यह लेख निरमा यूनिवर्सिटी के इंस्टीट्यूट ऑफ लॉ की छात्रा Paridhi Dave ने लिखा है। यह एक विस्तृत (एक्जॉस्टिव) लेख है जो मानव तस्करी के अपराध, भारत में कानून और मौजूदा कानूनों में सुधार की आवश्यकता से संबंधित है। इस लेख का अनुवाद Sakshi Gupta द्वारा किया गया है।
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परिचय (इंट्रोडक्शन)
मानव तस्करी (ट्रैफिकिंग) संगठित (ऑर्गेनाइज्ड) अपराध का एक रूप है, जो तेजी से सीमा पार का मुद्दा बनता जा रहा है। यह कई मानवाधिकारों (ह्यूमन राइट्स) के उल्लंघन (वॉयलेशन), कॉमर्शियल सेक्सुअल एक्सप्लॉयटेशन, अंग कटाई (हार्वेस्टिंग) आदि की ओर ले जाता है। इसके रूपों और इसकी जटिलता (कंप्लेक्सिटी) में निरंतर परिवर्तन के कारण, कड़े कानून बनाने और मौजूदा कानूनों में सुधार करने की सख्त आवश्यकता है।
यह लेख मानव तस्करी के अर्थ, इसके कारणों, इसके परिणामों, शासी (गवर्निंग) कानून और मौजूदा कानूनों में सुधार की आवश्यकता पर चर्चा करता है।
मानव तस्करी (ह्यूमन ट्रैफिकिंग)
मानव तस्करी एक गंभीर अपराध है जो पीड़ितों के मानवाधिकारों का उल्लंघन करता है। यह खतरा दुनिया भर में फैला हुआ है, जिसमें हर साल हजारों लोग अपने ही देश में या विदेशों में तस्करों के जाल में फंस जाते हैं। पीड़ितों के लिए मूल (ओरिजिन) देश, पारगमन (ट्रांजिट) या गंतव्य (डेस्टिनेशन) देश के रूप में अपराध के लिए दुनिया का हर देश जिम्मेदार है। अपराध किसी भी समुदाय (कम्युनिटी) में हो सकता है, चाहे वह किसी भी उम्र, लिंग, नस्ल (रेस) और पीड़ितों की राष्ट्रीयता की परवाह किए बिना हो।
मानव तस्करी के कारण
किसी समस्या को समझने के लिए उसके मूल में जाना आवश्यक है। मानव तस्करी के मूल कारण मुख्य रूप से निम्नलिखित हैं:
- गरीबी
- बेरोजगारी
- उत्पीड़न (ऑप्रेशन)
- संसाधनों (रिसोर्सेज) की कमी
- सामाजिक सुरक्षा का अभाव
- महिलाओं और बच्चों के खिलाफ हिंसक (वॉयलेंट) कार्य
- राजनैतिक अस्थिरता (इंस्टेबिलिट)
- भ्रष्टाचार
- एक्सप्लॉयटेशन
- भ्रामक (डिसेप्टिव) कार्य, झूठे वादे।
- सस्ते श्रम (लेबर) की मांग
- ज्ञान की कमी
- टूटे या विस्थापित (डिस्प्लेस्ड) परिवार
- सांस्कृतिक और सामाजिक प्रथाएं
मानव तस्करी के परिणाम
मानव तस्करी के परिणाम अत्यंत गंभीर हैं। इसका पीड़ितों पर भावनात्मक (इमोशनल), मनोवैज्ञानिक (साइकोलॉजिकल) और शारीरिक प्रभाव पड़ सकता है। क्योंकि पीड़ितों को बेशर्मी से अमानवीय (डीह्यूमनाइज्ड) और आपत्तिजनक बनाया जाता है, वे मानसिक आघात (ट्रॉमा) से गुजरती हैं। वे चिंता, डिप्रेशन, पोस्ट-ट्राॅमेटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर, भय आदि का अनुभव कर सकती हैं।
जिन पीड़ितों को सेक्सुअली एक्सप्लॉइट किया गया है, उन्हें शारीरिक आघात और कई अन्य बीमारियां हो सकती हैं। वे एचआईवी/एड्स, अन्य संक्रमण (इन्फेक्शियस) जैसी बीमारियों को अनुबंधित (कॉन्ट्रैक्ट) कर सकती हैं जो उनके स्वास्थ्य को स्थायी (परमानेंट) रूप से नुकसान पहुंचाती है। इसके अलावा, इन पीड़ितों को अक्सर समाज द्वारा बहिष्कृत (ओस्ट्रेसाईज्ड) किया जाता है। चूंकि उनके पास बुनियादी (बेसिक) शिक्षा की कमी है, इसलिए उनके लिए स्वतंत्र रूप से जीवित रहना भी मुश्किल हो जाता है।
मानव तस्करी का किसी देश की आर्थिक सुरक्षा पर भी महत्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। चूंकि अपराध संगठित अपराध में विकसित हुआ है, यह सभी बिंदुओं पर अवैध आय उत्पन्न करता है – मूल देश, पारगमन में और गंतव्य देश। यह आतंकवाद के फंडिंग के लिए एक स्रोत (सोर्स) के रूप में भी कार्य कर सकता है। परिणामस्वरूप, मानव संसाधनों के नुकसान, अपराध की रोकथाम में शामिल लागत (कॉस्ट), तस्करी पीड़ितों के संरक्षण और पुनर्वास (रिहैबिलिटेशन) में शामिल लागतों के कारण अर्थव्यवस्था (इकोनॉमी) प्रभावित होती है।
भारत में मानव तस्करी कानून
कांस्टीट्यूशनल प्रोविजन
भारत का संविधान, 1950 स्पष्ट रूप से मानव तस्करी और जबरन (फोर्सड) श्रम के निषेध (प्रोहिबिशन) का प्रावधान करता है। संविधान के आर्टिकल 23(1) में कहा गया है कि मानव तस्करी; भिखारी और अन्य प्रकार के जबरन श्रम कानून के तहत सख्त निषेध हैं। इस प्रोविजन का उल्लंघन करने वाले किसी भी व्यक्ति को दंडित किया जा सकता है।
इसके अलावा, संविधान के आर्टिकल 39 में क्लॉज (e) और (f) में कहा गया है कि यह सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि श्रमिकों (वर्कर्स) के साथ दुर्व्यवहार नहीं किया जाए और उन्हें ऐसी गतिविधियों में प्रवेश करने के लिए मजबूर नहीं किया जाए जो उनके लिए उपयुक्त नहीं हैं। साथ ही, बच्चों को स्वस्थ तरीके से विकसित (डेवलप) होने के पर्याप्त अवसर दिए जाने चाहिए। उन्हें एक्सप्लॉयटेशन और एबोंडमेंट से बचाया जाना चाहिए।
इंटरनेशनल ट्रीटीज
भारत ने मानव तस्करी और जबरन श्रम के संबंध में कई ट्रीटीज और कन्वेंशंस की पुष्टि की है। इन्हें नीचे हाइलाइट किया गया है:
- यूनाइटेड नेशन्स कनवेंशन ऑन ट्रांसनेशनल ऑर्गेनाइज्ड क्राइम (यू.एन.टी.ओ.सी.), 2000।
- सार्क कनवेंशन ऑन प्रिवेंटिंग एंड कंबेटिंग ट्रैफिकिंग इन वूमेन एंड चिल्ड्रन फॉर प्रॉस्टिट्यूशन। इस कन्वेंशन को लागू करने के लिए एक रीजनल टास्क फोर्स का भी गठन (कांस्टीट्यूट) किया गया था।
- पलेर्मो प्रोटोकॉल जिसमें ‘प्रिवेंशन, सप्रेशन एंड पनिशमेंट ऑफ़ ट्रैफिकिंग इन पर्सन्स, एस्पेशियली वूमेन एंड चिल्ड्रन’, 2000 और ‘प्रोटोकॉल एगेंस्ट स्मग्लिंग ऑफ माइग्रेंट्स बाय लैंड, सी एंड एयर’, 2000 जैसे प्रोटोकॉल शामिल हैं।
- कन्वेंशन ऑन द एलिमिनेशन ऑफ ऑल फॉर्म्स ऑफ डिस्क्रिमिनेशन अगेंस्ट वूमन, 1979।
- यूनाइटेड नेशन कन्वेंशन ऑन द राइट्स ऑफ द चिल्ड्रन, 1989।
- ऑप्शनल प्रोटोकॉल ऑन द सेल ऑफ चिल्ड्रन, चाइल्ड प्रॉस्टिट्यूशन एंड चाइल्ड पोर्नोग्राफी, 2000।
- इंटरनेशनल कवनेंट ऑन सिविलएंड पॉलिटिकल राइट्स, 1966।
- यूनिवर्सल डिक्लेरेशन ऑफ ह्यूमन राइट्स, 1948।
- कन्वेंशन फॉर द सुप्रेशन ऑफ द ट्रैफिक इन पर्सन्स एंड ऑफ द एक्सप्लॉयटेशन ऑफ द प्रॉस्टिट्यूशन ऑफ अदर्स, 1949।
- कन्वेंशन अगेंस्ट टॉर्चर एंड अदर क्रूएल, इनह्यूमन और डिग्रेडिंग ट्रीटमेंट और पनिशमेंट, 1984।
कानून
इंडियन पीनल कोड, 1860
आईपीसी, 1860 भारत में अपराधों को नियंत्रित करने वाला कानून है। मानव तस्करी के लिए आवश्यक दंड निर्धारित करने के लिए कई प्रोविजन हैं।
इंडियन पीनल कोड, 1860 की धारा 370 में कहा गया है कि कोई भी व्यक्ति जो एक्सप्लॉयटेशन के उद्देश्य को पूरा करने के लिए या तो भर्ती करता है, परिवहन (ट्रांसपोर्ट) करता है, बंद करता है, स्थानांतरित (ट्रान्सफर) करता है या निम्नलिखित तरीकों से किसी व्यक्ति या व्यक्तियों को प्राप्त करता है:
- धमकियों का उपयोग;
- बल का प्रयोग या किसी भी प्रकार की जबरदस्ती;
- अपहरण करके;
- कपटपूर्ण (फ्रॉडुलेंट) गतिविधियों में लिप्त (इंडल्ज) या धोखा देकर;
- शक्ति का दुरुपयोग करके;
- प्रलोभन (इंड्यूसमेंट) के माध्यम से, जिसमें भुगतान या अन्य लाभ देना या प्राप्त करना शामिल है, किसी भी व्यक्ति की सहमति प्राप्त करने के लिए, जो उस व्यक्ति पर नियंत्रण रखता है जिसे भर्ती, परिवहन, आश्रय, स्थानांतरित या प्राप्त किया गया है।
ऐसा व्यक्ति जो उपरोक्त कार्यों में लिप्त है, मानव तस्करी के अपराध के लिए उत्तरदायी (लायबल) है।
प्रोविजन के एक्सप्लेनेशन में कहा गया है कि ‘एक्सप्लॉयटेशन’ शब्द एक समावेशी (इंक्लूजिव) शब्द है। इसमें शारीरिक एक्सप्लॉयटेशन के सभी कार्य या किसी भी प्रकार का सेक्सुअल एक्सप्लॉयटेशन, गुलामी या प्रथाएं शामिल हैं जो गुलामी, दासता (सर्विट्यूड) या अंगों की जबरन कटाई से मिलती जुलती हैं। यह आगे स्पष्ट करता है कि तस्करी के अपराध का निर्धारण (डिटरमाइन) करने के लिए पीड़ित की सहमति का कोई महत्व नहीं है। निर्धारित सजा 7-10 साल के बीच कारावास और जुर्माना है।
धारा में उल्लिखित अन्य अपराध नीचे दिए गए हैं:
अपराध | सज़ा |
एक से अधिक व्यक्तियों की तस्करी | 10 वर्ष से लेकर आजीवन कारावास तक की अवधि के लिए कठोर कारावास + जुर्मान |
नाबालिग की तस्करी | 14 वर्ष से लेकर आजीवन कारावास तक की अवधि के लिए कठोर कारावास + जुर्माना |
एक से अधिक अवसरों पर नाबालिग की तस्करी | आजीवन कारावास, यानी शेष प्राकृतिक जीवन के लिए कारावास + जुर्माना |
एक लोक सेवक या एक पुलिस अधिकारी, नाबालिग की तस्करी में शामिल है | आजीवन कारावास, यानी शेष प्राकृतिक जीवन के लिए कारावास + जुर्माना |
इंडियन पीनल कोड, 1860 की धारा 370A अपने पहले भाग में कहती है कि यदि किसी व्यक्ति के पास ज्ञान या विश्वास करने का कारण है कि एक नाबालिग की तस्करी की गई है और यदि ऐसा व्यक्ति किसी भी तरह से ऐसे नाबालिग के सेक्सुअल एक्सप्लॉयटेशन में शामिल करता है, तो वह इसके लिए उत्तरदायी है और 5 से 7 साल की अवधि के लिए कारावास से दंडित किया जा सकता है। वह जुर्माने के लिए भी उत्तरदायी होगा। प्रोविजन के दूसरे भाग में कहा गया है कि यदि किसी व्यक्ति के पास यह ज्ञान या विश्वास करने का कारण है कि किसी व्यक्ति की तस्करी की गई है और यदि ऐसा व्यक्ति, ऐसे व्यक्ति को किसी भी तरह से सेक्सुअल एक्सप्लॉयटेशन में शामिल करता है, तो उसे 3 से 5 साल के बीच की अवधि के लिए कारावास की सजा दी जा सकती है। वह जुर्माने के लिए भी उत्तरदायी होगा। उपर्युक्त अपराध कॉग्निजेबल, नॉन-बेलेबल और नॉन-कंपाउंडेबल हैं।
इंडियन पीनल कोड, 1860 की धारा 371 में दासों के साथ आदतन (हैबिचुअल) व्यवहार के अपराध का उल्लेख है। इसमें कहा गया है कि कोई भी व्यक्ति जो आदतन दासों के निर्यात (एक्सपोर्ट), हटाने, आयात (इंपोर्ट), खरीद, बिक्री, तस्करी या व्यवहार में शामिल है, उसे आजीवन कारावास या 10 साल से अधिक की अवधि के लिए कारावास की सजा दी जा सकती है। ऐसा व्यक्ति जुर्माने के लिए भी उत्तरदायी होगा।
इसी तरह, इंडियन पीनल कोड, 1860 की धारा 372 और धारा 373 क्रमशः प्रॉस्टिट्यूशन के उद्देश्य से नाबालिगों की बिक्री और खरीद से संबंधित है। ऐसे कार्यों में शामिल व्यक्तियों को 10 वर्ष से अधिक की अवधि के लिए कारावास से दंडित किया जा सकता है। ऐसे व्यक्ति जुर्माने के लिए भी उत्तरदायी होंगे।
ट्रैफिकिंग ऑफ पर्सन्स (प्रिवेंशन, प्रोटेक्शन एंड रिहैबिलिटेशन) बिल, 2018
इस बिल का प्राथमिक (प्राइमरी) उद्देश्य सभी प्रकार की तस्करी की जांच के लिए एक कानून पेश करना है। इसका उद्देश्य तस्करी के शिकार लोगों के बचाव, संरक्षण और पुनर्वास की व्यवस्था के लिए एक कानून बनाना भी है। यह तस्करी के कुछ रूपों को तस्करी के गंभीर रूपों में भी वर्गीकृत (क्लासीफाई) करता है जो एक उच्च दंड को आकर्षित करतें है। तस्करी के इन गंभीर रूपों में जबरन श्रम, भीख मांगना, अर्ली सेक्सुअल मैच्योरिटी के लिए प्रेरित करना आदि तस्करी शामिल हैं।
बिल की आलोचना (क्रिटिसिज्म) यह है कि यह किसी परिसर (प्रीमाइस) के मालिक या पट्टेदार (लेसर) को दंडित करता है यदि वह जानबूझकर उस परिसर में तस्करी जारी रखने की अनुमति देता है। बिल ‘अनुमान (प्रेज्यूम)’ करता है कि ऐसे मालिक या पट्टेदार को अपराध का ज्ञान है जब तक कि वे अन्यथा साबित नहीं कर सकते। यह प्रावधान भारतीय संविधान के आर्टिकल 21 का उल्लंघन हो सकता है। यह बिल उन व्यक्तियों के लिए भी दंड का प्रावधान करता है जो ऐसी सामग्री के वितरण (डिस्ट्रीब्यूशन) या प्रकाशन (पब्लिकेशन) में लिप्त हैं, जिससे तस्करी होती है। यह सुनिश्चित नहीं है कि यह कैसे निर्धारित किया जाएगा कि किसी कार्य से तस्करी होने की संभावना है।
इम्मोरल ट्रैफिक (प्रिवेंशन) एक्ट, 1956
इम्मोरल ट्रैफिक (प्रिवेंशन) एक्ट, 1956, कन्वेंशन फॉर द सप्रेशन ऑफ द ट्रैफिक इन पर्सन्स एंड ऑफ द एक्सप्लॉयटेशन ऑफ द प्रॉस्टिट्यूशन ऑफ अदर्स के अनुसरण (पर्सुएंस) में है। एक्ट मुख्य रूप से प्रॉस्टिट्यूशन और सेक्स वर्कर पर केंद्रित है। यह प्रॉस्टिट्यूशन को धारा 2(f) के तहत कमर्शियल उद्देश्यों के लिए सेक्सुअल एक्सप्लॉयटेशन या व्यक्तियों के दुरुपयोग के रूप में परिभाषित करता है। एक्ट की धारा 3 के तहत वेश्यालय (ब्रोथल) रखने या किसी परिसर को वेश्यालय के रूप में उपयोग करने की अनुमति देने की, सजा दी जाती है। एक्ट की धारा 4 उन लोगों के लिए दंड का प्रावधान करती है जो प्रॉस्टिट्यूशन की कमाई पर जीवन जीते हैं।
गोवा चिल्ड्रंस एक्ट, 2003
यह स्टेट कानून तस्करी की एक व्यापक (कॉम्प्रिहेंसिव) परिभाषा प्रदान करता है, हालांकि यह बच्चों और गोवा तक ही सीमित है। एक्ट की धारा 2 (z) के तहत, ‘बाल तस्करी’ शब्द को बच्चों की खरीद, भर्ती, परिवहन, स्थानांतरण, आश्रय (हार्बरिंग) या कानूनी रूप से या अवैध रूप से प्राप्त करने के रूप में परिभाषित किया गया है। बल/जबरदस्ती, अपहरण करना, कपटपूर्ण कार्य करना, धोखा देना, शक्ति का दुरुपयोग या भेद्यता (वल्नरेबिलिट) की स्थिति या किसी अन्य व्यक्ति पर नियंत्रण रखने वाले व्यक्ति की सहमति प्राप्त करने के लिए भुगतान या लाभ देना या प्राप्त करना है।
मानव तस्करी से संबंधित महत्वपूर्ण निर्णय
पीपुल्स यूनियन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (1982) 3 एससीसी 235
इस मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने भारतीय संविधान के आर्टिकल 23 के संदर्भ में ‘जबरन श्रम’ शब्द का अर्थ परिभाषित किया था।
बंधुआ मुक्ति मोर्चा बनाम यूनियन ऑफ इंडिया और अन्य एआईआर 1984 एससी 802
इस मामले में, एपेक्स कोर्ट ने कहा कि जब भी यह दिखाया जाता है कि एक मजदूर को जबरन मजदूरी प्रदान करने के लिए मजबूर किया जा रहा है, तो कोर्ट यह मान लेगा कि आर्थिक लाभ के लिए ऐसे मजदूर को ऐसा करने की आवश्यकता है। ऐसे मजदूर कानून द्वारा प्रदान किए जाने वाले लाभों के हकदार होंगे।
नीरजा चौधरी बनाम मध्य प्रदेश स्टेट एआईआर 1984 एससी 1099
इस मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने बंधुआ (बॉन्डेड) मजदूरों के पुनर्वास के निर्देश जारी किए थे।
विशाल जीत बनाम यूनियन ऑफ इंडिया (1990) 3 एससीसी 318
इस मामले में, सुप्रीम कोर्ट ने एक ऑब्जेक्टिव अध्ययन (स्टडी) और इस खतरे के कारणों और परिणामों की जांच का आदेश दिया। इसने सभी स्टेट गवर्नमेंट और यूनियन गवर्नमेंट को तस्करी से निपटने के उपाय करने का भी आदेश दिया।
एम.सी. मेहता बनाम तमिलनाडु स्टेट 1996 6 (एससीसी) 756
इस मामले में ,सुप्रीम कोर्ट ने बाल मजदूर और उनके परिवार के लिए सहायता प्रदान करने के लिए विभिन्न उपाय जारी किए। इसमें कहा गया है कि अपराधी के परिसर को सील कर दिया जाना चाहिए और उन पर 20,000 रुपये का जुर्माना लगाया जाना चाहिए जिसे पीड़ित के पुनर्वास के लिए लगाया जाएगा।
मधु किश्वर बनाम बिहार स्टेट (1996) 5 एससीसी 125
इस मामले में, एपेक्स कोर्ट ने, कन्वेंशन ऑन द एलिमिनेशन ऑफ ऑल फॉर्म्स ऑफ डिस्क्रिमिनेशन एगेंस्ट वूमेन, 1979 (सीडो) के विभिन्न प्रावधानों पर विचार किया और यह माना कि ये प्रोविजन फंडामेंटल राईट और डायरेक्टिव प्रिंसिपल ऑफ स्टेट पॉलिसी का एक अभिन्न (इंटीग्रल) अंग हैं।
कानूनों में सुधार की आवश्यकता
इंडियन पीनल कोड, 1860 की पूर्ववर्ती धारा 370 को क्रिमिनल लॉ (अमेंडमेंट) एक्ट, 2013 द्वारा बदल दिया गया था। अमेंडमेंट ने अपराधीकरण (क्रिमिनलाइजेशन) के दायरे को बढ़ाने के लिए कुछ नई शब्दावली (टर्मिनोलॉजी) डाली। अमेंडमेंट जस्टिस वर्मा कमिटी द्वारा प्रस्तुत रिपोर्ट का परिणाम था, जो मुख्य रूप से तस्करी पीड़ितों के सेक्सुअल एक्सप्लॉयटेशन पर केंद्रित थी।
इंडियन पीनल कोड, 1869 की धारा 370A को सम्मिलित करना एक प्रतिबंधित (रिस्ट्रिक्टेड) प्रोविजन है क्योंकि यह जबरन श्रम के अन्य क्षेत्रों, उदाहरण के लिए, कृषि, घरेलू (डोमेस्टिक) काम, निर्माण उद्योग (कंस्ट्रक्शन इंडस्ट्री) या भिखारी रैकेट में तस्करी किए गए व्यक्तियों के एक्सप्लॉयटेश को ध्यान में नहीं रखता है। ये कुछ ऐसे क्षेत्र हैं जहां अभी भी लोगों का बड़े पैमाने पर एक्सप्लॉयटेशन होता है।
इसके अलावा, मौजूदा कानून मानव तस्करी को रोकने के लिए पर्याप्त सुरक्षा तंत्र (मैकेनिज्म) प्रदान नहीं करते हैं। मौजूदा कानून का लक्ष्य मुख्य रूप से कमर्शियल सेक्सुअल एक्सप्लॉयटेशन पर हैं और अन्य उद्देश्यों के लिए की गई तस्करी को कवर नहीं करते हैं। इसके अतिरिक्त, तस्करी के पीड़ितों की सुरक्षा, वसूली और मुआवजे (कंपनसेशन) के लिए एक प्रभावी प्रणाली (सिस्टम) प्रदान करने के मामले में कानूनी ढांचा (फ्रेमवर्क) अपर्याप्त (इनसफिशिएंट) है।
इम्मोरल ट्रैफिक (प्रिवेंशन) एक्ट, 1956 (आई.टी.पी.ए.) के संबंध में, यह अभी भी अपरिवर्तित (अनचेंज्ड) बना हुआ है और इसका इंडियन पीनल कोड की अमेंडमेंट्स से कोई संदर्भ (रेफरेंस) नहीं है। परिणामस्वरूप, दो प्रमुख कानूनों के बीच असंगति है जिसके कारण तस्करी को रोकने में विफलता हुई है। आइ.टी.पी.ए., 1986 भारत में तस्करी से निपटने के लिए शासी कानून है, फिर भी इसका दायरा बेहद सीमित है। यह केवल कमर्शियल सेक्सुअल एक्सप्लॉयटेशन या प्रॉस्टिट्यूशन को अपने दायरे में शामिल करता है।
इसके अलावा, कई निश्चित विसंगतियां (इनकंसिस्टेंसिज़) हैं। एक्ट में तस्करी, कमर्शियल सेक्सुअल एक्सप्लॉयटेशन आदि की परिभाषा का अभाव है। यह कमर्शियल सेक्सुअल एक्सप्लॉयटेशन के स्थल के रूप में वेश्यालयों पर जोर देता है और सुविधाकर्ताओं (फैसिलिटेटर) को दंडित करता है। वास्तविक (एक्चुअल) अपराध का गठन (कांस्टीट्यूट) करने के बारे में एक अस्पष्टता (एंबीग्विटी) है। क्या प्रॉस्टिट्यूशन एक अपराध है या प्रॉस्टिट्यूशन के लिए तस्करी वास्तविक अपराध है? हालांकि भारत में प्रॉस्टिट्यूशन गैरकानूनी नहीं है, लेकिन इस पेशे में लगी सभी महिलाओं को इस एक्ट के तहत नियमित रूप से अपराधी माना जाता है। इसने हाल ही में एक बहस छेड़ दी है जिसमें सेक्स वर्कर्स और कार्यकर्ताओं (एक्टिविस्ट) ने तर्क दिया है कि इस एक्ट के प्रोविजंस का उनके खिलाफ असमान रूप से उपयोग किया जा रहा है।
इसके अलावा, एक्ट के वेश्यालयों पर जोर देने के कारण, निजी परिसर में होने वाले सेक्सुअल एक्सप्लॉयटेशन को कानून द्वारा काफी हद तक उजागर किया गया है। साथ ही, पीड़ितों के साथ अपराधियों के रूप में व्यवहार करने का तात्पर्य एक विरोधाभास (कांट्रेडिकशन) है क्योंकि पीड़ित, अपराधी नहीं हो सकता है। पीड़ितों को ‘सुधारात्मक (करेक्टिव)’ घरों में बंद करना इस विरोधाभास को स्थापित (एस्टेब्लिश) करता है।
यह एक्ट धर्म की आड़ में प्रॉस्टिट्यूशन के उद्देश्य से लड़कियों को भर्ती करने की प्रथा को भी कवर नहीं करता है – उदाहरण: देव-दासियाँ। कानून पीड़ितों के अधिकारों को भी स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं करता है। इसके अलावा, गवाह सुरक्षा कार्यक्रम की कमी या इन-कैमरा कार्यवाही के विकल्प के कारण, पीड़ित गवाही देने से बचते हैं; खासकर बाल पीड़ितों के मामले में। यह एक्ट मानव तस्करी के सीमा-पार आयामों (डायमेंशन) की गंभीर रूप से उपेक्षा (नेगलेक्ट) करता है, जिसमें इंटर-स्टेट तस्करी भी शामिल है। 2006 में एक अमेंडमेंट बिल पेश किया गया था, लेकिन तब से कोई कार्रवाई नहीं हुई है।
निष्कर्ष (कंक्लूज़न)
मानव तस्करी का मुद्दा प्रकृति में बहुत संवेदनशील (सेंसिटिव) है। इससे निपटने के लिए एक व्यापक रणनीति की जरूरत है। सरकार को पीड़ितों के पुनर्वास और समाज में एकीकरण (इंटीग्रेशन) का लक्ष्य रखना चाहिए। मानव तस्करी से संबंधित कानून लगाए गए दंड के संबंध में अधिक कठोर होने चाहिए।
इस समस्या से निपटने के लिए सेंट्रल और स्टेट दोनों स्तरों पर सहयोग की आवश्यकता है। देश को म्युनिसिपल कानूनों को लागू करने की आवश्यकता है जो इंटरनेशनल कानूनों के अनुरूप हैं। समाज तेजी से आगे बढ़ रहा है और इन बढ़ती चिंताओं को दूर करने के लिए कानून को गतिशील (डायनेमिक) होने की जरूरत है।