यह लेख आई.एल.एस. लॉ कॉलेज, पुणे के छात्र Shubham Gurav और Bodhi Ramteke द्वारा लिखा गया है। इस लेख में, उन्होंने मॉब लिंचिंग की अवधारणा (कांसेप्ट), भारत में इसका वर्तमान परिदृश्य (सिनेरियो) और इससे संबंधित कानूनों के बारे में बताया है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja द्वारा किया गया है।
Table of Contents
परिचय (इंट्रोडक्शन)
“सांप्रदायिक भावनाओं (कम्युनल पैशन) को भड़काने के लिए जिम्मेदार हेट स्पीच के कानून के संबंध में, भारत में अहम वास्तविकता, कानून का दुरुपयोग नहीं, बल्कि इसे लागू करने से लगातार लिए जाने वाला इनकार है।”
‘हम लोग’- संविधान, भारत के संस्थापक (फाउंडिंग) दस्तावेज के शुरुआती शब्द- समाज, साझा (शेयर्ड) संस्कृति और इतिहास, और नागरिक संबद्धता (एफिलिएशन) की धारणा (परसेप्शन) जोड़ते है, यह एक ऐसी धारणा है जिस पर, भारत के लंबे इतिहास में पूछताछ की गई है। भारत, दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था (इकोनॉमी) मे से एक है जो, लिंचिंग की बढ़ती घटनाओं के कारण, अपनी अखंडता (इंटीग्रिटी) और विकास के लिए खतरे का सामना कर रहा है। यह उन घृणा (हेट) अपराधों में से एक है जो, संरचित (स्ट्रक्चर्ड) घृणा अभियानों (कैंपेंस) के माध्यम से उपदेशात्मक जागरूकता (इंडॉक्ट्रिनेटिंग विजिलेंस) की भाषा बन गई है। भारत में मॉब लिंचिंग, लोकतंत्र (डेमोक्रेसी) के लिए एक बड़ा धार्मिक और राजनीतिक-कानूनी संकट है, जिसके लिए जल्द से जल्द समाधान की आवश्यकता है।
धर्म को, जब राजनीतिक समर्थन (सपोर्ट) द्वारा सहायता प्रदान की जाती है, तो व्यक्तियों के मन में घृणा का लाने के लिए इसका प्रयोग किया जाता है, जिससे अपराधी को इस तरह के अपराध को निडरता से करने में सहायता मिलती है। उन सामुदायिक बलो (कम्युनिटी फोर्सेज) में उल्लेखनीय (नोटिसेबल) वृद्धि हुई है, जो दंडात्मक (प्युनिटिव) अतिरिक्त-न्यायिक उपाय (एक्स्ट्रा ज्यूडिशियल मेजर्स) लेके हिंसा फैलाने में सफल रहे हैं, जिसमें अफवाहों ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। व्यक्तियों को एक विशिष्ट (स्पेसिफिक) समूह, धर्म या जाति से संबंधित होने के संदेह के तुच्छ (इनसिग्निफिकेंट) आधार पर निष्पादित (एक्जीक्यूट) किया जाता है या पिटाई के लगातार खतरे में डाला जाता हैं। यह रवैया समाज को एक फासीवादी राज्य (फेसिस्ट स्टेट) में बदल देता है, क्योंकि व्यक्ति, जो अपने नेताओं का चुनाव करते हैं, उन्हे बंदूक की नोक पर चुप्पी बनाए रखनी पढ़ती हैं, जिससे अपराधियों की नैतिक वैधता (मोरल लेजिटिमेसी) को मजबूती मिलती हैं।
यह लेख, लोगों की, कानून के अतिरिक्त मौत देने की दंडात्मक शक्ति के साथ एक नस्लीय समूह (रेशनलाइज्ड ग्रुप) के लोगों की भागीदारी (पार्टिसिपेशन) और कैसे यह उन लोगो के प्रत्यक्ष (ऑस्टेंसिबल) निर्णय से व्यक्ति के व्यक्तिगत अधिकार को प्रभावित करने वाले भीड़तंत्र (मोबोक्रेसी) में वृद्धि को बढ़ावा देता है, जो निर्णायक (कनक्लूसिवली) रूप से लोकतंत्र पर हमला है, के मुद्दों पर जांच करता है।
संविधान जो, एक व्यापक (एक्सटेंसिव), शानदार दस्तावेज है, उसको एक लोकतांत्रिक स्वायत्त (डेमोक्रेटिक ऑटोनॉमस) देश के रूप में भारत की उपलब्धि के लिए जिम्मेदार ठहराया जाना चाहिए। यह पवित्र पुस्तक प्रमुख दस्तावेज है, और इस ग्रंथ के आने के साथ, भारत ने ‘कानून के शासन (रूल ऑफ़ लॉ)’ को अपनाया था। कानून के शासन को, इसके लागू करने के तंत्र (मशीनरी) के साथ, लोगों को मनमाने सिद्धांत (आर्बिटरी प्रिंसिपल्स) और सभी को न्याय प्रदान करने की सुरक्षा की भूमिका सौंपी गई थी। सामाजिक (सोशल) व्यवहार को रेगुलेट करने के लिए कानून लागू करने वाली एजेंसियां मनमाने ढंग से कार्य नहीं कर सकती हैं, लेकिन वे भूमि के कानून (लॉ ऑफ़ द लैंड) द्वारा शासित होती हैं। कानून का सबसे महत्वपूर्ण लक्ष्य एक व्यवस्थित समाज बनाना है, जहां नागरिक बदलाव और प्रगति के सपने देखते है, और व्यक्तिगत आकांक्षा (एक्सपेक्टेशन) अपनी क्षमता की अभिव्यक्ति (एक्सप्रेशन) के लिए जगह ढूंढती है। ऐसे माहौल में जहां हर नागरिक संवैधानिक और वैधानिक (स्टैच्यूटरी) कानून के तहत दिए गए अधिकारों और हितों (इंटरेस्ट) का आनंद लेने का हकदार है, वह भी कानून के आदेश के प्रति आज्ञाकारी रहने के लिए बाध्य (ऑब्लिगेट) है।
तहसीन एस. पूनावाला बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा की “कानून के गौराव (मैजेस्टी) को केवल इसलिए नहीं माना जा सकता है क्योंकि एक व्यक्ति या एक समूह यह दृष्टिकोण उत्पन्न करता है कि उन्हें कानून के सिद्धांतों (प्रिंसिपल्स) द्वारा सशक्त (एंपावर) किया गया है, की वह कानून को लागू करने की शक्ति अपने हाथों में लें और धीरे-धीरे स्वयं के लिए कानून बन जाएं और उल्लंघनकर्ता (वॉयलेटर) को अपने अनुसार और जिस तरह से वे उचित समझें, उसे दंडित करें। वे भूल जाते हैं कि कानून का प्रशासन, कानून लागू करने वाली एजेंसीज को दिया जाता है और किसी को भी उनके “निर्णय की तुच्छ भावना (शैलो स्पिरिट)” की कल्पना पर कानून को अपने हाथ में लेने की अनुमति नहीं है। जिस तरह एक को कानून में अपने अधिकारों के लिए लड़ने का अधिकार है, उसी प्रकार दूसरे को तब तक निर्दोष माना जाता है जब तक कि वह निष्पक्ष सुनवाई (जस्ट ट्रायल) के बाद दोषी नहीं पाया जाता। कानून के संरक्षकों (प्रोटेक्टर्स) की आड़ में किसी भी तरह के समुदाय द्वारा, किसी नागरिक के कार्य पर न्याय नहीं किया जाना चाहिए।”
हालांकि, दुनिया भर में व्यक्ति कानून को अपने हाथ में लेते हैं और व्यक्तियों को उस तरह से दंडित करते रहे हैं जैसा वे उचित समझते हैं। वह सही और गलत की अपनी व्यक्तिगत धारणाओं से प्रेरित होकर, क्रूर (बर्बर) व्यवहार करते हैं। इस तरह के कार्यों का परिणाम, हत्या जैसा गंभीर हो सकता है, जिसे आमतौर पर किसी व्यक्ति द्वारा नही बल्कि व्यक्तियों के समूह द्वारा अंजाम दिया जाता है। चरम विश्वासों (एक्सट्रीम बिलीफ्स) से प्रेरित और इसके विपरीत किसी अन्य विश्वास पर हमला करने के संकल्प (रिसॉल्व) द्वारा आक्रामक (एग्रेसिव) बनाया गया ऐसा कार्य, संक्षेप (शॉर्ट) में, मॉब लिंचिंग है।
हाल के वर्षों में, भारत में मॉब लिंचिंग की गतिविधियों में काफी वृद्धि हुई है। इस तरह की ज्यादातर घटनाओं में लोगों के एक नस्लीय समूह द्वारा स्वभाविक हमला शामिल है, जो पीड़ित के कार्य को परंपराओं और धर्म के खिलाफ एक हड़ताल के रूप में मानते हैं।
मॉब लिंचिंग का अर्थ
लिंचिंग कोई नई घटना नहीं है, बल्कि यह दुनिया भर में हर समय रही है। लिंच कानून शब्द एक अपने आप बनाई गई कोर्ट को संदर्भित (रेफर) करता है, जो कानून की उचित प्रक्रिया (ड्यू प्रोसेस ऑफ़ लॉ) के बिना किसी व्यक्ति को सजा देता है। दोनों शब्द चार्ल्स लिंच (1736–96), जो एक वर्जीनिया प्लांटर और शांति के जस्टिस थे, के नाम से लिए गए हैं, जिन्होंने अमेरिकी क्रांति (रिवॉल्यूशन) के दौरान वफादारों (लॉयलिस्ट) को दंडित करने के लिए एक अनियमित (इरेगुलर) कोर्ट का नेतृत्व (हेड) किया था। फ़ित्ज़ुग ब्रुंडेज कहते हैं, “लिंचिंग, एक शिकार की फैलोशिप के साथ, एक समुदाय की जरूरतों को पूरा करने के आदर को जोड़ती है,” आम तौर पर, लिंचिंग एक हत्या करने की आक्रामकता (एग्रेशन) है, जिसे, एक व्यक्ति या कुछ व्यक्तियों द्वारा किए गए अपराधिक कार्य या किसी जघन्य (हिनियस) अपराध की प्रवृत्ति (टेंडेंसी) को दबाने के लिए, क्रोधित भीड़ द्वारा उन्हें दंड देने (अक्सर हत्या) के रूप में परिभाषित किया जाता है। अपराध इतना क्रूर होता है कि यह सामाजिक रूप से भीड़ को इकट्ठा करने के लिए घृणा उत्पन्न करता है, ताकि अपराधी को मारा जा सके।
अमेरिका में एन.ए.ए.सी.पी. (नेशनल एसोसिएशन फॉर द एडवांसमेंट ऑफ कलर्ड पीपल) द्वारा लिंचिंग की सामान्य परिभाषा यह है कि:
- इस बात का सबूत होना चाहिए कि एक व्यक्ति मारा गया था;
- व्यक्ति की मृत्यु अवैध रूप से हुई हो;
- तीन या अधिक व्यक्तियों के समूह ने हत्याओं में भाग लिया हो; और
- हत्या सार्वजनिक रूप से की गई हो।
इस प्रकार, लिंचिंग अकथनीय (अनस्पीकेबल) दहशत (हॉरर) का कार्य है। यह सत्ता की पूर्ण असममिति (असीमेट्री) है। यह एक व्यक्ति के विरुद्ध लोगो की एक भीड़ है, जहां अक्सर व्यक्ति के पास कोई रक्षा नहीं होता और वह जीवन के लिए भीख मांगता है।
भारत में वर्तमान परिदृश्य (करंट सिनेरियो इन इंडिया)
भारत में लिंचिंग में, छोटे-मोटे अपराधों के आरोपियों, हत्या और बलात्कार के आरोपी व्यक्तियों और भीड़ द्वारा भगदड़ के रूप में माने जाने वाले व्यक्ति की लिंचिंग भी शामिल हैं। लिंचिंग से होने वाली मौतों का मुख्य कारण विच-हंट्स है जो देश में बर्बर जाति व्यवस्था और अन्य धार्मिक रूप से संचालित (ड्राइवन) कारणों का परिणाम रहा है।
भारत में लिंचिंग की घटनाओं की संख्या बढ़ती जा रही है। इस सारी वृद्धि के साथ, विशेष रूप से गौरक्षकों (कॉउ विजिलेंट्स) द्वारा मॉब लिंचिंग का बढ़ना भी शामिल है। देश में उथल-पुथल के बीच में निष्क्रिय (इंडोलेंट) पशु गाय है। जबकि यह बहुसंख्यक हिंदुओं के लिए पवित्र और माता के समान है; गाय की हत्या अल्पसंख्यक (माइनोरिटी) मुसलमानों के लिए आय का एक स्रोत है। गोहत्या पर सरकार के प्रतिबंध (बैन) के बाद गोरक्षक समूह, हत्या, व्यापार या गोमांस खाने के संदिग्ध (सस्पेक्टेड) लोगों को बेरहमी से मार रहे हैं।
2015 की दादरी लिंचिंग ने मीडिया का बहुत ध्यान आकर्षित किया था। 28-9-2015 को, 52 वर्षीय लोहार को उत्तर प्रदेश के दादरी जिले के बिशहर गांव में उसके घर से बाहर घसीटा गया था, जब एक स्थानीय हिंदू मंदिर ने घोषणा की, कि एक गाय की हत्या उसके द्वारा की गई थी, जिसे कई हिंदुओं द्वारा पवित्र माना जाता है। उसे पीट-पीट कर मार डाला गया और उसका बेटा गंभीर रूप से घायल हो गया। बाद में, फोरेंसिक रिपोर्ट से पता चला कि मांस मटन था, बीफ नहीं। 18th मार्च 2016 को मजलूम अंसारी, 32 और इम्तियाज अंसारी, 12 अपने मवेशियों को मेले में ले जा रहे थे, तो झारखंड के झाबर गांव के पास भीड़ ने उनके साथ मारपीट की। उनके शव पेड़ से लटके हुए थे। 25 मई 2015 को दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रों की भीड़ ने एक ई-रिक्शा चालक को पीटा, जिसने दो छात्रों को सार्वजनिक जगह पर पेशाब करने से रोकने की कोशिश की। 1 जुलाई 2018 को, जिला मुख्यालय (डिस्ट्रिक्ट हेडक्वार्टर) से लगभग 100 किलोमीटर दूर, रेनपाड़ा गांव में नाथ गोसावी समुदाय के पांच लोगों को भीड़ ने बेरहमी से पीटा, जिससे उनकी मौत हो गई। ऐसा माना जाता है कि यह हमला, क्षेत्र में एक बच्चा उठाने वाले गिरोह (गैंग) की अफवाह के कारण हुआ था। 16 अप्रैल की रात को, महाराष्ट्र के पालघर जिले में लगभग 400 लोगों की भीड़ द्वारा दो साधुओं को उनके ड्राइवर के साथ, बच्चा चोरों के रूप में पीटा गया था।
हत्या के जघन्य अपराध के लिए लिंचिंग एक और नाम है। विशेषज्ञों (एक्सपर्ट्स) के अनुसार, इस तरह के भयानक अपराध को अंजाम देने के लिए, एक विशेष वातावरण और एक विश्वास प्रणाली (सिस्टम) की आवश्यकता होती है, ताकि ऐसे भयावह अपराध को करने के लिए अल्पभाषिता (रेटीसेंस) को दूर किया जा सके। ऐसा वातावरण तब बनता है जब लोग मानते हैं कि उनके पास इस जिम्मेदारी को पूरा करने का अधिकार है और वे पीड़ित को समाज के सदस्य के रूप में पहचानना बंद कर देते हैं। पूरे समुदाय का प्रतिनिधित्व (रिप्रेजेंटेशन) करने की जिम्मेदारी, न्याय देने में राज्य की क्षमता (कंपीटेंस) में अविश्वास होना, जब अफवाहों के साथ जुड़ता है, तो एक विचार शुरू होता है कि एक व्यक्ति ने दूसरे व्यक्ति की हत्या नहीं की है, लेकिन समुदाय उस अपराधी को दंडित कर रहा है, जिसने अपनी स्वयं की नैतिकता और धार्मिक भावनाओं का उल्लंघन (वॉयलेट) किया है।
इस मुद्दे का राजनीतिकरण (पॉलिटिसाइजेशन) दंड से मुक्ति की भावना को खत्म कर देता है- एक भावना कि हम इसे कर सकते हैं और इसे दूर हो सकते हैं क्योंकि सरकार हमारे साथ है। यह हमारी सरकार है। जब एक केंद्रीय मंत्री एक लिंचिंग के दोषियों की प्रशंसा करता है, तो इससे दोषियों को लगता है कि उन्होंने कुछ बड़ा किया है। एक व्यक्ति को जब दोषी ठहराया जाता है, फिर जमानत दी जाती है और फिर एक मंत्री व्यक्ति को माला पहनाता है, निश्चित रूप से दंड से मुक्त करने और कलंक की भावना को जोड़ देता है।
भारतीय कानून और उन्हें लागू करने में विफलता
आपराधिक कानून ऐसे में अमान्य हो जाते हैं क्योंकि ऐसा कोई कानून या प्रावधान नहीं है जो मॉब लिंचिंग को अपराधी बनाता है। हालांकि आई.पी.सी. में हत्या, कल्पेबल होमीसाइड, दंगा (राइअटिंग) और अनलॉफुल असेंबली के प्रावधान हैं, लेकिन किसी व्यक्ति को मारने के लिए सामूहिक रूप से आने वाले समूह के लिए कोई प्रावधान नहीं है। कोड ऑफ क्रिमिनल प्रोसिजर (सीआरपीसी) की धारा 223(A) के तहत, “एक ही कार्य” के दौरान एक ही अपराध करने वाले दो या दो से अधिक आरोपियों को दंडित करना संभव है। हालांकि, मॉब लिंचिंग के अपराधियों को दंडित करने का प्रावधान नहीं है। मॉब लिंचिंग के खिलाफ राष्ट्रीय अभियान ने हिंसक लिंचिंग से सुरक्षा के लिए लिंचिंग एक्ट, 2017 का ड्राफ्ट तैयार किया था।
भेदभाव के खिलाफ अधिकार, आर्टिकल 14 में प्रदान किया गया है, जो भारत के क्षेत्र में प्रत्येक व्यक्ति को कानून के समक्ष समानता और कानूनों की समान सुरक्षा की गारंटी देता है। भारतीय संविधान का आर्टिकल 15 जाति, लिंग, नस्ल (रेस) या धर्म के आधार पर समुदायों के भेदभाव को रोकता है। लिंचिंग की घटनाएं, आर्टिकल 14 और आर्टिकल 15 के तहत भारतीय संविधान में दिए गए समानता के अधिकार और भेदभाव के निषेध (प्रोहिबिशन) का उल्लंघन करती हैं।
भारतीय संविधान के आर्टिकल 21 में कहा गया है, “कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अलावा किसी भी व्यक्ति को उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित (डिप्राइव) नहीं किया जाएगा।” आर्टिकल 21 का उद्देश्य राज्य को किसी व्यक्ति को उसकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता और जीवन से वंचित करने से रोकना है।
हालांकि, भारतीय राज्य, कानूनों को लागू करने में विफल रहे हैं। कानून लागू करने वाली एजेंसीज में व्यापक (वाइडस्प्रेड) भ्रष्टाचार, न्यायपालिका (ज्यूडिशियरी) द्वारा मामलों को निपटाने में देरी और अमीरों को अनुचित लाभ और न्यायिक प्रणाली में डोमिनेंस, कानूनो को अनुचित तरीके से लागू करने में योगदान करते हैं। लगभग सभी मामलों में, पुलिस शुरू में जांच को रोक देती है, प्रक्रियाओं को अनदेखा करती है, या यहां तक कि हत्याओं और अपराधों को कवर करने में भी मिलीभगत (कंप्लीसिट) की भूमिका निभाती है। तुरंत जांच करने और संदिग्धों को गिरफ्तार करने के बजाय, पुलिस ने पीड़ितों, उनके परिवारों और गवाहों के खिलाफ गोहत्या पर प्रतिबंध लगाने वाले कानूनों के तहत शिकायत दर्ज की थी।
निष्कर्ष (कंक्लूज़न)
एक सभ्य समाज में, एक लिंचिंग भी बहुत के बराबर होती है। लेकिन भारत ने हाल ही में उनमें से एक देखा है। स्थिति की गंभीरता ने सुप्रीम कोर्ट को इसे “भीड़तंत्र का भयानक कार्य” का नाम देने पर मजबूर किया है। सुप्रीम कोर्ट ने इस स्थिति से निपटने के लिए दिशा-निर्देश (गाइडलाइंस) दिए हैं और संसद से इससे निपटने के लिए नए कानून बनाने को कहा है, जो इस तरह की गतिविधियों में खुद को शामिल करने वाले लोगों में डर की भावना पैदा करेगा। हालांकि, उचित तरीके से लागू करने के बिना, कानून केवल इस उद्देश्य के लिए पर्याप्त नहीं होंगे। लागू करने के साथ मीडिया कवरेज का उचित तरीका भी होना चाहिए। पक्षपातपूर्ण (बायस्ड) राजनीतिक नेतृत्व के बजाय तर्कसंगत (रेशनलाइज्ड) सामाजिक नेतृत्व की आवश्यकता है और राजनेताओं को भी अपने राजनीतिक इरादों से ऊपर उठना चाहिए।
nice blog