यह लेख यूनिवर्सिटी स्कूल ऑफ लॉ एंड लीगल स्टडीज, गुरु गोबिंद सिंह इंद्रप्रस्थ विश्वविद्यालय से Manya Dudeja द्वारा लिखा गया है। यह लेख तुच्छ (फ्रिबोल्स) जनहित याचिका (पब्लिक इंटरेस्ट लिटिगेशन) (पीआईएल) दायर करने और इस तरह अवधारणा (कॉन्सेप्ट) का दुरुपयोग करने की प्रवृत्ति (ट्रेंड) पर प्रकाश डालता है। इसका अनुवाद Sakshi Kumari द्वारा किया जाए है जो फेयरफील्ड इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट एंड टेक्नोलॉजी से बीए एलएलबी कर रही हैं।
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परिचय (इंट्रोडक्शन)
“कोर्ट को बुनियादी मानवाधिकारों (बेसिक ह्यूमन राइट्स) से वंचित लोगों को बड़े पैमाने पर न्याय तक पहुंच प्रदान करने के लिए नए तरीकों और रणनीतियों को अपनाना होगा, जिनके लिए स्वतंत्रता और स्वाधीनता (लिबर्टी) का कोई अर्थ नहीं है।”
उपरोक्त पंक्तियों को जनहित याचिका (पीआईएल) के चैंपियन और भारत के 17 वें मुख्य न्यायाधीश, न्यायमूर्ति पी.एन.भगवती द्वारा एस.पी. गुप्ता बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के मामले में कहा गया था। यह वह मंशा थी जो जनहित याचिका पेश करने के विचार के पीछे चली गई, ताकि उन लोगों तक पहुंच सके जो खुद कोर्ट्स तक नहीं पहुंच सकते। हालांकि, किसी को यह स्वीकार करना चाहिए कि कोई भी पहल कितनी भी अच्छी क्यों न हो, समाज में उपद्रव पैदा करने वाले तत्वों (एलिमेंट्स) द्वारा इसका कभी-कभी दुरुपयोग होने की संभावना होती है। जनहित याचिका का भी कुछ ऐसा ही हश्र हुआ था। समाज में वंचितों को सशक्त (एंपावर्ड) बनाने और मजबूत करने के अपने उद्देश्य के बावजूद, जनहित याचिका का अक्सर एक हथियार के रूप में दुरुपयोग किया गया है और अक्सर कोर्ट्स का कीमती समय बर्बाद किया है।
हालांकि, इस जीवन रक्षक हथियार के इस तरह के दुरुपयोग को कम करने के तरीके खोजने होंगे। 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने एक तुच्छ याचिका को खारिज करते हुए कहा की थी कि इसके दुरुपयोग के कारण जनहित याचिका की अवधारणा पर फिर से विचार करना होगा। इसने इस बारे में भी बात की कि गरीबों, उत्पीड़ितों (ऑपरेस्ड) और जरूरतमंदों (नीडी) की सुरक्षा के लिए अवधारणा कैसे पेश की गई, जिनके मौलिक अधिकारों (फंडामेंटल राइट्स) का अक्सर उल्लंघन किया जाता है और उनकी शिकायतों का प्रतिनिधित्व (रिप्रेजेंटेड) नहीं किया जाता है, अनसुना कर दिया जाता है और किसी का ध्यान नहीं जाता है, लेकिन अब राजनीतिक माइलेज और लोकप्रियता हासिल करने के लिए इसका दुरुपयोग कैसे किया जा रहा है ।
इस लेख का उद्देश्य जनहित याचिका की उत्पत्ति की अवधारणा को समझना है और फिर इसकी तुलना इसके दुरुपयोग से करना है। इस दुरुपयोग को बेहतर ढंग से समझने के लिए, हम कुछ कनूनी मामलों कों भी देखेंगे।
जनहित याचिका की अवधारणा (कॉन्सेप्ट ऑफ पीआईएल)
ब्लैक लॉ डिक्शनरी के अनुसार, जनहित याचिका ऐसी कानूनी कार्रवाई को संदर्भित (रेफर) करता है, जो सार्वजनिक हित (पब्लिक इंटरेस्ट) या सामान्य हित (जनरल इंटरेस्ट) को लागू करने के लिए कानून की कोर्ट में शुरू की जाती है जिसमें आम लोगों का कुछ हित, आर्थिक या सामान्य होता है जिसके द्वारा उनका कानूनी अधिकार या दायित्व (लायबिलिटी) प्रभावित होता है।
सरल शब्दों में, जनहित याचिका सामाजिक रूप से वंचित समुदायों (कम्यूनिटीज़) की सुरक्षा के लिए एक उपकरण (टूल) है जो खुद का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकते हैं और कानून की कोर्ट में न्याय का दावा नहीं कर सकते हैं। जो लोग सीधे तौर पर प्रभावित नहीं हैं, वे अब इन लोगों की ओर से मुकदमे दायर कर सकते हैं और लड़ सकते हैं, केवल एक शर्त यह है कि यह मुद्दा लोगों के सामान्य कल्याण (जनरल वेल्फेयर) से संबंधित होना चाहिए और यह याचिकाकर्ता (पिटीशनर) का निजी हित नहीं होना चाहिए। अवधारणा ने लोकस स्टैंडी के पूर्ववर्ती सिद्धांत (थ्योरी) को भी शिथिल (रिलैक्स्ड) कर दिया, जिसका अर्थ था किसी व्यक्ति के खिलाफ कार्रवाई करने की क्षमता, यानी किसी व्यक्ति को दूसरे के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए व्यक्तिगत रूप से पीड़ित होना पड़ता था। अब, एक जनहित याचिका दायर की जा सकती है अगर यह मुद्दा सीधे याचिकाकर्ता को प्रभावित नहीं करता है।
भारत में जनहित याचिका की उत्पत्ति
भारत में जनहित याचिका की उत्पत्ति का पता न्यायमूर्ति पी.एन. भगवती और न्यायमूर्ति वी.आर. कृष्णा अय्यर द्वारा की गई थी। एक समाचार रिपोर्ट जिसमें बिहार में विचाराधीन कैदियों (अंडरट्रियल प्रिजनर्स) के सामने आने वाली कठिनाइयों के बारे में बात की गई थी, जिन्हें बिना सजा के जेल में सालो साल बिताने पड़े, एक वकील की नज़र उस पर पड़ी, जिसने तब इन विचाराधीन कैदियों की रक्षा के लिए सुप्रीम कोर्ट में याचिका (पिटीशन) दायर की थी। हुसैनारा खातून बनाम स्टेट ऑफ बिहार (1979), का मामला जनहित याचिका का पहला मामला बन गया था। 1980 में, सुनील बत्रा बनाम दिल्ली एडमिनिस्ट्रेशन का मामला उठाया गया था, जिसमें तिहाड़ जेल के एक कैदी ने तिहाड़ में कैदियों के शारीरिक उत्पीड़न (फिजिकल टाउचर) की शिकायत करते हुए, न्यायमूर्ति कृष्णा अय्यर को कागज का एक टुकड़ा भेजा था। जस्टिस अय्यर ने इसे जनहित याचिका में बदल कर इस मुद्दे को उठाया था। हालांकि, बाद में जनहित याचिका दायर करने की ऐसी प्रथाओं को छोड़ दिया गया था। पिछले कुछ वर्षों में, दायर जनहित याचिकाओं की संख्या केवल कई सार्वजनिक उत्साही (पब्लिक स्पिरिटेड) नागरिकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं (एक्टिविस्ट्स) के साथ वंचितों की मदद के लिए आगे बढ़ी है।
संवैधानिक प्रावधान (कांस्टीट्यूशनल प्रोविजंस)
जनहित याचिकाएं सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में क्रमश (रिस्पेक्टिवली) आर्टिकल 32 और आर्टिकल 226 के तहत उनके रिट क्षेत्राधिकार (ज्यूरिस्डिक्शन) को लागू करके दायर की जा सकती हैं।
- आर्टिकल 32 संविधान के भाग III द्वारा प्रदत्त (कॉन्फर) अधिकारों के उल्लंघन के खिलाफ नागरिकों के सुप्रीम कोर्ट में जाने के अधिकारों से संबंधित है, जो मामले में परमादेश (मैनडेमस), बंदी प्रत्यक्षीकरण (हैबियस कॉर्पस), उत्प्रेषण (सर्टियोररी) और यथा-वारंटो (क्यू वारंटो) के रिट जारी कर सकता है।
- आर्टिकल 226 हाई कोर्ट को संविधान के भाग III में उल्लिखित अधिकारों के उल्लंघन के मामलों में अपने क्षेत्राधिकार में रिट जारी करने का अधिकार देता है।
संभावित कारण क्यों लोग पीआईएल की अवधारणा का दुरुपयोग करते हैं?
उत्पीड़न के लिए उपकरण (टूल फॉर हैरेसमेंट)
कई लोगों ने लोगों को परेशान करने के लिए झूठे मामले दर्ज करने के लिए जनहित याचिका को एक उपकरण के रूप में इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है। यह आसान हो गया है क्योंकि निजी मुकदमेबाजी (लिटिगेशन) के विपरीत जनहित याचिका दायर करना सस्ता है। लोकस स्टैंडी में ढील ने अक्सर लोगों को अपने निजी हितों को सार्वजनिक हितों के रूप में पेश करने के लिए प्रेरित किया है। लोगों ने व्यक्तिगत प्रतिशोध (पर्सनल वेंडेटा) को निपटाने और राजनीतिक या व्यावसायिक हितों की सेवा के लिए जनहित याचिका का दुरुपयोग करना शुरू कर दिया है। कोर्ट ने चेतावनी दी है कि जनहित याचिका को “जनहित याचिका” के रूप में माना जाना चाहिए न कि “निजी हित याचिका” के रूप में।
पेशेवर जनहित याचिका की दुकानें (प्रोफेशनल पीआईएल शॉप्स)
सॉलिसिटर जनरल, तुषार मेहता ने जनहित याचिकाओं को “पेशेवर जनहित याचिका की दुकानें” कहा और उन्हें निरस्त (एब्रोगेट) करने का आह्वान किया है। उन्होंने कहा कि बेवजह दायर की गई जनहित याचिकाओं का जवाब देने के लिए सरकारी अधिकारी अपना कीमती समय बर्बाद करते हैं और यह देश के लिए हानिकारक हो सकता है। बाद की तारीख में, उन्होंने उन्हें “स्व-रोजगार पैदा करने वाली याचिकाएं” भी कहा, जिन पर कोर्ट को समय बर्बाद नहीं करना चाहिए।
प्रचार (पब्लिसिटी)
कई बार, वकीलों और हाल ही में, कानून के छात्रों ने प्रचार पाने के लिए जनहित याचिका का उपयोग करने की कोशिश की है। विभिन्न घटनाओं पर कोर्ट ने इन्हें “प्रचार हित याचिका” भी कहा है। कोर्ट ने जोर देकर कहा कि कैसे जनहित याचिकाओं के उद्देश्य को पूरा करने के बजाय इस तरह की याचिकाएं जनता की भलाई को नुकसान पहुंचाती हैं।
कानूनी मामले (केस लॉस)
हाल ही के वर्षों में कानून के छात्रों, वकीलों और अन्य हितधारकों (स्टेकहोल्डर) द्वारा दायर जनहित याचिकाओं की अधिक संख्या देखी गई है। दायर की गई जनहित याचिकाओं की बढ़ती संख्या के साथ, तुच्छ याचिकाएं दायर करने की प्रवृत्ति उभरी है जो जनहित याचिका की अवधारणा की आत्मा के विपरीत है। सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट ने इस तरह के आचरण के खिलाफ बार-बार चेतावनी दी है। हालांकि, कोविड -19 महामारी (पैंडेमिक) ने ऐसी और याचिकाएँ दायर करने को जन्म दिया है।
एस.पी.वी. पॉल राज बनाम चीफ ऑफ इलेक्टोरल ऑफिसर और अन्य
इस मामले में जनहित याचिका को निम्नानुसार खारिज कर दिया गया था। मामले के तथ्य निम्नलिखित हैं:
- याचिकाकर्ता ने प्रार्थना की कि हाई कोर्ट भारतीय संविधान के आर्टिकल 226 के तहत अपनी शक्ति को रिट जारी करने के लागू कर सकता है ताकि प्रतिवादियों (रिस्पोंडेंट) को निर्देश दिया जा सके कि उन उम्मीदवारों को अनिवार्य चिकित्सा परीक्षण (मेडिकल टेस्ट) करने के आदेश जारी करें जो तमिलनाडु विधानसभा चुनाव लड़ रहे थे।
- 6,29,43,512 मतदाताओं (वोटर्स) को कोविड-19 से संक्रमित होने से बचाने के लिए यह प्रार्थना की गई थी।
कोर्ट ने कहा कि इस तरह की याचिका का कोई आधार नहीं है और यह पूरी तरह से तुच्छ है। इसने याचिकाकर्ता को कोर्ट में ऐसी याचिकाएं दायर करने से पहले अधिक जिम्मेदार होने के लिए भी कहा था। याचिका को लागत (कॉस्ट) के साथ खारिज कर दिया गया था और याचिकाकर्ता को बेंच की पूर्व अनुमति से 1 वर्ष की अवधि के लिए याचिका दायर करने से प्रतिबंधित कर दिया था।
ललित वलेचा बनाम यूनियन ऑफ इंडिया
दिल्ली हाई कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर कर समाचार और टीवी चैनलों को सामूहिक मौतों और पीड़ा की संवेदनशील (सेंसिटिव) सामग्री की रिपोर्टिंग करते समय आचार संहिता और नियमों (कोड ऑफ एथिक्स एंड रेगुलेशन) का पालन करने का निर्देश दिया गया था। इसने मीडिया चैनलों को इस तरह की खबरें प्रसारित (ब्रॉडकास्टिंग) करने से रोककर नकारात्मकता के प्रसार को रोकने की प्रार्थना की थी। याचिका में यह भी आधार दिया गया है कि आर्टिकल 19 के तहत बोलने और अभिव्यक्ति (एक्सप्रेशन) की स्वतंत्रता पूर्ण नहीं है।
याचिका को बेंच ने खारिज कर दिया और यह कहा गया कि जनता को मौतों की संख्या की रिपोर्ट करना नकारात्मक खबर नहीं है।
प्रत्युष प्रसन्ना और अन्य बनाम राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली राज्य
दिल्ली हाई कोर्ट ने एक याचिका खारिज कर दी जिसमें आरोप लगाया गया था कि दिल्ली सरकार जनता के पैसे का दुरुपयोग कर रही है। याचिका में दिल्ली सरकार द्वारा कोविड-19 राहत के लिए एकत्र किए गए धन की जांच की मांग की गई है। याचिकाकर्ता ने राइट टू इनफॉरमेशन एक्ट, 2005 का उपयोग करके जानकारी का पता लगाने का कोई प्रयास नहीं किया और केवल किसी और द्वारा पोस्ट किए गए ट्वीट पर भरोसा किया था। कोर्ट ने याचिका दायर करने से पहले कोई जानकारी प्राप्त नहीं करने पर याचिकाकर्ता की खिंचाई की थी। याचिकाकर्ता को जनहित याचिका के दुरुपयोग के लिए 50,000 रुपये का भुगतान करने के लिए भी कहा गया था।
राजीव सूरी बनाम दिल्ली डेवलपमेंट अथॉरिटी
याचिका शुरू में दिल्ली हाई कोर्ट के समक्ष दायर की गई थी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसे अपने पास ट्रांसफर कर लिया था। इस याचिका ने सेंट्रल विस्टा परियोजना की संभावना और पर्यावरण, विरासत (हेरिटेज) और भूमि उपयोग के मामलों के लिए मंजूरी प्राप्त करने के तरीके को चुनौती दी थी। इसने इसे उच्च राजनीतिक महत्व का मामला भी कहा जिसमें न्यायिक जांच की आवश्यकता थी।
सुप्रीम कोर्ट ने इस पर अफसोस जताया और इसे जनहित याचिका की अवधारणा का दुरुपयोग बताया। इसने जनहित याचिका के पीछे की मंशा को दोहराया और कहा कि जनहित याचिका का मतलब न्यायपालिका को रोजमर्रा के शासन पर उत्कृष्ट (सुपरलेटिव) अधिकार बनाना नहीं था, बल्कि उन मनुष्यों के लिए संवैधानिक कोर्ट्स के दरवाजे खोलना था जो अन्याय का सामना कर रहे थे और अपने अधिकारों को सुरक्षित करना चाहते थे।
जनहित याचिका की अवधारणा के दुरुपयोग को रोकने के लिए सुझाव
पूर्व अटॉर्नी जनरल सोली सोराबजी की राय में जनहित याचिकाओं को दाखिल करने को फाइल करने के लिए तीन बुनियादी नियमों का पालन किया जाना चाहिए। वे:
- अनिश्चित (अनसर्टेन) और संदिग्ध जनहित याचिकाओं को न सुनना और शुरुआत में ही उन्हें खारिज कर देना। साथ ही, उन पर उच्च लागत लगाने का सुझाव दिया जाता है ताकि वे भविष्य में एक निवारक (डिटरेंट) के रूप में कार्य करें।
- जिन याचिकाओं को किसी सामाजिक-आर्थिक विनियमन या महत्वपूर्ण परियोजना के खिलाफ लंबे समय के बाद निर्देशित (डायरेक्टेड) किया जाता है, उन्हें मुकदमेबाजी के सामान्य नियमों को लागू करके उन्हे खारिज कर दिया जाना चाहिए।
- विश्वास हासिल करने के लिए, जनहित याचिका को खारिज करने की स्थिति में, पीआईएल प्रैक्टिशनर को कोर्ट को यह आश्वासन (एश्योरेंस) देने के लिए कहा जाना चाहिए कि वे हर्जाने (डैमेज) की वसूली करेंगे।
- मीडिया को जनहित याचिका के दुरुपयोग के मामलों को उतना ही उजागर करना चाहिए, जितना कि वह जनहित याचिका की अवधारणा और उसकी सफलता का प्रशंशा करता है। विभिन्न प्रकार के कार्यक्रम आयोजित (कंडक्ट) करके और मीडिया के माध्यम से, यह जनहित याचिका के दुरुपयोग और ऐसे याचिकाकर्ताओं को दूसरों पर निवारक प्रभाव पैदा करने के लिए दी गई सजा के बारे में जागरूकता फैला सकता है।
- वकीलों को ऐसे दुर्भावनापूर्ण याचिकाकर्ताओं का प्रतिनिधित्व करने से सक्रिय (एक्टिव) रूप से इनकार करना चाहिए। पेशे में अनुशासन और नैतिकता (मॉरलिटी) पर जोर दिया जाना चाहिए और वकीलों को ऐसे कारणों का बचाव नहीं करना चाहिए जो जनहित याचिका का दुरुपयोग करते हैं।
- कोर्ट को यह जांचना चाहिए कि याचिका दायर करने का कारण वास्तविक है और निजी हितों से समर्थित नहीं है।
निष्कर्ष (कंक्लूज़न)
जनहित याचिका ज्यूडिशियल एक्टिविज्म का एक महत्वपूर्ण घटक है। यह न्यायपालिका को लोगों के बचाव में आने के लिए मजबूत करता है। इसलिए, यह प्रासंगिक (पर्टिनेंट) है कि अवधारणा का बुद्धिमानी से उपयोग किया जाता है और व्यक्तिगत लाभ के लिए इसका दुरुपयोग नहीं किया जाता है। हाल ही के वर्षों में जनहित याचिका के इस तरह के दुरुपयोग और शोषण के उदाहरण देखे गए हैं, तो भविष्य में इसी तरह की घटनाओं को रोकने के लिए एक निवारक के रूप में काम करना चाहिए। अगर सही तरीके से और सही कारणों के लिए इस्तेमाल किया जाए तो जनहित याचिका लोगों के लिए एक संपत्ति साबित हो सकती है। तुच्छ याचिकाओं को बाहर निकालने के लिए नए तरीके तैयार किए जाने चाहिए ताकि समय के भीतर उचित और अच्छी तरह से न्याय किया जा सके। सुप्रीम कोर्ट ने जनहित याचिका के संबंध में दिशा-निर्देशों का पालन किया है, कोर्ट्स को जनहित याचिकाओं से बचने और समय बचाने के लिए जनहित याचिकाओं से निपटने के दौरान इन नियमों को ध्यान में रखना चाहिए।
संदर्भ (रेफरेंसेस)
- https://www.barandbench.com/apprentice-lawyer/the-unparalleled-legacy-of-justice-pn-bhagwati#:~:text=Juhttp://www.legalserviceindia.com/article/l273-Public-Interest-Litigation.htmlstice%20Bhagwati%20was%20the%20messiah,In%20SP%20Gupta%20vhttps://www.pilsni.org/about-public-interest-litigation
- Indian Constitution at Work- NCERT
- http://www.legalserviceindia.com/legal/article-4861-courts-deprecate-practice-of-filing-pil-for-publicity-personal-political-monetary-gains-impose-exemplary-costs-for-abuse-of-the-process-of-law.html
- https://www.barandbench.com/columns/litigation-columns/central-vista-supreme-court-misuse-pil-transferring-case-delhi-high-court-public-interest