स्वीकारोक्ति की प्रासंगिकता और स्वीकार्यता

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Indian Evidence Act
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यह लेख लॉयड लॉ कॉलेज की Riya Ranjan ने लिखा है। यह लेख इंडियन एविडेंस एक्ट, 1872 के तहत स्वीकारोक्ति की प्रासंगिकता और स्वीकार्यता (रिलेवेंसी एंड एडमिसिबिलिटी ऑफ एडमिशन) से संबंधित है और यह इसके प्रावधानों (प्रोविजन) और सिद्धांतों (प्रिंसीपल) पर चर्चा करता है। इस लेख का अनुवाद Archana Chaudhary द्वारा किया गया है।

परिचय (इंट्रोडक्शन)

ड्यू प्रोसेस मॉडल के अनुसार, अपना मामला साबित करने का भार (बर्डन ऑफ प्रूफ) पक्षकारों पर का होता है। सत्य की खोज का सामान्य तरीका साक्ष्य के आधुनिकीकरण (मॉडर्नाइजेशन) में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यदि एक पक्ष के आरोप दूसरे पक्ष द्वारा विवादित (डिस्प्यूटेड) या लड़े (कंटेस्टेड) नहीं गए, तो किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं है। इसलिए, मामले के आवश्यक और महत्वपूर्ण तथ्यों को साबित करने के लिए न्यायाधीश को साक्ष्य पेश किए जाते हैं।

कानून के अनुसार, सबूत किसी व्यक्ति के अपराध (गिल्ट) या बेगुनाही (इनोसेंस) को स्थापित करने में मदद करते है। इंडियन एविडेंस एक्ट, 1872 की धारा 3 “साक्ष्य” को परिभाषित करती है। परिभाषा में कहा गया है कि कोई भी बयान (स्टेटमेंट) जिसके माध्यम से जांच के तहत तथ्यों के मामलों से संबंधित गवाहों द्वारा कोर्ट को मंजूरी दी जाती है या उसके सामने पेश करने की आवश्यकता होती है, ऐसे बयान या दस्तावेज मौखिक साक्ष्य हैं। जबकि किसी भी इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्य सहित कोई भी दस्तावेज, जिसे कोर्ट अनुमति देता है या जिसे कोर्ट में पेश करना आवश्यक है, जो जांच के तहत तथ्य के मामलों से संबंधित है, दस्तावेजी साक्ष्य (डॉक्यूमेंट्री एविडेंस) होते हैं। इस कोड के तहत स्वीकार्यता और प्राप्यता (रिसीवेबिलिटी) के बीच कोई सटीक अंतर नहीं है। साक्ष्य को अस्वीकार्य अप्रासंगिक साक्ष्य (इनएडमिसिबल इर्रेलीवेंट एविडेंस) या साक्ष्य के रूप में एक सारहीन तथ्य (इम्मेटेरियल फैक्ट) के रूप में वर्णित (डिस्क्राइब्ड) किया जा सकता है।

स्वीकारोक्ति की परिभाषा (डेफिनेशन ऑफ एडमिशन)

इंडियन एविडेंस एक्ट, 1872 की धारा 17 के अनुसार, स्वीकारोक्ति को किसी भी व्यक्ति द्वारा दिए गए किसी भी बयान के रूप में परिभाषित किया गया है, जो किसी भी तथ्य (फैक्ट इन इश्यू) या प्रासंगिक तथ्य (रेलीवेंट फैक्ट) के बारे में और कुछ परिस्थितियों में किसी भी अनुमान (इनफ्रेंस) का सुझाव देता है। स्वीकार्यता का सीधा सा मतलब है पास आने की शक्ति (पॉवर टू अप्रोच)। स्वीकारोक्ति मौखिक या दस्तावेजी या इलेक्ट्रॉनिक रूप में निहित हो सकता है। इस प्रकार, साक्ष्य की स्वीकार्यता का अर्थ है किसी भी साक्ष्य या दस्तावेज का उपयोग कानून की अदालत में तथ्य के कथित मामलों को साबित या खंडित (डिस्प्रूव) करने के लिए किया जाता है।

स्वीकारोक्ति को प्राथमिक (प्राइमरी) साक्ष्य माना जाता है और वे लिखित दस्तावेजों की सामग्री को भी साबित करने के लिए बिना किसी नोटिस के प्रस्तुत करने या मूल (ओरिजनल) की अनुपस्थिति के लिए लेखांकन के लिए स्वीकार्य हैं। बिश्वनाथ प्रसाद बनाम द्वारका प्रसाद के मामले में, कोर्ट ने कहा कि स्वीकार्यता उस तथ्य का वास्तविक साक्ष्य (सब्सटेंटिव एविडेंस) है जिसे तब स्वीकार किया जाता है जब किसी गवाह का खंडन करने के लिए पक्ष द्वारा दिया गया कोई भी पिछला बयान वास्तविक साक्ष्य नहीं बनता है। साक्ष्य की स्वीकार्यता गवाह की सत्यता (वेरेसिटी) पर संदेह करने के उद्देश्य से कार्य करती है।” 

स्वीकारोक्ति के सिद्धांत (प्रिंसिपल्स ऑफ एडमिशन)

बसंत सिंह बनाम जानकी सिंह में, उच्च न्यायालय (हाई कोर्ट) ने स्वीकारोक्ति के संबंध में कुछ सिद्धांतों का उल्लेख किया:

  • वादपत्र (प्लेंट) में किसी भी प्रकार का बयान साक्ष्य के रूप में स्वीकार्य है।
  • सभी बयानों को सही मानने के लिए कोर्ट पर कोई दायित्व (ऑब्लिगेशन) नहीं है और कोर्ट कुछ बयानों को प्रासंगिक मान सकता है और शेष को अस्वीकार कर सकता है।
  • एक पक्ष द्वारा एक अभिवचन (प्लीडिंग) और अन्य स्वीकारोक्ति में किए गए स्वीकारोक्ति के बीच कोई अंतर नहीं है।
  • एक पक्ष द्वारा एक वादपत्र पर हस्ताक्षर किए गए और उसके द्वारा सत्यापित (वेरिफिकेशन) की गई स्वीकारोक्ति को उसके खिलाफ, अन्य वादों में साक्ष्य के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है।
  • स्वीकारोक्ति हमेशा पूरी तरह से जांचे जाते हैं, इसलिए उन्हें भागों (पार्ट्स) में विभाजित नहीं किया जा सकता है। 
  • किसी भी स्वीकारोक्ति को निर्णायक (कॉन्क्लूसिव) नहीं माना जा सकता है और यह दोनों पक्षों के लिए यह दिखाने के लिए खुला है कि यह सच है या नहीं।
  • अपराध की दलील (प्ली ऑफ गिल्ट) की स्वीकार्यता तभी निर्धारित की जा सकती है जब आरोपी द्वारा अपने शब्दों में याचिका दर्ज की जाए। 
  • एक वास्तविक साक्ष्य प्रभाव होने की स्वीकृति प्रकृति में स्वैच्छिक (वॉलंटरी) होनी चाहिए।
  • स्वीकारोक्ति का कोई निर्णायक मूल्य नहीं होता है, यह केवल प्रथम दृष्टया (प्राईमा फैसी) प्रमाण होने तक ही सीमित है। 
  • आरोपी के शब्दों में स्पष्ट स्वीकारोक्ति प्रस्तुत किए गए तथ्यों को अच्छा सबूत माना जाता है।

स्वीकारोक्ति की प्रासंगिकता और स्वीकार्यता

स्वीकारोक्ति को तब प्रासंगिक कहा जाता है जब तथ्य इस प्रकार संबंधित होते हैं कि घटनाओं या मानव आचरण (ह्यूमन कंडक्ट) के एक सामान्य पाठ्यक्रम (कॉमन कोर्स) के अनुसार अन्य तथ्यों के अस्तित्व (एक्सिस्टेंस) या गैर-अस्तित्व (नॉन एक्सिस्टेंस) को संभावित बनाते हैं। कुछ भी जो प्रासंगिक नहीं है उसे कानून के अनुसार साक्ष्य के रूप में जोड़ा जा सकता है। आम कानून (कॉमन लॉ) वाले देशों में, सबूतो का पता लगाना और साथ ही पक्षों के दावे द्वारा प्रतिबंधित (रिस्ट्रिक्टेड) किया जाता है। 

राम बिहारी यादव बनाम स्टेट ऑफ बिहार में सुप्रीम कोर्ट ने देखा कि ‘प्रासंगिकता’ और ‘स्वीकार्यता’ शब्द परस्पर विनिमय (इंटरचैंज) नहीं कर सकते हैं, हालांकि कभी-कभी उन्हें समानार्थक (सीनॉनिम्स) के रूप में लिया जा सकता है। हालांकि, सभी प्रासंगिक साक्ष्य स्वीकार्य नहीं हो सकते हैं लेकिन सभी स्वीकार्य साक्ष्य प्रासंगिक हैं। प्रासंगिकता और स्वीकार्यता के कानूनी निहितार्थ (इंप्लीकेशन) अलग हैं। यह एक्ट के शासक द्वारा निर्धारित किया जाता है कि प्रासंगिकता स्वीकार्यता की परीक्षा (टेस्ट) है। 

जैसा कि अमीर अली और वुडरोफ कमेंट्रीज में उल्लेख किया गया है कि एक्ट में इस्तेमाल शब्द “प्रासंगिक” “संभावित बल होने (हैविंग प्रोबेटिव फोर्स)” के बराबर है और धारा का प्रभाव पक्षों की सहमति से स्वतंत्र रूप से निर्दिष्ट परिस्थितियों में साक्ष्य को स्वीकार्य बनाना है। 

प्रासंगिकता, इंडियन एविडेंस एक्ट, 1872 की धारा 5 से धारा 55 में बताई गई है। प्रासंगिकता की अवधारणा (कांसेप्ट) तर्क और मानवीय अनुभव पर आधारित है। प्रासंगिकता का तात्पर्य केवल प्रासंगिक तथ्यों से है और यह दर्शाता है कि किसी मुद्दे में किसी तथ्य को साबित या अस्वीकृत करने के लिए कौन से तथ्य आवश्यक हैं।

स्वीकार्यता, साक्ष्य के कानून में अवधारणा है जो यह निर्धारित करती है कि कोर्ट द्वारा साक्ष्य प्राप्त किया जा सकता है या नहीं। इंडियन एविडेंस एक्ट, 1872 के तहत जब किसी तथ्य को कानूनी रूप से प्रासंगिक घोषित किया जाता है तो वे स्वीकार्य हो जाते हैं। सभी स्वीकार्य तथ्य प्रासंगिक होते हैं लेकिन सभी प्रासंगिक तथ्य स्वीकार्य नहीं हैं। प्रासंगिकता और सबूत के बीच स्वीकार्यता एक निर्णायक कारक (डिसीसिव फैक्टर) है और केवल कानूनी रूप से प्रासंगिक तथ्य ही स्वीकार्य हैं।

इंडियन एविडेंस एक्ट, 1872 की धारा 136 के अनुसार, साक्ष्य की स्वीकार्यता पर अंतिम विवेक (डिस्क्रीशन) न्यायाधीश के पास है। इसमें कहा गया है कि जबकि दोनों में से कोई पक्षकार किसी तथ्य का साक्ष्य देने की प्रस्थापना (ऑफर) करता है, तब न्यायाधीश साक्ष्य देने की प्रस्थापना करने वाले पक्षकार से पूछ सकेगा कि अभिकथित तथ्य (एलेज्ड फैक्ट), यदि वह साबित हो जाए, किसी प्रकार सुसंगत (कोहेरेंट) होगा, और यदि न्यायाधीश यह समझता है कि वह तथ्य साबित हो गया तो सुसंगत होगा, तो वह उस साक्ष्य को ग्रहण करेगा, अन्यथा नहीं। यदि वह तथ्य, जिसका, साबित करना प्रस्थापित (सब्सटिट्यूटेड) है, ऐसा है जिसका साक्ष्य किसी अन्य तथ्य कि साबित होने पर ही स्वीकार्य होता है, तो ऐसा अन्तिम वर्णित तथ्य प्रथम वर्णित तथ्य का साक्ष्य दिए जाने के पूर्व साबित करना होगा, जब तक कि पक्षकार ऐसा तथ्य को साबित करने का वचन न दे दे न्यायालय ऐसे वचन से संतुष्ट न हो जाए। यदि एक अभिकथित तथ्य की सुसंगति अन्य अभिकथित तथ्य (एलेज्ड फैक्ट) के प्रथम साबित होने पर निर्भर हो, तो न्यायाधीश अपने विवेकानुसार या तो दूसरे तथ्य के साबित होने के पूर्व प्रथम तथ्य का साक्ष्य दिया जाना मंजूर कर सकेगा, या प्रथम तथ्य का साक्ष्य दिए जाने के पूर्व द्वितीय तथ्य का साक्ष्य दिए जाने की अपेक्षा (एक्सपेक्टेशन) कर सकेगा। साक्ष्य किसी अन्य तथ्य के प्रमाण पर ही स्वीकार्य है जब तक कि पक्ष इस तरह के तथ्य का सबूत देने का वचन नहीं देता है, और कोर्ट इस तरह के उपक्रम (अंडरटेकिंग) से संतुष्ट है। 

कोर्ट में साक्ष्य की स्वीकार्यता के लिए आवश्यक शर्तें

इंडियन एविडेंस एक्ट, 1872 की धारा 20 में किसी भी व्यक्ति द्वारा किए गए स्वीकारोक्ति को स्पष्ट रूप से पक्ष द्वारा संदर्भित (रेफर) किया जाता है। धारा में कहा गया है, किसी व्यक्ति द्वारा दिए गए किसी भी बयान को, जिसे वाद के एक पक्ष ने स्पष्ट रूप से विवादित मामले के संबंध में तथ्यों के लिए संदर्भित किया है, स्वीकारोक्ति के रूप में संदर्भित किया जाता है। यह धारा स्वीकारोक्ति के सामान्य सिद्धांत के अपवाद (एक्सेप्शन) को भी लाता है जो अजनबियों (स्ट्रेंजर्स) द्वारा किए जाते हैं। 

साक्ष्य की स्वीकार्यता तथ्य की प्रासंगिकता और विश्वसनीयता पर निर्भर करती है। साक्ष्य विशेष मामले से संबंधित नहीं होते, इसे अप्रासंगिक माना जाता है और कोर्ट में अस्वीकार्य होते है। जबकि, विश्वसनीयता एक स्रोत की साख (क्रेडिबिलिटी ऑफ सोर्स) को संदर्भित करती है जिसका उपयोग साक्ष्य के रूप में किया जाता है। 

केएम सिंह बनाम सेक्रेट्री इंडियन यूनिवर्सिटी एसोसिएशन में, कोर्ट ने कहा कि एविडेंस एक्ट की धारा 20 के तहत नामांकित व्यक्तियों (नॉमिनीज) के बयान को पक्षों के स्वीकारोक्ति के रूप में माना जाएगा। कोर्ट ने कहा कि विवाद के मामले में एक पक्ष द्वारा तीसरे व्यक्ति को संदर्भित किए जाने पर तीसरे व्यक्ति की राय पर विचार किया जाएगा।

कोर्ट्स में साक्ष्य की स्वीकार्यता

आपराधिक कार्यवाही में साक्ष्य की स्वीकार्यता

आपराधिक कार्यवाही में, साक्ष्य केवल तभी प्रस्तुत किया जा सकता है जब इसे तथ्यों या मुद्दों के लिए स्वीकार्य और प्रासंगिक माना जाता है। यहां, साक्ष्य का उपयोग यह साबित करने के लिए किया जाता है कि विवादित मामले में प्रतिवादी (डिफेंडेंट) दोषी है या नहीं या उचित संदेह से परे (बियोंड रीजनेबल डाउट) नहीं है। सामान्य नियम (रूल) यह है कि प्रतिवादी के अपराध को साबित करने के लिए सबूत का भार हमेशा अभियोजन (प्रॉसिक्यूशन) पक्ष पर होता है। आपराधिक कार्यवाही में वास्तविक कानून परिभाषित करता है कि प्रतिवादी को दोषी ठहराने के लिए अपीलकर्ता (अपीलेंट) को क्या साबित करना है। आपराधिक कार्यवाही में, अभियोजन पक्ष को प्रतिवादी के खिलाफ क्रिमिनल कोड में निर्धारित अपराध के सभी आवश्यक तत्वों को साबित करना होगा। 

सिविल कार्यवाही में साक्ष्य की स्वीकार्यता

सिविल कार्यवाही में, साक्ष्य आम तौर पर सरकारी दस्तावेजों जैसे लीज, सेल डीड, रेंट एग्रीमेंट, गिफ्टडीड्स आदि के रूप में प्रस्तुत किए जाते हैं। एक सिविल कार्यवाही में सामान्य नियम यह है कि सबूत का भार “उस व्यक्ति पर होता है जो दावा करता है कि उसे साबित करना होगा”। एक सिविल मुकदमे में, किसी तथ्य को साबित करने का कानूनी बोझ उस पक्ष पर होता है जो उस तथ्य का दावा करता है। यदि प्रतिवादी आरोपों से इनकार करता है और “प्रतिदावे (काउंटरक्लेम)” जैसे सकारात्मक चूक (पॉजिटिव डिफॉल्ट) पाता है, तो उस स्थिति में सबूत का बोझ प्रतिवादी की ओर स्थानांतरित (शिफ्ट) हो जाता है। हालांकि सिविल कार्यवाही में, पहले तो सबूत का भार  वादी (प्लेंटिफ) पर होता है, उसके बाद यह प्रतिवादी पर स्थानांतरित हो जाता है।

केस लॉ

  • लक्ष्मणदास छगनलाल भाटिया बनाम राज्य

इस मामले में, कोर्ट ने इंडियन एविडेंस एक्ट, 1876 की धारा 9 के तहत कुछ “प्रासंगिक तथ्य” निर्धारित किए। कोर्ट ने माना कि किसी मुद्दे में एक तथ्य प्रासंगिक हो जाता है यदि उसकी व्याख्या (एक्सप्लेन) या पेश (इंट्रोड्यूस) करना आवश्यक हो, या ऐसे तथ्य जो एक अनुमान (इनफ्रेंस) का समर्थन या खंडन (रिब्यूट) करते हैं, ऐसे तथ्य जो किसी चीज या व्यक्ति की पहचान स्थापित करते हैं, ऐसे तथ्य जो समय तय करते हैं और वह स्थान जहां पर कोई विवाद्यक तथ्य (फैक्ट इन इश्यू) घटित हुआ हो और कोई तथ्य जो उन पक्षों के संबंध को दर्शाता हो जिनके द्वारा किसी विवाद्यक तथ्य का लेन-देन (ट्रांसेक्टेड) किया गया था। 

  • अंबिका चरण कुंडू और अन्य बनाम डब्ल्यू कुमुदा मोहन चौधरी और अन्य

अंबिका चरण बनाम कुमुद मोहन के मामले में, धारा 11 का एक सामान्य नियम धारा 32 द्वारा नियंत्रित किया जाता है, जब साक्ष्य में मृत व्यक्तियों का बयान होता है और फिर धारा 11 के तहत ऐसे बयान की प्रासंगिकता का परीक्षण होता है। हालांकि यह धारा 32 के तहत प्रासंगिक और स्वीकार्य नहीं है यह धारा 11 के तहत स्वीकार्य या प्रासंगिक है। इसमें कहा गया है कि यह पूरी तरह से सारहीन (इम्मेटेरियल) होने पर भी स्वीकार्य है, लेकिन यह अत्यधिक भौतिक (मैटेरियल) है कि यह कहा गया था कि यह सच या गलत था।

  • स्टेट ऑफ गुजरात बनाम आशुलाल नानजी बिस्मोलो

इस मामले में कोर्ट ने माना कि अभिव्यक्ति (एक्सप्रेशन) का अर्थ “स्वीकार्य और प्रासंगिक” है, इस एक्ट में कोई निहित या स्पष्ट प्रावधान नहीं है, जिसने निर्णय सुनाने के लिए न्यायाधीश के विचार के संबंध में “स्वीकार्य और प्रासंगिक” साक्ष्य निर्धारित किए। हालांकि, यह निर्धारित नहीं किया जा सकता है कि कोई भी बयान या दस्तावेज जो स्वीकार्य या प्रासंगिक नहीं हैं उन्हें रिकॉर्ड में रखा जा सकता है या नहीं। इसलिए, एक्ट इस बात की गारंटी नहीं देता है कि जो जानकारी महत्वहीन या अस्वीकार्य है उसे रिकॉर्ड नहीं किया जा सकता है और यदि न्यायाधीश ने इसे सही नही पाया तो इसे तथ्यों के रिकॉर्ड में रखा जा सकता है। कोई भी साक्ष्य या जानकारी जो अनुपयुक्त (इनएप्रोप्रिएट) या स्वीकार्य हो सकती है, उसे रिकॉर्ड से टाला (अवॉइड) या हटाया (प्रेक्लूडेड) नहीं जा सकता है।

निष्कर्ष (कंक्लूज़न)

इसलिए, सिविल और आपराधिक दोनों कार्यवाही में साक्ष्य महत्वपूर्ण और जरुरी है। यह किसी भी कार्यवाही का सबसे अभिन्न (इंटीग्रल) और अनिवार्य तत्व है। यदि तथ्य प्रासंगिक और विश्वसनीय हैं तो साक्ष्य हमेशा कोर्ट में स्वीकार्य होना चाहिए। एविडेंस, एक्ट के तहत सभी विशिष्ट (स्पेशल) प्रावधानों को पूरा करेगा। स्वीकारोक्ति के दौरान तार्किक और कानूनी दोनों प्रासंगिकता पर विचार किया जाना चाहिए। इसलिए, कोर्ट्स को केवल उन्हीं तथ्यों को स्वीकार करना चाहिए जिनमें उच्च स्तर का संभावित मूल्य है जो कोर्ट्स की मदद करेंगे।

साक्ष्य से संबंधित कानून वर्तमान युग के लिए उपयुक्त नहीं है और बेहतर कामकाज के लिए इसमें संशोधन (अमेंडमेंट) किया जाना चाहिए। कानून सर्वोच्च है और किसी भी व्यक्ति को इसे बदलने की विवेकाधीन शक्ति (डिस्क्रिशनरी पॉवर) नहीं दी जानी चाहिए। कानून और न्यायाधीश की विवेकाधीन शक्ति के बीच अंतर होना चाहिए। हालांकि, किसी विशेष साक्ष्य को स्वीकार करने या न स्वीकार करने के लिए एक नया तंत्र (मेकेनिज्म) विकसित (डेवलप) किया जाना चाहिए।

संदर्भ (रेफरेंसेस)

 

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