यह लेख Navreen kaur ने लिखा है। इस लेख में वह भारत में ज्यूडिशियरी की स्वतंत्रता के बारे में बात करती हैं। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja द्वारा किया गया है।
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एक प्रशासनिक राज्य (एडमिंसिट्रेटिव स्टेट) के रूप में भारत
“कानून और व्यवस्था राजनीतिक शरीर की दवा है और जब राजनीतिक शरीर बीमार हो जाता है, तो उसे दवा दी जानी चाहिए।” – डॉ. बी.आर. अम्बेडकर
एक प्रशासनिक प्रणाली (सिस्टम) के इतिहास का पता प्राचीन भारत से लगाया जा सकता है। सबसे पहले, कानून और व्यवस्था में व्यवधान (डिसरप्शन) हुआ, लेकिन कृषि के आने के साथ, लोगों ने खुद को जनजातियों (ट्राइब्स) में विभाजित (डिवाइड) कर लिया। इन जनजातियों का नेतृत्व (लेड) जनजाति प्रमुखों द्वारा किया जाता था और वे धीरे-धीरे संख्या में बढ़ते गए। उनके प्रशासन में लोकतंत्र (डेमोक्रेसी) के कुछ तत्वों का पता लगाया जा सकता है, क्योंकि राजा कार्यपालिका (एग्जीक्यूटिव), विधायी (लेजिस्लेचर) और न्यायपालिका (ज्यूडिशियरी) की सभी शाखाओं को देखते हैं।
मौर्य काल में, नागरिक (सिविल) और सेना के कार्यालयों का आगमन हुआ। अर्थशास्त्र आधुनिक (मॉडर्न) साम्राज्य का एक अनौपचारिक (इनफॉर्मल) संविधान था। आर्थिक (इकोनॉमिक) रिकॉर्ड का एक संगठित रखरखाव (ऑर्गेनाइज्ड मेंटेनेंस) था और जासूसो की प्रणाली को एक महत्वपूर्ण विशेषता माना जाता था। जो न्यायिक कार्यालय बनाए गए थे, उन्होने अधिकारी नवाब को नियुक्त (अपॉइंट) किया, जिन्होंने आपराधिक न्याय और कानून व्यवस्था के मामलों को संभाला, जबकि दीवान ने नागरिक न्याय और राजस्व संग्रह (रिवेन्यू कलेक्शन) के मामलों को संभाला। रिश्वत में भारी तरह से लिप्त (एंगेज) होने के कारण इस प्रथा को भ्रष्ट बना दिया गया था, इसलिए यह अविश्वसनीय (अनरिलाईबल) था। गुप्ता के युग के दौरान, एक बड़ा साम्राज्य होने के बावजूद प्रशासनिक संरचना (स्ट्रक्चर) प्रशंसनीय थी। दोनों के बीच मुख्य अंतर यह था कि बाद वाले को प्रांतों के संबंध में तुलनात्मक स्वतंत्रता प्राप्त थी। हालांकि, यह इस अवधि में था कि जाति व्यवस्था कठोर हो गई और महिलाओं की स्थिति और खराब हो गई। न्यायिक रूप से, एक समान कानूनों की कमी थी थी, जिसने न्याय प्रशासन को बुरी तरह प्रभावित किया। किए गए अपराध और दी जाने वाली सजा के बीच कोई आनुपातिकता (प्रोपोर्शन) नहीं थी।
न्यायिक व्यवस्था पर ब्रिटिश सरकार का प्रभाव
ब्रिटिश आक्रमण, प्रशासनिक विरासत (इन्हेरिटेंस) के प्राचीन और मध्यकालीन अवशेषों (मीडीवाल रिलिक्स) को व्यवस्थित रूप से नष्ट करके बहुत बदलाव लाया। प्रारंभिक वर्षों में, भारतीय अधिकारी संख्या में न्यूनतम (मिनिमल) थे, जबकि ईस्ट इंडिया कंपनी के अधिकारी सत्ता में थे। कंपनी का, प्रशासन में कोई नए बदलाव करने का बहुत कम इरादा था, इसलिए उन्होंने शायद ही कोई जिम्मेदारी ली हो। इसके बाद, 1784 के पिट्स इंडिया एक्ट ने ब्रिटिश सरकार को सर्वोच्च नियंत्रण (सुप्रीम कंट्रोल) दिया, इसलिए भारतीय प्रशासन को उनके हाथों में सौंप दिया। इसने ब्रिटिशर को, भारत का आर्थिक रूप से शोषण (एक्सप्लॉयटेशन) करने के लिए भी प्रोत्साहित किया। ब्रिटिश सरकार ने तब न्याय की दीवान प्रणाली को बदलने और उनकी बढ़ती व्यावसायिक (कमर्शियल) जरूरतों को पूरा करने वाली एक समान प्रणाली लाने की तत्काल आवश्यकता महसूस की। भारत में सामान्य कानून व्यवस्था की शुरुआत निम्नलिखित लीडर्स के माध्यम से हुई –
- वारेन हेस्टिंग्स (1732-1818), व्यवस्था में सुधार लाने के लिए एक न्यायिक योजना लेकर आए ताकि उन्हें आम जनता के लिए सुलभ (एक्सेसिबल) बनाया जा सके और प्रभावि हो सके। यह सब उन क्षेत्रों के पुनर्गठन (रिकंसट्रक्शन) के साथ शुरू हुआ, जहां सबसे छोटी इकाई (यूनिट) एक जिला (डिस्ट्रिक) बन गई। प्रत्येक जिले में एक स्मॉल कॉज कोर्ट होती थी, जिसकी अध्यक्षता (प्रेसाइड) प्रधान किसान करते थे। प्रशासनिक न्याय को प्रदान करना, नियंत्रण और संतुलन (चेक्स एंड बैलेंस) के अधीन था। इनमें से प्रत्येक जिले में स्थापित अन्य कोर्ट दीवानी मामलों के लिए मुफस्सिल दीवानी कोर्ट और आपराधिक मामलों के लिए मुफस्सिल फोजदारी कोर्ट थीं। इन कोर्टों की अध्यक्षता कलेक्टर करते थे और जिन कानूनों का पालन किया जाता था वे, हिंदुओं के लिए शास्त्र थे और मुसलमानों के लिए कुरान थीं। उनके ऊपर, सरदार निजामत कोर्ट को, मौत की सजा की सुनवाई और संपत्ति की जब्ती के लिए संदर्भित (रेफर) किया जाता था। इनकी अध्यक्षता राज्यपाल करते थे।
- लॉर्ड कॉर्नवलिस (1786-1793) ने, जिलों की संख्या कम कर दी और उन जिलों में से प्रत्येक में कलेक्टरों के वेतन (सैलरी) में वृद्धि की क्योंकि उनका मुख्य क्षेत्र अर्थव्यवस्था था। राजस्व विवादों के लिए एक अलग ट्रिब्यूनल बनाया गया था, जबकि छोटे दीवानी (सिविल) मामलों को रजिस्ट्रार द्वारा नियंत्रित किया जाता था। हालांकि, उनका फैसला कलेक्टर की मंजूरी के अधीन था। यह देखा जा सकता है कि कलेक्टरों पर भारी मात्रा में शक्ति का बोझ था, जबकि वे ईस्ट इंडिया कंपनी के केवल सेवक थे।
सुप्रीम कोर्ट, सीधे ब्रिटिश नागरिकों के लिए ही उपलब्ध था। यहां तक कि यूरोपीय लोगों को भी भारतीय मूल (नेटिव) के समान माना जाता था, इसलिए उन सभी को सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचने के लिए कोर्ट प्रणाली के पदानुक्रम (हायरार्की) का पालन करना पड़ा।
यह 1793 में था जब कलेक्टर का बोझ कम किया गया था। ईस्ट इंडिया कंपनी के एक दीवानी सेवक ने कलेक्टर का पद संभाला। इसके अलावा, कार्यपालिका न्यायिक नियंत्रण में आ गई यानी, कार्यपालिका कानून के तहत मुकदमा चलाने से कोई छूट नहीं ले सकती थी। किसी भी मुकदमे की शुरुआत से पहले, प्रत्येक कोर्ट ने फीस के रूप में एक निश्चित मूल्य की मांग की।
1935 में, भारत सरकार अधिनियम (गवर्नमेंट ऑफ़ इंडिया एक्ट) ने संरचना (स्ट्रक्चर) को “यूनिटरी” से “फेडरल” प्रकार की सरकार में बदल दिया। हाई कोट्स के न्यायाधीशों की पुरानी आनुपातिक (प्रोपोर्शनल) व्यवस्था को समाप्त कर दिया गया। भारतीय कानून, जो पहले धार्मिक पुस्तकों और रीति-रिवाजों द्वारा निर्देशित (गाइड) था, धीरे-धीरे धर्मनिरपेक्ष कानूनी व्यवस्था (सेक्युलर लीगल सिस्टम) और सामान्य कानून (कॉमन लॉ) में बदल गया। फेडरल कोर्ट की स्थापना 1937 में हुई थी और यह सलाहकार (एडवाइजरी) के साथ-साथ अपीलीय क्षेत्राधिकार (अपीलेट ज्यूरिसडिक्शन) प्रदान करती थी। न्यायाधीशों की योग्यता हाई कोर्ट के न्यायाधीश के रूप में कम से कम 5 साल का अनुभव या प्रांत के हाई कोर्टों के वकीलों के लिए 10 साल का अनुभव होना जरूरी था। सर मौरिस ग्वायर, भारत में फेडरल कोर्ट के पहले मुख्य न्यायाधीश बने।
आजादी के बाद के कानून
बी.आर. अम्बेडकर के कानूनी दिमाग द्वारा तैयार किया गया संविधान, विधायिका और कार्यपालिका के सभी मामलों में मार्गदर्शक प्रकाश बन गया। राष्ट्र ने अपने सबसे प्रमुख नेताओं यानी, जवाहरलाल नेहरू और महात्मा गांधी को देखा, जो अनुकरणीय (एक्सेंप्लरी) वकील भी थे। इस सबसे बड़े संविधान ने मुख्य रूप से सामाजिक कल्याण (सोशल वेलफेयर) पर ध्यानी दिया और इसने समाज के सबसे कमजोर सदस्यों को सशक्त (एंपावर) बनाने की मांग की। राष्ट्र ने स्वतंत्र रूप से एक सामाजिक न्याय प्रतिमान (पैराडिग्म) अपनाया और आज तक, यह प्रत्येक नागरिक के लिए संवैधानिक अधिकारों को सुरक्षित करने का प्रयास करता है।
ब्रिटिश सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक थी भारत की धार्मिक और सांस्कृतिक विविधता (डाइवर्सरी) के लिए कानूनों का एक निश्चित सेट तैयार करना। उपरोक्त प्रयासों के अलावा, विधि आयोग (लॉ कमीशन) की रिपोर्टें धार्मिक कानूनों से गतिशीलता (डायनेमिक) को अधिक उद्देश्यपूर्ण परिप्रेक्ष्य (पर्सपेक्टव) में बदलने के लिए भी जिम्मेदार थीं। ब्रिटिश शासन के दौरान कानून का शासन भी शुरू किया गया था, जिसने शक्तियों के मनमाने (आर्बिट्ररी) प्रयोग को प्रतिबंधित (रेस्ट्रिक) कर दिया था। न्यायपालिका की स्वतंत्रता और शक्तियों के विभाजन (सेपरेशन ऑफ पॉवर) पर महत्व दिया गया था। स्वतंत्रता के बाद, भारत ने कोर्टों के पदानुक्रम को बनाए रखा है, जैसा कि ब्रिटिश शासन के तहत प्रदान किया गया था।
शक्तियों का विभाजन (सेपरेशन ऑफ पॉवर)
शक्तियों के विभाजन का सिद्धांत, पहली बार 1747 में एक फ्रांसीसी विद्वान (स्कॉलर) मोंटेस्क्यू द्वारा प्रतिपादित (प्रोपाउंड) किया गया था। उन्होंने कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका की शक्तियों के बीच अंतर की सख्त रेखाएँ खींचने का प्रयास किया। उनका दृढ़ विश्वास था कि सरकार के अत्याचारी रूप से बचने के लिए, एक अंग दूसरे के काम में हस्तक्षेप (इंटरफेयर) नहीं करेगा। मोंटेस्क्यू के अनुसार, यदि एक ही निकाय (बॉडी) या मजिस्ट्रेट, विधायिका और कार्यपालिका को चलाता है, तो स्वतंत्रता से समझौता किया जाता है। उनका विचार था कि एक न्यायाधीश, विधायक की जगह ले सकता है क्योंकि कोई सख्त सीमाएं नहीं हैं, इसलिए न्यायाधीश मनमाने नियंत्रण का प्रयोग करने में सक्षम था। इसलिए, यह सब, सरकार के एक अंग के लिए, दूसरे के कार्यों को करने के लिए खतरे में डालते थे।
हालाँकि, जब हम शक्तियों के विभाजन की बात करते हैं, तो हमारा तात्पर्य कार्यों (फंक्शंस) से होता है। कार्यों में न्यूनतम हस्तक्षेप के साथ, शक्तियों के सख्त वर्गीकरण की मांग अस्तित्व में हो सकती है। ये कार्य विशेषज्ञता (स्पेशलाइजेशन) पर आधारित हैं। शक्ति केवल एक उद्देश्य का साधन है। जहां शक्ति का कोई विभाजन मौजूद नहीं है, वहां जो प्रयोग किया जाता है वह शक्तियों का एक मनमाना जुड़ाव नहीं है, बल्कि केवल उनके कार्यों का एक संगठित अंतर्संबंध (ऑर्गेनाइज्ड इंटरकनेक्शन) है। सवाल यह उठता है कि क्या न्यायपालिका एक स्वतंत्र अंग के रूप में कार्य कर सकती है जहां सभी अंगों का यह अंतर्संबंध लोकतंत्र को निर्धारित करता है?
भारत में शक्तियों के स्पष्ट विभाजन के साथ सरकार का एक संसदीय रूप (पार्लियामेंट्री फॉर्म of गवर्नमेंट) है और केंद्र और राज्य में विभाजित कार्यों के साथ, यह एक फेडरल राज्य है। यू.के. की संसदीय प्रणाली में, शक्तियों के विभाजन की प्रथा को कम प्रमुखता दी जाती है और इसमें स्पष्ट ओवरलैप होते हैं। विधायिका की देखभाल संसद करती है। रानी, हालांकि एक कार्यकारी प्रमुख (एग्जीक्यूटिव हेड), विधायिका का एक अभिन्न अंग भी है। न्यायपालिका स्वतंत्र है, लेकिन न्यायाधीशों को संसदीय सदनों के द्वारा हटाया जा सकता है। न्यायिक शक्तियां कार्यपालिका को बहुत अधिक प्रत्यायोजित (डेलीगेट) की जा रही हैं, यह दर्शाता है कि इंग्लैंड में शक्तियों का किसी भी प्रकार का विभाजन नहीं है।
न्यायिक स्वतंत्रता के राष्ट्रपति रूप (प्रेसिडेंशियल मोड) में, उदाहरण के लिए, संयुक्त राज्य अमेरिका में, शक्तियों के विभाजन का सिद्धांत, अमेरिकी संवैधानिक संरचना का आधार बनता है। हालांकि, इन अलग-अलग अंगों के बीच, सर्वोच्चता को रोकने के लिए नियंत्रण और संतुलन की एक वैकल्पिक प्रणाली मौजूद है। राष्ट्रपति के पास विधायिका के खिलाफ वीटो की शक्ति है। इसी तरह, विधायिका के पास इंपीचमेंट की शक्ति है। न्यायपालिका के पास न्यायिक समीक्षा (जुडिशियल रिव्यू) के माध्यम से दोनों पर रोक लगाने की शक्ति रखती है। संविधान का उल्लंघन करने वाले कानूनों को रद्द करने की अमेरिकी कोर्ट्स की शक्ति का यह सिद्धांत, मारबरी बनाम मैडिसन के मामले में निर्धारित किया गया था। हालांकि अमेरिकी संविधान में शक्तियों के पूर्ण विभाजन को शामिल किया गया है, लेकिन वास्तविकता में रेखाएं अक्सर धुंधली हो जाती हैं।
भारत में, कार्यपालिका और न्यायपालिका के विभाजन को भारतीय संविधान के राज्य नीति के निदेशक सिद्धांतों (डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स ऑफ स्टेट पॉलिसी) में शामिल किया गया है। इस तरह के अधिकार केवल राज्य के लिए दिशानिर्देश हैं और कानून की कोर्ट के माध्यम से लागू नहीं किए जा सकते हैं, जिसका अर्थ है कि यह अलगाव प्रकृति में पूर्ण नहीं है। इसलिए, भारत की संविधान सभा द्वारा शक्तियों के कठोर विभाजन की अवधारणा को खारिज कर दिया गया और शक्तियों के विभाजन की ब्रिटिश प्रथा को अपनाया गया।
संविधान, शक्तियों के विभाजन के विचार को स्वीकार करता है लेकिन केवल निहित (इंप्लाइड) तरीके से ही। कुछ प्रावधान हैं जो विशेष रूप से विधायिका को कानून की शक्ति प्रदान करते हैं। इसी तरह, आर्टिकल 50 न्यायपालिका को कार्यपालिका से अलग करता है। हालांकि, कार्यात्मक (फंक्शनल) ओवरलैप के कारण यह विभाजन पूर्ण नहीं है। विधायिका को न्यायाधीशों को हटाने की शक्ति प्राप्त है। यहां तक कि उसके पास उस कानून में संशोधन (अमेंडमेंट) करने की शक्ति भी है जिसे कोर्ट ने गैर-कानूनी घोषित कर दिया है। न्यायपालिका के पास अध्यादेश (ऑर्डिनेंस) की आड़ में कानून बनाने की शक्ति है। कुछ न्यायविदों (ज्यूरिस्ट) का मानना है कि न्यायपालिका स्वतंत्र है इसलिए शक्ति का विभाजन मौजूद है, लेकिन भारत में, कार्यात्मक ओवरलैप के अलावा, कर्मियों का ओवरलैप भी है। मुख्य न्यायाधीश और अन्य न्यायाधीशों की नियुक्ति के अपने विवेक से कार्यपालिका, न्यायपालिका के कामकाज को प्रभावित कर सकती है। यह सूची व्यापक (एग्जॉस्टिव) नहीं है।
“भारतीय संविधान ने वास्तव में, शक्ति के विभाजन के सिद्धांत में, अपनी पूर्ण कठोरता को मान्यता नहीं दी है, लेकिन सरकार के विभिन्न भागों या शाखाओं के कार्यों में पर्याप्त रूप से अंतर किया गया है और इसके परिणामस्वरूप यह बहुत अच्छी तरह से कहा जा सकता है कि हमारा संविधान एक अंग या राज्य के हिस्सा के द्वारा, धारणा (असंप्शन) पर उन कार्यों के लिए विचार नहीं करता है, जो अनिवार्य रूप से दूसरे से संबंधित है”।
प्रसिद्ध केशवानंद भारती मामले में, यह माना गया था कि संविधान की मूल विशेषताओं के साथ छेड़छाड़ करने वाले किसी भी संशोधन को असंवैधानिक करार दिया जाएगा। इसने शक्तियों के विभाजन के सिद्धांत में और छूट की पुष्टि की।
स्वतंत्रता की नैतिकता (एथिक्स ऑफ़ इंडिपेंडेंस)
न्यायाधीश की भूमिका के लिए नैतिक विश्लेषण (एथिकल एनालिसिस) के एक बिल्कुल नए आधार की आवश्यकता होती है। किसी भूमिका को अच्छी तरह से जानना, एक बात है और भूमिका को पूरा करना पूरी तरह से ही अलग बात है क्योंकि यह विभिन्न प्रैक्टिस सेटिंग्स में भिन्न है। न्यायाधीशों को सत्यनिष्ठा (इंटीग्रिटी), निष्पक्षता (इंपार्शीयालिटी), फेयरनेस, क्षमता (कंपीटेंस) और स्वतंत्रता पर ध्यान देना चाहिए। प्रत्येक स्थिति में न्यायाधीश लोगो के हित के प्रति जवाबदेह होते हैं। स्तरीय डिसाइसिस का सिद्धांत, निष्पक्ष निर्णय लेने में योगदान देता है, जहां न्यायाधीश प्रिसिडेंट का पालन करने के लिए बाध्य होते हैं। हालाँकि, यदि हम आर्बिट्रल कार्यवाही का उदाहरण लेते हैं, तो पार्टियों को अपने स्वयं के आर्बिट्रेटर्स को चुनने का विशेषाधिकार (प्रिविलेज) प्रदान किया जाता है। यह एक अंतर्निहित पूर्वाग्रह (इन्हेरेंट बायस) पैदा करने के लिए बाध्य है, इसलिए स्वतंत्रता और जवाबदेही के बीच मतभेद पैदा कर रहा है। इसके अलावा, मिसालें आर्बिट्रेशन की कार्यवाही में बहुत कम महत्व रखती हैं।
अब यह प्रश्न उठता है कि क्या न्यायाधीशों की स्वतंत्रता, कार्यपालिका और विधायिका के हस्तक्षेप के बिना अपनी शक्तियों का प्रयोग करने तक ही सीमित है या क्या इसका अर्थ यह है कि न्यायाधीशों को किसी अन्य कारक (फैक्टर) से अप्रभावित विवाद पर निर्णय लेने में सक्षम होना चाहिए?
भारत ने बाहरी प्रभाव के एक प्रमुख क्षेत्र- जूरी ट्रायल को सफलतापूर्वक हटा दिया है। वे हमेशा भारी विवाद का विषय रहे हैं। विदेशी कानूनी व्यवस्था को समझने वाले साक्षर नागरिकों को खोजना मुश्किल था। जिसके परिणामस्वरुप, फैसला शायद ही कभी निष्पक्ष था और मीडिया में जो चित्रित किया गया था, वह उससे काफी प्रभावित था। नानावती के प्रसिद्ध मामले ने भारत में जूरी ट्रायल को समाप्त कर दिया, जहां आरोपी को एक ईमानदार अधिकारी के रूप में पेश किया गया जिसने अपनी पत्नी के सम्मान की रक्षा करने की कोशिश की थी। इस तरह के उदाहरण, तीसरे अंग के विवेक की मात्रा को दर्शाते हैं। न्यायिक स्वतंत्रता के दायरे को तय करने में यह एक ऐतिहासिक मामला था।
जैसे-जैसे निर्णय लेने पर न्यायाधीशों का अधिकार बढ़ता गया, यह प्रश्न करना महत्वपूर्ण हो गया कि क्या प्रत्येक निष्पक्ष न्यायाधीश को न्यायिक स्वतंत्रता का प्रयोग करने के लिए कहा जा सकता है या नहीं? स्वतंत्रता को निष्पक्षता के एक सबसेट के रूप में देखा जा सकता है जो एक वांछनीय (डिजायरेबल) विशेषता है। प्रत्येक निष्पक्ष सुनवाई की मूल अवधारणा (बेसिक कॉन्सेप्ट) यह है कि प्रत्येक पक्ष को सुनवाई का अवसर दिया जाना चाहिए। संवैधानिक प्रावधानों की सहायता से विवाद पर निर्णय लेते समय न्यायाधीश का यह कर्तव्य है कि वह अपनी व्यक्तिगत नैतिकता (मोरल) को अलग रखे। एक न्यायाधीश कानूनों के अखंड निर्माण (मोनोलॉथिक कंस्ट्रक्शन) से परे देखने का प्रयास करेंगे और व्याख्या के गोल्डन रूल को लागू करेंगे, जिसमें वह कानून के शाब्दिक अर्थ से हटने का प्रयास करेंगे। केवल निष्पक्षता, विचार की स्वतंत्रता के लिए जिम्मेदार नहीं है।
भारत में न्यायिक स्वतंत्रता
न्यायपालिका की स्वतंत्रता की अवधारणा, कई अन्य अवधारणाओं की तरह, इंग्लैंड से ही ली गई है। न्यायपालिका की भूमिका, किसी भी प्रकार के प्रभाव में आए बिना, अपने पद की शपथ और न्याय की अपनी भावना के अनुसार, निष्पक्ष और तटस्थ (न्यूट्रल) निर्णय देने की है। यह ऊपर अच्छी तरह से स्थापित किया गया है कि भारत का संविधान पूर्ण अर्थों में शक्तियों के विभाजन को प्रदर्शित (एक्जीबिट) नहीं करता है। न्यायिक शाखा का मुख्य कार्य संविधान की रक्षा करना है। यह भारत के सुप्रीम कोर्ट द्वारा आयोजित किया गया है कि “संवैधानिक योजना का उद्देश्य एक स्वतंत्र न्यायपालिका को सुरक्षित करना है जो लोकतंत्र की रक्षा है।”
यह न्यायिक स्वतंत्रता केवल न्याय देने की प्रणाली पर लागू होती है। कार्यपालिका के पास वेतन और विशेषाधिकारों सहित न्यायपालिका की विषय-वस्तु (सब्जेक्ट मैटर) के संबंध में शक्ति है।
न्यायिक स्वतंत्रता का उद्देश्य, निष्पक्ष लोकतंत्र को बनाए रखना है। न्यायपालिका को कानून के शासन (रूल ऑफ़ लॉ) को बनाए रखने और नागरिकों के मौलिक अधिकारों (फंडामेंटल राइट्स) की रक्षा करने के लिए सौंपा गया है। यदि न्यायपालिका में कार्यपालिका का हस्तक्षेप होता है, तो नागरिक स्वतंत्रता (सिविल लिबर्टी) से समझौता किया जाएगा, क्योंकि कार्यकारी प्रमुख को मनमानी शक्तियों से सशक्त किया जाएगा। किसी राज्य का न्यायिक स्वतंत्रता के प्रति दृष्टिकोण (अप्रोच), पुरानी असमानताओ के बीच समान न्याय को प्राप्त करने के लिए, समाज के आग्रह को दर्शाता है।
विधायिका और न्यायपालिका के बीच विवाद का प्रारंभिक बिंदु, भारत के संविधान के आर्टिकल 31B को सम्मिलित करना था, जिसने मौलिक अधिकारों के उल्लंघन के बावजूद, न्यायिक समीक्षा (जुडिशियल रिव्यू) के दायरे से बाहर कानूनों को 9वीं अनुसूची (शेड्यूल) के तहत रखा गया। न्यायिक शक्ति के उल्लघंन का यह पहला उदाहरण था। इस आर्टिकल ने न केवल विधायकों को प्रतिरक्षित (इम्यूनाइज) किया बल्कि उन कानूनों को प्रदान करने के लिए पूर्वव्यापी (रेट्रोस्पेक्टिव) रूप से कार्य किया जो मौलिक अधिकारों के साथ असंगत (इनकंसिस्टेंट) थे।
यहां केवल विधायिका ने ही न्यायिक समीक्षा के खिलाफ कदम नहीं उठाया है, बल्कि विभिन्न उदाहरणों में, न्यायपालिका ने भी अपनी सीमाओं को पार किया है। मद्रास बार एसोसिएशन के मामले में, न्यायपालिका ने राष्ट्रीय कर न्यायाधिकरण अधिनियम (नेशनल टैक्स ट्रिब्यूनल एक्ट), 2005 को असंवैधानिक करार दिया क्योंकि बेंचों के अधिकार क्षेत्र को तय करने के लिए कार्यपालिका को दी गई अत्यधिक शक्ति ने कई स्तरों (लेवल) पर न्यायिक स्वतंत्रता से समझौता किया। एस.आर. बोम्मई के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने बहुमत की परीक्षा (टेस्ट ऑफ़ मेजोरिटी) आयोजित करने के बदले एक राज्य सरकार को बर्खास्त करने के लिए दिशानिर्देश (गाइडलाइन) निर्धारित किए।
उपरोक्त स्थितियों के अलावा न्यायाधीशों की नियुक्ति ने न्यायिक स्वतंत्रता की सीमा को बहुत प्रभावित किया है। संविधान के आर्टिकल 124 और 217, उच्च न्यायपालिका में न्यायाधीशों की नियुक्ति से संबंधित हैं। यह आर्टिकल्स निर्दिष्ट (स्पेसिफाई) करते हैं कि न्यायाधीशों की नियुक्ति भारत के राष्ट्रपति के द्वारा, भारत के मुख्य न्यायाधीश (चीफ जस्टिस) और अन्य न्यायाधीशों के साथ ‘परामर्श (कंसल्टेशन)’ के बाद की जाएगी। अप्रैल 1973 में एक सार्वजनिक विवाद हुआ, जब कार्यपालिका ने सबसे वरिष्ठतम (सीनियर) न्यायाधीश के बजाय चौथे सबसे वरिष्ठतम न्यायाधीश को मुख्य न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया। इसके बाद हुई सार्वजनिक बहस में, आलोचकों (क्रिटिक्स) ने न्यायपालिका को कमजोर करने के लिए कार्यपालिका को दोषी ठहराया, जबकि समर्थकों (स्पोर्ट्स) ने राष्ट्रीय की आवश्यकता के आधार पर इस कार्य का बचाव किया। न्यायाधीशों की नियुक्ति और उनकी स्वतंत्रता के दायरे के बीच एक स्पष्ट संबंध स्थापित किया गया था।
जजेस केस में, यह माना गया कि हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश की नियुक्ति पर निर्णय लेने की अंतिम शक्ति केंद्र सरकार के पास है, न कि मुख्य न्यायाधीश के पास है। आगे यह भी माना गया कि संविधान के आर्टिकल 124 और 217 के तहत ‘परामर्श’ शब्द का अर्थ सहमति नहीं है। इस निर्णय को कानूनी फ्रेटरनिटी द्वारा असंतोषजनक माना गया और विद्वानों के लेखन में इसकी प्रमुख रूप से आलोचना की गई।
सेकेंड जजेस केस में, पिछले मामले को, कॉलेजियम के निर्माण से उलट दिया गया था, जिसमें मुख्य न्यायाधीश को न्यायिक नियुक्तियों के लिए सबसे प्राथमिक भूमिका दी गई थी। न्यायमूर्ति जे.एस. वर्मा ने दावा किया कि “अगर कार्यपालिका की समान भूमिका होगी और वह कई प्रस्तावों के विचलन (डाइवर्ज) करेगा, तो न्यायपालिका में अनुशासनहीनता के कीटाणु बढ़ेंगे,” हालांकि, इसने वर्षों तक भ्रम पैदा किया, क्योंकि सी.जे.आई. की सटीक भूमिका को कभी परिभाषित नहीं किया गया था।
अंत में, थर्ड जजेस केस के मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने 1993 के फैसले की पुष्टि करते हुए एक सर्वसम्मत (यूनेनिमस) निर्णय दिया और सी.जे.आई. के बाद कोर्ट के चार सबसे वरिष्ठ न्यायाधीशों को शामिल करने के लिए कॉलेजियम प्रणाली का विस्तार किया गया।
पारदर्शिता की कमी थी, जिसने पक्षपात (नेपोटिज्म) की आशंकाओं (फियर) को बढ़ाया और पिछले फेवर और व्यक्तिगत संबंधों के आधार पर न्यायाधीशों की पदोन्नति (एलिवेशन) की। न्यायिक सक्रियता (ज्यूडिशियल एक्टिविज्म) में एक स्पष्ट वृद्धि हुई, जिसमें निर्णयों को मौजूदा कानून के बजाय राजनीतिक विचारों पर आधारित होने का संदेह था। अरुणा शानबाग बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया के मामले में न्यायिक सक्रियता का एक उदाहरण देखा जा सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने अरुणा की दोस्त होने का दावा करने वाले एक सामाजिक कार्यकर्ता (सोशल एक्टिविस्ट) द्वारा दायर इच्छामृत्यु (यूथेनेशिया) की याचिका को खारिज कर दिया। अपने ऐतिहासिक फैसले में, कोर्ट ने निष्क्रिय (पैसिव) इच्छामृत्यु की अनुमति दी थी, लेकिन यह हाई कोर्ट द्वारा अनुमती देने के अधीन था।
कॉलेजियम प्रणाली में सुधार का सबसे बड़ा प्रयास राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (नेशनल ज्यूडिशियल अपॉइंटमेंट कमीशन) था। एन.जे.ए.सी. को 2014 में 99वें संविधान संशोधन अधिनियम के रूप में संसद द्वारा पारित किया गया था। यह विशुद्ध रूप से लोकतांत्रिक आयोग था क्योंकि इसने न्यायपालिका सहित राज्य के किसी भी अंग को न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए पूरी स्वतंत्रता प्रदान नहीं की थी। अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने इस तथ्य पर जोर दिया कि न्यायिक नियुक्तियां, नियंत्रण और संतुलन से मुक्त नहीं होंगी। हालांकि, राष्ट्रपति की मंजूरी मिलने के 10 महीने बाद, सुप्रीम कोर्ट ने एन.जे.ए.सी. को असंवैधानिक करार दिया। शीर्ष कोर्ट ने इसे शक्तियों के विभाजन का उल्लंघन और न्यायिक स्वतंत्रता का उल्लंघन माना।
निष्कर्ष (कंक्लूज़न)
भारत में शक्तियों के विभाजन का विचार एन.जे.ए.सी. की विफलता को तोड़कर सामने आता है। एक विधायी निकाय (लेजिसलेटिव बॉडी) था, जो न्यायपालिका की विषय-वस्तु में संशोधन करता था। इस संशोधन को राज्य के कार्यकारी प्रमुख यानी राष्ट्रपति की सहमति प्राप्त हुई। लेकिन अंत मे, सुप्रीम कोर्ट ने अपनी न्यायिक स्वतंत्रता का सफलतापूर्वक प्रयोग करते हुए अपनी शाखा को निर्देशित करने वाले को रद्द करार दिया। यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि न्यायपालिका ही एकमात्र ऐसा अंग है जो अपनी स्वतंत्रता का दावा करने में सक्षम है। लेकिन क्या यह बिना असफल हुए इस अधिकार का प्रयोग करता है?
एक आदेश पर राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद, हाल ही में जस्टिस एस. मुरलीधर को दिल्ली हाई कोर्ट से पंजाब और हरियाणा हाई कोर्ट में ट्रांसफर किया गया था। इस ट्रांसफर का समय बेहद विवादित था क्योंकि उन्होंने भाजपा नेताओं के अभद्र भाषा (हेट स्पीच) के खिलाफ मामला दर्ज नहीं करने के लिए दिल्ली पुलिस को आड़े हाथों लिया था। यह ट्रांसफर प्रथम दृष्टया (प्राइमा फेसी) न्यायपालिका पर कार्यकारी प्रभाव का सुझाव देता है।
पूर्व मुख्य न्यायाधीश, रंजन गोगोई के राज्यसभा के लिए नामांकन के खिलाफ, विपक्ष ने बड़ी आलोचना की थी, जिन्होंने इसे ‘क्विड प्रो क्यूओ’ करार दिया। तथ्य यह है कि एक पूर्व सी.जे.आई. को उनकी सेवानिवृत्ति (रिटायरमेंट) के 4 महीने बाद नामित किया गया है, तो कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच शक्तियों के संवैधानिक विभाजन के बारे में यह सवाल उठाता है। विभिन्न वरिष्ठ अधिवक्ताओं (एडवोकेट) ने इस नामांकन का विरोध किया और इसे न्यायपालिका के सिद्धांतों का घोर उल्लंघन बताया। गोगोई ने इसका कारण बताया कि वह काउंसिल ऑफ़ स्टेट्स में न्यायिक विचारों को प्रस्तुत करने में सक्षम होंगे। हालाँकि, न्यायपालिका द्वारा अपने विचारों को जनता के सामने रखने के लिए कई अन्य तरीकों का प्रयोग किया गया है। उदाहरण के लिए, न्यायमूर्ति टी.एस. ठाकुर न्यायपालिका में समस्याओं को संबोधित करते हुए अपने एक सार्वजनिक भाषण में भावुक हो गए थे।
भारत के सबसे वंचित समुदायों के अधिवक्ता, आनंद तेलतुम्बडे को हाल ही में यू.ए.पी.ए. के तहत गिरफ्तार किया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें जमानत देने से इनकार कर दिया और न्यायपालिका द्वारा यह अनुचित व्यवहार, भारत की इस संस्था (इंस्टीट्यूशन) द्वारा स्वतंत्रता के नुकसान को दर्शाता करता है।
तो, मैं यह निष्कर्ष निकालता हूं कि वर्तमान प्रशासनिक राज्य में न्यायिक स्वतंत्रता वास्तव में एक मिथ्य है क्योंकि यह विवेक, जैसा कि उपरोक्त मामलों में उल्लेख किया गया है, राजनीतिक पूर्वाग्रह और मनमाने हस्ताक्षेप से मुक्त नहीं है।
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- thewire.in/law/cji-ranjan-gogoi-rajya-sabha-nomination
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