निषेध की रिट 

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Constitution of India
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यह लेख सत्यबामा विज्ञान और प्रौद्योगिकी संस्थान के Michael Shriney द्वारा लिखा गया है। यह लेख निषेध (प्रोहिबिशन) के रिट, उसके आधार, इसे जारी करने की विधि, प्रासंगिक मामलो, साथ ही उत्प्रेशन लेख (सर्टियोररी) और निषेध रिट के बीच के अंतर की व्याख्या करता है। इस लेख का अनुवाद Revati Magaonkar द्वारा किया गया है।

परिचय 

भारत के संविधान ने अनुच्छेद 12-35 के तहत सभी भारतीय नागरिकों को अंतर्निहित (इन्हेरेंट) मौलिक अधिकार दिए हैं। यदि किसी भारतीय नागरिक के मौलिक अधिकारों का राज्य या निजी निकाय द्वारा उल्लंघन किया जाता है, तो वे भारतीय संविधान के अनुच्छेद 226 और 32 के तहत उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय में रिट याचिका दायर करके उपचार प्राप्त कर सकते हैं।

इस लेख में निषेध के रिट को शामिल किया गया है, जिसे कभी-कभी ‘स्टे ऑर्डर’ के रूप में भी जाना जाता है। निषेध रिट का उद्देश्य किसी कार्य को रोकना या मना करना है। यह एक रिट है जो निचली न्यायालयों या न्यायाधिकरण न्यायालयों (ट्रिब्यूनल) को आदेश जारी करने या उच्च न्यायालयों द्वारा आदेशित कार्य करने से रोकती है। निम्नलिखित लेख में, इस रिट को जारी करने के कारणों, विभिन्न देशों में उत्प्रेषण लेख और निषेध रिट, विभिन्न मामले और निषेध के रिट के बीच के अंतर पर संक्षेप में चर्चा की गई है।

रिट्स का संक्षिप्त परिचय

रिट सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय द्वारा जारी लिखित आदेश होते हैं जो उन भारतीय नागरिकों के लिए संवैधानिक उपचार का निर्देश देते हैं, जिनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन किया जाता है। यह भारतीय संविधान में उल्लिखित न्यायालयों में से एक औपचारिक लिखित आदेश भी है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 32 और 226 के तहत सर्वोच्च न्यायालय या उच्च न्यायालय द्वारा रिट जारी किए जाते हैं। यह तब जारी किया जाता है जब भारत के नागरिको के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होता हैं। रिट पांच प्रकार की होती हैं: बंदी प्रत्यक्षीकरण (हैबियस कॉर्पस), परमादेश (मैंडमस), निषेध, अधिकार पृच्छा (क्वो वारंटो) और उत्प्रेषण लेख।

बंदी प्रत्यक्षीकरण: बंदी प्रत्यक्षीकरण एक लैटिन शब्द है, जिसका अर्थ है ‘शरीर को न्यायालय के सामने प्रस्तुत करना’। उदाहरण के लिए, यदि किसी व्यक्ति को गलत तरीके से जेल में रखा जाता है, तो न्यायालय बंदी प्रत्यक्षीकरण का रिट जारी करती है, जिसमें 24 घंटे के भीतर शरीर को पेश करने का आदेश दिया जाता है ताकि हिरासत में लिए गए व्यक्ति को अपनी बेगुनाही साबित करने की अनुमति मिल सके। अगर उसे निर्दोष करार दिया जाता है, तो उसे रिहा कर दिया जाना चाहिए, नहीं तो उसे जेल हो जाएगी।

परमादेश: परमादेश एक लैटिन शब्द है, जिसका अर्थ है ‘आदेश/ कमांड’। यह किसी निजी व्यक्ति या कंपनी के खिलाफ नहीं दिया जा सकता है। उच्च न्यायालय सार्वजनिक अधिकारियों पर जाँच करने के लिए परमादेश के रिट जारी करते हैं ताकि यह पता किया जा सके की क्या वे अपने दायित्वों को ठीक से निभा रहे हैं। यदि वे ऐसा नहीं करते हैं, तो उनसे अनुरोध किया जाता है कि वे अपने कार्य को सही से अंजाम दें या कुछ निर्दिष्ट कार्य न करें। यह एक सार्वजनिक प्राधिकरण, कंपनी, न्यायाधिकरण, या निचली न्यायालय के खिलाफ जारी किया जाता है।

निषेध: निषेध एक कानूनी शब्द है, जिसका अर्थ है ‘निषेध करना, रोकना या मना करना’। एक उच्च न्यायालय अपने अधिकार से अधिक या अपने आवश्यक अधिकार क्षेत्र से परे जाने से रोकने के लिए निचली न्यायालय के खिलाफ निषेध का एक रिट जारी करता है। इसे प्रशासनिक एजेंसियों, वैधानिक प्राधिकरणों (स्टैच्यूटरी अथॉरिटी), या निजी व्यक्तियों या उद्यमों (एंटरप्राईजेस) के खिलाफ लागू नहीं किया जा सकता है। यह विशेष रूप से न्यायिक और अर्ध-न्यायिक (क्वासी ज्यूडिशियल) निकायों पर लागू होता है। 

अधिकार पृच्छा:  अधिकार पृच्छा का सटीक अर्थ “किस अधिकार या वारंट द्वारा” है। यह रिट आहत (ऑफेंडेड) पक्ष के अलावा किसी को भी उपचार प्राप्त करने का अधिकार प्रदान करती है। इसे मंत्री कार्यालय के विरुद्ध जारी नहीं किया जा सकता है। इस रिट का उपयोग किसी सार्वजनिक कार्यालय पर विवाद को निपटाने के लिए किया जाता है, चाहे उसके पास उस पद को धारण करने का कानूनी अधिकार हो या न हो।

उत्प्रेशन लेख: उत्प्रेशन लेख एक लैटिन शब्द से आया है, जिसका अर्थ है ‘प्रमाणित’। यह रिट उच्च न्यायालय या सर्वोच्च न्यायालय द्वारा निचली न्यायालय या न्यायाधिकरण के खिलाफ जारी किया जाएगा ताकि मामले को उचित निर्णय के लिए किसी अन्य वरिष्ठ निकाय में स्थानांतरित (ट्रांसफर) किया जा सके। दूसरे शब्दों में, यह निचली न्यायालय की अपील या निचली न्यायालय के फैसले की समीक्षा (रिव्यू) है।

निषेध की रिट जारी करने के लिए आधार

निषेध की रिट विशेष परिस्थितियों में जारी की जाती है, जब निचली या अधीनस्थ न्यायालय या न्यायाधिकरण-

  1. अपने अधिकार क्षेत्र के बिना कार्य करता है या अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर कार्य करता है, अर्थात, अधिकार क्षेत्र की त्रुटि (ज्यूरिस्डीक्शनल एरर);
  2. अपनी शक्तियों के विरुद्ध जाता है, अर्थात अमान्य कानून के रूप में कार्य करता है;
  3. नैसर्गिक न्याय (नेचुरल जस्टिस) मानकों का उल्लंघन करता है, अर्थात नैसर्गिक न्याय की विफलता होना, जो कि समानता है;
  4. अल्ट्रा वायर्स या असंवैधानिक रूप से कार्य करता है;
  5. मूल अधिकारों के उल्लंघन में कार्य करता है;
  6. रिकॉर्ड के आधार पर त्रुटि के रूप में व्यवहार करता है; 
  7. सत्य निर्णय साक्ष्य द्वारा समर्थित नहीं हैं।

निषेध की रिट कैसे जारी की जाती है?

कोई भी उच्च न्यायालय या भारत का सर्वोच्च न्यायालय क्रमशः भारतीय संविधान के अनुच्छेद 226 या 32 से संबंधित एक निषेध रिट जारी कर सकता है। निचली न्यायालयों, न्यायाधिकरण, या अर्ध-न्यायिक निकायों के खिलाफ इन न्यायालयों को अधिकार क्षेत्र के खिलाफ कार्रवाई करने या बुनियादी अधिकारों का उल्लंघन करने वाली शक्तियों का प्रयोग करने से रोकने के लिए यह रिट जारी किया जाता है। यह रिट तब जारी किया जाता है जब इन न्यायालयों के अधिकार क्षेत्र समाप्त हो जाते हैं या उनकी शक्तियों का उल्लंघन होता है। यह केवल न्यायिक और अर्ध-न्यायिक निकायों के खिलाफ जारी किया जा सकता है, निजी व्यक्तियों या संस्थाओं और प्रशासनिक निकायों के खिलाफ नहीं। इसे ‘स्टे ऑर्डर’ के रूप में भी जाना जाता है। यह रिट उन्हें किसी कार्य को करने से रोकता है या सीमित करता है। 

निषेध के रिट के संबंध में मामले

ब्रिज खंडेलवाल बनाम भारत (1975)

इस मामले में, दिल्ली उच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार के खिलाफ श्रीलंका के साथ सीमा विवाद समझौते में शामिल होने पर रोक लगाने से इनकार कर दिया था। निर्णय इस आधार पर स्थापित किया गया था कि सरकार के कार्यकारी या प्रशासनिक कर्तव्यों को निभाने के खिलाफ कोई रोक नहीं है। नैसर्गिक न्याय के विचार और निष्पक्षता की अवधारणा के विकास के साथ, प्रशासनिक कार्यों में भी अब सहन करने लायक दृष्टिकोण नहीं रह गया है। उत्प्रेशन लेख या निषेध रिट के बारे में कठोरता को भी कम कर दिया गया है। यदि कोई आधार मौजूद है जिस पर निषेध का रिट जारी किया गया है, तो वह यह है को रिट अब किसी को भी जारी किया जा सकता है, भले ही उसके द्वारा किए गए कर्तव्य की प्रकृति कुछ भी हो। अर्ध-न्यायिक के साथ-साथ प्रशासनिक कार्यों को प्रभावित करने के न्यायिक नियंत्रण के लिए निषेध को वर्तमान में एक व्यापक उपाय के रूप में माना जाता है।

एस गोविंद मेनन बनाम भारत संघ (1967) 

इस मामले में यह पाया गया कि अधिक अधिकार क्षेत्र या अभाव दोनों परिस्थितियों में निषेध का रिट जारी किया जा सकता है। निषेध का रिट एक उच्च न्यायालय, अर्थात् केरल उच्च न्यायालय द्वारा निचली न्यायालय को जारी किया गया था ताकि वह उस अधिकार क्षेत्र को अपने अधिकार में ले सके जो शुरू में उसे नहीं दिया गया था, या दूसरे शब्दों में, निचली न्यायालयों को अपनी अधिकार क्षेत्र की सीमाओं को बनाए रखने के लिए मजबूर करने के लिए जारी किया गया था। रिट तब जारी किया जा सकता है जब अधिकार क्षेत्र ज्यादा हो और साथ ही तब भी जब अधिकार क्षेत्र का अभाव हो।

हरि विष्णु बनाम सैयद अहमद इशाक (1955) 

यह मामला निषेध और उत्प्रेशन लेख के बीच के अंतर से संबंधित था। इस मामले में फैसले ने उत्प्रेशन लेख और निषेध रिट के बीच के अंतर किया है और यहां यह कहा गया कि जब निचली न्यायालय एक निर्णय जारी करती है, तो याचिकाकर्ता को एक उत्प्रेशन लेख याचिका दायर करनी चाहिए क्योंकि निषेध रिट केवल तभी प्रस्तुत की जा सकती है जब निर्णय अभी तक नहीं दिया गया हो।

प्रूडेंशियल कैपिटल मार्केट्स लिमिटेड बनाम एपी और अन्य राज्य, (2000)

इस मामले में, यह संदेहास्पद था कि क्या जिला आयोग/ राज्य आयोग के खिलाफ निषेध की रिट जारी की जा सकती है, जो जमाकर्ताओं के उपभोक्ता मामलों में पहले ही निर्णय दे चुकी है। न्यायालय ने कहा कि आदेश के निष्पादन (डिस्पोजल) के बाद निषेध का रिट जारी नहीं किया जा सकता, और इसमें फैसले को रोका नहीं जा सकता है।

अन्य देशों में निषेध रिट

ऑस्ट्रेलिया में निषेध की रिट

निषेध की रिट, संघीय (फेडरल) न्यायालय में संविधान की धारा 75 (v) के तहत और न्यायपालिका अधिनियम 1903 की धारा 39 B (1) और, कुछ हद तक, ऑस्ट्रेलिया और यूनाइटेड किंगडम में कुछ राज्य न्यायालयों में है। यह एक उच्च न्यायालय के मूल अधिकार क्षेत्र में उपलब्ध प्रशासनिक कार्रवाई में न्यायिक समीक्षा (ज्यूडिशियल रिव्यू) के रूप में उपयोग किया जाने वाला एक विवेकाधीन (डिस्क्रिशनरी) उपाय है। यह किसी सार्वजनिक संस्था को अपने अधिकार या अधिकार क्षेत्र से अधिक कार्य करने से रोकता है जो उसके पास नहीं है। यह निर्णय लेने वाले और निर्णय पर भरोसा करने वाले अन्य लोगों को वह करने से रोकता है, जो वे अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर करने जा रहे हैं या जो किए गए कार्य के एक भाग थे या किसी कार्य को जारी रख रहे है जो उन्होंने पहले ही शुरू कर दिया है।

फिलीपींस में निषेध की रिट

फिलीपींस में, निषेध की रिट का अपना अधिकार क्षेत्र है, जिसका उपयोग अधिकार पृच्छा के स्थान पर नहीं किया जा सकता है। फिलीपींस में न केवल न्यायालयों और न्यायाधिकरणों के खिलाफ अपने स्वयं के अधिकार क्षेत्र को प्रतिबंधित करने और उन्हें अन्य न्यायाधिकरण के अधिकार क्षेत्र में घुसपैठ करने से रोकने की अनुमति है, बल्कि किसी ऐसे अधिकारी या व्यक्ति के खिलाफ उचित मामलों में भी जिसकी कार्रवाई उसके अधिकार क्षेत्र के बिना या उससे भी परे है। 

संयुक्त राज्य अमेरिका में निषेध का रिट

एक अपीलीय न्यायालय ने एक लिखित आदेश जारी किया है जिसमें निचली न्यायालय को संचालन (ऑपरेशन) से प्रतिबंधित किया गया है क्योंकि इसमें अधिकार क्षेत्र का अभाव है। यह किसी भी न्यायाधिकरण, निगम (कॉर्पोरेशन), बोर्ड या व्यक्ति की कार्यवाही को रोकता है जहां ऐसी कार्यवाही ऐसे न्यायाधिकरण, निगम, बोर्ड या व्यक्ति के अधिकार से बाहर होती है। यह तब दिया जा सकता है जब एक निचली न्यायालय किसी मामले के मूल्यांकन (ईवैल्यूएशन) में नियमित मानदंडों (नॉर्म्स) और प्रक्रियाओं से परे कार्य कर रही हो या कानूनी अधिकार को नष्ट करने के दृष्टिकोण पर हो। यह परमादेश के रिट का प्रतिरूप (रिफ्लेक्शन) है।

अधिकार पृच्छा और निषेध के रिट के बीच अंतर

अधिकार पृच्छा की रिट निषेध की रिट
निचली न्यायालय के फैसलों पर पुनर्विचार करने के लिए उच्च न्यायालयों द्वारा अधिकार पृच्छा का रिट जारी किया जा सकता है। निचले न्यायालयों को उनके अधिकार क्षेत्र से बाहर जाने और उनकी शक्तियों के विरुद्ध कार्य करने से रोकने के लिए उच्च न्यायालयों द्वारा निषेध का रिट जारी किया जाता है।
यह निचली न्यायालयों द्वारा अपना फैसला सुनाए जाने के बाद जारी किया जाता है। यह निचली न्यायालयों द्वारा अपनी कार्यवाही पूरी करने से पहले जारी किया जाता है।
निचली न्यायालय द्वारा पहले दिए गए फैसले को रद्द करते हुए, अधिकार पृच्छा की रिट को निवारक उपाय के रूप में अधिक नियोजित किया जाता है। निषेध की रिट इलाज के बजाय रोकने के लिए है।
इसका अर्थ है ‘प्रमाणित होना’। इसका अर्थ है ‘रोकना’।
यह निवारक और उपचारात्मक (प्रिवेंटिव एंड रिमेडियल) दोनों है। यह केवल एक निवारक उपाय है।
यह दिए गए निर्णय को रोक सकता है और उसपर उपाय के रूप में भी कार्य कर सकता है। यह निचले प्राधिकरण (लोअर अथॉरिटी) को आगे बढ़ने से रोक सकता है।
यह बाद का चरण है। यह शुरुआती चरण है।
यह निचली न्यायालय में चल रहे मामले की समीक्षा करता है। यह निचली न्यायालय को निर्णय जारी करने से रोकता है।
यह फैसले को रद्द करता है। यह निर्णयों को रोकता है।

निष्कर्ष

नतीजतन, निषेध रिट एक उपाय के बजाय एक निवारक उपाय के रूप में कार्य करता है। यह तब जारी किया जाता है जब इसे जारी करने के लिए दिए गए आधारों को पूरा किया जाए, विशेष रूप से यह तब जारी किया जाएगा जब निचली न्यायालयों द्वारा दिए गए निर्णय अधिकार या अधिकार क्षेत्र के बिना दिए गए होते है, और जब वे अपनी शक्तियों और नैसर्गिक न्याय के खिलाफ कार्य करते हैं। इन परिस्थितियों में, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत सर्वोच्च न्यायालय द्वारा या भारतीय संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत उच्च न्यायालय द्वारा एक रिट जारी की जाएगी। निषेध की रिट और अधिकार पृच्छा की रिट मामूली अंतर के साथ समान होती हैं। 

उच्च न्यायालयों द्वारा निचले न्यायालयों को कुछ करने से रोकने या निर्णय देने से रोकने के लिए निषेध रिट जारी किया जाता है, जबकि उच्च न्यायालयों द्वारा दिए गए निर्णयों को रद्द करने के लिए अधिकार पृच्छा रिट जारी किया जाता है। यह निचली न्यायालय को इस तरह से कार्य करने से रोकने के लिए एक त्वरित और प्रभावी उपाय है जो अधिकार क्षेत्र या नैसर्गिक न्याय के विपरीत होता है। इसे ‘स्टे ऑर्डर’ के रूप में भी जाना जाता है और यह निचली न्यायालय को निर्णय देनेदेने से रोकता है। यह न्यायिक और अर्ध-न्यायिक दोनों निकायों को किसी भी मुद्दे पर न्याय प्रदान करने या शासन करने की क्षमता के साथ उपाय प्रदान करती है।

संदर्भ

 

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