यह लेख Shifa Qureshi द्वारा लिखा गया,और आगे Debapriya Biswas द्वारा अद्यतन किया गया है। यह लेख मोहम्मद अहमद खान बनाम शाह बानो बेगम (1985) के ऐतिहासिक मामले के विश्लेषण से संबंधित है। इस मामले में उठाए गए मुद्दों और उन्हें संबोधित करने के लिए भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा स्थापित सिद्धांतों पर चर्चा की गई है। अंत में, लेख फैसले के महत्व के साथ-साथ वर्तमान समय में भी इसके निहितार्थों का पता लगाता है। इसका अनुवाद Pradyumn Singh के द्वारा किया गया है।
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परिचय
विवाह और तलाक समाज के अभिन्न अंग हैं जो इसमें शामिल दोनों पक्षों के लिए कानूनी रूप से कई अधिकारों और दायित्वों से बंधे हैं। ऐसा ही एक अधिकार है भरण-पोषण का दावा करने का अधिकार, जिसका दावा एक पति-पत्नी जो दूसरे पर निर्भर है, अपने अलगाव के दौरान या तलाक के बाद भी कर सकते हैं। यह अधिकार शुरू में तलाक के दौरान पति-पत्नी के बीच सामाजिक न्याय बनाए रखने के लिए पेश किया गया था, खासकर यदि एक पति-पत्नी आर्थिक रूप से दूसरे पर निर्भर है या उसके पास बच्चों की कस्टडी है और वह अकेले उनका भरण-पोषण करने में असमर्थ है। इस प्रकार, वित्तीय दुरुपयोग या अलगाव की संभावना को कम किया जा सकता है।
हालांकि, मुस्लिम कानून के तहत, तलाक के बाद भरण-पोषण की कोई अवधारणा नहीं है, जिसके कारण मुस्लिम महिलाओं और अन्य तलाकशुदा महिलाओं के बीच अधिकारों में असमानता पैदा हुई। मो. अहमद खान बनाम शाह बानो बेगम (1985) के वर्तमान मामले में, भरण-पोषण के अधिकार की अवधारणा पर विस्तार से चर्चा की जाएगी, खासकर इसलिए क्योंकि मुस्लिम कानून तलाक के तीन महीने बाद पूर्व पत्नी को भरण-पोषण का प्रावधान नहीं करता है।
मामले का विवरण
मामले का नाम: मो. अहमद खान बनाम शाह बानो बेगम और अन्य
फैसले की तारीख: 23 अप्रैल 1985
याचिकाकर्ता: मो. अहमद खान
प्रतिवादी: शाहबानो बेगम और अन्य
उद्धरण: 1985 एआईआर 945, 1985 एससीआर (3) 844, एआईआर 1985 एससी 945, 1985 (2) एससीसी 556, 1985 स्केल (1) 767, (1985) एससी सीआरआर 294, 1985 (87) बीओएम एलआर 435
अदालत: भारत का सर्वोच्च न्यायालय
न्यायाधीश: माननीय मुख्य न्यायाधीश वाई.वी चंद्रचूड़, माननीय न्यायाधीश मिश्र रंगनाथ, माननीय न्यायाधीश डी.ए देसाई, माननीय न्यायाधीश ओ चिन्नापा रेड्डी, माननीय न्यायाधीश ई.एस वेंकटरामैयाह
मामले की पृष्ठभूमि
जबकि भारतीय संविधान का प्रस्तावना देश के धर्मनिरपेक्ष होने का दावा करता है, लेकिन जब देश के नागरिक कानूनों की बात आती है तो ऐसा नहीं होता है। इसमें विवाह, तलाक, गोद लेने या यहां तक कि संपत्ति के कानून भी शामिल हैं। प्रत्येक धर्म के अपने रीति-रिवाज और सिद्धांत होते हैं और प्रत्येक नागरिक के अपने धर्म का पालन करने के अधिकार को बनाए रखने के लिए, प्रत्येक धर्म के अपने व्यक्तिगत कानून होते हैं जो सरकार द्वारा संहिताबद्ध (कोडिफाइड) या असंहिताबद्ध होते हैं।
मुस्लिम कानून के तहत, इसके अधिकांश सिद्धांत असंहिताबद्ध हैं क्योंकि कुरान के सिद्धांतों का या तो सीधे पालन किया जाता है या विद्वानों और धार्मिक ग्रंथों की व्याख्या के आधार पर किया जाता है। हालांकि, उनके स्रोत स्वयं कुरान की पुस्तक होने के बावजूद, मुस्लिम कानून के तहत अभी भी विभिन्न संप्रदाय और विचारधाराएं हैं।
मुस्लिम कानून के दो प्रमुख संप्रदाय शिया और सुन्नी हैं, जिन्हें आगे चार स्कूलों में विभाजित किया गया है: शफ़ी, हनफ़ी, मलिकी और हमाबिल विचारधारा। इन सभी अलग-अलग स्कूलों और संप्रदायों के परिणामस्वरूप मुस्लिम कानून के तहत विवाह और तलाक के संबंध में अलग-अलग रीति-रिवाज और कानून बनते हैं। हालांकि,हनफ़ी स्कूल भारत में सबसे आम है, इसलिए देश में मुस्लिम व्यक्तिगत कानून (व्यक्तिगत कानून ) ज्यादातर उसी पर आधारित है।
मुस्लिम कानून के तहत विवाह की प्रकृति अधिकतर संविदात्मक होती है और इसके उल्लंघन में शामिल दोनों पक्षों की सहमति की आवश्यकता होती है। दूसरी ओर, मुस्लिम कानून के तहत तलाक के लिए केवल पति की सहमति और अनुमति की आवश्यकता होती है, जिसके बिना पत्नी शादी नहीं तोड़ सकती। यह पति के पक्ष में है, ठीक उसी तरह जैसे संपत्ति के बंटवारे से संबंधित कानूनों सहित बाकी मुस्लिम कानून भी हैं।
हालांकि यह सच है कि पति से पत्नी के लिए स्त्रीधन या ‘मेहर’ की अवधारणा विवाह में पत्नी को आर्थिक रूप से सुरक्षित करने के लिए बनाई गई है, मुस्लिम व्यक्तिगत कानून के तहत तलाक की बाकी प्रक्रिया अपेक्षाकृत पति के अधीन है। ज्यादातर मामलों में, पत्नी के पास पति को तलाक देने की शक्ति नहीं होती है जब तक कि वह उसे ऐसा करने की शक्ति पहले ही नहीं सौंप देता है। हालांकि, इसका मतलब यह नहीं है कि पत्नी अपने पति से अलग नहीं हो सकती और अपने वैवाहिक घर से दूर नहीं रह सकती।
मेहर, जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, विवाह के दौरान पति द्वारा पत्नी को उसके और उनके बीच विवाह अनुबंध के सम्मान के संकेत के रूप में भुगतान की जाने वाली एक प्रथागत राशि है। यह मुस्लिम विवाह की अनिवार्यताओं में से एक है, जिसके बिना मुस्लिम कानून के तहत विवाह वैध नहीं माना जाएगा।
एक और अवधारणा जो पत्नी के पक्ष में है वह मुस्लिम कानून के तहत इद्दत अवधि है। इद्दत अवधि आमतौर पर तलाक या पति की मृत्यु के बाद तीन महीने की अवधि होती है। यह विवाह से किसी भी संभावित गर्भावस्था के पितृत्व के लिए एक अवलोकन अवधि के रूप में कार्य करता है। हालांकि, इस अवधि की अवधि इस बात पर भिन्न हो सकती है कि कोई मुस्लिम कानून के शिया संप्रदाय या सुन्नी संप्रदाय का पालन करता है।
सुन्नी क़ानून
सुन्नी कानून के तहत, इद्दत अवधि महिलाओं के लिए तीन मासिक धर्म चक्र या तीन चंद्र महीने तक चलती है, जिन्हें अब मासिक धर्म नहीं होता है। यदि पत्नी गर्भवती है, तो इद्दत की अवधि बच्चे के जन्म तक बढ़ जाएगी, भले ही बच्चा पति का न हो और व्यभिचार के कारण पैदा हुआ हो। जैसा कि पहले उल्लेख किया गया है, पति व्यभिचार की परवाह किए बिना इस अवधि के दौरान अपने जीवनसाथी का भरण-पोषण करने के लिए बाध्य है।
इसके अलावा, यदि पति की मृत्यु हो जाती है, तो इद्दत की एक नई अवधि शुरू हो जाएगी, भले ही पति-पत्नी तलाक-ए-मुगल्लाज़ा या अपरिवर्तनीय (इरेवोकेबल) तलाक के कारण दोनों के बीच किसी भी पुनर्विवाह को रोकते हो।
अन्य प्रकार के भरण-पोषण के मामले में, सुन्नी कानून निर्दिष्ट करता है कि बच्चों का नैतिक दायित्व है कि वे अपने माता-पिता की कमाई करने की क्षमता की परवाह किए बिना उन्हें आर्थिक रूप से समर्थन दें। सुन्नी कानून के तहत बच्चों को अपने माता-पिता की ऋण सुरक्षा या संपार्श्विक (कोलैटरल) भी बनाए रखना होता है।
शिया कानून
सुन्नी कानून के विपरीत, शिया कानून में इद्दत अवधि उन महिलाओं के लिए तीन मासिक धर्म चक्र या 78 दिनों तक रहती है, जिन्हें मासिक धर्म नहीं होता है। यदि पत्नी गर्भवती है, तो इद्दत अवधि भी गर्भावस्था के अंत तक होगी। इस अवधि के दौरान कोई भी विवाह शिया कानून के तहत शून्य माना जाएगा और पति को इद्दत अवधि के अंत तक तलाकशुदा पत्नी को आर्थिक रूप से समर्थन देना होगा। हालांकि,यदि गर्भ धारण किया हुआ बच्चा व्यभिचार से हुआ है, तो इद्दत अवधि केवल तीन महीने तक ही रहेगी।
इसके अलावा, शिया कानून के तहत नई इद्दत की कोई अवधारणा नहीं है, खासकर यदि पति-पत्नी पहले ही तलाक ले चुके हो।
माता-पिता के भरण-पोषण के मामले में शिया कानून बच्चों पर ऐसा कोई नैतिक दायित्व नहीं डालता, खासकर यदि वे अपने माता-पिता का भरण-पोषण करने में सक्षम नहीं हैं। इसमें माता-पिता की प्रतिभूतियों (सिक्यूरिटीज) या संपार्श्विक का रखरखाव भी शामिल है।
वर्तमान मामले में, याचिकाकर्ता द्वारा मुस्लिम व्यक्तिगत कानून (शरीयत) एप्लीकेशन एक्ट, 1937 पर चर्चा और गौर किया गया है, जो मुस्लिम कानून के शिया संप्रदाय का पालन करता है। इस प्रकार, मुस्लिम कानून के तहत तलाक के बाद पत्नी के भरण-पोषण के दायरे के साथ-साथ शिया कानून के अनुसार इद्दत अवधि के साथ-साथ मेहर के दौरान भरण-पोषण की अवधारणा पर भी चर्चा की जाएगी, जिसका इद्दत अवधि को छोड़कर स्पष्ट रूप से उल्लेख नहीं किया गया है।
मामले के तथ्य
मोहम्मद अहमद खान (याचिकाकर्ता) जो पेशे से वकील थे, उन्होंने 1932 में शाह बानो बेगम (प्रतिवादी) से शादी की और उनकी शादी से उनके तीन बेटे और दो बेटियां थीं। प्रतिवादी अपनी शादी के पूरे 43 वर्षों तक एक गृहिणी थी। 1975 में, जब शाहबानो की उम्र 62 वर्ष थी, तब उनके पति ने उन्हें बेदखल कर दिया और बच्चों सहित उनके वैवाहिक घर से बाहर निकाल दिया गया। बेदखली बिना किसी पूर्व सूचना या चेतावनी के की गई थी और याचिकाकर्ता ने प्रतिवादी और उनके बच्चों की वित्तीय सहायता के लिए कोई और मुआवजा नहीं दिया।
अप्रैल 1978 में, प्रतिवादी ने अपने पति के खिलाफ न्यायिक मजिस्ट्रेट (प्रथम श्रेणी), इंदौर की अदालत के समक्ष दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (इसके बाद सीआरपीसी के रूप में संदर्भित) की धारा 125 के तहत एक याचिका दायर किया। याचिका में प्रतिवादी ने तर्क दिया कि वह 200 प्रति माह जो उसे डिफ़ॉल्ट रूप से भरण-पोषण के लिए उसे मिलना था, उससे वंचित है। उसने मजिस्ट्रेट से प्रार्थना की कि अपीलकर्ता उसे धारा 125 के तहत वह भरण-पोषण दे जिसकी वह हकदार है। उसने यह भी मांग की कि प्रति माह 200 रुपये से बढ़ाकर 500 रुपये प्रतिमाह कर दिया जाए क्योंकि याचिकाकर्ता की आय लगभग 60,000 रुपये प्रति वर्ष थी। यह भी विचार किया जाना था कि उस समय सभी पांच बच्चे उसके साथ रह रहे थे और याचिकाकर्ता की हिरासत में नहीं थे।
इस याचिका के बाद, याचिकाकर्ता ने 6 नवंबर, 1978 को अपरिवर्तनीय तीन तलाक द्वारा प्रतिवादी को तलाक दे दिया और इसे उसे गुजारा भत्ता न देने के बचाव के रूप में इस्तेमाल किया क्योंकि तलाक के बाद पति पर गुजारा भत्ता देने की कोई बाध्यता नहीं है। अपीलकर्ता ने यह भी तर्क दिया था कि उसने पहले ही प्रतिवादी को दो साल का भरण-पोषण भुगतान कर दिया था और इद्दत की अवधि के दौरान अदालत को मेहर के रूप में 3,000 रुपये जमा कर दिए थे।
मजिस्ट्रेट ने अगस्त 1979 में पति को भरण-पोषण के रूप में प्रति माह 25 रु.रुपये की राशि प्रतिवादी को भुगतान करने का निर्देश दिया। 1980 में, प्रतिवादी ने प्रतिमाह भुगतान किए जाने वाले भरण पोषण की राशि को और बढ़ाने के लिए मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय में एक पुनरीक्षणीय आवेदन दायर किया। उच्च न्यायालय ने वर्तमान मामले के प्रतिवादी के पक्ष में आदेश पारित किया और भरण पोषण की राशि बढ़ाकर लगभग 179 रुपये प्रतिमाह कर दी।
मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के निर्णय से व्यथित होकर, याचिकाकर्ता द्वारा एक विशेष अनुमति याचिका के माध्यम से भारत के सर्वोच्च न्यायालय में वर्तमान अपील दायर की गई थी।
उठाए गए मुद्दे
भारतीय सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष उठाए गए मुद्दे इस प्रकार थे:
- क्या ‘पत्नी’ शब्द की परिभाषा सीआरपीसी के धारा 125(1) के अंतर्गत एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला भी शामिल है?
- क्या सीआरपीसी की धारा 125 मुस्लिम व्यक्तिगत कानून को खत्म कर सकती है?
- क्या तलाक के बाद भी पति द्वारा गुजारा भत्ता देने की बाध्यता को लेकर मुस्लिम व्यक्तिगत कानून और सीआरपीसी की धारा 125 के बीच कोई विरोधाभास है?
- क्या तलाक पर मेहर का भुगतान पति को सीआरपीसी के धारा 127(3)(b) भरण-पोषण का भुगतान करने के दायित्व से मुक्त कर सकता है ?
कानूनों पर चर्चा हुई
वर्तमान मामले के विश्लेषण में चर्चा किए गए कानूनी प्रावधानों का संक्षिप्त विवरण नीचे दिया गया है:
आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 125(1) उन लोगों को संबोधित करती है जो भरण-पोषण का दावा करने के पात्र हैं, जिनमें शामिल हैं:
- पत्नी अपने पति से,
- अपने पिता से वैध या नाजायज नाबालिग बच्चा,
- अपने पिता से विकलांग बच्चा,
- पिता और/या माता अपने बच्चे से।
इस धारा के तहत भरण-पोषण देने की आवश्यक शर्तों में निम्नलिखित शामिल हैं:
- भरण-पोषण के पर्याप्त साधन उपलब्ध हैं: जिस व्यक्ति को भरण-पोषण देना है उसके पास देने के साधन होने चाहिए।
- भरण-पोषण की मांग के बाद भरण-पोषण की उपेक्षा करना या इंकार करना: यदि व्यक्ति भरण-पोषण प्रदान करने में चूक करता है यदि वह भरण-पोषण के अपने दायित्व से इनकार करता है तो यह क्रमशः उपेक्षा या इंकार के समान होगा।
- भरण-पोषण का दावा करने वाला व्यक्ति अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ होना चाहिए: केवल तभी जब व्यक्ति अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ हो।
- रखरखाव की मात्रा: जीवन स्तर के आधार पर।
पक्षों की दलीलें
याचिकाकर्ता
याचिकाकर्ता का प्राथमिक तर्क यह था कि मुस्लिम व्यक्तिगत कानून के तहत, इद्दत अवधि के बाद पूर्व पत्नी को भरण-पोषण की कोई अवधारणा नहीं है, जो तलाक के केवल तीन महीने बाद तक चलती है। इस प्रकार, याचिकाकर्ता को प्रतिवादी को किसी भी रखरखाव का भुगतान करने के लिए बाध्य नहीं किया जाना चाहिए, खासकर जब से वह पहले ही अलगाव के पिछले दो वर्षों में हर महीने 200 रु.रुपये का भुगतान कर चुका है।
याचिकाकर्ता ने आगे तर्क दिया कि उसने मेहर को इद्दत अवधि के दौरान ही अदालत में जमा कर दिया था, जिसे मुस्लिम व्यक्तिगत कानून के तहत रखरखाव के प्रतिस्थापन के रूप में गिना जाना चाहिए।
यह तर्क दिया गया कि सिविल अदालतों के पास मुस्लिम व्यक्तिगत कानून (शरीयत) एप्लीकेशन एक्ट, 1937 के तहत मुस्लिम महिलाओं को भरण-पोषण देने का अधिकार नहीं है। उन्होंने यह भी तर्क दिया कि कुरान की किताब इद्दत अवधि के बाद मेहर को छोड़कर किसी भी तरह के भरण-पोषण का आदेश नहीं देती है। जिसे उन्होंने पहले ही अदालत में जमा कर दिया था।
याचिकाकर्ता ने यह भी दावा किया कि सीआरपीसी की धारा 125 प्रकृति में विरोधाभासी है क्योंकि इसमें तलाक के बाद भी माता-पिता, बच्चों और पत्नियों के लिए भरण-पोषण की बात की गई है, जो मुस्लिम व्यक्तिगत कानूनों के विपरीत है।
प्रतिवादी
प्रतिवादी की दलीलें मुख्य रूप से इस तर्क के इर्द-गिर्द घूमती रहीं कि सीआरपीसी की धारा 125 मुस्लिम व्यक्तिगत कानूनों का खंडन नहीं करती है। चूंकि मुस्लिम कानून इद्दत की अवधि के बाद भी तलाकशुदा पत्नियों को भरण-पोषण देने पर रोक नहीं लगाता है, इसलिए दोनों कानूनों की सामंजस्यपूर्ण व्याख्या के साथ समझौता किया जा सकता है।
प्रतिवादी ने तर्क दिया कि सीआरपीसी की धारा 125 और मुस्लिम व्यक्तिगत कानून (शरीयत) एप्लीकेशन एक्ट, 1937 के बीच सामंजस्य पूर्ण व्याख्या तलाक से गुजर रही मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों को सुनिश्चित कर सकती है, जबकि वे पूरी तरह से आर्थिक रूप से अपने पतियों पर निर्भर हैं।
इसके अलावा, प्रतिवादी ने यह भी तर्क दिया कि मेहर भरण-पोषण से पूरी तरह से अलग है। इस प्रकार, भरण-पोषण के भुगतान के लिए याचिकाकर्ता के दायित्व को बढ़ाने के लिए इसका इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए। यह तथ्य जो भरण-पोषण की आवश्यकता को उजागर करता है, कि प्रतिवादी की उम्र भी साठ के आसपास है और पांच बच्चों की देखरेख भी करने की जिम्मेदारी है ।
मामले का फैसला
फैसले के पीछे अनुपात निर्णय
सीआरपीसी की धारा 125 पारिवारिक कानून में महत्वपूर्ण कानूनी प्रावधानों में से एक है, क्योंकि यह किसी भी धर्म पर लागू होती है। वर्तमान मामले में,सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि इसमें शामिल पक्षों या पति-पत्नी का धर्म अप्रासंगिक है क्योंकि धारा में ऐसा कोई उल्लेख नहीं है। यह एक धर्मनिरपेक्ष प्रावधान है जिसकी व्याख्या किसी भी अन्य धर्म और उसके व्यक्तिगत कानून के साथ की जा सकती है।
अदालत के अनुसार, इसके लिए यह तर्क था कि धारा 125 सीआरपीसी का हिस्सा थी, न कि नागरिक कानूनों का। इस प्रकार, नागरिक कानून पति-पत्नी के धर्म से संबंधित व्यक्तिगत कानूनों के तहत अधिकारों और दायित्वों द्वारा शासित हो सकते हैं, सीआरपीसी के मामले में ऐसा नहीं है। इसके अलावा, यह भी देखा गया कि धारा 125 उन याचिकाकर्ताओं के लिए त्वरित और संक्षिप्त उपाय प्रदान करने के लिए बनाई गई थी जो आर्थिक रूप से खुद का समर्थन करने में सक्षम नहीं हैं और दूसरे पक्ष पर निर्भर हैं।
न्यायालय ने जागीर कौर और अन्य बनाम जसवन्त सिंह (1963) के मामले का हवाला देकर इस बात पर जोर दिया कि धारा 125 का उद्देश्य सामाजिक उद्देश्य की पूर्ति करना है, जिसमें आर्थिक रूप से निर्भर पति या पत्नी और उनके बच्चों की सुरक्षा शामिल है, भले ही पति-पत्नी तलाकशुदा न हों। यह एक ऐसा प्रावधान है जो तलाकशुदा और अभी भी विवाहित दोनों पति-पत्नियों पर लागू होता है, जैसा कि उक्त मामले में परिस्थिति थी।
धारा 125 के व्यापक प्रभाव के संदर्भ में, न्यायालय ने कहा कि कैसे मुस्लिम कानून चार पत्नियों से विवाह करके बहुविवाह की कुख्यात अनुमति देता है। हालांकि, वही इस्लामी सिद्धांत पत्नी को यह अधिकार भी देता है कि यदि वह अपने पति की अन्य शादियों से असंतुष्ट है, चाहे वह एक या चार हो, तो वह उसे मना कर सकती है। इस प्रकार, इससे पता चला कि किसी भी संघर्ष की स्थिति में, धारा 125 व्यक्तिगत कानून को खत्म कर देती है।
सर्वोच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि पति द्वारा अपनी तलाकशुदा पत्नी को केवल इद्दत अवधि तक भरण-पोषण देने की बाध्यता के संबंध में याचिकाकर्ता द्वारा दिया गया तर्क त्रुटिपूर्ण है। ऐसा तभी होना चाहिए जब पत्नी आर्थिक रूप से स्थिर हो या खुद का भरण-पोषण करने के लिए पर्याप्त सक्षम हो, यदि ऐसा नहीं है, तो तलाकशुदा पत्नी सीआरपीसी की धारा 125 के तहत कानूनी सहायता की हकदार है।
तलाक की अवधि के दौरान भरण-पोषण प्रदान करने के पति के दायित्व के संबंध में मुस्लिम व्यक्तिगत कानून और धारा 125 के बीच कोई विरोधाभास नहीं है। मुस्लिम व्यक्तिगत कानून पति को इद्दत अवधि के लिए भरण-पोषण प्रदान करने के लिए बाध्य करता है जबकि धारा 125 यह अनिवार्य करती है जब पत्नी अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ हो। मुस्लिम महिलाओं की बेहतर सुरक्षा के लिए दोनों को एक साथ लागू किया जा सकता है।
क्या मेहर का भुगतान या गवाही पत्नी को गुजारा भत्ता के रूप में गिना जाने के लिए पर्याप्त है, अदालत ने इस सवाल पर बाई ताहिरा ए बनाम अली हुसैन फिस्सली चोथिया (1979) मामले में दिए गए फैसले पर जोर दिया। इस मामले में,पक्षों ने एक सहमति डिक्री के माध्यम से तलाक ले लिया, जिसके अनुसार पति मेहर को भुगतान करने और उस फ्लैट को स्थानांतरित करने के लिए सहमत हुआ था जिसमें वे और उनका बेटा इस शर्त पर रह रहे थे कि पत्नी द्वारा कोई और दावा नहीं किया जा सकता है। जब पत्नी अपने और अपने बेटे के लिए गुजारा भत्ता मांगने के लिए अदालत में गई, तो शुरू में उसे बर्खास्त कर दिया गया क्योंकि मुस्लिम कानून में तलाक के बाद गुजारा भत्ता की अवधारणा नहीं थी। हालांकि, सर्वोच्च न्यायालय में आगे की अपील पर, उसकी याचिका मंजूर कर ली गई और यह माना गया कि प्रत्येक तलाकशुदा महिला पुनर्विवाह न होने तक भरण-पोषण का अधिकार पाने की हकदार है। मेहर जैसी भ्रामक रकम के भुगतान को भरण पोषण के लिए राशि में कमी के लिए माना जा सकता है, लेकिन पूर्ण प्रतिस्थापन के लिए नहीं, जब तक कि राशि इस तरह विचार करने के लिए पर्याप्त उचित न हो।
इसके अलावा,हमीरा बीबी, अमीना बीबी और अन्य बनाम जुबैदा बीबी और अन्य (1916) द्वारा स्थापित उदाहरण का विश्लेषण करते समय न्यायालय ने कहा कि पति की मृत्यु के बाद भी, पत्नी को अपने पति की संपत्ति से मेहर या ‘मेहर-ऋण’ का दावा करने का अधिकार है।
इस बात को सैयद साबिर हुसैन बनाम एस.फरजंद हसन (1937) मामले में दोहराया गया था। जहां बॉम्बे उच्च न्यायालय ने कहा कि मेहर मुस्लिम कानून के तहत विवाह की स्थिति का एक अनिवार्य हिस्सा है। यह शादी से पहले तय की गई राशि है और पत्नी की मृत्यु के बाद भी, उसके कानूनी उत्तराधिकारी उसके पति से इसका दावा कर सकते हैं। यह पति का दायित्व है कि वह पत्नी या उसकी अनुपस्थिति में उसके उत्तराधिकारियों को मेहर दे।
इन तर्कों के आधार पर, वर्तमान मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि मेहर कोई ऐसी चीज़ नहीं है जिसे तलाक के दौरान पत्नी को भुगतान किया जाना है, बल्कि शादी के दौरान दिया जाना है। इस प्रकार, यह उस भरण-पोषण का स्थान नहीं ले सकता जिसकी तलाकशुदा पत्नी धारा 125 के तहत हकदार है।
सर्वोच्च न्यायालय द्वारा की गई टिप्पणियाँ
उपरोक्त तर्क के मद्देनजर, सर्वोच्च न्यायालय ने टिप्पणी की कि धारा 125 प्रकृति में धर्मनिरपेक्ष है और इस प्रकार, सभी पति-पत्नी पर लागू होगी चाहे उनका धर्म कुछ भी हो और वे जिस व्यक्तिगत कानून का पालन करते हों। ऐसा विशेष रूप से इसलिए है क्योंकि उपरोक्त धारा में स्पष्ट रूप से किसी भी धर्म का उल्लेख नहीं है और यह जिस संहिता से संबंधित है वह नागरिक कानून के बजाय आपराधिक कानून के तहत है। इस प्रकार, यह भारत के क्षेत्र में रहने वाली सभी महिलाओं पर लागू होता है।
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में धारा 125 की व्याख्या करते हुए बाई तिहारी मामले और फ़ुज़लुनबी बनाम के.खादर वली और अन्य (1980) जैसे अन्य मामलों पर भी ध्यान दिया। फ़ुज़लुनबी मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने पहले स्पष्ट किया था कि सीआरपीसी की धारा 127(3)(b) को सीआरपीसी के साथ-साथ व्यक्तिगत कानून के तहत रखरखाव के दोहरे भुगतान से बचने के लिए अधिनियमित किया गया था। यह तलाकशुदा महिला के लिए भरण-पोषण के अधिकार का दावा करते समय अवरोधक के रूप में कार्य नहीं करता है।
इस प्रकार, उपरोक्त दो मामलों में लिए गए दृष्टिकोण के अनुसार, यह सहमति हुई कि धारा 125 का प्रभाव मुसलमानों पर भी लागू होगा। अदालत ने यह भी नोट किया कि धारा 127(3)(b) मुस्लिम कानून को खत्म नहीं करती है, जैसा कि मुस्लिम व्यक्तिगत कानून (शरीयत) एप्लीकेशन एक्ट, 1937 की धारा 2 के तहत देखा जा सकता है, जो कहता है कि मुस्लिम कानून के तहत तलाक से संबंधित सभी मामलों को उपरोक्त अधिनियम द्वारा शासित किया जाएगा। हालाँकि, अधिनियम केवल इद्दत अवधि तक भरण-पोषण का उल्लेख करता है लेकिन उस अवधि के बाद भरण-पोषण के भुगतान को प्रतिबंधित नहीं करता है।
इसके अलावा, न्यायालय ने यह भी देखा कि सीआरपीसी की धारा 125(1)(b) के तहत, ‘पत्नी’ शब्द की परिभाषा सीमित नहीं है क्योंकि इसमें स्पष्ट रूप से केवल उस पत्नी का उल्लेख है जो अपना भरण-पोषण करने में असमर्थ है। इसलिए, इसकी व्याख्या तलाकशुदा पत्नी या पूर्व पत्नी के रूप में भी की जा सकती है। इसके अलावा, ‘पत्नी’ शब्द का इस्तेमाल धर्म की परवाह किए बिना किया जाता है। इस प्रकार, यह किसी भी धर्म की महिलाओं पर तब तक लागू रहेगा जब तक कि उनका पुनर्विवाह न हो जाए।
सर्वोच्च न्यायालय का फैसला
- सर्वोच्च न्यायालय ने प्रतिवादी के पक्ष में फैसला सुनाया और अपील खारिज कर दी।
- सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि सीआरपीसी की धारा 125 अपने धर्म से स्वतंत्र सभी नागरिकों पर लागू होती है और परिणामस्वरूप, आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 125(3) बिना किसी भेदभाव के मुसलमानों के लिए भी प्रासंगिक है। अदालत ने आगे कहा कि अगर दोनों के बीच कोई टकराव है तो धारा 125 व्यक्तिगत कानून को खत्म कर देती है। यह स्पष्ट करता है कि धारा 125 के प्रावधानों और मुस्लिम व्यक्तिगत कानून के उन प्रावधानों के बीच कोई विवाद नहीं है, जो मुस्लिम पति पर अपनी तलाकशुदा पत्नी, जो खुद का भरण-पोषण करने में असमर्थ है, उसके भरण-पोषण प्रदान करने के दायित्व से संबंधित है।
- न्यायालय ने माना कि सीआरपीसी की धारा 125 के तहत स्थापित कानून के नियम के बावजूद, यह सच है कि मुस्लिम कानून में इद्दत अवधि के बाद तलाकशुदा पत्नी के भरण-पोषण की किसी भी अवधारणा का उल्लेख नहीं है। हालांकि, यदि पत्नी आर्थिक रूप से अपना समर्थन करने में असमर्थ है, तो मुस्लिम पति का यह दायित्व है कि वह इद्दत अवधि के बाद भी अपनी तलाकशुदा पत्नी का भरण-पोषण करे। न्यायालय की ओर से आगे कहा गया कि मुस्लिम कानून के मुताबिक यह नियम गलत और मानवता के खिलाफ है क्योंकि यहां एक तलाकशुदा पत्नी अपना भरण-पोषण करने की स्थिति में नहीं है।
- तलाक पर पति द्वारा मेहर का भुगतान उसे पत्नी को गुजारा भत्ता देने से छूट देने के लिए पर्याप्त नहीं है।
- एक लंबी अदालती प्रक्रिया के बाद, सर्वोच्च न्यायालय ने अंततः निष्कर्ष निकाला कि यदि तलाकशुदा पत्नी अपना भरण-पोषण करने में सक्षम है तो पतियों की कानूनी देनदारी समाप्त हो जाएगी। हालांकि, ऐसे मामले में जब पत्नी इद्दत अवधि के बाद अपना भरण-पोषण करने की स्थिति में नहीं होगी, तो वह सीआरपीसी की धारा 125 के तहत रखरखाव या गुजारा भत्ता पाने की हकदार होगी।
फैसले का विश्लेषण
शाह बानो मामले को भारत में मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों के आधारशिला के रूप में देखा गया है, खासकर तलाक और भरण-पोषण कानूनों के संदर्भ में। जबकि यह मामला इद्दत अवधि के बाद भी मुस्लिम महिलाओं के गुजारा भत्ता प्राप्त करने के अधिकार से संबंधित है, इसने इस बात पर भी प्रकाश डाला कि कैसे तलाक-उल-बिद्दत या तीन तलाक (जिसे तलाक का अधिक अस्वीकृत या पाप पूर्ण रूप माना जाता है) मुस्लिम महिलाओं को उनके भरण-पोषण के अधिकार से वंचित नहीं कर सकता है।
यह मामला एक समान नागरिक संहिता की आवश्यकता को भी दर्शाता है जो उन सभी नागरिक कानूनों में एकरूपता ला सकता है जो वर्तमान में धार्मिक रीति-रिवाजों और उन पर आधारित व्यक्तिगत कानूनों के कारण अलग-अलग हैं। इस अलगाव ने विभिन्न धर्मों के लोगों के बीच असमानता पैदा कर दी है; विशेषकर महिलाओं के लिए, जिनके साथ अभी भी गहरी जड़ें जमा चुकी पितृसत्तात्मक मान्यताओं के कारण सबसे अधिक भेदभाव किया जाता है। समान नागरिक संहिता के सुझाव के साथ-साथ मुस्लिम व्यक्तिगत कानूनों में सुधार की आवश्यकता पर दिया गया यह सुधारात्मक कदम जनता को अच्छा नहीं लगा।
हालांकि, सर्वोच्च न्यायालय के वर्तमान फैसले को मुस्लिम समुदाय और विद्वानों की कड़ी आलोचना के साथ-साथ बहुत सारे विरोध और सांप्रदायिक अशांति का सामना करना पड़ा। अधिकांश लोगों द्वारा उठाई गई मुख्य आलोचना यह थी कि यह फैसला मुस्लिम पुरुषों के साथ भेदभाव कर रहा था और उन्हें कुरान और उनके धर्म के सिद्धांतों का पालन करने की अनुमति नहीं दे रहा था।
दूसरी ओर, यह तर्क दिया गया कि उच्चतम न्यायालय ने इसका इलाज किया, पति-पत्नी के धर्म की परवाह किए बिना भरण-पोषण के लिए किसी अन्य याचिका की तरह ही यह मामला भी लागू होगा। यह फैसला अपने आप में काफी धर्मनिरपेक्ष था, यह देखते हुए कि धारा 125 आपराधिक प्रक्रिया संहिता का एक हिस्सा है, न कि नागरिक या व्यक्तिगत कानूनों का। इससे भरण-पोषण कानूनों में एकरूपता लाने में मदद मिली, जो विशेष रूप से उन महिलाओं के लिए महत्वपूर्ण है जो शादी के बाद किसी पेशेवर करियर की कमी के कारण अक्सर अपने पतियों पर निर्भर हो जाती हैं।
हाल ही में पेश की गई भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (बाद में बीएनएसएस के रूप में संदर्भित) ने 1973 के आपराधिक प्रक्रिया संहिता की जगह ले ली है, जिसमें रखरखाव के आदेशों और उनके प्रवर्तन के लिए एक पूरा अध्याय समर्पित किया गया है। बीएनएसएस के अध्याय X की धारा 144 पक्षों के धर्म की परवाह किए बिना किसी व्यक्ति की पत्नियों, बच्चों और माता-पिता के भरण-पोषण से संबंधित है। यह सीआरपीसी की धारा 125 का प्रत्यक्ष प्रतिस्थापन है और साथ ही यह निर्दिष्ट करता है कि आश्रितों (पत्नियों, बच्चों या माता-पिता) का उपेक्षा या इनकार करने पर एक महीने के कारावास के साथ जुर्माना भी हो सकता है। इस खंड में ‘पत्नी’ शब्द का अर्थ भी स्पष्ट किया गया है, जिसमें तलाकशुदा महिलाएं भी शामिल हो सकती हैं जो अभी तक पुनर्विवाह नहीं की है।
अंत में, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि तलाकशुदा महिलाओं के अधिकारों को बनाए रखने के लिए पहले कदम के रूप में, चाहे उनका धर्म कुछ भी हो, इस फैसले ने न्यायिक इतिहास में एक मिसाल के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
मामले का महत्व और परिणाम
शाह बानो मामला अभी भी एक ऐतिहासिक फैसले के रूप में है जो भारत में मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों के लिए एक आधारशिला के रूप में कार्य करता है क्योंकि इस मामले ने नागरिक कानून के संदर्भ में विभिन्न धर्मों की महिलाओं के अधिकारों में असमानता को उजागर किया। भारतीय संविधान के राज्य के नीति निदेशक तत्वों के अनुच्छेद 44 में, राज्य को भारत के पूरे क्षेत्र में एक समान नागरिक संहिता प्रदान करने का निर्देश दिया गया है। वर्तमान निर्णय देते हुए मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने इसके कार्यान्वयन की आवश्यकता बताई।
उनके अनुसार, संविधान के पीछे की विचारधारा को बेहतर तरीके से लागू करने के साथ-साथ राष्ट्रों के कानूनों को एकीकृत करने के लिए एक समान नागरिक संहिता की आवश्यकता थी। नागरिक कानूनों को धर्म के आधार पर अलग-अलग करने के कारण, लोगों के अधिकार उनके द्वारा पालन किए जाने वाले व्यक्तिगत कानून के अनुसार भिन्न होते हैं और इससे असमानता और परस्पर विरोधी विचार उत्पन्न हुए हैं। रखरखाव और तलाक से संबंधित कानून ऐसी असमानता के महत्वपूर्ण उदाहरणों में से एक हैं। इस फैसले में उनके विचार ने भारत में समान नागरिक संहिता पर बहस को प्रेरित किया।
बाद के घटनाक्रम
शाह बानो के मामले के फैसले की कई मुसलमानों, विशेषकर मुस्लिम विद्वानों ने आलोचना की। इससे मुस्लिम समुदाय में कई विरोध प्रदर्शन और संघर्ष हुए। उन्होंने इस फैसले को कुरान और इस्लामी कानूनों/इस्लाम के नियमों के विपरीत माना। इसके बाद, 1986 में भारत की संसद ने मुस्लिम भीड़ को खुश करने के साथ-साथ मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के प्रयास में मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 को पारित करने का निर्णय लिया।
तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं या जिनका अपने पतियों से तलाक हो चुका है, उनके अधिकारों की रक्षा करना इस अधिनियम का मुख्य उद्देश्य था। इस अधिनियम के तहत:
- मुस्लिम तलाकशुदा महिलाओं को इद्दत अवधि तक भरण-पोषण की पर्याप्त और उचित राशि की हकदार होनी चाहिए।
- जब एक तलाकशुदा महिला के पास तलाक से पहले या बाद में पैदा हुए अपने बच्चे की कस्टडी होती है, तो पूर्व पति पर 2 साल की अवधि के लिए बच्चे के लिए भरण-पोषण प्रदान करने का कानूनी दायित्व होता है।
- महिलाओं को “मेहर” प्राप्त करने और उन सभी संपत्तियों को वापस पाने का भी अधिकार है जो उन्हें उनके अभिभावकों, साथियों, रिश्तेदारों, पतियों या पतियों के दोस्तों द्वारा दी गई है।
अधिनियम की वैधता को चुनौती
हालाँकि, इस अधिनियम की प्रमुख आलोचना यह थी कि इसने शाह बानो मामले को कमजोर कर दिया क्योंकि जनता द्वारा काफी हद तक माना जाता था कि यह अधिनियम सीआरपीसी की धारा 125 को खत्म कर देता है। हालांकि, भारतीय न्यायपालिका ने अपने कई फैसलों में स्पष्ट किया कि ऐसा नहीं है और दोनों कानून का सामंजस्यपूर्ण रूप से व्याख्या किया जा सकता है, जैसा कि डेनियल लतीफी और अन्य बनाम यूनियन ऑफ इंडिया, 2001 मामले में देखा जा सकता है। इस मामले में, सर्वोच्च न्यायालय ने सीधे शाह बानो मामले का हवाला दिया और मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम,1986 की संवैधानिकता को बरकरार रखा। अदालत के अनुसार, तलाकशुदा पति इद्दत अवधि के लिए और इद्दत अवधि के भीतर ही पत्नी के शेष जीवन के लिए उचित और सही राशि प्रदान करने के लिए बाध्य था। हालांकि अदालत ने सीआरपीसी की धारा 125 की स्थिति को स्पष्ट नहीं किया, लेकिन यह कहा गया था कि अधिनियम ने उपरोक्त धारा के तहत प्रदत्त अधिकारों को समाप्त नहीं किया ।
मोहम्मद अब्दुल समद बनाम तेलंगाना राज्य (2024) के हालिया फैसले में, भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने शाह बानो मामले को एक न्यायिक मिसाल के रूप में देखते हुए सीआरपीसी की धारा 125 के तहत तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों को फिर से बरकरार रखा। इस मामले में, याचिकाकर्ता ने तर्क दिया कि मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986, सीआरपीसी की धारा 125 पर हावी है। हालांकि, न्यायालय ने यह कहते हुए असहमति जताई कि एक महिला संबंधित कानूनी प्रावधान द्वारा प्रदान किए गए उपायों के बीच चयन कर सकती है और दोनों में से कोई भी दूसरे पर हावी नहीं होता है।
मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों की सुरक्षा के लिए पेश किया गया एक अन्य कानून मुस्लिम महिला (विवाह पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 2019 है, जिसने शायरा बानो बनाम भारत संघ और अन्य (2017) के बाद ट्रिपल तलाक या ‘तलाक-उल-बिद्दत’ को शून्य और असंवैधानिक घोषित किया। ट्रिपल तलाक के माध्यम से अपनी पत्नी को तलाक देने वाले किसी भी व्यक्ति को तीन साल तक की कैद हो सकती है या न्यायपालिका के अनुसार जुर्माना भरना पड़ सकता है।
अंत में, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 44 ने राज्य को नागरिकों के बीच बेहतर एकता को बढ़ावा देने के लिए एक समान नागरिक संहिता लागू करने के लिए प्रोत्साहित किया। हालांकि, शाह बानो मामले में भरण-पोषण में समान अधिकारों के सरल कार्यान्वयन से इस तरह के राजनीतिक और सामाजिक अशांति हुई कि इस तरह के समान कानून पेश करने का प्रयास बहुत बाद तक स्थगित कर दिया गया जब सांप्रदायिक तनाव कम हो गया। अब के लिए, बीएनएसएस की धारा 144 सीआरपीसी की धारा 125 की जगह लेने के बाद पत्नियों, बच्चों और माता-पिता के भरण-पोषण के लिए एक धर्मनिरपेक्ष कानूनी प्रावधान के रूप में कार्य करती है।
निष्कर्ष
हालांकि सर्वोच्च न्यायालय को अपील खारिज करने के निर्णय पर पहुंचने में लंबा समय लगा, फिर भी फैसले को बहुत ऐतिहासिक माना जाता है क्योंकि यह न्यायपालिका में व्यक्तियों की सच्चाई और विश्वास को बनाए रखता है। इस फैसले ने भरण-पोषण के महत्व को चिह्नित किया है, जो तलाकशुदा महिलाओं को दिया जाना चाहिए, चाहे उनका धर्म कुछ भी हो, जो कमाने या खुद का भरण-पोषण करने की स्थिति में नहीं हैं।
शाह बानो मामले के फैसले ने मुस्लिम समुदाय और अधिकारियों से बहुत विरोध और अशांति खींची क्योंकि यह फैसला इस्लामी कानून के प्रावधानों के खिलाफ था। हालांकि, सर्वोच्च न्यायालय ने निष्पक्ष फैसला सुनाने में संकोच नहीं किया और अंत में, इसने नागरिकों का न्यायपालिका में विश्वास बनाए रखा। इसके कारण मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 का अधिनियमन हुआ, जिसने मुस्लिम महिलाओं को इद्दत की अवधि के दौरान अपने पति से एक बड़ा, एकमुश्त भुगतान दिया, अधिकतम मासिक भुगतान ₹500 – एक ऊपरी सीमा जिसे तब से हटा दिया गया है, क्योंकि पैसे का मूल्य हर गुजरते साल के साथ बदलता रहता है।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)
बीएनएसएस की धारा 144 के तहत भरण-पोषण के लिए कौन पात्र है?
बीएनएसएस की धारा 144 के अनुसार, निम्नलिखित लोग भरण-पोषण के लिए पात्र हैं:
- व्यक्ति की पत्नी, जो आर्थिक रूप से अपना भरण-पोषण करने में सक्षम नहीं है;
- व्यक्ति के बच्चे, गोद लिए हुए, वैध या नाजायज और उनकी वैवाहिक स्थिति की परवाह किए बिना;
- व्यक्ति के मानसिक या शारीरिक रूप से अक्षम बच्चे (दत्तक, वैध या नाजायज), जो आर्थिक रूप से उस पर निर्भर हैं, जब तक कि वे विवाहित बेटी न हों;
- उस व्यक्ति की माता और/या पिता जो आर्थिक रूप से अपना समर्थन करने में सक्षम नहीं हैं।
भरण पोषण क्या है?
भरण-पोषण, जैसा कि शब्द से पता चलता है, उन दावेदारों का कानूनी अधिकार है जो भोजन, कपड़े, आश्रय, शिक्षा और चिकित्सा व्यय सहित अपनी हर बुनियादी जरूरत के लिए दूसरे पक्ष पर आर्थिक रूप से निर्भर है। यह आमतौर पर अलगाव की स्थिति में आश्रितों या परिवार के सदस्यों को दी जाने वाली वित्तीय सहायता का एक रूप है।
क्या पति भरण-पोषण का दावा कर सकता है?
हां, पति भी हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा 24 और धारा 25 के तहत रखरखाव का दावा कर सकता है। इसके अलावा, निव्या वीएम बनाम शिवप्रसाद एनके (2014) और रानी सेठी बनाम सुनील सेठी (2011) जैसे मामलों में, यह माना गया था कि यदि पति की स्वतंत्र आय नहीं है, तो उसे उस रखरखाव के अधिकार से वंचित करना अनुचित है जो पत्नी को प्राप्त होता यदि वह समान वित्तीय स्थिति में होती। हालांकि, ऐसा कोई संहिताबद्ध प्रावधान नहीं है जो स्पष्ट रूप से मुस्लिम पतियों के लिए गुजारा भत्ता प्रदान करता है।
तलाक पर कितना गुजारा भत्ता दिया जाता है?
सीआरपीसी की धारा 125 के तहत भरण-पोषण की राशि तय नहीं है। इसके बजाय, इसकी गणना कमाई करने वाले पति/पत्नी की आय के आधार पर की जाती है। उनकी वार्षिक आय और अन्य परिस्थितियों (जिसके पास बच्चों की कस्टडी है, किसकी आय अधिक है, आदि) के आधार पर, मजिस्ट्रेट हर महीने भुगतान की जाने वाली रखरखाव की उचित राशि का निर्धारण करेगा।
क्या कामकाजी पत्नी भरण-पोषण का दावा कर सकती है?
हां, एक कामकाजी पत्नी भरण-पोषण का दावा कर सकती है यदि उसकी आय उसकी बुनियादी जरूरतों, जैसे भोजन और आश्रय के खर्चों को वहन करने के लिए पर्याप्त नहीं है। भरण-पोषण दिया जाना है या नहीं और कितनी राशि का यह निर्धारित करते समय न्यायालय तलाक के दौरान दोनों पति-पत्नी की आय और व्यय पर विचार करता है।
संदर्भ
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