प्रिज़न सिस्टम और भारत में डॉक्यूमेंटेशन के संबंध में बढ़ती अस्पष्टता

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Prison Act
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यह लेख कोलकाता पुलिस लॉ इंस्टीट्यूट की Smaranika Sen ने लिखा है। यह लेख भारत में जेल व्यवस्था (प्रिज़न सिस्टम) के बारे में बताता है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja द्वारा किया गया है। 

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परिचय (इंट्रोडक्शन)

जब भी कोई व्यक्ति, कोई ऐसा कार्य करता है जिसे करने के लिए उसे कानूनी तौर पर मना किया जाता है या किसी ऐसे कार्य को करने से वह मना करता है, जिसे करने के लिए वह कानून द्वारा बाध्य (बाउंड) है, तो इसे अपराध कहा जा सकता है। ज्यादातर अपराधों की सजा कारावास (इंप्रिजनमेंट) होती है। जिस स्थान पर अपराधी को कारावास में रखा जाता है उसे जेल कहते हैं। जेल अधिनियम (प्रिजंस एक्ट), 1894 की धारा 3 हमें जेल की उचित परिभाषा प्रदान करती है। आसान शब्दों में, हम यह कह सकते हैं कि जेल, दोषियों के लिए कैद का एक स्थान है।

भारत में जेल व्यवस्था का विकास (एवोल्युशन ऑफ़ प्रिज़न सिस्टम इन इंडिया)

वर्तमान परिदृश्य (प्रेजेंट सिनेरियो)

हमारी जेल व्यवस्था के बारे में वर्तमान परिदृश्य प्राचीन और मध्यकाल (मिडिवल) की तुलना में बहुत बदल गया है। प्राचीन काल में, कारावास प्रचलित (प्रेवेलेंट) था, लेकिन उसका उपयोग, गलत करने वाले को हिरासत में रखने के लिए तब तक किया जाता था, जब तक उस पर मुकदमा ना चलाया जाए या उस मुकदमे पर निर्णय न सुनाया जाए। यह माना जाता था कि कारावास, सजा का सबसे आसान साधन था। प्राचीन भारत में जेल व्यवस्था सजा का एक नियमित (रेग्युलेटेड) तरीका नहीं था। उस समय, ऐसे कोई दंडात्मक (पीनल) कानून नहीं थे जिनका पालन किया जाता था। समाज का कानून और शांति पूरी तरह से मनु के सिद्धांतों (प्रिंसिपल्स) पर निर्भर करता था।

मध्यकालीन भारत और प्राचीन भारत (मिडिवल इंडिया एंड एंशिएंट इंडिया)

मध्यकालीन भारत में जेल व्यवस्था की स्थिति, प्राचीन भारत की व्यवस्था जैसी ही थी। इस समय के दौरान, कुरान को कानून का स्रोत (सोर्स) माना जाता था। अपराध को अलग करने की प्रणाली (सिस्टम) प्रचलित थी। अपराधों को तीन अलग-अलग समूहों (ग्रुप) में विभाजित (डिवाइड) किया गया था, यानि कि- ईश्वर के खिलाफ अपराध, राज्य के खिलाफ अपराध और निजी व्यक्ति (प्राइवेट पर्सन) के खिलाफ अपराध। यहां भी, जेलों का इस्तेमाल केवल नजरबंदी (डिटेंशन) के लिए किया जाता था।

प्राचीन और मध्यकालीन समय के दौरान, भारत में जेल व्यवस्था में जेलों के रखरखाव (मेंटेनेंस) और उचित कामकाज के लिए कोई विशेष नियम नहीं थे। जेलों के लिए कोई सेवा प्रदान नहीं की जाती थी। यहां तक ​​कि कैदियों के लिए खाने की भी कोई व्यवस्था नहीं थी। ह्यून सेंग के अनुसार, कैदियों का व्यवहार बहुत कठोर और हिंसक था। अंत में, आधुनिक अर्थों (मॉडर्न सेंस) में जेलों का कोई अस्तित्व (एक्सिस्टेंस) नहीं था।

ब्रिटिश काल

भारत में ब्रिटिश शासन के दौरान, जेल व्यवस्था का उपयोग अपराधियों के लिए सजा के रूप में किया जाता था। सजा के इस रूप ने सजा के पुराने कठिन (बर्बर) रूपों को समाप्त कर दिया था। हालांकि, जेलों की स्थिति अभी भी वैसी ही है जैसी मुगल काल के दौरान हुआ करती थी। ब्रिटिश प्रशासन (एडमिनिस्ट्रेशन) ने जेलों की स्थिति में सुधार लाने और जेल व्यवस्था के कामकाज में सुधार लाने के बारे में सोचा था। 1835 के वर्ष में, लॉर्ड मैकॉले ने सुझाव दिया कि भारतीय विधान परिषद (लेजिस्लेटिव काउंसिल ऑफ़ इंडिया) ने जेल की स्थितियों को देखने के लिए एक समिति (कमिटी) नियुक्त की थी। भारतीय विधान परिषद ने एक समिति नियुक्त की जिसका नाम जेल अनुशासन समिति (द प्रिज़न डिसिप्लिन कमिटी) था।

जेल अनुशासन समिति: समिति ने 1838 में अपनी पहली रिपोर्ट प्रस्तुत की थी। रिपोर्ट ने कैदियों के बीच अनुशासन बनाए रखने में जेल प्रशासन की कमियों की ओर इशारा किया। साथ ही जेलों की बुरी हालत की ओर भी इशारा किया था। इसने सभी प्रकार की सजा को खारिज कर दिया जिसमें धार्मिक और नैतिक (मोरल) शिक्षा शामिल थी। रिपोर्ट ने भारत की जेल व्यवस्था में एक ऐतिहासिक बदलाव किया था। इससे भारत में दंडात्मक प्रशासन का जन्म हुआ था।

1870 में, जेल अधिनियम (एक्ट) का एक प्रारंभिक मसौदा (इनिशियल ड्राफ्ट) पास किया गया था, जिसमें कहा गया था कि जेलों में एक अधीक्षक (सुपरिंटेंडेंट), एक चिकित्सा अधिकारी, एक जेलर और यदि आवश्यक हो तो कोई अधीनस्थ अधिकारी (सबोर्डिनेट ऑफिसर) होना चाहिए। इसमें यह भी कहा गया था कि महिला, पुरुष और बाल कैदियों को अलग-अलग रखा जाएगा। इस अधिनियम में जेल अधिकारियों के कर्तव्यों (ड्यूटीज़) और शक्तियों का भी उल्लेख किया गया है। 1877 और 1894 में एक जांच समिति (इनक्वायरी कमिटी) का गठन (कांस्टीट्यूट) किया गया था। उनके प्रस्ताव पर जेल अधिनियम, 1894 पास किया गया था। इससे अंततः भारत में जेल व्यवस्था में भारी प्रगति हुई थी।

भारत में जेल व्यवस्था के प्रकार

भारत में जेल के तीन स्तर (लेवल) हैं:

तालुका स्तर

इस प्रकार की जेलों को उप (सब) जेल भी कहा जाता है। वे अन्य जेलों की तुलना में आकार में छोटे होते हैं। वे राज्यों के उप-मंडल (सब डिविजनल) क्षेत्रों में मौजूद हैं। इस स्तर के जेल अच्छी तरह से व्यवस्थित हैं।

जिला (डिस्ट्रिक्ट) स्तर

जिला स्तरीय जेलों को राज्यों (जहां कोई केंद्रीय (सेंट्रल) जेल नहीं है) और केंद्र शासित (यूनियन टेरिटरीज) प्रदेशों (जहां कोई केंद्रीय जेल नहीं है) की मुख्य जेल माना जाता है। उत्तर प्रदेश में 62 जिला जेल हैं, मध्य प्रदेश: 41, बिहार: 31, महाराष्ट्र: 28, राजस्थान: 24, कर्नाटक: 19, झारखंड: 17, हरियाणा: 16, पश्चिम बंगाल: 12। गुजरात, केरल, छत्तीसगढ़: 11, जम्मू, कश्मीर और नागालैंड: 10 है।

केंद्रीय (सेंट्रल) स्तर

जेल को केंद्रीय जेल के रूप में अलग करना राज्य के विवेक (डिस्क्रिशन) पर है। केंद्रीय जेल मुख्य रूप से उन कैदियों के लिए उपयोग किया जाता है जिन्हें आजीवन कारावास, मृत्युदंड या लंबी अवधि के कारावास की सजा सुनाई जाती है। इन जेलों की क्षमता (कैपेसिटी) अन्य स्तरों की तुलना में काफी बड़ी है। केंद्रीय जेल में, सब जेल की तुलना में बेहतर सुविधाएं हैं। दिल्ली में सबसे ज्यादा केंद्रीय जेल हैं यानी 16, मध्य प्रदेश: 11, महाराष्ट्र, पंजाब, तमिलनाडु: 9, कर्नाटक: 8, गुजरात: 4 है।

इन जेलों के अलावा विभिन्न प्रकार के और जेल भी हैं:

खुली जेल

इस प्रकार की जेल, उन कैदियों के लिए होती है जिनका व्यवहार अच्छा होता है और वे जेल के नियमों का पालन करते हैं। इन जेलों में न्यूनतम (मिनिमम) सुरक्षा होती है। यहां कैदी कृषि (एग्रीकल्चरल) कार्यों में लगे नजर आते हैं।

विशेष (स्पेशल) जेल

इस प्रकार की जेल में सबसे अधिक सुरक्षा होती है। ये जेल मुख्य रूप से आतंकवादियों, आदतन (हैबिचुअल) अपराधियों, गंभीर अपराध करने वालों, जेलों के कैदियों के प्रति आक्रामक (एग्रेसिव) होने वालो, आदि के लिए हैं।

महिला जेल

इस तरह की जेल सिर्फ महिला कैदियों के लिए हैं। यह महिलाओं की सुरक्षा के लिए बनाया गया है। इन जेलों में महिला कर्मचारी होती हैं।

बोरस्टल स्कूल

ये विशेष रूप से बच्चों और किशोरों (ज्युवेनाइल) के लिए एक प्रकार के सुधार केंद्र (रिफॉर्मेटिव सेंटर) हैं। बोरस्टल स्कूल वहां रहने वाले किशोरों और बच्चों के लिए शैक्षिक प्रशिक्षण (एजुकेशनल ट्रेनिंग) आयोजित (कंडक्ट) करते हैं।

अन्य जेल

अन्य जेल वे जेल हैं जो उपरोक्त किसी भी श्रेणी (कैटेगरी) में नहीं आती हैं। केवल तीन राज्यों में अन्य जेलें हैं अर्थात्, कर्नाटक, केरल और महाराष्ट्र।

भारत में दस्तावेज़ीकरण में बढ़ती अस्पष्टता (राइजिंग वेगनेस इन डॉक्यूमेंटेशन इन इंडिया)

भारत में जेल व्यवस्था की अस्पष्टता के कई कारण हैं:

जेलों की भीड़भाड़

भीड़भाड़ भारत में जेल व्यवस्था के गंभीर मुद्दों में से एक रही है। नेशनल क्राइम्स रिकॉर्ड ब्यूरो की एक रिपोर्ट के अनुसार जेलों की अधिभोग दर (ऑक्यूपेंसी रेट) जेल क्षमता का 118.5% है। यह देखा गया कि विभिन्न जेलों में लगभग 4,78,600 कैदी है, लेकिन वास्तव में जेलों की क्षमता सिर्फ 4,03,700 कैदियों को रखने की थी। भीड़भाड़ में, रहने की स्थिति खराब हो जाती है। इससे कई संचारी रोग (कम्युनिकेबल डिसीज) भी फैलते हैं। हम जानते हैं कि पूरा विश्व पिछले एक साल से कोविड-19 से पीड़ित है। इस स्थिति में, भीड़भाड़ से कैदियों के साथ-साथ कर्मचारियों के बीच भी गंभीर संक्रमण (ट्रांसमिशन) हो सकता है।

स्वास्थ्य और सफ़ाई

कई जेलों में उचित चिकित्सा सुविधाएं नहीं हैं। यह कैदियों के प्रति उपेक्षा (नेगलेक्ट) पैदा करता है और उनमें से ज्यादातर का इलाज नहीं किया जाता है। कैदियों में साफ-सफाई भी ठीक नहीं होती है। यह देखा गया है कि कैदियों का प्रतिनिधित्व (रिप्रेजेंटेशन) करने वाले वकीलों को बुनियादी (बेसिक) सुविधाओं के लिए आवेदन (एप्लाई) करना पड़ता है। दिल्ली में यह देखा गया कि भीषण सर्दियों में कैदियों को गर्म कपड़े उपलब्ध नहीं कराए जाते थे।

ट्रायल में देरी

कई मामले सालों से लंबित (पेंडिंग) होते हैं। इससे जेल प्रशासन की व्यवस्था चरमरा (डिसरप्शन) जाती है। हालांकि, सर्वोच्च न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट) ने हुसैनारा खातून बनाम होम सेक्रेटरी के मामले में, कैदियों के त्वरित परीक्षण (स्पीडी ट्रायल) के अधिकार को मान्यता दी थी।

हिरासत में यातना (कस्टोडियल टॉर्चर)

कैदियों के बीच हिरासत में यातनाएं काफी प्रचलित हैं। हालांकि डी.के. बसु के मामले में ऐतिहासिक फैसले के बाद पुलिस द्वारा थर्ड-डिग्री यातना की अनुमति नहीं है, फिर भी जेलों के अंदर क्रूर हिंसा का प्रचलन (प्रिवेलेंस) है।

अन्य अपराधियों के प्रभाव

कई बार गंभीर और आदतन अपराधियों को एक ही जेल में एक साथ रखा जाता है। यह पहली बार अपराध करने वाले व्यक्ति को धीरे-धीरे आदतन अपराधी में बदल देता है।

संचार की कमी (लैक ऑफ़ कम्युनिकेशन)

जेल वास्तव में सजा का स्थान है, जहां अपराधी खुद को सुधार कर समाज में वापस आ सकते हैं। लेकिन बाहरी दुनिया या अपने परिवार के सदस्यों के साथ संचार की कमी के कारण, वे सदमे में आ जाते हैं। वे हमेशा इस डर में रहते हैं कि कहीं उन्हें समाज या उनके परिवारों में वापस स्वीकार नहीं किया जाएगा। यह मानसिक बीमारी पैदा करता है और उनमें से कई सुधार के बजाय गंभीर अपराधियों में बदल जाते हैं।

महिलाएं और बच्चे

महिला अपराधियों की संख्या अपेक्षाकृत (रिलेटिवली) कम है। उन्हें स्वच्छता सुविधाओं की कमी, गर्भावस्था (प्रेग्नेंसी) के दौरान देखभाल की कमी, शैक्षिक प्रशिक्षण की कमी सहित शारीरिक और मानसिक दोनों समस्याओं का सामना करना पड़ता है। महिलाओं को यौन उत्पीड़न (सेक्शुअल असॉल्ट), हिरासत में बलात्कार, शारीरिक शोषण (फिजिकल अब्यूज) का भी सामना करना पड़ता है। बच्चों को ज्यादातर जेलों के बजाय सुधार गृहों में रखा जाता है ताकि वे खुद को सुधार सकें और अपने सामान्य जीवन में वापस जा सकें। हालांकि, उन्हें बहुत अधिक दुर्व्यवहार का भी सामना करना पड़ता है और मानसिक पीड़ा से भी गुजरना पड़ता है।

अस्पष्टता के उदाहरण (इंस्टेंस ऑफ़ वेगनेस)

महामारी के बाद से, भारत की जेलों में बीमारी का भारी प्रसारण देखा गया है। एक रिपोर्ट से पता चलता है कि देश की जेलों में करीब 2191 कैदी इस वायरस से संक्रमित हो चुके हैं। प्रसारण में वृद्धि के कारण सुप्रीम कोर्ट ने जेलों की भीड़ कम करने का आदेश दिया है।

दुनिया भर की सभी जेलों में कई लोगो की हिरासत में मौत हो चुकी है। भारत की यातना पर 2019 की वार्षिक (एनुअल) रिपोर्ट के बारे में बात करें तो, हिरासत में प्रतिदिन 5 व्यक्तियों की मृत्यु होती है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि न्यायिक (ज्यूडिशियल) हिरासत में 16,060 और पुलिस हिरासत में 125 मौतें हुईं थी। हाल ही में हिरासत में हुई मौतों में से एक तमिलनाडु के थूथुकुडी जिले के एक कस्बे सथनकुलम में हुई थी। पिता और पुत्र को पुलिस ने कुछ लॉकडाउन मानदंडों (नॉर्म्स) का उल्लंघन करने के लिए हिरासत में लिया था। उन्हें शारीरिक रूप से प्रताड़ित (असॉल्ट) किया गया और उन्होंने दम तोड़ दिया। पहले तो पुलिस ने बताया कि मौत चिकित्सकीय कारणों से हुई है। इसके कारण अंततः इसके खिलाफ भारी विरोध और मीडिया कवरेज हुआ। मद्रास हाईकोर्ट ने इस घटना की जांच के आदेश दिए हैं। केस सी.बी.आई. को ट्रांसफर कर दिया गया था। सी.बी.आई. ने आरोप पत्र दाखिल करते हुए कहा कि पिता और पुत्र को पुलिस ने गंभीर रूप से प्रताड़ित किया था।

भारत में आपातकाल (इमर्जेंसी) की अवधि के दौरान, महिलाओं के खिलाफ हिंसा और लोक सेवकों (पब्लिक सर्वेंट्स) द्वारा उत्पीड़न, बहुत अधिक बढ़ चुका है। कानून के डर के बिना सरकारी अधिकारियों की क्रूरता दिखाने वाले बलात्कार के तीन मामले, महाराष्ट्र में मथुरा मामले, आंध्र प्रदेश में रमीज़ा बी और उत्तर प्रदेश में माया त्यागी के मामले थे। हिरासत में भारतीय महिलाओं और न्याय के अधिकार (इंडियन वूमेन इन डिटेंशन एंड एक्सेस टू जस्टिस) की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि पूरे भारत में महिलाओं के साथ, हिरासत में बलात्कार होने का गंभीर खतरा है। हिरासत में बलात्कार के लगभग 90% मामले उत्तर प्रदेश से दर्ज किए गए हैं।

इन कमियों को कैसे दूर करें

भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने जेल सुधार पर अपने सेवानिवृत्त (रिटायर्ड) न्यायाधीशों की अध्यक्षता (हेड) में 2018 में एक समिति का गठन किया है। वे कैदियों के सामने आने वाली समस्याओं को देखने, उपाय सुझाने (सजेस्ट) और कैद में माताओं और उनके बच्चों पर विशेष ध्यान देने के लिए हैं। जिन समस्याओं पर तत्काल ध्यान दिया गया, उनमें भीड़भाड़, बड़ी संख्या में विचाराधीन (अंडर ट्रायल) कैदी, जेल कर्मचारियों की कमी और अस्वच्छ भोजन शामिल थे। भीड़भाड़ की समस्या को दूर करने के लिए कुछ सिफारिशें (रिकमेंडेशन) की गईं है, जैसे कि त्वरित सुनवाई, वकीलों से कैदियों का अनुपात (रेश्यो) बढ़ाना, विशेष अदालतों की शुरुआत, स्थगन (एडजर्नमेंट) से बचना। उन्होंने जेल के पहले सप्ताह में प्रत्येक नए कैदी के लिए एक मुफ्त फोन कॉल की भी सिफारिश की। समिति ने आधुनिक रसोई सुविधाओं की भी सिफारिश की है।

भारतीय दंड संहिता की धारा 304 में हिरासत में हुई मौत की सजा का प्रावधान (प्रोविजन) है। मानवाधिकार संरक्षण अधिनियम (ह्यूमन राइट्स प्रोटेक्शन एक्ट) की धारा 30, जेल के अंदर सीसीटीवी लगाने के बारे में बताती है। विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन (इंटरनेशनल कन्वेंशन) हैं जिन्होंने यातना की निंदा (कंडेम्न) की है। माननीय सर्वोच्च न्यायालय के ऐतिहासिक निर्णयों में से एक डी.के. बसु मामले में है, जिसमे निर्णय, मानव जीवन की सुरक्षा के बारे में लोगों के मन में जागरूकता पैदा करता है। संविधान का आर्टिकल 21 हमें जीवन का अधिकार प्रदान करता है और इस धरती पर जीवन से बड़ा कुछ भी नहीं है। यहां तक ​​कि कैदियों के पास भी जीने का अधिकार होता है। यह निर्णय,  हिरासत में यातना और अन्य क्रूर, अमानवीय (इनह्यूमन), अपमानजनक व्यवहार या सजा के खिलाफ, यूनाइटेड नेशन के कन्वेंशन की पुष्टि (रेटिफाई) करता है।

हिरासत में होने वाले बलात्कार को शुरू में ठीक से वर्णित नहीं किया गया था, लेकिन 1983 में हिरासत में बलात्कार की अवधारणा (कांसेप्ट) में, न केवल एक पुलिस अधिकारी द्वारा पुलिस थाने के अंदर एक महिला का बलात्कार शामिल था, बल्कि इसके तहत आपराधिक मामलों में सबूत का बोझ हमेशा अभियोजक (प्रॉसिक्यूटर) पर ही होता है। हिरासत में हुए बलात्कार के मामले में, यह एक बाधा बन गया क्योंकि यहां आरोपी ज्यादातर सत्ता में होता है और प्रभावशाली (इनफ्लुएंशियल) भी होता हैं। वे आसानी से सबूतों को नष्ट कर सकता हैं। इसे दूर करने के लिए विभिन्न कानूनों में कुछ संशोधन (अमेंडमेंट) किए गए थे। साक्ष्य अधिनियम (एविडेंस एक्ट) में अपवाद (एक्ससेप्शंस) पेश किए गए थे। आपराधिक अधिनियम (क्रिमिनल एक्ट), 1983 ने साक्ष्य अधिनियम में धारा 114A की शुरुआत की थी।

निष्कर्ष (कंक्लूज़न)

प्राचीन काल से ही भारत की जेल प्रणाली में बहुत से सुधार हुए हैं। हालांकि, आधुनिक (मॉडर्न) जेल व्यवस्था में अभी भी बहुत सारे सुधारों की आवश्यकता है। प्रमुख मुद्दों में से एक यह है कि जेल व्यवस्था अभी भी 1894 के जेल अधिनियम द्वारा शासित है। यह अधिनियम स्वतंत्रता से पहले बनाया गया था और अब हम 2021 में हैं। बहुत सी चीजें बदल गई हैं और संशोधन की आवश्यकता है। हालांकि, हमारे पास भारत में कई जेल सुधार हुए थे, लेकिन फिर भी इसने स्थिति को बेहतर नहीं बनाया है। भले ही कैदियों ने अपराध किए हों, फिर भी उनके पास उनके हिस्से के अधिकार हैं। उनसे यह अधिकार नहीं छीना जा सकता है।

संदर्भ (रेफरेंसेस)

 

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