भारत में फिल्म बनाने की वैधता

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Indian Cinematographic Act
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यह लेख यूनिवर्सिटी स्कूल ऑफ लॉ एंड लीगल स्टडीज, गुरु गोबिंद सिंह, इंद्रप्रस्थ विश्वविद्यालय की छात्रा Manya Dudeja द्वारा लिखा गया है। लेख भारत में फिल्म निर्माण (मेकिंग) से संबंधित कानूनों के बारे में बात करता है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय (इंट्रोडक्शन) 

फिल्म निर्माण एक कला है, और कला के किसी भी अन्य रूप की तरह, इसे भी विनियमित (रेगूलेट) किया जा सकता है।

भारत, दुनियाभर में फिल्मों का सबसे बड़ा निर्माता (प्रोड्यूसर) है। भारत में, फिल्मों ने पूरे विश्व में, देश के बारे में राय बनाने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। अत: भारत के सम्मान को बनाए रखने के लिए इसके गौरव (प्राइड) (फिल्म निर्माण) को विनियमित करना होगा।

फिल्म बनाते समय निर्माता, निर्देशक (डायरेक्टर), अभिनेता को देश के कानूनों का पालन करना होता है। फिल्म बनाने की प्रक्रिया में, फिल्मों के निर्माता अक्सर पायरेसी के मुद्दों के कारण अपने कानूनों का उल्लंघन (वॉयलेशन) करते हुए पाए जाते हैं। 19 जनवरी, 2019 को, प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने मुंबई में भारतीय सिनेमा के राष्ट्रीय संग्रहालय (नेशनल म्यूजियम) का उद्घाटन करते हुए कैमकॉर्डिंग और पायरेसी के खतरे से निपटने के बारे में बात की थी। इस लेख के माध्यम से, वैधताओं का विश्लेषण (एनालिसिस) किया जाएगा, जो भारत में फिल्म उद्योग (इंडस्ट्री) को नियंत्रित (गवर्न) और सुरक्षित करती हैं।

भारत में फिल्म बनाने के पीछे संवैधानिक प्रावधान

भारतीय संविधान का आर्टिकल 19(1)(a) देश के नागरिकों के बोलने और अभिव्यक्ति (स्पीच एंड एक्सप्रेशन) की स्वतंत्रता की रक्षा करता है। फिल्म निर्माण भी इस आर्टिकल के तहत आता है। हालांकि, यह स्वतंत्रता किसी भी तरह से पूर्ण नहीं है। इसकी सीमाएँ (लिमिटेशंस) आर्टिकल 19(2) में दी गई हैं। राष्ट्रीय हितों (इंटरेस्ट) की रक्षा के लिए यह आर्टिकल, इस स्वतंत्रता पर उचित प्रतिबंध (रिस्ट्रिक्शन) लगता है।

यहां, ‘पद्मावत’ फिल्म का प्रसिद्ध उदाहरण प्रासंगिक (रिलेवेंट) है। सेंसर बोर्ड से मंजूरी लेने के लिए फिल्म का नाम ‘पद्मावती’ से बदलकर ‘पद्मावत’ करना पड़ा था। यह प्रतिबंध, सार्वजनिक व्यवस्था (पब्लिक ऑर्डर) को बनाए रखने के लिए लगाया गया था, क्योंकि फिल्म के नाम ने विवाद पैदा किया और जाहिर तौर पर राजपूत भावनाओं को ठेस पहुंचाई थी।

भारत, में फिल्म निर्माण को नियंत्रित करने वाले अन्य कानून इंडियन सिनेमैटोग्राफ एक्ट, 1952 और सिनेमैटोग्राफ रूल्स, 1983 हैं। सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन (सी.बी.एफ.सी.) एक वैधानिक (स्टेच्यूटरी) बोर्ड है, जो फिल्मों को, सामान्य जनता के सामने प्रदर्शित (स्ट्रीम) करने से पहले, उसे रेटिंग और मंजूरी प्रदान करने के लिए जिम्मेदार है। 

सिनेमा (प्रविष्टि (एंट्री) 33) भारतीय संविधान की अनुसूची (शेड्यूल) 7 की राज्य सूची के तहत एक विषय है।

केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड के कार्य (फंक्शंस ऑफ़ द सेंट्रल बोर्ड ऑफ़ फिल्म सर्टिफिकेशन)

बोर्ड यह सुनिश्चित करता है कि कानून का उद्देश्य पूरा हो और सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए फिल्मों को प्रमाण पत्र (सर्टिफिकेट) जारी करता है। बोर्ड फिल्म को, या तो अप्रतिबंधित प्रदर्शनियां (अनरेस्ट्रिक्ट एग्जिबिशन) प्रदान कर सकता है या इसकी प्रदर्शनी को केवल वयस्कों (एडल्ट्स) तक सीमित कर सकता है।

दूसरी ओर, यह फिल्म निर्माताओं को, फिल्म के कुछ हिस्सों को बदलने या उन्हें हटाने का निर्देश भी दे सकता है। यदि आवश्यक हो, तो बोर्ड फिल्म को प्रदर्शित होने से पूरी तरह से प्रतिबंधित भी कर सकता है।

बोर्ड द्वारा प्रदान किए जाने वाले चार प्रकार के प्रमाणन (सर्टिसिकेशन) हैं:

  • यूनिवर्सल (यू): इस प्रमाणन के तहत कोई आयु सीमा नहीं है। इसे कोई भी देख सकता है। इस प्रकार की फिल्मों को अक्सर ‘पारिवारिक फिल्में’ माना जाता है।
  • अभिभावक मार्गदर्शन (पैरेंट गाइडेंस) (यू.ए.): भले ही इस प्रकार की फिल्म सभी आयु वर्ग के लोगों के लिए खुली हो, लेकिन 12 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को इसे अपने माता-पिता के मार्गदर्शन में देखना चाहिए क्योंकि इसमें विषय थोड़ा संवेदनशील (सेंसिटिव) हो सकता है।
  • केवल वयस्क (ए): इस तरह की फिल्म में दर्शकों की संख्या सीमित होती है। इसे केवल वही लोग देख सकते हैं, जो भारतीय वयस्‍कता अधिनियम (इंडियन मेजोरिटी एक्ट), 1875 के अनुसार वयस्कता (मेजोरिटी) प्राप्त कर चुके हैं या उससे अधिक उम्र के हैं। भारत के मामले में व्यसक्ता की आयु 18 वर्ष है।
  • व्यक्तियों के विशेष वर्ग के लिए प्रतिबंधित (एस): इस तरह की फिल्म की सामग्री, विषय, आदि ऐसी है कि यह लोगों या पेशेवरों (प्रोफेशनल्स) के एक विशेष वर्ग के लिए प्रासंगिक है। उदाहरण: केवल डॉक्टरों के लिए विशेष रूप से उपयुक्त फिल्म है।

प्रमाणन की इस प्रणाली का पालन, यह सुनिश्चित करने के लिए किया जाता है कि प्रदर्शनी के लिए रखी गई फिल्म जिम्मेदारी से बनाई गई है, संवेदनशील है, और हम जिस समाज में रहते हैं, उसके मानकों (स्टैंडर्ड) के अनुसार है। 

इंडियन सिनेमैटोग्राफ एक्ट का विकास

इंडियन सिनेमैटोग्राफ एक्ट, 1920

  • यह 1918 में अधिनियमित (इनेक्टेड) पहला सिनेमैटोग्राफ एक्ट था।
  • इस एक्ट के तहत, क्षेत्रीय (रीजनल) सेंसर, स्वतंत्र रूप से स्थापित किए गए थे और उन्हें सेंसर बोर्ड के रूप में जाना जाता था।
  • इन सेंसर बोर्ड को बॉम्बे, मद्रास, लाहौर, कलकत्ता और रंगून में पुलिस प्रमुखों के अधीन रखा गया था।
  • स्वतंत्रता के बाद बॉम्बे बोर्ड ऑफ फिल्म सेंसर की स्थापना की गई और क्षेत्रीय सेंसर की स्वायत्तता (ऑटोनोमी) समाप्त कर दी गई थी।

इंडियन सिनेमैटोग्राफ एक्ट, 1952

एक्ट की अंतर्दृष्टि कुछ इस प्रकार है:

  • यह एक्ट पुराने इंडियन सिनेमैटोग्राफ एक्ट, 1920 को बदलने के लिए पेश किया गया था।
  • यह एक्ट भारत में फिल्मों की सेंसरशिप के लिए वैधानिक आधार बनाता है और एक महत्वपूर्ण विधायी (लेजिस्लेटिव) एक्ट है जो फिल्म उद्योग को नियंत्रित करता है।
  • एक्ट का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि सिनेमैटोग्राफ प्रदर्शनियों को पर्याप्त रूप से नियंत्रित किया जाता है और इसमें शामिल होने वाले लोगों की सुरक्षा पर विशेष ध्यान दिया जाता है और जनता को अनुचित और आपत्तिजनक फिल्मों से बचाया जाता है।
  • एक्ट के तहत, सेंट्रल बोर्ड ऑफ फिल्म सर्टिफिकेशन को प्रत्येक फिल्म की जांच करने और जरूरत पड़ने पर उस पर प्रतिबंध लगाने और दर्शकों के प्रमाण पत्र प्रदान करने का काम सौंपा गया है।
  • फिल्में राज्य की सुरक्षा, सार्वजनिक व्यवस्था, शालीनता (डिसेंसी) और नैतिकता (मॉरलिटी) के खिलाफ नहीं होनी चाहिए। इसके कारण विश्व व्यवस्था के अन्य देशों के साथ, भारत के संबंधों में भी बाधा नहीं आनी चाहिए।
  • बोर्ड द्वारा लिए गए निर्णयों के विरुद्ध अपील की जा सकती है। मूल रूप से इन अपीलों पर केंद्र सरकार द्वारा ध्यान दिया गया था, लेकिन 1986 में, एक फिल्म प्रमाणन अपीलीय न्यायाधिकरण (ट्रिब्यूनल) द्वारा यह कार्य किया जाने लगा।
  • सिनेमैटोग्राफ एक्ट, 1952 को अब तक 1953, 1957, 1959, 1960, 1973, 1981, 1984 और 2017 तक, आठ बार संशोधित (अमेंड) किया जा चुका है। भारतीय सिनेमैटोग्राफ एक्ट, 1952 को बदलने के लिए इसे 1952 में एक बार पूरी तरह से बदल दिया गया था।

निर्णय विधि (केस लॉ)

एस. रंगा रान बनाम पी. जगजीवन राम

इस मामले में, फिल्म दर्शाती है कि जाति के आधार पर आरक्षण (रिजर्वेशन) सही नहीं है बल्कि यह भारत के लिए बुरा है और लोगों की आर्थिक स्थिति के आधार पर आरक्षण एक बेहतर अवधारणा (कांसेप्ट) है। फिल्म ने जाति के आधार पर लोगों के शोषण (एक्सप्लॉयटेशन) की भी निंदा की है।

सुप्रीम कोर्ट ने माना कि फिल्म आपत्तिजनक है और इसे प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता है क्योंकि इसने किसी भी तरह से संवैधानिक मूल्यों या सार्वजनिक नैतिकता को नुकसान नहीं पहुंचाया है। यह केवल एक अलग दृष्टिकोण (पर्सपेक्टिव) प्रस्तुत करती है, जिसके लिए फिल्म निर्माता स्वतंत्र है। दृष्टिकोण सही या गलत हो सकता है, लेकिन यहां यह चिंता का विषय नहीं है, फिल्म निर्माता के अपने विचार के अधिकार की रक्षा की जानी चाहिए, क्योंकि लोकतंत्र में यह पहली महत्वपूर्ण चीज है।

गीता राम बनाम स्टेट ऑफ हिमाचल प्रदेश

इस मामले में, अपीलकर्ता, युवा लोगों को एक अश्लील फिल्म दिखाते हुए पकड़ा गया था, जिन्होंने अभी तक वयस्कता की आयु प्राप्त नहीं की थी। फिल्म का नाम था ‘साइज मैटर’। अदालत ने अपीलकर्ताओं को भारतीय दंड संहिता की धारा 292 के साथ भारतीय दंड संहिता की धारा 32 और सिनेमैटोग्राफ एक्ट की धारा 7 के तहत दोषी ठहराया था। जब अपीलकर्ताओं द्वारा अपील दायर की गई, तो अदालत ने इसे जघन्य (हिनियस) अपराध बताते हुए इनकार कर दिया।

सिनेमैटोग्राफ (अमेंडमेंट) बिल, 2019

सूचना और प्रसारण मंत्री (राज्य) (इनफॉर्मेशन एंड ब्रॉडकास्टिंग मिनिस्टर (स्टेट)), श्री राज्यवर्धन राठौर द्वारा फरवरी 2019 में राज्यसभा में यह बिल पेश किया गया था। यह 1952 के एक्ट में संशोधन करता है।

मुख्य विशेषताएं

  • बिल, फिल्म के प्रमाणित (सर्टिफाई) होने के बाद उसके साथ छेड़छाड़ करने और प्रमाणित नहीं हुई फिल्म को सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित करने के अपराध पर जुर्माना लगाने का प्रस्ताव करता है।
  • एक फिल्म की अनधिकृत (अनऑथराइज्ड) रिकॉर्डिंग (धारा 6AA) यानी निर्माता के लिखित प्राधिकरण (ऑथराइजेशन) के बिना और रिकॉर्डिंग को प्रसारित करने पर 3 साल तक की कैद, या 3 लाख रुपये तक का जुर्माना, या दोनों हो सकते हैं।
  • भारतीय सिनेमैटोग्राफ एक्ट, 1952 की धारा 7 में एक नई उपधारा (4) जोड़ी गई है जिसमें पायरेसी और दंडात्मक प्रावधानों की परिभाषा शामिल है। धारा अधिकृत दर्शकों और फिल्मों के प्रदर्शक और बोर्ड-प्रमाणित फिल्मों के प्रदर्शन से संबंधित दंड भी देता है।

अमेंडमेंट बिल पर स्टैंडनिंग कमिटी का अवलोकन (ऑब्जर्वेशन)

  • कमिटी ने महसूस किया कि चूंकि कॉपीराइट एक्ट, 1957 के तहत रिकॉर्डिंग और पुनरुत्पादन सामग्री पहले से ही 6 महीने से 3 साल के कारावास के साथ दंडनीय है, इसलिए इस कानून में प्रावधान जोड़ने की आवश्यकता नहीं है।
  • कमिटी ने कॉपीराइट एक्ट के तहत पाइरेसी पर अंकुश लगाने वाले प्रावधानों को प्रभावी तरीके से लागू करने के बारे में भी चिंता व्यक्त की है।
  • भले ही बिल निर्दिष्ट अपराध के मामले में कारावास की अधिकतम (मैक्सिमम) अवधि 3 साल और अधिकतम जुर्माना 10 लाख रुपये निर्दिष्ट (स्पेसिफाई) करता है, लेकिन यह कारावास की न्यूनतम (मिनिमम) अवधि और न्यूनतम जुर्माना जो लगाया जा सकता है, निर्दिष्ट नहीं करता है। कमिटी का मानना ​​है कि इन प्रावधानों को बिल में जोड़ा जाना चाहिए।
  • कमिटी ने 10 लाख रुपये के जुर्माने को भी अपर्याप्त पाया और सिफारिश की कि इसे बढ़ाया जाना चाहिए। इसने एक फिल्म की सकल उत्पादन लागत (ग्रॉस प्रोडक्शन कॉस्ट) जैसा कि ऑडिट किया गया था, का 5%-10% की सीमा तक अधिकतम जुर्माना प्रस्तावित किया।
  • बिल में अपराध की प्रकृति के बारे में अस्पष्टता मौजूद है, जैसे कि यह जमानती (बेलेबल) या गैर-जमानती (नॉन-बेलेबल) है। इस चूक को दूर करने के बारे में भी बोला गया था।
  • बिल में उचित उपयोग (फेयर यूज) का प्रावधान शामिल नहीं है। इसे उन लोगों की सुरक्षा के लिए शामिल किया जाना चाहिए जो गैर-व्यावसायिक (नॉन-कमर्शियल) उद्देश्यों के लिए छोटी क्लिप का उपयोग करते हैं, जैसे कि सोशल मीडिया पर फिल्म की समीक्षा (रिव्यू) के लिए। भले ही इसे कॉपीराइट एक्ट में शामिल किया गया हो, लेकिन इसे सिनेमैटोग्राफ एक्ट में भी शामिल किया जाना चाहिए।
  • बिल “जानबूझकर (नोइंगली)” शब्द को परिभाषित नहीं करता है, जब यह लोगों को बिना अनुमति के जानबूझकर फिल्म की कॉपी बनाने से प्रतिबंधित (प्रोहिबिट) करने की बात करता है। निर्दोष लोगों को सजा से बचाने के लिए ऐसा किया जाना चाहिए।
  • कमिटी ने महसूस किया कि एक्ट को अपडेट करने की आवश्यकता है और यह समय के संदर्भ के अनुसार नहीं है। प्रमाणन के कुछ मुद्दों को हल करने के लिए कानून को अपडेट करने की आवश्यकता है।
  • कमिटी, डिजिटल अर्थव्यवस्था एक्ट (डिजिटल इकोनॉमी एक्ट) के समान राष्ट्रीय स्तर के कानून बनाने की सिफारिश करती है। चूंकि भारत ने जालसाजी विरोधी व्यापार समझौतों (एंटी-काउंटरफीटिंग ट्रेड एग्रीमेंट) पर हस्ताक्षर नहीं किए हैं, इसलिए सीमा पार से समुद्री पायरेसी को समाप्त करने के लिए एक तंत्र (मैकेनिज्म) विकसित करने की आवश्यकता है।

अमेंडमेंट बिल के संभावित लाभ

  • इससे उद्योग के राजस्व (रिवेन्यू) में वृद्धि होगी, क्योंकि कम कीमतों पर या मुफ्त में पायरेटेड फिल्मों के प्रचलन (सर्कुलेशन) से उद्योग को भारी नुकसान होता है।
  • इससे रोजगार को बढ़ावा मिलेगा।
  • कैमकॉर्डिंग और पायरेसी को दंडित करने से यह एक्ट, फिल्म निर्माताओं को राहत देकर भारत की राष्ट्रीय बौद्धिक संपदा (इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी) नीति के उद्देश्यों के अनुरूप होगा।
  • यदि संशोधन बिल पास हो जाता है, तो यह एक विश्वसनीय प्रतिरोध (डिट्रेंस) पैदा करेगा और फिल्म उद्योग को प्रोत्साहित करेगा।

अमेंडमेंट बिल की संभावित कमियां

  • बिल में स्पष्टता की कमी के कुछ मुद्दे हैं। इससे गलत व्याख्या (इंटरप्रिटेशन) हो सकती है और लोगों के हितों को खतरा हो सकता है।
  • चूंकि बिल सिनेमा हॉल में मोबाइल फोन या अन्य इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का उपयोग करने वाले ग्राहकों पर सख्त निगरानी रखेगा, इससे ग्राहक परेशान हो सकते हैं और वे प्रदान की जाने वाली सेवाओं से असंतुष्ट महसूस कर सकते हैं।

कुछ अन्य महत्वपूर्ण कानून

कॉपीराइट एक्ट, 1957

कॉपीराइट एक्ट, 1957 की धारा 52 की उपधारा (1) का खंड (क्लॉज) (C), 2013 के कॉपीराइट नियमों के नियम 75 के साथ पठित, फिल्मों की चोरी के खतरे से संबंधित है। कॉपीराइट एक्ट की धारा 63 के तहत कॉपीराइट का उल्लंघन एक संज्ञेय (कॉग्निजेबल) अपराध है।

सजा: अपराधी को कम से कम 6 महीने की कैद, जिसे 3 साल तक बढ़ाया जा सकता है और कम से कम 50 हजार रुपये का जुर्माना, जो 2 लाख रुपये तक हो सकता है, से दंडित किया जाएगा।

द कस्टम्स एक्ट, 1962

इस एक्ट के तहत, फिल्मों सहित किसी मामले के आयात (इंपोर्ट) पर प्रतिबंध लगाया जा सकता है यदि यह भारत की सुरक्षा को प्रभावित करता है।

  • इन्फॉर्मेशन एंड ब्रॉडकेटिंग मिनिस्ट्री ने सिनेमैटोग्राफिक एक्ट में प्रस्तावित 2019 संशोधन को, यह कहते हुए उचित ठहराया है कि कॉपीराइट एक्ट की धारा 51 के तहत प्रावधान पायरेसी के खतरे को रोकने के लिए अपर्याप्त साबित हुए हैं और इसके लिए सिनेमैटोग्राफिक एक्ट में एक विशिष्ट (स्पेसिफिक) सख्त प्रावधान जोड़ा जाना चाहिए। 

हालांकि, कमिटी ने महसूस किया कि कॉपीराइट एक्ट को अप्रभावी माना गया है, क्योंकि इसे उस तरह की गंभीरता के साथ लागू नहीं किया गया है जिसकी उसे आवश्यकता है।

निष्कर्ष (कंक्लूज़न)

समय, तकनीक और लोग हमेशा बदल रहे हैं, इसलिए कानूनों को समय के उद्देश्य की पूर्ति करनी चाहिए, जैसा कि हमारे पूर्वजों ने भारत के संविधान को विकसित करते समय कल्पना की थी। विभिन्न प्रावधान और एक्ट एक बदलते समाज की जरूरतों को पूरा करने के लिए नए दृष्टिकोण और नए प्रावधान लाते हैं, जबकि यह अपने साथ अस्पष्टता और कमियां भी लाते है, जो कुछ को संतुष्ट करती हैं। विवाद और चर्चा के माध्यम से सकारात्मक (पॉजिटिव) प्रावधानों की सराहना (एप्रिशिएट) की जाएगी और असंतोष से, फिल्म निर्माताओं, दर्शकों और सरकार द्वारा प्रयास और बातचीत के माध्यम से समय की उचित प्रक्रिया के द्वारा निपटा जाएगा।

संदर्भ (रेफरेंसेस)

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