भारत में दहेज मृत्यु: एक कानूनी अध्ययन

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Indian Penal Code
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यह लेख Shashwat Pratyush द्वारा लिखा गया है, जो चाणक्य नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी का छात्र है। यह लेख भारत में दहेज मृत्यु पर चर्चा करता है। इस लेख का अनुवाद Shreya Prakash द्वारा किया गया है।

सार (अब्स्ट्रैक्ट)

जब एक महिला एक बंधन में प्रवेश करती है तो उसे कई तरह की अपेक्षाएं (एक्सपेक्टेशंस) होती हैं। वह एक सुखी वैवाहिक जीवन चाहती है। वह किसी दिन माँ बनने और फिर सास, दादी-नानी वगैरह बनने की उम्मीद करेगी, और यह महिला समाज में एक सम्मानजनक स्थिति की पात्र भी हैं। लेकिन ये सब कुछ दहेज से संबंधित मौतों के क्रूर हाथों से खत्म हो जाती हैं।

दहेज हत्या पति और उसके परिवार द्वारा, एक महिला के खिलाफ समय-समय पर मांगे गए उपहारों और अन्य चीज़ों को ज़बरदस्ती से पाने के मकसद से की जाने वाली हिंसा है। भारतीय समाज में कुछ समय पहले विवाहित महिलाओं की अप्राकृतिक (अननेचुरल) मृत्यु, दहेज के अर्थ के माध्यम से महिलाओं के लिए महत्वपूर्ण है, लेकिन समय के साथ-साथ उत्पीड़न और क्रूरता कुछ हद तक अभी भी वही बनी हुई है। महिलाओं को इस सामाजिक बुराई से बचाना राज्य की जिम्मेदारी है। सरकार ने दहेज के खिलाफ, दहेज निषेध अधिनियम, 1961 (डाउरी प्रोहिबिशन एक्ट, 1961) आदि  जैसे कई कानून बनाए हैं। 21वें विधि आयोग (लॉ कमीशन) की रिपोर्ट की सिफारिश पर कुछ दंडात्मक प्रावधान (पीनल प्रोविजन) भी जोड़े गए है। दहेज मृत्यु दर (रेट) को कम करने के उद्देश्य से सरकारी और गैर-सरकारी संगठनों (नॉन-गवर्नमेंटल आर्गेनाइजेशन) द्वारा कई शैक्षिक और जागरूकता कार्यक्रम भी चलाए गए है। इस क्रूर प्रकार की सामाजिक बुराई से निपटने के लिए धारा 304 B (दहेज मृत्यु), धारा 498 A (पति या ससुराल वालों द्वारा क्रूरता यानी घरेलू हिंसा), धारा 113 B (दहेज मौत के बारे में अनुमान) को भारतीय दंड कानूनों में 1986 के आसपास, इस बुराई को मिटाने के लिए शामिल किया गया था। 

परिचय (इंट्रोडक्शन)

हमारे सामाजिक संस्था (इंस्टीट्यूशन) में शादी को एक सभ्य सामाजिक व्यवस्था माना गया है, जो की दो लोगों के बीच का एक बंधन है, जहाँ उन्होंने सामाजिक मूल्यों तथा वैवाहिक दायित्वों (वैल्यूज) का आदर करने की प्रतिज्ञा ली हो। यह मानव जाति की निरंतरता के तरह भी काम करती है। विवाह समारोह के विभिन्न अवसरों पर किए गए सभी वादों के बावजूद व्यक्तिगत असंगति (इंडिविजुअल इंकंपेटीबिलिटीज़) और गैर-समायोजन (ऐटीट्यूटि्डनल डिफरेंसेस) या समायोजन के लिए मना करने के लिए मतभेद समाप्त हो सकते हैं, लेकिन कुछ परिस्थितियां ऐसी होती है जहां पति और उनका परिवार दहेज की मांग करता हैं, लेकिन वह पूरी नहीं हो पाती है और कभी-कभी उनमें बदला लेने की भावना उत्पन्न हो जाती है।

दहेज का अर्थ बेटी की शादी में माता-पिता की संपत्ति का हस्तांतरण (ट्रांसफर) है। दहेज शादी पर, दुल्हन के परिवार द्वारा दूल्हे के परिवार को नकद या उपहार का भुगतान है। इसमें नकद, आभूषण, बिजली के उपकरण (इलेक्ट्रिकल एप्लायंसेज), फर्नीचर, क्रॉकरी, बर्तन, कार और अन्य घरेलू सामान शामिल हो सकते हैं जो नवविवाहित जोड़े को अपनी जीवन यात्रा शुरू करने में मदद करते हैं। दहेज एक प्राचीन प्रथा है, और इसके अस्तित्व (एक्सिस्टेंस) का अनुमान इतिहास से लगाया जा सकता है। दुनिया के कई हिस्सों में दहेज की अपेक्षा (एक्सपेक्ट) की जाती है और कभी-कभी इसे एक शर्त के रूप में भी उपयोग किया जाता है, जिसके स्वीकार न होने पर विवाह का अंत हो जाता है, खासकर एशिया और उत्तरी अफ्रीका के कुछ हिस्सों में। दहेज की प्रथा वर्षों से भारतीय समाज में गहरी जड़ें जमा चुकी है, यह एक सामाजिक संकट में बदल गई है, जो सुधारकों (रेफोर्मेर्स) और कानून निर्माताओं द्वारा निपटने के लिए बहुत गहरी और शैतानी है। हालांकि दहेज प्रथा को हटाने का प्रयास एक सदी से भी अधिक समय से चलता आ रहा है, लेकिन यह पिछले दो दशकों के दौरान शायद सबसे खतरनाक सामाजिक मुद्दा बन गया है। यह दहेज से संबंधित मामलों से उभर रही महिलाओं के खिलाफ बढ़ती हिंसा से प्रकट होता है। आमतौर पर यह समझा जाता है कि दहेज, अपने मूल रूप में, लालच और ज़बरदस्ती वसूली पर आधारित नहीं था, जैसा कि आज अक्सर होता है, लेकिन यह दूल्हे के लिए प्यार और सम्मान का प्रतीक था। हिंदू शास्त्रों के अनुसार “वरदक्षिणा” शब्द का मतलब स्वैच्छिक (खुद की इच्छा से) प्रकृति की दक्षिणा है, जिसके बिना कन्यादान का पुण्य कार्य पूरा नहीं होता था। दुल्हन के माता-पिता की भूमिका, बेटी को विरासत के अधिकारों के लिए सुरक्षा और मुआवजा प्रदान करना था ताकि वह अपने पति और उसके परिवार के साथ एक सम्मानजनक सम्बन्ध में रह सके।

शादियां तो स्वर्ग में होती हैं, लेकिन सास, भाभी, पति और अन्य रिश्तेदार दहेज की लालसा के लिए शादी को भंग करने में सक्रिय (एक्टिव) रूप से शामिल हो जाते हैं। दहेज हत्या, हत्या-आत्महत्या और दुल्हन को जलाना अजीबोगरीब सामाजिक बीमारी के लक्षण हैं और हमारे समाज का दुर्भाग्यपूर्ण विकास हैं। पिछले कुछ दशकों के दौरान भारत ने दहेज प्रथा की बुराई को देश के लगभग सभी हिस्सों में अधिक तेज़ रूप में देखा है क्योंकि यह समाज के लगभग हर वर्ग द्वारा चली आ रहे है; चाहे वे किसी भी धर्म, जाति या पंथ के हों। यह लगभग दिन-प्रतिदिन की बात है कि न केवल विवाहित महिलाओं को अपमानित किया जाता है, पीटा जाता है और आत्महत्या करने के लिए मजबूर किया जाता है, उनके साथ दुर्व्यवहार किया जाता है, बल्कि हजारों को जला कर मार दिया जाता है क्योंकि उनके माता-पिता दहेज की मांग को पूरा करने में असमर्थ होते हैं।

भारत में दहेज प्रथा दुल्हन के परिवार पर बहुत बड़ा आर्थिक बोझ डालती है। कानून निर्माताओं ने इस समस्या की गंभीरता और परिणाम को ध्यान में रखते हुए, कानून में खामियों को दूर करने के साथ-साथ कानून को प्रभावी बनाने के लिए नए प्रावधान बनाने के भी बहुत उपाय किए है। दहेज निषेध अधिनियम, दहेज की सामाजिक बुराई से निपटने के लिए पहला राष्ट्रीय कानून 1961 में पास किया गया था। इस अधिनियम का उद्देश्य दहेज लेने और देने पर रोक लगाना है। यह अधिनियम कई समाधान और दंडात्मक प्रावधानों को सामने लाता है लेकिन, जैसा कि पहले से पता चल सकता है, उद्देश्यों को प्राप्त नहीं किया गया है। हालांकि दहेज की समस्या आपराधिक कानून का उपयुक्त लक्ष्य नहीं हो सकती है, लेकिन दहेज से जुड़ी हिंसा, कभी-कभी खतरनाक, निश्चित रूप से आपराधिक कानून के अंदर ही आती है। दहेज से संबंधित मौतों का बढ़ता दर और दहेज कानून की असफलता के कारण आपराधिक कानून में कुछ महत्वपूर्ण परिवर्तन किए गए हैं, जैसे, आपराधिक कानून संशोधन अधिनियम (क्रिमिनल लॉ अमेंडमेंट एक्ट्स), 1983 और 1986 के रूप में किया गया हैं। भारतीय दंड संहिता में, धारा 304-B और 498-A दो नए अपराध बनाए गए हैं। धारा 304-B के तहत अपराध को दहेज हत्या कहा जाता है, जबकि धारा 498-A को पति या पति के रिश्तेदार, जो महिला को क्रूरता के अधीन करता है, उनके लिए है। आपराधिक प्रक्रिया संहिता (कोड ऑफ़ क्रिमिनल प्रोसीजर) में धारा 174 और 176 शामिल हैं जो कारणों की जांच और पूछताछ तथा पुलिस और मजिस्ट्रेट द्वारा अप्राकृतिक मौतों से संबंधित हैं, और भारतीय साक्ष्य अधिनियम (इंडियन एविडेंस एक्ट) में नई धारा 113-B को दहेज मृत्यु के मामलों में अनुमान के रूप में कहा जाता है कि जिस व्यक्ति ने महिला को उसकी मृत्यु से पहले क्रूरता या उत्पीड़न के अधीन किया है, उस व्यक्ति को दहेज़ मृत्यु के लिए दोषी मन जा सकता है।

भारतीय आपराधिक कानून में बदलाव के बावजूद दहेज से संबंधित अपराधों को समाप्त करने के लिए विधायकों द्वारा गंभीर प्रयासों को दर्शाया गया है, और ये सब कई वर्षों से प्रभावी भी साबित हो रहे हैं, लेकिन अप्रभावी होने के कारण उनकी काफी आलोचना की गई है, जबकि कानून महान शक्तियाँ देते हैं, उन्हें पुलिस या अदालतों द्वारा प्रभावी ढंग से लागू नहीं किया जाता है। किसी मामले को अदालत की सूची में आने में और पति और परिवारों को हत्या के आरोप से बरी करने में बहुत समय लगता है क्योंकि महिलाएं और उनके परिवार एक उचित संदेह के ऊपर इसे साबित नहीं कर सकते हैं। भारत में दहेज संबंधी प्रावधानों की अक्सर आलोचना की जाती है, विशेष रूप से पुलिस द्वारा यांत्रिक (मैकेनिकल) गिरफ्तारी के कारण आईपीसी की धारा 498-A का दुरुपयोग किया जाता है। प्रीति गुप्ता बनाम स्टेट ऑफ़ झारखण्ड के मामले में भी धरा 498-ए को चुनती दी गयी थी और सुप्रीम कोर्ट ने खेद जताते हुए दहेज के खिलाफ बने अधिनियम के गलत इस्तेमाल की बात की और इस पर जांच करने का भी सुझाव दिया था।

दहेज के सम्बन्ध में कानून के अधिनियम

दहेज निषेध अधिनियम, 1961

दहेज से संबंधित पहला राष्ट्रीय कानून दहेज निषेध अधिनियम, 1961 के रूप में बनाया गया था। यह अधिनियम एक निश्चित संख्या में निवारक और दंडात्मक प्रावधानों को पेश करता है, लेकिन, जैसा कि अनुमान लगाया जा सकता था, उद्देश्यों को प्राप्त नहीं किया गया है। विफलता, मुख्य रूप से कानून में कुछ दोषों के कारण नहीं है, बल्कि सरकार की ओर से इसे लागू करने के संबंध में भी है, और इस तथ्य के कारण है कि दहेज प्रथा समाज के सभी वर्गों (सेक्शंस) के बीच बहुत अच्छी तरह से फैली हुई है। सरकारी अधिकारियों की कमी यह है कि दर्ज किये गए मामलों पर कोई कार्रवाई नहीं होती है और साथ ही लोगों को कानून की जानकारी भी नहीं होती है। हालांकि कानून और न्यायपालिका (ज्यूडीशयरी) निरंतर स​​हारा प्रदान करते हैं, फिर भी आज स्थिति नहीं बदली है।

1961 में दहेज निषेध अधिनियम में दो बार बदलाव किया गया ताकि “दहेज” शब्द के अर्थ को व्यापक (वाइड) बनाया जा सके और अधिनियम के प्रावधानों के विभिन्न उल्लंघनों के लिए सजा को भी बढ़ाया जा सके। अधिनियम की धारा 2 में कहा गया है कि विवाह के संबंध में कोई भी संपत्ति या मूल्यवान सुरक्षा एक तरफ से दूसरे को दी गई या भविष्य में किसी भी रूप से देने के लिए दहेज के बराबर होती है। मूल अधिनियम में इस्तेमाल की गयी अभिव्यक्ति के अनुसार “यह, ऐसी पार्टियों के विवाह के लिए शर्त के रूप में” था, जिसका प्रयोग अदालत ने “दहेज” शब्द को एक छोटा अर्थ देने के लिए किया था। इंदर सेन बनाम स्टेट ऑफ़ पंजाब में, यह माना गया था कि “प्रतिफल (कंसीडरेशन)” शादी के मकसद या कारण, मुआवजे या इनाम तक सीमित था और इसलिए, इसके अंदर शादी के बाद मांगी गई या दी गई कोई भी संपत्ति शामिल नहीं होती थी। क़ानून के इस बंध को समाप्त करने के लिए “विवाह के बाद किसी भी समय” के वाक्य को “विवाह के बाद” के स्थान पर लाया गया है। भारतीय विवाहों में उपहार की अनुमति केवल वही है जो प्रथागत (कस्टमरी) प्रकृति की है, जो एक परिवार पर ज़्यादा बोझ नहीं बनाती हो। ऐसे उपहारों की एक सूची, मूल्य और विवरण के साथ, तैयार की जानी चाहिए और दूल्हे और दुल्हन द्वारा हस्ताक्षर किए जाने चाहिए।

संजय कुमार जैन बनाम स्टेट ऑफ़ दिल्ली  के मामले में यह कहा गया था कि “दहेज व्यवस्था हमारे समाज, लोकतंत्र और देश पर एक बड़ा कलंक और अभिशाप है। यह समझ से परे है कि हमारे समाज में दहेज हत्या की ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण और निंदनीय घटनाएँ किस प्रकार बार-बार घटित हो रही हैं। दहेज हत्या के बढ़ते खतरे से निपटने और उस पर रोक लगाने के लिए सभी प्रयास किए जाने चाहिए। विधान मंडल (लेजिस्लेचर) हमारे समाज की इस दुर्भाग्यपूर्ण वास्तविकता के बारे में गंभीर रूप से चिंतित थी और दहेज हत्याओं के बढ़ते खतरे को जड़ से रोकने के लिए दहेज निषेध अधिनियम, 1961 अधिनियमित किया गया था।

दहेज लेने और उसकी मांग करने से रोकने के लिए समय-समय पर कुछ कड़े दंडात्मक प्रावधान बनाए गए हैं या संशोधित किए गए हैं। अधिनियम की धारा 3 के तहत दहेज देना और लेना कम से कम 5 साल की सजा और 15,000 रुपये का जुर्माना या दहेज का मूल्य जो भी अधिक हो, के साथ दंडनीय है। इसी तरह दहेज की मांग भी धारा 4 के तहत छह महीने से पांच साल की अवधि के लिए दंडनीय है और 15,000 रुपये तक का जुर्माना है। कुछ संशोधनों के बाद अधिनियम इस सामाजिक खतरे को रोकने की कोशिश करता है। धारा 7 उन व्यक्तियों और एजेंसियों के बारे में बात करती है जो कार्यवाही शुरू कर सकते हैं (A) पुलिस (B) पीड़ित व्यक्ति (C) माता-पिता और रिश्तेदार (D) कोई मान्यता प्राप्त कल्याण संस्थान या संगठन धारा 8 के दायरे में गैर अपराधों को जोड़कर अधिनियम को कठोर बनाने की कोशिश की गयी है- जो की गैर-जमानती और संज्ञेय (कॉग्निजेबल) है। आगे की धारा 8A में कहा गया है कि सबूत का भार उस व्यक्ति पर होता है जो अपराध से इनकार करता है।

विवाहों में एक सामान्य पूर्वाभ्यास यह है कि दुल्हन ​​की वस्तुएं और गहने तुरंत पति द्वारा अपने कब्जे में ले लिए जाते हैं या उसके परिवार को धारा 6 के आधार पर महिला या उसके वारिसों को हस्तांतरित (ट्रांसफर) किया जा सकता है, इस तरह के कार्य में विफल रहने पर छह महीने का कारावास हो सकता है, साथ ही दो साल तक और पांच से दस हजार रुपये तक का जुर्माना भी लग सकता है। सर्वोच्च न्यायालय ने प्रतिभा रानी बनाम सूरज कुमार के मामले में माना कि दुल्हन की वस्तुओं को अपने कब्जे में लेना दंड संहिता की धारा 405 के तहत दंडनीय आपराधिक विश्वासघात (क्रिमिनल ब्रीच ऑफ़ ट्रस्ट) होगा।

1982 में अधिनियम के कामकाज की जांच करने वाली एक संयुक्त संसदीय समिति ने अधिनियम की घोर विफलता के दो कारण बताए, दहेज की दोषपूर्ण परिभाषा और बदलावी साधन की कमी है। हालांकि, दहेज की परिभाषा में संशोधन किया गया है और 1982 की समिति की रिपोर्ट के बाद प्रवर्तन प्रावधान सक्रिय रूप से काम किया गया है।

आईपीसी, 1860 (भारतीय दंड संहिता, 1860)

आपराधिक कानून का पहला लक्ष्य न केवल दहेज की समस्या तक सीमित है बल्कि दहेज से जुड़ी हिंसा भी आपराधिक कानून के दायरे में आती है। दहेज कानून की विफलता और दहेज मृत्यु दर में बढ़ाव होने के कारण वर्ष 1983 और 1986 में धारा 304 B और 498 A जोड़कर आपराधिक संशोधन किया गया। हम यह कह सकते हैं कि ऐसी चार स्थितियाँ हैं जहाँ विवाहित महिला के साथ क्रूरता और उत्पीड़न किया जाता है जिसके कारण अपराध होता है। सबसे पहले, दहेज मृत्यु-धारा 304-B आईपीसी- धारा 304 B के तहत अपराध “दहेज मृत्यु” का मतलब बताता है, जो महिला को जलने या शारीरिक चोट, या अप्राकृतिक परिस्थितियों में उसकी शादी के 7 साल के भीतर उसकी मृत्यु होती  है, जहां यह दिखाया गया है कि दहेज के संबंध में पति या उसके रिश्तेदारों द्वारा उसे परेशान किया गया था या क्रूरता से रखा गया था, जिसमें 7 साल से लेकर आजीवन कारावास तक की सजा हो सकती है। सात वर्ष की अवधि को इस कारण से सबसे कम दर की अवधि के रूप में माना जाएगा कि विवाह को पूरा होने के लिए दूल्हा और दुल्हन द्वारा सात कदम उठाए जाते है, जहां एक कदम एक वर्ष के रूप में माना जाता है। स्टेट ऑफ़ पंजाब बनाम इकबाल सिंह के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने 7 साल की अवधि को समझाया क्योंकि इसे अशांत माना जाता है, जिसके बाद विधायिका ने मान लिया हो की वो अच्छे जीवन में बस जायगी।

दहेज शब्द को भारतीय दंड संहिता में परिभाषित नहीं किया गया है, जबकि धारा 304 B यह बताता है की दहेज का वही अर्थ होगा जो दहेज निषेध अधिनियम, 1961 की धारा 2(1) में दिया गया है।

धारा 304-B के तहत दहेज हत्या की अनिवार्यता (एसें​​शियल्स)

  1. मौत, जलने या शारीरिक चोट या सामान्य परिस्थितियों के अलावा किसी अन्य कारण से हुई थी।
  2. उसकी शादी के 7 साल के भीतर मौत हो जानी चाहिए थी।
  3. महिला को पति या उसके रिश्तेदारों द्वारा क्रूरता या उत्पीड़न का शिकार होना चाहिए।
  4. दहेज की मांग के संबंध में और मृत्यु से ठीक पहले क्रूरता या उत्पीड़न होना चाहिए।

सतबीर सिंह बनाम स्टेट ऑफ़ हरियाणा के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि अभियोजन पक्ष 304 B, आईपीसी की सामग्री को स्थापित करने में सक्षम है, निर्दोषता के सबूत का भार बचाव पर चला जाता है। धारा 304 B, आईपीसी के तहत प्रावधान, दंड संहिता की धारा 498 A के तहत प्रदान किए गए प्रावधानों की तुलना में अधिक कठोर हैं। अपराध संज्ञेय, गैर-जमानती और सत्र न्यायालय द्वारा विचारणीय (ट्राईएबल) है।

मुस्तफा शहादल शेख बनाम स्टेट ऑफ़ महाराष्ट्र के मामले में कहा गया है कि धारा 304 B के तहत इस्तेमाल की जाने वाली भाषा “मृत्यु से पहले” का अर्थ है कि दंड संहिता के साथ-साथ भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 113 B के तहत कोई निश्चित अवधि का उल्लेख नहीं किया गया है। लेकिन तथ्यों के आधार पर न्यायालयों द्वारा दिए गए शब्द “मृत्यु से ठीक पहले” को हर मामले के आधार पर ही समझना होगा। हालांकि इसका मतलब यह होगा कि संबंधित क्रूरता या उत्पीड़न और संबंधित मौत के बीच का अंतराल ज्यादा नहीं होना चाहिए। यदि क्रूरता की कथित घटना, समय में दूर है और संबंधित महिला के मानसिक संतुलन को भंग न करने के लिए सही से दूर हो गई है, तो इसका कोई परिणाम नहीं होगा।

दहेज हत्या की प्रथा पर रोक लगाने के लिए दंडात्मक और निवारक उपाय करने की तुरंत ज़रूरत है। साथ ही कानून को और अधिक प्रभावी बनाया जाना चाहिए और इन अपराधों के संबंध में पुलिस को अधिक सतर्क रहना चाहिए। सर्वोच्च न्यायलय हमेशा दहेज के दुरुपयोग पर ध्यान देने की कोशिश करता है जिसके परिणामस्वरूप दहेज मृत्यु होती है। इसलिए, राजबीर बनाम स्टेट ऑफ़ हरियाणा के मामले में, शीर्ष अदालत ने सभी उच्च न्यायालयों के रजिस्ट्रार जनरलों को निर्देश दिया कि वे सभी निचली अदालतों में धारा 302, आईपीसी को धारा 304 B आईपीसी के आरोप में लगाया करें ताकि इस जघन्य (हिनीअस) और बर्बर अपराध के लिए मौत की सजा दी जा सके और कहा कि दहेज हत्या के मामलों को आईपीसी की धारा 302 और 304 B दोनों के तहत आरोपित किया जाएगा। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद दहेज हत्या के दोषी व्यक्ति पर आईपीसी की धारा 302 के साथ-साथ धारा 304-B के तहत मामला दर्ज किया जाएगा।

दूसरा, पति या रिश्तेदारों द्वारा महिला पर क्रूरता-धारा 498A A, आईपीसी:- जब उसका पति या उसके परिवार का सदस्य महिला के साथ क्रूरता या उत्पीड़न करता है, उसके पति या रिश्तेदारों द्वारा क्रूरता को, धारा 498-A के तहत 3 साल तक की कैद और जुर्माना लगाया जाएगा। क्रूरता शब्द का अर्थ मानसिक और शारीरिक यातना दोनों है। इसमें कोई भी जानबूझकर किया गया कोई कार्य भी शामिल है जिससे महिला को आत्महत्या करने के लिए प्रेरित करने या उसके जीवन, अंग या स्वास्थ्य, मानसिक या शारीरिक या उत्पीड़न के लिए खतरा पैदा करने के लिए उसे या किसी अन्य व्यक्ति को दहेज की अवैध मांग जैसे संपत्ति या किसी अन्य के लिए मजबूर करने की संभावना है। 

विजेता गजरा बनाम एनसीटी दिल्ली राज्य के मामले में यह माना गया था कि शिकायतकर्ता के खिलाफ क्रूरता पैदा करने के लिए दायित्व तय करने के लिए धारा 498 A, आईपीसी के अर्थ के भीतर पालक (फोस्टर) बहन “रिश्तेदार” नहीं है।

दहेज निषेध अधिनियम की धारा 498A, आईपीसी और धारा 4 दोहरे खतरे को आकर्षित नहीं करती है। इंदर राज मलिक बनाम सुनीता मलिक के मामले में, दिल्ली उच्च न्यायालय ने माना कि दहेज निषेध अधिनियम की धारा 4 और भारतीय दंड संहिता की धारा 498A दोनों के तहत दोषी ठहराया गया व्यक्ति भारतीय संविधान के अनुच्छेद 20 (2) के तहत दोहरे खतरे के दायरे में नहीं आता है। दहेज निषेध अधिनियम और भारतीय दंड संहिता एक दूसरे से अलग है क्योंकि दहेज की मांग पर पहले के अधिनियम में दंडनीय है, क्रूरता आवश्यक नहीं है जहां बाद में अधिनियम में क्रूरता की उपस्थिति भारतीय दंड संहिता की धारा 498 A के लिए एक आवश्यक बात है। दिल्ली उच्च न्यायालय ने इस मामले में व्यावहारिक रुख अपनाया और कहा कि ‘क्रूरता’ शब्द अच्छी तरह से परिभाषित है।

अर्नेश कुमार बनाम स्टेट ऑफ़ बिहार के मामले में याचिकाकर्ता ने तुरंत जमानत देने के लिए विशेष अनुमति याचिका (स्पेशल लीव पेटिशन) के माध्यम से सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया जिसमें वह पहले असफल रहा था। आईपीसी की धारा 498 A पति और उसके करीबी रिश्तेदारों द्वारा एक महिला को उत्पीड़न के खतरे से निपटने के लिए स्पष्ट उद्देश्य के साथ अधिनियमित की गई थी। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह एक तथ्य है कि धारा 498 A एक संज्ञेय और गैर-जमानती अपराध है जिसने इसे उस प्रावधान के बीच गर्व का एक सम्मानित स्थान दिया है जो असंतुष्ट पत्नियों द्वारा ढाल के बजाय एक हथियार के रूप में उपयोग किया जाता है। यह परेशान करने का सरल तरीका है। इस प्रावधान के तहत पति और उसके रिश्तेदारों को गिरफ्तार करवाया जाएगा। बहुत से मामलों में विदेश में रहने वाले पति के बूढ़े और बिस्तर पर पड़े माता-पिता, उनकी बहन जो एक-दूसरे से कभी नहीं मिलते हैं, उन्हें भी गिरफ्तार किया जाएगा, इसलिए शीर्ष अदालत ने आईपीसी की धारा 498 A के तहत गिरफ्तारी से पहले निम्नलिखित निर्देश दिए है : –

  1. राज्य सरकार पुलिस को बिना वारंट के गिरफ्तारी न करने का निर्देश दे, जब तक कि आवश्यकता महसूस न हो और सी.आर.पी.सी. की धारा 41 के तहत निर्धारित सभी चीज़ें पूरी न हो।
  2. सभी पुलिस अधिकारी धारा 41(1)(B)(ii) के तहत दिए गए  उप-खंडों वाली एक जांच सूची प्रदान करेंगे और उन्हें गिरफ्तारी के लिए आवश्यक कारण और सामग्री प्रस्तुत करनी होगी।
  3. मजिस्ट्रेट आरोपी को हिरासत में लेने के लिए अधिकृत करते समय पुलिस द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट का अध्ययन करेगा और इसकी संतुष्टि दर्ज करने के बाद हिरासत को पूरा कर सकता है।
  4. गिरफ्तारी न करने का निर्णय मामले की स्थापना की तारीख से दो सप्ताह के भीतर मजिस्ट्रेट को एक प्रति के साथ अग्रेषित किया गया था कि अपराध के तहत गिरफ्तारी नहीं की गई थी।
  5. जब, ऐसा व्यक्ति, किसी भी समय, नोटिस की शर्तों का पालन करने में विफल रहता है या खुद को पहचानने को तैयार नहीं होता है, तो पुलिस नोटिस में लिखे हुए अपराध के लिए गिरफ्तार कर सकती है।

तीसरा, महिलाओं की जानबूझकर मौत – धारा 302 आईपीसी: – यदि कोई व्यक्ति जानबूझकर महिला की मौत का कारण बनता है तो धारा 302 आईपीसी के तहत यह दंडनीय है।

चौथा, महिला को आत्महत्या के लिए उकसाना- धारा 306 आईपीसी: – यदि पति और उसके रिश्तेदार ऐसी स्थिति पैदा करते हैं जिसके कारण शादी के सात साल के भीतर महिला की आत्महत्या हो जाती है, तो यह धारा 306 के दायरे में आता है।

दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973  (कोड ऑफ़ क्रिमिनल प्रोसीजर, 1973)

धारा 174 और 176 क्रमशः पुलिस और मजिस्ट्रेट द्वारा अप्राकृतिक मौतों के कारणों से संबंधित जांच और पूछताछ से संबंधित है। 1983 का संशोधन अधिनियम पुलिस के लिए अनिवार्य बनाता है कि यदि महिला की मृत्यु शादी के सात साल के भीतर आत्महत्या या किसी संदिग्ध मामले में हुई हो तो उसके शव को पहले पोस्टमार्टम के लिए भेजना होगा। यह कार्यकारी मजिस्ट्रेट को समान परिस्थितियों में एक महिला की मृत्यु की जांच करने का अधिकार भी देती है।

भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (इंडियन एविडेंस एक्ट, 1872)

दहेज मृत्यु में सबूत के बोझ के संबंध में एक नया प्रावधान, धारा 113 B बनाया गया है जिसके अनुसार अदालत को यह मानना ​​​​है कि दहेज मृत्यु उस व्यक्ति के कारण हुई थी जिसने महिला को उसकी मृत्यु से पहले क्रूरता या उत्पीड़न के अधीन दिखाया था।

दहेज अपराधों की प्रकृति को देखते हुए, जो आमतौर पर आवासीय घरों के अंदर अकेले में किए जाते हैं, दोष को सही बताने के लिए आवश्यक स्वतंत्र और सही साक्ष्य प्राप्त करना आसान नहीं है। इसलिए ही 1986 के संशोधन अधिनियम 43 ने साक्ष्य अधिनियम, 1872 में धारा 113 B को जोड़ा है ताकि यदि कुछ मूल तथ्य स्थापित हों और विवाह के सात वर्ष के भीतर मृत्यु की दुर्भाग्यपूर्ण घटना हुई हो, तो एक निश्चित धारणा को उठाने की अनुमति देकर अभियोजन पक्ष को मजबूत किया जा सके।

भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 113 B में यह भी कहा गया है कि यदि यह दिखाया जाता है कि किसी महिला की मृत्यु से ठीक पहले ऐसी महिला के लिए क्रूरता या उत्पीड़न किया जाता है, या धारा 304 B आईपीसी के तहत दहेज मृत्यु की किसी भी मांग के संबंध में हो।

डब्ल्यू.बी. बनाम ओरिलाल जायसवाल के मामले में यह कहा गया है कि अनुमान के बावजूद सबूत और बचाव के मानक (स्टैंडर्ड) समान ही रहेंगे।

कानून के क्रियान्वयन में बाधाएं (इम्पीडिमेंट्स इन इम्प्लीमेंटेशन ऑफ़ लॉ)

दहेज पीड़ितों को जिस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति में रखा गया है, उसमें एक बार फिर से भारतीय कानूनी व्यवस्था कोई भी अच्छा योगदान देने में असफल रही है। कानूनों के कार्यान्वयन में शामिल लगभग सभी कारकों में दोष और कमजोरियों का पता लगाया जा सकता है: सामाजिक पहलू, पुलिस की धारणाएं और रवैया और दुर्बलताएं जो चिकित्सा-कानूनी और न्यायिक प्रणाली के कामकाज में जुडी हुई हैं, उनमे से कुछ है।

सामाजिक परिस्थिति

आपराधिक मामलों में न्याय का प्रशासन अपने आप में एक चुनौती से भरा हुआ कार्य है और यह तब और कठिन हो जाता है जब समाज में पूरी तरह से सामाजिक समर्थन न हो। आम तौर पर, परिवार के सदस्यों को छोड़कर घरेलू क्रूरता या उत्पीड़न और अप्राकृतिक मौत के कारण लेनदेन के लिए कोई गवाह नहीं होता है, जिनमें से कुछ परिवार के दबाव के कारण सहयोगी हो सकते हैं और कुछ समर्थन नहीं कर सकते हैं। अक्सर, पड़ोसी, जिनके पास अपराधियों के खिलाफ कुछ सुराग या सबूत हो सकते हैं पर वह पड़ोसी के रिश्ते को खराब करने के डर से कुछ भी गवाही देने के इच्छुक नहीं हैं। वे पुलिस और अदालती कार्यवाही के बारे में झिझकते हैं। गलत रवैये से भी बदतर, अपराधियों के पक्ष में पड़ोसियों का पक्षपात करने का रवैया है।

कई युवतियों को क्रूरता, उत्पीड़न और अप्राकृतिक मौतों से बचाया जा सकता है यदि उन्हें उचित समय पर हिंसा के स्रोत से बचा लिया जाए। पारंपरिक बाधाओं के कारण ऐसा सहारा नहीं किया जा सकता है या संभव नहीं है। दुर्व्यवहार के बावजूद, कुछ माता-पिता अपनी बेटियों को पति और उसके रिश्तेदारों के साथ रहने की सलाह देते हैं, जिसके परिणामस्वरूप कभी-कभी परिहार्य त्रासदी (अवोईडाबले ट्रेजेडी) होती है।

पुलिस और कानून प्रवर्तन (पुलिस एंड लॉ एनफोर्समेंट)

समाज में, पुलिस का काम आम जनता के लिए एक ढाल के रूप में कार्य करना है, लेकिन वास्तव में, वे पुलिस के एक कार्य से जनता के मन में भय पैदा करते हैं। पुलिस पर व्यवहार और धारणा का भी आरोप लगाया जाता है जो वर्तमान संदर्भ में कानूनों के सफल चलने की संभावना को कम करता है। पुलिस पर सार्वजनिक रूप से लगाए जाने वाले सामान्य आरोप हैं: अपराध स्थल पर बहुत देर से पहुंचना, प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करने में घटनाओं को विकृत करना, हमेशा दहेज से होने वाली मौतों को आत्महत्या के रूप में पसंद करना और जांच को कम उचित तरीके से और आराम से करना। पुलिस महिलाओं के खिलाफ हिंसा को पारिवारिक मामला मानती है और हमेशा मामला दर्ज करने को तैयार नहीं होती है। पुलिस की कुछ खामियां सुप्रीम कोर्ट के कुछ मामलों में देखी जा सकती हैं जैसे भगवंत सिंह बनाम कमिश्नर दिल्ली पुलिस यह सर्वोच्च न्यायालय द्वारा माना गया है कि अप्राकृतिक मौतों की घटनाएं पुलिस द्वारा बताई गयी मामलों की तुलना में बहुत अधिक हैं। पुलिस डायरी को ठीक से नहीं रखा जाता है और मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया जाता है। जांच अधिकारी भी बार-बार बदलते हैं जिससे जांच बुरी तरह प्रभावित होती है। पुलिस की कमियों का श्रेय भ्रष्टाचार को जाता है।

असंतोषजनक स्थिति होने पर पुलिस का अपना खुद का ही जवाब है। सबसे पहले, स्वतंत्र गवाहों के कारण अपर्याप्त साक्ष्य। मृत्यु से पहले की घोषणा, जो कि एक ठोस सबूत है, हमेशा जुड़े हुए व्यक्तियों के बयान के विपरीत होती है। फोरेंसिक साक्ष्य भी आम तौर पर मददगार होते हैं, बेहतर होगा कि घटना को देखते हुए विशेषज्ञों को पीड़ित के पास लाया जाए। चिकित्सा रिपोर्ट में अत्यधिक देरी।

न्यायपालिका

आमतौर पर, कई मौकों पर, सुप्रीम कोर्ट ने युवा दुल्हनों की मौत के बारे में पीड़ा और चौंकाने वाला विचार व्यक्त किया है। वीरभान सिंह बनाम स्टेट ऑफ़ यूपी मामले में शीर्ष अदालत ने कहा कि दुल्हनों की बढ़ती मौतों को देखते हुए, इस तरह के अपराध जब भी पाए जाते हैं और साबित होते हैं तो क्रूर कार्रवाई और निवारक दंड लगाया जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट को कुछ कहे गए दोषियों के बरी होने की चिंता है लेकिन राज्य अपील में शीर्ष अदालत का रुख नहीं किया जा सकता है। समंदर सिंह बनाम स्टेट ऑफ़ राजस्थान में अदालत ने कहा कि दुल्हन को जलाने और दहेज हत्या के मामलों में अग्रिम जमानत नहीं दी जा सकती है। अदालतों की वजह से ही कुछ असंतोष चीज़ें इस स्तर पर ही हुई है, जैसे कि 100% जलने वाला व्यक्ति मृत्युकालीन घोषणा के लिए उपयुक्त नहीं है। यदि उत्पीड़न पीड़ित की ओर से किसी अन्य मामले की सूचना नहीं दी जाती है जो भारतीय कानूनी प्रणाली (लीगल सिस्टम) में एक कमी पैदा करता है।

निष्कर्ष (कन्क्लूज़न)

दहेज हत्या एक सामाजिक अभिशाप है जो भारतीय समाज में एक जलता हुआ मुद्दा है। दहेज हत्या के दोषियों के लिए निवारक दंड लागू करके महिला कल्याण संगठनों, पुलिस, लोक सेवकों और न्यायपालिका ​​ने काफी मदद की है। यह देखा जा सकता है कि भारत सरकार भारतीय न्यायपालिका के साथ-साथ महिलाओं के जीवन हित और सम्मान की रक्षा के लिए सहकारी और सहायक कानून बनाती है और पति और उसके रिश्तेदारों द्वारा उत्पीड़न या क्रूरता के शिकार को और न्याय प्रदान करती है। शिक्षा प्रणाली में बदलाव से महिलाओं की शिक्षा की स्थिति में भी सुधार हुआ और घर-घर जाकर रोजगार सेवा से दहेज हत्या में भी कमी आएगी। फिर भी, दहेज हत्या के इस सामाजिक खतरे को कम करने या कम से कम रोकने के लिए कुछ सुधारात्मक उपायों को अपनाने की जरूरत है, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि दहेज मांगों के भौतिकवादी लालच (मटेरिअलिस्टिक ग्रीड) को दूर करने के लिए एक सार्वजनिक इच्छा को जगाने की आवश्यकता है।

दहेज हत्या, उत्पीड़न या क्रूरता की दर पर अंकुश लगाने के लिए अधिक महिला पुलिस कर्मियों को शामिल किया जाना चाहिए ताकि महिलाओं की अप्राकृतिक मृत्यु से संबंधित स्थिति में ये महिला कर्मी उपलब्ध हो सके। उचित जांच और न्याय के हित में सहायक आयुक्त के पद से नीचे की जांच नहीं की जा सकती है। आत्महत्या के लिए उकसाने की सजा को बढ़ाकर सात साल तक किया जाना चाहिए। उपर्युक्त मामले के लिए एक तर्कसंगत (रैशनल) और व्यावहारिक दृष्टिकोण (प्रैक्टिकल एप्रोच) निश्चित रूप से सहायक होगा।

एंडनोट्स 

  • Syed M. Afzal Qadri, Lotika Sarkar & Ahmad Siddique, Ahmad Siddiques criminology & penology (2009).
  • (2010) 7 SCC 667
  • 1981CriLJ 1116(Del)
  • (2011) 11 SCC 733
  • (1985) 2 SCC 370
  • (1991) 3 SCC 1
  • AIR 2005 SC 3546
  • AIR 2011 SC 568
  • AIR 2010 SC 2712
  • (1986) Cr LJ 1510
  • (2014) 8 SCC 273
  • (1994) 1 SCC 73
  • (1983) 3 SCC 344
  • (1983) 4 SCC 197
  • (1987) 1 SCC 466

 

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