यह लेख Lokesh Vyas द्वारा लिखा गया है, जो इंस्टीट्यूट ऑफ लॉ निरमा यूनिवर्सिटी से कानून की पढ़ाई कर रहे हैं। इस लेख में राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांतों (डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स ऑफ स्टेट पॉलिसी) की अवधारणा (कंसेप्ट) और वर्तमान कानूनी परिदृश्य (सिनेरियो) में इसकी रिलीवेंस और कार्यान्वयन (इंप्लीमेंटेशन) पर चर्चा की गई है। यह लेख इस बात का उत्तर देने का प्रयास करता है कि क्या गैर-न्यायसंगतता (नॉन जस्टिशिएबिलिटी) कार्यान्वयन में बाधा डालती है। इस लेख का अनुवाद Archana Chaudhary द्वारा किया गया है।
Table of Contents
परिचय (इंट्रोडक्शन)
भारत को स्वतंत्रता मिलने के बाद से राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत (डीपीएसपी) प्रचलन (वॉग) में हैं। मौलिक अधिकारों (फंडामेंटल राइट्स) (एफआर) के साथ इसका उल्लंघन अदालतों में विवाद का विषय रहा है। डीपीएसपी की गैर-न्यायसंगतता हमेशा भारत की कानूनी व्यवस्था में एक महत्वपूर्ण मुद्दा रहा है। डीपीएसपी संविधान का गैर-न्यायसंगत हिस्सा है जो बताता है कि कोई व्यक्ति डीपीसीपी को न्यायालय में लागू नहीं कर सकता है।
डीपीएसपी: इसकी उत्पत्ति (जेनेसिस), और इसका अर्थ
डीपीएसपी की अवधारणा स्वदेशी नहीं है। हमारे संविधान निर्माताओं (मेकर्स) ने इस अवधारणा को आयरिश संविधान (अनुच्छेद 45) से लिया गया है, इसकी उत्पत्ति स्पेनिश संविधान में हुई है। भारत के संविधान का भाग IV राज्य की नीतियों के निदेशक तत्वों से संबंधित है। राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत (प्रिंसिपल) के अर्थ को समझने के लिए हमें प्रत्येक शब्द का अर्थ समझने की आवश्यकता है, यानि निर्देश + सिद्धांत + राज्य + नीति जो बताती है कि ये वे सिद्धांत हैं जो राज्य को निर्देशित करते हैं जब वह अपने लोगों के लिए नीतियां बनाता है। ये डीपीएसपी राज्य के लिए एक दिशानिर्देश (गाइडलाइन) के रूप में कार्य करते हैं और किसी भी नए कानून के साथ आने पर इन पर ध्यान देने की आवश्यकता होती है, लेकिन एक नागरिक राज्य को डीपीएसपी का पालन करने के लिए मजबूर नहीं कर सकता है।
भारतीय संविधान के तहत डीपीएसपी की सूची
अनुच्छेद क्रमाँक (आर्टिकल नंबर) | यह क्या कहता है |
अनुच्छेद 36 | राज्य को अनुच्छेद 12 के समान परिभाषित करता है जब तक कि संदर्भ (कॉन्टेक्स्ट) अन्यथा परिभाषित न हो। |
अनुच्छेद 37 | इस भाग में निहित सिद्धांतों का अनुप्रयोग (एप्लीकेशन)। |
अनुच्छेद 38 | यह राज्य को लोगों के कल्याण को बढ़ावा देने के लिए एक सामाजिक व्यवस्था (सोशल ऑर्डर) को सुरक्षित करने के लिए अधिकृत (ऑथराइज) करता है। |
अनुच्छेद 39 | राज्य द्वारा पालन की जाने वाली नीतियों के कुछ सिद्धांत। |
अनुच्छेद 39A | समान न्याय और मुफ्त कानूनी सहायता (फ्री लीगल ऐड)। |
अनुच्छेद 40 | ग्राम पंचायतों का संगठन (ऑर्गेनाइजेशन)। |
अनुच्छेद 41 | कुछ मामलों में काम, शिक्षा और सार्वजनिक सहायता (पब्लिक एसिस्टेंस) का अधिकार। |
अनुच्छेद 42 | काम और मातृत्व अवकाश (मेटरनिटी लीव) की न्यायसंगत और मानवीय स्थितियों (ह्यूमन कंडीशंस) का प्रावधान (प्रोविजन)। |
अनुच्छेद 43 | श्रमिकों (वर्कर्स) के लिए निर्वाह मजदूरी (लिविंग वेज) आदि। |
अनुच्छेद 43-A | उद्योगों (इंडस्ट्रीज) के प्रबंधन (मैनेजमेंट) में श्रमिकों की भागीदारी। |
अनुच्छेद 43-B | सहकारी समितियों (कॉपरेटिव सोसायटीज) को बढ़ावा देना। |
अनुच्छेद 44 | नागरिकों के लिए समान नागरिक संहिता (यूनिफॉर्म सिविल कोड)। |
अनुच्छेद 45 | 6 वर्ष से कम आयु के बच्चों के लिए प्रारंभिक बाल्यावस्था (चाइल्डहुड) देखभाल और शिक्षा का प्रावधान। |
अनुच्छेद 46 | अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जनजाति (एसटी) और अन्य कमजोर वर्गों (विकर सेक्शन) की शिक्षा और आर्थिक हितों (इकोनॉमिक इंटरेस्ट) को बढ़ावा देना। |
अनुच्छेद 47 | पोषण के स्तर (लेवल ऑफ न्यूट्रीशन) और जीवन स्तर को ऊपर उठाने और सार्वजनिक स्वास्थ्य में सुधार करने के लिए राज्य का कर्तव्य। |
अनुच्छेद 48 | कृषि और पशुपालन का संगठन। |
अनुच्छेद 48-A | पर्यावरण का संरक्षण और सुधार और वनों और वन्यजीवों की सुरक्षा। |
अनुच्छेद 49 | राष्ट्रीय महत्व के स्मारकों (मॉन्यूमेंट्स) और स्थानों और वस्तुओं का संरक्षण। |
अनुच्छेद 50 | न्यायपालिका (ज्यूडिशियरी) को कार्यपालिका (एग्जीक्यूटिव) से अलग करना। |
अनुच्छेद 51 | अंतर्राष्ट्रीय शांति और सुरक्षा को बढ़ावा देना। |
प्रिएंबल का प्रतिबिंब (रिफ्लेक्शन)
संविधान के प्रिएंबल को संविधान निर्माताओं के दिमाग की कुंजी (की) कहा जाता है। यह उन उद्देश्यों को निर्धारित करता है जिन्हें हमारा संविधान प्राप्त करना चाहता है। कई विद्वानों (स्कॉलर्स) का मानना है कि डीपीएसपी संविधान का मूल है। राज्य के नीति निदेशक तत्व (डीपीएसपी) राज्य के लिए दिशा-निर्देश निर्धारित करते हैं और संविधान के प्रिएंबल में निर्धारित समग्र उद्देश्यों का प्रतिबिंब हैं। वाक्यांश (एक्सप्रेशन) यह है कि “न्याय- सामाजिक, आर्थिक (इकोनॉमिक), राजनीतिक” डीपीएसपी के माध्यम से प्राप्त करने की मांग की जाती है। डीपीएसपी को प्रिएंबल के अंतिम आदर्शों यानी न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व (फ्रेटरनिटी) को प्राप्त करने के लिए शामिल किया गया है। इसके अलावा, यह उस कल्याणकारी (वेलफेयर) राज्य के विचार को भी समाविष्ट (एंबोडीड) करता है जिससे भारत कोलोनियल शासन के तहत वंचित था।
डीपीएसपी और इसकी पेचीदगियां (इंट्रिकेसीज)
संविधान के निर्माताओं ने नागरिक के अधिकारों को दो भागों यानि न्यायसंगत (जस्टिशिएबल) और गैर-न्यायिक (नॉन जस्टिशिएबल) भाग में विभाजित किया था। संविधान के भाग III को न्यायसंगत बनाया गया और गैर-न्यायिक भाग को भारतीय संविधान के भाग IV (अनुच्छेद 36 से अनुच्छेद 51) में जोड़ा गया। इस भाग को राज्य के नीति निदेशक तत्व कहते हैं।
डीपीएसपी राज्य पर सकारात्मक दायित्व (पॉजीटिव ऑब्लिगेशन) हैं। डीपीएसपी को न्यायसंगत नहीं बनाया गया क्योंकि भारत के पास पर्याप्त वित्तीय संसाधन (फाइनेंशियल रिसोर्सेज) नहीं थे। इसके अलावा, इसका पिछड़ापन और विविधता (डायवर्सिटी) भी उस समय इन सिद्धांतों को लागू करने में एक बाधा थी। संविधान के ड्राफ्टिंग के समय, भारत एक नया स्वतंत्र राज्य था और अन्य मुद्दों से जूझ (स्ट्रग्लिंग) रहा था डीपीएसपी को न्यायसंगत बनाने से भारत को बड़ी कठिनाई होती।
अनुच्छेद 37 डीपीएसपी की प्रकृति को परिभाषित करता है। इसमें कहा गया है कि डीपीएसपी अदालतों में लागू करने योग्य नहीं हैं लेकिन साथ ही, यह डीपीएसपी को राज्य के कर्तव्य के रूप में परिभाषित करता है। इसके अलावा, वही अनुच्छेद डीपीएसपी को उन सिद्धांतों के रूप में परिभाषित करता है जो किसी भी देश के शासन (गवर्नेंस) के लिए मौलिक हैं। यह संविधान और देश के शासन में डीपीएसपी की रिलेवेंस और महत्व को दर्शाता है।
डीपीएसपी की प्रवर्तनीयता (एंफोर्सियबिलिटी)
कई बार यह सवाल उठता है कि क्या कोई व्यक्ति राज्य सरकार या केंद्र सरकार पर भाग IV में बताए गए निर्देश सिद्धांतों का पालन नहीं करने के लिए मुकदमा कर सकता है। इस प्रश्न का उत्तर नकारात्मक (नेगेटिव) है। इसका कारण अनुच्छेद 37 में निहित है जिसमें कहा गया है कि:
“इस भाग में निहित प्रावधान किसी भी न्यायालय द्वारा लागू नहीं होंगे, लेकिन उसमें निर्धारित सिद्धांत फिर भी देश के शासन में मौलिक हैं और कानून बनाने में इन सिद्धांतों को लागू करना राज्य का कर्तव्य होगा।”
इसलिए इस अनुच्छेद के आधार पर इस भाग के किसी भी प्रावधान को न्यायालय में लागू नहीं किया जा सकता है इसलिए इन सिद्धांतों का उपयोग केंद्र सरकार या राज्य सरकार के खिलाफ नहीं किया जा सकता है। डीपीएसपी की यह गैर-न्यायसंगतता इन निर्देशों का पालन नहीं करने के लिए राज्य सरकार या केंद्र सरकार को उनके खिलाफ किसी भी कार्रवाई से मुक्त कर देती है।
एक और सवाल यह उठता है कि अगर राज्य निर्देश सिद्धांतों का पालन नहीं करता है तो सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट परमादेश (मैन्डेमस) की रिट जारी कर सकता है या नहीं। परमादेश का शाब्दिक अर्थ “आज्ञा देना” है। यह एक रिट है जो किसी भी व्यक्ति या प्राधिकरण (अथॉरिटी) को जारी किया जाता है जिसे कानून द्वारा एक कर्तव्य निर्धारित किया गया है। यह रिट प्राधिकरण को अपना कर्तव्य करने के लिए मजबूर करती है।
परमादेश की रिट आम तौर पर दो स्थितियों में जारी कि जाती है। एक तब होता है जब कोई व्यक्ति रिट याचिका (पेटिशन) दायर करता है या जब कोर्ट इसे अपने आप संज्ञान (कॉग्निजेंस) या स्वयं के प्रस्ताव को जारी करता है। संवैधानिक सिद्धांतों के अनुसार, जब निर्देशक सिद्धांतों का पालन नहीं किया जाता है तो न्यायालय राज्य को परमादेश की रिट जारी करने के लिए अधिकृत (ऑथराइज) नहीं है क्योंकि निदेशक सिद्धांत सरकार के प्रदर्शन की जांच करने के लिए लोगों के पास एक अधिकार के रुप में मौजूद है और अदालतों के लिए उपलब्ध नहीं है। लेकिन जब मामला अत्यंत सार्वजनिक महत्व का हो और जनता के हित (इंटरेस्ट ऑफ पब्लिक) को प्रभावित करता हो तो न्यायालय अपने आप कार्रवाई कर सकता है।
मौलिक अधिकार राज्य का सम्मान करने के लिए कानूनी दायित्व हैं, जबकि डीपीएसपी पालन करने के लिए राज्य का नैतिक (मोरल) दायित्व है। अनुच्छेद 38 उन व्यापक आदर्शों (ब्रॉड आईडियल्स) को निर्धारित करता है जिन्हें प्राप्त करने के लिए एक राज्य को प्रयास करना चाहिए। इनमें से कई निदेशक सिद्धांत कानून बनकर लागू हो गए हैं। कुछ डीपीएसपी ने मौलिक अधिकारों के दायरे का विस्तार किया है।
डीपीएसपी और मौलिक अधिकार
मौलिक अधिकारों और डीपीएसपी के बीच संगतता (कंपेटिबिलिटी) हमेशा विवादास्पद (कंटेंशियस) रही है। दोनों अवधारणाओं की प्रयोज्यता (एप्लीकेबिलिटी) को समझने की जरूरत है क्योंकि अगर संविधान एक सिक्का है तो मौलिक अधिकार और डीपीएसपी उस सिक्के के दो पहलू हैं।
एक ओर भाग III यानि मौलिक अधिकार सरकार की शक्ति को सीमित करते हैं और राज्य को ऐसा कानून बनाने से रोकता है जो उसके लोगों के हितों का उल्लंघन करता है, दूसरी ओर, भाग IV राज्य को एक ऐसा कानून बनाने में मदद करता है जो उसके लोगों के हितों के अनुरूप हो। मौलिक अधिकार और राज्य के नीति निर्देशक सिद्धांत दोनों वर्तमान कानूनी परिदृश्य में समान रिलेवेंस और महत्व रखते हैं और एक दूसरे की अनदेखी नहीं कर सकते हैं। बहुत से लोग तर्क देते हैं कि डीपीएसपी इसकी गैर-न्यायसंगतता के कारण बेकार हैं लेकिन हमें यह समझने की जरूरत है कि ये न केवल मार्गदर्शक सिद्धांत हैं बल्कि उन व्यापक उद्देश्यों और आदर्शों को भी निर्धारित करता है जिन्हें प्राप्त करने के लिए भारत प्रयास करता है।
न्यायिक उच्चारण (ज्यूडिशियल प्रोनाउंसमेंट)
सवाल यह है कि क्या मौलिक अधिकार डीपीएसपी से पहले (प्रेसीड्स) होते हैं या बाद वाले को पूर्व की तुलना में प्राथमिकता दी जाती है, यह वर्षों से बहस का विषय रहा है। कुछ न्यायिक निर्णय हैं जो इस विवाद को सुलझाते हैं।
मद्रास बनाम चंपकन (एआईआर 1951 एससी 226) के मामले में, सर्वोच्च न्यायालय का विचार था कि यदि कोई कानून मौलिक अधिकार का उल्लंघन करता है, तो यह शून्य होगा लेकिन डीपीएसपी के साथ ऐसा नहीं है। यह दर्शाता है कि डीपीएसपी की तुलना में मौलिक अधिकार उच्च स्तर पर हैं।
केरल शिक्षा विधेयक (1957) (1959 1 एससीआर 995) में न्यायालय ने कहा कि मौलिक अधिकार और डीपीएसपी के बीच संघर्ष (कॉन्फ्लिक्ट) के मामले में, सामंजस्यपूर्ण निर्माण (हार्मोनियस कंस्ट्रक्शन) के सिद्धांत को लागू किया जाना चाहिए। लेकिन फिर भी व्याख्या के सिद्धांतों (डॉक्ट्राइन ऑफ इंटरप्रिटेशन) को लागू करने के बाद, मौलिक अधिकार और डीपीएसपी के बीच संघर्ष है, तो पहले वाले को बरकरार रखा जाना चाहिए।
वेंकटरमन बनाम मद्रास राज्य (1966 एआईआर 1089) में न्यायालय ने डीपीएसपी पर मौलिक अधिकारों को प्राथमिकता दी।
आई सी गोलकनाथ और अन्य बनाम पंजाब राज्य और अन्य (1967 एआईआर 1643), में न्यायालय का विचार था कि संसद द्वारा बनाए गए कानून द्वारा मौलिक अधिकारों को कम नहीं किया जा सकता है। उसी को आगे बढ़ाते हुए न्यायालय ने यह भी कहा कि यदि कोई कानून अनुच्छेद 39 (b) और अनुच्छेद 39 (c) को प्रभावी बनाने के लिए बनाया गया है जो डीपीएसपी के दायरे में आते है और इस प्रक्रिया में कानून अनुच्छेद 14, अनुच्छेद 19 या अनुच्छेद 31 का उल्लंघन करता है, केवल उक्त उल्लंघन के आधार पर कानून को असंवैधानिक (अनकांस्टीट्यूशनल) और शून्य घोषित नहीं किया जा सकता है।
42वें संविधान संशोधन (अमेंडमेंट) ने संविधान में निर्धारित सभी निर्देशक सिद्धांतों को शामिल करने के लिए अनुच्छेद 31C के दायरे को बड़ा दिया। संशोधन से पहले अनुच्छेद 31C ने केवल उन्हीं कानूनों को बचाया जो अनुच्छेद 39 (b) और 39 (c) में निर्दिष्ट राज्य नीति के निदेशक सिद्धांतों को प्रभावी करते थे।
केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) 4 एससीसी 225) में सर्वोच्च न्यायालय ने डीपीएसपी को मौलिक अधिकारों की तुलना में उच्च पद पर रखा। अंत में मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ (एआईआर 1980 एससी 1789) के मामले में, न्यायालय के सामने सवाल यह था कि क्या भाग IV में निहित राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांतों को संविधान के भाग III द्वारा प्रदत्त (कॉन्फर) मौलिक अधिकारों पर प्रधानता (प्राइमेसी) मिल सकती है। न्यायालय ने माना कि सामंजस्यपूर्ण निर्माण के सिद्धांत को लागू किया जाना चाहिए क्योंकि दोनों में से किसी की भी एक दूसरे से पूर्वता नहीं है। दोनों पूरक (कंप्लीमेंट्री) हैं इसलिए संतुलित होने की आवश्यकता है।
उन्नीकृष्णन बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (1993 एससीसी (1) 645) में न्यायालय का विचार था कि मौलिक अधिकार और निर्देशक सिद्धांत एक दूसरे के लिए अनन्य (एक्सक्लूसिव) नहीं हैं इसलिए उन्हें बहिष्करण (एक्सक्लूजन) में नहीं पढ़ा जाना चाहिए। इसके अलावा, न्यायालय ने कहा कि मौलिक अधिकार वे साधन हैं जिनके माध्यम से भाग IV में उल्लिखित लक्ष्यों को प्राप्त किया जाता है।
डीपीएसपी और संशोधन
राज्य की नीतियों के निदेशक तत्वों में संशोधन के लिए संवैधानिक संशोधन की आवश्यकता है। इसे संसद के दोनों सदनों के विशेष बहुमत (स्पेशल मेजॉरिटी) से पारित करना होता है। स्वतंत्रता के बाद संविधान में कई संशोधन हुए हैं और उनमें से कुछ डीपीएसपी से संबंधित हैं।
42वें संविधान संशोधन 1976 के साथ शुरुआत करते हुए इसने डीपीएसपी में चार बदलाव किए। सबसे पहले, इसने अनुच्छेद 39 में संशोधन किया कि राज्य लोगों के कल्याण को बढ़ावा देने के लिए एक सामाजिक व्यवस्था को सुरक्षित करने के लिए बाध्य है। इसके अलावा, इसमें अनुच्छेद 39 A जोड़ा गया जो समान न्याय और मुफ्त कानूनी सहायता प्रदान करना राज्य का कर्तव्य बनाता है। इस अनुच्छेद के आधार पर, संसद विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम (लीगल सर्विसेज अथॉरिटीज एक्ट), 1987 नामक कानून के साथ आई। इसमें अनुच्छेद 48A भी जोड़ा गया जो पर्यावरण के संरक्षण और सुधार से संबंधित है। जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण, पर्यावरण प्रदूषण अधिनियम, वन अधिनियम आदि अनुच्छेद 48A में निर्धारित सिद्धांतों के अनुप्रयोग (एप्लीकेशन) को प्रदर्शित करते हैं।
44वें संविधान संशोधन, 1978 ने अनुच्छेद 38 खंड (क्लॉज) (2) जोड़ा गया जो राज्य को न केवल व्यक्तियों के बीच बल्कि विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले या विभिन्न व्यवसायों में लगे लोगों के समूहों के बीच स्थिति सुविधाओं और अवसरों में असमानताओं को समाप्त करने के लिए आय (इनकम) में असमानताओं (इनइक्वालिटी) को कम करने का निर्देश देता है।
73वां संविधान संशोधन, 1992, जो पंचायतों को संविधान के भाग IX में लाया गया था, की उत्पत्ति संविधान के अनुच्छेद 40 में हुई थी। यह ग्राम पंचायतों के संगठन से संबंधित है।
86वें संविधान संशोधन, 2002 ने भारत के संविधान में अनुच्छेद 21-A को शामिल किया। यह मौलिक अधिकार के रूप में 6 से 14 वर्ष की आयु के सभी बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य (कंपलसरी) शिक्षा का अधिकार प्रदान करता है। इस संशोधन की जड़ें अनुच्छेद 41 में हैं जो कुछ मामलों में काम, शिक्षा और सार्वजनिक सहायता के अधिकार की बात करती है।
97वें संविधान संशोधन 2011 ने अनुच्छेद 43 B को जोड़ा गया यह राज्य को सहकारी समितियों के स्वैच्छिक गठन (वॉलंटरी फॉर्मेशन), स्वायत्त कामकाज (ऑटोनॉमस फंक्शनिंग), लोकतांत्रिक नियंत्रण (डेमोक्रेटिक कंट्रोल) और व्यावसायिक प्रबंधन (प्रोफेशनल मैनेजमेंट) को बढ़ावा देने के लिए अधिकृत करता है।
डीपीएसपी और उसका कार्यान्वयन (इंप्लीमेंटेशन)
यद्यपि भाग IV में निर्धारित सिद्धांतों का कार्यान्वयन प्रत्यक्ष (डायरेक्टली) रूप से दिखाई नहीं दे रहा है, फिर भी बहुत सारे कानून और सरकारी नीतियां हैं जो भाग IV के सिद्धांत के अनुप्रयोग को दर्शाती हैं। भारत के न्यायिक इतिहास में, न्यायिक तर्क द्वारा कई कानून और कानूनी प्रावधान बनाए गए थे। ऐसे मामलों में, डीपीएसपी ने बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और न्यायालयों ने निदेशक सिद्धांतों को बहुत सावधानी से ध्यान में रखा गया।
महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) जैसी नीतियां अनुच्छेद 39 (a) से अपना अधिकार प्राप्त करती हैं जो आजीविका (लाइवलीहुड) के पर्याप्त साधनों (एडीक्वेट मींस) के अधिकार की बात करती है। बाल श्रम (निषेध और विनियमन) अधिनियम 1986 जैसे कानून अनुच्छेद 39 (g) के सिद्धांतों को मजबूत करते हैं जो बच्चों की सुरक्षा से संबंधित है।
गायों और बैलों के वध (स्लॉटर) पर प्रतिबंध लगाने से संबंधित कानूनों को अनुच्छेद 48 से पवित्रता (सैंक्टिटी) मिलती है जो कृषि और पशुपालन के संगठन से संबंधित है। कामगार मुआवजा अधिनियम (वर्कमेन कंपेंसेशन एक्ट), न्यूनतम मजदूरी अधिनियम (मिनिमम वेजिज एक्ट), औद्योगिक रोजगार (स्थायी आदेश) अधिनियम (इंडस्ट्रियल एम्प्लॉयमेंट (स्टैंडिंग ऑर्डर) एक्ट), कारखाना अधिनियम (द फैक्ट्रीज एक्ट), मातृत्व लाभ अधिनियम (मेटरनिटी बेनिफिट एक्ट) जैसे कानून अनुच्छेद 41, अनुच्छेद 42 और अनुच्छेद 43 A के कार्यान्वयन को दर्शाते हैं।
एकीकृत ग्रामीण विकास कार्यक्रम (इंटीग्रेटेड रूरल डेवलपमेंट प्रोग्राम) (आईआरडीपी), एकीकृत जनजातीय विकास कार्यक्रम (इंटीग्रेटेड ट्रायबल डेवलपमेंट प्रोग्राम) (आईटीडीपी), और प्रधान मंत्री ग्राम सड़क योजना आदि जैसी सरकारी नीतियां अनुच्छेद 47 में वर्णित सिद्धांत उद्देश्यों के प्रतिबिंब हैं जो जीवन स्तर को बढ़ाने और सार्वजनिक स्वास्थ्य में सुधार के बारे में बात करते हैं।
अंत में ये सभी कानून और नीतियां अनुच्छेद 38 में दिए गए लक्ष्यों और सिद्धांतों यानी कल्याणकारी राज्य के निर्माण को प्राप्त करने का प्रयास करती हैं।
एक भारतीय नागरिक के लिए डीपीएसपी का महत्व
डीपीएसपी की गैर-न्यायसंगत प्रकृति के बावजूद, एक नागरिक को उनके बारे में पता होना चाहिए। जैसा कि अनुच्छेद 37 में ही इन सिद्धांतों को देश के शासन में मौलिक बताया गया है। डीपीएसपी का उद्देश्य समाज की सामाजिक और आर्थिक स्थितियों को बेहतर बनाना है ताकि लोग एक अच्छा जीवन जी सकें। डीपीएसपी का ज्ञान एक नागरिक को सरकार पर नजर रखने में मदद करता है।
एक नागरिक डीपीएसपी को सरकार के प्रदर्शन के माप (मेजर) के रूप में उपयोग कर सकता है और उस दायरे की पहचान कर सकता है जहां इसकी कमी है। एक व्यक्ति को इन प्रावधानों को जानना चाहिए क्योंकि अंत में ये सिद्धांत उन्हें नियंत्रित करने वाले कानून का न्याय करने के लिए एक मानदंड के रूप में कार्य करते हैं। इसके अलावा, यह एक कठोर कानून बनाने के लिए राज्य की शक्ति को भी बाधित करता है। विभिन्न न्यायिक घोषणाओं (ज्यूडिशियल प्रोनाउंसमेंट) के माध्यम से, अब यह तय हो गया है कि डीपीएसपी और मौलिक अधिकारों को संतुलित करना उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कि मौलिक अधिकारों की पवित्रता को बनाए रखना। एक निर्देशक सिद्धांत का पालन न करना प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष (इनडायरेक्टली) रूप से मौलिक अधिकार को प्रभावित करेगा जिसे संविधान के सबसे आवश्यक भागों में से एक माना जाता है।
निष्कर्ष (कंक्लूज़न)
यह लेख यह साबित करने का प्रयास करता है कि डीपीएसपी की रिलीवेंस और महत्व को केवल इसकी गैर-न्यायसंगतता के आधार पर नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। हमारे संवैधानिक निर्माताओं ने इन प्रावधानों को केवल अस्तित्व के लिए नहीं जोड़ा, बल्कि उन्होंने देश के शासन को सुविधाजनक बनाने के लिए इन सिद्धांतों को जोड़ा है। उन्होंने इस हिस्से को देश के मुख्य उद्देश्यों और अंतिम लक्ष्य को पूरा करने के लिए जोड़ा। इसके अलावा, उपर दी गई जानकारी को देखने के बाद, यह कहना गलत होगा कि डीपीएसपी लागू नहीं होते हैं। राज्य द्वारा बनाई जाने वाली प्रत्येक नीति और कानून को भाग IV के मानकों (स्टैंडर्ड्स) को पूरा करना होता है। इस प्रकार, गैर-न्यायसंगत होने के बावजूद, वे मौलिक अधिकारों या संविधान के किसी अन्य प्रावधान के समान रिलेवेंस और महत्व रखते हैं।
संदर्भ (रेफरेंसेस)
- Articles Related to Directive Principles of State Policy by Hemant Pratap Singh. (https://www.jagranjosh.com/general-knowledge/articles-related-to-directive-principles-of-state-policy-1474442764-1) accessed 2 May 2018
- Directive Principles of State Policy (DPSP), (http://www.iasscore.in/upsc-prelims/directive-principles-state-policy-fundamental-duties) accessed 2 May 2018
- Directive Principles of State Policy (DPSP), (https://www.gktoday.in/academy/article/directive-principles-of-state-policy/#Sources_of_DPSP) accessed 2 May 2018
- Directive Principles of State Policy (DPSP): Amendment, Sanctions, and Criticism, (https://aspirantforum.com/2016/06/27/directive-principles-of-state-policy-amendment-sanctions-criticism/) accessed 3 May 2018
- Constituent assembly debate on Directive Principles of State Policy by Surabhi Rao,(http://logos.nationalinterest.in/2014/07/constituent-assembly-debate-on-directive-principles-of-state-policy/) accessed 2 May 2018
-
- Scope of Enforcement of DPSPs by Aakanksha Bhola, (https://www.lawctopus.com/academike/scope-of-enforcement-of-dpsps/#_edn6) accessed 2 May 2018
- Fundamental Rights and Directive Principles (https://www.lawteacher.net/free-law-essays/administrative-law/fundamental-rights-and-directive-principles-administrative-law-essay.php?vref=1) accessed 3 May 2018
- Fundamental Rights vs Directive Principles: What If there is a conflict?, (https://www.clearias.com/fundamental-rights-vs-directive-principles-what-if-there-is-a-conflict/) accessed 3 May 2018
Nice post
अति सुन्दर
Great article thanks for sharing this information