क्रिमिनल प्रोसीजर कोड, 1973 के तहत शिकायत को खारिज करना और संबंधित ऐतिहासिक निर्णय 

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Criminal Procedure Code
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यह लेख Pratishtha Mandal द्वारा लिखा गया है, जो वर्तमान में कैंपस लॉ सेंटर (लॉ फैकल्टी, दिल्ली विश्वविद्यालय) से एलएलबी कर रहीं हैं।  इस लेख में, लेखक कोड ऑफ क्रिमिनल प्रोसीजर, 1973 के तहत एक शिकायत को खारिज करने के बारे में बात करते है। इसके अलावा ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट के तहत शिकायत की कार्यवाही पर भी प्रकाश डाला गया है। इस लेख का अनुवाद Arunima Shrivastava द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय (इंट्रोडक्शन)

यह लेख उन परिस्थितियों से संबंधित है जिनके तहत, एक मजिस्ट्रेट, किसी व्यक्ति द्वारा किए गए अपराध का लेखा-जोखा ले सकता है। अपराध में मजिस्ट्रेट द्वारा की गई कार्रवाई का तात्पर्य यह है कि, मजिस्ट्रेट ने पुलिस रिपोर्ट में उल्लेखित (मेंशन्ड) अपराध पर और आगे की कार्यवाही के बारे में विचार किया होगा जो उस अपराध के आरोपी के विचारण (ट्रायल) के लिए आवश्यक है। यह लेख मजिस्ट्रेट द्वारा की गई कार्रवाई, की प्रक्रिया के बारे में भी बात करता है, जो मामले की सुनवाई के लिए प्रारंभिक (प्रिपरेट्री) हैं। धारा 200 से धारा 203 क्रिमिनल प्रोसीजर कोड, 1973, आरोपी व्यक्ति को परेशान करने के उद्देश्य से झूठी, अनुचित और बिना कारण के दायर शिकायतों को खारिज करने या उससे बचने के लिए महत्वपूर्ण हैं।

ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट के तहत शिकायत कार्यवाही का महत्व

प्रतिदिन, कोर्ट के अनुभव बताते हैं कि कई शिकायतों को गलत दर्ज किया जाता है, यह आवश्यक है कि इन शिकायतों पर शुरू से ही सावधानी से ध्यान दिया जाना चाहिए। इसके अलावा, जिन शिकायतों के पास इस योग्य मानने के लिए उचित सबूत नहीं हैं, उन्हें आगे की जांच के अधीन किया जाना चाहिए ताकि केवल वास्तविक मामलों में ही कोर्ट आरोपी व्यक्ति को समन कर सके।

यह महत्वपूर्ण है कि, आपराधिक आरोप के लिए किसी व्यक्ति को कोर्ट में पेश होने के लिए बुलाने का आदेश गंभीर परिणाम देता है और इसमें आरोपी व्यक्ति को उसकी स्वतंत्रता से वंचित (डिप्राइव) किया जाता है, जिसे हमारे गणतंत्र में इतना कीमती और पवित्र माना जाता है। ऐसा आदेश कानून की मंजूरी के बिना पास नहीं किया जाना चाहिए। इस उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए धारा 200 से 203 को अधिनियमित (इनैक्ट) किया गया है और इनका मुख्य दायरा, झूठे मामलों से वास्तविक मामलों को अलग करने में सक्षम होना चाहिए ताकि शिकायत करने वाले पक्ष को बुलाए बिना शुरुआत में ही उन्हें जड़ से खत्म किया जा सके।

धारा 200 से 203 के तहत मजिस्ट्रेट द्वारा किया गया वीडिंग आउट ऑपरेशन, पूरी तरह से और विशेष रूप से उन मामलों पर लागू होता है जहां शिकायत पर कॉग्निजेंस लिया जाता है। स्पष्ट कारणों से, ऐसे मामलों में ऐसी विशेष पद्धति (मेथड) या अभ्यास की आवश्यकता नहीं होती है जहां पुलिस रिपोर्ट पर कॉग्निजेंस लिया गया हो।

ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट के तहत शिकायत कार्यवाही 

शिकायती की जांच (एग्जामिनेशन ऑफ द कंप्लेंट)

सी.आर.पी.सी., 1973 की धारा 200 में कहा गया है कि, एक मजिस्ट्रेट, जो शिकायत पर हुए अपराध का कॉग्निजेंस लेने के लिए अधिकृत (ऑथॉरिज़) होता है, शिकायतकर्ता (कम्प्लेनेंट) और गवाहों (विटनेसेस) (यदि कोई है) दोनों द्वारा प्रस्तुत शपथ पर विचार करेंगे और बाद में इस परीक्षण (एग्जामिनेशन) से प्राप्त तथ्य को लिखित किया जाएगा, शिकायतकर्ता और गवाहों और मजिस्ट्रेट के हस्ताक्षर (सिग्नेचर) के साथ सी.आर.पी.सी, 1973 की धारा 2(d), में दी गई परिभाषा के अनुसार, शिकायत मौखिक या लिखित दोनों रूपों में से किसी भी रूप में हो सकती है। धारा 200 या किसी अन्य धारा में शिकायतकर्ता को व्यक्तिगत रूप से मजिस्ट्रेट को लिखित शिकायत पेश करने की आवश्यकता नही होती है। इसलिए डाक के माध्यम से मजिस्ट्रेट को भेजी गई शिकायतें वैध (वैलिड) हैं और वह ऐसी शिकायतों पर भी कार्रवाई कर सकते है।

चाहे शिकायत लिखित या मौखिक रूप में हो, लेकिन सी.आर.पी.सी, 1973 की धारा 200 में मजिस्ट्रेट द्वारा शपथ पर जांच करना, कानूनी रूप से अनिवार्य है। मजिस्ट्रेट को प्रस्तुत की गई शिकायत की इस तरह की जांच का एकमात्र उद्देश्य यह स्थापित करना है, कि निम्नलिखित शिकायत में अपराधी के खिलाफ कोई प्रत्यक्ष (डायरेक्ट) या वास्तविक मामला है या नहीं। इसके अलावा, इसका उद्देश्य एक शिकायत पर प्रक्रिया (प्रोसीजर) के मुद्दे को प्रतिबंधित (रिस्ट्रिक्ट) करना है, जो या तो झूठी या अनुचित है या किसी व्यक्ति पर किसी अपराध का आरोप लगाकर उसे परेशान करने का इरादा से हो सकती है।

धारा 200 के तहत प्रदान किए गए प्रावधान (प्रोविजन) केवल औपचारिकता (फॉर्मेलिटी) नहीं हैं, बल्कि विधायिका (लेजिस्लेचर) द्वारा अनुचित शिकायत के खिलाफ आरोपी व्यक्ति की रक्षा और सुरक्षा के लिए किए गए हैं। ये प्रावधान विवेकाधीन (डिस्क्रिशनरी) नहीं हैं, लेकिन मजिस्ट्रेट द्वारा निष्पादित (एक्सेक्यूटेड) किए जाने के लिए अनिवार्य हैं। कुछ मामलों में, मजिस्ट्रेट द्वारा शिकायत की गैर-परीक्षा (नॉन-एग्जामिनेशन) या अनुचित जांच को केवल असमान माना जाता है लेकिन प्रतिवादी (डिफेंडेंट) के प्रति न्याय की विफलता के अभाव में “कार्यवाही को अप्रभावी” नहीं माना जाता। यह भी माना जाता है कि, मजिस्ट्रेट द्वारा शिकायत की जांच न करने से शिकायतकर्ता को नुकसान हो सकता है, न कि उस व्यक्ति को जिस पर उसने आरोप लगाया है। ‘लोक सेवक या कोर्ट द्वारा शिकायत’ मामले के संबंध में पुन: परीक्षा की कोई आवश्यकता नहीं है और मजिस्ट्रेट, मामले को धारा 192 के तहत एक अलग मजिस्ट्रेट को अग्रेषित (फॉरवर्ड) करte है’।

मामले का कॉग्निजेंस लेने के लिए असक्षम मजिस्ट्रेट द्वारा प्रक्रिया (द प्रोसीजर बाय मजिस्ट्रेट नॉट कम्पीटेंट टू टेक कॉग्नीज़न्स ऑफ द केस)

सी.आर.पी.सी, 1973 की धारा 201 के अनुसार, ”यदि किसी ऐसे मजिस्ट्रेट के सामने शिकायत की जाती है जो मामले का कॉग्निजेंस लेने में सक्षम  नहीं है, तो मजिस्ट्रेट दोनों में से कोई एक काम इस प्रकार करेंगे-

  1. यदि कोई शिकायत लिखित रूप में की जाती है, तो मजिस्ट्रेट को निम्नलिखित मामले को उचित कोर्ट में प्रस्तुत करने के लिए उस आशय के समर्थन (सपोर्ट) के साथ संदर्भित करने की आवश्यकता होती है।
  2. यदि शिकायत लिखित में नहीं है, तो मजिस्ट्रेट शिकायतकर्ता को उचित कोर्ट में निर्धारित करेगा।

आदेशिका के जारी किए जाने को मुल्तवी करना (पोस्टपोनमेंट ऑफ इश्यू ऑफ प्रोसेस)

धारा 202 के अनुसार जांच के आदेश को “पोस्ट कॉग्निजेंस इन्वेस्टिगेशन” कहा जाता है, जो कि सी.आर.पी.सी, 1973 के अध्याय 12 (धारा 156(3)) के तहत की गई जांच नहीं है। इसलिए, इस आदेश के तहत कोई भी रिपोर्ट सी.आर.पी.सी, 1973 की धारा 202 के अनुसार की जाएगी न कि सी.आर.पी.सी, 1973 की धारा 173(2) के अनुसार की जाएगी। सी.आर.पी.सी,1973 की धारा 202 के तहत यह जांच ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट द्वारा मांगे गए सीमित उद्देश्य के लिए है। हालांकि, ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट धारा 202 के तहत जांच का आदेश नहीं देगा यदि:

  • मामला विशेष रूप से सत्र कोर्ट (सेशन कोर्ट) द्वारा विचारणीय (कंसीडरेबल) है
  • जब लोक सेवक द्वारा शिकायत की गई हो और मामला सत्र कोर्ट द्वारा विशेष रूप से विचारणीय न हो।

इस धारा के अनुसार साक्ष्य (एविडेंस) का संग्रहण (कलेक्शन) पुलिस अधिकारी या कोई भी ऐसा व्यक्ति कर सकता है जो योग्य हो और इस संबंध में ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट द्वारा अधिकृत (ऑथॉराइज़्ड) हो।

इस धारा के तहत निर्धारित जांच का मुख्य उद्देश्य प्रक्रिया के मुद्दे की ओर बढ़ने का निर्णय लेने में मजिस्ट्रेट की सहायता करना है और यह प्रक्रिया पूरी तरह से और संपूर्ण प्रकृति की नहीं होनी चाहिए। यदि अपराध विशेष रूप से सत्र कोर्ट द्वारा विचारणीय के लिए किया जाता है, जो अंततः परोक्ष रूप (इंडिरेक्टली) से स्वयं मजिस्ट्रेट द्वारा की गई जांच को प्राप्त करने में मदद करने वाला है, तो निर्देशित (डायरेक्ट) करने के लिए किसी जांच की आवश्यकता नहीं है।

इसके अलावा, उस मामले में जहां शिकायत कोर्ट द्वारा नहीं की गई है, तब तक किसी भी जांच का निर्देश देने की आवश्यकता नहीं है जब तक कि शिकायतकर्ता और गवाहों की शपथ के आधार पर जांच नहीं की जाती है। सी.आर.पी.सी. की धारा 465 ऐसी परीक्षा से पहले जांच का निर्देश देने के मामले में कार्यवाही को ठीक नहीं कर पाएगी बल्कि कार्यवाही को बिगाड़ देगी। अगर मजिस्ट्रेट खुद मामले का फैसला करना चाहते है तो शपथ पर गवाह की जिम्मेदारी लेने या न लेने का अधिकार मजिस्ट्रेट के पास है।

सी.आर.पी.सी, 1973 की धारा 202(2) इस विचार के बारे में बात करती है कि अपराधों के मामले, जो पूरी तरह से सत्र कोर्ट द्वारा विचारणीय हैं, जांच प्रकृति में व्यापक-आधारित (एक्सक्लूसिव जूरिस्डिक्शन) होनी चाहिए जबकि मजिस्ट्रेट की विवेकाधीन कार्रवाई पर छोड़े गए मामलों के विपरीत होनी चाहिए। इस व्यापक-आधारित जांच का नेतृत्व केवल उस स्थिति में किया जाता है, जहां वह यह तय करने में असमर्थ होता है कि शिकायत को खारिज करना है या शिकायत पर प्रक्रिया जारी करने के लिए आगे बढ़ना है। सत्र कोर्ट द्वारा मुकदमे के मामले में, मजिस्ट्रेट द्वारा स्पष्ट रूप से शिकायतकर्ता को अपने सभी गवाहों के साथ बुलाने और शपथ पर उनकी जांच करने की आवश्यकता होती है और यहां ‘ऑल’ शब्द का अर्थ है सब नही बस ‘कुछ’। यह प्रावधान आरोपी व्यक्ति को शिकायतकर्ता द्वारा लगाए गए आरोपों के संबंध में बचाव के लिए तैयार करने में मदद करता है और सभी गवाहों की परीक्षा केवल औपचारिकता नहीं है। धारा 202 के तहत शपथ पर गवाहों की परीक्षा के दौरान शिकायतकर्ता को कोर्ट में उपस्थित होने के लिए मजबूर करने के लिए कोई प्रावधान नहीं है और खासकर जब शिकायतकर्ता की शपथ पर पहले ही जांच की जा चुकी है। ऐसी स्थिति में मजिस्ट्रेट द्वारा शिकायत को खारिज करना अवैध माना जाएगा।

शिकायत को खारिज करना (डिस्मिस्सल ऑफ द कंप्लेंट)

सी.आर.पी.सी,1973 की धारा 203 के अनुसार, “मजिस्ट्रेट शिकायत को खारिज भी कर सकता है यदि धारा 202 के तहत जांच या जांच के परिणामस्वरूप कार्यवाही का कोई आधार नहीं है”, अर्थात, धारा 200 के तहत शिकायतकर्ता और उसके गवाहों के बयानों और जांच के परिणाम पर विचार करने के बाद धारा 202, ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट की राय है कि मामले में आगे बढ़ने के लिए पर्याप्त आधार नहीं है, वह संक्षिप्तमें दर्ज कारणों के साथ शिकायत को खारिज कर देगा। उन्हीं तथ्यों पर दूसरी शिकायत पर केवल असाधारण मामलों में ही विचार किया जा सकता है।

प्रक्रिया का मुद्दा (इशू ऑफ़ प्रोसेस)

सी.आर.पी.सी की धारा 204 के अनुसार, यदि किसी अपराध का कॉग्निजेंस लेने वाले ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट को लगता है कि मामले में आगे बढ़ने के लिए पर्याप्त आधार है, तो वह आरोपी व्यक्ति के खिलाफ निम्नलिखित तरीके से प्रक्रिया जारी करेगा:

  1. यदि यह एक समन का मामला है, तो वह अभियुक्त की उपस्थिति के लिए एक समन जारी करेगा
  2. यदि यह वारंट का मामला है, तो वह वारंट जारी कर सकता है या यदि वह ठीक समझता है, तो अभियुक्त को एक निश्चित तिथि और समय पर उपस्थित होने के लिए समन जारी कर सकता है।

धारा 204 सी.आर.पी.सी, 1973 के तहत समन या वारंट जारी करने की यह पूरी प्रक्रिया आरोपी व्यक्ति को अभियोजन पक्ष के गवाहों से अवगत कराने और अपना बचाव तैयार करने के लिए है।

एक बार ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट ने किसी मामले में समन या वारंट जारी कर दिया है, वह जारी करने की प्रक्रिया के अपने आदेश को वापस नहीं ले सकता है। इसलिए, धारा 204 सी.आर.पी.सी के तहत प्रक्रिया जारी करने को चुनौती देने के लिए पीड़ित व्यक्ति के पास एकमात्र सहारा धारा 482 सी.आर.पी.सी लागू करना है।

शिकायत को खारिज करना (डिस्मिस्सल ऑफ कंप्लेंट)

सी.आर.पी.सी,1973 की धारा 203 एक मजिस्ट्रेट को शिकायतकर्ता की शिकायत पर कॉग्निजेंस लेने के लिए अधिकृत करती है ताकि मामले की कार्यवाही जारी रखने के लिए पर्याप्त आधार के बारे में राय बनाई जा सके। यह राय शिकायतकर्ता और उसके गवाहों द्वारा दिए गए बयानों पर आधारित होनी चाहिए और आगे धारा 202 के अनुसार जांच या जांच के परिणाम पर निर्भर करती है। मजिस्ट्रेट को मामले के संबंध में उपलब्ध भौतिक तथ्यों पर अपना दिमाग लगाने की आवश्यकता होती है और फिर एक राय बताएं कि क्या वे आधार मामले की कार्यवाही को जारी रखने के लिए पर्याप्त हैं या नहीं।

मामला सी.आर.पी.सी,1973 की धारा 203 और धारा 204 के स्तर पर सत्र कोर्ट द्वारा पूरी तरह से विचारणीय है। मजिस्ट्रेट को बस इतना करना है कि वह शिकायत का ठीक से अध्ययन या जांच करें और धारा 200 और धारा 202 के तहत परिचयात्मक (इंट्रोडक्टरी) जांच के दौरान दर्ज किए गए सबूत आरोपी व्यक्ति पर लगाए गए आरोपों के समर्थन में प्रत्यक्ष सबूत हैं या नही। बाद के चरण में जो कि धारा 203 के अनुसार है, मजिस्ट्रेट को उपलब्ध साक्ष्य को ठीक से मापने की आवश्यकता नहीं है और इसे ट्रायल कोर्ट के प्रदर्शन के लिए छोड़ देना चाहिए। साक्ष्य की जांच में जो गुणवत्ता (क्वालिटी) रखी जानी चाहिए वह वैसी नहीं होनी चाहिए जैसी आरोप तय करने के चरण के दौरान रखी जाती है। सबूत और राय के मानकों को आरोप तय करने के चरण के दौरान बिल्कुल लागू नहीं किया जाना चाहिए जैसे कि आरोपी व्यक्ति को अपराध के लिए दोषी साबित करने से पहले अंतिम रूप से लागू किया गया था। इसलिए यदि धारा 202 या 204 का चरण अभियुक्त पर लगाए गए आरोप का समर्थन करने के लिए प्रत्यक्ष साक्ष्य प्रदान करता है, तो मामले से संबंधित शिकायत में विशेष रूप से सत्र कोर्ट द्वारा विचारणीय है, यह आरोपी को प्रक्रिया जारी करने के लिए पर्याप्त आधार होगा और आगे उसे सत्र कोर्ट में विचारण के लिए प्रतिबद्ध करना।

धारा 203 के अनुसार, मजिस्ट्रेट को अपने विवेक का प्रयोग करते हुए उस मकसद पर विचार करके खुद को हेरफेर करने की अनुमति नहीं देनी चाहिए जिसके द्वारा शिकायतकर्ता ने मामले में कार्रवाई की हो, न कि उन तथ्यों के बाहर,  किसी अन्य विचार से जो शिकायतकर्ता द्वारा अपनी शिकायत के समर्थन में आरोपी के खिलाफ, प्रस्तुत किए गए हैं। अपराध के प्रयास और शिकायतकर्ता द्वारा की गई शिकायत की तारीख के बीच केवल समय व्यतीत करना शिकायत को खारिज करने का कोई आधार नहीं है, हालांकि यह प्रस्तुत किए जाने पर साक्ष्य के मूल्यांकन के लिए परीक्षण पर विचार करने के लिए प्रासंगिक (रिलेवेंट) हो सकता है।

मजिस्ट्रेट द्वारा शिकायत को खारिज करने का आदेश हाई कोर्ट्स द्वारा जांच के अधीन है और बाद में इसकी समीक्षा की जा सकती है। इसलिए, शिकायत को खारिज करने के पीछे के कारणों की अभिलेख (रिकॉर्डिंग), शिकायत की ऐसी जांच के लिए उपयोगी होगी। इस स्तर पर, अभियुक्त के लिए मजिस्ट्रेट को संतुष्ट करना संभव होना चाहिए कि उसके खिलाफ कोई मामला मौजूद नहीं था और वह धारा 204 के अनुसार आदेश जारी करने की प्रक्रिया को वापस ले सकता है और धारा 203 के तहत शिकायत को खारिज कर सकता है। चिमन लाल बनाम दातार सिंह और अन्य (1997) के मामले में, यह माना गया कि एक शिकायत को खारिज करना अनुचित है जहां मजिस्ट्रेट सी.आर.पी.सी, 1973 के 202 के तहत बताए गए भौतिक तथ्यों (फिजिकल फैक्ट्स) और गवाहों की जांच करने में असमर्थ है।

निजी शिकायत को खारिज करने की मजिस्ट्रेट की शक्ति जो कोई अपराध प्रकट नहीं करती है (पावर ऑफ मजिस्ट्रेट टू डिसमिस द प्राइवेट कंप्लेंट व्हिच रिवील्स नो ऑफेंस) 

सी.आर.पी.सी की धारा 190 (1) के तहत उल्लिखित खंड (a) के प्रावधानों के अनुसार, मजिस्ट्रेट के पास एक निजी शिकायत पर विचार करने की शक्ति है। यह अनिवार्य है कि शिकायतकर्ता द्वारा दायर की गई शिकायत में वे तथ्य शामिल हों जो अपराध को स्थापित करते हैं और यदि शिकायत में उल्लिखित ये तथ्य अपराध के संबंध में गलत साबित होते हैं तो मजिस्ट्रेट को ऐसी शिकायत का लेखा-जोखा लेने की आवश्यकता नहीं है। उसके पास बिना कोई पूछताछ किए ऐसी शिकायतों को खारिज करने का विवेकाधिकार है।

महमूद उल रहमान बनाम खज़ीर मोहम्मद टुंडा (2015) मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि: सी.आर.पी.सी,1973 की धारा 190 (1)(b) के अनुसार, मजिस्ट्रेट को पुलिस रिपोर्ट पर लाभ होता है, जिसमें शिकायतों से संबंधित प्रासंगिक तथ्यों का उल्लेख होता है और आगे, सी.आर.पी.सी. की धारा 190(1)(c), यह प्रावधान करता है कि मजिस्ट्रेट के पास पुलिस रिपोर्ट के अलावा किसी अन्य व्यक्ति के माध्यम से प्राप्त अपराध के कमीशन की जानकारी या ज्ञान का हिसाब लेने की शक्ति है। लेकिन धारा 190 (1) (a) के तहत मजिस्ट्रेट के पास शिकायत ही एकमात्र विकल्प है। इसलिए, मजिस्ट्रेट को शिकायत का सीधे कॉग्निजेंस लेने की आवश्यकता नहीं है और धारा 190 (1)(a) के अनुसार शिकायतकर्ता द्वारा शिकायत में उल्लेखित किसी भी अपराध के कमीशन को प्रकट नहीं करता है और शिकायत को केवल  मजिस्ट्रेट द्वारा खारिज कर दिया जाता है मजिस्ट्रेट द्वारा धारा 204 के बाद उठाए गए कदमों से यह स्पष्ट होना चाहिए कि उसने तथ्यों और बयानों को अपने दिमाग में रखा है और इस तरह के अपराध के खिलाफ कानूनी कार्यवाही के लिए आगे उस आरोपी व्यक्ति से पूछताछ करने का एक वैध आधार है जिस पर आरोप लगाए गए हैं। केवल कार्यवाही के आधार पर संतुष्ट होने का मतलब यह होगा कि शिकायत में उल्लिखित तथ्यों में एक अपराध शामिल होगा और जब दर्ज किए गए बयानों के साथ जांच की जाएगी तो आरोपी व्यक्ति को सीधे कोर्ट के समक्ष जवाबदेह (आंसरेबल) बना देगा। जब मजिस्ट्रेट द्वारा शिकायत को खारिज कर दिया जाता है तो सी.आर.पी.सी, 1973 की धारा 203 के अनुसार एक कथित आदेश पास करने की आवश्यकता होती है और उसी के संबंध में संक्षेप में कारणों को बताया जाना चाहिए। इस प्रकार, सुप्रीम कोर्ट द्वारा उपर्युक्त निर्णय इस मुद्दे को सुलझाता है कि मजिस्ट्रेट एक निजी शिकायत को खारिज कर सकता है जब ऐसी शिकायत में वर्णित तथ्य ऐसे मामले में कोई और कानूनी जांच किए बिना सीधे किसी अपराध को प्रकट नहीं करते हैं।

मजिस्ट्रेट की शक्तियां (पावर ऑफ मजिस्ट्रेट)

  • धारा 200 मजिस्ट्रेट से शिकायतकर्ता और उपस्थित गवाहों दोनों की जांच करने की मांग करती है। यह दायित्व आवश्यक होने के कारण, मजिस्ट्रेट को शिकायत पूछने की आवश्यकता है कि कोई गवाह है या नहीं। गवाह की अनुपस्थिति की स्थिति में, मजिस्ट्रेट को आदेश पत्र में निम्नलिखित तथ्य दर्ज करना चाहिए।
  • मजिस्ट्रेट द्वारा शिकायत की आगे की जांच के लिए अन्वेषण या जांच-

किसी भी मजिस्ट्रेट को किसी अपराध की शिकायत प्राप्त होने पर, जिस पर वह कार्रवाई करने के लिए अधिकृत है या जो उसे सीआर.पी.सी की धारा 192 के तहत निर्धारित किया गया था, यदि कोई मजिस्ट्रेट आरोपी व्यक्ति के खिलाफ कार्यवाही के मुद्दे को स्थगित करना उचित समझता है और या तो जांच कर सकता है मामला स्वयं या किसी पुलिस अधिकारी या किसी अन्य व्यक्ति द्वारा जांच करने का निर्देश देता है जो वह सोचता है कि कार्यवाही के लिए पर्याप्त सबूत हैं या नहीं, यह तय करने के उद्देश्य से।

  • धारा 203 प्रत्येक मामले में इस धारा के तहत शिकायत को खारिज करने की शक्ति देती है और जिसके लिए वह संक्षेप में अपने कारणों को दर्ज करेगा क्योंकि इससे यह निर्धारित करने में मदद मिलेगी कि शिकायतकर्ता द्वारा की गई शिकायत को खारिज करते समय मजिस्ट्रेट ने तथ्यों पर अपना दिमाग लगाया या नहीं या अपने विवेक का ठीक से प्रयोग किया है या नहीं।

धारा के पीछे का उद्देश्य (द ऑब्जेक्टिव बिहाइंड द सेक्शन)

  • शपथ पर शिकायत की जांच केवल एक औपचारिकता नहीं है जिसे मजिस्ट्रेट द्वारा निष्पादित करने की आवश्यकता है और इस तरह की परीक्षा के साथ शिकायत का निर्वहन अवैध है और सीआर.पी.सी के प्रावधानों के खिलाफ है।
  • शपथ का एक बयान, एक अलग श्रेणी (कैटेगरी) में होता है, जिसका अर्थ है कि इसे उस बयान के बराबर नहीं रखा जा सकता है जो बिना शपथ लिए दिए जा सकते हैं। विधायी आदेश या साधन के अनुसार शपथ पर बयान की आवश्यकता को धारा 465 के तहत प्रदान किए गए प्रावधानों द्वारा होने की अनुमति नहीं दी जा सकती है। हालांकि, मजिस्ट्रेट द्वारा शिकायत पर कार्रवाई करने के लिए याचिका में उल्लिखित गवाहों की लगातार जांच करने की आवश्यकता नहीं है। इसलिए शपथ के आधार पर शिकायतकर्ता की जांच करने के बाद, जिसके परिणामस्वरूप आरोपी के खिलाफ एक सीधा मामला मिल जाता है, कार्यवाही का पालन किया जाएगा और यदि इस मामले में गवाहों की मजिस्ट्रेट द्वारा जांच नहीं की गई, तो धारा 200 के तहत कार्यवाही अप्रभावी नहीं होगी। 
  • धारा 203 प्रत्येक मामले में इस धारा के तहत शिकायत को खारिज करने की शक्ति देती है और जिसके लिए वह संक्षेप में अपने कारणों को दर्ज करेगा क्योंकि इससे यह निर्धारित करने में मदद मिलेगी कि शिकायतकर्ता द्वारा की गई शिकायत को खारिज करते समय मजिस्ट्रेट ने तथ्यों पर अपना दिमाग लगाया या नहीं। या अपने विवेक का ठीक से प्रयोग किया है या नहीं।
  • प्रासंगिक (रिलेवेंट) साक्ष्य सामग्री पर विचार करने और कारणों को दर्ज़ करने की आवश्यकता पर विचार करने का महत्वपूर्ण कर्तव्य एक शिकायत की बर्खास्तगी (डिस्मिस्सल) के खिलाफ एक महत्वपूर्ण सुरक्षा है।
  • जहां आरोपी व्यक्तियों पर कई अपराधों के किए जाने के संबंध में एक शिकायत का आरोप लगाया गया हो और मजिस्ट्रेट के पास उन सभी या उनमें से कुछ के खिलाफ किए गए अपराधों के संबंध में कार्यवाही जारी करने के लिए पर्याप्त सबूत है, तो ऐसे मामले में वह अपने आदेश के द्वारा, अन्य अपराधों के संबंध में ऐसे व्यक्ति के खिलाफ शिकायतो को खारिज कर देंगे। यहां भी धारा 203 के तहत बताए गए प्रावधान चलन में आएंगे और मजिस्ट्रेट को इसके पीछे कारण बताने की जरूरत है कि वह क्यों मानता है कि आरोपी व्यक्तियों के खिलाफ कार्यवाही जारी रखने के लिए पर्याप्त आधार नहीं हैं जिसके लिए उनके खिलाफ कोई कार्रवाई शुरू नहीं की गई है।

ऐतिहासिक निर्णय (लैंडमार्क जजमेंटस)

मनहरीभाई मुलजीभाई काकड़िया और अन्य बनाम शैलेशभाई मोहनभाई पटेल और अन्य

मनहरीभाई मुलजीभाई काकाड़िया और अन्य बनाम शैलेशभाई मोहनभाई पटेल और अन्य (2012), मामले में शैलेश भाई मोहन भाई पटेल ने मनहरीभाई मुलजीभाई काकाड़िया और परेश लवजीभाई पटेल के खिलाफ मुख्य ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट, सूरत की कोर्ट में एक आपराधिक शिकायत दर्ज की। अपीलकर्ताओं ने उनके खिलाफ आरोप लगाया कि उन्होंने जाली दस्तावेज बनाकर एक साजिश रची थी और शिकायतकर्ता, उसके पिता और चाचा, उसके चाचा के दो बेटे और उसके बड़े भाई के हस्ताक्षर हासिल किए थे। इसके अलावा, उक्त दस्तावेजों को जिला रजिस्ट्रार के समक्ष प्रस्तुत करके प्रामाणिक और मूल के रूप में इस्तेमाल किया, और झूठा अभ्यावेदन (रिप्रजेंटेशन) देकर इंदौर एजेंसी कोऑपरेटिव हाउसिंग सोसाइटी लिमिटेड का पंजीकरण प्राप्त किया। ऐसा करके आरोपी (अपीलकर्ता) ने शिकायतकर्ता और उसके परिवार के सदस्यों को आर्थिक नुकसान और शारीरिक और मानसिक रूप से परेशान किया है। उसने शिकायतकर्ता की संपत्ति पर कब्जा कर भारी वित्तीय लाभ प्राप्त कर शिकायतकर्ता और उसके परिवार के सदस्यों को भी धोखा दिया है। इस प्रकार, यह माना गया कि अपीलकर्ताओं ने इंडियन पीनल कोड, 1860 के तहत धारा 420, 467, 468, 471 और 120-B के तहत दंडनीय अपराध किया है।

निर्णय: सुप्रीम कोर्ट ने माना कि शिकायतकर्ता द्वारा हाई कोर्ट या सत्र न्यायाधीश के समक्ष दायर एक पुनरीक्षण (रिविजनल) याचिका में मजिस्ट्रेट के आदेश को धारा 200 के तहत या धारा 202 के तहत जांच की गई प्रक्रिया का पालन करने के बाद कोड की धारा 203 के तहत शिकायत को खारिज करने के आदेश को चुनौती दी गई थी। सी.आर.पी.सी. की धारा में, आरोपी या कोई व्यक्ति जिस पर अपराध करने का संदेह है, वह कानूनी रूप से पुनरीक्षण कोर्ट द्वारा सुनवाई का हकदार है।

दूसरे शब्दों में, धारा 203 के तहत मजिस्ट्रेट द्वारा खारिज की गई शिकायत को हाई कोर्ट या सत्र न्यायाधीश के समक्ष एक पुनरीक्षण याचिका में चुनौती दी जा सकती है, शिकायत में आरोपी व्यक्तियों को अधिकार है कि वे ऐसी पुनरीक्षण याचिका में सुनवाई यदि पुनरीक्षण कोर्ट शिकायत को खारिज करने के मजिस्ट्रेट के आदेश को खारिज कर देता है और फिर शिकायत को मजिस्ट्रेट की फाइल में बहाल कर दिया जाता है और इसे आधार पर नए सिरे से विचार करने के लिए वापस भेज दिया जाता है। जिन व्यक्तियों का शिकायत में उल्लेख किया गया है, जिन्होंने अपराध किया है, उन्हें कार्यवाही में भाग लेने का कोई अधिकार नहीं है और न ही वे मजिस्ट्रेट द्वारा किसी भी प्रकार की सुनवाई के हकदार हैं, जब तक कि मजिस्ट्रेट द्वारा प्रक्रिया जारी करने के लिए मामले पर विचार नहीं किया जाता है। इसके विपरीत हाई कोर्ट्स के निर्णयों को खारिज किया जाता है।

धारा 203 के तहत पास किए गए आदेश को पुनरीक्षण में बुलाया जा सकता है। इस सवाल का जवाब कि क्या धारा 203 के तहत शिकायत को खारिज करने के मजिस्ट्रेट के आदेश को चुनौती देने वाले शिकायतकर्ता द्वारा किए गए संशोधन (अमेंडमेंट) में एक संदिग्ध पुनरीक्षण कोर्ट द्वारा सुनवाई का हकदार है, सुप्रीम कोर्ट द्वारा पुष्टि में उत्तर दिया गया है।

चंद्र देव सिंह बनाम प्रोकाश चंद्र बोस और अन्य

चंद्र देव सिंह बनाम प्रोकश चंद्र बोस और अन्य (1963), के मामले में माननीय न्यायाधीश का मानना ​​था कि, चूंकि केवल एक ही अपराध है, अर्थात नागेश्वर सिंह की हत्या, केवल एक ही मुकदमा हो सकता है और अन्य व्यक्तियों के संबंध में कोई और जांच नहीं की जा सकती, जिन पर उस अपराध के लिए मुकदमा चलाया जा रहा है। चूंकि अभिलिखित पर भौतिक तथ्यों की उपलब्धता नहीं थी, जिसके द्वारा कोर्ट बता सकती थी कि हाई कोर्ट द्वारा पुनरीक्षण के लिए उनके आवेदन को खारिज करने के बाद असीम मंडल और अरुण मंडल के खिलाफ जांच का क्या हुआ। वह रिपोर्ट प्राप्त हुई थी जिससे पता चलता है कि हाई कोर्ट ने निर्देश दिया था कि इन दोनों व्यक्तियों के खिलाफ प्रतिबद्धता (कमिटमेंट) कार्यवाही लंबित (पेंडिंग) है जिसके कारण इस कोर्ट द्वारा वर्तमान अपील का निपटारा किया गया है। कोर्ट ने कहा कि वह इस तर्क की सराहना नहीं कर सकता कि एक ही अपराध के संदर्भ में एक अलग व्यक्ति के खिलाफ जांच नहीं की जा सकती है।

हमने ऊपर जो कहा है, उसे देखते हुए अंतिम आधार के बारे में बहुत कुछ कहना जरूरी नहीं है। दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 203 में प्रावधान है कि जहां मजिस्ट्रेट शिकायत को खारिज कर देता है क्योंकि उसके फैसले के अनुसार मुकदमे को आगे बढ़ाने के लिए पर्याप्त आधार नहीं है, और उसे ऐसा करने के लिए अपने कारणों को दर्ज करना चाहिए। इधर, जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है कि मजिस्ट्रेट ने पूछताछ करने वाले मजिस्ट्रेट की रिपोर्ट का अनुसरण किया और फिर शिकायत को खारिज करने के लिए आगे बढ़े। इस राय (व्यू) के समर्थन में, कोर्ट के निर्णय पर निर्भरता रखी जाती है।

इधर, इस मामले में, धारा 203 के तहत जांच के स्तर पर मजिस्ट्रेट द्वारा एक शिकायत को खारिज करने को सुप्रीम कोर्ट ने यह परीक्षण करते हुए खारिज कर दिया था कि क्या कार्यवाही के लिए पर्याप्त आधार था या नहीं या क्या कनविक्शन इसके लिए पर्याप्त आधार था या नहीं। कोर्ट ने आगे देखा कि जहां प्रत्यक्ष साक्ष्य है, भले ही आरोपी के पास यह सुरक्षा हो कि अपराध कुछ अन्य व्यक्तियों द्वारा किया गया है, फिर मामले को उचित जगह पर उचित मंच द्वारा तय करने के लिए छोड़ दिया जाना चाहिए और प्रक्रिया के मुद्दे से इंकार नहीं किया जा सकता है। जब तक मजिस्ट्रेट यह नहीं पाता कि उसके सामने प्रस्तुत साक्ष्य आत्म-विरोधाभासी (सेल्फ कॉन्ट्रडिक्टोरी) या अनिवार्य रूप से अविश्वसनीय है, तब तक प्रक्रिया को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है यदि वह साक्ष्य प्रत्यक्ष कारण बताता है।

निष्कर्ष (कंक्लूज़न)

जब कोर्ट में लिखित रूप में शिकायत दर्ज की जाती है, तो मजिस्ट्रेट शिकायत का अध्ययन करने के बाद इसे दर्ज करता है। इसे दर्ज करने के बाद सी.आर.पी.सी. की धारा 200 के तहत शिकायतकर्ता का बयान उसी दिन दर्ज किया जाता है और किसी अन्य दिन के लिए कोड ऑफ क्रिमिनल प्रोसीजर की धारा 202 के तहत गवाहों के साक्ष्य दर्ज करने के लिए मामला तय किया जाता है। सीआर.पी.सी की धारा 202 के तहत, गवाह या गवाहों साक्ष्य दर्ज करने के बाद मामले में समन भेज जाते हैं ताकि कार्यवाही शुरू की जा सके। सुनवाई पर दलीलें सुनने के बाद मामले को अगली समन के लिए नियत किया गया है। यदि क्रिमिनल प्रोसीजर कोड की धारा 200 और 202 के तहत साक्ष्य के अनुसार दंडाधिकारी यह पाता है या संतुष्ट करता है कि अपराध से संबंधित साक्ष्य शिकायत में उपलब्ध हैं। मजिस्ट्रेट, आरोपी के खिलाफ, सी.आर.पी.सी की धारा 204 के तहत प्रक्रिया जारी करता है। वहीं अगर मजिस्ट्रेट सी.आर.पी.सी की धारा 200 और 202 के तहत साक्ष्यों का अध्ययन करने के बाद संतुष्ट होते हैं कि कोई प्राइम फेसी अपराध नहीं बनता है और कार्यवाही के लिए पर्याप्त आधार नहीं है तो वह सी.आर.पी.सी, 1973 की धारा 203  के तहत शिकायत को खारिज कर देता है।

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