भारतीय संविधान का 44वां संशोधन अधिनियम

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Constitution of India
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यह लेख कोलकाता के एमिटी लॉ स्कूल की Oishika Banerji ने लिखा है। यह लेख भारतीय संविधान के 44वें संशोधन का विस्तृत विश्लेषण प्रदान करता है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja के द्वारा किया गया है।

परिचय 

भारतीय संविधान का 44वां संशोधन एक ऐसा अधिनियम है जिसे 1978 में 45वें संशोधन विधेयक द्वारा संविधान में पेश किया गया था। 42वें संशोधन अधिनियम, 1976 की शुरुआत के साथ, भारतीय संविधान के विभिन्न प्रावधानों को, राष्ट्र के नागरिकों की इच्छा के विरुद्ध संशोधनों और परिवर्तनो के अधीन किया गया था। इसे, आपातकाल, जिसे अनुच्छेद 352 के तहत घोषित किया गया था, के दौरान इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस द्वारा अधिनियमित किया गया था। उन परिवर्तनों को बदलने और राज्य और उसके लोगों के बीच सामंजस्य (हार्मनी) स्थापित करने के लिए, संविधान (44वां संशोधन) अधिनियम, 1978 को लाया गया था। यह लेख भारतीय संविधान के 44वें संशोधन का विस्तृत विश्लेषण प्रदान करता है। 

44वें संशोधन अधिनियम, 1978 के लागू होने से पहले का परिदृश्य (सिनेरियो)

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 352 का उपयोग भारत में राष्ट्रीय आपातकाल घोषित करने के लिए किया गया था। 44वें संशोधन अधिनियम, 1978 से पहले, संविधान के अनुच्छेद 352 में कहा गया था कि देश के राष्ट्रपति आपातकाल की घोषणा कर सकते हैं यदि वह संतुष्ट होते हैं कि पूरे भारत या भारत के किसी भी क्षेत्र की सुरक्षा के लिए एक गंभीर खतरा बना हुआ है, चाहे वह युद्ध, बाहरी आक्रमण (एक्सटर्नल एग्रेशन) या आंतरिक अशांति के कारण हो। अनुच्छेद 352 के अनुसार, प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी ने अपने मंत्रिमंडल से परामर्श किए बिना अपना निर्णय राष्ट्रपति को प्रेषित (ट्रांसमिट) कर दिया और राष्ट्रपति ने घोषणा जारी कर दी थी। इंदिरा गांधी के मंत्रिमंडल ने निस्संदेह एक दिन बाद इस फैसले का समर्थन किया था। इस घोषणा को संसद के दोनों सदनों में साधारण बहुमत से मंजूरी दी गई थी। आपातकाल तब तक जारी रह सकता है जब तक कोई नया संसदीय निर्णय न आए।

1975 के आपातकाल के बाद, आपातकाल की घोषणा से संबंधित कानूनों को सावधानीपूर्वक समायोजित (एडजस्ट) और निर्दिष्ट किया गया था। स्वतंत्र वाक् (स्पीच) और असहमति के महत्व को फिर से स्थापित किया गया था, और कानून का शासन फिर से स्थापित किया गया था। हालांकि, हम अभी लोकतंत्र के प्रारंभिक चरण में हैं, तो अभी भी ऐसे कई अनुत्तरित प्रश्न हैं।

संविधान (44वां संशोधन) अधिनियम, 1978 

उद्देश्यों और कारणों का विवरण जो संविधान (45वें संशोधन) विधेयक, 1978 से जोड़ा गया था, जिसे संविधान (44वें संशोधन) अधिनियम, 1978 के रूप में अधिनियमित किया गया था, निम्नलिखित प्रदान करता है: 

  1. जीवन और स्वतंत्रता के मौलिक अधिकारों के साथ साथ संविधान के अन्य मौलिक अधिकारों को अस्थायी रूप से छीना जा सकता है, जैसा कि हाल के अनुभव से प्रदर्शित किया जा सकता है। इसके नतीजतन, भविष्य में इस तरह की स्थिति को फिर से होने से रोकने के लिए उचित सुरक्षा व्यवस्था की जानी चाहिए, साथ ही यह सुनिश्चित करना चाहिए कि जिस प्रकार की सरकार के तहत लोग रहना चाहते है, उसको तय करने में लोगों की सार्थक राय होनी चाहिए और इसलिए इस विधेयक का एक प्रमुख लक्ष्य इस मुद्दे का समाधान करना था।
  2. इसके परिणामस्वरूप, संविधान में कुछ ऐसे परिवर्तन प्रदान करने का प्रस्ताव किया गया था, जो इसके धर्मनिरपेक्ष (सेक्युलर) या लोकतांत्रिक चरित्र को कमजोर करने, मौलिक अधिकारों को छीनने या उसका उल्लंघन करने या, वयस्क मताधिकार (एडल्ट सफरेज) के आधार पर स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों में पूर्वाग्रह (प्रेजुडिस) या बाधा डालने का प्रभाव डालते हैं। न्यायपालिका की स्वतंत्रता को खतरे में तभी डाला जा सकता है जब उन्हें भारत के लोगों द्वारा जनमत संग्रह (रिफ्रेंडम) में डाले गए ज्यादातर मतों द्वारा अनुमोदित (अप्रूव) किया जाए, जिसमें कम से कम 51% मतदाताओं ने भाग लिया हो। यह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 368 में संशोधन करके सुनिश्चित किया जा रहा है।
  3. मौलिक अधिकारों के लिए वांछित उच्च स्थिति के कारण, संपत्ति का अधिकार, जो कई संवैधानिक संशोधनों का विषय रहा है, एक मौलिक अधिकार नहीं रहेगा और सिर्फ एक कानूनी अधिकार बन जाएगा। इस उद्देश्य के लिए आवश्यकता के अनुसार अनुच्छेद 19 में संशोधन किया जाएगा और अनुच्छेद 31 को हटा दिया जाएगा। हालांकि, संपत्ति को मौलिक अधिकारों की सूची से हटाने से यह सुनिश्चित होगा कि अल्पसंख्यकों (माइनोरिटी) को अपनी पसंद के शैक्षणिक संस्थानों को बनाने और संचालित (ऑपरेट) करने की स्वतंत्रता को नुकसान नहीं होगा।
  4. इसी तरह, निजी कृषि के लिए और अधिकतम सीमा के भीतर भूमि रखने वालों को बाजार मूल्य पर मुआवजा प्राप्त करने के उनके अधिकार में कोई नुकसान नहीं होगा।
  5. जबकि संपत्ति अब मौलिक अधिकार नहीं होगी, इसे कानूनी अधिकार के रूप में स्पष्ट मान्यता इस शर्त के साथ दी जाएगी कि किसी को भी उनकी संपत्ति से तब तक बेदखल नहीं किया जा सकता जब तक कि कानून का अनुपालन (कंपलायंस) न हो।
  6. अनुच्छेद 352 के तहत आपातकाल की उद्घोषणा (प्रोक्लेमेशन) संविधान को आपातकाल की पूरी अवधि के लिए संघीय (युनिटरी) राज्य में बदलकर प्रभावी रूप से संशोधित करती है और नागरिकों को अदालत में उनके निलंबित हुए मौलिक अधिकारों, जैसे कि जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार, के लिए याचिका दायर करने की अनुमति देती है। इसके नतीजतन, यह सुनिश्चित करने के लिए पर्याप्त सुरक्षा उपायों की आवश्यकता है कि यह प्राधिकरण (अथॉरिटी) उचित रूप से नियोजित है और इसका दुरुपयोग नहीं किया जा रहा है। नतीजतन, यह कहा जाता है कि आपातकाल की उद्घोषणा तभी जारी की जानी चाहिए जब भारत या उसके क्षेत्र की सुरक्षा युद्ध, बाहरी आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह से खतरे में हो। आंतरिक अशांति, जो सशस्त्र विद्रोह के स्तर तक नहीं पहुंचती है वह उद्घोषणा जारी करने का आधार नहीं होगी।
  7. इसके अलावा, यह गारंटी देने के लिए कि सावधानीपूर्वक अध्ययन के बाद ही एक उद्घोषणा जारी की जाएगी, यह प्रस्तावित किया जाता है कि केवल मंत्रिमंडल के द्वारा राष्ट्रपति को लिखित सलाह देने के आधार पर ही आपातकाल घोषित किया जाता है। चूंकि आपातकाल की उद्घोषणा संविधान में प्रभावी रूप से संशोधन करती है, यह निर्धारित किया गया है कि उद्घोषणा को संसद के दोनों सदनों द्वारा आवश्यक बहुमत के साथ अनुमोदित किया जाना चाहिए जैसे की संविधान में संशोधन के लिए किया जाता है और इस तरह की स्वीकृति एक महीने के भीतर प्राप्त की जानी चाहिए। ऐसी कोई भी उद्घोषणा केवल छह महीने के लिए प्रभावी रहेगी और केवल उसी बहुमत से पारित प्रस्तावों द्वारा ही नवीनीकृत (रिन्यू) की जा सकती है। यदि लोक सभा उद्घोषणा के जारी रहने की निंदा करते हुए प्रस्ताव पारित करती है, तो उद्घोषणा भी समाप्त हो जाएगी। उद्घोषणा की निंदा करने वाले प्रस्ताव की जांच के लिए 10% या उससे अधिक लोक सभा के सदस्यों द्वारा एक विशेष बैठक बुलाई जा सकती है।
  8. यह प्रदान किया जाएगा कि मौलिक अधिकार के प्रवर्तन (एनफोर्समेंट) के लिए अदालत में जाने के अधिकार को निलंबित (सस्पेंड) करने की शक्ति का प्रयोग, जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार के संबंध में नहीं किया जा सकता है और यह आपातकालीन प्रावधानों के दुरुपयोग के खिलाफ एक जांच के रूप में किया जाएगा जिससे इस अधिकार को एक सुरक्षित स्तर पर रखा जा सके। यह शर्त कि निवारक निरोध (प्रीवेंटिव डिटेंशन) के लिए कानून, किसी भी स्थिति में दो महीने से अधिक समय तक निरोध की अनुमति नहीं दे सकता है जब तक कि एक सलाहकार बोर्ड के द्वारा प्रमाणित नहीं किया गया हो, कि इस तरह के निरोध के लिए पर्याप्त आधार हैं, तो यह स्वतंत्रता के अधिकार को और भी मजबूत करता है। यह आवश्यकता कि एक सलाहकार बोर्ड के अध्यक्ष एक उपयुक्त उच्च न्यायालय के एक सेवारत  (सर्विंग) न्यायाधीश हैं, और यह कि मुख्य न्यायाधीश की सिफारिशों के अनुरूप बोर्ड का गठन किया गया है, यह अतिरिक्त सुरक्षा प्रदान करेगा। 
  9. संसद और राज्य विधानसभाओं में होने वाली घटनाओं पर खुले तौर पर और बिना किसी प्रतिबंध के रिपोर्ट करने के मीडिया के अधिकार की रक्षा के लिए एक विशेष प्रावधान बनाया जा रहा है। राज्यों में संवैधानिक तंत्र (मशीनरी) के टूटने से संबंधित खंड (क्लॉज) को यह निर्दिष्ट करने के लिए संशोधित किया जा रहा है कि अनुच्छेद 356 के तहत जारी की गई उद्घोषणा पहली बार में केवल छह महीने के लिए प्रभावी होगी और यह ज्यादातर मामलों में एक वर्ष से अधिक जारी नहीं रह सकती है। हालांकि, यदि आपातकाल की उद्घोषणा प्रभावी है और चुनाव आयोग प्रमाणित करता है कि राज्य की विधान सभा के चुनाव कराने में कठिनाइयों के कारण राष्ट्रपति शासन को एक वर्ष से अधिक बढ़ाना आवश्यक है, तो उद्घोषणा के संचालन की अवधि को एक वर्ष से आगे बढ़ाया जा सकता है। यह वर्तमान तीन साल के प्रतिबंध के अधीन है। इन उपायों से यह सुनिश्चित होगा कि चुनाव आयोजित करने के लिए आवश्यक न्यूनतम (मिनिमम) समय के बाद राज्य का लोकतांत्रिक शासन बहाल (रिस्टोर) होगा।
  10. देरी से बचने के लिए, अनुच्छेद 132, 133, और 134 में संशोधन करने और एक नया अनुच्छेद 134A जोड़ने का प्रस्ताव किया गया है जिसमें यह कहा गया है कि एक उच्च न्यायालय को एक पक्ष द्वारा मौखिक आवेदन के आधार पर या, यदि उच्च न्यायालय इसे उचित समझे, तो निर्णय, डिक्री, अंतिम आदेश, या विचाराधीन सजा के वितरण के तुरंत बाद, अपने स्वयं के प्रस्ताव पर, सर्वोच्च न्यायालय में अपील करने के लिए एक प्रमाण पत्र (सर्टिफिकेट) देने पर विचार करना सकता है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दी गई अपील की विशेष अनुमति के मामलों में अनुच्छेद 136 अनन्य (एक्सक्लूसिव) नियम होगा।
  11. विधेयक में सुझाए गए अन्य संशोधन मुख्य रूप से आंतरिक (इंटरनल) आपातकाल के दौरान अपनाए गए कानून के परिणामस्वरूप उत्पन्न होने वाली संवैधानिक विकृतियों (डिस्टॉर्शन) को दूर करने या सुधारने के उद्देश्य से हैं।

44वें संशोधन अधिनियम, 1978 द्वारा पेश किए गए परिवर्तनों का एक संक्षिप्त अवलोकन (ओवरव्यू)

44वें संशोधन अधिनियम, 1978 द्वारा पेश किए गए परिवर्तनों को यहां दिया गया है।

  1. संविधान का संशोधन (42वां संशोधन) अधिनियम, 1976: संविधान (42वां संशोधन) अधिनियम, 1976 में धारा 18, 19, 21, 22, 31, 32, 34, 35, 58 और 59 को हटा दिया जाएगा।
  2. अनुच्छेद 19 का संशोधन (स्वतंत्रता का अधिकार): भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19 में 44वें संशोधन अधिनियम, 1978 द्वारा जो परिवर्तन किए गए थे, उन्हें यहां प्रदान किया गया है: 
    • खंड (1) के उपखंड (सब क्लॉज) (e) में, “और” शब्द को अंत में डाला गया था।
    • उपखंड (f) को हटा दिया गया था।
    • खंड (5) में, शब्दों, कोष्ठकों (ब्रैकेट) और अक्षरों “उप-खंड (d), (e) और (f)” के लिए, शब्द, कोष्ठक और अक्षर “उप-खंड (d) और (e)” को प्रतिस्थापित (सब्स्टीट्यूट) किया गया था।
  3. अनुच्छेद 22 का संशोधन (कुछ मामलों में गिरफ्तारी और निरोध के खिलाफ संरक्षण): 
    • अनुच्छेद 22 के खंड 4 में परिवर्तन किया गया था।
    • खंड (7) में, उप-खंड (a) को हटा दिया गया था, उप-खंड (b) को उप-खंड (a) के रूप में फिर से लिखा गया था और उप-खंड (c) को उप-खंड (b) के रूप में फिर से लिखा गया था और उप-खंड में, जैसा कि फिर से लिखा गया है, शब्द, कोष्ठक, अक्षर और अंक “खंड (4) के उप-खंड (a)” के लिए, शब्द, कोष्ठक और अंक “खंड (4)” को प्रतिस्थापित कर दिया गया था।
  4. अनुच्छेद 30 का संशोधन (अल्पसंख्यकों का, शैक्षणिक संस्थानों की स्थापना और प्रशासन (एडमिंसिट्रेशन) का अधिकार):
    • खंड 1A डाला गया था, और
    • संविधान के अनुच्छेद 30 के बाद आने वाले उप-शीर्षक “संपत्ति का अधिकार” को हटा दिया गया था।
  5. अनुच्छेद 31 (डाक और टेलीग्राफ; टेलीफोन, वायरलेस, प्रसारण (ब्रॉडकास्ट) और संचार (कम्युनिकेशन) के अन्य समान रूप) को हटा दिया गया था: संपत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकारों की सूची से हटा दिया गया था और कानूनी अधिकार का दर्जा दिया गया था। संविधान का अनुच्छेद 31, जो संपत्ति के जबरन अधिग्रहण (फोर्सड एक्विजिशन) से संबंधित था, को हटा दिया गया था।
  6. अनुच्छेद 31A का संशोधन (संपदा (एस्टेट्स) के अधिग्रहण के लिए प्रदान करने वाले कानूनों की व्यावृत्ति (सेविंग), आदि): संविधान के अनुच्छेद 31A के खंड (1) में, शब्द और संख्या “अनुच्छेद 14, अनुच्छेद 19, या अनुच्छेद 31″ को शब्द और संख्या “अनुच्छेद 14 या अनुच्छेद 19” से प्रतिस्थापित किया गया था।  
  7. अनुच्छेद 31C का संशोधन (कुछ निर्देशक सिद्धांतों (डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स) को प्रभावी करने वाले कानूनों की व्यावृत्ति): “अनुच्छेद 14 या अनुच्छेद 19” को संविधान के अनुच्छेद 31C में “अनुच्छेद 14, अनुच्छेद 19, या अनुच्छेद 31” शब्दों और संख्याओं के साथ प्रतिस्थापित किया गया था।
  8. अनुच्छेद 38 का संशोधन (लोगों के कल्याण को बढ़ावा देने के लिए एक सामाजिक व्यवस्था को सुरक्षित करने के लिए राज्य का कर्त्तव्य): अनुच्छेद 38 में, एक नया निर्देशक सिद्धांत जोड़ा गया था, जिसमें कहा गया था कि लोगों के कल्याण को बढ़ावा देने के लिए राज्य को सामाजिक व्यवस्था बनाए रखना चाहिए। 
  9. अनुच्छेद 71 के लिए नए अनुच्छेद का प्रतिस्थापन: अनुच्छेद 71 को 44वें संशोधन अधिनियम, 1978 द्वारा राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति के चुनाव या संसक्त विषय (कनेक्टेड मैटर) से संबंधित एक नए अनुच्छेद के साथ प्रतिस्थापित किया गया था। 
  10. अनुच्छेद 74 का संशोधन: अनुच्छेद 74(1) में एक परंतुक (प्रोविजो) शामिल करने के लिए संशोधन किया गया था कि राष्ट्रपति मंत्रिपरिषद से उन्हें दी गई किसी भी सलाह पर पुनर्विचार करने का अनुरोध कर सकते है, लेकिन राष्ट्रपति को इस तरह के पुनर्विचार के बाद दी गई सलाह के अनुसार कार्य करना होगा। पहले, राष्ट्रपति को मंत्रिपरिषद की सलाह के अनुरूप कार्य करना आवश्यक था।
  11. अनुच्छेद 77 का संशोधन (राष्ट्रपति या उपराष्ट्रपति के चुनाव से संबंधित मामले): अनुच्छेद 77 के खंड 4 को 1978 के संशोधन अधिनियम द्वारा हटा दिया गया था।
  12. अनुच्छेद 83 (संसद के सदनों की अवधि) और 172 (राज्य विधानमंडलों की अवधि) का संशोधन: लोक सभा और राज्य विधानसभाओं की अवधि को अनुच्छेद 83 और 172 में संशोधन करके पांच साल तक बढ़ा दिया गया था। 42वें संवैधानिक (संशोधन) अधिनियम द्वारा लोक सभा और राज्य सभा का कार्यकाल 5 वर्ष से बढ़ाकर 6 वर्ष कर दिया गया था।
  13. अनुच्छेद 103 (सदस्यों की अयोग्यता के बारे में प्रश्नों पर निर्णय) और 192: अनुच्छेद 103 और 192 जो की सदस्यों की अयोग्यता के बारे में प्रश्नों पर निर्णय से संबंधित है, को यह प्रावधान करने के लिए प्रतिस्थापित किया गया था कि राज्य विधानमंडल के सदस्य के मामले में, अयोग्यता के प्रश्न पर राष्ट्रपति का निर्णय चुनाव आयोग की राय के अनुसार होगा।
  14. अनुच्छेद 105 का संशोधन (संसद के सदनों और उसके सदस्यों और समितियों की शक्तियाँ, विशेषाधिकार आदि): संविधान के अनुच्छेद 105 के खंड (3) में, शब्दों “वे यूनाइटेड किंगडम की संसद हाउस ऑफ कॉमन्स और उसके सदस्यों और समितियों के होंगे, जो इस संविधान के प्रारंभ में थे, को शब्द, अंक और कोष्ठक “संविधान (44वां संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 15 के लागू होने से ठीक पहले उस सदन और उसके सदस्यों और समितियों के होंगे” से प्रतिस्थापित किया गया था।
  15. अनुच्छेद 123 का संशोधन (संसद के विश्रांतिकाल (रिसेस) के दौरान अध्यादेश (ऑर्डिनेंस) जारी करने की राष्ट्रपति की शक्ति): अनुच्छेद 123 के खंड 4 को हटा दिया गया था। 
  16. अनुच्छेद 132 का संशोधन (कुछ मामलों में उच्च न्यायालयों से अपील में सर्वोच्च न्यायालय का अपीलीय अधिकार क्षेत्र (ज्यूरिस्डिक्शन)):  संविधान के अनुच्छेद 132 में, 
    • शब्द, अंक और अक्षर “यदि उच्च न्यायालय अनुच्छेद 134A के तहत प्रमाणित करता है” को खंड (1) में “यदि उच्च न्यायालय प्रमाणित करता है” शब्दों से प्रतिस्थापित किया गया।
    • खंड (2) को हटाया गया, और
    • खंड (3) में, शब्द “या ऐसी अनुमति दी जाती है,” और शब्द “और, सर्वोच्च न्यायालय की अनुमति के साथ, किसी अन्य आधार पर” शब्दों को हटाया गया।
  17. अनुच्छेद 133 का संशोधन (दीवानी मामलों के संबंध में उच्च न्यायालयों से अपील में सर्वोच्च न्यायालय का अपीलीय अधिकार क्षेत्र): संविधान के अनुच्छेद 133 के खंड (1) में, शब्द, संख्या और अक्षर “यदि उच्च न्यायालय अनुच्छेद 134A के तहत प्रमाणित करता है” को “यदि उच्च न्यायालय अनुच्छेद 134 A के तहत प्रमाणित करता है तो” से बदला गया था।
  18. अनुच्छेद 134 का संशोधन (आपराधिक मामलों के संबंध में सर्वोच्च न्यायालय का अपीलीय अधिकार क्षेत्र): शब्द, संख्या और अक्षर “अनुच्छेद 134 A के तहत प्रमाणित” को संविधान के अनुच्छेद 134 A के खंड (1) के उप-पैराग्राफ (c) में “प्रमाणित” शब्द के लिए प्रतिस्थापित किया गया था। 
  19. अनुच्छेद 134A को डालना (सर्वोच्च न्यायालय में अपील के लिए प्रमाण पत्र, प्रत्येक उच्च न्यायालय के द्वारा, निर्णय, डिक्री, अंतिम आदेश, या सजा पारित करना जैसे की अनुच्छेद 132 के खंड (1) या अनुच्छेद 133 के खंड (1) या अनुच्छेद 134 का खंड (1) में संदर्भित किया गया है):  अनुच्छेद 134 A को संविधान में डाला गया था, जो सर्वोच्च न्यायालय में अपील के लिए प्रमाण पत्र से संबंधित है। 
  20. अनुच्छेद 139A का संशोधन (कुछ मामलों का स्थानांतरण (ट्रांसफर)): अनुच्छेद 139 A के खंड (1) में परिवर्तन किया गया था।
  21. अनुच्छेद 150 का संशोधन (संघ और राज्यों के लेखाओं (अकाउंट्स) का रूप): संविधान के अनुच्छेद 150 में “की सलाह पर” शब्दों को “परामर्श के बाद” शब्दों के साथ बदल दिया गया था।
  22. अनुच्छेद 166 का संशोधन (एक राज्य की सरकार के कामकाज का संचालन): संविधान के अनुच्छेद 166 के खंड (4) को हटा दिया गया था।
  23. अनुच्छेद 194 का संशोधन (विधायिकाओं के सदन और उसके सदस्यों और समितियों की शक्तियाँ, विशेषाधिकार आदि): संविधान के अनुच्छेद 194 के खंड (3) में, शब्दों “इस संविधान के प्रारंभ में, यूनाइटेड किंगडम की संसद हाउस ऑफ कॉमन्स और उसके सदस्यों और समितियों के होंगे,” शब्द, अंक और कोष्ठक “संविधान की (44वां संशोधन) अधिनियम, 1978 की धारा 26 के लागू होने से ठीक पहले उस सदन के, और उसके सदस्यों और समितियों के होंगे” से प्रतिस्थापित किया गया था।
  24. अनुच्छेद 213 का संशोधन (विधायिका के विश्रांतिकाल के दौरान अध्यादेश जारी करने की राज्यपाल की शक्ति): संविधान के अनुच्छेद 213 में, खंड (4) को हटा दिया गया था।
  25. अनुच्छेद 217 का संशोधन (उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की नियुक्ति और पद की शर्तें): संविधान के अनुच्छेद 217 में, खंड (2) में,
    • उप-खंड (b) के अंत में शब्द “या” को हटाया दिया गया था;
    • उप-खंड (c) को हटा दिया गया था,
    • स्पष्टीकरण में, खंड (a) को खंड (aa) के रूप में फिर से लिखा गया था, और निम्नलिखित को खंड (a) से पहले डाला गया था, ” उस अवधि की गणना में जिसके दौरान एक व्यक्ति ने भारत के क्षेत्र में न्यायिक कार्यालय का आयोजन किया है, किसी भी न्यायिक पद पर रहने के बाद की कोई अवधि, जिसके दौरान वह व्यक्ति उच्च न्यायालय का अधिवक्ता रहा हो या किसी न्यायाधिकरण (ट्रिब्यूनल) के सदस्य या किसी पद पर रहा हो”
  26. अनुच्छेद 225 का संशोधन (मौजूदा उच्च न्यायालयों का अधिकार क्षेत्र): संविधान के अनुच्छेद 225 के अंत में निम्नलिखित परंतुक रखा गया था :
    • “परंतु राजस्व (रेवेन्यू) संबंधी अथवा उसका संग्रहण (कलेक्शन) करने में आदिष्ट (ऑर्डर्ड) या किए गए किसी कार्य संबंधी विषय की बाबत उच्च न्यायालयों में से किसी की आरंभिक अधिकारिता का प्रयोग, इस संविधान के प्रारंभ से ठीक पहले, जिस किसी निर्बंधन (रिस्ट्रिक्शन) के अधीन था, वह निर्बंधन ऐसी अधिकारिता के प्रयोग को ऐसे प्रारंभ के पश्चात लागू नहीं होगा।”
  27. अनुच्छेद 226 का संशोधन (कुछ रिट जारी करने के लिए उच्च न्यायालयों की शक्ति) और 227 (उच्च न्यायालय द्वारा सभी अदालतों पर अधीक्षण (सुपरिंटेंडेंस) की शक्ति): मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन के अलावा अन्य उद्देश्यों के लिए रिट जारी करने की उच्च न्यायालय की क्षमता को अनुच्छेद 226 में संशोधन करके बहाल किया गया था। उच्च न्यायालय के अपने भौगोलिक (ज्योग्राफिकल) अधिकार क्षेत्र के भीतर सभी न्यायालयों और न्यायाधिकरणों पर पर्यवेक्षण के अधिकार को अनुच्छेद 227 में संशोधन करके बहाल किया गया था। इसने उन वर्गों को हटा दिया, जिन्होंने राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, प्रधान मंत्री और लोकसभा के अध्यक्ष के चुनावी विवादों पर निर्णय लेने की क्षमता को छीन लिया था।
  28. अनुच्छेद 239B का संशोधन (विधायिका के अवकाश के दौरान अध्यादेशों को उद्घोषित करने की प्रशासक की शक्ति): संविधान के अनुच्छेद 239B में, खंड (4) को हटा दिया गया था।
  29. अनुच्छेद 257A को हटाना: अनुच्छेद 257A, जो एक गंभीर संकट से निपटने के लिए अपने सैन्य बलों या अन्य केंद्रीय बलों को भेजने के लिए केंद्र सरकार की क्षमता से संबंधित था, को हटा दिया गया था।
  30. भाग XII में नए अध्याय IV को जोड़ना: भारतीय संविधान के भाग XII में, अध्याय III के बाद, अनुच्छेद 300A के तहत संपत्ति के अधिकार से संबंधित अध्याय IV डाला गया था।
  31. अनुच्छेद 329 का संशोधन (चुनावी मामलों में अदालतों के हस्तक्षेप पर रोक) और अनुच्छेद 329 A को हटाना: शब्द, संख्या और अक्षर “लेकिन अनुच्छेद 329 A की शर्तों के अधीन” को संविधान के अनुच्छेद 329 के शुरुआती पैराग्राफ से हटा दिया गया था। संविधान के अनुच्छेद 329 A को हटा दिया गया था। 
  32. अनुच्छेद 352, 356, और 358 का संशोधन: 1978 के अधिनियम के तहत आपातकाल की उद्घोषणा कई परिवर्तनों के अधीन थी जिनकी चर्चा इस लेख में बाद में की गई है।
  33. अनुच्छेद 359 का संशोधन (आपातकाल के दौरान भाग III द्वारा प्रदत्त अधिकारों के प्रवर्तन का निलंबन (सस्पेंशन)): संविधान का अनुच्छेद 359 इस प्रकार है:
    • खंड (1) और (1A) में, शब्द, अंक और कोष्ठक “भाग III द्वारा दिए गए अधिकार (अनुच्छेद 20 और 21 को छोड़कर)” को “भाग III द्वारा प्रदत्त अधिकार (अनुच्छेद 20 और 21 को छोड़कर)” शब्दों, अंकों और कोष्ठकों के साथ बदल दिया गया था। 
    • निम्नलिखित वाक्य खंड (1A) के बाद रखा गया था:

“(1b) पैराग्राफ (1a) के प्रावधान लागू नहीं होंगे-

(i) किसी भी कानून के लिए जिसमें यह कहते हुए एक पाठ शामिल नहीं है कि यह आपातकाल की उद्घोषणा पर लागू होता है, जिस समय इसे जारी किया जाता है; या

(ii) किसी भी कार्यकारी (एग्जिक्यूटिव) कार्रवाई के लिए, जो इस तरह के एक पाठ को प्रदान करने वाले क़ानून के अनुसार नहीं की जाती है”।

34. अनुच्छेद 360 का संशोधन (वित्तीय आपातकाल के रूप में प्रावधान): अनुच्छेद 360, खंड (5) को हटा दिया गया था, जो यह निर्धारित करता है कि किसी भी वर्ग में देश की वित्तीय स्थिरता या क्रेडिट को खतरे में डालने वाली स्थिति की घटना के बारे में राष्ट्रपति की संतुष्टि अंतिम और निर्णायक (कंक्लूसिव) है।

35. नया अनुच्छेद 361A (संसद और राज्य विधानमंडलों की कार्यवाही के प्रकाशन (पब्लिकेशन) से संरक्षण) को जोड़ा गया था: भारतीय संविधान का अनुच्छेद 361A संसद और राज्य विधानमंडलों की कार्यवाही के प्रकाशन के संरक्षण से संबंधित है।

36. अनुच्छेद 371F का संशोधन (सिक्किम राज्य के संबंध में विशेष प्रावधान): भारतीय संविधान के अनुच्छेद 371F के खंड (C) में , शब्द “छह साल” को “पांच साल” से बदल दिया गया था, और शब्द “पांच वर्ष” को दोनों उदाहरणों में “चार वर्ष” से प्रतिस्थापित किया गया था ।

37. नौवीं अनुसूची का संशोधन: भारतीय संविधान की नौवीं अनुसूची में प्रविष्टियाँ (एंट्रीज) 87, 92 और 130 को हटा दिया गया था।

44वें संशोधन अधिनियम, 1978 के तहत संपत्ति का अधिकार

संपत्ति के अधिकार का दायरा, मूल रूप से बनाए गए संविधान में, विधायिका के द्वारा साल दर साल कम किया जा रहा था। 1978 में अधिनियमित संविधान के 44वें संशोधन के द्वारा एक महत्वपूर्ण बदलाव लाया गया था। इसने संविधान के संपत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकार से हटा करके, संवैधानिक अधिकार के रूप में पुनर्वर्गीकृत (रीक्लासीफाई) करके बदल दिया था। अनुच्छेद 300A, जो पूरी तरह से अनुच्छेद 31(1) के अनुरूप है, को एक अलग अध्याय IV ‘संपत्ति का अधिकार’ के तहत भाग XII के तहत रखा गया है, जबकि भारत के संविधान के अनुच्छेद 19 (1) (F) और अनुच्छेद 31 को समाप्त कर दिया गया था। उपर्युक्त अनुच्छेद के संबंध में निम्नलिखित प्रभाव आए है;

  1. संपत्ति का अधिग्रहण करते समय मुआवजा प्रदान करने की आवश्यकता पर विधायिका के रवैये में बदलाव।
  2. संपत्ति और अन्य मूल अधिकारों के बीच घनिष्ठ संबंध।
  3. अंत में, मूल अधिकारों और निर्देशक सिद्धांतों के बीच संबंध।

44वें संशोधन अधिनियम, 1978 के तहत आपातकाल की उद्घोषणा

  1. अपने वर्तमान स्वरूप में, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 352 के तहत, राष्ट्रपति केवल आपातकाल की उद्घोषणा कर सकते हैं यदि प्रधान मंत्री और उनके मंत्रिमंडल लिखित रूप में उस संकट की स्थिति की पुष्टि करते हैं और राष्ट्रपति को देते हैं। राष्ट्रपति अनुच्छेद 74 के तहत प्रधान मंत्री और मंत्रिमंडल को आपातकालीन घोषणा के लिए लिखित पत्र भेज सकते हैं। यदि मंत्रिमंडल इसे फिर से भेजता है, तो राष्ट्रपति को इसका पालन करना होगा और आपातकाल की उद्घोषणा करनी चाहिए। 1975 के विपरीत, प्रधान मंत्री अब बिना लिखित स्पष्टीकरण या पारदर्शिता (ट्रांसपेरेंसी) के आपातकाल की घोषणा पर एकतरफा निर्णय नहीं ले सकते है। 
  2. इसी तरह, संसद में एक साधारण बहुमत अब आपातकाल उद्घोषणा करने के लिए पर्याप्त नहीं है। 44वें संशोधन 1978 के बाद आपातकाल के लिए विशेष बहुमत की आवश्यकता है। उद्घोषणा को संसद के प्रत्येक सदन की संपूर्ण सदस्यता के बहुमत के साथ-साथ उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के कम से कम दो-तिहाई बहुमत द्वारा अनुमोदित किया जाना चाहिए। पहले, दोनों सदनों से बहुमत के अभाव में, उद्घोषणा दो महीने के बाद समाप्त हो जाती थी। हालांकि, 44वें संशोधन के बाद, इस अवधि को घटाकर केवल एक महीने कर दिया गया है। 
  3. 1975 में संसद के दोनों सदनों द्वारा निर्णय की पुष्टि के बाद, आपातकाल की उद्घोषणा की आवधिक समीक्षा (पीरियोडिक रिव्यू) के लिए कोई प्रावधान नहीं था। 44वें संशोधन अधिनियम, 1978 ने अनिवार्य किया कि आपातकालीन उद्घोषणा पर छह महीने के बाद फिर से विचार किया जाए और नई विधायी सहमति के अभाव में आपातकाल को समाप्त कर दिया जाए। संशोधन ने आगे कहा कि 10 प्रतिशत या अधिक लोकसभा सदस्य उद्घोषणा को रद्द करने के लिए एक विधेयक पर चर्चा करने के लिए एक बैठक बुला सकते हैं। इस प्रकृति की मांग 14 दिनों के भीतर जारी की जानी चाहिए। यदि विशेष रूप से बुलाई गई बैठक में साधारण बहुमत से विधेयक पारित हो जाता है तो आपातकाल को समाप्त कर दिया जाएगा। 
  4. ज्यादातर मामलों में, आपातकाल की अवधि एक वर्ष तक सीमित होती है। 44वें संशोधन अधिनियम, 1978 में कहा गया था कि राष्ट्रीय आपातकाल की स्थिति में संसदीय कार्यवाही के लिए सार्वजनिक पहुंच का अधिकार रद्द नहीं किया जाएगा। 
  5. इसके अलावा, 44वें संशोधन अधिनियम, 1978 ने अनुच्छेद 359 को बदल दिया, जिससे बंदी प्रत्यक्षीकरण (हैबियस कॉर्पस) के रूप में सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों में याचिका दायर करने की अनुमति मिल गई, जो 1975 के आपातकाल के दौरान उपलब्ध नहीं थी। 38वें संविधान संशोधन के अनुच्छेद 352(5) ने आपातकाल की घोषणा को न्यायोचित नहीं ठहराया। हालांकि, खंड 5 को हटा दिया गया था, अब कोई भी व्यक्ति सरकार के दुर्भावनापूर्ण इरादों के आधार पर किसी भी आपात स्थिति की उद्घोषणा को अदालत में चुनौती दे सकता है। राष्ट्रीय आपातकाल के संचालन (ऑपरेशन) के दौरान अनुच्छेद 20 और 21 के तहत अधिकारों के प्रवर्तन को निलंबित नहीं किया जा सकता है।

44वें संशोधन अधिनियम, 1978 के अनुसार राज्य आपातकाल

राज्य के संवैधानिक तंत्र के विफल होने की स्थिति में राष्ट्रपति की घोषणा करने की क्षमता से संबंधित अनुच्छेद 356 में निम्नलिखित खंड जोड़े गए थे:

  1. राज्यों में संवैधानिक तंत्र के टूटने से संबंधित खंड को यह निर्दिष्ट करने के लिए संशोधित किया गया था कि अनुच्छेद 356 के तहत जारी एक उद्घोषणा पहली बार में केवल छह महीने के लिए प्रभावी होगी और यह ज्यादातर मामलों में एक वर्ष से अधिक नहीं चल सकती है।
  2. हालांकि, यदि आपातकाल की उद्घोषणा प्रभावी है और चुनाव आयोग यह प्रमाणित करता है कि राज्य की विधान सभा के चुनाव कराने में कठिनाइयों के कारण राष्ट्रपति शासन को एक वर्ष से अधिक बढ़ाना आवश्यक है, तो उद्घोषणा के संचालन की अवधि को एक वर्ष से आगे बढ़ाया जा सकता है। यह तीन साल के प्रतिबंध के अधीन है। 

राष्ट्रपति की उद्घोषणा की न्यायिक समीक्षा 

  1. एक राष्ट्रपति अनुच्छेद 352 (1) के तहत आपातकाल की घोषणा कर सकता है यदि वह निश्चित है कि भारत या इसके एक हिस्से की सुरक्षा के लिए कोई खतरा मौजूद है। यह विषय इस सवाल से संबंधित है कि राष्ट्रपति की संतुष्टि जायज है या नहीं। निवारक निरोध पर आपातकाल की उद्घोषणा का प्रभाव, आपातकाल की उद्घोषणा के बाद अनुच्छेद 19 के निलंबन का प्रभाव, और अनुच्छेद 359 के तहत राष्ट्रपति के आदेश का प्रभाव, कुछ ऐसे मुद्दे हैं जिन पर समय के साथ अदालतों ने कई मामलों में विचार किया है।  
  2. अनुच्छेद 352 का उप-अनुच्छेद (5), 42 वें संशोधन द्वारा डाला गया था, जिसने राष्ट्रपति की संतुष्टि को, एक आपातकालीन की उद्घोषणा करने में अंतिम और निर्णायक माना है, बशर्ते कि किसी भी अदालत में इस तरह की संतुष्टि पर किसी भी आधार पर सवाल नहीं उठाया जाएगा, और किसी भी अदालत को राष्ट्रपति की उद्घोषणा की वैधता और इसके निरंतर संचालन पर विचार करने से रोक दिया जाएगा। यह स्पष्ट था कि किसी उद्घोषणा या उसके जारी रहने की न्यायिक समीक्षा का कोई इरादा नहीं था। 
  3. 44वें संशोधन ने तब खंड (5) को समाप्त कर दिया, जो यह दर्शाता है कि एक उद्घोषणा के दुर्भावनापूर्ण मुद्दे को देखने के लिए अदालत के अधिकार क्षेत्र या इसके दुर्भावनापूर्ण निरंतरता से इंकार नहीं किया जाना चाहिए।

निष्कर्ष 

भारतीय संविधान का 44वां संशोधन महत्वपूर्ण था क्योंकि इसने 42वें संशोधन द्वारा पेश की गई विकृतियों को आंशिक रूप से उलट दिया था। इसने भविष्य में उनका दुरुपयोग होने से रोकने के लिए संविधान के आपातकालीन प्रावधानों को बदल दिया। सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों को 42वें संशोधन से पहले उनके अधिकार क्षेत्र और शक्ति वापस दे दी गई थी। इसने संविधान के धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक मूल्यों को बहाल किया था।

संदर्भ 

 

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