बोफोर्स घोटाले और उसके कानूनी निहितार्थ को समझना

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Prevention of Corruption Act
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एमिटी यूनिवर्सिटी, कोलकाता से Shoronya Banerjee द्वारा लिखे गए इस लेख में बोफोर्स घोटाले और उसके बाद हुई कानूनी कार्यवाही पर चर्चा की गई है। इस लेख का अनुवाद Shreya Prakash द्वारा किया गया है।

परिचय

समानता, सद्भाव (हारमनी), वित्तीय स्थिरता (फाइनेंशियल स्टेबिलिटी) और इसी तरह की अन्य चीजों के लिए एक विश्व मार्ग के साथ, भ्रष्टाचार और घोटालों ने बार-बार लोगों को लूटा और धोखा दिया है, जिससे भारी मात्रा में धन का नुकसान हुआ है। हमारे जीवन के हर पहलू के साथ मौजूद भ्रष्टाचार हमारे समाज पर एक बहुत बड़ा बोझ बन गया है। इसका मुकाबला करने के तरीके और कानून हैं, लेकिन ज्यादातर समय संघर्ष करने वाले लोग अपने लालच के साथ आगे बढ़ जाते हैं और भ्रष्टाचार के दुष्चक्र (विशियस साइकिल) में शामिल हो जाते हैं। घूस देने और स्वीकार करने के चक्र में आ जाने वाले लोगों की वजह से ऐसी घटनाएं होती हैं। कई बार, ऐसा लगता है कि भ्रष्टाचार की व्यवस्था को अस्तित्व में रखने के लिये ही, कानून बनाए और संशोधित किए गए हैं। 

अधिकांश राजनेता, विशेष रूप से सत्ता में रहने वाले अपने पक्ष में कानूनों का मार्ग बनाते हैं। कई अनियमितताएं और राजनीतिक झुकाव, भ्रष्टाचार के मामलों को जन्म देते हैं, जिससे अपराधी को दोषी ठहराना मुश्किल हो जाता है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र जैसे ऐतिहासिक संसाधनों (रिसोर्सेज) ने भी 2400 साल पहले से भ्रष्टाचार के अस्तित्व को प्रदर्शित किया है। भ्रष्टाचार के बाद आमतौर पर घोटाले होते हैं, और यह मुख्य रूप से बड़ी संख्या में लोगों को या देश के पैसे को, मुखौटा पहनकर और सभी को धोखा देकर, लूटते हैं। हमारे समाज और राष्ट्र ने वर्षों से कई घोटालों का सामना किया है, जिनमें से आधे जनता के लिए जारी नहीं किए गए हैं। बोफोर्स घोटाला भी ऐसा ही एक सौदा था, जो की एक बड़ा घोटाला था। इसमें तत्कालीन प्रधान मंत्री, श्री राजीव गांधी के साथ कई प्रसिद्ध संस्थाएं भी शामिल थीं। इस घोटाले को एक आपराधिक साजिश के रूप में देखा गया था, जिसमें कई आम आदमी, लोक सेवक और राजनेता शामिल थे।

कांग्रेस सरकार की भूमिका

1937 से 1939 तक, देश के कई हिस्सों में कांग्रेस के कुछ मंत्रियों के कार्यकाल के दौरान, मंत्रियों के भ्रष्ट होने और अपनी शक्तियों का दुरुपयोग करने के बारे में कई रिपोर्ट और आरोप लगाए गए थे। द्वितीय विश्व युद्ध के सामने, नियंत्रण और लाइसेंस प्रणाली (सिस्टम) की प्रक्रिया के साथ-साथ आवश्यक आपूर्ति प्राप्त करने के लिए अत्यधिक बजट ने, बेईमान अधिकारियों और व्यापारियों के लिए अपनी भ्रष्ट प्रथाओं और गतिविधियों को जारी रखने का मार्ग प्रशस्त किया था। 1947 में भारत की स्वतंत्रता के बाद भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (आईएनसी) एक प्रमुख राजनीतिक दल के रूप में सामने आया था। तेजी से सुधार नीतियां लाकर, दल ने अपनी मजबूत स्थापना को जन्म दिया था। राजनीतिक दलों ने संबंधित राजनीतिक दलों को बनाए रखने के लिए धन की आवश्यकता महसूस की, विशेष रूप से चुनावों के समय जब उम्मीदवारों को चुनावों में सफल और विजयी दिखने के लिए मौद्रिक (मॉनेटरी) समर्थन की आवश्यकता होती है। इस कारण से, दलों का झुकाव अक्सर अवैध साधनों और गतिविधियों की ओर होता है, जिसके कारण राजनीतिक नेताओं, ठेकेदारों, व्यापारियों आदि के बीच अवैध साधनों को सफलतापूर्वक प्रभाव देने के लिए संबंध बनते हैं। ज्यादातर समय संसद और राज्य विधानमंडल के सफल चुनाव, भ्रष्ट साधनों की ओर झुकाव रखने वाले लोगों के लिए एक प्रेरणा बन जाते हैं, और सत्ता उन्हें भ्रष्टाचार का सहारा लेने का बेहतर अवसर देती है।

श्रीमती इंदिरा गांधी के राष्ट्रीय चुनाव हारने के बाद, 1977 के बाद उन्होंने फिर से खुद को सत्ता की स्थिति में वापस पा लिया था। लेकिन जल्द ही 31 अक्टूबर, 1984 को उनके अंगरक्षकों (बॉडी गार्ड्स) द्वारा उनकी हत्या कर दी गई। 8 वीं लोकसभा चुनाव में कांग्रेस दल की जीत श्रीमती इंदिरा गांधी के बड़े बेटे, श्री राजीव गांधी के शासनकाल में हुई थी। श्री राजीव गांधी ने सत्ता में रहते हुए कुछ विवादास्पद (कंट्रोवर्शियल) कदम उठाए थे और राष्ट्र के लोगों को नियंत्रित करने के लिए नीतियां भी बनाई थीं, और इसके साथ ही उनके शासन को अवैध और भ्रष्ट गतिविधियों को अंजाम देने के लिए भी दोषी ठहराया गया था। सबसे गंभीर आरोपों में से एक यह था कि श्री राजीव गांधी बोफोर्स घोटाले में शामिल थे, जहां भारतीय सेना की आवश्यकता के लिए स्वीडिश कंपनी से कुछ बंदूकें खरीदी गई थीं, लेकिन इस व्यापार को अधिसूचित नहीं किया गया था और बिना किसी पारदर्शिता (ट्रांस्पेरेन्सी) के यह सौदा हुआ था। लेकिन जल्द ही एक मानहानि विधेयक (डिफामेशन बिल) 29 अगस्त, 1988 को लोकसभा में पेश किया गया था और इसे अगले दिन तुरंत इसे पारित भी कर दिया गया था। राजीव गांधी सरकार पर भ्रष्टाचार के आरोप के तुरंत बाद यह विधेयक पेश किया गया था, और यह विधेयक मीडिया को किसी भी जानकारी और समाचार को पोस्ट करने से नियंत्रित और प्रतिबंधित करेगा, जिसका पालन न करने पर यह मानहानि का मामला बन जायगा। बंदूकें खरीदने के सौदे के लिए कथित तौर पर बड़ी रकम विदेशी एजेंसियों को दी गई थी और फिर ही इसका भुगतान किया गया। श्री राजीव गांधी पर रिश्वत लेने और व्यापार जारी रखने का आरोप लगाया गया था।

बोफोर्स घोटाला क्या था?

1980 से 1990 के वर्षों में, भारत और स्वीडन की भागीदारी के साथ एक बड़ा घोटाला हुआ, जिसमें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने एक बड़ी भूमिका निभाई और भारत के प्रधान मंत्री राजीव गांधी प्रमुख संदिग्धों में से एक थे। स्वीडिश हथियार निर्माता- बोफोर्स और भारत सरकार के बीच हॉवित्जर गन्स की बिक्री के लिए 1.4 बिलियन डॉलर का सौदा किया गया था, और असल में, अनुबंध (कॉन्ट्रैक्ट) द्वारा निर्धारित राशि की दोगुनी आपूर्ति (सप्लाई) की गई थी। यह एक बहुत बड़ा सौदा था जहां बहुत सारे पैसों को निवेश किया गया था, यहां तक ​​​​कि अन्य क्षेत्रों और परियोजनाओं से विचलित (डेविएटेड) धन भी इसमें लगाए गए थे।

भारत ने 24 मार्च, 1986 को अरबों के एक अनुबंध पर हस्ताक्षर किए थे। उन्होंने भारतीय सेना के लिए 400, 155 मिली मीटर से अधिक हॉवित्ज़र और गोला-बारूद खरीदने के लिए स्वीडिश हथियार निर्माता एबी बोफोर्स के साथ एक अनुबंध किया था। लेकिन अचानक स्वीडिश नेशनल रेडियो ने सबके सामने लाया कि सौदे की सफलता सुनिश्चित करने के लिए एजेंटों और बिचौलियों (मिडलमैन) को कमीशन के रूप में लगभग 40 मिलियन डॉलर का भुगतान किया गया था। लेकिन दोनों पक्षों ने इस तर्क को शुरू से खारिज कर दिया। किसी भी प्रकार के जोखिम से बचने के लिए, राजीव गांधी की सरकार ने प्रेस को दबाने के लिए, तुरंत ही एक विधेयक भी पारित किया था। 1987 में राजीव गांधी ने लोकसभा में इन आरोपों का खंडन किया था। लेकिन उसी वर्ष, स्वीडन के नेशनल ऑडिट ब्यूरो ने स्वीडिश कंपनी बोफोर्स द्वारा भारतीय बिचौलियों को 40 मिलियन डॉलर के भुगतान पर प्रकाश डालते हुए एक रिपोर्ट जारी की थी, लेकिन फिर भी पूरी रिपोर्ट का काफी हिस्सा सामने नहीं आया क्योंकि इसमें बैंक गोपनीयता प्रोटोकॉल भी शामिल थे। इस रिपोर्ट ने यह भी बताया था कि इस मामले से संबंधित जांच अनुचित प्रभाव में थी और मुख्य रूप से बोफोर्स कंपनी से सहयोग की कमी के कारण, तदनुसार नियंत्रित की गई थी। हालांकि उसी साल अगस्त में बोफोर्स ने भुगतान के आरोपों की पुष्टि की थी, लेकिन फिर भी उन्होंने बिचौलियों के बारे में जानकारी देने से इनकार कर दिया था।

कड़ी और लगातार जांच से जल्द ही सौदे में एक इटेलियन व्यवसायी- ओटावियो कोत्रोची की भूमिका का भी पता चला था। ओटावियो कोत्रोची के गुप्त बैंक खातों के बारे में जानकारी मिली थी और यह भी पता चला था कि उसे बोफोर्स सौदे से लगभग 7.3 मिलियन डॉलर का फायदा हुआ था। इसी समय भारत में, नौवें आम चुनावों में तीन दलों को शक्तिशाली पद के लिए संघर्ष करते देखा गया था। श्री राजीव गांधी की संदिग्ध सत्यनिष्ठा (इंटीग्रिटी) और चरित्र के कारण, वे वी.पी. सिंह के हाथों अपना पद खो बैठे थे।

घोटाले की कानूनी कार्यवाही

  1. स्वीडन के नेशनल ऑडिट ब्यूरो की रिपोर्ट और भारत में बंदूकों के व्यापार से संबंधित कंपनियों और सौदे से संबंधित बैंक खातों पर ‘द हिंदू’ अखबार द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट सामने आयी। इसके बाद भारत के नियंत्रक-महालेखा परीक्षक (कम्पट्रोलर एंड ऑडिटर जनरल ऑफ इंडिया) ने इस मामले को आगे की जांच के लिए अपने हाथों में लिया था। 1989 में, भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक ने इस सौदे से संबंधित गंभीर कुकृत्यों (मिसडीड्स) और इसके वित्तीय हिस्से को प्रदर्शित करने वाली एक रिपोर्ट पेश की। बंदूकों के संबंध में नियमों का पालन करने के लिए, सामान्य स्टाफ योग्यता आवश्यकताओं के रूप में प्रत्येक बंदूक की कुछ सीमाएं और मानदंड (क्राइटेरिया) थे, लेकिन इस सौदे में ये पैरामीटर इस सौदे को दोषपूर्ण बनाने के लिए तैयार नहीं था।
  2. फ्रांस, ब्रिटेन, ऑस्ट्रिया और स्वीडन के पास विभिन्न प्रकार की बंदूकें बाजार में प्रतिस्पर्धा (कम्पीट) कर रही थीं। बोफोर्स गन्स की फटने की क्षमता ने, इसे सभी तोपों की तुलना में शीर्ष स्थान पर रखा था। बोफोर्स ने भी अपनी कीमत में लगभग अरबों डॉलर की कमी की थी। बोफोर्स द्वारा भुगतान किए गए कमीशन के रहस्य ने, भारत को भुगतान की गई राशि के बारे में विवरण प्राप्त करने के लिए उनसे संपर्क करने पर मजबूर किया था, लेकिन उनसे जानकारी प्राप्त करना मुश्किल था। बोफोर्स से ठेका रद्द करने और उन्हें काली सूची में डालने के मामले में जानकारी हासिल करने के लिए संपर्क किया गया था। जैसे ही बोफोर्स मामले से निपटने के लिए अपने प्रतिनिधि (रिप्रेजेंटेटिव) को भारत भेजने के लिए सहमत हुआ, राजीव गांधी के नेतृत्व वाली सरकार ने किसी अज्ञात कारण से इसे रद्द कर दिया और बोफोर्स को किसी भी प्रतिनिधि को भारत भेजने से भी रोक दिया।
  3. बोफोर्स कांड ने श्री राजीव गांधी से सत्ता की उच्च स्थिति छीन ली थी, और वे 1989 में श्री वी.पी. सिंह से आम चुनाव हार गए थे। श्री वी. पी. सिंह की प्राथमिकी (एफ आई आर) के परिणामस्वरूप केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) ने मामले को संभाला। सीबीआई ने कई लोगों और कंपनियों के खिलाफ धोखाधड़ी, जालसाजी (फोर्जरी), आपराधिक साजिश (क्रिमिनल कॉन्स्पिरेसी), सत्ता के दुरुपयोग, और इसी तरह के कई आरोप दायर किए थे, जिनके खिलाफ मुख्य संदिग्ध भारत में बोफोर्स के प्रमुख एजेंट श्री विन चड्ढा, कंपनी के पूर्व अध्यक्ष में श्री मार्टिन अदबो, पिटको/मोरेस्को/मोइनेस एसए के मालिक श्री हिंदुजा और एक इटेलियन व्यवसायी श्री ओटावियो क्वात्रोची थे, जिन्हे रिश्वत लेने और भ्रष्टाचार में लिप्त होने के लिए पकड़ा गया था।
  4. आपराधिक कार्यवाही के लिए, स्विस बैंक से उन खातों के बारे में जानकारी की आवश्यकता थी, जिससे बोफोर्स सौदे में शामिल बिचौलिए के लिए भुगतान कर रहा था, और इसके लिए उन विशेष खातों को सील करने की भी आवश्यकता थी। मजबूत मामले और निंदनीय सौदे ने अधिकारियों को भारत की मांगों पर सहमत कर दिया और बैंकों में पांच खातों को फ्रीज कर दिया गया था। इस प्रक्रिया में यह भी देखा गया कि फ्रोजन खातों में से एक से धन छठे खाते में स्थानांतरित (ट्रांसफर) कर दिया गया था। सीबीआई ने जितनी जल्दी हो सके, 18 नामों की एक सूची दी थी, जिसमें दूसरे खाते के लाभार्थी होने की संभावना थी। इनमे से एक सूची का मिलान हो गया था और उसके बाद छठे खाते को भी फ्रीज कर दिया गया था। 1990 में, स्विस अधिकारियों ने भी खातों पर भारत के साथ जानकारी साझा (शेयर) करने पर सहमति व्यक्त की थी। हालांकि, स्विस संघीय अदालत (फेडरल कोर्ट) में दायर याचिकाओं ने इसका विरोध किया था।
  5. एक वकील, श्री एच.एस. चौधरी ने 1990 में सीबीआई द्वारा दायर की गई पहली सूचना रिपोर्ट को रद्द करने और स्विस अदालतों को अनुरोध पत्र को रोकने के लिए, दिल्ली उच्च न्यायालय में जनहित में एक समीक्षा याचिका (रिव्यू पेटिशन) दायर की थी। श्री एच.एस. चौधरी ने दावा किया था कि, कानून के शासन को बनाए रखना उनका कर्तव्य था क्योंकि हिंदुजाओं के खिलाफ मामला, और संयुक्त संसदीय समिति (जॉइंट पार्लियामेंट्री कमिटी) की रिपोर्ट को ओवरराइड करना इसका उल्लंघन करने की दिशा में एक कदम था। न्यायमूर्ति एम.के. चावला ने इस याचिका के मुद्दे को खारिज कर दिया और सुनवाई करने के लिए आगे बढ़े।
  6. स्विस सुप्रीम कोर्ट ने सभी आरोपियों की अपील खारिज कर दी थी। ओटावियो क्वात्रोची 1993 में कभी न लौटने के लिए भारत छोड़कर चला गया था। इसके बाद उनके खिलाफ एक गैर-जमानती वारंट जारी किया गया था, लेकिन उन्होंने पारस्परिक (रेसिप्रोकेशन) रूप से एक भारतीय अदालत में पेश नहीं होने के लिए एक याचिका दायर की थी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसे भी अस्वीकार कर दिया था। ओटावियो क्वात्रोची बनाम केंद्रीय जांच ब्यूरो (1998) का मामला, कुआलालंपुर में रहने वाले श्री क्वात्रोची ने, उनके खिलाफ जारी किए गए गैर-जमानती वारंट के खिलाफ यह याचिका दायर की थी। वारंट के लिए यह अनुरोध श्री क्वात्रोची की भारत और विदेशों में सरकारी कर्मचारियों और निजी व्यक्तियों के बीच आपराधिक साजिश में कथित रूप से भाग लेने के कारण था, जो कि बड़ी मात्रा में धन के विस्थापन (डिसप्लेसमेन्ट) और बंदूकों, टो किए गए वाहनों और गोला-बारूद के कारोबार से संबंधित था, जिसे अब बोफोर्स घोटाले के रूप में जाना जाता है। कुछ सरकारी सेवकों और संबंधित निजी व्यक्तियों ने रिश्वत प्राप्त की थी। जांच के अनुसार, याचिकाकर्ता नवंबर 1985 में एबी बोफोर्स के साथ अनुबंध को निष्पादित (एग्जिक्यूशन) करने में शामिल मुख्य संदिग्ध था, और स्विस अधिकारियों की मदद से, कई खातों से धन शोधन में भी याचिकाकर्ता की भूमिका का पता चला था। लेकिन याचिकाकर्ता ने दावा किया था कि उन पर झूठा आरोप लगाया गया था, और यही की दर्ज की गई एफआईआर में उनका नाम भी नहीं था। आगे यह भी बताया गया कि सीबीआई द्वारा दायर आवेदन में अपराध का भी उल्लेख नहीं किया गया था। भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम (प्रिवेंशन ऑफ करप्शन एक्ट) के प्रावधानों (प्रोविजन) को याचिकाकर्ता पर लागू नहीं होना चाहिए था क्योंकि वह एक लोक सेवक नहीं था और याचिकाकर्ता के खिलाफ ऐसा कोई अपराध दर्ज या कहा नहीं गया था, जो भारतीय दंड संहिता के आवेदन को बुलावा देगा। लेकिन मामले में, इस याचिका में कोई महत्वपूर्ण मामला नहीं होने की वजह से, इसे खारिज कर दिया गया था।
  7. 2000 में, विन चड्डा परीक्षण का सामना करने और चिकित्सा उपचार के लिए दुबई जाने की अनुमति लेने के लिए भारत में उतरे थे, लेकिन इसे अस्वीकार कर दिया गया था। इसके तुरंत बाद, श्री अर्दो के खिलाफ वारंट जारी किया गया। हिंदुजा भाइयों ने दावा किया था कि उनके खिलाफ बोफोर्स डील चार्जशीट के फंड से उनका कोई संबंध नहीं था और क्वात्रोची के खिलाफ एक रिपोर्ट भी दर्ज की गई थी। दिसंबर 2000 में क्वात्रोची को मलेशिया में गिरफ्तार किया गया था, लेकिन यह लंबे समय तक के लिये नहीं था। भारत, क्वात्रोच्चि के प्रत्यर्पण (एक्सट्रेडिशन) को अंजाम देना चाहता था ,लेकिन मलेशियाई उच्च न्यायालय ने उसे मना कर दिया था। 2005 में, भारत के अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल द्वारा भी अनुरोध किया गया था कि क्वात्रोची के दो बैंक खातों को अनफ्रीज किया जाये, ताकि बोफोर्स भुगतान के लिए खातों को जोड़ने के लिए पर्याप्त सबूत को इकठा किया जा सके।
  8. 6 फरवरी, 2007 को, श्री क्वात्रोची को अर्जेंटीना में हिरासत में ले लिया गया था, पर जल्द ही उन्हें रिहा कर दिया गया था, लेकिन उन्हें देश छोड़ने से रोकने के लिए उनका पासपोर्ट छीन लिया गया था। भारत और अर्जेंटीना के बीच एक प्रत्यर्पण संधि (एक्सट्रेडिशन ट्रिटी) की अनुपस्थिति के कारण, भारत सरकार केस हार गई क्योंकि वे क्वात्रोची की गिरफ्तारी के लिए आवश्यक महत्वपूर्ण अदालती आदेश प्रदान नहीं कर सके थे, और इसलिए बाद में, सरकार ने इस फैसले के खिलाफ अपील भी नहीं की थी। अदालत के फैसले का अंग्रेजी में अनुवाद करने में काफी समय बर्बाद हो गया था। सबूतों के अभाव में दिल्ली की अदालत ने क्वात्रोच्चि को मामले से मुक्त कर दिया था। इससे पहले कि यह मामला खत्म हो पाता, मिलान में दिल का दौरा पड़ने से उनका निधन हो गया था। इसके साथ ही जस्टिस आर एस सोढ़ी ने 2005 में भी हिंदुजा भाइयों पर लगे सभी आरोपों को खारिज कर दिया था।
  9. 2017 में भाजपा नेता अजय कुमार अग्रवाल ने सबूतों के अभाव में बोफोर्स घोटाला मामले में सभी आरोपियों के खिलाफ आरोपों को खारिज करने के, दिल्ली उच्च न्यायालय के आदेश को चुनौती दी थी। आदेश को चुनौती देने का मुख्य कारण उस समय की गई जांच में खामियों का होना बताया गया था। तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली बेंच ने उच्च न्यायालय के 2005 के फैसले के खिलाफ इस अपील को दायर करने में तेरह साल की देरी की अनुचितता (लूपहोल्स) को उजागर करते हुए इस अपील को खारिज कर दिया था। जिन आधारों पर यह अपील की गई थी, वे अनुचित थे और इसलिए इस तरह की अपील दायर करने में 4,500 दिनों से अधिक की देरी की व्याख्या नहीं कि थी।

निष्कर्ष

रक्षा मंत्रालय की एक रिपोर्ट द्वारा यह खुलासा किया गया था कि भारत की हथियार खरीद प्रक्रिया और कार्यक्रम अक्सर किसी से प्रभावित होते हैं और विवादों से संबंधित होते हैं, क्योंकि इसमें दोषपूर्ण संरचनाओं (फॉल्टी स्ट्रक्चर) के साथ अलग-अलग योजनाएं होती हैं, कोई भी जवाबदेह नहीं होता है, कई प्रमुख होते हैं, और इसी तरह निष्पादन में बाधा होती है। उदाहरण के लिए, भारत को कई घोटालों का सामना करना पड़ा है, उदाहरण के लिए, 2जी स्पेक्ट्रम घोटाला जहां सरकार ने सेल फोन के लिए 2जी स्पेक्ट्रम सदस्यता (मेम्बरशिप) बनाने के लिए आवश्यक लाइसेंसों के आवंटन (एलोकेशन) की सुविधा के लिए मोबाइल कंपनियों से कम शुल्क लिया, कोयला आवंटन या कोलगेट घोटाला, जो की भारत सरकार के राष्ट्रीय आवंटन और सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों और निजी कंपनियों को क्रमशः कोयला जमा के संबंध में थी। इन कई घोटालों में से बोफोर्स घोटाले को बड़ी मीडिया कवरेज मिली थी। इस मामले में अत्यधिक प्रभावशाली लोग और उनके द्वारा सत्ता का दुरुपयोग शामिल था, लेकिन जिसके लिए वे इससे बच भी गए थे।

इस मामले में, सीबीआई पर भी उचित समय पर पर्याप्त कदम नहीं उठाने का आरोप लगाया गया था। उन्होंने अदालतों में आरोपियों की अपील का अच्छी तरह से विरोध नहीं किया था, अंतरराष्ट्रीय अदालतों को भेजे जाने वाले उचित पत्र समय पर नहीं किए गए थे, और उन्होंने प्राथमिकी दर्ज करने में देरी की थी। चाहे वह सीबीआई की अक्षमता थी या आंतरिक भ्रष्टाचार, यह अभी भी बहस का विषय है। उस समय के दौरान सामना की जाने वाली कठिनाई, पूर्व-इंटरनेट युग में थी, अधिकांश पर्याप्त सामग्री स्वीडिश में थी, जो की बहुत उपयोगी नहीं थी क्योंकि यह शायद ही कोई स्पष्ट जानकारी देती थी, लेकिन अब इसे आज के परिप्रेक्ष्य (पर्सपेक्टिव) से अवर्गीकृत (डिक्लासिफाई) किया और देखा जा सकता हैं। मामले का अगर उस समय खुलासा हो गया होता, तो वे सामग्री इस मामले को एक अलग पक्ष में ला सकती थी। इस मामले में बार-बार ज्यादा सबूतों का अभाव प्रभावशाली अपराधियों के पक्ष में गया।

यहां तक ​​कि जब कांग्रेस फिर से सत्ता में आई, तो उसने राजीव गांधी और दल से जुड़े अन्य संदिग्धों के खिलाफ भ्रष्टाचार और रिश्वत के आरोपों को खारिज करने के लिए पहला कदम उठाया। बोफोर्स घोटाले की जांच के दौरान जब जांचकर्ताओं को स्विट्ज़रलैंड भेजा गया था, तो उन्होंने पश्चिम जर्मन फर्म, हॉवल्ड्सवेर्के-ड्यूश वेरफ़्ट एजी (एचडीडब्ल्यू) के साथ 1981 के पनडुब्बी अनुबंध (सबमरीन कॉन्ट्रैक्ट) से संबंधित लेनदेन की और जानकारी भी खोजी थी। यहां भी, यह दावा किया गया था कि सौदा हासिल करने के लिए, एक भारतीय एजेंट को 23 मिलियन डॉलर का भुगतान किया गया था। यह जानकारी बॉन में भारतीय दूतावास (एम्बेसी) को प्रदान की गई थी, जिसके अनुसार एचडीडब्ल्यू पनडुब्बियों की कीमत कम नहीं करना चाहता था, क्योंकि कमीशन पहले ही चुकाया जा चुका था। हालांकि बाद में इस तरह की जानकारी से इनकार किया गया था।

संदर्भ

 

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