2018 का ट्रांसजेंडर पर्सन (प्रोटेक्शन ऑफ़ राइट्स) बिल, कैसे ट्रांसजेंडर्स की असल समस्याओं का समाधान नहीं कर रहा है

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Problems of Transgender
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इस लेख में, Yashasvi Jain चर्चा करती हैं कि ट्रांसजेंडर्स पर्सन (प्रोटेक्शन ऑफ़ राइट्स) बिल, 2018 कैसे ट्रांसजेंडर्स की असल समस्याओं का समाधान नहीं कर रहा है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja द्वारा किया गया है।  

परिचय (इंट्रोडक्शन)

ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के अधिकारों की सुरक्षा के लिए कानून बनाने और उनके खिलाफ भेदभाव (डिस्क्रिमिनेशन) को दूर करने का उद्देश्य, लोकसभा द्वारा ट्रांसजेंडर्स पर्सन (प्रोटेक्शन ऑफ़ राइट्स) बिल, 2018 के पास होने के साथ ही पूरा होता हुआ लगता है। बिल में लिंग और पहचान के जटिल (कॉम्प्लेक्स) मुद्दों को शामिल किया गया है और इससे निपटने के लिए संवेदनशीलता (सेंस्टिविटी) सबसे महत्वपूर्ण है।

17 दिसंबर 2018 को जैसे ही लोकसभा ने बिल पास किया, उस समुदाय (कम्युनिटी) द्वारा बिल का जोरदार विरोध किया गया, जिसके पक्ष में इसे बनाया गया था। इसका कारण काफी स्पष्ट था। यदि यह बिल राज्यसभा द्वारा पास किया जाता है, तो यह मार्जिनलाइज़्ड समुदाय के लोगों के मानवाधिकारों का उल्लंघन (वॉयलेट) करेगा।

बिल में निम्नलिखित पहलुओं में विरोध सामने आया है

  • लड़ाई ट्रांसजेंडर व्यक्तियों की बुनियादी और सबसे महत्वपूर्ण परिभाषा से शुरू होती है। 2016 के बिल ने एक ट्रांसजेंडर व्यक्ति को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में परिभाषित किया जो:
  1. न तो पूरी तरह से महिला है और न ही पुरुष है;
  2. महिला और पुरुष का मिश्रण (कॉम्बिनेशन) है; या
  3. न तो महिला है और न ही पुरुष है। ऐसे व्यक्ति की लिंग की भावना जन्म के समय दिए गए लिंग के समान नहीं है, और इसमें ट्रांस-पुरुष और ट्रांस-महिला, इंटरसेक्स भिन्नता (वेरिएशंस) और जेंडर-क्वीर वाले व्यक्ति शामिल हैं। हालांकि, 2018 के बिल में प्रदान की गई परिभाषा में महत्वपूर्ण अवांछित (अनवेलकम) बदलाव हुए हैं।

2018 का बिल एक ट्रांसजेंडर व्यक्ति की परिभाषा से इस संदर्भ (रेफरेंस) को हटा देता है जो:

  1. i) न तो पूरी तरह से महिला है और न पुरुष है;

    ii) महिला और पुरुष का मिश्रण है; या

     iii) न तो महिला है और न ही पुरुष है।

2. जिसके लिंग की भावना, जन्म के समय दिए गए लिंग के समान नहीं है। अब यह बताता है कि एक ट्रांसजेंडर व्यक्ति वह है जिसका लिंग जन्म के समय दिए गए लिंग के समान नहीं है। इसमें ट्रांस-पुरुष और ट्रांस-महिला, इंटरसेक्स भिन्नता वाले व्यक्ति और जेंडर-क्वीर शामिल हैं।

2018 के बिल में किन्नर, हिजड़ा, अरवानी और जोगता जैसी सामाजिक-सांस्कृतिक (सोशिओ-कल्चरल) पहचान वाले व्यक्ति भी शामिल हैं। यह बिल इंटरसेक्स भिन्नता वाले व्यक्ति को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में परिभाषित करता है, जो जन्म के समय पुरुष या महिला शरीर के नोर्मेटिव स्टैंडर्ड से अपनी प्राथमिक (प्राइमरी) यौन (सेक्शुअल) विशेषताओं, बाहरी जननांग (जेनिटेलिया), क्रोमोसोम या हार्मोन में भिन्नता दिखाता है। हालांकि 2018 की परिभाषा 2016 की परिभाषा से बेहतर है, लेकिन इसकी व्याख्या (इंटरप्रेटशन) में अब भी अस्पष्टता (एम्बिग्यूटी) है। यह भी गलत तरीके से मानता है कि इंटरसेक्स भिन्नता वाले सभी व्यक्ति ट्रांसजेंडर व्यक्ति हैं।

2018 का बिल, लिंग की स्वयं की पहचान (सेल्फ आईडेंटिफिकेशन) के अधिकार को मान्यता देने से इनकार करता है, जो एक बुनियादी (बेसिक) नियम है, जो 2014 में दिए गए नालसा के फैसले की भावना के खिलाफ है। एक ट्रांस पुरुष/महिला के रूप में स्वीकार किए जाने के लिए, यह एक जटिल और कठिन प्रक्रिया (प्रोसेस) का प्रस्ताव करता है, जिसमें ट्रांसजेंडर व्यक्ति को सर्टिफाइ करने के लिए, जिला स्तर (लेवल) पर स्क्रीनिंग कमिटी को एक आवेदन (एप्लीकेशन) किया जाता है, जिसमे चिकित्सा अधिकारी और मनोचिकित्सक (साइकेट्रिस्ट) सहित पांच लोग शामिल होते हैं।  

साथ ही, किसी को पुरुष/महिला के रूप में पहचान बनाने के लिए एक जरुरी सेक्स रिअसाइनमेंट सर्जरी करानी पड़ती है। यह नालसा निर्णय डायरेक्टिव का एक पूर्ण उल्लंघन है, जो बताता है की, “ट्रांसजेंडर व्यक्तियों की पहचान के लिए कोई भी प्रक्रिया’, जो स्वयं की पहचान से परे है, और इसमें चिकित्सा, जैविक (बायोलॉजिकल) या मानसिक असेसमेंट के तत्व के शामिल होने की संभावना है, जो “संविधान के आर्टिकल 19 और 21 के तहत ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के अधिकार का उल्लंघन होगा।” शशि थरूर ने सोशल जस्टिस एंड एम्पॉवरमेंट के मिनिस्टर, थावरचंद गहलोत को अपने पत्र में लिखा था, “स्पष्ट रूप से लिंग के आत्मनिर्णय (सेल्फ डीटर्मिनेशन) के मौलिक अधिकार (फंडामेंटल राइट) को, वैधानिक (स्टेच्युटरी) कमिटी के माध्यम से प्रतिबंधित (रेस्ट्रिक्ट) नहीं किया जा सकता है।”

इस प्रकार, यह स्पष्ट रूप से समझा जा सकता है कि किसी व्यक्ति को ट्रांसजेंडर साबित करने के लिए केवल एक चीज की आवश्यकता होती है, वह है, स्वयं वो और उसके लिंग की भावना। किसी व्यक्ति की पहचान को इस तरह की जांच करने के लिए मजबूर करना खतरनाक है क्योंकि इससे अधिक भेदभाव और उत्पीड़न (हैरेसमेंट) होगा। किसी की लैंगिक पहचान की मान्यता, उसके सम्मान के मौलिक अधिकार के केंद्र में है।

इस बिल की एक समस्या यह भी है की यह भीख मांगने के कार्यों को अपराध घोषित करता है। कई ट्रांसजेंडर समुदाय भीख मांगकर काम करते हैं और अपना गुजारा चलाते हैं, जो कि समाज में एक प्रथा भी बन गई है। जब परिवार में किसी का जन्म होता है या शादियों के दौरान वहां नाचना या गाना और पैसा कमाना उनके जीवन का एक तरीका है। हालांकि, कोर्ट द्वारा समुदाय को सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों के रूप में मान्यता दिए जाने के बाद भी, राज्य उनकी सामाजिक (सोशल) सुरक्षा के लिए सकारात्मक कार्य नीतियों (अफर्मेटिव एक्शन पॉलिसी) को लेने में विफल रहा है।

इसके कारण, यह समुदाय अभी भी शिक्षा, रोजगार और स्वास्थ्य देखभाल में अपने हिस्से के लिए संघर्ष (स्ट्रगल) कर रहा है। दिल्ली हाई कोर्ट ने अपने हाल ही के फैसले में भीख मांगने को इस आधार पर अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया कि यह राज्य की जिम्मेदारी है कि वह ऐसे लोगों को जीविका के साधन उपलब्ध कराए और रोजगार के अवसर प्रदान करे।

बिल में भीख मांगने को अपराध बनाकर ट्रांसजेंडर लोगों को, उनकी जिंदगी जीने से वंचित (डिप्राइव) करने के अलावा और कुछ नहीं है। इंटरनेशनल ह्यूमन राइट्स लॉ में, यौन अभिविन्यास (ओरिएंटेशन) और/या लिंग पहचान के आधार पर भेदभाव निषिद्ध (प्रोहिबिटेड) है।

भारत ने कई ह्यूमन राइट्स ट्रीटीज़ को स्वीकार किया है- जिसमें इंटरनेशनल कोवेनेंट ऑन सिविल एंड पॉलिटिकल राइट्स और इंटरनेशनल कोवेनेंट ऑन इकोनॉमिक, सोशल एंड कल्चरल राइट्स शामिल हैं- जो समानता और भेदभाव के खिलाफ अधिकारों की गारंटी देते हैं। दूसरी ओर, यह बिल विवाह, तलाक या गोद लेने के मुद्दों को भी संबोधित (एड्रेस) नहीं करता है।

ट्रांसजेंडर व्यक्तियों की लड़ाई न केवल राज्य के खिलाफ है, बल्कि कई बार उनके अपने परिवारों के खिलाफ भी है जो उन्हें स्वीकार करने से इनकार कर देते हैं और उन्हें शारीरिक और यौन शोषण (अब्यूज) सहने के लिए मजबूर करते हैं। इस संबंध में बिल उनके रहने की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन करके उनकी दुर्दशा (प्लाइट) को बढ़ाता है। इसमें कहा गया है कि उन्हें अपने जन्म के परिवार के साथ रहना चाहिए या पुनर्वास (रिहैबिलिटेशन) केंद्रों में भेजा जाना चाहिए।

बिल उस पहलू ध्यान नही देता है, जहां ऐसे लोग समुदाय के संबंध में विश्वास करते हैं और बेघर होने से बचने के लिए हिजड़ा, अरवानी, कोठी, जोगता और कई अन्य स्थानीय ट्रांस समुदायों के साथ रहते हैं।

पुनर्वास की तुलना में विशेष सहायता की आवश्यकता है। ‘पुनर्वास’ शब्द का प्रयोग करके यह लगता है कि यह समाज के एक कमजोर वर्ग को एहसान मांगने के लिए संदर्भित करता है। इसके विपरीत, ट्रांसजेंडर व्यक्ति केवल विशेष सेवाओं द्वारा समानता के लिए लड़ रहे हैं।

यह बिल ऐसे समुदाय के बुजुर्गों को अपराधी बनाकर खतरे में डालता है। इस प्रकार, बिल कई तरह से इस समुदाय के लोगों के अधिकारों का उल्लंघन करता है।

जब अपराध और दंड की बात आती है, तब भी यह बिल भेदभाव करता है। ट्रांसजेंडर व्यक्तियों और महिलाओं के खिलाफ यौन हिंसा के लिए दंड में गंभीर विसंगतियां (डिस्क्रेपेंसी) हैं। जहां आई.पी.सी. महिलाओं के खिलाफ अत्याचार के लिए कड़ी सजा देती है, वहीं दूसरी ओर ट्रांसजेंडर लोगों के मामले में केवल 2 साल की सजा का प्रावधान (प्रोविजन) है, जो कि बहुत कम है (उदाहरण के लिए आई.पी.सी. की धारा 376  में बलात्कार के लिए 7 साल की सजा का प्रावधान है)।

यहां कई अन्य प्रकार के अत्याचार हैं जिनका सामना ट्रांसजेंडर लोग करते हैं, और उन सभी को केवल ‘शारीरिक हिंसा’ और ‘यौन हिंसा’ के दायरे में शामिल करना, जैसा कि इस एक्ट के तहत है, यह अनुचित (अनफेयर) के अलावा और कुछ नहीं है।

ट्रांसजेंडर, जेंडर नॉन-कन्फॉर्मिंग/नॉन-बाइनरी, हिजरा, इंटरसेक्स और अन्य संबंधित व्यक्तियों द्वारा जारी एक जॉइंट स्टेटमेंट में, इस बात पर प्रकाश डाला गया था कि, “ट्रांसजेंडर और इंटरसेक्स लोगों द्वारा सामना किए जाने वाले विशिष्ट (स्पेसिफिक) अत्याचारों को परिभाषित किया जाना चाहिए और उन्हें सख्ती से दंडित किया जाना चाहिए, जिसमें जबरदस्ती लिंग अनुरूपता (कंफर्मिज्म), हार्मोनल उपचार और/या सर्जरी, घृणा (एवर्जन) पर आधारित छद्म-मनोचिकित्सा (सूडो-साइकोथेरेपीज), जबरदस्ती विवाह करवाना, स्ट्रिपिंग, आदि, साथ ही हिरासत में हिंसा होना, राज्य और चिकित्सा अधिकारियों द्वारा कर्तव्य ना करना, और शैक्षिक, आवासीय (रेसिडेंशियल), चिकित्सा और रोजगार में हिंसा शामिल है। सभी ट्रांस लोगों को अपनी पसंद के अनुसार महिला पुलिस द्वारा नियंत्रित (कंट्रोल) होने का अधिकार होना चाहिए और उन्हें अलग-अलग सेल में रखा जाना चाहिए, जहां लिंग पुष्टि (अफिर्म) करने वाली स्वास्थ्य सेवा, कानूनी सहायता और शिक्षा तक पहुंच हो।

हाल ही में 2018 बिल में लाए गए 27 संशोधनों (अमेंडमेंट) के बावजूद; ट्रांस कार्यकर्ताओं द्वारा किए गए प्रमुख विरोधो को अभी भी संदर्भित नही किया गया हैं। एक तरफ जहां कोर्ट इन लोगों के अधिकारों की रक्षा के लिए लगातार प्रयास कर रही हैं, वहीं दूसरी तरफ विधायिका (लेजिस्लेचर) अपने उद्देश्य के विपरीत बिल लाकर इन सभी अधिकारों को कमजोर कर रही है।

इंटरनेशनल कोर्ट ऑफ जस्टिस (आई.सी.जे.) ने अपने हाल ही के बयान में राज्यसभा द्वारा बिल के समस्या वाले हिस्सों को खारिज करने और भारतीय सुप्रीम कोर्ट द्वारा बनाए गए अधिकारों और अंतरराष्ट्रीय कानून के अंदर भारत के दायित्वों (ऑब्लिगेशन) के तहत एक संशोधित बिल के विस्तार (एलाबोरेशन) के लिए अपील की है। 

नेशनल अलायंस ऑफ पीपल्स मूवमेंट्स और तेलंगाना हिजड़ा इंटरसेक्स ट्रांसजेंडर समिति की एक कार्यकर्ता (एक्टिविस्ट) मीरा संघमित्रा ने एक इंटरव्यू में कहा: “ट्रांसजेंडर समुदाय द्वारा अनगिनत संघर्ष किए गए और इस देश के सुप्रीम कोर्ट को ऐतिहासिक अन्याय को पहचानने और हमारे अधिकारों को, समान नागरिक के रूप में कायम रखने में 70 साल लगे है और अब यह बिल असंवैधानिक (अनकांस्टीट्यूशनल) प्रावधानों के साथ कानून बनाकर, द्वितीय श्रेणी (सेकंड क्लास) की नागरिकता का कानून बनाकर और हमें और किनारे पर रखकर इन सीमित अधिकारों को भी हमसे छीनने का प्रयास करता है। हम इस बिल  को जल्द ही वापस लेने और सामुदायिक परामर्श (कंसल्टेशन) के आधार पर एक बदलाव की मांग करते हैं, इस अवधि के दौरान नालसा को सख्ती से लागू किया जाना चाहिए।”

इस बिल को लिंग पहचान को, व्यक्ति के गहरे और व्यक्तिगत (पर्सनल) अनुभव के रूप में स्वीकार करना चाहिए। इसे जन्म के समय दिए गए लिंग के अनुरूप (करेस्पोंड) नहीं होना चाहिए। यदि उचित ध्यान नहीं दिया गया तो सशक्तिकरण (एंपावरमेंट) की कोई भी भावना प्राप्त नहीं होगी। इस उद्देश्य के लिए, सामुदायिक फीडबैक को शामिल करना अत्यंत महत्वपूर्ण है।

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