इंटरनेट का अधिकार: एक मौलिक अधिकार

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यह लेख Prithiviraj Dey द्वारा लिखा गया है, जो लॉसिखो से एडवांस्ड सिविल लिटिगेशन: प्रैक्टिस, प्रोसीजर एंड ड्राफ्टिंग में सर्टिफिकेट कोर्स कर रहे हैं। यह लेख भारतीय संविधान के तहत इंटरनेट का अधिकार एक मौलिक अधिकार है से संबंधित है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja द्वारा किया गया है।

परिचय (इंट्रोडक्शन)

इंटरनेट का अधिकार, इंटरनेट के उपयोग के अधिकार और इंटरनेट पर बोलने और अपने आप को व्यक्त करने के अधिकार के दो पहलुओं का समर्थन करता है, जो उसके सकारात्मक (पॉजिटिव) और नकारात्मक (नेगेटिव) रूप मे हैं। इंटरनेट के अधिकार को रेखांकित करने वाले कई विचारात्मक (कांसेप्चुअल) और सैद्धांतिक (थियोरिटिकल) मुद्दे हैं। यहां जो महत्त्वपूर्ण प्रश्न उठता है वह यह है कि हमारी कानूनी प्रणाली (लीगल सिस्टम) के अंदर इंटरनेट के अधिकार का स्थान क्या है? क्या यह अधिकार केवल नागरिकों के पास है या सर्वत्र (यूनिवर्सल) रूप से लोगों के पास है? यदि इसे पहले अर्थ के रूप में लिया जाता है, तो यह सुझाव देता है कि यह अधिकार केवल वैधानिक (स्टेच्युटरी) है और यदि बाद वाले अर्थ के रूप में समझा जाए, तो यह एक प्रकार का मानव अधिकार (ह्यूमन राइट) है। यहां पर अधिकार की प्रकृति के बारे में प्रश्न है कि वह प्राकृतिक है या मौलिक (फंडामेंटल) है।

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इसके अलावा, यदि इसे सकारात्मक अधिकार के रूप में माना जाता है, तो राज्य का यह दायित्व (ऑब्लिगेशन) होता है कि वह अपने नागरिकों को, यह अधिकार विचारपूर्ण (मीनिंगफुल) तरीके से प्रदान करें। इस लेख में, हम इंटरनेट के अधिकार को उसके नकारात्मक और सकारात्मक दोनों रूपों को पहचानने के लिए न्यायिक हस्तक्षेप (ज्यूडिशियल इंटरवेंशन) के दायरे को देखेंगे।

19(1)(a) और 19(1)(g) के तहत इंटरनेट का अधिकार

इंटरनेट के माध्यम पर बोलने और अभिव्यक्ति (स्पीच एंड एक्सप्रेशन) की स्वतंत्रता और किसी भी पेशे (प्रोफेशन) का अभ्यास करने का अधिकार, या किसी भी व्यवसाय (ऑक्यूपेशन), या व्यापार को करने के अधिकार को, अनुराधा भसीन बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया के मामले में, माननीय सर्वोच्च न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट) द्वारा आर्टिकल 19(1)(a) और 19(1)(g) के तहत, संवैधानिक (कांस्टीट्यूशनल) रूप से सुरक्षित करने के लिए आयोजित (हेल्ड) किया गया था। इस प्रकार, आर्टिकल 19(2) और 19(6) के तहत प्रतिबंधों (रिस्ट्रिक्शंस) के अधीन इंटरनेट के एक नकारात्मक अधिकार को मान्यता दी गई थी।

इंटरनेट के माध्यम पर बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार और किसी भी पेशे का अभ्यास करने के अधिकार, या किसी भी व्यवसाय या व्यापार को चलाने के अधिकार पर कोई प्रतिबंध, यदि राज्य द्वारा आर्टिकल 19 के तहत लगाया जाता है, तो उसे आनुपातिकता परीक्षण (प्रोपोर्शनैलिटी टेस्ट) से गुजरना पड़ेगा, जिसे के.एस. पुट्टस्वामी बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया के निर्णय द्वारा निम्नलिखित प्रकार से बताया गया था की:

  1. मौलिक अधिकारों में हस्तक्षेप करने वाला कानून एक राज्य के वैध उद्देश्य के अनुसार होना चाहिए;
  2. अधिकारों का उल्लंघन (इंफ्रिंज) करने वाले उपायों (मेजर), जो मौलिक अधिकारों और स्वतंत्रता के प्रयोग में हस्तक्षेप करता या उन्हें सीमित करते है, का औचित्य (जस्टिफिकेशन) तर्कसंगत (रैशनल) संबंध के अस्तित्व (एक्सिस्टेंस) पर आधारित होना चाहिए, जो वास्तव में घटित स्थिति और उससे प्राप्त होने वाले उद्देश्य के आधार पर होने चाहिए;
  3. उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए उल्लंघन करने वाले उपाय आवश्यक होने चाहिए और लक्ष्य को पूरा करने के लिए आवश्यक सीमा से अधिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं होना चाहिए;
  4. प्रतिबंध को न केवल वैध उद्देश्यों की पूर्ति करनी चाहिए बल्कि उन्हें उनकी रक्षा के लिए भी आवश्यक होना चाहिए; तथा
  5. राज्य को पर्याप्त प्रक्रियात्मक (प्रोसिजरल) सुरक्षा प्रदान करनी चाहिए।

अनुराधा भसीन बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया, या इंटरनेट के अधिकार के सकारात्मक पहलू में, इंटरनेट का उपयोग करने के प्रश्न को अदालत द्वारा उचित तर्क में निर्धारित (डिटरमाइन) करने के लिए छोड़ दिया गया था क्योंकि इस संबंध में अभिवचन (प्लीडिंग) नहीं किए गए थे। यह हमें इस सवाल पर ले जाता है कि, क्या भविष्य में, न्यायिक हस्तक्षेप के माध्यम से हमारी कानूनी प्रणाली के अंदर इंटरनेट का उपयोग करने के अधिकार को निर्धारित किया जा सकता है और ऐसा कैसे किया जा सकता है?

इंटरनेट को इस्तेमाल करने का अधिकार

आम तौर पर देखा जाए तो ऐसे दो विचार हैं जो विचारपूर्ण उपयोग के अधिकार की मान्यता के बारे में बात करते हैं, जिसने विद्वानों (स्कॉलर्स) का बहुत ध्यान आकर्षित किया है। पहला यह कि, विचारपूर्ण तरीके से इंटरनेट का उपयोग करने का अधिकार तब लाया जा सकता है, जब राज्य समान पहुंच को सक्षम करने के दृष्टिकोण (व्यू) से बाजार की स्थितियों और संसाधनों (रिसोर्सेज) के वितरण (डिस्ट्रीब्यूशन) के संबंध में नियम बनाने का विकल्प चुनता है। इस दृष्टिकोण की जड़ें संविधान के आर्टिकल 19(1)(a) और 21 में हैं। दूसरा इस बात के बारे में बताता है कि राज्य द्वारा इंटरनेट के अधिकार को, मौजूदा अंतरराष्ट्रीय मानवाधिकार दायित्वों से, इंटरनेट का उपयोग करने के एक वैधानिक, सुई जेनेरिस अधिकार के रूप में मान्यता दी जानी चाहिए।

आर्टिकल 21 के तहत इंटरनेट का अधिकार

फहीमा शिरीन बनाम स्टेट ऑफ़ केरल में अपने हाल ही के फैसले में, उच्च न्यायालय (हाई कोर्ट) ने माना है कि मोबाइल फोन और इसके माध्यम से इंटरनेट का उपयोग दिन-प्रतिदिन के जीवन का एक अभिन्न हिस्सा है। न्यायालय ने संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद (यूनाइटेड नेशंस ह्यूमन राइट्स काउंसिल) और महासभा (जनरल असेंबली) द्वारा अपनाए गए प्रस्तावों को देखा, जो स्पष्ट रूप से इस तथ्य की ओर इशारा करते हैं कि सूचना तक पहुँचने और शिक्षा और ज्ञान के साथ इसके गहरे संबंध में इंटरनेट का उपयोग कैसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। अदालत ने विचार किया कि, इंटरनेट का उपयोग करने में सक्षम होने का अधिकार जीवन और स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार के साथ-साथ आर्टिकल 21 के तहत गोपनीयता (प्राइवेसी) के तहत भी आता है। अदालत ने कहा कि यह बोलने और अभिव्यक्ति स्वतंत्रता के बुनियादी ढांचे का एक अनिवार्य हिस्सा है।

इसके विपरीत इंटरनेट के जनक मिस्टर विंटन जी सेर्फ़ का तर्क है। उन्होंने तर्क दिया कि हालांकि, इंटरनेट बहुत महत्वपूर्ण है, लेकिन इसे मानव अधिकार का दर्जा नहीं दिया जा सकता है। उनके अनुसार टेक्नोलॉजी, अधिकारों को लागू करने का साधन है न कि अपने आप में ही एक अधिकार है।

इंटरनेट के माध्यम से बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का सार्थक प्रयोग, उपलब्ध बुनियादी ढांचे तक पहुंच पर, अनिवार्य रूप से और अविभाज्य (इनेक्सट्रिकेबल) रूप से निर्भर है। बुनियादी ढांचा बदले में सामाजिक और आर्थिक कारकों (फैक्ट्स) पर निर्भर करता है जैसे संसाधनों का वितरण; राज्य की नीतियां (पॉलिसी) और संसाधनों के रेगुलेशन की प्रकृति में उसका हस्तक्षेप (इंटरवेंशन) है।

यदि मुझे अपनी बात कहने और अभिव्यक्त करने की स्वतंत्रता है, तो मेरे पास उसको लागू करने के लिए आवश्यक साधन और रास्ते भी होने चाहिए। आर्टिकल 19(1)(a) के तहत अधिकार के प्रयोग की पृष्ठभूमि (बैकड्रॉप) में छिपी एक आर्थिक और सामाजिक पूर्व शर्त यहां महत्व रखती है। इस पूर्व शर्त को सक्षम करने में राज्य की भूमिका हमारे देश में और संयुक्त राज्य अमेरिका में उनके पहले संशोधन न्यायशास्त्र (फर्स्ट अमेंडमेंट ज्यूरिस्प्रूडेंस) के तहत बहस का विषय रही थी।

क्योंकि माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने इंटरनेट के माध्यम से बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार को मान्यता दी है, इसलिए, हम यह देखने के लिए, इसके विभिन्न निर्णयों को पढ़ सकते हैं कि क्या न्यायपालिका (ज्यूडिशियरी) द्वारा इंटरनेट इस्तेमाल करने के अधिकार को मान्यता दी जा सकती है। आर्टिकल 19(1)(a) और 19(2) के तहत माननीय सर्वोच्च न्यायालय के न्यायशास्त्र में विवर्तनिक (टेक्टोनिक) और परस्पर विरोधी (कॉन्फ्लिक्टिंग) बदलाव, हमें इस पहलू को समझने में मदद करेंगे।

स्वतंत्र बोलने का उदारवादी सिद्धांत (लिबर्टेरियन थ्योरी ऑफ़ फ्री स्पीच)

उदारवादी अवधारणा (लिबर्टेरियन कंसेप्शन), आय और संसाधनों (रिसोर्सेज) के मौजूदा वितरण (डिस्ट्रीब्यूशन) को देखती है, और परिणामी असमान बोलने वाली शक्ति जो उत्पन्न होती है, उसे अनदेखा कर देती है। यह स्थिति को सुधारने के लिए डिज़ाइन किए गए किसी भी राज्य के हस्तक्षेप को प्रतिबंधित करता है। इसे बेहतर ढंग से समझा जा सकता है यदि हम अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट के फैसले को देखें, जब उसने पहली बार बुकले बनाम वेलियो में अभियान वित्त नियमों (कैंपेन फाइनेंस रेगुलेशंस) को रद्द कर दिया था, जिसमें यह कहा गया था, की “यह अवधारणा, कि सरकार दूसरों की सापेक्ष आवाज को बढ़ाने के लिए कुछ लोगों के बोलने को प्रतिबंधित कर सकती है, वह पहले संशोधन के लिए पूरी तरह से अलग है।

यह सिद्धांत, उदारवादी विचार को दर्शाता है जो राज्य की भूमिका को प्रतिबंधित करता है और इन कानूनों के मौजूदा ढांचे के अंदर लोग क्या कर सकते हैं, इस पर सरकार द्वारा लगाए गए किसी भी विनियमन (रेगुलेशन) को प्रतिबंधित करता है। हम माननीय सर्वोच्च न्यायालय के कुछ निर्णयों में भी इस तरह के विचार को देख सकते हैं।

सकल पेपर्स बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया के मामले में, सरकार ने मूल्य-पर-पेज से संबंधित नियम जारी किए। यह अनिवार्य रूप से एक समाचार पत्र की कीमत को उसके साइज से संबंधित था। विनियमन के कारण, समाचार पत्र एजेंसी को कम कीमतें बनाए रखनी पड़ती थीं, अर्थात, समाचार पत्रों का साइज कम करना होगा और इसके परिणामस्वरूप उसमें कंटेंट को भी कम करना होगा। समाचार पत्रों ने आर्टिकल 19(1)(a) को चुनौती दी।

सरकार ने इस उपाय को एकाधिकार के खिलाफ (एंटी मोनोपोलिस्टिक) करार देकर चुनौती का जवाब दिया। इसके अलावा, उनका उद्देश्य अच्छे, नए समाचार पत्रों के प्रसार (प्रोलिफरेशन) को सुनिश्चित करना था। पहले से ही स्थापित समाचार पत्रों की कीमतें कम रखने का मतलब बाजार में अन्य समाचार पत्रों के प्रवेश में रुकावट को दूर करना था। कोर्ट ने इस उपाय को ‘सार्वजनिक हित (पब्लिक इंटरेस्ट)’ में किए गए उपाय के रूप में माना। फिर भी, ‘जनहित’ के आधार पर आर्टिकल 19(2) को संरक्षण नहीं मिला, कोर्ट ने माना कि यह विनियमन असंवैधानिक था और समाचार पत्रों के दावों को बरकरार रखा।

इस निर्णय का प्रभाव यह था कि यदि कोई व्यक्ति समाचार पत्र स्थापित करता है, तो बाजार में चलती आ रही, महंगी आर्थिक स्थितियों ने उसके लिए ऐसा करना असंभव बना दिया है। इस प्रकार, इस मामले में आकांक्षी समाचार पत्रों को अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सार्थक प्रयोग करने में असमर्थता (इनेबिलिटी) का सामना करना पड़ा। लेकिन स्वतंत्रता समाप्त नहीं हुई थी और इसलिए इसने फिर भी उनके बोलने या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उल्लंघन नहीं किया। आर्टिकल 19(1)(a) बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को सुरक्षा प्रदान करता है, न कि बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का प्रभावी या सार्थक प्रयोग, इसलिए कोई संवैधानिक उल्लंघन नहीं था।

बेनेट कोलमैन बनाम यूनियन ऑफ इंडिया एक ऐसा मामला था जिसमें, न्यूजप्रिंट ऑर्डर 1962 और  द न्यूजप्रिंट पॉलिसी, 1972 को कोर्ट में चुनौती दी गई थी। न्यूज़प्रिंट ऑर्डर ने उन शर्तों को प्रतिबंधित कर दिया जिनके तहत न्यूज़प्रिंट आयात (इंपोर्ट) किया जा सकता था और न्यूज़प्रिंट पॉलिसी ने ‘सामान्य स्वामित्व इकाइयों (कॉमन ओनरशिप यूनिट्स)’ को प्रतिबंधित कर दिया था, पेजेस की संख्या को दस तक सीमित कर दिया गया था और दस से कम पेजेस वाले समाचार पत्रों के लिए पेज स्तर (लेवल) में 20 प्रतिशत की वृद्धि की अनुमति दी थी।

एकाधिकार की रोकथाम (प्रिवेंशन) और छोटे समाचार पत्रों के विकास को बढ़ावा देने जैसे आधारों पर राज्य द्वारा पॉलिसी का बचाव किया गया था। बहुमत ने नीति को रद्द कर दिया क्योंकि इसका प्रचलन (सर्कुलेशन) पर प्रभाव था और उनके अनुसार यह बोलने की स्वतंत्रता पर एक प्रतिबंध था, जिसे आर्टिकल 19(2) के तहत किसी भी आधार से नहीं बचाया गया था। मूल्य-और-पेज नियंत्रण के रूप में, मौजूदा बाजार में इसे राज्य द्वारा हस्तक्षेप को स्वतंत्रता को प्रभावित करने वाला माना जाता है। परीक्षण (टेस्ट) यह था कि क्या किसी कानून का ‘प्रत्यक्ष प्रभाव’ बोलने की स्वतंत्रता को रोकना है।

उपरोक्त दो निर्णय हमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की उदारवादी धारणा के प्रति सर्वोच्च न्यायालय का झुकाव दिखाते हैं।

स्वतंत्र बोलने का सामाजिक-लोकतांत्रिक सिद्धांत (द सोशियो डेमोक्रेटिक थ्योरी ऑफ फ्री स्पीच)

कभी-कभी यह राज्य के लिए आवश्यक हो जाता है कि वह सार्वजनिक विमर्श (डिस्कोर्स) की मजबूती को आगे बढ़ाने के लिए कार्य करे और उन लोगों को सार्वजनिक संसाधन (पब्लिक रिसोर्सेज) (जैसे की मेगाफोन देना) प्रदान करे, जिनकी आवाज सुनने की आवश्यकता हो सकती है। ऐसे में, दूसरों की आवाज सुनने के लिए उसे कुछ लोगो की आवाज को चुप कराना भी पड़ सकता है। यह उदारवादी दृष्टिकोण के बिल्कुल विपरीत है।

एक्सप्रेस न्यूजपेपर्स बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला, सकाल न्यूजपेपर्स और बेनेट कोलमैन के विपरीत प्रस्तुत हुआ। एक्सप्रेस समाचार पत्रों में एक ऐसे कानून को चुनौती शामिल थी, जो सभी कार्यरत पत्रकारों (वर्किंग जर्नलिस्ट) को भुगतान किए जाने वाले न्यूनतम (मिनिमम) वेतन को निर्धारित (डिटरमाइन) करता था। यह तर्क दिया गया था कि निर्धारित न्यूनतम वेतन बहुत अधिक था ताकि समाचार पत्रों को व्यवसाय से बाहर किया जा सके और यह आर्टिकल 19 के संदर्भ में एक अनुचित प्रतिबंध था। हालांकि, एक्सप्रेस समाचार पत्रों में, न्यायालय ने कहा कि बोलने की स्वतंत्रता को रोका नहीं गया था। इस विनियमन को बरकरार रखा गया, क्योंकि न्यायालय के अनुसार, न्यूनतम वेतन कानून का इरादा या ‘लगभग प्रभाव (प्रॉक्सिमेट इफेक्ट)’ पत्रकारों की आर्थिक स्थिति में सुधार लाना था। यह तर्क कि, अंतिम परिणाम प्रचलन (सर्कुलेशन) में गिरावट होगी, को आकस्मिक (इंसीडेंटल), दूरस्थ (रिमोट) और अप्रत्यक्ष (इंडायरेक्ट) के रूप में खारिज कर दिया गया था।

अलेक्जेंडर मेइकलेजॉन ने यू.एस.ए. के संविधान के पहले संशोधन के संबंध में यह कहा था कि, यह बोलने को रोकता नहीं है। लेकिन, साथ ही, यह बोलने की स्वतंत्रता को कम करने से मना करता है।

बेनेट कोलमैन बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया में जस्टिस मैथ्यू की असहमति, बोलने को संक्षिप्त (एब्रिज) करने और बोलने की स्वतंत्रता को कम करने के बीच मिकलेजोह्नियन के अंतर पर आधारित है। बेनेट कोलमैन में, समाचार पत्रों की कमी सरकारी कार्रवाई पर निर्भर करती थी, इसलिए एक अखबार के पेज की संख्या पर प्रतिबंध लग सकता था। आर्टिकल 19(1)(a) में दी गई स्वतंत्रता, व्यक्ति पर केंद्रित है और फिर भी न्यायमूर्ति मैथ्यू हमें एक बड़ा, समुदाय उन्मुख (कम्युनिटी ओरिएंटेड) लक्ष्य देते है, जिसे समाज को प्राप्त करने की आवश्यकता होती है। उनका मानना ​​है कि लोकतंत्र को संपन्न और सार्थक होना चाहिए, और हम एक सूचित समाज के आदर्श को तब ही प्राप्त कर सकते हैं जब, विचारों और दृष्टिकोणों की बहुलता (मल्टीपलीसिटी), विविधता (डायवर्सिटी) और वैरायटी मौजूद हो। 

न्यायमूर्ति मैथ्यू ने इस विचार को स्वीकार किया कि, एक बड़े समुदाय को, बोलने की स्वतंत्रता का प्रयोग करने के लिए बुनियादी ढांचे तक पहुंच पाने के लिए, यह आवश्यक हो जाता है कि सरकार ऐसी पहुंच और बाजार की स्थितियों को नियंत्रित करे ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि संसाधन केवल कुछ हाथों में केंद्रित नहीं हैं। क्योंकि न्यूज़प्रिंट पॉलिसी, अपने एकाधिकार विरोधी उद्देश्यों में, विचारों को सार्वजनिक डोमेन में रखने का उद्देश्य रखती है, इसलिए न्यायमूर्ति मैथ्यू ने इसे संवैधानिक रूप से मान्य माना। वह आर्टिकल 19(1)(a) के तहत एक अधिक सूक्ष्म (न्यूंस्ड) और वास्तविक संस्करण (वर्जन) प्रदान करते है।

बोलने की स्वतंत्रता जैसा कि हम समझते हैं, इसमें “बोलना” और “न बोलना” दोनों तत्व शामिल हैं। न बोलने के तत्व को विनियमित करने में पर्याप्त रूप से जरूरी सरकारी हित (इंटरेस्ट), बोलने की स्वतंत्रता पर आकस्मिक सीमाओं को उचित बता सकता है। कोर्ट ने आगे कहा कि एक सरकारी विनियमन पर्याप्त रूप से उचित हो सकता है, यदि वह सरकार की संवैधानिक शक्ति के अंदर है; यदि यह एक महत्वपूर्ण या पर्याप्त सरकारी हित को आगे बढ़ाता है।

जस्टिस होम्स ने अपने पहले संशोधन निर्णयों में जो कहा, उसे श्रेय देते हुए, जस्टिस मैथ्यू ने स्वतंत्रता की सुरक्षा के लिए 4 आवश्यक मूल्यों के बारे में बताया। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जरूरी है :

  • व्यक्तिगत पूर्ति के लिए,
  • सत्य की प्राप्ति के लिए,
  • राजनीतिक या सामाजिक निर्णय लेने में समाज के सदस्यों द्वारा भाग लेने के लिए, और
  • समाज में स्थिरता (स्टेबिलिटी) और बदलाव के बीच संतुलन (बैलेंस) बनाए रखने के लिए।

जस्टिस मैथ्यू ने अब्राम्स बनाम यूनाइटेड स्टेट्स में होम्सियन फर्स्ट अमेंडमेंट के दृष्टिकोण पर ध्यान देते हुए कहा: “तत्काल अच्छा होने की इच्छा तक विचारों की मुक्तता से जल्द पहुंचा जा सकता है- की अच्छाई की असली परीक्षा यह विचारों की शक्ति है जिसे मार्केट की प्रतिस्पर्धा (कंपटीशन) में स्वीकार किया जाता है।”

मिकलेजोन के अनुसार “जो आवश्यक है”, “यह नहीं है कि हर कोई बोलेगा, लेकिन यह कि जो कुछ कहने योग्य है केवल वह ही कहा जाएगा”।

न्यायमूर्ति मैथ्यू हमें आर्टिकल 19(1)(a) की व्याख्या प्रदान करते हैं, जो इस विचार पर केंद्रित है कि अगर निजी समूहों द्वारा प्रभावी रूप से इसके उपयोग पर रोक लगाई जाती है, तो बोलने की स्वतंत्रता का आश्वासन देने में सरकार का हाथ रोकना बेकार साबित होता है। अभिव्यक्ति पर सरकारी प्रतिबंध के खिलाफ संवैधानिक निषेध तभी प्रभावी होता है, जब संविधान चर्चा के लिए पर्याप्त अवसर सुनिश्चित करता है।

राज्य को अपने नागरिकों की अलग-अलग आर्थिक और सामाजिक स्थितियों को ध्यान में रखना चाहिए और कैसे ये अंतर उनके मूल अधिकारों के प्रयोग में समान पहुंच में बाधा डालते हैं यह भी ध्यान रखना चाहिए। जस्टिस मैथ्यू हमें राज्य के संवैधानिक दायित्व की याद दिलाते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति को वास्तविक समानता प्राप्त करने में सक्षम बनाया जाना चाहिए। वह डायरेक्टिव प्रिंसिपल्स ऑफ स्टेट पॉलिसी को इन्वोक करते हैं, हालांकि वह लागू नहीं हो सकते लेकिन, यह तर्क देने के लिए कि आर्टिकल 39(B) के तहत संविधान, समुदाय के भौतिक (मटेरियल) संसाधनों के वितरण के लिए सामान्य भलाई के लिए प्रस्तुत करता है।

यूनियन ऑफ इंडिया बनाम मोशन पिक्चर एसोसिएशन में याचिकाकर्ताओं ने सरकारी अधिसूचनाओं (नोटिफिकेशन) और नियमों और सिनेमैटोग्राफ अधिनियम के प्रावधानों (प्रोविजंस) को चुनौती दी थी। इसने सरकार को लाइसेंसधारी द्वारा प्रदर्शित फिल्मों और इसके अतिरिक्त अन्य फिल्मों को प्रदर्शित करने में सक्षम बनाया जो लाइसेंसधारी प्रदर्शित कर रहा था। कोर्ट को चुनौती में कोई तर्क नहीं मिला। उसने कहा कि आर्टिकल 19(1)(a) के तहत यह विचारों, सूचनाओं और ज्ञान के प्रसार को बढ़ावा देने के समान है।

इस मामले में, जिन प्रावधानों को चुनौती दी गई थी, वह बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को आगे बढ़ाने के लिए थे और इसके परिणामस्वरूप उसे रोका नहीं गया था। मुद्दा यह नहीं बनाया गया था कि क्या प्रतिबंध आर्टिकल 19(2) के तहत दिए गए औचित्य (जस्टिफिकेशन) के आधार पर आधारित था। आर्टिकल 19(1)(a) को व्यक्तिगत अधिकार के रूप में समझने के बजाय सामाजिक भलाई के दृष्टिकोण से देखा गया।

एल.आई.सी. बनाम मनुभाई डी. शाह के मामले में, प्रतिवादी (रिस्पॉन्डेंट) ने एक पेपर प्रकाशित (पब्लिश) किया था जिसमें उन्होंने एल.आई.सी. की बीमा योजनाओं से संबंधित कुछ मुद्दों पर प्रकाश डाला था। एक एल.आई.सी. कर्मचारी ने बदले में एक समाचार पत्र में एक रिस्पॉन्स प्रकाशित किया, जिसका प्रतिवादी ने प्रत्युत्तर (रिजाइंडर) में जवाब दिया। एल.आई.सी. कर्मचारी का लेखन एक बार एल.आई.सी. की इन-हाउस पत्रिका में भी प्रकाशित हुआ था, लेकिन जब प्रतिवादी ने अनुरोध किया कि उसका प्रत्युत्तर वहां प्रकाशित किया जाए, तो इसे अस्वीकार कर दिया गया। कोर्ट ने माना कि एल.आई.सी. की चुनौती अनुचित थी। अदालत ने निष्पक्षता के सिद्धांत (डॉक्ट्रिन ऑफ़ फेयरनेस) का आह्वान किया (जो संयुक्त राज्य में विकसित हुआ है) जो मांग करता है कि दोनों दृष्टिकोण पाठकों के सामने रखे जाने चाहिए। इस मामले में न्यायालय ने यह सुनिश्चित करने के बड़े, सामुदायिक लक्ष्य को श्रेय दिया कि जनता को विवादास्पद मुद्दों के संतुलन का ज्ञान होना चाहिए।

सेक्रेटरी, मिनिस्ट्री ऑफ़ इनफार्मेशन एंड ब्रॉडकास्टिंग बनाम बंगाल क्रिकेट एसोसिएशन ने भारतीय टेलीग्राफ अधिनियम से निपटा, जिसने सरकार में एयरवेव के लिए बुनियादी ढांचे को बनाए रखने का एकाधिकार निहित (वेस्ट) किया। सरकार ने क्रिकेट एसोसिएशन ऑफ बंगाल को कुछ क्रिकेट मैचों के प्रसारण की अनुमति नहीं दी। बोर्ड ने तर्क दिया कि यह आर्टिकल 19(1)(a) प्रसारण के अधिकार के साथ-साथ दर्शकों के, आर्टिकल 19(1)(a) के तहत देखने के अधिकार का उल्लंघन है। दूसरी ओर सरकार ने तर्क दिया कि एयरवेव के एक छोटा संसाधन होने के कारण, एयरवेव फ्रीक्वेंसी को चुनिंदा रूप से वितरित करना उसका विशेषाधिकार (प्रेरोगेटिव) था। यह तर्क, बहुमत के पक्ष में नहीं था और यह कि प्रसारण के उद्देश्य के लिए एक फ्रीक्वेंसी का स्वामित्व (ऑनर) होना, उस समय एक महंगा कार्य था। जब अधिक या असीमित फ्रीक्वेंसी होती हैं, तो केवल कुछ संपन्न लोग ही उनका स्वामित्व करने की स्थिति में होते हैं और इसका उपयोग अपने स्वयं के हित के लिए करते हैं।

किसी मुद्दे के संबंध में सभी पक्षों को, सच्ची जानकारी के उपयोग से वंचित (डिनाई) करके, बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए एक गुप्त खतरा, जो किसी भी विषय पर एक राय बनाने के लिए आवश्यक है, वह भी सामने आता है। निष्पक्षता का सिद्धांत, अमेरिका में निजी प्रसारकों के संदर्भ में विकसित हुआ है, जिन्हें एफ.सी.सी. जैसी केंद्रीय एजेंसी के साथ सीमित फ्रीक्वेंसी को साझा करने के लिए लाइसेंस दिया गया है, ताकि प्रोग्रामिंग को विनियमित करने के लिए एक एकाधिकार-विरोधी शासन स्थापित किया जा सके। इसलिए, इस मामले में भारतीय प्रेस परिषद (काउंसिल) जैसे एक स्वतंत्र निकाय (बॉडी) के महत्व को महसूस किया गया, जिसे निष्पक्ष रूप से सौंपा जाएगा, न कि एयरवेव फ्रीक्वेंसी का चयनात्मक वितरण। अदालत ने इस मामले में समाज के सभी वर्गों (सेक्शन) के समान वितरण प्रतिनिधि (डिस्ट्रीब्यूशन रिप्रेजेंटेशन) का समर्थन किया। फैसले के करीब से देखने से पता चलता है कि बोलने का बुनियादी ढांचा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के साथ घनिष्ठ (क्लोज़) रूप से जुड़ा हुआ है।

यह सब सुप्रीम कोर्ट के कुछ फैसले हैं, जो बोलने की स्वतंत्रता के सामाजिक-लोकतांत्रिक सिद्धांत के बारे में बताते हैं। अनियंत्रित (अनरेगुलेटेड) बाजार, एकाधिकार और संसाधनों के एकाग्रता (कंसंट्रेशन) के विरुद्ध कोई सुरक्षा उपाय प्रदान नहीं करते हैं। बाजार एक साधन है और अपने आप में एक अंत नहीं है, जिसका उपयोग विनियमों के हस्तक्षेप के माध्यम से सार्वजनिक डोमेन में विचारों और उनकी विविधता लाने के लिए किया जाता है। इस प्रकार, यदि राज्य भविष्य में बाजार को विनियमित करने का विकल्प चुनता है और कुछ लोगों के हाथों में एकाग्रता के विपरीत इंटरनेट तक जनता की अधिक पहुंच सुनिश्चित करने के लिए एकाधिकार विरोधी उपाय करता है, तो वह ऐसा कर सकता है।

इंटरनेट का अधिकार और गैर-राज्य कर्ता (राइट टू इंटरनेट एंड नॉन स्टेट एक्टर्स)

इंटरनेट के अधिकार का एक अन्य महत्वपूर्ण पहलू, सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म जैसे गैर-राज्य कर्ता (नॉन स्टेट एक्टर्स) द्वारा बोलने और अभिव्यक्ति के अधिकार का विनियमन है। क्या एक नागरिक, जब ट्विटर जैसे गैर-राज्य कर्ता, आर्टिकल 19(1)(a) के तहत अपने अधिकार का उल्लंघन करता है, तो उसके पास इसे न्यायालय में लागू करने का उपाय है? संविधान के आर्टिकल 226 के तहत, दिल्ली उच्च न्यायालय (हाई कोर्ट) के समक्ष अपने अकाउंट को स्थायी (परमानेंट) रूप से हटाने के ट्विटर के फैसले को चुनौती देने वाले सीनियर एडवोकेट संजय हेगड़े का हाल ही का मामला हमें इस प्रश्न पर ले जाता है। केस कानूनों के अवलोकन से पता चलता है कि भारतीय अदालतों ने किसी भी गैर-राज्य अभिनेता को केवल इसलिए राज्य के रूप में नहीं माना है क्योंकि वे सार्वजनिक प्रदर्शन करते हैं। 

केस कानूनों के अवलोकन (पर्सुअल) से पता चलता है कि भारतीय अदालतों ने किसी गैर-राज्य कर्ता को केवल इसलिए राज्य के रूप में नहीं रखा है क्योंकि वे एक सार्वजनिक कार्य करते हैं। राज्य के रूप में एक निजी कर्ता को पकड़ने के लिए अदालतों द्वारा उपयोग किए जाने वाले दो परीक्षण हैं:

  • गैर-राज्य कर्ता द्वारा प्रदान किया गया कार्य या सेवा राज्य के संप्रभु (सॉवरेन) कार्यों से निकटता से संबंधित होना चाहिए; या
  • गैर-राज्य कर्ता को सरकार द्वारा “कार्यात्मक (फंक्शनल), प्रशासनिक (एडमिनिस्ट्रेटिव) और वित्तीय (फाइनेंशियल) रूप से नियंत्रित” होना चाहिए।

चूंकि, निजी सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म दूसरे परीक्षण में स्पष्ट रूप से विफल हो जाते हैं, तो यह संभावना नहीं है कि एक नागरिक उनके खिलाफ अपने अधिकारों को लागू कर सकता है। निःसंदेह, सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म व्यक्तियों को अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के अधिकार का प्रयोग करने के लिए एक मंच प्रदान करके एक महत्वपूर्ण सार्वजनिक कार्य करते हैं।

निष्कर्ष (कंक्लूज़न)

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के सामाजिक-लोकतांत्रिक सिद्धांत के अधिक वास्तविक दृष्टिकोण को देखते हुए, इंटरनेट के अधिकार को राज्य द्वारा स्पष्ट रूप से मान्यता दिए जाने की आवश्यकता है। अधिकार की मान्यता व्यक्त करने के लिए, राज्य को हस्तक्षेप करने और बाजार को विनियमित करने और इंटरनेट तक सार्थक पहुंच के संबंध में पॉलिसी निर्धारित करने की सख्त आवश्यकता है। इंटरनेट के उपयोग की स्थिति में सुधार लाने के उद्देश्य से राज्य की उदारता इस बात पर निर्भर करती है कि क्या राज्य इस संबंध में डिजिटल इंडिया और इसी तरह की कई योजनाओं और कार्यक्रमों को शुरू करने का विकल्प चुनता है, या क्या वह डेटा कनेक्टिविटी के बाजार को विनियमित करने का विकल्प चुनता है और गैर-राज्य कर्ताओं के दायित्व को पास करके (जो फिर से आर्टिकल 19(1)(g) चुनौती के अधीन हो सकता है)।

इसलिए, हम देख सकते हैं कि भारत में इंटरनेट का उपयोग करने का अधिकार बहुत तेजी से आगे बढ़ रहा है। महामारी के इस कठिन समय में, जब शिक्षा और हमारी दिन-प्रतिदिन की ज्यादातर गतिविधियां इंटरनेट के उपयोग पर निर्भर हैं, यह उचित और सबसे उपयुक्त क्षण बन जाता है कि राज्य द्वारा जनता के भले के लिए इस अधिकार को एक सामाजिक उपाय के रूप में मान्यता दी जाए। 

संदर्भ (रेफरेंसेस)

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