यह लेख Aman Garg द्वारा लिखा गया है, जो गुजरात नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी में बी.ए. एलएलबी, के द्वितीय वर्ष के के छात्र हैं। इस लेख में वह ट्रांसजेंडर पर्सन्स (प्रोटेक्शन ऑफ़ राइट्स) बिल, 2018 का पूर्ण रूप से विश्लेषण करते है और यह साबित करते है की यह बिल ट्रांसजेंडर्स के एम्पॉवरमेंट की जगह उनका ऑपरैशन करता है। इस लेख का अनुवाद Divyansha Saluja द्वारा किया गया है।
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परिचय (इंट्रोडक्शन)
लगभग 5 वर्षों के बाद जब सुप्रीम कोर्ट ने ट्रांसजेंडर को तीसरे लिंग के रूप में मान्यता दी और उसके एक साल बाद ही आई.पी.सी. की धारा 377 को अपराध से मुक्त कर दिया, राष्ट्रपति ने शुक्रवार को ट्रांसजेंडर पर्सन्स (प्रोटेक्शन ऑफ़ राइट्स) बिल, 2018 पर हस्ताक्षर करके इस कानून को लागू किया। शुरुआत में, बिल ट्रांसजेंडर समुदाय (कम्युनिटी) के अधिकारों की रक्षा के लिए शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य सेवा, सरकारी या निजी प्रतिष्ठानों (एस्टब्लिशमेंट्स) तक पहुंच, आंदोलन के अधिकार आदि के संबंध में, उनके साथ हो रहे भेदभाव को रोकने के लिए महत्वपूर्ण प्रगति है। यह ‘ट्रांसजेंडर’ को एक अलग पहचान के रूप में स्वीकार करता है और समुदाय के खिलाफ विभिन्न अपराधों को भी मान्यता देता है। इसके अलावा यह ट्रांसजेंडर लोगों की शिकायतों को देखने के लिए ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के लिए राष्ट्रीय परिषद (काउंसिल) की स्थापना को भी अनिवार्य बनता है।
इन उत्साहजनक (एन्करेजिंग) प्रावधानों (प्रोविज़न) के बावजूद, ट्रांसजेंडर समुदाय ने बिल के खिलाफ कड़ा रुख अपनाया है, कार्यकर्ताओं (एक्टिविस्ट्स) ने इसे ‘कठोर’ और ‘मौलिक अधिकारों (फंडामेंटल राइट्स) का उल्लंघन’ भी कहा। यह लेख बताता है कि कैसे यह बिल, ट्रांसजेंडर समुदाय को अधिकार प्रदान करने के बजाय, उन पर किए गए अत्याचारों को प्रभावी ढंग से वैध बनाता है और उनके लिए एक सरासर मजाक बना रहता है।
‘ट्रांसजेंडर’ की परिभाषा में विसंगतियां (डिस्क्रिपेन्सीस इन द डेफिनिशन ऑफ़ ‘ट्रांसजेंडर’)
ट्रांसजेंडर, आमतौर पर विशिष्ट (टिपिकल) पुरुष या महिला शरीर रचना के साथ पैदा होते हैं, लेकिन ऐसा महसूस करते हैं कि उन्हें इंटरसेक्स लोगों की तुलना में “गलत शरीर” में पेश किया गया है, जिनकी शारीरिक रचना आमतौर पर पुरुष या महिला नहीं है, क्योंकि उनके शरीर के बारे में कुछ ‘असामान्य’ है। सभी ट्रांसजेंडर लोगों को “लैंगिक (जेंडर) पहचान का आंतरिक (इंटरनल) सामना” करना पढ़ता है, जबकि केवल सीमित संख्या में इंटरसेक्स लोग ही इन समस्याओं का अनुभव करते हैं, क्योंकि उनमें से ज्यादातर खुद को ट्रांसजेंडर या ट्रांससेक्सुअल के बजाय पुरुष या महिला के रूप में पहचानते हैं। ट्रांसजेंडर की परिभाषा में इंटरसेक्स समुदाय को शामिल करते हुए बिल यह गलत तरीके से मान लेता है कि इंटरसेक्स भिन्नता (वेरिएशंस) वाले सभी व्यक्ति खुद को ट्रांसजेंडर के रूप में पहचानते हैं। यह बिल्कुल अनुचित है क्योंकि यह इंटरसेक्स समुदाय की मान्यता और अधिकारों को कमजोर करता है।
सेल्फ-डिटर्मिनेशन का अधिकार
सुप्रीम कोर्ट ने नालसा बनाम यूनियन ऑफ़ इंडिया (2014) के ऐतिहासिक फैसले में, ‘आर्टिकल 21 के तहत लिंग के सेल्फ-डिटर्मिनेशन को व्यक्तिगत (पर्सनल) स्वतंत्रता का एक अभिन्न (इंटीग्रल) अंग माना गया। उपरोक्त निर्णय को ध्यान में रखते हुए, यह बिल सेल्फ-डिटर्मिनेशन के अधिकार को खत्म कर देता है, क्योंकि इसके लिए ट्रांसजेंडर व्यक्तियों को डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट से “सर्टिफिकेट ऑफ आइडेंटीफिकेशन” प्राप्त करने की आवश्यकता होती है ताकि उन्हें एक ट्रांसजेंडर के रूप में पहचाना जा सके और बिल के अधिकारों का आनंद लिया जा सके और एक अपडेटेड सर्टिफिकेट केवल तभी प्राप्त किया जा सकता है, जब व्यक्ति अपने सेक्शुअल ओरिएंटेशन की पुष्टि करने के लिए सर्जरी करवाता है। ये प्रावधान नालसा के फैसले में सुप्रीम कोर्ट द्वारा निर्धारित सिद्धांतों के सीधे उल्लंघन में हैं, कि किसी के लिंग को घोषित करने के लिए एस.आर.एस. की कोई भी आवश्यकता अपमानजनक (डिसऑनरेबल) और असंवैधानिक है। इसके अलावा, ये प्रावधान कानूनी लिंग पहचान के लिए वैश्विक मानकों (ग्लोबल स्टेंडर्ड्स) के भी विपरीत हैं, जिनमें युनाइटिड नेशंस एजेंसिज़, वर्ल्ड मेडिकल एसोसिएशन और वर्ल्ड प्रोफेशनल एसोसिएशन फॉर ट्रांसजेंडर हेल्थ शामिल हैं- जो ट्रांसजेंडर लोगों के लिए लिंग पहचान की कानूनी और चिकित्सा प्रक्रियाओं (प्रोसीजर्स) को अलग करने का निर्देश देता है। इसके अलावा, अगर किसी ट्रांसजेंडर व्यक्ति को ‘सर्टिफिकेट ऑफ आइडेंटिटी’ देने से मना कर दिया जाता है, तो बिल, अपील या ऐसे फैसले की समीक्षा (रिव्यू) के लिए सहारा नहीं देता है। इस प्रकार समुदाय को अधिकार देने के नाम पर, उनके शरीर और उनकी पहचान को अमानवीय (डीहयुमनाइज़िंग) बनाने के लिए उन्हें इंस्टीट्यूशनल ऑपरैशन (इंस्टीट्यूशनल ओप्प्रेशन) का सामना करना पड़ रहा है।
दूसरे कानूनों के साथ विसंगतियां (इन्कन्सीस्टेंसीस विद डोमेस्टिक लॉज़)
एसिड अटैक, सेक्शुअल हर्रेसमेंट, वॉयरिज़्म, स्टॉकिंग और डिसरोब सहित महिलाओं के खिलाफ विशिष्ट अपराधों को मान्यता देने के लिए इंडियन पीनल कोड में 2013 में अमेंडमेंट किया गया था। जबकि ट्रांसजेंडर लोगों को अक्सर इस तरह के अपराधों, और जबरदस्ती लिंग परंपरावाद (कन्वेंशनलिज्म), हार्मोनल उपचार और सर्जरी, स्ट्रिपिंग आदि सहित विशिष्ट घृणा (अबोमिनेशन्स) का सामना करना पड़ता है, बिल इसे पूरी तरह से मान्यता नहीं देता है और उनकी गंभीरता के अनुरूप सजा भी प्रस्तुत नहीं करता है। किसी भी ‘ट्रांसजेंडर के खिलाफ सेक्शुअल अब्यूज़’ के मामले में, बिल केवल 2 साल की अधिकतम (मैक्सिमम) सजा का प्रावधान करता है, जबकि ‘महिलाओं के खिलाफ सेक्शुअल ऑफेंसिस’ के लिए न्यूनतम (मिनिमम) 7 साल की सजा का प्रावधान है। लिंग पहचान के आधार पर एक ही अपराध के लिए अलग-अलग दंड निर्धारित करते हुए, बिल ‘समानता’ की कसौटी (टेस्ट) पर खरा नहीं उतरा और इस तरह संविधान का उल्लंघन करता है।
नागरिक अधिकार और सामाजिक सुरक्षा (सिविल राइट्स एंड सोशल सिक्योरिटी)
निषेध (टेबू) और सामाजिक कलंक ने शिक्षा संस्थानों (इंस्टीट्यूशंस) में ट्रांसजेंडरों के प्रवेश को लगभग निषेधात्मक (प्रोहिबिटेटिव) बना दिया है और उन्हें सेक्स वर्क्स, भीख मांगने और कार्यक्रमों में नृत्य करके अपनी आजीविका (लाइवलीहुड) कमाने के लिए मजबूर किया है और इसलिए उन्हें शिक्षा और रोजगार के अवसर प्रदान करना महत्वपूर्ण हो जाता है। हालाँकि, नालसा के निर्देश के बावजूद, इस समुदाय को किसी भी तरह के सकारात्मक (अफरमेटिव) अवसर देने पर सरकार बिल चुप है।
हालांकि यह बिल “समावेशी (इन्क्लूसिव) शिक्षा और अवसरों” का वादा करता है, लेकिन यह इसके लिए कोई रोडमैप प्रदान नहीं करता है और एक ट्रांसजेंडर के जीवन के शुरुआती चरणों को पहचानने में लड़खड़ाता है। क्या सरकार मौजूदा शिक्षकों को शिक्षण (टीचिंग) के समावेशी तरीकों को विकसित करने में मदद करने के लिए शिक्षित करेगी या क्या यह हर शैक्षणिक संस्थान में ट्रांसजेंडर शिक्षकों के लिए एक विशिष्ट पद बनाएगी? क्या, एल.जी.बी.टी.क्यू+ अधिकारों के बारे में इसे व्यापक (कॉम्प्रिहेंसिव) बनाने के लिए स्कूल और कॉलेज के पाठ्यक्रम (करिकुलम) में बदलाव होगा या शिक्षा के लिए प्रमुख पहुंच के लिए शिक्षा के सभी स्तरों पर समुदाय को स्कॉलर्शिप मिलेगी?
एक और विवादास्पद (कंटेंशियस) मुद्दा यह है कि, सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले के बाद भी सोडोमी कानून को खत्म करने और एल.जी.बी.टी. समुदाय की गोपनीयता (प्राइवेसी) और सहमति से सेम-सेक्स संबंधों को बनाए रखने के बाद भी, यह बिल विवाह, गोद लेने, सक्सेशन, संपत्ति का इन्हेरिटेंस, आदि जो ट्रांसजेंडरों के जीवन और वास्तविकता के लिए महत्वपूर्ण हैं, जैसे नागरिक अधिकारों के बारे में बात नहीं करता। इसके अलावा, बिल अन्यायपूर्ण (अनजस्टिफिएबल) रूप से उन अत्याचारों और शातिरता (विशियसनेस) की उपेक्षा करता है जिसका सामना ट्रांसजेंडर को परिवार के भीतर ही करना होता हैं, उन्हें परिवार छोड़ने और ट्रांस-समुदाय में शामिल होने से रोकते हैं, अन्यथा उन्हें एक ‘पुनर्वास (रिहेबिलिटेशन) केंद्र’ में रखा जाता है, जो उनके मौलिक अधिकार का एक प्रमुख उल्लंघन है, जो उन्हें किसी भी समुदाय का हिस्सा बनने और देश के किसी भी हिस्से में रहने से रोकता है। वास्तव में, ‘पुनर्वास’ शब्द शक्तिहीन (डिसएम्पॉवर) और संरक्षण (पेट्रोनाइज़िंग) देने वाला है क्योंकि ट्रांसजेंडर को वास्तव में मान्यता और आवास (हाउसिंग) सहायता की आवश्यकता होती है न कि समाज से अलग होने की।
नेशनल काउंसिल फॉर ट्रांसजेंडर पर्सन्स
यह बिल केंद्र सरकार को सलाह देने के लिए ‘नेशनल काउंसिल फॉर ट्रांसजेंडर पर्सन’ बनता है, जो ट्रांसजेंडर समुदाय से संबंधित कानून पर, ऐसी पॉलिसीस की निगरानी (मॉनिटर) करेगा और समुदाय पर उनके प्रभाव की समीक्षा करेगा। कहा जा रहा है कि, प्रस्तावित (प्रोपोज़्ड) काउंसिल एक जिम्मेदार और जवाबदेह निरीक्षण निकाय (ओवरसाइट बॉडी) की आकांक्षाओं (एस्पिरेशंस) पर एक खुला मजाक है क्योंकि इसमें 33 सदस्यों में से केवल 5 ट्रांसजेंडरों के सीमित प्रतिनिधित्व (रिप्रजेंटेशन) है, जिससे लोकतांत्रिक (डेमोक्रेटिक) प्रतिनिधित्व का नुकसान होता है और सदस्यों के बीच अंतहीन भ्रम पैदा होता है। इसके अलावा काउंसिल में अस्पष्टता व्याप्त (पर्वेड) है क्योंकि समुदाय की शिकायतों के निवारण के लिए कोई दिशा-निर्देश (गाइडलाइन) प्रदान नहीं किए गए हैं। क्या काउंसिल ट्रांसजेंडर को अदालत जाने में सहायता करेगा या क्या उसे स्वतंत्र रूप से अपराधी को दंडित करने का अधिकार है? एक नेशनल काउंसिल की स्थापना के साथ और स्टेट काऊंसिल्स की स्थापना के साथ, बिल ने उनकी शिकायतों के निवारण (रिड्रेसल) के लिए काउंसिल से संपर्क करने में योगदान करने वाले कारकों के रूप में ‘भौगोलिक दूरदर्शिता (जिओग्रफ़िकल रिमोटनेस)’ और ‘संसाधनों (रिसोर्सेस) तक पहुंच’ की पूरी तरह से अवहेलना (डिसरेगार्ड) की है।
निष्कर्ष (कन्क्लूज़न)
एक तरफ जहां अदालतें एल.जी.बी.टी.क्यू+ समुदाय के अधिकारों को बरकरार रखने के लिए लगातार प्रयास कर रही हैं, वहीं दूसरी तरफ लेजिस्लेचर अपनी आकांक्षाओं के विपरीत बिल पेश कर इसे कमजोर कर रही है। यह उच्च समय है कि सरकार यह महसूस करे कि कानून, ट्रांसजेंडर अधिकारों पर सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक निर्णय के अनुसार होने चाहिए; अन्यथा समुदाय को सामाजिक बहिष्कार (एक्सक्ल्यूजन) से लेकर भेदभाव तक की समस्याओं का सामना करना पड़ता रहेगा और दुर्बल (रेयर) करने वाले कानून के लागू होने के बाद भी कोई प्रगति हासिल नहीं होगी।