यह लेख Chandu Reddy द्वारा लिखा गया है। इस लेख में क्रिमिनल प्रोसीजर कोड के तहत चार्ज की फ्रेमिंग पर चर्चा की गई है। इस लेख का अनुवाद Sakshi Gupta द्वारा किया गया है।
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परिचय (इंट्रोडक्शन)
क्या होता है जब आरोपी को यह सूचित नहीं किया जाता है कि उस पर किस हेड के तहत चार्ज लगाया गए है? ऐसी स्थिति में आरोपी के मुकदमे में देरी की वजह से अन्याय होगा और आरोपी को अपना बचाव तैयार करने में भी देरी होगी। इसलिए, यह आवश्यक है कि जैसे ही आरोपी पर अपराध का चार्ज लगाया जाता है, उसे अपने चार्ज के बारे में सूचित किया जाना चाहिए। आपराधिक मामलों में निष्पक्ष (फेयर) सुनवाई की बुनियादी (बेसिक) आवश्यकताओं में से एक यह है कि आरोपी को उसके खिलाफ आरोप के बारे में सटीक जानकारी दी जाए। यह “चार्ज” पढ़े जाते है और आरोपी व्यक्ति को समझाये जाते है।
चार्ज
सरल शब्दों में चार्ज का अर्थ आरोपी व्यक्ति को उन आधारों (ग्राउंड) के बारे में सूचित करना है जिन पर चार्ज लगाया गया है। एक चार्ज को क्रिमिनल प्रोसीजर कोड, 1973 की धारा 2(b) के तहत परिभाषित किया गया है, जिसमें कहा गया है कि जब चार्ज में एक से अधिक हेड होते हैं तो चार्ज में कोई भी हेड शामिल होता है। वी.सी. शुक्ला बनाम स्टेट (1980) का मामला बताता है कि चार्ज तय करने का उद्देश्य आरोपी को सूचना देना है, जो कानून की विशिष्ट (स्पेसिफिक) भाषा के अनुसार तैयार किया गया है, और आरोप की प्रकृति की स्पष्ट या सटीक सूचना देना है कि आरोपी को मुकदमे के दौरान मिलने के लिए कहा जाता है।
‘चार्ज’ से संबंधित प्रावधान (प्रोविजन रिलेटेड टू ‘चार्ज’)
क्रिमिनल प्रोसिजर कोड, 1973 के चैप्टर 17 के तहत एक चार्ज का निपटारा किया जाता है।
धारा 211 से 214 | चार्ज के कंटेंट |
धारा 216 से 217 | चार्ज को बदलने के लिए कोर्ट की शक्तियां |
धारा 218 | बुनियादी नियम |
धारा 219, 220, 221 और 223 | एक्सेप्शन्स |
धारा 224 | विथड्रॉ के प्रभाव |
धारा 215 और 464 | एरर के प्रभाव |
चार्ज का फॉर्म और कंटेंट
सी.आर.पी.सी की धारा 211 चार्ज के कंटेंट के अनिवार्य तत्वों (एसेंशियल) का गठन (कांस्टीट्यूट) करती है:
- चार्ज फॉर्म में उस अपराध का उल्लेख होगा जिसके लिए आरोपी पर चार्ज लगाये गये है।
- चार्ज फॉर्म में सटीक अपराध का नाम निर्दिष्ट (स्पेसिफाई) होगा जिसके लिए आरोपी पर चार्ज लगाये गये है।
- यदि किसी कानून के तहत उस अपराध के लिए कोई विशिष्ट नाम नहीं दिया गया है जिस पर आरोपी पर चार्ज लगाये गये है, तो चार्ज फॉर्म में अपराध की परिभाषा स्पष्ट रूप से बताई जानी चाहिए और आरोपी को सूचित किया जाना चाहिए।
- चार्ज फॉर्म में कानून और उसके प्रावधानों (प्रोविजंस) का उल्लेख किया जाना है।
- चार्ज कोर्ट की भाषा में लिखा जाना चाहिए।
- आरोपी को उसके पिछले आरोपों के बारे में सूचित किया जाएगा जो चार्जड अपराध के लिए दोषी पाए जाने पर उसकी बढ़ी हुई सजा के लिए उजागर करेगा।
कोर्ट इन इट्स मोशन बनाम शंकरू (1982) के मामले में, कोर्ट ने कहा कि केवल उस धारा का उल्लेख करना जिसके तहत आरोपी पर चार्ज लगाया गया है, बिना चार्ज के सार का उल्लेख किए, प्रक्रिया का गंभीर उल्लंघन है।
दल चंद बनाम स्टेट (1981) में, कोर्ट ने माना कि चार्ज में दोष (डिफेक्ट) कनविक्शन को नष्ट कर देता है।
सी.आर.पी.सी की धारा 212 में दावा किया गया है कि चार्ज फॉर्म में निम्न चीज़े शामिल होंगी:
- वह अपराध जिसके लिए आरोपी पर चार्ज लगाया गया है और विवरण (पर्टिकुलर) जैसे समय, स्थान और वह व्यक्ति जिसके खिलाफ अपराध किया गया है और आरोपी को उस मामले की सटीक और स्पष्ट सूचना देना जिसके लिए उस चार्ज लगाया गया है।
- चार्ज फॉर्म में सही समय का उल्लेख करने की आवश्यकता नहीं है जब आरोपी पर आपराधिक ब्रीच ऑफ़ ट्रस्ट या बेईमानी से धन या किसी अन्य चल (मूवेबल) संपत्ति के दुरुपयोग का चार्ज लगाया जाता है, यह पर्याप्त है यदि ग्रोस सम निर्दिष्ट है और तारीखें जिस पर इस तरह के कथित अपराध के करने का चार्ज लगाया गया है।
रणछोड़ लाल बनाम मध्य प्रदेश स्टेट (1964) में, यह माना गया था कि जानकारी की प्रकृति के कारण सटीक विवरण का उल्लेख करने में विफलता कार्यवाही को अमान्य नहीं कर सकती है।
सी.आर.पी.सी की धारा 213 में दावा किया गया है कि जब मामले की प्रकृति ऐसी है कि धारा 211 और 212 में वर्णित विवरण आरोपी को उस मामले की पर्याप्त सूचना नहीं देते हैं, जिसमे उस पर चार्ज लगाया गया है, तो चार्ज में इस तरह के विवरण शामिल होंगे कि कैसे आरोपित अपराध किया गया है और यह इस उद्देश्य के लिए पर्याप्त होगा।
चार्ज में परिवर्तन और इस तरह के परिवर्तन का पालन करने की प्रक्रिया
सी.आर.पी.सी की धारा 216 बताती है कि अदालतों को फैसला सुनाने से पहले किसी भी समय चार्ज बदलने या जोड़ने की शक्ति है।
ट्रायल कोर्ट या अपीलेट कोर्ट या तो आरोप में बदलाव कर सकती है या जोड़ सकती है बशर्ते (प्रोवाइड) कि केवल एक ही शर्त है:
- आरोपी को नए अपराध के लिए चार्जेस का सामना नहीं करना पड़ेगा।
- आरोपी को उसके खिलाफ चार्ज का बचाव करने का अवसर दिया जाना चाहिए।
इस तरह के बदलाव या चार्ज में किसी भी तरह के जोड़ने के बाद, आरोपी को चार्ज समझाया जाएगा ताकि वह नई चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार हो सके।
यदि कोर्ट यह निष्कर्ष निकालती है कि आरोप में बदलने या जोड़ने से आरोपी या अभियोजक (प्रॉसिक्यूटर) पर प्रतिकूल (प्रेज्यूडिस्ड) प्रभाव पड़ने की संभावना है, तो कोर्ट मूल (ओरिजनल) ट्रायल के साथ आगे बढ़ सकती है या इसे स्थगित (एडजर्न) कर सकती है। मामले को तब तक आगे नहीं बढ़ाया जाएगा जब तक कि अपराध करने वाले तथ्यों के संबंध में मंजूरी नहीं मिल जाती।
चार्ज का जोड़ (जोइंडर ऑफ चार्ज)
के. सतवंत सिंह बनाम पंजाब स्टेट (1960) के मामले में चार्जेस के जोड़ की धाराएं बाध्यकारी नहीं हैं। वे केवल कुछ परिस्थितियों में चार्जेस के संयुक्त (जॉइंट) ट्रायल की अनुमति देते हैं, और कोर्ट्स प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों का पूरी तरह से अध्ययन करने के बाद न्याय प्रशासन (ऐडमिनिस्ट्रेशन) के हित में उस पर विचार कर सकते हैं।
चार्ज और उसकी ट्रायल के संबंध में मूल नियम
आपराधिक मामलों में निष्पक्ष सुनवाई की प्रारंभिक (इनिशियल) आवश्यकता चार्ज का सटीक विवरण है।
मूल नियम के एक्सेप्शन
एक्सेप्शन 1
सी.आर.पी.सी की धारा 219 में दावा किया गया है कि जब किसी व्यक्ति पर एक से अधिक अपराध का चार्ज लगाया जाता है, लेकिन एक ही तरह के 3 से अधिक नहीं, और अपराध 12 महीने के भीतर किया जाता है तो आरोपी पर चार्ज लगाया जा सकता है और किए गए सभी अपराध के लिए एक ट्रायल चलाया जा सकता है। अपराध एक ही प्रकार के तब कहे जाते हैं जब वे इंडियन पीनल कोड की एक ही धारा या किसी विशेष कानून या स्थानीय कानूनों के तहत समान दंड के साथ दंडनीय होते हैं। सी.आर.पी.सी की धारा 219 के प्रावधान में कहा गया है कि जब आरोपी आईपीसी की धारा 379 के तहत दंडनीय है, और इसे आईपीसी की धारा 380 के तहत दंडनीय अपराध के समान अपराध कहा जाता है।
मदन मोहन साहू बनाम सेंट्रल एजेंसीज (2010) में, 12 महीनों के भीतर चेक जारी किए गए थे। कोर्ट ने माना कि उनके डिसऑनर के खिलाफ दो अलग-अलग शिकायतें दर्ज करना आवश्यक नहीं है और एक ही शिकायत दर्ज करना पर्याप्त है।
एक्सेप्शन 2
सी.आर.पी.सी की धारा 220(1) में, जब आरोपी एक ही लेन-देन में कई अपराध करता है, तो उस पर संयुक्त रूप से मुकदमा चलाया जा सकता है और यह महत्वहीन (इम्मैटेरियल) है कि अपराध एक ही तरह का है या नहीं, या संख्या तीन से अधिक है या नहीं, और अपराध 1 वर्ष के भीतर किया गया है या नहीं।
मोहिंदर सिंह बनाम पंजाब स्टेट (1998) के मामले में, यह माना गया था कि कोर्ट एक ट्रायल में सभी अपराधों को एक साथ निपटा सकती है या नहीं।
एक्सेप्शन 3
सी.आर.पी.सी की धारा 220(2) में, जब आरोपी पर आपराधिक ब्रीच ऑफ़ ट्रस्ट या संपत्ति का बेईमानी से दुरुपयोग में एक या अधिक अपराधों का चार्ज लगाया जाता है, तो आरोपी पर ऐसे हर अपराध के लिए चार्ज लगाया जा सकता है और उस पर ट्रायल की जा सकती है।
एक्सेप्शन 4
सी.आर.पी.सी की धारा 220(3) में, जब आरोपी पर ऐसे अपराध का चार्ज लगाया जाता है जो कानून की दो या दो से अधिक अलग-अलग परिभाषाओं के अंदर आता है, तो आरोपी पर ऐसे प्रत्येक अपराध के लिए चार्ज लगाया जा सकता है और उस पर ट्रायल की जा सकता है।
रामायण भगत बनाम स्टेट (1968) के मामले में, यह कहा गया था कि एक व्यक्ति पर एसेंशियल कमोडिटीज एक्ट, 1955 की धारा 7 के तहत निर्धारित (प्रेस्क्राइब्ड) सीमा से अधिक चावल रखने और चावल के उसी बैग के संबंध में डकैती के लिए मुकदमा चलाया जा सकता है।
एक्सेप्शन 5
सी.आर.पी.सी की धारा 220(4) में, जब आरोपी कई कार्य करता है और जिनमें से एक अपराध का गठन करता है और संयुक्त रूप से यह एक अलग अपराध का गठन करता है, तो आरोपी व्यक्ति को संयुक्त होने पर ऐसे कार्यों द्वारा गठित अपराध के लिए ट्रायल की जा सकती है।
उदाहरण : A, B की रॉबरी करता है, और ऐसा करने में वह अपनी इच्छा से उसे चोट पहुँचाता है। A पर आई.पी.सी की धारा 323, 392 और 394 के तहत एक अपराध के लिए अलग से चार्ज लगाया जा सकता है और उसे दोषी ठहराया जा सकता है।
एक्सेप्शन 6
सी.आर.पी.सी की धारा 221 कुछ शर्तें निर्धारित करती है:
- जब एक ही कार्य या कार्यों की श्रृंखला (सीरीज) इस तरह की प्रकृति की हो कि यह संदेहास्पद (डाउटफुल) है कि आरोपी ने कौन सा अपराध किया है तो आरोपी पर ऐसे सभी या किसी भी अपराध को करने का चार्ज लगाया जा सकता है और उसके खिलाफ चार्जेस की एक ही बार में ट्रायल किया जा सकता है।
- जब आरोपी पर एक अपराध का चार्ज लगाया जाता है, लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि साक्ष्य में एक अलग अपराध है जिसके लिए उस पर चार्ज लगाया गया था, तो आरोपी को केवल उस अपराध के लिए दोषी ठहराया जाता है, जो उसने किया था, हालांकि उस पर इसके लिए चार्ज नहीं लगाया है।
यह धारा केवल चोरी और आपराधिक ब्रीच ऑफ़ ट्रस्ट जैसे कॉग्नेट अपराधों में लागू होती है और इसमें हत्या और चोरी जैसे अपराध शामिल नहीं होते हैं।
अछुत राय बनाम एंपरर (1926) के मामले में, जहां आरोपी पर आई.पी.सी की धारा 302 के तहत हत्या का चार्ज लगाया गया है, आरोपी को इंडियन पीनल कोड की धारा 194 के तहत दोषी नहीं ठहराया जा सकता है।
एक्सेप्शन 7
सी.आर.पी.सी की धारा 223 के तहत कुछ व्यक्तियों पर संयुक्त रूप से मुकदमा चलाया जा सकता है:
- आरोपी जिसने लेनदेन के एक ही क्रम में अपराध किया।
- किसी अपराध का आरोपी और ऐसा अपराध करने के लिए उकसाने या प्रयास करने का आरोपित व्यक्ति।
- एक ही तरह के एक से अधिक अपराध के आरोपित और 12 महीने के भीतर उनके द्वारा संयुक्त रूप से किए गए।
- एक ही लेन-देन के दौरान किए गए विभिन्न अपराधों के आरोपी।
- एक अपराध का आरोप जिसमें चोरी, एक्सटोर्शन, धोखाधड़ी, आपराधिक मिसाप्रोप्रिएशन, संपत्ति को छिपाना शामिल है।
- इंडियन पीनल कोड की धारा 411 और 414 के तहत अपराध का आरोप लगाया।
- इंडियन पीनल कोड के चैप्टर XII के तहत अपराध का आरोप लगाया।
सी.आर.पी.सी की धारा 223 में प्रावधान है कि मजिस्ट्रेट आरोपी व्यक्ति के आवेदन पर उनके संयुक्त ट्रायल का निर्देश दे सकता है, भले ही वे निर्दिष्ट श्रेणियों के अंदर नहीं आते हों, अगर मजिस्ट्रेट का मानना है कि ऐसे व्यक्तियों के ट्रायल पर प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ेगा।
दिनेश कुमार बनाम स्टेट (2015) के मामले में, कोर्ट ने कहा कि जहां कई व्यक्तियों पर कई अलग-अलग अपराध करने का आरोप है, जो पूरी तरह से असंबद्ध (अनकनेक्टेड) नहीं हैं, वहां एक संयुक्त ट्रायल हो सकती है जब तक कि इस तरह के संयुक्त ट्रायल में या तो आरोपी को अपना बचाव करने में शर्मिंदगी (एंबारेसमेंट) या कठिनाई होने की संभावना न हो।
जब ऐसे अपराध को चार्जड अपराध में शामिल किया जाता है तो अपराध का कनविक्शन चार्जड नहीं किया जाता है
सी.आर.पी.सी की धारा 222 में प्रावधान है कि जब आरोपी पर कई अपराधों का चार्ज लगाया जाता है और जिनमें से कुछ को मिलाकर और एक पूर्ण छोटे अपराध के रूप में साबित किया जाता है, तो आरोपी को एक छोटे से अपराध का दोषी ठहराया जा सकता है, हालांकि उस पर इस तरह के छोटे अपराध का चार्ज नहीं लगाया गया था। जहां आरोपी पर किसी अपराध का चार्ज लगाया जाता है, वहां उसे ऐसा अपराध करने के प्रयास का दोषी ठहराया जा सकता है, और प्रयास के लिए अलग से चार्ज नहीं लगाया जाता है।
जब तक छोटे अपराध के आरोपी की कनविक्शन के लिए शर्तें पूरी नहीं की जाती, तब तक कनविक्शन नहीं हो सकती है। जैसे: जहां मंजूरी की कमी है।
यह धारा तभी लागू होती है जब बड़े और छोटे अपराध कॉग्नेट हों।
कई चार्जेस में से एक पर कनविक्शन पर शेष चार्ज का विथड्रॉल (विथड्रॉल ऑफ रिमैनिन्ग चार्ज ऑन कनविक्शन ऑन वन ऑफ़ सेवरल चार्जेस)
सी.आर.पी.सी की धारा 224 में कहा गया है कि जब आरोपी पर एक से अधिक हेड के चार्ज लगाये जाते है, और उस हेड के तहत आरोपी को दोषी ठहराए जाने के बाद या तो शिकायतकर्ता (कंप्लेनेंट) या अभियोजन (प्रॉसिक्यूशन) का संचालन (कंडक्ट) करने वाला अधिकारी कोर्ट की सहमति से शेष चार्ज वापस ले सकता है।
विभूति नारायण चौबे बनाम यूपी स्टेट (2002) के मामले में इस धारा के तहत एक चार्ज निर्णय के बाद ही वापस लिया जा सकता है और इसे हटाया नहीं जा सकता है।
एरर्स का प्रभाव
सी.आर.पी.सी की धारा 215 और 464 एरर के प्रभाव से संबंधित है।
इन धाराओं के पीछे विचार न्याय की विफलता को रोकने के लिए है जहां नियमों का केवल तकनीकी (टेक्निकल) ब्रीच हुआ है और मामले की जड़ तक नहीं जा रहा है। सी.आर.पी.सी की धारा 215 में कहा गया है कि अपराध या उन विवरणों को बताने में कोई एरर या चूक नहीं होगी जो चार्ज में बताए जाने के लिए आवश्यक है, और उन्हें ट्रायल के किसी भी चरण (स्टेज) में सामग्री के रूप में माना जाएगा जब तक कि आरोपी को इस तरह की एरर से गुमराह नहीं किया गया हो और परिणामस्वरूप न्याय में विफलता रही हो।
भागवत दास बनाम उड़ीसा स्टेट (1989) के मामले में, कोर्ट ने माना कि चार्ज में अपराध के विवरण को बताने में मामूली अनियमितताएं (इरेगुलेरिटीज) ट्रायल या उसके परिणाम को प्रभावित नहीं करेंगी।
सी.आर.पी.सी की धारा 464 में कहा गया है कि सक्षम क्षेत्राधिकार (कंपीटेंट ज्यूरिस्डिक्शन) द्वारा दी गई कोई भी सजा या आदेश केवल इस आधार पर अमान्य नहीं होगा कि कोई चार्ज तय नहीं किया गया था या तय किया हुआ चार्ज किसी एरर, चूक, अनियमितता पर आधारित था, जिसमें कोई भी गलत चार्ज शामिल थे।
यदि कोर्ट का निष्कर्ष है कि चार्ज तय करने में चूक या अनियमितता या एरर हुई है तो कोर्ट चार्ज तय करने का आदेश दे सकती है और चार्ज तय होने के तुरंत बाद उस बिंदु से ट्रायल शुरू किया जा सकता है या नए चार्ज तय करने के लिए नए ट्रायल को आयोजित करने का निर्देश दिया जा सकता है।
बशर्ते, अगर अदालत की राय में मामले के तथ्य ऐसे हैं कि आरोपी के खिलाफ कोई वैध चार्ज नहीं लगाया जा सकता है तो कनविक्शन रद्द कर दी जाएगी।
निष्कर्ष (कंक्लूज़न)
एक आपराधिक ट्रायल में, चार्ज आरोप की नींव है और यह देखने के लिए हर तरह की देखभाल की जानी चाहिए कि इसे न केवल ठीक से तैयार किया गया है बल्कि सबूत केवल चार्ज में लगाए गए मामलों से संबंधित है, न कि अन्य मामलों के बारे में है।
संदर्भ (रेफरेंसेस)
- R.V. Kelkar’s Criminal Procedure, published by Eastern Book Company, Sixth Edition.
- The Code Of Criminal Procedure, 1973.
- Ratanlal Dhirajlal, The Code of Criminal Procedure with the Criminal Law