व्यक्तिगत कानून: कुछ कार्यों का गैर अपराधीकरण और अपराधीकरण

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Personal Laws
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यह लेख पुणे के सिम्बायोसिस लॉ स्कूल की छात्रा Namrata Kandankovi द्वारा लिखा गया है। इस लेख में वह व्यक्तिगत कानूनों (पर्सनल लॉ) के बारे मे बताते हुए, कुछ कानूनों के अपराधिकरण (क्रिमिनलाइजेशन) और गैर अपराधिकरण (डी क्रिमिनलाइजेशन) पर चर्चा करती हैं और उससे संबंधित कुछ एतिहासिक निर्णय भी बताती हैं। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja द्वारा किया गया है।

Table of Contents

सार (अब्स्ट्रैक्ट)

“ऐसा समय हो सकता है जब हम अन्याय को रोकने के लिए शक्तिहीन हो सकते हैं, लेकिन ऐसा समय कभी नहीं होना चाहिए जब हम विरोध करने में ही विफल हो जाएं”

निम्नलिखित लेख, व्यक्तिगत कानूनों के पहलू की ओर पाठकों का ध्यान खींचता है, और यह समझाता है कि व्यक्तिगत कानून क्या हैं, वे समय के साथ कैसे विकसित हुए, उनकी वर्तमान स्थिति क्या है, और कुछ हाल ही के निर्णय जो उनके लिए विभिन्न संशोधन लाए हैं और कुछ अन्य व्यक्तिगत कानूनों पर भी चर्चा करता है जो प्रकृति में भेदभावपूर्ण होते हैं और वर्तमान समय में अप्रचलित (ऑब्सोलेट) हो गए हैं। यह व्यक्तिगत कानूनों के गैर अपराधीकरण और अपराधीकरण के पक्ष और विपक्ष के कुछ तत्वों का भी विश्लेषण करता है, आगे यह एक दृष्टिकोण (आउटलुक) देता है कि कुछ कानूनों के संबंध में भविष्य में क्या कार्रवाई की जा सकती है और अंत में भारत में समान नागरिक संहिता (यूनिफॉर्म सिविल कोड) के कार्यान्वयन (इंप्लीमेंटेशन) से संबंधित चर्चा शामिल है।

परिचय: व्यक्तिगत कानून क्या हैं?

व्यक्तिगत कानूनों के पहलू पर प्रकाश डालते हुए, यह कहा जा सकता है कि व्यक्तिगत कानून एक कानूनी प्रणाली है जिसके द्वारा, यह संभावना पैदा होती है की, अलग धार्मिक और नैतिक (एथिकल) पहचान के मामले में, भिन्न लोगों के लिए विभिन्न कानूनों को लागू किया जाएगा। भारतीय संदर्भ में व्यक्तिगत कानूनों के लिए कहा जा सकता है की वे एक विशिष्ट वर्ग (क्लास) के लोगों या भिन्न लोगों के समूह पर लागू होते हैं और ऐसा वर्गीकरण (क्लासिफिकेशन) आस्था, धर्म और संस्कृति के आधार पर किया जाता है। भारतीय परिदृश्य (सिनेरियो) को ध्यान में रखते हुए, आगे यह कहा जा सकता है कि जनसंख्या, संस्कृति और विश्वास के मामले में विभाजित है और भारत में प्रत्येक व्यक्ति अपने स्वयं के विश्वास या आस्था का पालन करता है। इसलिए, इन मान्यताओं पर उन कानूनों के एक समूह द्वारा निर्णय लेने की आवश्यकता उत्पन्न होती है जो उन्हें नियंत्रित करते हैं। यह भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि भारत में व्यक्तिगत कानूनों को एक अलग धर्म के लोगों द्वारा पालन किए जाने वाले कई रीति-रिवाजों को ध्यान में रखते हुए लागू किया गया है।

भारत में व्यक्तिगत कानूनों का विकास

वर्तमान भारतीय समाज में तीन प्रमुख सांस्कृतिक प्रणालियाँ शामिल हैं, जो हिंदू, मुस्लिम और ईसाई हैं। हिंदुओं और मुसलमानों के व्यक्तिगत कानूनों की बात करें तो यह आश्वासन दिया जा सकता है कि वे अपनी शक्ति और कारण को अपनी प्राचीन धार्मिक लिपियों (स्क्रिप्ट) से प्राप्त करते हैं। इन धार्मिक लिपियों में एक व्यक्ति के सार्वजनिक और निजी जीवन दोनों को नियंत्रित करने वाले विभिन्न पहलू शामिल हैं, लेकिन जब कानून के संबंध में इन अधिकारों को लागू करने की बात आती है, तो उनसे निपटने वाले कानून का क्षेत्र विवाह, संरक्षकता (गार्डियनशिप), विरासत, उत्तराधिकार (सक्सेशन), गोद लेना आदि तक सीमित है। 

हाल के निर्णयों के मद्देनजर कुछ कार्यों को अपराध से मुक्त करना

भारतीय अदालतों द्वारा दिए गए हाल के निर्णयों को प्रमुखता देते हुए, यह संकेत दिया जा सकता है कि वर्ष 2018 और 2019 व्यक्तिगत कानूनों के संबंध में अदालतों द्वारा ऐतिहासिक निर्णय देने के वर्ष रहे हैं। तीन तालक से लेकर व्यभिचार (एडल्टरी) को गैर-अपराध बनाने तक, अदालतों ने व्यक्तिगत कानूनों से संबंधित विभिन्न पहलुओं को निपटाया है जो भारत में बड़े पैमाने पर आम जनता से संबंधित हैं। अदालतों द्वारा दिए गए कुछ ऐसे महत्वपूर्ण निर्णयों पर, इस लेख में चर्चा की गई है।

समलैंगिकता (होमोसेकशुअलिटी) को अपराध से मुक्त करना

धारा 377 क्या थी?

यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि धारा 377 को अंग्रेजों द्वारा भारत में उनके औपनिवेशिक (कोलोनियल) शासन के दौरान लागू किया गया था। यह कानून एक अवधि के लिए कार्यात्मक (फंक्शनल) था, जो 157 वर्षों तक लागू रहा था। जब धारा 377 के तहत गलत करने के लिए सजा की बात आती है, तो अपराधों को “अप्राकृतिक अपराध” के डोमेन के तहत वर्गीकृत किया गया था। इस तरह के कार्यों के लिए सजा 10 साल की कैद से लेकर आजीवन कारावास तक और जुर्माना थी। आई.पी.सी. की धारा 377 में कहा गया है कि “जो कोई भी किसी भी तरह के शारीरिक संभोग (कार्नल इंटरकोर्स) में लिप्त होता है, चाहे वह पुरुष, महिला या जानवर के साथ हो, जो प्रकृति के खिलाफ हो, तो वह धारा 377 के तहत अपराध के लिए उत्तरदायी होगा।”

भारतीय दंड संहिता की धारा 377 को समाप्त करना जिसने समलैंगिकता को अपराध घोषित किया था

नवतेज सिंह जौहर बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया के प्रसिद्ध फैसले में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने भारतीय दंड संहिता की धारा 377, जिसने समलैंगिकता को अपराध घोषित किया था, को समाप्त करके समलैंगिकता को अपराध से मुक्त कर दिया था। मामले के निर्णय की चर्चा नीचे की गई है; जहां भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा धारा 377 से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण पहलुओं पर प्रकाश डाला गया था:

  • भारत में दिए गए मानव अधिकार और मौलिक अधिकार प्रत्येक व्यक्ति के लिए समान होने चाहिए, चाहे वह भारत का कोई भी नागरिक हो या एल.जी.बी.टी.क्यू. समुदाय का कोई भी सदस्य हो। उन सभी को समान अधिकार दिए जाने चाहिए और इन अधिकारों के संदर्भ में किसी भी प्रकार के भेदभाव की सराहना नहीं की जाएगी।
  • आई.पी.सी. की धारा 377 को एक कानून के रूप में माना गया था, जिसे एल.जी.बी.टी.क्यू. समुदाय के सदस्यों के साथ दुर्व्यवहार करने के लिए एक माध्यम के रूप में इस्तेमाल किया जाता था और जिसके परिणामस्वरूप, अन्य लोगों की तुलना में, एल.जी.बी.टी.क्यू. समुदाय के लोगों के साथ भेदभाव किया जाता था और इसलिए, उक्त कानून को निरस्त करने की आवश्यकता थी।
  • इसके अलावा, इस पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि हालांकि अदालत ने यह भी निर्धारित किया था कि जब जानवरों के साथ किसी भी तरह के संभोग की बात आती है, तो कोई भी व्यक्ति जो इस तरह की किसी भी गतिविधि में लिप्त होता है, चाहे वह किसी भी प्रकार की यौन गतिविधि हो, तो ऐसे व्यक्ति को एक अपराध के लिए उत्तरदायी ठहराया जाएगा।
  • पीठ ने आगे कहा कि, जब किसी व्यक्ति की गरिमा (डिग्निटी) और व्यक्तिगत अधिकारों को बनाए रखने की बात आती है, तो अदालत के लिए यह हमेशा सबसे आवश्यक होता है कि वह भारत के सभी नागरिकों के लिए एक सुरक्षित और संरक्षित वातावरण सुनिश्चित करे।
  • धारा 377 के तहत परिभाषित कानून को समाज के बदलते मानदंडों (नॉर्म्स) के साथ बेतुका और मनमाना माना गया था और इसलिए, इस धारा को खत्म करने और इसके संचालन (ऑपरेशन) को समाप्त करने की आवश्यकता पढ़ रही थी।
  • अंत में, पीठ ने भारत में व्यक्तिगत कानूनों के महत्व का भी संदर्भ दिया और कहा कि यौन अभिविन्यास (ओरिएंटेशन) एक ऐसी चीज है जो पूरी तरह से एक जैविक (बायोलॉजिकल) घटना है और इस तरह के पहलू पर किया गया कोई भी भेदभाव गलत करने वाले के खिलाफ आपराधिक कार्रवाई को आमंत्रित करेगा।

धारा 377: क्या यह एक आधी जीती लड़ाई है?

धारा 377 को खत्म करने के ऐतिहासिक फैसले के परिणाम के साथ, भारतीय उपमहाद्वीप (कॉन्टिनेंट) ने अपने नागरिकों के बीच बहुत उत्साह देखा है क्योंकि एल.जी.बी.टी.क्यू. समुदाय के सदस्यों के लिए यौन गतिविधि में शामिल होना अब अपराध नहीं था, जो उनके व्यक्तिगत यौन अभिविन्यास पर आधारित था।  लेकिन, साथ ही, वर्तमान परिदृश्य से संबंधित मामलों को संबोधित करने के लिए इसके दूसरे पहलू को भी देखने की गंभीर आवश्यकता है।

यह जानना अति आवश्यक और आश्चर्यजनक है कि यह भारत में विवाहित महिलाएं हैं जो किसी अन्य समुदाय के लोगों की तुलना में भारतीय दंड संहिता की धारा 377 का बड़े पैमाने पर उपयोग और इस्तमाल करती हैं। जब भी कोई महिला भारतीय दंड संहिता की धारा 498A के तहत मामला दर्ज करती है, तो ऐसे मुकदमे में धारा 377 भी लगाई जाती है। यह मुख्य रूप से इसलिए होता है क्योंकि कानून में एक खामी मौजूद है जिसके तहत आई.पी.सी. की धारा 498A के तहत सजा बहुत कम है और यह मुश्किल से ही किसी भी तरह का फर्क करने के लिए जाना जाता है और इसलिए, महिलाओं के खिलाफ किए गए अपराध की नृशंस (एट्रोशियस) प्रकृति को ऊपर उठाने के लिए उन्हें, धारा 377 की मदद लेनी पढ़ती है जो उन्हें उनके पतियों द्वारा उन पर किए गए “अप्राकृतिक” दुर्व्यवहार को उजागर करने में मदद करती है, चाहे वह पति अपनी पत्नी को उसके साथ मुख मैथुन (ओरल सेक्स) करने के लिए मजबूर कर रहा हो या इसके समान कुछ भी करने के लिए मजबूर कर रहा हो। इसलिए, इस मामले को हल करने के लिए, “अप्राकृतिक अपराध” शब्द की एक उचित परिभाषा प्रदान करने की आवश्यकता थी ताकि यह स्पष्ट हो सके कि इसके दायरे में कौन से पहलू शामिल हैं। अत: यह कहा जा सकता है कि धारा 377 को समाप्त करना, ऐसी महिलाओं के लिए एक आघात साबित होगा जो वास्तव में अपने पतियों द्वारा अपने खिलाफ की गई क्रूरता को दूर करने के लिए इसका इस्तेमाल कर रही थीं।

व्यभिचार को अपराध से मुक्त करना

भारत में व्यभिचार से संबंधित कानून

भारतीय दंड संहिता की धारा 497 में व्यभिचार को परिभाषित किया गया है और व्यभिचार को एक आपराधिक अपराध के रूप में वर्गीकृत किया गया है। व्यभिचार कानून का अधिनियमन (इनैक्टमेंट) औपनिवेशिक युग से पहले का है। व्यभिचार को एक विवाहेतर (एक्स्ट्रा मैरिटल) संबंध माना जाता था, जिसके कारण विवाह की पवित्रता का उल्लंघन होता था, और इसके साथ ही, व्यभिचार को नैतिक और धार्मिक आधारों के खिलाफ किया गया एक गलत कार्य माना जाता था। व्यभिचार के कानून के अस्तित्व और संचालन के पीछे मुख्य उद्देश्य विवाह की पवित्र संस्था को सुरक्षित और संरक्षित करना था। व्यभिचार करने की सजा केवल उस पुरुष को दी जाती थी जो इसमें लिप्त होता था और महिला पर इसका कोई भार नहीं डाला जाता था।

क्या व्यभिचार का कानून लिंग तटस्थ (जेंडर न्यूट्रल) था?

उपर्युक्त कानून को देखते हुए, यह आसानी से निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि इसमें कई सारी खामियां मौजूद हैं क्योंकि यह केवल एक पुरुष को उसके कार्यों के लिए उत्तरदायी ठहराता है, लेकिन महिला को नहीं, दूसरा महत्वपूर्ण पहलू, सहमति की अवधारणा (कांसेप्ट) है जिससे पत्नी की सहमति को कोई महत्व नहीं दिया जाता है और पत्नी को केवल अपने पति की संपत्ति के रूप में ही माना जाता है। इसलिए इस कानून में संशोधन की सख्त जरूरत थी। यह केरल के रहने वाले 41 वर्षीय व्यक्ति थे जिन्होंने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 32 को लागू करते हुए एक जनहित याचिका दायर की थी। जनहित याचिका का मुख्य उद्देश्य भारतीय दंड संहिता की धारा 497 के तहत अस्तित्व और सजा को चुनौती देना था। निर्णय देते समय, भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा ने कहा कि “पति को उनकी ‘पत्नी का स्वामी’ नहीं माना जा सकता है और इसके अतिरिक्त महिलाओं के साथ पुरुषों को समान व्यवहार करने की भी आवश्यकता है”।

व्यभिचार को अपराध से मुक्त करना : एक मशहूर फ़ैसला?

इसके अलावा, न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने यह भी कहा कि “व्यभिचार का कानून महिलाओं को एक हीन स्थिति प्रदान करता है और यह कानून महिला विरोधी भी है जो एक ऐसे समाज की स्थापना की ओर ले जाता है जहां महिलाएं अपनी यौन स्वायत्तता (ऑटोनोमी) से वंचित हैं और कानून को भी लिंग रूढ़िवादी (स्टीरियोटिपिकल)” के रूप में देखा गया था। यह विश्लेषण प्रमुख चिंताओं को भी उठाता है जैसे कि- क्या राज्य को किसी व्यक्ति के व्यक्तिगत मामलों में हस्तक्षेप (इंटरफेयर) करने का अधिकार है और यदि व्यभिचार का कानून उसी को बढ़ावा देता है, तो ऐसा करना कहाँ तक उचित होगा।

अंत में, एक महत्वपूर्ण पहलू को ध्यान में रखना चाहिए कि भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने व्यभिचार के कानून के संबंध में फैसला सुनाते हुए न केवल कानून को गैर-अपराध बना दिया बल्कि साथ ही साथ व्यभिचार तलाक के लिए भी एक वैध आधार बना रहेगा। इसलिए, यह परिमाणित किया जा सकता है कि सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय बड़े पैमाने पर समाज के लिए एक लाभ के रूप में आता है, क्योंकि इसने उस कानून को गैर-अपराध बना दिया है जो पुरातन और रूढ़िबद्ध था और आगे इसे तलाक के लिए एक वैध आधार बनाकर इसने विवाह के पक्षकारों को विवाह को समाप्त करने के लिए पूर्ण अधिकार दिया है, यदि विवाह की पवित्रता का उल्लंघन किसी एक साथी द्वारा किया जाता है।

सबरीमाला मुद्दा

सबरीमाला मुद्दे की शुरुआत

सबरीमाला को भारत के सबसे पवित्र मंदिरों में से एक माना जाता है। पश्चिमी घाट की पर्वत श्रृंखलाओं (रेंज) के ऊपर स्थित इस मंदिर में सालाना 40 से 50 मिलियन श्रद्धालु आते हैं। भगवान अयप्पा को समर्पित, यह प्राचीन मंदिर 10 से 50 वर्ष की आयु की महिलाओं को छोड़कर सभी जाति और पंथ (क्रिड) के लोगों के लिए खुला है। सबरीमाला में देवता को “नैस्तिक ब्रम्हचारी” माना जाता है जिसका अर्थ अनंत काल के लिए ब्रह्मचारी है। इस पहलू को ध्यान में रखते हुए, मंदिर बोर्ड ने 10 से 50 वर्ष की आयु की महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबंध लगाने के लिए एक अधिसूचना (नोटिफिकेशन) जारी की थी।

प्राचीन दिनों में, यह पुजारी थे जो मंदिर के अंदर लोगों के प्रवेश का निर्णय लेने की शक्ति रखते थे, लेकिन समय बीतने के साथ, केरल के उच्च न्यायालय ने 1991 में 10 से 50 वर्ष की आयु की महिलाओं के मंदिर में प्रवेश पर प्रतिबंध लगा दिया।  

केरल उच्च न्यायालय द्वारा प्रतिबंध लगाने के बाद की घटनाओं का खुलासा

केरल उच्च न्यायालय के फैसले के बाद, विभिन्न क्षेत्रों के लोगों द्वारा कई आपत्तियां उठाई गईं थी: वकीलों के एक समूह ने यह कहते हुए निर्णय पर आपत्ति जताई कि यह समानता के अधिकार के सिद्धांत के खिलाफ है और एक व्यक्ति के पूजा करने के अधिकार पर सवाल उठाता है। 2016 में फिर से, भारत के प्रमुख वकीलों के नेतृत्व में एक संघ (एसोसिएशन) ने केरल उच्च न्यायालय के फैसले पर सवाल उठाए था। यह अंत में 2018 में था जब सबरीमाला के पवित्र मंदिर में महिलाओं के प्रवेश के संबंध में मामले को निर्धारित करने के लिए पांच-न्यायाधीशों की पीठ का गठन (कॉन्स्टीट्यूट) किया गया था।

सबरीमाला के संबंध में अपने फैसले में पांच न्यायाधीशों की पीठ ने मंदिर में महिलाओं के प्रवेश पर प्रतिबंध हटा दिया और फैसला सुनाया कि प्रत्येक व्यक्ति को मंदिर में प्रवेश करने का अधिकार है और उन्हें पूजा करने का अधिकार दिया जाना चाहिए। न्यायमूर्ति इंदु मल्होत्रा ​​ने धर्मस्थल में महिलाओं के प्रवेश के खिलाफ फैसला सुनाया, जो केवल एक असहमतिपूर्ण राय रखने वाली थीं।

सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के बाद घटनाओं का मोड़

सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा, सबरीमाला के निर्णय को लागू करने के साथ, देश में महिलाओं के प्रवेश पर कई विरोध और आपत्तियां देखी गईं थी। स्थानीय लोगों द्वारा महिलाओं को मंदिर में प्रवेश करने से रोकने के कई उदाहरण थे और मंदिर की पूजा के सुचारू संचालन (स्मूथ फंक्शनिंग) में हंगामा और व्यवधान (डिसर्पशन) देखा गया था। इस तरह की घटनाओं को देखकर केरल सरकार समझ गई कि स्थिति को नियंत्रण में लाने के लिए तत्काल कदम उठाने की जरूरत है। इसलिए, सरकार ने राज्य में होने वाली घटनाओं पर अदालत का ध्यान आकर्षित किया और सर्वोच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ पंडालम के शाही परिवार द्वारा एक समीक्षा याचिका (रिव्यू पिटीशन) दायर की गई थी। इसके बाद, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि मामले की समीक्षा 7 न्यायाधीशों की एक बड़ी पीठ के द्वारा की जाएगी।

उपरोक्त चर्चा से, यह कहा जा सकता है कि- जब सबरीमाला जैसे मुद्दे सामने आते हैं, तो यह भारत में अदालतों के लिए भारत में प्राचीन रीति-रिवाजों को विनियमित (रेग्यूलेट) करने और फिर से विचार करने के लिए एक उत्कृष्ट (आउटस्टैंडिंग) संभावना प्रदान करता है। इसके अलावा, अदालतों को भक्तों की पूजा के अधिकार और समानता के अधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के संदर्भ में भारत के संविधान द्वारा निर्धारित नियमों के बीच एक समानता बनाने की भी आवश्यकता है। सबरीमाला के मुद्दे पर गहन अवलोकन (ऑब्जर्वेशन) करने के बाद, यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि भारत में अदालतों को ऐसे मुद्दों से निपटने के लिए एक तरीका तैयार करने की आवश्यकता है और उन्हें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि इससे लोगों के विभिन्न समूहों के बीच कोई हिंसक संघर्ष न हो। यह मुद्दा भारतीय संविधान द्वारा स्थापित व्यक्तिगत कानूनों और मौलिक अधिकारों के बीच टकराव के एक असाधारण उदाहरण के रूप में खड़ा था।

व्यक्तिगत कानून जो बदलाव का इंतजार कर रहे हैं

अब तक, इस लेख में विभिन्न व्यक्तिगत कानूनों पर चर्चा की गई है, जिन्हें भारत में अदालतों द्वारा, उनके अस्तित्व के साथ गलत होने वाली सभी चीजों को हल करने के लिए न्यायिक घोषणा दी गई थी। लेकिन इसके साथ ही, यह भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि कई व्यक्तिगत कानून हैं जो अभी भी बदलाव की प्रतीक्षा कर रहे हैं। इस लेख का निम्नलिखित भाग ऐसे मामलों को प्रकाश में लाएगा और ऐसे मौजूदा व्यक्तिगत कानून के लिए भविष्य की कार्रवाई के बारे में अटकलों (स्पेक्युलेशन) को उजागर करेगा।

भारत में वैवाहिक बलात्कार

वैवाहिक बलात्कार: भारत में एक अस्‍वाभाविक- सी सचाई?

सबसे पहले, इस मुद्दे की जड़ को समझने के लिए, यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि, भारतीय दंड संहिता की धारा 375 में यह कहा गया है की किसी महिला पर किसी भी तरह का यौन हमला (सेक्शुअल असॉल्ट), जिसमें सहमति शामिल नहीं है, उसे एक आपराधिक अपराध माना जाएगा और ऐसा करने पर सजा दी जाएगी जो 7 साल की अवधि के कारावास से लेकर आजीवन कारावास तक हो सकती है।

फिर भी, यह ध्यान रखना काफी आश्चर्यजनक होगा कि धारा 375 के अपवाद (एक्सेप्शन) 2 में पति और पत्नी के बीच गैर-सहमति वाले संभोग को छोड़ दिया जाता है यदि पत्नी की उम्र पंद्रह वर्ष से अधिक है। भारत में मौजूदा कानून शादी के विचार को एक ऊंचे स्थान पर रखता है और इस विचार को एक महिला की सहमती के भी ऊपर रखा गया है। दुनिया के अन्य देशों से इसकी तुलना करते हुए यह कहा जा सकता है कि दुनिया के अधिकांश देशों ने वैवाहिक बलात्कार को एक आपराधिक अपराध बना दिया है। दूसरी ओर, भारत अभी भी उन 34 देशों में से एक है, जिन्हें वैवाहिक बलात्कार का अपराधीकरण करना बाकी है।

वैवाहिक बलात्कार का अपराधीकरण: क्या यह भारत के लिए दूर का सपना है?

वैवाहिक बलात्कार को वैध बनाने वाली धारा 375 के तहत निर्धारित अपवाद खंड (क्लॉज) के संबंध में भारत की विभिन्न अदालतों में ढेर सारी याचिकाएँ पड़ी हैं। आपराधिक कानून के तहत “तर्कसंगतता (रीजनेबलनेस)” की अवधारणा वैवाहिक बलात्कार की स्थापना में मुश्किल लगने वाले मुख्य पहलुओं में से एक है। जब वैवाहिक बलात्कार की बात आती है तो तर्कसंगतता की अवधारणा का उचित स्थान नहीं होता है, क्योंकि भारत जैसे पितृसत्तात्मक (पैट्रियार्कल) समाज में, यह माना जाता है कि विवाह, पति को अपनी पत्नी के शरीर पर एक निरंतर सहमति देता है, इसके अतिरिक्त आमतौर यह माना जाता है कि एक “उचित कार्य” या “तर्कसंगतता” एक ऐसी चीज है जिसका एक आदमी हमेशा पालन करता है।

वैवाहिक बलात्कार का अपराधीकरण: समय की आवश्यकता?

एक अन्य महत्वपूर्ण पहलू जो वैवाहिक बलात्कार को अपराध से मुक्त करने में एक बाधा के रूप में कार्य करता है, वह यह धारणा (नोशन) है कि महिलाएं अपने पतियों को परेशान करने के लिए वैवाहिक बलात्कार के कानून का उपयोग एक साधन के रूप में करती हैं। यहां, इस बात पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि भारत में कई महिला-केंद्रित कानून लागू किए गए हैं, जो पुरुषों को उनके द्वारा किए गए गलतियों के लिए दंडित करने में सक्षम हैं और यदि वैवाहिक बलात्कार के कानून का गलत उपयोग करने वाली महिलाओं के मामले सामने आते हैं, तो यहां पर वास्तव में पति के लिए जमानत प्राप्त करना कठिन हो जाता है और उसे पत्नी को हर्जाना भी देना होता है। लेकिन, विचार की जाने वाली एक महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि इंटरनेशनल सेंटर एंड रिसर्च फॉर वूमेन द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण (सर्वे) से पता चला है कि कम से कम 20% पुरुषों ने अपनी शादी के दौरान कम से कम एक बार अपनी पत्नियों के साथ जबरदस्ती की है, और इसके अलावा, इसने यह भी खुलासा किया है कि 5.6% को शारीरिक शोषण (एब्यूज) के शिकार लोगों के रूप में वर्गीकृत किया गया था और उन्हें अपने पतियों के साथ यौन संबंध बनाने के लिए मजबूर किया गया था जब वे स्पष्ट रूप से किसी भी यौन गतिविधि में शामिल नहीं होना चाहती थीं। इस तरह के तथ्य और आंकड़े महिलाओं की सुरक्षा और संरक्षता के बारे में प्रमुख सवाल उठाते हैं और इसलिए उन्हें संबोधित करने की जरूरत है, जिससे इस समस्या को समाप्त किया जाना चाहिए। इसलिए, यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि वैवाहिक बलात्कार को अपराध बनाना वास्तव में समय की आवश्यकता है।

बाल विवाह

सरल शब्दों में कहा जाए तो बाल विवाह को एक अनौपचारिक (इनफॉर्मल) या औपचारिक (फॉर्मल) मिलन या विवाह के रूप में परिभाषित किया जा सकता है, जिसे विवाह के लिए उपयुक्त कानूनी उम्र प्राप्त करने से पहले एक व्यक्ति के लिए बाध्य किया जाता है। पीछे मुड़कर देखें, तो यह कहा जा सकता है कि भारत में बाल विवाह दिल्ली सल्तनत के समय से ही अस्तित्व में था, जहाँ इस तरह के कार्य के पीछे सामान्य धारणा, लड़कियों को बलात्कार और अपहरण जैसी सामाजिक बुराइयों से बचाने के लिए थी। लेकिन, समय बीतने के साथ, हालांकि भारत विदेशी शासकों से मुक्त हो गया है, लेकिन राष्ट्र बाल विवाह की बुराई से मुक्त नहीं हो सका और भारत में आज भी यह बहुत प्रचलित (प्रीवेलेंट) है।

विकसित देशों की तुलना में विकासशील देशों में बाल विवाह बड़े पैमाने पर होता है। यूनिसेफ द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण के अनुसार, 10 में से 4 लड़कियों की शादी 18 साल की उम्र से पहले कर दी जाती है और दक्षिण एशिया के आंकड़े बताते हैं कि 7 में से 3 लड़कियों की शादी 18 साल की उम्र से पहले कर दी जाती है। इन सबके बीच सबसे चौंकाने वाला तथ्य यह है कि भारत में दुनिया के किसी भी अन्य देश की तुलना में सबसे अधिक बाल वधू हैं, जो कि लगभग 15 मिलियन हैं। भारत के बाद, बांग्लादेश लगभग 4.5 मिलियन बाल वधू के साथ दूसरे स्थान पर है और इसके बाद नाइजीरिया और ब्राजील आते हैं, जिनमें लगभग 30 लाख बाल वधू हैं।

बाल विवाह के दुष्परिणाम (अनटूवर्ड कंसीक्वेंसेज)

जब भी लड़कियों की कम उम्र में शादी कर दी जाती है, तो उन्हें स्कूल छोड़ने के लिए मजबूर किया जाता है, उन्हे उनकी बुनियादी (बेसिक) शिक्षा से वंचित किया जाता है और उन्हें अपने पति की संपत्ति के रूप में अपने पति के स्थान पर स्थानांतरित (ट्रांसफर) कर दिया जाता है। इसके बाद, युवा लड़कियों को गर्भावस्था (प्रेगनेंसी) के उच्च जोखिम में डाल दिया जाता है, भले ही वे ऐसी परिस्थितियों को संभालने के लिए शारीरिक और मानसिक रूप से अपरिपक्व (मैच्योर) हों या नहीं। विश्व स्वास्थ्य संगठन (वर्ल्ड हेल्थ आर्गेनाइजेशन) द्वारा किए गए सर्वेक्षण के अनुसार, समय से पहले गर्भावस्था भारत में युवा लड़कियों की मृत्यु के प्रमुख कारणों में से एक थी। इसलिए, यह कहा जा सकता है कि, सही उम्र प्राप्त करने से पहले युवा लड़कियों की शादी करने से, लड़कियों को सीखने, बढ़ने और बचपन के उनके मूल अधिकारों से वंचित किया गया है, जिसका हर बच्चा हकदार है और केवल यह ही नही की उन्हें अपने शेष जीवन के लिए दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है बल्कि, इसके साथ ही उन्हें उनकी बुनियादी सुविधाओं से वंचित किया जाता हैं और उन्हें विभिन्न शारीरिक, मानसिक और मनोवैज्ञानिक दुर्व्यवहारों के लिए अतिसंवेदनशील (ससेप्टिबल) भी किया जाता हैं।

बाल विवाह पर रोक लगाने वाले कानून

भारतीय परिदृश्य को ध्यान में रखते हुए, यह संकेत दिया जा सकता है कि पिछले 90 वर्षों में बाल विवाह को प्रतिबंधित करने वाले कई कानून बनाए गए हैं, जो इस प्रकार हैं:

1. बाल विवाह रोकथाम अधिनियम (प्रीवेंशन ऑफ़ चाइल्ड मैरिज एक्ट), 2006

बाल विवाह रोकथाम अधिनियम (पी.सी.एम.ए.) 2006, बाल विवाह को प्रतिबंधित करने वाले महत्वपूर्ण कानूनों में से एक, यह कहता है कि 18 वर्ष से अधिक आयु के पुरूष और 18 वर्ष से कम आयु की लड़की के बीच कोई भी विवाह, एक दंडनीय अपराध है जिसे कारावास से और 1 लाख रुपये तक के जुर्माने के साथ दंडित किया जाएगा। लेकिन इस कानून में जो कमी है वह यह है कि, हालांकि पी.सी.एम.ए. बाल विवाह को गैर-जमानती (नॉन बेलेबल) अपराध बनाता है, लेकिन यह दुल्हन के विवेक पर शून्य (वॉयडेबल) है। यानी बाल वधू को वयस्क (एडल्ट) होने के बाद अपने विवाह को अमान्य घोषित करने का अधिकार है, और यदि वह इस संबंध में कोई उपाय नहीं करती है, तो भी उसका विवाह वैध होगा। भारत में सामाजिक परिदृश्य को ध्यान में रखते हुए, जिसमें इस तरह के विवाह होते हैं, वहां दुल्हन के लिए समाज के मानदंडों और उसके माता-पिता के फैसलों के खिलाफ जाना व्यावहारिक रूप से असंभव है। 

2. पॉक्सो की धारा 5(n)

यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण (प्रोटेक्शन ऑफ़ चिल्ड्रन फ्रॉम सेक्शुअल ऑफेंसेज) की धारा 5 (n), बच्चे से संबंधित किसी भी व्यक्ति द्वारा किसी भी बच्चे पर यौन हमले या किसी अन्य संबंधित कार्य को दंडनीय अपराध बनाती है। इसके अलावा, खंड 6 में यह भी कहा गया है कि 18 साल से कम उम्र की लड़की के खिलाफ सहमति से या बिना सहमति के किसी भी यौन कार्य को दंडनीय अपराध माना जाएगा। धारा 375 के कुछ अपवाद, जो पतियों को 15 से 18 वर्ष की आयु की पत्नी के साथ विवाह संपन्न करने की अनुमति देते थे, उन्हें इंडिपेंडेंट थॉट बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया के मामले में नवंबर 2017 में संशोधित किया गया था। इसलिए, पॉक्सो के अनुसार, यदि पुरुष वयस्क है और दुल्हन नाबालिग है और उसके परिवार का कोई भी सदस्य उसे 18 वर्ष की आयु प्राप्त करने से पहले किसी पुरुष से शादी करने के लिए मजबूर करता, उकसाता है या उसके साथ जबरदस्ती करता है तो उस पर मुकदमा चलाया जाएगा। यहां मापा जाने वाला एक और महत्वपूर्ण पहलू यह है कि, यदि राज्य सरकारें इन मानदंडों का सख्ती से पालन करती हैं, तो उन्हें उन विभिन्न राजनेताओं के खिलाफ कार्रवाई करनी होगी जो सामूहिक विवाह आयोजित करते हैं जिसमें बाल वधू शामिल होती हैं।

3. हिंदू विवाह अधिनियम, 1956

बाल विवाह के बारे में बात करते हुए, यह कहा जा सकता है कि हिंदू विवाह अधिनियम ऐसे मुद्दों से निपटने के बजाय पीछे हट जाता है, क्योंकि यह केवल पक्षों को बाल विवाह के लिए उत्तरदायी बनाता है, न कि माता-पिता को, जो वास्तव में विवाह करवाते हैं। लड़की के संबंध में, प्रावधान में कहा गया है कि कोई लड़की 18 साल की उम्र के बाद ही अपनी शादी रद्द करवा सकती है अगर उसकी शादी 15 साल से पहले की जाती है तो। यह फिर से एक समस्या के रूप में सामने आता है क्योंकि यह चर्चा की गई है कि, कम उम्र में एक लड़की की शादी के बाद, वह पूरी तरह से पति और उसके परिवार पर निर्भर हो जाती है और उसके पास खुद का समर्थन करने के लिए कोई संसाधन (रिसोर्स) नहीं रह जाता है और इसलिए, इन मामलों में अधिकांश दुल्हनें आमतौर पर वयस्क होने के बाद अपने विवाह को रद्द करने का विकल्प नहीं चुनती हैं ।

अंत में, यह कहा जा सकता है कि वर्तमान कानून में कई खामियां मौजूद हैं जो भारत में बाल विवाह से संबंधित हैं। इसके अलावा गरीबी, शिक्षा की कमी, कानून के बारे में जागरूकता की कमी, दहेज की मांग में वृद्धि, लड़की के कौमार्य (वर्जिनिटी) को बनाए रखना, विभिन्न रीति-रिवाजों और अंधविश्वासों, लड़कियों के लिए सुरक्षा और संरक्षता की कमी जैसे कई अन्य कारक, भारत में बाल विवाह को बढ़ाने में प्रेरक शक्ति के रूप में कार्य करते हैं। इसलिए, यदि सरकार भारत में बाल विवाह को समाप्त करने का प्रयास करती है, तो उसे उपरोक्त कारकों को ठीक करने और उन्हें संबोधित करने पर ध्यान केंद्रित करना होगा।

क्या भारत में समान नागरिक संहिता होनी चाहिए?

समान नागरिक संहिता (यूनिफॉर्म सिविल कोड) (यू.सी.सी.)

समान नागरिक संहिता के आधार बनने और मुख्यधारा (मेंस्ट्रीम) के मुद्दे के रूप में विकसित होने के पीछे प्रमुख कारणों में से एक मुस्लिम महिलाओं की दुर्दशा है और वे अपनी सामाजिक-आर्थिक स्थितियों के उत्थान (अपलिफ्ट) के लिए न्याय की मांग करने और भारतीय संविधान के तहत उन्हें दिए गए मौलिक अधिकारों की मांग करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय का रुख कर रहीं हैं। इसके अलावा, भारतीय संविधान का अनुच्छेद 44, जो निर्देशक सिद्धांतों (डायरेक्टिव प्रिंसिपल) के बारे में बात करता है है, वह कहता है कि- “राज्य पूरे देश में नागरिकों को समान नागरिक संहिता प्रदान करने का प्रयास करेगा”।

यू.सी.सी. के कार्यान्वयन के पक्ष में तर्क

  1. नागरिकों को समान दर्जा सुनिश्चित करना- भारत एक लोकतांत्रिक गणराज्य (डेमोक्रेटिक रिपब्लिक) होने के नाते, इसमें एक ऐसे राज्य का अस्तित्व होना चाहिए जो प्रत्येक नागरिक को उनकी जाति, पंथ, धर्म या लिंग के बावजूद समान मानता हो।
  2. राष्ट्रीय एकता की स्थापना- एक धर्मनिरपेक्ष (सेकुलर) राज्य का विचार ही सभी के साथ समान व्यवहार करने के महत्व को रेखांकित करता है। यू.सी.सी. यह सुनिश्चित करेगा कि भारत में सभी धर्मों के लोगों पर समान आपराधिक और दीवानी (सिविल) कानून लागू हों। यह विभिन्न मुद्दों के राजनीतिकरण, कुछ धर्म के लोगों द्वारा प्राप्त विशेष सुविधाओं या किसी विशेष धर्म के लोगों द्वारा सामना किए जाने वाले किसी भी प्रकार के भेदभाव पर भी अंकुश लगाएगा।
  3. व्यक्तिगत कानूनों में सुधार के लिए जगह बनाना- भारत में वर्तमान व्यक्तिगत कानूनों में पितृसत्तात्मक धारणा है और इसके बजाय महिलाओं को एक विकल्प या दूसरे लिंग के रूप में मानने पर ध्यान केंद्रित किया जाता है। लेकिन समय के विकास के साथ, महिलाओं के उत्थान और उन्हें उनकी आवश्यक स्थिति देने की सख्त जरूरत पैदा हो गई है जिसे यू.सी.सी. के माध्यम से सुनिश्चित किया जा सकता है।
  4. युवाओं की आकांक्षाओं को प्रस्तुत करने के लिए- भारत की आबादी का एक बड़ा हिस्सा 25 वर्ष से कम है, भारत जैसे देश के लिए युवाओं के लक्ष्यों, सामाजिक सोच और आकांक्षाओं को सही तरीके से आकार देना महत्वपूर्ण हो जाता है। इसके विपरीत, लोगों को उनकी धार्मिक पहचान के आधार पर अलग-अलग शासन करने से बहुत नुकसान होगा।

यू.सी.सी. के कार्यान्वयन का विरोध करने वाले तर्क

  1. भारत में विशाल विविधता (डायवर्सिटी)- भारत के एक धर्मनिरपेक्ष देश होने के कारण, उसमें विभिन्न धर्मों के लोगों पर समान कानूनों के तहत शासन करना व्यावहारिक रूप से असंभव हो जाता है क्योंकि यह उनकी सांस्कृतिक और धार्मिक प्रथाओं के खिलाफ जाते हैं।
  2. क्या इस तरह के कार्यान्वयन के लिए उपयुक्त समय है? हाल के दिनों में, भारत ने मुस्लिम समुदाय के कई विरोधों को देखा है, चाहे वह गोमांस पर प्रतिबंध लगाने या स्कूल में पाठ्यक्रम के भगवाकरण (सैफ्रोनाइजेशन), या लव जिहाद के मामले में हो। इन पहलुओं को ध्यान में रखते हुए यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि यू.सी.सी. को लागू करने का यह सही समय नहीं हो सकता है।
  3. व्यक्तिगत कानूनों में राज्य का हस्तक्षेप- संविधान को देखते हुए यह निर्दिष्ट किया जा सकता है कि यह अपनी पसंद के किसी भी धर्म को मानने की स्वतंत्रता प्रदान करता है। यू.सी.सी. लाने का यह मतलब होगा कि लोगों को कुछ कानूनों का पालन करने के लिए बाध्य किया जाएगा जो भारत सरकार द्वारा सुनिश्चित स्वतंत्रता के खिलाफ जाते हैं।

निष्कर्ष

इस लेख में व्यक्तिगत कानून के मुद्दे की जड़ पर विस्तार से चर्चा की गई है। इसके अतिरिक्त, समकालीन (कंटेंपरेरी) भारत में व्यक्तिगत कानूनों के संबंध में चल रहे परिवर्तनों का भी विस्तृत अध्ययन किया गया है, कुछ व्यक्तिगत कानून जो परिवर्तन की प्रतीक्षा कर रहे हैं, समाज की बदलती धारणाओं के अनुरूप होने के लिए, कुछ अन्य कानून जो हाल ही में अदालतों द्वारा बदले गए थे उन पर भी चर्चा की गई है। अंत में, यह कहा जा सकता है कि भारत में विशाल विविधता को देखते हुए, व्यक्तिगत कानूनों के संदर्भ में जो भी बदलाव लाए जा रहे हैं, उन्हें अत्यंत सावधानी के साथ किया जाना चाहिए और साथ ही समाज के तेजी से बदलते और विकसित होते डिजाइनों को समायोजित (अकोमोडेट) करने के लिए समय-समय पर कानूनों में सुधार लाना भी महत्वपूर्ण है। 

संदर्भ

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