भारतीय संविधान के तहत रिट

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1955
Indian Constitution
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यह लेख इंदौर इंस्टीट्यूट ऑफ लॉ के तृतीय वर्ष के छात्र Adarsh Singh Thakur द्वारा लिखा गया है। इस लेख में उन्होंने भारतीय संविधान के तहत रिट और उनके प्रकारों पर विस्तार से चर्चा की है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja द्वारा किया गया है।

Table of Contents

परिचय (इंट्रोडक्शन)

सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट्स को कई शक्तियाँ प्रदान की गई हैं जिनका प्रयोग वे लोगों को न्याय प्रदान करने के लिए करते हैं। भारतीय संविधान द्वारा कोर्ट्स को जो सबसे महत्वपूर्ण उपकरण (टूल्स) या शक्ति प्रदान की गई है, उनमें से एक रिट जारी करने की शक्ति है।

रिट का अर्थ है किसी व्यक्ति या प्राधिकरण (अथॉरिटी) को कोर्ट का आदेश जिसके द्वारा ऐसे व्यक्ति/प्राधिकारी को एक निश्चित (सर्टेन) तरीके से कोई कार्य करने या किसी कार्य करने से परहेज (ओमिट) करना पड़ता है। इस प्रकार, रिट कोर्ट्स की न्यायिक शक्ति का एक बहुत ही आवश्यक हिस्सा हैं।

संविधान में रिट्स

भारत में, संविधान ने सुप्रीम कोर्ट को आर्टिकल 32 के तहत रिट जारी करने की शक्ति प्रदान की है। आर्टिकल 32 के तहत, जब किसी नागरिक के किसी भी मौलिक अधिकार (फंडामेंटल राइट) का उल्लंघन (वॉयलेट) होता है, तो उस व्यक्ति को अपने अधिकारों के प्रवर्तन (एनफोर्समेंट) के लिए सीधे सुप्रीम कोर्ट की शरण लेने का अधिकार होता है और कोर्ट ऐसे अधिकार को लागू करने के लिए उपयुक्त रिट जारी कर सकता है।

आर्टिकल 226 के तहत भारत के हाई कोर्ट्स को भी रिट जारी करने की शक्ति प्रदान की जाती है। जबकि नागरिक सुप्रीम कोर्ट से तभी संपर्क कर सकते हैं जब उनके मौलिक अधिकार का उल्लंघन हो, इसके अलावा अन्य मामलों में जहां नागरिकों के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं होता है, वहां उन्हें रिट को जारी करवाने के लिए हाई कोर्ट की शरण लेने का अधिकार भी है। उदाहरण के लिए, श्रीमती इम्तियाज बानो बनाम मसूद अहमद जाफरी और अन्य के मामले में, एक मां ने अपने 2 बच्चों की कस्टडी पाने के लिए आर्टिकल 226 के तहत हैबियस कॉर्पस की एक रिट याचिका (पिटीशन) दायर की थी। हाई कोर्ट ने याचिका को स्वीकार कर लिया और उसके पक्ष में रिट जारी की गई। इस प्रकार, सुप्रीम कोर्ट की तुलना में हाई कोर्ट्स में रिट जारी करने की शक्ति का दायरा (स्कोप) व्यापक (वाइड) है।

उदाहरण: A एक भारतीय नागरिक है जिसके मौलिक अधिकार का उल्लंघन किया गया है। यहां A को अपने अधिकार को लागू कराने के लिए सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट की शरण लेने का अधिकार है। लेकिन अगर A के अधिकार का उल्लंघन होता है जो मौलिक अधिकार नहीं है, तो उसे केवल आर्टिकल 226 के तहत हाई कोर्ट की शरण लेने का अधिकार है।

इसलिए, एक नागरिक को रिट जारी करवाने के लिए सुप्रीम कोर्ट या हाई कोर्ट की शरण लेने का अधिकार है, लेकिन यदि वह किसी भी कोर्ट से संपर्क करना चाहता है और उसका मुकदमा कोर्ट द्वारा खारिज (डिसमिस) कर दिया जाता है, तो नागरिक दूसरे कोर्ट में एक ही मुकदमा दर्ज़ नहीं कर सकता है, क्योंकि भारत में, रेस ज्यूडिकाटा के सिद्धांत का पालन किया जाता है, जिसका अर्थ है कि कार्रवाई के एक ही कारण के लिए दूसरा मामला दर्ज़ नहीं किया जा सकता है। लेकिन अगर कोई व्यक्ति हाई कोर्ट में मामला दर्ज़ करता है और हाई कोर्ट उसके पक्ष में फैसला नहीं करता है, तो उसे सुप्रीम कोर्ट में उस फैसले के खिलाफ अपील करने का पूरा अधिकार है।

उदाहरण: A हाई कोर्ट में आर्टिकल 226 के तहत याचिका दायर करता है और कोर्ट उसकी याचिका को स्वीकार कर लेता है। मामले की कार्यवाही समाप्त होने के बाद, हाई कोर्ट ने प्रतिवादी (डिफेंडेंट) के पक्ष में फैसला सुनाया। यहाँ A को हाई कोर्ट के निर्णय के विरुद्ध (अगेंस्ट) सुप्रीम कोर्ट में अपील करने का अधिकार है। लेकिन अगर हाई कोर्ट ने A द्वारा दायर याचिका को खारिज कर दिया था, तो उसे सुप्रीम कोर्ट में अपील करने का अधिकार नहीं है।

रिट के प्रकार

भारतीय संविधान 5 प्रकार की रिट प्रदान करता है जो कोर्ट्स द्वारा जारी की जा सकती हैं। वह इस प्रकार हैं:

  1. हैबियस कॉर्पस
  2. मैंडेमस
  3. सर्शियोरारी
  4. क्वो वारंटो
  5. प्रोहिबिशन

हैबियस कॉर्पस

हैबियस कॉर्पस की रिट उन मामलों में कोर्ट्स द्वारा जारी कि जाता है जहां एक व्यक्ति को अवैध (इल्लीगल) रूप से हिरासत में लिया जाता है। हैबियस कॉर्पस का अर्थ है ‘शरीर रखना’ और यह हिरासत में लिए गए व्यक्ति के लिए उपलब्ध सबसे प्रभावी (इफेक्टिव) उपचारों (रेमेडीज) में से एक है।

इस रिट द्वारा, कोर्ट उस व्यक्ति या प्राधिकारी को आदेश देता है, जिसने किसी अन्य व्यक्ति को हिरासत में लिया है या रोका है, ऐसे व्यक्ति को कोर्ट के समक्ष पेश करने का आदेश दिया जाता है। कोर्ट को हिरासत में लिए गए व्यक्ति को उन आधारों को प्रदान करने की आवश्यकता होती है, जिन पर उस व्यक्ति को हिरासत में लिया गया है और यदि वह व्यक्ति या प्राधिकारी वैध आधार प्रदान करने में विफल रहता है, तो हिरासत में लिए गए व्यक्ति को कोर्ट द्वारा तुरंत रिहा कर दिया जाएगा।

उदाहरण: A को एक पुलिस अधिकारी, B द्वारा गलत तरीके से हिरासत में लिया गया है। A उसी के संबंध में हाई कोर्ट को लिखता है। हाई कोर्ट B को A के साथ समन भेजता है और A को हिरासत में लेने के लिए आधार पूछता है। अगर B एक वैध आधार या A को हिरासत में लेने के लिए औचित्य (जस्टिफिकेशन) प्रदान करने में विफल रहता है, तो A, हिरासत से जाने के लिए स्वतंत्र होगा।

यह रिट नागरिकों की व्यक्तिगत (पर्सनल) स्वतंत्रता के लिए बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि यदि यह रिट संविधान द्वारा प्रदान नहीं की जाती है, तो किसी व्यक्ति को किसी भी प्राधिकारी द्वारा गैर कानूनी रूप से प्रतिबंधित (रिस्ट्रेन) या हिरासत में लिया जा सकता है और यह नागरिकों की व्यक्तिगत स्वतंत्रता का स्पष्ट उल्लंघन होगा।

भले ही इस रिट का उद्देश्य किसी व्यक्ति को हिरासत में लेने से रोकना है लेकिन यह तभी लागू होगा जब हिरासत में लेना या रोक लगाना गैर कानूनी हो। यदि कोर्ट को हिरासत में रखने का आधार उचित लगता है तो यह रिट जारी नहीं किया जा सकता है। साथ ही, यदि कोर्ट किसी व्यक्ति को हिरासत में लेने का आदेश देता है तो यह गैर कानूनी रूप से हिरासत में लेने के तहत नहीं आएगा और इस मामले में यह रिट जारी नहीं की जा सकती है।

यह रिट न केवल हिरासत में लिए गए व्यक्ति द्वारा लागू की जा सकती है बल्कि इसे हिरासत में लिए गए व्यक्ति की ओर से किसी अन्य व्यक्ति द्वारा भी जारी की जा सकता है।

हैबियस कॉर्पस के रिट के संबंध में नियम (रूल्स रिगार्डिंग द रिट ऑफ़ हैबियस कॉर्पस)

हैबियस कॉर्पस रिट से संबंधित नियम निम्नलिखित हैं:

  1. आवेदक (एप्लीकेंट) दूसरे की हिरासत में होना चाहिए
  2. आमतौर पर, हिरासत में लिए गए व्यक्ति और उसके परिवार के सदस्यों को हैबियस कॉर्पस के लिए एक आवेदन (एप्लीकेशन) दर्ज़ करने की अनुमति दी जाती है, लेकिन कोर्ट ने ऐसे आवेदन को दर्ज़ करने की अनुमति आवेदक की ओर से किसी भी व्यक्ति को भी दी है, यदि यह जनहित में किया जाता है।
  3. इस रिट को दायर करने के लिए निर्धारित (प्रेस्क्राइब्ड) तरीका आवश्यक नहीं है, इसलिए रिट के संबंध में औपचारिक (फॉर्मल) और अनौपचारिक (इनफॉर्नल) दोनों तरह के आवेदन कोर्ट्स द्वारा स्वीकार किए जाते हैं। उदाहरण के लिए एक रिट के लिए आवेदन, पोस्टकार्ड द्वारा भी किया जा सकता है, जैसा कि सुनील बत्रा बनाम दिल्ली एडमिनिस्ट्रेशन के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कैदियों के साथ अमानवीय (इंह्यूमन) व्यवहार के कारण एक सह-दोषी (एक अजनबी) द्वारा पत्र के माध्यम से किए गए आवेदन को स्वीकार कर लिया था। इस मामले में, पत्र को एक आवेदन के रूप में स्वीकार किया गया था और हैबियस कॉर्पस की रिट जारी की गई।
  4. एक व्यक्ति एक ही कोर्ट के विभिन्न जजों को रिट जारी करने के लिए आवेदन नहीं कर सकता है। इस प्रकार, यदि कोई आवेदन एक जज द्वारा खारिज कर दिया जाता है, तो वही आवेदन उसी कोर्ट के दूसरे जज को नहीं किया जा सकता है और यदि ऐसा किया जाता है, तो इस तरह के आवेदन को रेस ज्यूडीकाटा के सिद्धांत के कारण खारिज कर दिया जाएगा।
  5. यह रिट पुलिस द्वारा की गई गिरफ्तारी के मामले में लागू होगी, जब सभी औपचारिकताओं और प्रक्रियाओं का पालन करने की आवश्यकता होती है जिनका पालन नहीं किया जाता है। उदाहरण के लिए – गिरफ्तार व्यक्ति को मजिस्ट्रेट या थाने के इन चार्ज अधिकारी के समक्ष पेश करने की आवश्यकता। [सी.आर.पी.सी. की धारा 56]

कोर्ट का उदार दृष्टिकोण (लिबरल एप्रोच ऑफ़ द कोर्ट्स)

हैबियस कॉर्पस के मामलों में, कोर्ट्स ने देश में मौजूदा सामाजिक-आर्थिक (सोशियो-इकोनॉमिक) स्थितियों को मान्यता दी है और यह तथ्य कि अभी भी बहुत से लोग निरक्षर (इलिट्रेट) और गरीब हैं। इस प्रकार, कोर्ट्स याचिकाकर्ता (पेटिशनर) द्वारा किए गए आवेदन को इस आधार पर खारिज नहीं करते हैं कि वह उचित आधार दिखाने में विफल रहा है, जिस पर उसने हिरासत को चुनौती दी है।

मैंडेमस

मैंडेमस एक अन्य महत्वपूर्ण रिट है जो भारतीय संविधान द्वारा प्रदान की गई है। मैंडेमस के रिट में, सुपीरियर कोर्ट अन्य इनफिरियर कोर्ट्स को कोई कार्य करने या किसी कार्य करने से परहेज करने का आदेश देते हैं। यह आदेश किसी इनफीरियर ट्रिब्यूनल, बोर्ड, निगम (कॉर्पोरेशन) या किसी अन्य प्रकार के प्रशासनिक (एडमिनिस्ट्रेटिव) प्राधिकरण को भी दिया जा सकता है।

भारत में, सुपीरियर कोर्ट सुप्रीम कोर्ट है, इसलिए उसके पास हाई कोर्ट के खिलाफ भी मैंडेमस की रिट जारी करने की शक्ति है, भले ही हाई कोर्ट्स को भी आर्टिकल 226 के तहत इस तरह के रिट जारी करने की शक्ति प्रदान की गई हो। इसलिए, एक हाई कोर्ट इस रिट को आर्टिकल 226 के तहत केवल इनफिरियर कोर्ट्स जैसे जिले के ट्रायल कोर्ट के खिलाफ जारी कर सकता है।

यह रिट उस कर्तव्य (ड्यूटी) को लागू करने के लिए उपयोगी (यूजफुल) है, जिसे कानून द्वारा या किसी व्यक्ति द्वारा धारण (होल्ड) किए जाने वाले कार्यालय (ऑफिस) द्वारा किया जाना आवश्यक है। उदाहरण के लिए कोर्ट के जज का कर्तव्य है कि वह नेचरल जस्टिस के सिद्धांतों का पालन करे और यदि जज ऐसा करने में विफल रहते है, तो इस कर्तव्य की पूर्ति (फुलफिलमेंट) का निरीक्षण (ऑब्जर्व) करने के लिए सुपीरियर कोर्ट द्वारा एक रिट जारी की जा सकती है।

मैंडेमस की  रिट के बारे में सबसे महत्वपूर्ण पॉइंट्स में से एक यह है कि इसे किसी निजी (प्राइवेट) व्यक्ति के खिलाफ जारी नहीं किया जा सकता है और इसलिए केवल स्टेट या सार्वजनिक (पब्लिक) कार्यालय की श्रेणी (कैटेगरी) में आने वाले किसी भी कार्यालय को धारण करने वाले लोगों को एक कार्य करने से या न करने के लिए मजबूर किया जा सकता है। 

उदाहरण: A एक लोक सेवक है जिसका B के प्रति कर्तव्य है जिसे उसे कानून के अनुसार पूरा करना है, लेकिन वह कर्तव्य को पूरा नहीं करता है। B इस गैर-निष्पादन (नॉन परफॉर्मेंस) से व्यथित (अग्रीव) है और इसलिए वह A द्वारा कर्तव्य की पूर्ति की मांग के लिए हाई कोर्ट का रुख (एप्रोच) करता है। यहां हाई कोर्ट संतुष्ट (सेटिस्फाई) होने पर कि B का मामला प्रामाणिक (बोना फाइड) है और एक कर्तव्य है जिसे पूरा किया जाना चाहिए, इसलिए कोर्ट मैंडेमस की रिट जारी करेगा और A उस कर्तव्य को पूरा करने के लिए बाध्य (बाऊंड) होगा, जिसे उसने अब तक टाला है। लेकिन अगर A एक व्यापारी था जिसका B के प्रति कुछ कर्तव्य था लेकिन वह उसे पूरा करने में विफल रहता है। ऐसे मामले में A मैंडेमस की रिट जारी करने के लिए कोर्ट का दरवाजा खटखटा नहीं सकता क्योंकि यह रिट किसी निजी व्यक्ति के खिलाफ जारी नहीं की जा सकती है।

मैंडेमस के लिए आधार

यह रिट निम्नलिखित आधारों पर कोर्ट्स द्वारा जारी की जा सकती है:

  1. यदि याचिकाकर्ता के पास कानून द्वारा मान्यता प्राप्त अधिकार है। इस रिट का पूरा उद्देश्य नागरिकों के अधिकारों को लागू करना है लेकिन अगर कोई अधिकार नहीं है जो वादी (प्लेंटिफ) को प्राप्त होता है, तो वह मैंडेमस की रिट जारी करने के लिए कोर्ट का दरवाजा नहीं खटखटा सकता है।
  2. यदि याचिकाकर्ता के अधिकार का हनन (इनफ्रिंज) किया गया हो। अधिकार होने से अपने आप ही रिट जारी करने का आधार नहीं मिल जाता है, क्योंकि कोई भी व्यक्ति बिना किसी कारण के कोर्ट का दरवाजा खटखटा नहीं सकता। इस प्रकार केवल जब किसी अधिकार का उल्लंघन होता है, तो ही कोर्ट द्वारा रिट जारी की जा सकती है।
  3. याचिकाकर्ता ने अपने कर्तव्य का पालन करने के लिए प्राधिकरण से मांग की है लेकिन इस तरह के कर्तव्य का पालन नहीं किया गया है। इसलिए वह रिट, प्राधिकरण को उस कार्य को करने के लिए मजबूर करने के लिए जारी की जाता है, जो उन्हें कानून द्वारा या जिस पद को वह धारण करते हैं उसे करने के लिए आवश्यक है, इस प्रकार यह मैंडेमस की रिट को जारी करने के लिए एक आवश्यक आधार है।
  4. मैंडेमस की रिट के लिए अंतिम आवश्यक आधार, एक प्रभावी (इफेक्टिव) वैकल्पिक (अल्टरनेटिव) उपाय का अभाव (एब्सेंस) है, जिसका उपयोग याचिकाकर्ता द्वारा प्राधिकारी के कर्तव्य को लागू करने के लिए किया जा सकता है।
  5. याचिकाकर्ता को कोर्ट को यह दिखाना होगा कि प्राधिकरण द्वारा उस पर एक कर्तव्य बकाया (ओ) है और ऐसे प्राधिकारी ने अपना कर्तव्य नहीं निभाया है। यह रिट उन सभी प्रशासनिक कार्रवाइयों के खिलाफ जारी की जा सकती है जो प्रकृति में गैर कानूनी हैं।
  6. प्राधिकरण के कई कर्तव्य हैं, जिनमें से कुछ अनिवार्य (मैंडेटरी) हैं और कुछ को उनके विवेक (डिस्क्रीशन) पर छोड़ दिया जाता है। इस प्रकार, यदि कोई प्राधिकारी अपने अनिवार्य कर्तव्य का पालन नहीं करता है, तो कोर्ट द्वारा मैंडेमस की रिट जारी की जाएगी। लेकिन विवेकाधीन कर्तव्यों के मामलों में, रिट जारी नहीं की जा सकती है, लेकिन प्राधिकरण को अभी भी यह तय करते हुए कि विवेकाधीन कर्तव्य का पालन किया जाना चाहिए या नहीं, गुड फेथ में कार्य करना चाहिए।

विजया मेहता बनाम स्टेट ऑफ राजस्थान के मामले में, राज्य में क्लाइमेट परिवर्तन (चेंज) और बाढ़ की जांच के लिए एक कमीशन नियुक्त करने के अपने कर्तव्य का पालन करने के लिए स्टेट को बाध्य करने के लिए हाई कोर्ट में एक याचिका दायर की गई थी। कोर्ट द्वारा यह माना गया कि स्टेट सरकार को एक कमीशन की नियुक्ति तभी करनी होगी जब विधानमंडल (लेजिस्लेचर) द्वारा एक प्रस्ताव पास किया जाता है, इसके अलावा, यह एक विवेकाधीन कर्तव्य था और अनिवार्य कर्तव्य नहीं था, इसलिए इस मामले में मैंडेमस की रिट जारी नहीं की गई थी। 

भोपाल शुगर इंडस्ट्रीज लिमिटेड बनाम इनकम टैक्स अधिकारी, भोपाल के मामले में, इनकम टैक्स अपीलेट ट्रिब्यूनल ने अपने अंतिम आदेश द्वारा प्रतिवादी (रिस्पॉन्डें) इनकम टैक्स अधिकारी को स्पष्ट निर्देश (डायरेक्शन्स) दिए थे। इनकम टैक्स अधिकारी ने अभी भी ट्रिब्यूनल द्वारा दिए गए निर्देशों का पालन करने से इनकार कर दिया था। सुप्रीम कोर्ट ने यह माना था कि ट्रिब्यूनल द्वारा दिए गए निर्देशों को पूरा करना इनकम टैक्स अधिकारी का अनिवार्य कर्तव्य था और इसका पालन न करना गंभीर अन्याय था। इस प्रकार, ट्रिब्यूनल के निर्देशों का पालन करने के लिए अधिकारी को निर्देश देने के लिए मैंडेमस की रिट जारी की गई थी।

मैंडेमस की अनुमति कब नहीं दी जाती (व्हेन इज़ मैंडेमस नॉट अलाउड)?

मैंडेमस की रिट कोर्ट की विवेकाधीन शक्ति है और यह अधिकार नहीं है जिसे याचिकाकर्ता द्वारा लागू किया जा सकता है, इसलिए कई मामलों में इस रिट को कोर्ट्स द्वारा अस्वीकार किया जा सकता है।

कोर्ट्स निम्नलिखित मामलों में इन रिट्स को जारी करने से इंकार कर सकते हैं:

  1. जहां याचिकाकर्ता का अधिकार समाप्त हो गया है।
  2. उस प्राधिकारी द्वारा कर्तव्य पहले ही पूरा किया जा चुका है जिसके खिलाफ इस तरह की रिट जारी करने की मांग की गई है और इसलिए ऐसी स्थिति में रिट जारी करने से कुछ भी हासिल नही होगा।

इस रिट के लिए कौन आवेदन कर सकता है (हू केन एप्लाई फॉर दिस रिट) ?

आमतौर पर, जिस व्यक्ति के अधिकार का उल्लंघन किया जाता है, उसे मैंडेमस के रिट के लिए आवेदन करने की अनुमति दी जाती है, लेकिन सुप्रीम कोर्ट द्वारा उदार दृष्टिकोण (लिबरल व्यू) अपनाने और भारत में पब्लिक इंटरस्ट लिटिगेशन के आगमन के बाद, एक जन-हितैषी (पब्लिक-स्पिरिटिड) नागरिक भी अन्य लोगों की ओर से मैंडेमस की रिट जारी करने के लिए आवेदन कर सकता है।

मैंडेमस की रिट जारी करने के लिए निम्नलिखित बाते बहुत महत्वपूर्ण है:

  1. जिस कर्तव्य को लागू करने की मांग की गई है वह एक सार्वजनिक कर्तव्य होना चाहिए।
  2. ऐसा कर्तव्य कानून द्वारा प्रवर्तनीय (एनफोर्सेबल) होना चाहिए।

रतलाम म्युनिसिपैलिटी बनाम वर्धी चंद के मामले में, यह माना गया था कि रतलाम म्युनिसिपैलिटी एक वैधानिक (स्टेच्यूटरी) बॉडी थी, जो जनता के लिए जिम्मेदार थी जैसे कि मिट्टी और कूड़ा-करकट को हटाना, किसी भी सार्वजनिक उपद्रव को दूर करना आदि और इसलिए म्युनिसिपैलिटी द्वारा इन कर्तव्यों को लागू करने के लिए, कोर्ट द्वारा मैंडेमस की रिट जारी की गई थी। 

इस प्रकार, मैंडेमस के लिए आवेदन न केवल प्रभावित लोगों द्वारा बल्कि उन लोगों द्वारा भी किया जा सकता है जो जनहित में दूसरों की ओर से इन रिटों को लागू करना चाहते हैं।

सर्शियोरारी

अन्य रिट्स की तुलना में सर्शियोरारी एक अलग प्रकार की रिट है। यह रिट प्रकृति में सुधारात्मक (करेक्टिव) है जिसका अर्थ है कि इस रिट का उद्देश्य एक त्रुटि (एरर) को ठीक करना है जो रिकॉर्ड पर स्पष्ट है।

सर्शियोरारी एक रिट है जो एक सुपीरियर कोर्ट द्वारा एक इनफिरियर कोर्ट को जारी की जाती है। यह तब जारी की जा सकती है, जब सुपीरियर कोर्ट मामले में ही किसी मुद्दे का फैसला करना चाहता है या यदि इनफिरियर कोर्ट का दायरा अधिकार क्षेत्र (ज्यूरिडिक्शन) से अधिक है। यह रिट तब भी जारी की जा सकती है जब इनफिरियर कोर्ट द्वारा अपनाई जाने वाली प्रक्रिया में कोई मौलिक त्रुटि हो या प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन हुआ हो।

यदि सुपीरियर कोर्ट को पता चलता है कि नेचुरल जस्टिस का उल्लंघन हुआ है या अपनाई गई प्रक्रिया में कोई मौलिक त्रुटि हुई है, तो वह उस इनफिरियर कोर्ट के आदेश को रद्द कर सकता है।

उदाहरण: डिस्ट्रिक्ट कोर्ट में एक मामला है और कोर्ट के पास ऐसे मामलों का फैसला करने का कोई अधिकार क्षेत्र नहीं है। फिर भी, डिस्ट्रिक्ट कोर्ट के जज मामले को ट्राई करते हैं और अपना निर्णय देते हैं और A (ऐसे निर्णय से पीड़ित पक्ष) द्वारा हाई कोर्ट में एक आवेदन किया जाता है। इसके द्वारा रिट जारी करने की शक्ति पर, हाई कोर्ट डिस्ट्रिक्ट कोर्ट के आदेश पर, सर्शियोरारी की रिट जारी करेगा, जिसके परिणामस्वरूप, डिस्ट्रिक्ट कोर्ट के आदेश को रद्द कर दिया जाएगा।

सर्शियोरारी के आधार

सर्शियोरारी की रिट निम्नलिखित आधारों पर जारी की जा सकती है:

  1. क्षेत्राधिकार के आधार पर, सुपीरियर कोर्ट द्वारा एक रिट जारी की जा सकती है। जब भी कोई इनफिरियर कोर्ट अपने अधिकार क्षेत्र से आगे निकल जाता है या उसे प्रदान किए गए अधिकार क्षेत्र का दुरुपयोग करता है या जब इनफिरियर कोर्ट के अधिकार क्षेत्र का अभाव होता है, तो इनफिरियर कोर्ट द्वारा दिए गए आदेश को रद्द करने के लिए रिट जारी की जा सकती है।
  2. न्याय के प्राकृतिक सिद्धांतों का उल्लंघन एक अन्य आधार है जिस पर कोर्ट द्वारा सर्शियोरारी की रिट जारी की जा सकती है। प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत भारतीय संविधान का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं क्योंकि इन सिद्धांतों को संविधान द्वारा मान्यता दी गई है जैसे ऑडी अल्टरम पार्टम का सिद्धांत, जिसका अर्थ है कि दोनों पक्षों की सुनवाई होगी, भारतीय संविधान का एक अनिवार्य हिस्सा है।
  3. जब रिकॉर्ड में कोई त्रुटि दिखाई देती है, तो यह रिट जारी करने के लिए एक वैध आधार बन जाता है। यह रिट तब जारी की जा सकती है जब त्रुटि कानून के प्रावधानों की स्पष्ट अवहेलना (डिसरिगार्ड) पर आधारित हो, न कि केवल इसलिए कि निर्णय गलत था।

सर्शियोरारी के लिए महत्वपूर्ण शर्तें

सर्शियोरारी के रिट के लिए निम्नलिखित शर्तों को पूरा किया जाना चाहिए:

  1. बॉडी या व्यक्ति के पास कानूनी अधिकार।
  2. ऐसा प्राधिकार उन प्रश्नों के निर्धारण से संबंधित होना चाहिए जो लोगों के अधिकारों को प्रभावित करता हो।
  3. ऐसे बॉडी या व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह अपने कार्यों को करने में न्यायिक रूप से व्यव्हार करे।
  4. ऐसे व्यक्ति या बॉडी ने अपने अधिकार क्षेत्र या कानूनी अधिकार से अधिक कार्य किया हो।

जब ये सभी शर्तें पूरी हो जाती हैं, तब ही उस बॉडी या व्यक्ति के खिलाफ सर्शियोरारी की रिट जारी की जा सकता है, जिसने अपने अधिकार क्षेत्र से अधिक कार्य किया है।

व्यक्तित्व में कार्यवाही करने का नियम (रूल ऑफ़ प्रोसीडिंग इन परसोनम)

सर्शियोरारी की रिट से संबंधित मामलों में, कोर्ट द्वारा अधिकार क्षेत्र के गलत प्रयोग से व्यथित व्यक्ति की याचिका को हाई कोर्ट के समक्ष लाना चाहिए। इस संबंध में, यह रिट हैबियस कॉर्पस की रिट से अलग है क्योंकि हैबियस कॉर्पस के लिए एक गैर-पीड़ित व्यक्ति भी आवेदन कर सकता है और कोर्ट इस तरह के आवेदन को स्वीकार करेंगे।

सर्शियोरारी के मामले में कार्यवाही सुपीरियर कोर्ट के समक्ष एक ओरिजनल कार्यवाही है, जिसे एक याचिकाकर्ता द्वारा हाई कोर्ट के समक्ष आर्टिकल 226 के तहत और सुप्रीम कोर्ट के समक्ष भारतीय संविधान के आर्टिकल 32 के तहत शुरू किया जा सकता है।

यह रिट किसके खिलाफ है?

सर्शियोरारी की रिट उन बॉडीज के खिलाफ है जो प्रकृति में न्यायिक या अर्ध-न्यायिक (क्वासी ज्यूडिशियल) हैं। इस प्रकार, जब कोई बॉडी या कोई व्यक्ति न्यायिक कार्य करता है, तो उनके कार्यों को सर्शियोरारी की रिट के अधीन किया जा सकता है।

इसका यह भी अर्थ है कि इस रिट के आवेदन का दायरा केवल न्यायिक बॉडीज या अन्य बॉडीज तक सीमित है, जो न्यायिक कार्य करती हैं और इसका विस्तार केंद्र, राज्य या स्थानीय सरकारों तक नहीं होगा क्योंकि उनके कार्य प्रकृति में एडमिनिस्ट्रेटिव हैं और न्यायिक नहीं हैं।

क्वो वारंटो

क्वो वारंटो की रिट कोर्ट्स द्वारा एक निजी व्यक्ति के खिलाफ जारी की जाती है जब वह एक ऐसा पद ग्रहण करता है जिस पर उसका कोई अधिकार नहीं होता है। क्वो वारंटो का शाब्दिक अर्थ है ‘किस अधिकार से’ और यह लोगों को सार्वजनिक कार्यालयों पर कब्जा करने से रोकने के लिए एक प्रभावी उपाय है।

उदाहरण: A जो एक निजी नागरिक है और उसके पास सब-इंस्पेक्टर के पद के लिए कोई योग्यता नहीं है लेकिन तब भी वह ऐसा पद ग्रहण करता है। यहां A के खिलाफ उसके उस अधिकार पर सवाल उठाने के लिए क्वो वारंटो की रिट जारी की जा सकती है जिस पर उसने सब-इंस्पेक्टर के कार्यालय का नियंत्रण ले लिया है।

इस रिट को जारी करने की शक्ति कोर्ट्स पर विवेकाधीन है और इसलिए कोई भी यह मांग नहीं कर सकता कि कोर्ट इस रिट को जारी करने के लिए बाध्य है।

क्वो वारंटो जारी करने की शर्तें

यह रिट तभी जारी की जा सकती है जब ये शर्तें पूरी हों:

  1. जिस कार्यालय को निजी व्यक्ति द्वारा गलत तरीके से ग्रहण किया गया है, लेकिन वह एक सार्वजनिक कार्यालय है।
  2. कार्यालय संविधान या किसी अन्य क़ानून द्वारा बनाया गया था।
  3. इस कार्यालय से उत्पन्न होने वाले कर्तव्यों की प्रकृति सार्वजनिक है।
  4. कार्यालय का कार्यकाल (टर्म) स्थायी प्रकृति का होना चाहिए और यह किसी भी व्यक्ति या प्राधिकरण की इच्छा पर समाप्त नहीं होना चाहिए।
  5. जिस व्यक्ति के खिलाफ रिट जारी करने की मांग की गई है, उसने कार्यालय पर वास्तविक कब्जा किया हुआ है और वह ऐसे कार्यालय का उपयोग कर रहा है।
  6. यह रिट उन मामलों में भी जारी की जा सकती है जहां कोई व्यक्ति पहले पद धारण करने का हकदार था लेकिन अयोग्य (डिस्क्वालिफाई) होने के बाद भी उसने कार्यालय पर कब्जा कर रखा है।
  7. इस प्रकार ऐसे मामलों में जहां कार्यालय निजी प्रकृति का है, यह रिट कोर्ट द्वारा जारी नहीं की जा सकती है। यह विचार कोर्ट ने निरंजन कुमार गोयनका बनाम यूनिवर्सिटी ऑफ बिहार, मुजफ्फरपुर के मामले में व्यक्त किया था, जिसमें कोर्ट ने कहा था कि ऐसे व्यक्ति के खिलाफ क्वो वारंटो की रिट जारी नहीं की जा सकती है जो सार्वजनिक पद पर नहीं है।

जमालपुर आर्य समाज सभा बनाम डॉ. डी. रामा के मामले में याचिकाकर्ता द्वारा पटना हाई कोर्ट में बिहार राज आर्य समाज प्रतिनिधि सभा की वर्किंग कमिटी जो कि एक निजी (प्राइवेट) संस्था थी, के खिलाफ क्वो वारंटो की रिट जारी करने के लिए एक आवेदन दिया गया था। कोर्ट ने रिट जारी करने से इनकार कर दिया क्योंकि यह एक सार्वजनिक कार्यालय नहीं था।

प्रोहिबिशन

अंतिम रिट जो संविधान के तहत जारी की जा सकती है, वह प्रोहिबिशन की रिट है। यह रिट अक्सर जारी नहीं की जाती है और यह एक असाधारण उपाय है जो एक हाई कोर्ट किसी मामले को तय करने से रोकने के लिए एक इनफिरियर कोर्ट या ट्रिब्यूनल को जारी करता है क्योंकि इन कोर्ट्स के पास अधिकार क्षेत्र नहीं है।

यदि कोर्ट या ट्रिब्यूनल के पास अधिकार क्षेत्र नहीं है और वह तब भी मामले का फैसला करते है, तो यह एक अवैध निर्णय होगा क्योंकि एक कार्य के कानूनी होने के लिए उसके पास कानून की मंजूरी होनी चाहिए। उदाहरण के लिए, यदि कोई डिस्ट्रिक्ट कोर्ट, हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ अपील की सुनवाई कर रहा है, तो इस तरह के कार्य को प्रतिबंधित किया जाना बाध्य है क्योंकि डिस्ट्रिक्ट कोर्ट के पास ऐसी अपील को सुनने की शक्ति नहीं है। तो, डिस्ट्रिक्ट कोर्ट के इस तरह के कार्य के खिलाफ प्रोहिबिशन की एक रिट जारी की जाएगी।

प्रोहिबिशन की रिट के नियम

प्रोहिबिशन की रिट के मामलों में निम्नलिखित नियमों का पालन किया जाता है:

रिट तभी जारी की जा सकती है जब:

  1. इनफिरियर कोर्ट या ट्रिब्यूनल ने अपने अधिकार क्षेत्र को पार कर लिया हो,
  2. कोर्ट या ट्रिब्यूनल कानून के प्रावधानों के खिलाफ काम कर रहा हो,
  3. ऐसे मामलों में जहां कोर्ट आंशिक (पार्टली) रूप से अपने अधिकार क्षेत्र के भीतर और आंशिक रूप से इसके बाहर काम कर रहा हो, तो उस के खिलाफ रिट जारी की जा सकती है जो आंशिक रूप से उसके अधिकार क्षेत्र से बाहर है।
  4. तथ्य यह, कि आवेदक को इनफिरियर कोर्ट के आदेश के खिलाफ अपील करने का अधिकार है और इस रिट को जारी करने में बाधा नहीं होगी।
  5. यह रिट केवल तभी जारी की जा सकती है जब इनफिरियर कोर्ट में कार्यवाही लंबित (पेंडिंग) हो और तब नहीं जब उस कोर्ट द्वारा पहले ही आदेश पारित किया जा चुका हो। इस प्रकार, यह रिट एक पूर्व-निवारक (प्रीएंप्टिव) उपाय है जिसका प्रयोग हाई कोर्ट द्वारा इनफिरियर कोर्ट को अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर कार्य करने से रोकने के लिए किया जाता है।
  6. प्रोहिबिशन की रिट केवल न्यायिक या अर्ध-न्यायिक बॉडीज के खिलाफ जारी की जा सकती है और इसे किसी प्रशासनिक बॉडी के खिलाफ जारी नहीं किया जा सकता है।

प्रोहिबिशन और सर्शियोरारी के बीच अंतर

सर्शियोरारी और प्रोहिबिशन की रिट, दोनों एक जैसे प्रतीत होते हैं लेकिन दोनों में एक बड़ा अंतर है। प्रोहिबिशन के रिट में, इनफिरियर कोर्ट द्वारा अंतिम आदेश पास होने से पहले सुपीरियर कोर्ट रिट जारी करता है और इसलिए यह एक निवारक (प्रिवेंटिव) उपाय है, जबकि सर्शियोरारी की रिट में सुपीरियर कोर्ट, इनफिरियर कोर्ट द्वारा अंतिम आदेश दिए जाने के बाद रिट जारी करता है। इस प्रकार सर्शियोरारी की रिट एक सुधारात्मक (करेक्टिव) उपाय है जिसके द्वारा इनफिरियर कोर्ट के आदेश को रद्द कर दिया जाता है।

निष्कर्ष (कंक्लूज़न)

भारत के संविधान ने आर्टिकल 32 के तहत सुप्रीम कोर्ट और आर्टिकल 226 के तहत हाई कोर्ट्स को रिट जारी करने की शक्ति प्रदान की है। यह रिट एक आदेश है जो कोर्ट्स द्वारा सार्वजनिक प्राधिकरण को एक कार्य करने के लिए दिया जाता है।

पांच प्रकार की रिट होती हैं, जो हैबियस कॉर्पस, मैंडेमस, सर्शियोरारी, क्वो वारंटो और प्रोहिबिशन हैं और ये सभी रिट लोगों के अधिकारों को लागू करने और अधिकारियों को उनके कर्तव्यों को पूरा करने के लिए मजबूर करने के लिए एक प्रभावी तरीका हैं, जो कानून के तहत अपना कार्य करने के लिए बाध्य हैं।

इन रिट्स में से, मैंडेमस का दायरा सबसे विस्तृत है। जबकि अन्य रिट केवल कुछ विशेष परिस्थितियों में ही जारी की जाती हैं, जैसे कि जब किसी व्यक्ति को अवैध रूप से हिरासत में लिया जाता है (हैबियस कॉर्पस) या जब कोर्ट द्वारा अधिकार क्षेत्र से बाहर कोई कार्य किया जाता है (सर्शियोरारी), मैंडेमस की रिट उन मामलों में जारी की जाती है जहां प्राधिकारीयों को उनके कार्य करने के लिए कहा जाता है। 

इसलिए, इन सभी रिट्स ने लोगों के अधिकारों को लागू करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है और कोर्ट्स की न्यायिक समीक्षा के दायरे में भी सुधार किया है।

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