इस लेख में, हिदायतुल्ला नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, रायपुर के बीए एलएलबी (ऑनर्स) के छात्र Neitsezonuo Solo ने विभिन्न प्रकार की रिट और हाई कोर्ट्स के रिट अधिकार क्षेत्र (ज्यूरिसडिक्शन) पर चर्चा की हैं। इस लेख का अनुवाद Sakshi Gupta द्वारा किया गया है।
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परिचय
रिट एक कोर्ट द्वारा दिया गया एक आदेश है, जो लोअर कोर्ट्स को निर्देश देता है कि या तो कुछ करें या कुछ न करें। रिट की अवधारणा (कांसेप्ट) सबसे पहले इंग्लैंड में एंग्लो-सैक्सन द्वारा विकसित की गई थी। मोनार्क पत्र जारी करते थे जिसमें आदेश और निर्देश होते थे। तब से, विभिन्न देशों द्वारा अपनी कानूनी प्रणालियों (सिस्टम) में रिट शामिल किए गए हैं। भारत ने भी ऐसा किया है, इस तरह की रिट जारी करने के लिए सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट को सशक्त (एंपावर) बनाना है।
भारतीय कानून के तहत विशेषाधिकार (प्रीरोगेटिव) रिट
भारतीय कानून के तहत रिट विशेषाधिकार रिट हैं, जो रिट का एक उपसमुच्चय (सबसेट) है, जो पीड़ित व्यक्तियों के लिए एक असाधारण उपाय के रूप में जारी किए जाते हैं। संविधान द्वारा आर्टिकल 226 के तहत हाई कोर्ट को और आर्टिकल 32 के तहत सुप्रीम कोर्ट को विशेषाधिकार रिट जारी करने की शक्ति प्रदान की गई है। यह एक विवेकाधीन (डिस्क्रेशनरी) शक्ति है जिसका अर्थ है कि हाई कोर्ट एक रिट जारी कर सकता है या नहीं।
हाई कोर्ट जाने से पहले वैकल्पिक उपायों की समाप्ति
एक विशेषाधिकार रिट को एक असाधारण रिट के रूप में भी जाना जाता है क्योंकि यह केवल तभी जारी किया जाता है जब वैकल्पिक उपचार समाप्त हो जाते हैं। हालांकि यह प्रतिबंध (रिस्ट्रिक्शन) मौलिक अधिकारों (फंडामेंटल राइट्स) के प्रवर्तन (एनफोर्समेंट) तक नहीं है। इसके लिए कोर्ट ने एक उदहारण कायम किया है।
इसे उपचारों की समाप्ति के नियम के रूप में जाना जाता है। कोर्ट ने यूनियन ऑफ़ इंडिया बनाम टी.आर. वर्मा एआईआर 1957 एससी 882 में यह माना गया कि समाप्ति का नियम मौजूद है ताकि किसी व्यक्ति को आर्टिकल 226 के तहत हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाकर मौजूदा वैधानिक (स्टेच्यूटरी) कार्यवाही को बिगाड़ने की अनुमति न हो।
इसके अलावा, सुप्रीम कोर्ट ने यू.पी. जल निगम बनाम नरेश्वर सहाय माथुर 1 एससीसी 21 और तितागहुर पेपर मिल्स कंपनी लिमिटेड बनाम उड़ीसा राज्य 142 आईटीआर 663 के मामलों में प्रदान किया है कि कुछ आधार है जिन पर कोर्ट अन्य उपचार उपलब्ध होने पर भी रिट जारी कर सकती है। वे इस प्रकार हैं:
- जब प्रदान किए गए उपाय स्थिति के अनुकूल नहीं होते हैं।
- जब वैकल्पिक उपाय मामले की जरूरतों को पूरा करने के लिए अपर्याप्त होते है।
- जब अनुचित मात्रा में विलंब (डिले) होता है।
- जब मामले की सुनवाई के लिए अधिकार क्षेत्र का पूर्ण अभाव होता है।
हाई कोर्ट का अधिकार क्षेत्र
संविधान के आर्टिकल 226 में हाई कोर्ट का अधिकार क्षेत्र भी प्रदान किया गया है, और उन्हें दो भागों में विभाजित किया जा सकता है:
क्षेत्रीय (टेरिटोरियल)
हाई कोर्ट को उस राज्य के क्षेत्र के भीतर रिट जारी करने का अधिकार है जिससे हाई कोर्ट संबंधित है। आर्टिकल 226(2) के तहत कोर्ट को कुछ हद तक अतिरिक्त-क्षेत्रीय अधिकार क्षेत्र भी प्रदान किया गया है। हाई कोर्ट को किसी भी सरकार, प्राधिकरण (अथॉरिटी) या अपने क्षेत्रीय अधिकार क्षेत्र से बाहर के व्यक्ति को रिट जारी करने की अनुमति है यदि कार्रवाई के कारण का पूरा या कोई हिस्सा उनके संबंधित राज्य में उत्पन्न होता है।
विषय वस्तु (सब्जेक्ट मैटर)
इस शक्ति का प्रयोग करने के लिए हाई कोर्ट को एक बड़ा दायरा दिया गया है। एक हाई कोर्ट न केवल संविधान के भाग III में दिए गए मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन के लिए, बल्कि गैर-मौलिक अधिकारों के प्रवर्तन के लिए भी रिट जारी कर सकता है, जिसके लिए भारत के संविधान ने “किसी अन्य उद्देश्य के लिए” शब्दों का उपयोग हाई कोर्ट के अधिकार क्षेत्र के दायरे का विस्तार करने के लिए किया है।
रिट के प्रकार
पांच प्रकार के रिट हैं जो हाई कोर्ट द्वारा जारी किए जा सकते हैं, लेकिन आर्टिकल 226 ने अन्य रिट जारी करने की शक्ति भी दी है यदि वे संविधान में स्पष्ट रूप से वर्णित पांच प्रकार के रिट के समान प्रकृति के हैं। रिट के प्रकार इस प्रकार हैं:
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बन्दी प्रत्यक्षीकरण (हेबियस कॉर्पस)
बंदी प्रत्यक्षीकरण को अंग्रेजी में हेबियस कॉर्पस कहा जाता है। हेबियस कॉर्पस एक लैटिन शब्द है जिसका अनुवाद “आपके पास शरीर है” है। इस प्रकार के रिट का उपयोग अवैध हिरासत और कारावास के मामलों में किया जाता है। यह रिट कोर्ट को हिरासत में लिए गए व्यक्ति को कोर्ट में पेश होने और कारावास या हिरासत का वैध कारण बताने का निर्देश देती है। उन्हें सबूत देना होगा कि यह कानूनी है, इस प्रकार सबूत का दायित्व बंदी पर है, और उसे ऐसा करने के लिए अधिकार का प्रमाण दिखाना होगा। अगर कोर्ट को पता चलता है कि व्यक्ति को अवैध रूप से हिरासत में लिया गया है, तो वह बंदी या कैदी को मुक्त करने का आदेश दे सकता है।
दायरा और आधार
कोर्ट ने इस रिट के दायरे का बहुत विस्तार (एक्सपैंड) किया है क्योंकि यह जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार की रक्षा करता है। शीला भरसे बनाम महाराष्ट्र राज्य एआईआर 1983 एससी 378 के मामले में, कोर्ट ने यह निर्णय करते हुए इस रिट के दायरे का विस्तार किया कि यह आवश्यक नहीं है कि बंदी याचिकाकर्ता (पेटीशनर) हो। एक इच्छुक पार्टी जिसका मामले से कुछ संबंध है, वह भी ऐसा कर सकती है।
कानू सान्याल बनाम जिला मजिस्ट्रेट एआईआर 1973, एससी 2684 के मामले में कोर्ट ने कहा कि बंदी को कोर्ट के सामने पेश करना आवश्यक नहीं है।
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निषेध (प्रोहिबिशन)
हाई कोर्ट द्वारा न्यायिक और अर्ध-न्यायिक निकायों (क्वासी ज्यूडिशियल बॉडीज) को निषेध का रिट जारी किया जाता है, उक्त निकायों को किसी भी कार्यवाही को जारी रखने से रोकता है जो उनके अधिकार क्षेत्र से अधिक है। निषेध रिट तभी जारी की जा सकती है जब मामला जारी हो।
दायरा और आधार
कलकत्ता डिस्काउंट कंपनी लिमिटेड बनाम आईटीओ एआईआर 1961 एससी 372 के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने माना कि जब एक सबोर्डिनेट कोर्ट या न्यायाधिकरण (ट्रिब्यूनल) को निर्णायक (डेसिसिवली) रूप से दिखाया जाता है कि उन्होंने अपने अधिकार क्षेत्र से अधिक काम किया है, तो कोर्ट निषेध का रिट जारी करेगी इसके बाबजूद कि कोई वैकल्पिक उपाय मौजूद है या नहीं।
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परमादेश (मैंडमस)
परमादेश को अंग्रेजी में मैंडमस कहा जाता है। मैंडमस एक लैटिन शब्द है जिसका अर्थ है “आदेश देना”, और यह एक रिट है जो किसी भी व्यक्ति या प्राधिकरण को जारी किया जाता है जिसे कानून द्वारा कर्तव्य निर्धारित किया गया है। निजी दायित्वों वाले किसी निजी व्यक्ति या कंपनी को परमादेश जारी नहीं किया जा सकता है। इसे निजी अनुबंध (कॉन्ट्रैक्ट) को लागू करने के लिए भी जारी नहीं किया जा सकता है। यह रिट प्राधिकारी को कर्तव्य करने के लिए बाध्य करती है। परमादेश एक नया कर्तव्य नहीं बनाता है बल्कि यह पहले से मौजूद कर्तव्य के प्रदर्शन को मजबूर करता है।
दायरा और आधार
अन्य विशेषाधिकार रिटों की तरह, कोर्ट ने परमादेश की रिट के आवेदन के लिए मानदंड (पैरामीटर्स) निर्धारित करने का भार अपने ऊपर ले लिया है।
पश्चिम बंगाल राज्य बनाम नूरुद्दीन (1998) 8 एससीसी 143 के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि परमादेश एक व्यक्तिगत कार्रवाई है जहां प्रतिवादी ने वो कर्तव्य नहीं किया है जिसे करने के लिए उन्हें कानून द्वारा निर्धारित किया गया था। कर्तव्य का पालन करना आवेदक का अधिकार है।
श्री अनादि मुक्त सद्गुरु श्री मुक्ताजी वंदसजीस्वामी सुवर्ण जयंती महोत्सव स्मारक ट्रस्ट और अन्य बनाम वी.आर. आर उदानी और अन्य एआईआर 1989 एससी 1607, में कोर्ट ने माना कि यह आवश्यक नहीं है कि कर्तव्य क़ानून द्वारा लगाया जाता है, परमादेश उन मामलों में भी लागू हो सकता है जहां कर्तव्य सामान्य कानून या प्रथा द्वारा लगाया जाता है। परमादेश का दायरा बहुत व्यापक है, और अन्याय होने पर इसे उपलब्ध होना चाहिए। इसे बहुत अधिक तकनीकीताओं से नहीं बांधना चाहिए।
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क्यू वारंटो
क्यू वारंटो “किस वारंट द्वारा” के लिए मध्यकालीन (मेडिवल) लैटिन शब्द है और यह वह रिट है जो सबोर्डिनेट अधिकारियों को यह दिखाने के लिए जारी किया जाता है कि वे किस अधिकार के तहत कार्यालय धारण कर रहे हैं। निजी क्षेत्र में काम करने वाले व्यक्ति को रिट जारी नहीं किया जा सकता है। यह रिट एक ऐसे व्यक्ति को कार्यालय में जारी किया जाता है, जिसकी वैधता पर सवाल उठाया जा रहा है।
दायरा और आधार
आनंद बिहारी बनाम राम सहाय एआईआर 1952 एमबी 31 के मामले में, कोर्ट ने कहा कि विचाराधीन कार्यालय अनिवार्य रूप से एक सार्वजनिक होना चाहिए।
जी वेंकटेश्वर राव बनाम आंध्र प्रदेश सरकार एआईआर 1966, एससी 828 में, कोर्ट ने कहा कि एक निजी व्यक्ति क्यू वारंटो की रिट के लिए आवेदन दायर कर सकता है। यह आवश्यक नहीं है कि यह व्यक्ति व्यक्तिगत रूप से प्रभावित हो या मामले में दिलचस्पी रखता हो।
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सर्चिओरिअरी
सर्चिओरिअरी का अर्थ है “प्रमाणित (सर्टीफाई) करना”, और यह एक रिट है जो हाई कोर्ट द्वारा सबोर्डिनेट न्यायिक या अर्ध-न्यायिक निकायों को जारी किया जाता है ताकि यह पता लगाया जा सके कि कोर्ट के पास किसी विशेष मामले के रिकॉर्ड को स्थानांतरित (ट्रांसफर) करने का निर्देश है या नहीं या फिर यह प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों के विरुद्ध है। सर्चिओरिअरी रिट प्रकृति में सुधारात्मक है।
दायरा और आधार
हरि विष्णु कामथ बनाम अहमद इशाक एआईआर 1955 एससी 233 के मामले में सर्चिओरिअरी की रिट का दायरा निम्नानुसार दिया गया है:
- जब अधिकार क्षेत्र में कोई त्रुटि (एरर) हो।
- जब कोर्ट ने दोनों पार्टी को सुनवाई के लिए उचित समय नहीं दिया है या प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन किया है।
- यह रिट प्रकृति में पर्यवेक्षी (सुपरवाइजरी) है, और इस प्रकार हाई कोर्ट लोअर कोर्ट के निष्कर्षों की समीक्षा (रिव्यू) नहीं कर सकता है।
- यदि त्रुटि स्पष्ट है।
वह कौन-सी विभिन्न स्थितियाँ हैं जिसमे रिट जारी की जा सकती है?
बन्दी प्रत्यक्षीकरण
बंदी प्रत्यक्षीकरण की रिट हाई कोर्ट में दायर की जा सकती है जब किसी व्यक्ति को किसी सार्वजनिक प्राधिकरण द्वारा अवैध रूप से हिरासत में लिया गया हो। उदाहरण के लिए, यदि किसी व्यक्ति को अनुचित समय के लिए और बिना उचित कारण के हिरासत में लिया गया है, तो वह बंदी प्रत्यक्षीकरण की रिट दायर कर सकता है।
निषेध
निषेध का रिट तब दायर किया जा सकता है जब कोई कोर्ट उनके अधिकार क्षेत्र की सीमा के भीतर नहीं बल्कि उसकी निर्धारित सीमाओं से परे कार्य करती है। उदाहरण के लिए, यदि कोर्ट के अधिकार क्षेत्र के बिना किसी मुकदमे की सुनवाई हो रही है, तो निषेध का रिट दायर किया जा सकता है।
परमादेश
परमादेश की रिट तब दायर की जा सकती है जब कोई व्यक्ति उस कर्तव्य को नहीं करता है जिसे करने के लिए उन्हें एक क़ानून, सामान्य कानून या प्रथा द्वारा निर्धारित किया जाता है। उदाहरण के लिए, जब पुलिस किसी अपराधी के खिलाफ बिना किसी कारण के कोई कार्रवाई करने से इनकार करती है, तो परमादेश की रिट दायर की जा सकती है।
क्यू वारंटो
क्यू वारंटो का रिट उन स्थितियों में लागू किया जा सकता है जहां एक व्यक्ति जिसने सार्वजनिक कार्यालय का अधिग्रहण (एक्वायर) किया है, उसे ऐसा करने का अधिकार नहीं है। उदाहरण के लिए, रिट दायर की जा सकती है यदि एडवोकेट जनरल का पद धारण करने वाले व्यक्ति के पास इसका वैध अधिकार नहीं है।
सर्टिओरिअरी
सर्चिओरिअरी का रिट उन स्थितियों में लागू किया जा सकता है जहां एक कोर्ट, एक आदेश पास करने पर, अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर चली गई है। उदाहरण के लिए, जब कोर्ट किसी ऐसे मामले के लिए आदेश पास करती है जिसके लिए उन्हें ऐसा करने की कोई शक्ति नहीं होती है, तो पीड़ित सर्चिओरिअरी की रिट के लिए आवेदन कर सकते हैं।
सर्चिओरिअरी और निषेध के बीच अंतर
सर्चिओरिअरी और निषेध दोनों के मामले में, हाई कोर्ट न्यायिक और अर्ध-न्यायिक अधिकारियों को अधिकार क्षेत्र से अधिक होने पर निर्देश देने वाला आदेश पास करता है। दोनों के बीच का अंतर नीचे दिया गया है:
- निषेध रिट केवल तभी जारी की जा सकती है जब मामला कोर्ट या न्यायाधिकरण के समक्ष लंबित हो।
- कोर्ट या न्यायाधिकरण द्वारा अंतिम आदेश पास किए जाने के बाद सर्चिओरिअरी का रिट जारी किया जाता है।
सुप्रीम कोर्ट में रिट कैसे दाखिल करें?
आर्टिकल 32 के तहत सुप्रीम कोर्ट में एक रिट याचिका (पेटिशन) दायर करने के उद्देश्य से, सुप्रीम कोर्ट द्वारा रिट याचिका के लिए एक फॉर्मेट प्रदान किया जाता है जिसका पालन किया जाना चाहिए। रिट याचिका के साथ निम्नलिखित दस्तावेजों को संलग्न (अटैच) करने की आवश्यकता है:
- याचिकाकर्ता द्वारा एक हलफनामा (एफिडेविट)।
- रिट याचिका की 1+5 प्रतियां (कॉपी)।
- इसमें एक निर्धारित कवर पेज, एक इंडेक्स, एनेक्सर के साथ-साथ उपस्थिति का एक ज्ञापन (मेमो) भी शामिल होगा जिसके लिए शुल्क का भुगतान किया जाना है।
हाई कोर्ट में मामला दर्ज करने के लिए उसी प्रक्रिया का उपयोग किया जा सकता है, रिट याचिका का फॉर्मेट संबंधित हाई कोर्ट की वेबसाइट पर उपलब्ध होगा। उदाहरण के लिए, फॉर्मेट एमपी हाई कोर्ट की आधिकारिक (ऑफिशियल) वेबसाइट पर उपलब्ध है।
हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के रिट अधिकार क्षेत्र के बीच अंतर
भारत के संविधान ने आर्टिकल 32 में सुप्रीम कोर्ट को रिट जारी करने की शक्ति दी है। हाई कोर्ट के मामले में यह शक्ति व्यापक है क्योंकि जब रिट जारी करने की बात आती है तो सुप्रीम कोर्ट के पास सीमित शक्तियां होती हैं। अंतर नीचे दिया गया है:
- मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होने की स्थिति में ही सुप्रीम कोर्ट रिट जारी कर सकता है।
- हाई कोर्ट के पास इस शक्ति का प्रयोग करने की व्यापक गुंजाइश है। वे न केवल मौलिक अधिकारों का उल्लंघन होने पर बल्कि अन्य मामलों में भी रिट जारी कर सकते हैं।
निष्कर्ष
रिट देने की शक्ति हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट को दी गई सबसे महत्वपूर्ण शक्तियों में से एक है। त्वरित उपचार प्रदान करके नागरिकों के अधिकारों की रक्षा करता है, जिससे त्वरित न्याय प्रदान करके लोकतंत्र के सिद्धांतों को कायम रखा जाता है। रिटों के महत्व को कम करके नहीं आंका जा सकता है, और कोर्ट को जरूरी रूप से इस शक्ति का उपयोग विवेकपूर्ण (ज्यूडिशियसली) तरीके से करना चाहिए क्योंकि उन्हें इस शक्ति का अभ्यास करने के लिए बहुत व्यापक दायरा दिया गया है।