तलाक के आधार और सी.पी.सी. के तहत  तलाक से संबंधित प्रावधान

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Civil Procedure Code
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यह लेख Priyesh Singh के द्वारा लिखा गया है जो लॉसिखो से एडवांस्ड सिविल लिटिगेशन में सर्टिफिकेट कोर्स कर रहे हैं। इस लेख मे लेखक विभिन्न धर्मों मे तलाक के आधार पर बताते हुए, सी.पी.सी. के तहत तलाक से जुड़े कुछ महत्वपूर्ण विषयों पर चर्चा करते हैं। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja के द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय

पिछले कुछ वर्षों में भारत में तलाक की दर और भी अधिक बढ़ रही है। जैसा की अधिक तनावग्रस्त जोड़े वैवाहिक और तलाक के प्रश्नों के साथ कानूनी तंत्र का सहारा लेते हैं, आइए हम विशेष रूप से सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के तहत तलाक से संबंधित प्रावधानों की एक झलक देखते हैं। इस विषय को समझने के लिए, हमें पहले इसकी प्रक्रिया को देखना होगा, जहां सबसे पहले सक्षम न्यायालय या सक्षम प्राधिकारी (ऑथोरिटी) के समक्ष याचिका या आवेदन दाखिल करनी होती है जिसे सामान्य तौर पर वैवाहिक याचिका कहा जाता है। हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के तहत, धारा 21 में प्रावधान है कि सभी कार्यवाही को जहां तक ​​संभव हो, सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 द्वारा विनियमित किया जाएगा और उच्च न्यायालय के पास इस अधिनियम के तहत किसी भी मामले के लिए नियम निर्धारित करने का अधिकार है।

सिविल प्रक्रिया संहिता इससे संबंधित प्रक्रियाएं भी निर्धारित करती है। इस लेख में, हम यह देखने जा रहे हैं कि मुकदमा कैसे स्थापित किया जाता है, किसके द्वारा और कहाँ किया जाता है; पीड़ित पक्ष के लिए क्या उपाय उपलब्ध होते हैं; अदालत के आदेश को कैसे चुनौती दी जाती है और कहां; और आदरणीय न्यायालय द्वारा दिए गए निर्णय को कैसे क्रियान्वित (इंप्लीमेंट) या निष्पादित (एग्जिक्यूट) किया जाता है।

तलाक को नियंत्रित करने वाले व्यक्तिगत कानून

भारत में, शादी से संबंधित हर धर्म के अपने व्यक्तिगत कानून होते हैं। हिंदू, बौद्ध, सिख और जैन हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के अनुसार शासित होते हैं और मुस्लिम, मुस्लिम विवाह अधिनियम, 1939 के अनुसार शासित होते हैं। पारसी उनके पारसी विवाह और तलाक अधिनियम, 1936 के अनुसार शासित होते हैं और ईसाई भारतीय तलाक अधिनियम, 1869 के अनुसार शासित होते हैं। और प्रत्येक अधिनियम में, तलाक की सामान्य परिभाषा “विवाह का विघटन (डिजोल्यूशन)” है।

अधिकार क्षेत्र

सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश XXIII A को पारिवारिक मुकदमे या कार्यवाही से संबंधित मामलों के लिए लागू किया जाता है। इस अधिनियम के तहत प्रत्येक याचिका स्थानीय सीमा के भीतर उस जिला न्यायालय (फैमिली कोर्ट) के समक्ष दायर की जाएगी;

  1. जहां विवाह संपन्न हुआ था,
  2. जहां प्रतिवादी याचिका दायर करने के समय निवास कर रहा था,
  3. जहां विवाह के पक्ष अंतिम बार एक साथ रहते थे,

3-A. यदि पत्नी याचिकाकर्ता है, तो जहां वह याचिका दायर करने के समय निवास कर रही थी,

4. याचिकाकर्ता याचिका की प्रस्तुति के समय निवास कर रहा था, ऐसे मामले में जहां प्रतिवादी उस समय, उन क्षेत्रों से बाहर रह रहा था जहां तक ​​यह अधिनियम विस्तारित है, या उसके बारे में उन व्यक्तियो, जो स्वाभाविक रूप से उसके बारे में जानते हैं, के पास सात साल या अधिक समय तक उसके जिंदा या मृत होने की जानकारी नहीं थी।

हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 19 का उल्लेख करना उचित है, जो दोनों पक्षों को अपनी सुविधानुसार याचिका दायर करने में सक्षम बनाती है। न्यायालय के पास उन मामलों से निपटने का अधिकार क्षेत्र है जहां विवाह नगरपालिका सीमा के भीतर एक स्थान पर किया जाता है और पक्ष केवल वहां रहते है, और मामला जिला अदालत में इस आधार पर स्थानांतरित (ट्रांसफर) नहीं किया जा सकता है कि पति किसी अन्य नगरपालिका सीमा में रहता है।

तलाक के आधार

अलग-अलग व्यक्तिगत कानूनों में तलाक के आधार अलग-अलग होते हैं। आइए हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के तहत धारा 13 के आधारों को देखें: –

व्यभिचार (एडल्टरी)

व्यभिचार का अर्थ एक विवाहित व्यक्ति और दूसरे के बीच (चाहे वह विवाहित हो या अविवाहित) दोनो की सहमति से यौन संबंध बनाना है।

जोसेफ शाइन बनाम यूनियन ऑफ इंडिया, 2018 के मामले में, जिसमें आई.पी.सी. की धारा 497 के साथ साथ सी.आर.पी.सी. की धारा 198 की  संवैधानिकता को चुनौती दी गई थी। यह माना गया था कि व्यभिचार का प्रावधान लिंग के आधार पर मनमाना और भेदभावपूर्ण था और इस तरह के कानून ने महिलाओं की गरिमा को हानि पहुंचाई है।

क्रूरता

क्रूरता का अर्थ दूसरों को पीड़ित करने की इच्छा है, आधुनिक समय में क्रूरता की अवधारणा में मानसिक रूप से हानि पहुंचना शामिल है और इसके पहले इसमें केवल शारीरिक गतिविधियां ही शामिल थी जो दूसरों को पीड़ित करती हैं। उदाहरण के लिए दहेज की मांग, नपुंसकता, बच्चे का जन्म, आत्महत्या करने की धमकी, मद्यपान (ड्रंकननेस) आदि।

प्रवीण मेहता बनाम इंद्रजीत मेहता के मामले में, प्रतिवादी ने क्रूरता के आधार पर तलाक की मांग करते हुए याचिका दायर की थी। अपीलकर्ता किसी बीमारी से पीड़ित था, और प्रतिवादी अपनी पत्नी को नियमित जांच और उपचार के लिए ले गया था। हालांकि, अपीलकर्ता को कोई भी चिकित्सा उपचार लेने में कोई दिलचस्पी नहीं थी, जिसके कारण उसकी स्थिति लगातार बिगड़ती गई और उसे दमा का दौरा पड़ा। प्रतिवादी ने उसे सर्वोत्तम चिकित्सा उपचार प्रदान करने के लिए कई प्रयास किए लेकिन उसके सभी प्रयास विफल रहे। इसलिए उसने क्रूरता के आधार पर विवाह के विघटन के लिए आवेदन किया था। उच्च न्यायालय ने इस याचिका को मंजूर किया था।

परित्याग (डिजर्शन)

परित्याग का अर्थ है बिना किसी उचित कारण के और अपने पति या पत्नी की सहमति के बिना विवाह के सभी कर्तव्यों और दायित्वों का खंडन करना।

बिपिन चंद्र बनाम प्रभावती ए.आई.आर. 1957 एस.सी. 176 के मामले में अपीलकर्ता अपने व्यवसाय के लिए इंग्लैंड गया, और भारत लौटने पर पता चला कि उसकी पत्नी का अन्य पुरुष के साथ प्रेम संबंध था, अपीलकर्ता ने अपने वकील के माध्यम से प्रतिवादी को एक नोटिस भेजा और  हिंदू विवाह अधिनियम के तहत तलाक के लिए मुकदमा दायर किया और यह आधार दिया कि प्रतिवादी बिना उचित कारण और उसकी सहमति के बिना चार साल से अधिक समय से परित्याग में थी।

धर्मांतरण (कन्वर्जन)

जब पति या पत्नी में से कोई एक अपने धर्म को हिंदू से किसी अन्य धर्म जैसे इस्लाम, ईसाई धर्म आदि में परिवर्तित करता है तो उसे धर्मांतरण कहते है।

सुरेश बाबू बनाम वी.पी. लीला 2006 के मामले में एक पति ने इस्लाम धर्म अपना लिया और पत्नी ने इसी आधार पर तलाक के लिए याचिका दायर की थी। अदालत ने वैवाहिक उद्देश्यों के लिए दूसरे धर्म में धर्मांतरण को गलत बताया और हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के तहत यह तलाक का आधार था।

मानसिक अस्वस्थता

मानसिक अस्वस्थता के लिए तलाक के आधार के रूप में दो आवश्यकताओं का पालन किया जाना चाहिए:

  • प्रतिवादी विकृत मन का है।
  • प्रतिवादी लगातार मानसिक विकार से इस हद तक पीड़ित है कि याचिकाकर्ता प्रतिवादी के साथ नहीं रह सकता है।

विनीता सक्सेना बनाम पंकज पंडित के मामले में, याचिकाकर्ता ने प्रतिवादी से इस आधार पर तलाक का मामला दायर किया कि प्रतिवादी एक मानसिक विकार से पीड़ित था। यहां अदालत ने पति के मानसिक अस्वस्थता के आधार पर तलाक दे दिया था।

मृत्यु का अनुमान

एक व्यक्ति को मृत माना जाता है यदि सात साल या अधिक समय तक उसके जिंदा या मृत होने की जानकारी नहीं होती है। सबूत का भार याचिकाकर्ता पर होता है कि प्रतिवादी पिछले सात वर्षों से वैवाहिक बंधन के तहत नहीं है।

उदाहरण: B की पत्नी पिछले दस वर्षों से लापता थी और उसके पति B को उसके जीवित या मृत होने की कोई जानकारी नहीं मिली। यहां, B अदालत का दरवाजा खटखटा सकता है और तलाक की मांग कर सकता है।

रोग

हिंदू विवाह अधिनियम के अनुसार, यौन रोग तलाक का आधार हो सकते है।

उदाहरण: B का पति एक लाइलाज बीमारी से पीड़ित है, अगर B A के साथ रहती है तो उसकी भी उस बीमारी से संक्रमित होने की संभावना है। यहां, B अदालत के समक्ष विवाह के विघटन की मांग कर सकती है।

त्याग

इसका अर्थ है कि जब पति या पत्नी में से कोई भी संसार को त्याग कर ईश्वर के मार्ग पर चलने लगता है। इस मामले में जो दुनिया का त्याग करता है उसे नागरिक रूप से मृत माना जाता है।

उदाहरण: A और B  विवाहित हैं। एक दिन A ने दुनिया त्याग देने का फैसला किया। यहां, B को अदालत के समक्ष विवाह के विघटन की मांग करने का अधिकार है।

मुस्लिम विवाह विघटन अधिनियम, 1939 के अनुसार तलाक के आधार

अधिनियम की धारा 2 के तहत विवाहित महिला विवाह के विघटन के लिए एक डिक्री प्राप्त करने की हकदार तभी होती है, यदि-

  1. जहां व्यक्ति के बारे में सात साल से अधिक समय से कोइ जानकारी नहीं है।
  2. पति दो साल से अधिक समय से भरण पोषण देने में विफल रहा है।
  3. पति को सात साल या उससे अधिक की अवधि के लिए कारावास की सजा सुनाई गई है।
  4. पति सात साल से अधिक की अवधि के लिए अपने वैवाहिक दायित्वों को निभाने में विफल रहा है।
  5. विवाह के समय पति नपुंसक था।
  6. पति दो साल से अधिक समय से मानसिक रूप से अस्वस्थ है।
  7. पति एक रोग से पीड़ित था।
  8. उसका पति उसके साथ क्रूरता से पेश आता है।

तलाक-उल-बिअद्दत या तीन तलाक को शायरा बानो बनाम यूनियन ऑफ इंडिया और अन्य 2017 के मामले में अनुच्छेद 13 (1) के साथ पढ़े गए अनुच्छेद 14 के तहत असंवैधानिक ठहराया गया था।

अदालत ने निष्कर्ष निकाला कि 1937 का अधिनियम उस सीमा तक शून्य है जहां तक ​​वह तीन तलाक को मान्यता देता है और लागू करता है। सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के अनुसार, सरकार को तीन तलाक को अवैध और अपराधी बनाने के लिए एक कानून बनाना होगा। 2019 में मुस्लिम महिला (विवाह पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम को, विवाहित मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के लिए उनके पति द्वारा तलाक शब्द बोल कर तलाक पर रोक लगाने के लिए अधिनियमित किया गया था।

धारा 4 के अनुसार, यदि कोई पति अपनी पत्नी को तीन तलाक देता है, तो उसे 3 साल की कैद और जुर्माने से दंडित किया जाएगा।

धारा 3 के अनुसार मुस्लिम पति द्वारा अपनी पत्नी को तलाक की घोषणा, मौखिक या लिखित या किसी भी इलेक्ट्रॉनिक रूप में या किसी अन्य तरीके से, अमान्य और अवैध है।

ईसाइयों के लिए तलाक के आधार

भारतीय तलाक अधिनियम की धारा 10A के अनुसार, ईसाई दो तरह से तलाक ले सकते हैं

  1. आपसी तलाक: पति-पत्नी दोनों अगर पिछले दो साल से एक-दूसरे से अलग रह रहे हैं तो वे जिला अदालत में तलाक के लिए अर्जी दे सकते हैं।
  2. विवादित तलाक: इसे निम्नलिखित आधारों पर दायर किया जा सकता है-
  • पिछले 2 साल से मानसिक रूप से अस्वस्थ है
  • व्यभिचार
  • धर्मांतरण
  • पिछले दो साल से त्याग दिया है
  • क्रूरता
  • किसी भी पति या पत्नी के सात साल या उससे अधिक समय तक जीवित रहने के बारे में कोई जानकारी नहीं है।

पारसी के लिए तलाक के आधार

पारसी विवाह और तलाक अधिनियम, 1936 के अनुसार:

  1. धारा 30 के अनुसार यदि प्राकृतिक परिस्थितियों के कारण विवाह संपन्न करना असंभव हो जाता है।
  2. धारा 31 के अनुसार यदि पति या पत्नी में से किसी ने पिछले सात वर्षों से किसी अन्य पति या पत्नी के बारे में नहीं सुना है, तो विवाह को खत्म किया जा सकता है।
  3. धारा 32 में तलाक के आधार दिए गए हैं:
  • जब पति या पत्नी में से कोई एक शादी के एक साल के भीतर शादी से पूरी तरह इनकार कर देता है।
  • जब किसी पति या पत्नी को सात साल से अधिक की कैद हो जाए और एक साल की कैद बीत चुकी हो, तो पति या पत्नी तलाक के लिए आवेदन कर सकते हैं।
  • जब पति या पत्नी में से कोई भी 2 साल से अधिक समय से अलग हो गया हो या उसने अपना धर्म बदल लिया हो।
  • यदि विवाह के समय पति या पत्नी से यह रहस्य रखा जाता है कि दूसरा पक्ष मानसिक रुप से अस्वस्थ है। दूसरा पति या पत्नी शादी की तारीख से तीन साल की अवधि के भीतर तलाक के लिए आवेदन कर सकता है।
  • अगर शादी के समय महिला गर्भवती थी। लेकिन इसे शादी के दो साल की अवधि के भीतर लागू किया जाना चाहिए और साथ ही, जोड़े का वैवाहिक संबंध नहीं होना चाहिए।
  • यदि विवाह के दो साल के भीतर पति या पत्नी में से किसी के साथ क्रूरता का व्यवहार किया जाता है और दोनों मे से कोई भी यौन रोग से पीड़ित है। 

धारा 32B के अनुसार जबरदस्ती और धोखाधड़ी से आपसी सहमति नहीं ली जा सकती है। पारसी विवाह और तलाक अधिनियम, 1936 की धारा 19 और 20 में कहा गया है कि पारसी केवल पारसी के अधिकारियों की अध्यक्षता वाली विशेष अदालतों में तलाक की कार्यवाही शुरू कर सकता है और एक पंजीकृत (रजिस्टर्ड) कार्यालय में पंजीकरण करना भी आवश्यक है।

वैवाहिक याचिकाओं में विषय

एच.एम.ए. की धारा 20(1) के तहत, प्रत्येक याचिका में मामले की प्रकृति और मुस्लिम विवाह विघटन अधिनियम की धारा 3 (A) के तहत, याचिका दायर करने के संबंध में विभिन्न नियम भी बनाए गए हैं। अधिनियम के तहत एक याचिका के साथ एक हलफनामा (एफिडेविट) होना चाहिए कि याचिकाकर्ता की प्रतिवादी से शादी हुई थी। इसके साथ ही यह भी ध्यान में रखा जाना चाहिए कि याचिकाएं सी.पी.सी. के आदेश VII, नियम 1 के अनुरूप भी हैं।

वैवाहिक याचिका के विषय:

  • विवाह का स्थान और तिथि।
  • जोड़ों का धर्म।
  • विवाह से पहले पति-पत्नी का नाम, स्थिति और अधिवास (डोमिसाइल)।
  • याचिका दायर करने के समय पक्षों का पता जहां वे रहते हैं।

तलाक में मध्यस्थता (मीडिएशन) और सुलह (कॉन्सिलिएशन) कराने का प्रयास

वैकल्पिक विवाद समाधान, पक्षों के बीच कानूनी मुद्दे को हल करने के लिए कानूनी संरचना प्रदान करता है। मध्यस्थता की प्रक्रिया में, एक मध्यस्थ नामित किया जाता है जो पक्षों को विवाद में एक समाधान तक पहुंचने में मदद करता है, विवाद को हल करने के लिए विकल्प उत्पन्न करता है और इस बात पर जोर देता है कि निर्णय लेने के लिए पक्षों की अपनी जिम्मेदारी है जो किसी भी पक्ष पर निपटान की कोई शर्तें लागू किए बिना, उन्हें प्रभावित करती है । सी.पी.सी. की धारा 89 में कहा गया है कि उस मामले में जहां निपटान की संभावना है वहा वैकल्पिक विवाद समाधान तंत्र का पालन किया जाना चाहिए।

एच.एम.ए. की धारा 23 (2) और (3) में, अदालत निर्देश देती है कि तलाक चाहने वाले पक्षों के बीच सुलह के प्रयास किए जाने चाहिए।

फैमिली कोर्ट एक्ट, 1984 की धारा 9 में कहा गया है कि मध्यस्थता के लिए प्रयास करना फैमिली कोर्ट का कर्तव्य है।

प्रत्येक मुकदमे या कार्यवाही में, जहां निपटान की संभावना है, तो अदालत को पहले सुलह कराने के लिए प्रयास करना चाहिए और कार्यवाही के किसी भी चरण में, फैमिली कोर्ट को यह प्रतीत होता है कि निपटान की उचित संभावना है, तो ऐसे में न्यायालय कार्यवाही को कुछ समय के लिए स्थगित कर सकता है।

तलाक की सूचना

यदि सुलह नहीं हो सकती है, तो तलाक चाहने वाले को, अपने पति या पत्नी को यह कहते हुए नोटिस देना चाहिए कि आप इस विवाह को समाप्त करने के लिए कानूनी कदम उठा रहे हैं। तलाक के लिए कानूनी नोटिस दूसरे पति या पत्नी को विवाह समाप्त करने के इरादे, वित्त से संबंधित भविष्य की अपेक्षाओं, भरण पोषण, बच्चों की कस्टडी आदि के बारे में स्पष्टता लाता है।

आवश्यक दस्तावेज़

  • पति और पत्नी के पते का सबूत।
  • शादी का प्रमाण पत्र (सर्टिफिकेट)।
  • पति-पत्नी की शादी की चार पासपोर्ट साइज फोटो।
  • साक्ष्य जो यह साबित करते हो कि पति-पत्नी पिछले 1 साल से एक-दूसरे से अलग रह रहे हैं।
  • साक्ष्य जो यह बताते हो कि सुलह विफल रही है।
  • पिछले 2-3 वर्षों का आय विवरण।
  • पेशे का विवरण और वर्तमान भुगतान।
  • पारिवारिक पृष्ठभूमि (बैकग्राउंड) से संबंधित जानकारी।
  • स्वामित्व वाली संपत्तियों का विवरण।

भारत में तलाक की विदेशी डिक्री की वैधता

एक सवाल जो हमेशा मन में आता है वह यह है कि “विदेशी अदालत, भारत में विवाहित एक हिंदू जोड़े के संबंध में तलाक की डिक्री कैसे पारित करती है?”

इस प्रश्न का उत्तर यह है कि हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 1 में कहा गया है कि इसका विस्तार जम्मू कश्मीर राज्य के सिवाय सम्पूर्ण भारत पर है और यह उन राज्यक्षेत्रो में, जिन पर इस अधिनियम का विस्तार है, अधिवासित उन हिंदुओं पर भी लागू होता जो उक्त राज्यक्षेत्रो के बाहर रहते हैं।

यही कारण है कि भारत में हिंदू अधिकारों के अनुसार शादी करने वाले हिंदुओं के लिए, जबकी वह विदेशों में बस गए, तब भी हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के अनुसार तलाक की कार्यवाही का पालन करना आवश्यक है।

सी.पी.सी. की धारा 13 के तहत तलाक पर विदेशी निर्णय भारत में मान्य है, जब विदेशी अदालत द्वारा निम्नलिखित शर्तों का पालन किया जाता है।

  1. जब सक्षम न्यायालय द्वारा निर्णय दिया जाता है- दोनों पक्ष एक ही विदेशी देश में, जहां याचिका दायर की गई है, में रहते हैं।
  2. जब मामले के निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए उसे तलाक के गुण-दोष के आधार पर तय किया गया है।
  3. दूसरे पक्ष को उचित नोटिस दिया गया है।
  4. जब मामले का फैसला नैसर्गिक (नेचुरल) न्याय के आधार पर होता है।
  5. जब कपट से निर्णय प्राप्त नहीं हुआ है।
  6. जब भारत के किसी भी कानून का उल्लंघन नहीं किया गया है।

यह प्रावधान वाई नरसिम्हा राव बनाम वाई वेंकट लक्ष्मी के मामले में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अच्छी तरह से समझाया गया है, जहां भारत के तिरुपति में एक हिंदू जोड़े ने शादी के बाद अमेरिका में रहना शुरू कर दिया। पति ने मिसौरी राज्य में 90 दिनों के निवास की आवश्यकता को तकनीकी रूप से संतुष्ट करके विवाह के अपरिवर्तनीय टूटने के आधार पर मिसौरी अदालत से विवाह के विघटन की डिक्री प्राप्त की। हालांकि, पत्नी मिसौरी अदालत के अधिकार क्षेत्र में प्रस्तुत नहीं हुई और इसके बजाय उसने अपने पति के खिलाफ द्विविवाह का मामला दायर किया। मामला भारत के सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंचा जहां मुख्य मुद्दा यह था कि क्या सी.पी.सी. की धारा 13 के तहत विदेशी तलाक की डिक्री लागू की जा सकती है। अदालत ने माना कि:

  • सक्षम अधिकार क्षेत्र का न्यायालय वह होगा जिसके अंतर्गत पक्ष विवाहित हैं और निवास करते हैं। कोई भी अन्य न्यायालय अधिकार क्षेत्र के बिना होगा जब तक कि दोनों पक्ष स्वेच्छा से और बिना शर्त स्वयं को उस न्यायालय के अधिकार क्षेत्र के अधीन न कर दें।
  • निर्णय गुण के आधार पर दिया जाना चाहिए, और विदेशी न्यायालय का निर्णय हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 में उपलब्ध तलाक के आधार पर होना चाहिए।
  • भारत में कानून को मान्यता देने से इनकार यह कहकर किया जाता है कि विदेशी डिक्री में तलाक का आधार हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के तहत दिया गया है।
  • नैसर्गिक न्याय के विपरीत विदेशी निर्णय प्राप्त किया गया था। नैसर्गिक न्याय निष्पक्ष सुनवाई का प्रावधान है।
  • जहां धोखाधड़ी से विदेशी डिक्री हासिल की गई है तो ऐसे में धोखाधड़ी किसी भी स्तर पर कानूनी कार्यवाही को बिगाड़ देती है, धोखाधड़ी और कानून एक साथ नहीं हो सकते।

विदेशी अदालत की डिक्री का निष्पादन (एग्जिक्यूशन)

सी.पी.सी. की धारा 44-A के तहत विदेशी अदालत की डिक्री का निष्पादन प्रदान किया जाता है। इस संदर्भ में इसे सी.पी.सी. की धारा 13 के साथ पढ़ा जाता है। धारा 44-A(3) स्पष्टता लाती है कि अदालत किसी भी ऐसी डिक्री के निष्पादन से इंकार कर देगी, जो धारा 13 के खंड (A) से (F) में निर्दिष्ट किसी भी अपवाद के अंतर्गत आती है। इस तरह की एक डिक्री के निष्पादन के लिए प्रमुख बिंदु निम्नानुसार हैं:

  1. सी.पी.सी. की धारा 44-A में अन्य देशों के विदेशी निर्णयों और डिक्री को लागू करने की आवश्यकताएं प्रदान की गई हैं।
  2. निर्णय या डिक्री अन्य देशों के उच्च न्यायालय की होनी चाहिए।
  3. डिक्री जिला अदालत या उच्च न्यायालय में दायर की जानी चाहिए।
  4. निष्पादन के लिए डिक्री की एक प्रमाणित प्रति (कॉपी) दायर की जानी चाहिए।
  5. विदेशी अदालत से एक प्रमाण पत्र यह बताते हुए कि किस हद तक डिक्री पहले ही संतुष्ट या समायोजित (एडजस्ट) हो चुकी है, दायर की जानी चाहिए।

परिसीमा (लिमिटेशन) अवधि

सी.पी.सी. यह प्रावधान करता है कि विदेशी निर्णय और पारस्परिक (रेसिप्रोकेटिंग) क्षेत्रों की डिक्री को भारत में भारतीय अदालतों द्वारा पारित डिक्री के रूप में निष्पादित किया जा सकता है। इस प्रकार, परिसीमा अधिनियम, 1963 के अनुसार सीमा अवधि है:

  1. एक अनिवार्य व्यादेश (इनजंक्शन) देने वाली डिक्री के निष्पादन के लिए, डिक्री की तारीख या प्रदर्शन के लिए तय की गई तारीख से तीन साल;
  2. किसी अन्य डिक्री के निष्पादन के लिए, जिस दिन डिक्री प्रवर्तनीय हो जाती है, उस दिन से 12 वर्ष तक।

परिसीमा अधिनियम के तहत, निर्णय धारकों को विदेशी फैसले या डिक्री की तारीख से 3 साल के भीतर मुकदमा दायर करना होगा।

तलाक के मामलों के लिए सी.पी.सी. की धारा 151

सी.पी.सी. की धारा 151 न्यायालय की निहित (इन्हेरेंट) शक्ति बारे में है, जो न्याय के उद्देश्यों के लिए या अदालत की प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने के लिए आवश्यक हो सकती है। यह स्पष्ट करता है कि उक्त प्रावधान का उपयोग न्याय के उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए किया जाता है। निहित शक्ति का उपयोग इंगित करता है कि न्यायालय न्याय को कायम रखने के लिए उक्त शक्ति का प्रयोग कर सकता है।

मयंक श्रीवास्तव बनाम रितु श्रीवास्तव के मामले में सी.पी.सी. की धारा 151 के तहत अनिवार्य 6 माह की अवधि को माफ करने का पुनरीक्षण (रिवीजन) आवेदन दाखिल किया गया था। आवेदक और प्रतिवादी ने आपसी सहमति से तलाक के लिए हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 13 B के तहत एक आवेदन दायर किया था। उनके निर्णय पर पुनर्विचार करने की सलाह के साथ मामले को 6 महीने की अवधि के लिए स्थगित कर दिया गया था। 6 महीने की अनिवार्य अवधि की छूट की मांग के लिए उपरोक्त आदेश पारित होने के बाद सी.पी.सी. की धारा 151 के तहत एक आवेदन दायर किया गया था। हालांकि, कथित आवेदन को इस आधार पर खारिज कर दिया गया था कि यह कानून के अनुसार नहीं था।

निष्कर्ष

तलाक की अवधारणा पति-पत्नी के अधिकारों की रक्षा करना और उनकी शादी के दौरान होने वाले किसी भी उल्लंघन से उन्हें रोकना है। ऐसा माना जाता है कि एक परिवार के बीच का बंधन जितना मजबूत होता है, समाज उतना ही मजबूत होता है। लेकिन तलाक या वैवाहिक विवाद के मामलों में वृद्धि, परिवार के टूटने का कारण है। इसलिए न्यायालयों के लिए वैवाहिक मुद्दों के प्रति समान दृष्टिकोण रखना महत्वपूर्ण है। प्राथमिक उद्देश्य पक्षों के पवित्र संघ की रक्षा करना है। फैमिली कोर्ट एक्ट और सी.पी.सी. के प्रावधान स्पष्ट रूप से दिखाते हैं कि पारिवारिक मामलों में मध्यस्थता/समाधान या निपटान की भूमिका, और उनके विवादों के निपटारे की संभावना का पता लगाने के लिए सलाहकारों को शामिल करना अत्यंत महत्वपूर्ण है।

संदर्भ

 

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