्नी अन्य लेनदारों के साथ अपने पति की मृत्यु पर उसकी संपत्ति से संतुष्ट होने की हकदार है। हालांकि उसका अधिकार किसी अन्य असुरक्षित लेनदार से बड़ा नहीं है, सिवाय इसके कि अगर वह कानूनी रूप से अपनी पूरी संपत्ति या उसके हिस्से की स्थिति प्राप्त कर लेती है, तो किराए और उससे अर्जित मुद्दों के साथ अपने दावे को पूरा करने के लिए वह इस तरह की स्थिति को बनाए रखने की हकदार है। प्रतिधारण (रिटेंशन) का अधिकार उसे संपत्ति का कोई शीर्षक नहीं देता है। इसलिए, वह संपत्ति को अलग नहीं कर सकती है।
एक विधवा का डाॅवर के बदले अपने पति की संपत्ति पर कब्जा रखने का अधिकार एक विशेष उद्देश्य है। डाॅवर का शीघ्र भुगतान प्राप्त करना एक मजबूरी के रूप में है जो एक असुरक्षित कर्ज है।
डॉवर पर धर्मत्याग का प्रभाव
मुस्लिम व्यक्तिगत कानून पर धर्मत्याग का बहुत बड़ा प्रभाव है। यह माना जाता है कि इस्लाम से मनुष्य का धर्मत्याग विवाह के तत्काल विघटन को दर्शाता है। दूसरी ओर, इस्लाम से पत्नी द्वारा धर्मत्याग विवाह के तत्काल विघटन को नहीं दर्शाता है। मुस्लिम विवाह विघटन अधिनियम 1939 की धारा 5 के अनुसार, एक विवाहित मुस्लिम महिला को इस अधिनियम के तहत विवाह के विघटन के तहत डॉवर के संबंध में समान अधिकार प्राप्त होंगे। अधिनियम के तहत विवाह का विघटन, भले ही पत्नी के धर्मत्याग के बाद किया गया हो, उसके डाॅवर के अधिकार को नहीं छीनता है।
डॉवर और सीमा के लिए वाद
यदि पत्नी को जीवित रहते हुए डॉवर नहीं दिया जाता है, तो उसकी मृत्यु के बाद, उसके उत्तराधिकारी इसका दावा कर सकते हैं। परिसीमन अधिनियम (लिमिटेशन एक्ट), 1963 के अनुसार, तत्काल डाॅवर की वसूली के लिए एक मुकदमे की सीमा की अवधि उस तारीख से 3 साल है जब डाॅवर की मांग की जाती है, या इस से इनकार कर दिया जाता है। आस्थगित डाॅवर के मामले में, सीमा की अवधि 3 वर्ष उस तारीख से है जब विवाह मृत्यु या तलाक से भंग हो जाता है।
निष्कर्ष
इस्लामी कानून में महर की अवधारणा महिला के लिए फायदेमंद है। यह वित्तीय सुरक्षा सुनिश्चित करती है ताकि पति की मृत्यु के बाद या विवाह की समाप्ति के बाद वह असहाय न रह जाए। यह पति द्वारा तलाक के मनमौजी प्रयोग पर भी रोक लगाता है। यह भी माना जाता है कि महर मुसलमानों के विवाह में एक महत्वपूर्ण प्रथा है।
संदर्भ
- मुस्लिम कानून, अकील अहमद।
Nice post. I learn something new and challenging on sites I stumbleupon on a daily basis. Its always helpful to read through articles from other writers and use something from their web sites.