यह लेख Almana Singh द्वारा लिखा गया है। इसमें सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 के आदेश 33, जो निर्धन व्यक्तियों को न्यायालय शुल्क का भुगतान किए बिना मुकदमा दायर करने की प्रक्रिया प्रदान करता है, का गहन विश्लेषण किया गया है। इस लेख में आदेश 33 की बेहतर व्याख्या और समझ के लिए प्रासंगिक उदाहरण और हालिया मामले भी शामिल किए गए हैं। इस लेख का अनुवाद Chitrangda Sharma के द्वारा किया गया है।
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परिचय
एक न्यायसंगत एवं समतामूलक समाज में, कानूनी उपायों तक पहुंच किसी के वित्तीय (फाइनेंशियल) संसाधनों द्वारा प्रतिबंधित नहीं होनी चाहिए। समानता का सिद्धांत भारत के संविधान की आत्मा है। यह इस सिद्धांत की पुष्टि करता है कि प्रत्येक व्यक्ति को न्याय पाने का समान अवसर मिलना चाहिए, चाहे उसकी आर्थिक स्थिति कुछ भी हो। इन सिद्धांतों के अनुरूप, सिविल प्रक्रिया संहिता,1908 (जिसे आगे सी.पी.सी.,1908 कहा जाएगा) का आदेश 33 उन व्यक्तियों के लिए एक तंत्र प्रदान करता है जो मुकदमे का खर्च वहन करने में असमर्थ हैं। यह व्यक्तियों को न्यायालय शुल्क का भुगतान किए बिना मुकदमा दायर करने की अनुमति देता है तथा यह सुनिश्चित करता है कि वित्तीय कठिनाइयां किसी को न्याय पाने से नही रोक सकती है।
यह लेख पाठकों के लिए निर्धन व्यक्ति का अर्थ सरल बनाने तथा ऐसे निर्धन व्यक्तियों को दिए जाने वाले लाभों की बेहतर और गहन समझ के लिए सी.पी.सी., 1908 के आदेश 33 के प्रावधान की व्याख्या करने के उद्देश्य से लिखा गया है।
“निर्धन व्यक्ति” कौन है
इससे पहले कि हम एक निर्धन व्यक्ति के रूप में आवेदन दाखिल करने की प्रक्रिया के बारे में जाने, यह प्रश्न पूछना आवश्यक है कि निर्धन व्यक्ति के रूप में कौन पात्र है।
शब्द ‘निर्धन’ का शब्दकोश अर्थ है वह व्यक्ति जो अत्यधिक गरीब है। इस शब्द का कानूनी अर्थ आदेश 33 के नियम 1 के साथ संलग्न (अटैचड) स्पष्टीकरण 1 में दिया गया है और इसमें “निर्धन व्यक्ति” को इस प्रकार परिभाषित किया गया है:
- यदि किसी व्यक्ति के पास मुकदमा दायर करने के लिए आवश्यक न्यायालय शुल्क का भुगतान करने के लिए पर्याप्त साधन या पर्याप्त वित्तीय संसाधन ((किसी डिक्री के निष्पादन में जब्त की जाने वाली किसी संपत्ति और मुकदमे की विषय-वस्तु को छोड़कर) नहीं हैं, तो उसे निर्धन व्यक्ति माना जाएगा।
- इसमें यह भी कहा गया है कि यदि कोई विशिष्ट शुल्क नहीं है, तो किसी व्यक्ति को निर्धन तब माना जाएगा जब जब्ती से संरक्षित किसी भी संपत्ति और मुकदमे से संबंधित संपत्ति को छोड़कर उसकी कुल संपत्ति का मूल्य 1000 रुपये से कम हो।
दृष्टांत
मान लीजिए, A एक दैनिक वेतन भोगी कर्मचारी है और वह अपने नियोक्ता के खिलाफ गलत तरीके से नौकरी से निकाले जाने का मुकदमा दायर करना चाहता है। अदालत को मुकदमा दायर करने के लिए 2000 रुपये की आवश्यकता है। हालाँकि, A के पास केवल उसका घर है जो कानून के तहत कुर्की से मुक्त है और उसके पास 1000 रुपये से कम मूल्य की कुछ निजी वस्तुएं हैं। नियम 1 के स्पष्टीकरण 1 की प्रयोज्यता (एप्लिकेबिलिटी) को समझने के लिए निम्नलिखित परिदृश्यों पर विचार करें।
परिदृश्य 1: A के पास कोई अन्य संपत्ति या बचत नहीं है जिसका उपयोग 2000 रुपये की न्यायालय शुल्क का भुगतान करने के लिए किया जा सके। चूंकि गैर-छूट वाली संपत्ति का मूल्य फाइलिंग शुल्क को शामिल करने के लिए अपर्याप्त है, इसलिए A को सी.पी.सी. के आदेश 33 के तहत एक निर्धन व्यक्ति माना जाएगा।
परिदृश्य 2: यदि न्यायालय को A के मुकदमे के लिए कोई विशिष्ट फाइलिंग शुल्क की आवश्यकता नहीं है, लेकिन A की कुल संपत्ति, छूट प्राप्त परिसंपत्तियों को छोड़कर, केवल 900 रुपये की है, तो भी उसे एक निर्धन व्यक्ति माना जाएगा। ऐसा इसलिए है क्योंकि उसकी संपत्ति का मूल्य 1000 रुपये से कम है और वह निर्धनता की सीमा को पूरा करती है।
दोनों मामलों में, A, सीपीसी, 1908 के आदेश 33 के अंतर्गत एक निर्धन व्यक्ति के रूप में मुकदमा दायर कर सकता है, और उसे न्यायालय शुल्क का अग्रिम भुगतान नहीं करना होगा।
“पर्याप्त साधन” शब्द का अर्थ
नियम 1 के स्पष्टीकरण 1 के तहत “निर्धन व्यक्ति” शब्द की परिभाषा में कहा गया है कि “यदि किसी व्यक्ति के पास निर्धारित न्यायालय शुल्क का भुगतान करने के लिए पर्याप्त साधन नहीं हैं”। भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा “पर्याप्त साधन” शब्द की व्याख्या पर विस्तार से चर्चा की गई हैं।
मथाई एम. पाइकडी बनाम सी.के.एंटनी (2011)
मथाई एम. पाइकडी बनाम सी.के.एंटनी (2011) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष मुद्दा “पर्याप्त साधन” शब्द की व्याख्या का था। इस मामले में तथ्य और सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणियां नीचे संक्षेप में दी गई हैं।
तथ्य
अपीलकर्ता ने प्रतिवादी के खिलाफ धन की वसूली के लिए दो मुकदमे दायर किए, जो एक सेवानिवृत्त (रिटायर्ड) उप वन संरक्षक थे और 10,500 रुपये पेंशन पाते थे। इन मुकदमों का फैसला अपीलकर्ता के पक्ष में हुआ। परिणाम से व्यथित होकर, प्रतिवादी ने केरल उच्च न्यायालय के समक्ष अपील दायर की और सीपीसी, 1908 के नियम 1 के आदेश 33 के तहत एक निर्धन व्यक्ति के रूप में इन अपीलों पर मुकदमा चलाने की मांग की। प्रारंभ में, केरल उच्च न्यायालय ने प्रतिवादी को सीपीसी, 1908 के आदेश 33 नियम 1A के तहत आवश्यक अनिवार्य जांच किए बिना एक निर्धन व्यक्ति के रूप में आगे बढ़ने की अनुमति दी थी। इस निर्णय को अपीलकर्ता द्वारा चुनौती दी गई और भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने उचित जांच के लिए मामले को वापस उच्च न्यायालय को भेज दिया। जांच के बाद, उच्च न्यायालय ने एक बार फिर प्रतिवादी को निर्धन व्यक्ति के रूप में अपील पर मुकदमा चलाने की अनुमति दे दी और इसके परिणामस्वरूप अपीलकर्ता ने सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर की।
तर्क
अपीलकर्ता ने तर्क दिया कि प्रतिवादी को 10,500 रुपये की पेंशन मिलती है तथा विदेश में कार्यरत उसके बेटे से संभवतः उसे अतिरिक्त वित्तीय सहायता भी मिलती है। प्रतिवादी के पास न्यायालय शुल्क का भुगतान करने के लिए पर्याप्त साधन थे। प्रतिवादी द्वारा अपनी बैंक पासबुक प्रस्तुत न करना, बेटे को प्राप्त वित्तीय सहायता को छिपाने का प्रयास बताया गया। अपीलकर्ता ने दावा किया कि इन परिस्थितियों से पता चलता है कि प्रतिवादी एक निर्धन व्यक्ति के रूप में आगे बढ़ने का हकदार नहीं है।
प्रतिवादी ने दावा किया कि उसकी पेंशन और बेटे से प्राप्त धनराशि अदालती शुल्क का भुगतान करने के लिए अपर्याप्त थी। उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि उनका बेटा उन्हें नियमित रूप से पैसे नहीं भेजता था और प्राप्त होने वाली राशि भी पर्याप्त नहीं थी।
निर्णय
न्यायालय ने स्पष्ट किया कि “पर्याप्त साधन” से तात्पर्य किसी व्यक्ति की न्यायालय शुल्क का भुगतान करने के लिए वैध साधनों के माध्यम से धन जुटाने की क्षमता से है। किसी व्यक्ति के पास “पर्याप्त साधन” हैं या नहीं, यह निर्धारित करने के लिए रोजगार की स्थिति, कुल आय (पेंशन सहित), परिसंपत्तियों का स्वामित्व, ऋणग्रस्तता और परिवार से वित्तीय सहायता जैसे कारकों पर विचार किया जाना चाहिए।
सर्वोच्च न्यायालय ने पाया कि प्रतिवादी की पेंशन और उसके बेटे से मिलने वाली संभावित वित्तीय सहायता, अदालती शुल्क का भुगतान करने के लिए पर्याप्त साधन है। प्रतिवादी द्वारा अपने बैंक विवरण का खुलासा न करना तथ्यों को दबाने के रूप में देखा गया। उच्च न्यायालय के निर्णय को रद्द कर दिया गया और प्रतिवादी को निर्धन व्यक्ति के रूप में मामले को आगे बढ़ाने की अनुमति नहीं दी गई तथा उसे न्यायालय शुल्क जमा करने के लिए 45 दिन का समय दिया गया।
आदेश 33 के तहत निर्धन के रूप में विधिक व्यक्ति
अब प्रश्न यह उठता है कि क्या एक न्यायिक व्यक्ति को निर्धन व्यक्ति माना जा सकता है। इस मुद्दे पर नीचे उल्लेखित मामले में चर्चा की गई है।
यूनियन बैंक ऑफ इंडिया बनाम खादर इंटरनेशनल कंस्ट्रक्शन (2001)
यूनियन बैंक ऑफ इंडिया बनाम खादर इंटरनेशनल कंस्ट्रक्शन (2001) के मामले में, इस मुद्दे की जांच की गई थी कि क्या एक न्यायिक व्यक्ति को निर्धन व्यक्ति माना जा सकता है। माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा प्रस्तुत तथ्य, तर्क और सुनाए गए निर्णय पर नीचे चर्चा की गई है।
तथ्य
प्रथम प्रतिवादी, एक सार्वजनिक कंपनी ने उप-न्यायालय, कोच्चि में एक वाद दायर किया, जिसमें सीपीसी, 1908 के आदेश 33 नियम 1 के तहत एक निर्धन व्यक्ति के रूप में मुकदमा करने की अनुमति मांगी गई। अपीलकर्ता ने आपत्ति जताते हुए तर्क दिया कि आदेश 33 नियम 1 में शब्द “व्यक्ति” केवल प्राकृतिक व्यक्तियों को संदर्भित करता है, न कि कंपनियों जैसे कानूनी व्यक्तियों को संदर्भित करता है। उप-न्यायालय ने प्रतिवादी को एक निर्धन व्यक्ति के रूप में मुकदमा करने की अनुमति दी। अपीलकर्ता की केरल उच्च न्यायालय में बाद में की गई अपील खारिज कर दी गई। उच्च न्यायालय के फैसले से व्यथित होकर अपीलकर्ता ने भारत के सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष अपील दायर की।
तर्क
अपीलकर्ताओं ने तर्क दिया कि आदेश 33, नियम 3 के प्रावधानों के अनुसार, विशेष रूप से आवेदक को व्यक्तिगत रूप से आवेदन प्रस्तुत करना होगा तथा महत्वपूर्ण प्रश्नों के उत्तर देने होंगे, जिसका तात्पर्य यह है कि केवल प्राकृतिक व्यक्ति ही निर्धन व्यक्ति हो सकते हैं। उन्होंने यह भी तर्क दिया कि कानून के 1976 से पहले के संस्करण में “पहनने वाले परिधान” जैसे शब्दों का प्रयोग प्राकृतिक व्यक्तियों पर ध्यान केंद्रित करने का संकेत देता है।
प्रतिवादियों ने तर्क दिया कि आदेश 33 एक प्रावधान है जो न्यायालय शुल्क का भुगतान करने में असमर्थ लोगों की सहायता के लिए है, चाहे वे प्राकृतिक या न्यायिक व्यक्ति हों। प्रतिवादी ने विभिन्न उच्च न्यायालयों के कई निर्णयों का हवाला दिया, जो इस दृष्टिकोण का समर्थन करते हैं कि न्यायिक व्यक्ति निर्धन व्यक्ति के रूप में मुकदमा दायर कर सकते हैं।
निर्णय
सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि आदेश 33 नियम 1 में “व्यक्ति” शब्द की व्याख्या व्यापक रूप से की जानी चाहिए ताकि इसमें न्यायिक व्यक्ति भी शामिल हो सकें। यह तर्क कि नियम 3 के अंतर्गत प्रक्रियागत आवश्यकताओं में न्यायिक व्यक्तियों को शामिल नहीं किया गया है, अस्वीकार कर दिया गया तथा यह नोट किया गया कि एक प्रतिनिधि या अधिकृत एजेंट कंपनी के लिए इन दायित्वों को पूरा कर सकता है। अदालत ने इस बात पर जोर दिया कि आदेश 33 की उदारतापूर्वक व्याख्या की जानी चाहिए, ताकि न्यायालय शुल्क का भुगतान करने में असमर्थ लोगों के लिए न्याय तक पहुंच को सुगम बनाने का उद्देश्य प्राप्त किया जा सके। अपील को यह कहते हुए खारिज कर दिया गया कि एक सार्वजनिक लिमिटेड कंपनी सीपीसी, 1908 के आदेश 33 नियम 1 के तहत एक निर्धन व्यक्ति के रूप में मुकदमा करने की हकदार है। इस संदर्भ में “व्यक्ति” शब्द में प्राकृतिक और कानूनी दोनों व्यक्ति शामिल हैं।
यह अच्छी तरह से समझने के बाद कि आदेश 33 के तहत निर्धन व्यक्ति के रूप में कौन अर्हता प्राप्त कर सकता है। आइए एक निर्धन व्यक्ति के रूप में आवेदन दाखिल करने की प्रक्रिया को समझते है।
सी.पी.सी. का आदेश 33, 1908
सी.पी.सी., 1908 का आदेश 33 “निर्धन व्यक्तियों द्वारा मुकदमों” को संबोधित करता है। इससे पहले, इस आदेश का शीर्षक “गरीबों द्वारा वाद” था, लेकिन इसे 1976 के अधिनियम 104 द्वारा प्रतिस्थापित किया गया, जो 01 फरवरी 1977 से प्रभावी हुआ। “निर्धन व्यक्ति” शब्द के प्रचलन से पहले, समाज के वंचित वर्ग को दर्शाने के लिए व्यापक रूप से जाना जाने वाला शब्द “कंगाल” था।
सी.पी.सी., 1908 के आदेश 33 में 18 नियम शामिल हैं और उनमें से प्रत्येक के साथ-साथ प्रासंगिक उदाहरणों पर नीचे विस्तार से चर्चा की गई है।
निर्धन व्यक्ति द्वारा मुकदमा दायर किया जा सकता है (नियम 1)
नियम 1 में कहा गया है कि किसी निर्धन व्यक्ति को इस आदेश के तहत दिए गए प्रावधानों को ध्यान में रखते हुए कोई भी कानूनी मुकदमा शुरू करने का अधिकार है। आदेश 33 के नियम 1 में भी 3 स्पष्टीकरण संलग्न हैं। इन सभी का विवरण नीचे दिया गया है।
नियम 1 का स्पष्टीकरण 1
स्पष्टीकरण 1 निर्धन व्यक्ति की परिभाषा से संबंधित है, जिस पर इस लेख की पिछले धाराओं में पहले ही चर्चा की जा चुकी है।
नियम 1 का स्पष्टीकरण 2
आदेश 33 के नियम 1 के स्पष्टीकरण 2 में कहा गया है कि कोई भी संपत्ति जिसे कोई व्यक्ति निर्धन व्यक्ति के रूप में मुकदमा करने के लिए आवेदन प्रस्तुत करने के बाद, लेकिन न्यायालय द्वारा उस आवेदन पर निर्णय दिए जाने से पहले अर्जित करता है, उस पर यह निर्धारित करने में विचार किया जाएगा कि आवेदक निर्धन के रूप में योग्य है या नहीं।
दृष्टांत
मान लीजिए, ‘A’ द्वारा एक निर्धन व्यक्ति के रूप में मुकदमा दायर करने के बाद, ‘A’ को एक दूर के रिश्तेदार से अप्रत्याशित (अनएक्सपेक्टेड) उत्तराधिकार प्राप्त होता है। इस विरासत में 50,000 रुपये मूल्य का एक छोटा सा भूखंड भी शामिल है। अदालत ने अभी तक इस पर निर्णय नहीं लिया है कि ‘A’ निर्धन व्यक्ति की श्रेणी में आता है या नहीं। स्पष्टीकरण 2 के अनुसार, चूंकि ‘A’ ने आवेदन प्रस्तुत करने के बाद लेकिन न्यायालय द्वारा निर्णय दिए जाने से पहले भूखंड का अधिग्रहण किया था, इसलिए अब उसकी निर्धनता की स्थिति का निर्धारण करते समय इस भूमि के मूल्य पर विचार किया जाना चाहिए। यद्यपि ‘A’ शुरू में निर्धन था, लेकिन नई संपत्ति उसे निर्धन के रूप में मान्यता दिए जाने से अयोग्य ठहरा सकती है, क्योंकि इससे उसके वित्तीय साधन काफी हद तक बढ़ जाते हैं।
नियम 1 का स्पष्टीकरण 3
आदेश 33 के नियम 1 के स्पष्टीकरण 3 में कहा गया है कि यदि कोई वादी प्रतिनिधि क्षमता में मुकदमा कर रहा है, तो उनके निर्धन होने का आकलन, उस प्रतिनिधि भूमिका में उनके पास उपलब्ध संसाधनों पर आधारित होगा।
दृष्टांत
मान लीजिए, ‘A’ उन श्रमिकों के समूह का प्रतिनिधित्व कर रहा है जिन्हें नियोक्ता द्वारा गलत तरीके से नौकरी से निकाल दिया गया था। ‘A’ पूरे समूह के प्रतिनिधि के रूप में मुकदमा दायर करता है, न कि केवल अपने लिए मुकदमा दायर करता है। यहां, न्यायालय को यह आकलन करना होगा कि क्या केवल ‘A’ ही नहीं बल्कि पूरा समूह नियम 1 से जुड़े स्पष्टीकरण 1 और 2 के अनुसार निर्धन व्यक्ति के रूप में योग्य है। ऐसी संभावना है कि ‘A’ के पास व्यक्तिगत रूप से बहुत कम पैसा हो और वह निर्धन कहलाए। हालाँकि, यदि श्रमिकों का वह समूह जिसका वह प्रतिनिधित्व करता है, सामूहिक रूप से संपत्ति का मालिक है या उसके पास वित्तीय संसाधन हैं जो अदालत के शुल्क को शामिल करने के लिए पर्याप्त हैं, तो उसकी प्रतिनिधि भूमिका में ‘A’ को एक निर्धन व्यक्ति नहीं माना जा सकता है और वह आदेश 33 के तहत आवेदन दायर करने में सक्षम नहीं होगा। अदालत उस समूह के वित्तीय साधनों का मूल्यांकन करेगी जिसका वह प्रतिनिधित्व करता है, न कि केवल उसकी व्यक्तिगत वित्तीय स्थिति का प्रतिनिधित्व करता है।
कोई व्यक्ति निर्धन है या नहीं (नियम 1-A)
नियम 1-A में कहा गया है कि किसी व्यक्ति की कथित निर्धनता की प्रारंभिक जांच न्यायालय के मुख्य प्रशासनिक अधिकारी द्वारा की जाती है। हालाँकि, यह न्यायालय के विवेक पर निर्भर है और वह जांच को अलग तरीके से निपटाने का विकल्प चुन सकती है। अदालत या तो अधिकारी के निष्कर्षों को अपना मान सकती है या स्वयं जांच करने का निर्णय ले सकती है।
आवेदन की विषय-वस्तु (नियम 2)
नियम 2 मे कहा गया है कि निर्धन व्यक्ति के रूप में मुकदमा चलाने की अनुमति के लिए प्रत्येक आवेदन में निम्नलिखित विवरण शामिल होने चाहिए:
- वादपत्र (प्लेन्ट) और मुकदमों के संबंध में आवश्यक विवरण;
- आवेदक के स्वामित्व वाली किसी भी चल या अचल संपत्ति की अनुमानित मूल्य सहित सूची।
- आदेश 6 नियम 14 और 15 के प्रावधानों के अनुसार हस्ताक्षर और सत्यापन।
आवेदन प्रस्तुत करना (नियम 3)
अन्य नियमों के बावजूद, आवेदन आवेदक द्वारा व्यक्तिगत रूप से न्यायालय में प्रस्तुत किया जाना चाहिए। यदि आवेदक को न्यायालय में उपस्थित होने से छूट प्राप्त है, तो उसके स्थान पर कोई अधिकृत प्रतिनिधि आवेदन प्रस्तुत कर सकता है। इस प्रतिनिधि को आवेदनों के बारे में सभी महत्वपूर्ण प्रश्नों का उत्तर देने में सक्षम होना चाहिए तथा उसकी जांच इस प्रकार की जानी चाहिए मानो आवेदक स्वयं उपस्थित हुआ हो।
नियम 3 में एक परंतुक है जिसके अनुसार यदि कई वादी हों तो केवल एक वादी द्वारा आवेदन प्रस्तुत करना स्वीकार्य है।
मुकदमे की शुरुआत ठीक उसी समय होती है जब एक निर्धन व्यक्ति के रूप में मुकदमा करने के लिए आवेदन प्रस्तुत किया जाता है। यह बात जुगल किशोर बनाम धन्नो देवी (1973) मामले में स्थापित की गई थी।
जुगल किशोर बनाम धन्नो देवी (1973)
जुगल किशोर बनाम धन्नो देवी (1973) में भारत के माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा सुनाए गए तथ्य और निर्णय का संक्षिप्त विवरण नीचे दिया गया है।
तथ्य
यह मामला कानपुर में एक मकान के स्वामित्व को लेकर कानूनी विवाद से जुड़ा था। वादी धन्नो देवी ने दावा किया कि उसके पिता बुधु लाल और माता जुम्मा देवी के निधन के बाद वह संपत्ति की असली उत्तराधिकारी है। धन्नो देवी ने विवादित संपत्ति पर कब्जा पाने के लिए मुकदमा दायर करने का प्रयास किया, लेकिन उनके पास आवश्यक न्यायालय शुल्क का भुगतान करने के लिए वित्तीय संसाधन नहीं थे। 2 जनवरी 1948 को, उन्होंने सी.पी.सी., 1908 के आदेश 33, नियम 2 और 3 के तहत एक निर्धन के रूप में मुकदमा चलाने की अनुमति के लिए आवेदन किया।
प्रतिवादियों ने उनके दावे का विरोध किया और तर्क दिया कि धन्नो देवी बुद्धू लाल की पुत्री नहीं थी और यह मुकदमा समय-सीमा के अंतर्गत वर्जित है। निचली अदालत ने धन्नो देवी के पक्ष में फैसला सुनाया। बाद में, इलाहाबाद उच्च न्यायालय में अपील दायर की गई और उच्च न्यायालय ने विचारण न्यायालय के फैसले को बरकरार रखा। फैसले से व्यथित होकर प्रतिवादियों ने भारत के सर्वोच्च न्यायालय में अपील की।
निर्णय
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने इस सिद्धांत की पुनः पुष्टि की कि एक वाद उसी क्षण से प्रारंभ माना जाता है जब एक निर्धन व्यक्ति के रूप में वाद लाने की अनुमति के लिए आवेदन न्यायालय में प्रस्तुत किया जाता है, बशर्ते कि उसमें वाद के लिए अपेक्षित सभी आवश्यक विवरण मौजूद हों। न्यायालय ने स्पष्ट किया कि भले ही निर्धन व्यक्ति के रूप में मुकदमा दायर करने का आवेदन वापस ले लिया जाए या खारिज कर दिया जाए, लेकिन मुकदमा मूल आवेदन की तिथि से ही वैध बना रहेगा। जब ऐसा आवेदन प्रस्तुत किया जाता है तो उसे वाद प्रस्तुत करना माना जाता है।
इसलिए, धन्नो देवी का मुकदमा 02 जनवरी 1948 को, जिस दिन उनका आवेदन दायर किया गया था, उचित रूप से संस्थित माना गया। प्रारंभ में, सर्वोच्च न्यायालय ने धन्नो देवी की एक निर्धन व्यक्ति के रूप में मुकदमा दायर करने की अर्जी को खारिज कर दिया था, क्योंकि वह निर्धारित समय सीमा तक अदालती फीस का भुगतान करने में विफल रही थीं, लेकिन बाद में आवश्यक भुगतान करने के बाद कार्यवाही बहाल कर दी गई थी।
सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि वाद वैध है, क्योंकि अदालती फीस का भुगतान अंततः कर दिया गया था और विचाराधीन वाद को 2 जनवरी 1948 को दायर किया गया माना जाना चाहिए। जहां तक प्रतिवादी की सीमा अवधि से संबंधित दलीलों का सवाल है, अदालत ने उनके दावों को खारिज कर दिया और फैसला सुनाया कि मुकदमा सीमा अवधि के भीतर है।
आवेदक का परीक्षण (नियम 4)
नियम 4 में कहा गया है कि जब आवेदन सही प्रारूप में हो और उसे उचित तरीके से प्रस्तुत किया गया हो, तो न्यायालय आवेदक का परीक्षण करने के लिए अपने विवेक का प्रयोग कर सकता है, या यदि आवेदक को किसी एजेंट के माध्यम से उपस्थित होने की अनुमति दी जाती है, तो न्यायालय के पास एजेंट का भी परीक्षण करने का विवेक है। इस परीक्षण से दावे के गुण-दोष और आवेदक की वित्तीय स्थिति दोनों का पता लगाया जा सकता है।
यदि आवेदन किसी एजेंट द्वारा प्रस्तुत किया जाता है, तो न्यायालय आवेदक का परीक्षण एक आयोग के माध्यम से कराने का विकल्प चुन सकता है। यह उसी प्रकार है जैसे किसी अनुपस्थित गवाह का परीक्षण किया जाता हैं।
दृष्टांत
मान लीजिए, श्री A न्यायालय का शुल्क वहन करने में असमर्थ हैं और वे एक निर्धन व्यक्ति के रूप में मुकदमा चलाने के लिए आवेदन दायर करते हैं। हालाँकि, श्री A अपने स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं के कारण व्यक्तिगत रूप से न्यायालय में उपस्थित होने में सक्षम नहीं हैं। इसलिए, श्री A की ओर से उनके कानूनी एजेंट के माध्यम से एक आवेदन प्रस्तुत किया गया।
अदालत पहले आवेदन की समीक्षा करेगी ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि यह ठीक से भरा गया है और सभी आवश्यक आवश्यकताओं को पूरा करता है। यदि सब कुछ ठीक प्रतीत होता है, तो अदालत श्री A या उनके कानूनी एजेंट से वादपत्र में किए गए दावों और श्री A की वित्तीय स्थिति के बारे में पूछताछ करने का निर्णय ले सकती है। ऐसा यह आकलन करने के लिए किया जाता है कि क्या श्री A के पास न्यायालय शुल्क का भुगतान करने के लिए वित्तीय साधन नहीं हैं और क्या वह आदेश 33 के तहत मामला दायर करने के योग्य हैं।
श्री A स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं के कारण व्यक्तिगत रूप से अदालत में उपस्थित होने में असमर्थ थे। इस मामले में, अदालत आदेश दे सकती है कि उसका परीक्षण एक आयोग द्वारा कराई जाए। इसका मतलब यह है कि व्यक्तिगत रूप से उपस्थित होने के बजाय, श्री A की गवाही एक नामित अधिकारी द्वारा दर्ज की जा सकती है। यह उसी प्रकार है जैसे किसी ऐसे गवाह से गवाही ली जाती है जो अदालत में उपस्थित नहीं हो सकता।
आवेदन का नामंजूर किया जाना (नियम 5)
नियम 5 में उन स्थितियों का उल्लेख है, जहां निर्धन व्यक्ति के रूप में मुकदमा चलाने की अनुमति के लिए आवेदन नामंजूर कर दिया जाता है। इसमें 7 स्थितियां हैं, जिनका संक्षिप्त विवरण नीचे दिया गया है।
नियम 2 और 3 के अनुसार विरचना या प्रस्तुत नहीं किया गया
नियम 5 के खंड (a) में कहा गया है कि यदि निर्धन व्यक्ति के रूप में मुकदमा दायर करने की अनुमति के लिए आवेदन नियम 2 और 3 में दिए गए विशिष्ट प्रारूप और विषय-वस्तु की आवश्यकताओं का पालन नहीं करता है, तो अदालत को इसे अस्वीकार करना होगा। इन नियमों में आम तौर पर आवेदक की वित्तीय स्थिति के साथ-साथ संपत्ति के स्वामित्व और दावे के विवरण के बारे में विस्तृत जानकारी की आवश्यकता होती है।
मान लीजिए, ‘A’ ने एक निर्धन व्यक्ति के रूप में मुकदमा चलाने की अनुमति मांगते हुए आवेदन दायर किया। हालाँकि, वह नियम 2 और 3 के अनुसार अपनी आय, संपत्ति और अपने दावे की प्रकृति जैसे महत्वपूर्ण विवरण शामिल करने में विफल रहता है। इस परिदृश्य में, A का आवेदन आवश्यकता को पूरा नहीं करता है और अदालत इसे अस्वीकार कर सकती है।
आवेदक निर्धन व्यक्ति नहीं है
नियम 5 के खंड (b) में कहा गया है कि यदि यह पता चलता है कि आवेदक वास्तव में गरीब नहीं है तो इसका मतलब है कि उसके पास अदालती शुल्क का भुगतान करने के लिए पर्याप्त वित्तीय साधन हैं। ऐसे मामले में न्यायालय आवेदन को खारिज कर देगा। ऐसा यह सुनिश्चित करने के लिए किया जाता है कि केवल वास्तविक रूप से आर्थिक रूप से असमर्थ व्यक्ति ही आदेश 33 में निहित लाभ प्राप्त कर सकें।
मान लीजिए, A एक निर्धन व्यक्ति के रूप में मुकदमा दायर करती है और दावा करती है कि वह अदालती शुल्क का भुगतान नहीं कर सकती। जांच में पता चला कि वह एक सफल व्यवसाय की मालिक है और उसके पास पर्याप्त संपत्ति है। चूंकि A के पास न्यायालय शुल्क का भुगतान करने का साधन है, इसलिए न्यायालय ने उसका आवेदन अस्वीकार कर दिया।
संपत्ति का धोखाधड़ीपूर्ण निपटान
खंड (c) में कहा गया है कि यदि किसी आवेदक ने निर्धन व्यक्ति के रूप में मान्यता प्राप्त करने के लिए आदेश 33 के तहत आवेदन दायर करने से पहले दो महीने के भीतर भ्रामक तरीके से संपत्ति बेची या हस्तांतरित की है, तो अदालत आवेदन को खारिज कर देगी। हालाँकि, यदि आवेदक की वित्तीय स्थिति, निपटाई गई संपत्ति को ध्यान में रखने के बाद भी निर्धनता के मानदंडों को पूरा करती है, तो आवेदन खारिज नहीं किया जाएगा।
मान लीजिए, A एक निर्धन व्यक्ति पर मुकदमा चलाने के लिए आवेदन करता है। पता चला कि आवेदन दाखिल करने से ठीक पहले, A ने अपने एक रिश्तेदार को बहुत कम कीमत पर बहुमूल्य जमीन का एक टुकड़ा बेच दिया था। यह बिक्री स्वयं को आर्थिक रूप से अक्षम दिखाने के लिए की गई ताकि वह न्यायालय की शुल्क का भुगतान करने में सक्षम न हो। हालांकि, बाद में जब उसकी संपत्ति का मूल्यांकन किया गया, तो यह निर्धारित किया गया कि A अभी भी एक आर्थिक रूप से अक्षम व्यक्ति के रूप में योग्य है और सीपीसी, 1908 के आदेश 33 के तहत आवेदन दायर करने के लिए पात्र है। A का आवेदन अस्वीकार नहीं किया जाएगा भले ही उसने अपनी संपत्ति का निपटान धोखाधड़ी के इरादे से किया हो।
आरोपों से कार्रवाई का कोई कारण पता नहीं चलता
खंड (d) में कहा गया है कि यदि आवेदन में वैध कानूनी दावा स्थापित करने के लिए पर्याप्त आधार या आरोप प्रस्तुत नहीं किए जाते हैं, तो उसे अस्वीकार कर दिया जाएगा। आवेदक को यह दिखाना होगा कि उनके मामले में आगे बढ़ने का वैध आधार है।
किसी अन्य व्यक्ति को विषय-वस्तु में रुचि प्राप्त कराने के लिए किया गया करार
खंड (e) में कहा गया है कि यदि आवेदक ने कोई करार किया है, जिसके तहत प्रस्तावित मुकदमे की विषय-वस्तु में किसी अन्य व्यक्ति का हित जुड़ता है, तो आवेदन अस्वीकार कर दिया जाएगा। ऐसा उन स्थितियों को रोकने के लिए किया जाता है जहां मुकदमे को अनिवार्य रूप से किसी अन्य पक्ष द्वारा वित्तपोषित या नियंत्रित किया जा रहा हो।
मान लीजिए, A ने आदेश 33 के तहत एक आवेदन दायर किया और बाद में पता चला कि A ने एक तीसरे पक्ष के साथ समझौता किया था, जिसकी मामले के नतीजे में हिस्सेदारी थी। A का आवेदन खारिज कर दिया गया क्योंकि इसमें एक बाहरी पक्ष शामिल था।
मुकदमा कानून द्वारा वर्जित हो सकता है
खंड (f) में कहा गया है कि यदि आवेदन से पता चलता है कि प्रस्तावित मुकदमा मौजूदा कानूनों या कानूनी सीमाओं से वर्जित होगा, तो इसे अस्वीकार कर दिया जाएगा। ऐसा यह सुनिश्चित करने के लिए किया जाता है कि केवल वैध स्थिति वाले मामले ही न्यायालय में आगे बढ़ें।
मान लीजिए, A एक निर्धन व्यक्ति के रूप में मुकदमा दायर करता है। उनके आवेदन से पता चलता है कि दावा समय-सीमा के प्रावधानों के अंतर्गत समय-बाधित है। चूंकि इस प्रतिबंध के कारण मुकदमा कानूनी रूप से आगे नहीं बढ़ सकता, इसलिए उसका आवेदन अस्वीकार कर दिया जाएगा।
मुकदमे के वित्तीय हेतु करार
खंड (g) में कहा गया है कि यदि आवेदक का मुकदमे के वित्तपोषण के लिए किसी अन्य व्यक्ति के साथ करार है, तो आवेदन अस्वीकार कर दिया जाएगा। मान लीजिए, A आदेश 33 के अंतर्गत आवेदन दायर करती है और साथ ही एक तीसरे पक्ष के साथ करार भी करती है जो उसके मुकदमे का वित्तपोषण करेगा। इस प्रकार के आवेदन अस्वीकार कर दिए जाते हैं।
साक्ष्य के लिए सुनवाई का समय निर्धारण (नियम 6)
यदि न्यायालय को नियम 5 के अनुसार किसी निर्धन व्यक्ति के आवेदन को अस्वीकार करने का कोई वैध आधार नहीं मिलता है, तो वह आवेदक की वित्तीय स्थिति के संबंध में साक्ष्य सुनने के लिए एक विशिष्ट तिथि निर्धारित करेगा। यह ध्यान देने योग्य बात है कि विरोधी पक्ष और सरकारी वकील को इस सुनवाई से कम से कम 10 दिन पहले स्पष्ट सूचना दी जानी चाहिए। इस निर्धारित तिथि पर, न्यायालय निर्धन व्यक्ति द्वारा अपनी निर्धनता सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत साक्ष्यों पर तथा इसका खंडन करने के लिए विरोधी वकील द्वारा प्रस्तुत साक्ष्यों पर विचार करेगा।
दृष्टांत
मान लीजिए, A आदेश 33 के तहत एक आवेदन दायर करता है जिसमें दावा किया जाता है कि उसके पास न्यायालय शुल्क का भुगतान करने के लिए पर्याप्त साधन नहीं हैं। न्यायालय पहले नियम 5 के अनुसार उसके आवेदन की समीक्षा करता है और पाता है कि विचाराधीन आवेदन को अस्वीकार करने का कोई तत्काल कारण मौजूद नहीं है। इसके बाद, अदालत सुनवाई की तारीख तय करती है और यह सुनिश्चित किया जाता है कि विरोधी पक्ष या सरकारी वकील को कम से कम 10 दिन पहले तारीख की सूचना दे दी जाए।
निर्धारित दिन पर, A यह साबित करने के लिए बैंक विवरण या रोजगार रिकॉर्ड जैसे साक्ष्य प्रस्तुत करता है कि उसके पास पर्याप्त वित्तीय साधन नहीं हैं। विरोधी वकील A के दावों का खंडन करने के लिए अपने साक्ष्य प्रस्तुत कर सकते हैं, संभवतः यह तर्क देते हुए कि A ने संपत्तियां छिपाई हैं और आय के स्रोत अज्ञात हैं। यह निर्णय लेते समय कि क्या A निर्धन व्यक्ति की श्रेणी में आता है, इन सभी साक्ष्यों पर विचार किया जाएगा।
सुनवाई की प्रक्रिया (नियम 7)
जिस दिन सुनवाई निर्धारित हो, उस दिन अदालत दोनों पक्षों की ओर से प्रस्तुत गवाहों की सुनवाई करेगी तथा आवेदक या उनके प्रतिनिधि से प्रश्न भी कर सकती है, साथ ही यह सुनिश्चित करेगी कि उनकी गवाही का पूरा रिकार्ड रखा जाए।
यह ध्यान देने योग्य है कि गवाहों से पूछताछ नियम 5 के खंड (b), (c) और (e) में उल्लिखित मामलों तक सीमित है, लेकिन आवेदक से नियम 5 के प्रावधानों के तहत निर्दिष्ट किसी भी मामले पर पूछताछ की जा सकती है।
न्यायालय पक्षकारों द्वारा प्रस्तुत किसी भी तर्क पर विचार करेगा, चाहे वह आदेश 33 के तहत आवेदन पर आधारित हो या नियम 6 या 7 के तहत न्यायालय द्वारा एकत्रित साक्ष्य पर आधारित हो, आवेदक नियम 5 के तहत दिए गए किसी भी प्रतिबंध के अंतर्गत आता हो।
प्रस्तुत साक्ष्यों और प्रस्तुत तर्कों के आधार पर, अदालत यह निर्णय लेगी कि आवेदक को निर्धन व्यक्ति के रूप में आगे बढ़ने की अनुमति दी जाए या नहीं।
प्रक्रिया, यदि आवेदन स्वीकार कर लिया जाता है (नियम 8)
नियम 8 में प्रक्रिया बताई गई है, जब आवेदन को न्यायालय द्वारा स्वीकार कर लिया जाता है, इसमें कहा गया है कि आवेदन को एक मामला संख्या दी जाएगी और उसे पंजीकृत किया जाएगा, जिससे वह मुकदमे में प्रभावी रूप से वादपत्र बन जाएगा। इसके बाद मामला उसी प्रकार आगे बढ़ेगा जैसे कि वह सामान्य तरीके से दायर किया गया था, लेकिन इस अपवाद के साथ कि वादी को किसी भी याचिका, वकील की नियुक्ति या मामले से जुड़ी अन्य कार्यवाही से संबंधित प्रक्रिया की सेवा के लिए कोई न्यायालय शुल्क या कोई शुल्क देने की आवश्यकता नहीं होगी।
आवेदन वापस लेने पर प्रक्रिया (नियम 9)
प्रतिवादी या सरकारी वकील के अनुरोध पर, यह ध्यान में रखते हुए कि वादी को 7 दिन का लिखित नोटिस दिया गया है, न्यायालय को आदेश 33 के तहत निर्धन व्यक्ति के रूप में आगे बढ़ने के लिए वादी की अनुमति को रद्द करने का अधिकार है। नियम 9 के अंतर्गत 3 स्थितियाँ दी गई हैं,
- वादी मामले के दौरान परेशान करने वाला या अनुचित व्यवहार करता है;
- यह निर्धारित किया गया है कि वादी की वित्तीय स्थिति अब निर्धनता की स्थिति को उचित नहीं ठहराती है;
- वादी ने मुकदमे की विषय-वस्तु के संबंध में एक करार किया है जो किसी अन्य व्यक्ति को उसमें हित प्रदान करता है।
किसी अप्रतिनिधित्वित निर्धन व्यक्ति को अधिवक्ता का कार्यभार सौंपना (नियम 9A)
नियम 9A के उप-नियम (1) में कहा गया है कि यदि निर्धन व्यक्ति के रूप में मुकदमा दायर करने की अनुमति प्राप्त किसी व्यक्ति के पास कोई कानूनी प्रतिनिधि नहीं है, तो न्यायालय आवश्यकता पड़ने पर उसके लिए एक वकील नियुक्त कर सकता है।
उप-नियम (2) में कहा गया है कि उच्च न्यायालय राज्य सरकार से पूर्व अनुमोदन लेकर इस संबंध में नियम स्थापित कर सकता है;
- उपनियम (1) के अंतर्गत वकीलों को नियुक्त करने की विधि
- इन वकीलों को न्यायालय द्वारा किस प्रकार की सुविधाएं प्रदान की जाएंगी
- उप-नियम (1) के प्रावधानों को लागू करने के लिए आवश्यक कोई अन्य अतिरिक्त मामले
यदि निर्धन आवेदक मुकदमे में सफल हो जाता है (नियम 10)
नियम 10 में कहा गया है कि यदि निर्धन वादी मुकदमा जीत जाता है, तो न्यायालय उस न्यायालय शुल्क की राशि की गणना करेगा जो उसे चुकाना पड़ता यदि उसे छूट नहीं दी गई होती। यह राशि राज्य सरकार द्वारा वादी से वसूल की जा सकती है, जिसे भुगतान करने का आदेश डिक्री द्वारा दिया जाता है।
यह राशि मुकदमे की विषय-वस्तु पर प्रथम प्रभार बन जाती है। इसका अर्थ यह है कि मामले से संबंधित किसी भी संपत्ति या परिसम्पत्ति से न्यायालय शुल्क वसूलने का पहला अधिकार राज्य सरकार को है। इसका उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि किसी अन्य दावे के निपटारे से पहले न्यायालय शुल्क का भुगतान कर दिया जाए।
यदि निर्धन व्यक्ति असफल हो जाए तो क्या प्रक्रिया अपनाई जाएगी (नियम 11)
यह नियम उन चरणों के बारे में बताता है जो न्यायालय उठाता है, यदि कोई आवेदक, जिसे निर्धन व्यक्ति के रूप में मुकदमा करने की अनुमति दी गई है, या तो मामला हार जाता है, या उसकी अनुमति रद्द कर दी जाती है, या यदि केस वापस ले लिया जाता है या खारिज कर दिया जाता है।
- वादी मुकदमा हार जाता है: यदि वादी मुकदमा हार जाता है, तो उसे अपनी निर्धन स्थिति का कोई लाभ नहीं मिलेगा तथा उसे अब न्यायालय शुल्क का भुगतान करना होगा, जिसे शुरू में माफ कर दिया गया था।
- अनुमति वापस लेना: यदि न्यायालय आदेश 33 के अंतर्गत वादी को निर्धन व्यक्ति के रूप में मुकदमा करने की अनुमति रद्द कर देता है, तो वादी को न्यायालय शुल्क का भुगतान करना होगा, जिसे पहले माफ कर दिया गया था।
- मुकदमा वापस लिया गया या खारिज किया गया: यदि मामला ऐसी स्थिति में वापस लिया गया या खारिज किया गया जब प्रतिवादी को समन (एक दस्तावेज जो मुकदमे के बारे में प्रतिवादी को सूचित करता है) नहीं दिया गया क्योंकि वादी आवश्यक न्यायालय या डाक शुल्क का भुगतान करने में विफल रहा। यह नियम उस मामले पर भी लागू होता है जहां वादी ने मामले को आगे बढ़ाने के लिए आवश्यक दस्तावेज जैसे वादपत्र की प्रतियां या संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत नहीं किया हो।
ऐसी स्थिति में, न्यायालय वादी को न्यायालय शुल्क का भुगतान करने का आदेश देगा, तथा यदि उन्हें निर्धन व्यक्ति का दर्जा नहीं दिया गया होता तो उन्हें न्यायालय शुल्क का भुगतान करना पड़ता है।
प्रक्रिया जहां एक निर्धन व्यक्ति का मुकदमा समाप्त हो जाता है (नियम 11A)
यह नियम इस बात से संबंधित है कि यदि किसी निर्धन व्यक्ति द्वारा दायर मुकदमा उसकी मृत्यु या सह-वादी की मृत्यु के कारण रुक जाता है तो न्यायालय शुल्क का क्या होगा। किसी मुकदमे को तब समाप्त कर दिया जाता है, जब उसे अक्सर पक्षकार की मृत्यु के कारण समाप्त या बंद कर दिया जाता है।
ऐसे मामलों में जहां किसी निर्धन व्यक्ति द्वारा दायर किया गया मुकदमा वादी या सह-वादी की मृत्यु के कारण समाप्त हो जाता है, न्यायालय यह सुनिश्चित करेगा कि निर्धनता के कारण शुरू में माफ की गई न्यायालय शुल्क मृतक की संपत्ति से वसूल की जाए। सरल शब्दों में कहें तो अब मृतक की संपत्ति पर न्यायालय फीस का भुगतान करने की जिम्मेदारी है। राज्य सरकार मृतक द्वारा छोड़ी गई संपत्ति से शुल्क वसूल सकती है। ऐसा यह सुनिश्चित करने के लिए किया जाता है कि वित्तीय दायित्व अंततः पूरा हो जाए।
मान लीजिए, A इतना गरीब है कि वह न्यायालय शुल्क नहीं दे सकता और उसने मुकदमा दायर कर दिया। अदालत ने मुकदमा बिना शुल्क के स्वीकार कर लिया क्योंकि A निर्धन था। हालाँकि, जब मामला चल रहा था तब A की मृत्यु हो गई। चूंकि वादी ने अदालती शुल्क का भुगतान नहीं किया है, इसलिए सरकार अब मृतक की परिसंपत्तियों और संपत्ति से इसका दावा कर सकती है।
राज्य सरकार भुगतान के लिए आवेदन कर सकती है (नियम 12)
नियम 12 में कहा गया है कि राज्य सरकार को नियम 10, नियम 11 या नियम 11A के प्रावधानों के तहत न्यायालय शुल्क के भुगतान के लिए आदेश जारी करने हेतु किसी भी समय न्यायालय से अनुरोध करने का अधिकार है।
इससे राज्य को यह अधिकार मिल जाता है कि वह न्यायालय शुल्क वसूल कर सके, जो निर्दिष्ट नियमों के अनुसार चुकाया जाना चाहिए था, यहां तक कि उन मामलों में भी जहां व्यक्ति को शुरू में एक निर्धन व्यक्ति के रूप में मुकदमा दायर करने की अनुमति दी गई थी।
यदि विवाद में राज्य सरकार शामिल है (नियम 13)
नियम 13 में कहा गया है कि जब किसी निर्धन व्यक्ति के मुकदमे के संदर्भ में राज्य सरकार से संबंधित मुद्दे या विवाद उत्पन्न होते हैं, तो इन मुद्दों को हल करने के उद्देश्य से मुख्य मुकदमे के भाग के रूप में माना जाता है। इसका अर्थ यह है कि नियम 10, 11, 11A, या 12 जैसे निर्धनता से संबंधित मुकदमों के संदर्भ में राज्य सरकार से जुड़े किसी भी मामले को, सीपीसी, 1908 की धारा 47 के तहत परिभाषित अनुसार, मुकदमों में शामिल पक्षों के बीच का मामला माना जाएगा।
न्यायालय शुल्क की वसूली (नियम 14)
नियम 14 में उस स्थिति में अदा न किए गए न्यायालय शुल्क की वसूली की प्रक्रिया बताई गई है, जब कोई निर्धन व्यक्ति अपना मुकदमा हार जाता है, मुकदमा करने की उसकी अनुमति वापस ले ली जाती है, या उसकी मृत्यु के कारण मुकदमा समाप्त हो जाता है।
जब न्यायालय यह निर्णय लेता है कि वादी (या उनकी संपत्ति) को नियम 10, 11, या 11A के अंतर्गत न्यायालय शुल्क का भुगतान करना होगा, तो वह अपने आदेश या डिक्री की एक प्रति कलेक्टर को भेजता है। इसके बाद कलेक्टर जिम्मेदार व्यक्ति या संपत्ति से न्यायालय शुल्क वसूलने के लिए जिम्मेदार होता है।
यह वसूली प्रक्रिया अवैतनिक भू-राजस्व (लैंड रेवेन्यू) वसूलने के समान है। इसका अर्थ यह है कि न्यायालय शुल्क को सरकार के प्रति बकाया ऋण के रूप में माना जाएगा तथा इसे आधिकारिक संग्रह विधियों के माध्यम से वसूला जा सकता है।
निर्धनता की स्थिति के लिए आगामी आवेदनों पर प्रतिबंध (नियम 15)
नियम 15 में कहा गया है कि यदि कोई न्यायालय किसी व्यक्ति के निर्धन व्यक्ति के रूप में मुकदमा दायर करने के अनुरोध को अस्वीकार कर देता है, तो यह अस्वीकृति उसे भविष्य में उसी कानूनी दावे के लिए दूसरा समान अनुरोध करने से रोकती है। एक बार इनकार कर दिए जाने के बाद, व्यक्ति उस विशेष मामले के लिए निर्धनता की स्थिति के लिए पुनः आवेदन नहीं कर सकता। भले ही निर्धनता का दर्जा देने के अनुरोध को अस्वीकार कर दिया गया हो, फिर भी व्यक्ति सामान्य प्रक्रिया के माध्यम से अपना मुकदमा आगे बढ़ा सकता है। उन्हें सभी न्यायालय शुल्क और मानक कानूनी प्रक्रियाओं का पालन करना होगा।
यदि व्यक्ति नियमित प्रक्रिया का उपयोग करते हुए मुकदमे को आगे बढ़ाने का विकल्प चुनता है, तो वह निर्धनता की स्थिति के लिए अपने प्रारंभिक अनुरोध से जुड़ी लागतों का भुगतान करने के लिए जिम्मेदार होगा। इसमें राज्य सरकार और विपक्षी दलों द्वारा अनुरोध का विरोध करने में किए गए सभी खर्च शामिल हैं। यदि कोई व्यक्ति मुकदमा दायर करते समय या न्यायालय द्वारा दी गई अवधि के भीतर इन लागतों का भुगतान करने में विफल रहता है, तो मामला खारिज कर दिया जाएगा।
न्यायालय शुल्क भुगतान हेतु विस्तार (नियम 15A)
यदि न्यायालय नियम 5 या नियम 7 के अंतर्गत निर्धन व्यक्ति के रूप में मुकदमा दायर करने के आवेदन को अस्वीकार करता है, तो भी वह आवेदक को आवश्यक न्यायालय शुल्क का भुगतान करने के लिए समय-सीमा बढ़ा सकता है। अदालत आवश्यकतानुसार समय सीमा निर्धारित या बढ़ा सकती है।
यदि आवेदक नियम 14 के अनुसार निर्धारित समय के भीतर न्यायालय शुल्क और संबंधित लागत का भुगतान कर देता है, तो मुकदमा उस तिथि से शुरू हुआ माना जाएगा, जिस दिन निर्धनता की स्थिति के लिए मूल आवेदन दायर किया गया था।
निर्धनता आवेदन की लागत (नियम 16)
एक निर्धन व्यक्ति के रूप में मुकदमा करने की अनुमति के लिए आवेदन करने से जुड़े व्यय और आवेदक की वित्तीय स्थिति की जांच के दौरान होने वाले व्यय को मुकदमे की समग्र लागत का हिस्सा माना जाएगा।
निर्धन व्यक्ति द्वारा बचाव (नियम 17)
किसी मुकदमे में प्रतिवादी यदि मुजरा (सेट-ऑफ) या प्रतिदावा (काउंटर क्लेम) करना चाहता है, तो वह निर्धन व्यक्ति के रूप में ऐसा करने का अनुरोध कर सकता है। जो नियम वादी पर लागू होते हैं, तथा जिन्हें निर्धन व्यक्ति के रूप में मुकदमा करने की अनुमति है, वही नियम प्रतिवादी पर भी लागू होते हैं। इन नियमों में उन प्रक्रियाओं और शर्तों का उल्लेख है जिनके तहत वे सामान्य न्यायालय शुल्क का भुगतान किए बिना अपना दावा प्रस्तुत कर सकते हैं। इस प्रयोजन के लिए, प्रतिवादी के लिखित बयानों (जो उनके प्रतिदावे को रेखांकित करते हैं) को वादपत्र के रूप में माना जाता है।
निःशुल्क कानूनी सेवाएं प्रदान करने की सरकार की शक्ति (नियम 18)
केन्द्र और राज्य सरकारों दोनों को निर्धन व्यक्तियों के रूप में मुकदमा दायर करने की अनुमति प्राप्त व्यक्तियों को मुफ्त कानूनी सेवाएं प्रदान करने के लिए अतिरिक्त उपाय स्थापित करने का अधिकार है। इसका अर्थ यह है कि वे पूरक प्रणालियां बना सकते हैं जो यह सुनिश्चित करें कि निर्धन व्यक्तियों को बिना किसी शुल्क के कानूनी सहायता प्राप्त हो।
उच्च न्यायालय, राज्य सरकार की पूर्व स्वीकृति से, केन्द्र या राज्य सरकार द्वारा निर्धारित अनुपूरक प्रावधानों को लागू करने के लिए नियम बना सकता है। ये नियम निर्दिष्ट कर सकते हैं:
- प्रदान की जा रही कानूनी सेवाओं के प्रकार और दायरा
- वे शर्तें जिनके अंतर्गत ये सेवाएँ उपलब्ध हैं
- वे मामले जिनके लिए सेवाएं प्रदान की जाती हैं और उन्हें प्रदान करने के लिए जिम्मेदार शाखा
नियम 18 सरकारों और उच्च न्यायालयों को यह सुनिश्चित करने के लिए शामिल करता है कि निर्धन लोगों को आवश्यक कानूनी सेवाएं प्राप्त हों।
एक निर्धन व्यक्ति द्वारा अपील
निर्धन व्यक्ति का अर्थ समझने के बाद और एक निर्धन व्यक्ति के रूप में आवेदन दाखिल करने की प्रक्रिया। अब मुद्दा यह उठता है कि एक निर्धन व्यक्ति द्वारा दायर अपील का क्या प्रभाव होगा।
निर्धन लोगों द्वारा की गई अपीलें सी.पी.सी.,1908 के आदेश 44 के अंतर्गत आती हैं। इसमें कहा गया है कि यदि कोई व्यक्ति अपील के लिए अदालती शुल्क का भुगतान करने में सक्षम नहीं है, तो वह निर्धन व्यक्ति के रूप में आगे बढ़ने की अनुमति का अनुरोध कर सकता है। इस अनुरोध को स्वीकार करने या अस्वीकार करने का निर्णय लेने से पहले, न्यायालय सी.पी.सी., 1908 के आदेश 33 के प्रावधानों के अनुसार आवश्यक जांच करेगा। हालांकि, यदि अपीलकर्ता को पहले विचारण न्यायालय में निर्धन व्यक्ति के रूप में मुकदमा करने की अनुमति दी गई थी, तो नई जांच की आवश्यकता नहीं है और उन्हें अपनी निर्धनता जारी रहने की पुष्टि करते हुए एक शपथ पत्र प्रस्तुत करना होगा।
मान लीजिए, A को उसकी वित्तीय बाधाओं के कारण प्रारंभिक मुकदमे में एक निर्धन व्यक्ति के रूप में मुकदमा चलाने की अनुमति दी गई। अब, A इस निर्णय के विरुद्ध अपील करना चाहता है, लेकिन वह अपील शुल्क का भुगतान करने में सक्षम नहीं है। वह एक निर्धन व्यक्ति के रूप में अपील कर सकता है। अदालत उसके आवेदन की समीक्षा करेगी और आदेश 33 के प्रावधानों के अनुसार जांच करेगी ताकि यह निर्धारित किया जा सके कि वह निर्धन व्यक्ति की श्रेणी में आता है या नहीं। हालाँकि, चूंकि A को पहले से ही एक निर्धन व्यक्ति के रूप में मुकदमा चलाने की अनुमति थी। वह एक शपथ पत्र प्रस्तुत करने के पात्र हैं, जिसमें पुष्टि की गई है कि उनकी वित्तीय स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ है तथा इस संबंध में आगे कोई जांच नहीं की जाएगी।
सी.पी.सी., 1908 के आदेश 33 पर पूर्वन्याय (रेस जुडिकाटा) का प्रभाव
शब्द “पूर्वन्याय” एक लैटिन वाक्यांश है और इसका अनुवाद “न्यायित की गई बात” होता है। पूर्वन्याय का सिद्धांत कहता है कि एक बार किसी मामले पर सक्षम न्यायालय द्वारा निर्णय दे दिया जाए तो उसी मामले पर उन्हीं पक्षों के बीच पुनः मुकदमा नहीं चलाया जा सकता। कोई भी न्यायालय ऐसे मामले की सुनवाई नहीं कर सकता है जो उन्हीं पक्षों के बीच पिछले मुकदमे में प्रत्यक्षतः या मूलतः निर्णयित हो चुका हो, बशर्ते कि पिछला निर्णय उस न्यायालय द्वारा किया गया हो जिसके पास उचित प्राधिकार और अधिकार क्षेत्र होना चाहिए। उल्लेखनीय है कि सी.पी.सी., 1908 की धारा 11 में पूर्वन्याय के सिद्धांत निर्धारित किए गए हैं।
अब प्रश्न यह उठता है कि सी.पी.सी., 1908 के आदेश 33 के तहत दायर आवेदन पर पूर्वन्याय के क्या प्रभाव होते हैं? माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने नकारात्मक उत्तर दिया और माना कि एक निर्धन व्यक्ति के रूप में दायर किए गए मुकदमे को पूर्वन्याय के सिद्धांतों द्वारा रोका जा सकता है। सोलोमन सेल्वराज एवं अन्य बनाम इंदिरानी भगवान सिंह एवं अन्य (2022) के मामले में यह निर्णय दिया गया।
सोलोमन सेल्वराज और अन्य बनाम इंदिरानी भगवान सिंह और अन्य (2022)
इस मामले में तथ्य, उठाए गए मुद्दे और सुनाए गए निर्णय का संक्षिप्त विवरण नीचे दिया गया है।
तथ्य
अपीलकर्ताओं ने स्वामित्व की घोषणा और कब्जे की वापसी के लिए विचारण न्यायालय के समक्ष वाद दायर किया था। मुकदमे के साथ, उन्होंने सी.पी.सी., 1908 के आदेश 33 के नियम 1 के तहत एक निर्धन व्यक्ति के रूप में मुकदमा करने के लिए आवेदन प्रस्तुत किया। प्रतिवादियों ने तर्क दिया कि मुकदमा पूर्वन्याय द्वारा वर्जित था तथा इसमें कार्यवाही का कोई कारण नहीं था। विचारण न्यायालय ने आवेदन को खारिज कर दिया और फैसला सुनाया कि यह मुकदमा प्रक्रिया का दुरुपयोग था, जो कि पूर्वन्याय के सिद्धांतों द्वारा वर्जित था। मद्रास उच्च न्यायालय ने विचारण न्यायालय के फैसले को बरकरार रखा और इससे व्यथित होकर वादी ने सर्वोच्च न्यायालय में अपील की थी।
मुद्दा
क्या विचारण न्यायालय एक निर्धन व्यक्ति के रूप में मुकदमा दायर करने के आवेदन को केवल इस आधार पर खारिज कर सकता है कि मुकदमा पूर्वन्याय के सिद्धांतों द्वारा वर्जित है?
निर्णय
माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने अस्वीकृति आवेदन को बरकरार रखा और कहा कि सीपीसी, 1908 के आदेश 33 के नियम 5 के तहत, एक निर्धन व्यक्ति के रूप में मुकदमा करने के लिए आवेदन को खारिज किया जा सकता है यदि मुकदमा कानून द्वारा वर्जित है जिसमें पूर्वन्याय भी शामिल है। न्यायालय ने वादी को मुकदमा आगे बढ़ाने के लिए आवश्यक न्यायालय शुल्क का भुगतान करने हेतु 4 सप्ताह का समय दिया।
प्रासंगिक कानूनी मामले
लेख का यह खंड भारतीय न्यायालयों द्वारा सुनाए गए प्रमुख निर्णयों से संबंधित है, जो सी.पी.सी., 1908 के आदेश 33 की बेहतर व्याख्या और समझ में मदद करते हैं।
ए.ए. हजा मुनीउद्दीन बनाम भारतीय रेलवे (1992)
ए.ए. हजा मुनीउद्दीन बनाम भारतीय रेलवे (1992) के मामले में, यह माना गया कि “किसी व्यक्ति को न्याय तक पहुंच से केवल इसलिए वंचित नहीं किया जा सकता क्योंकि उसके पास निर्धारित शुल्क का भुगतान करने का साधन नहीं है”। यह मामला सी.पी.सी., 1908 के आदेश 33 की व्याख्या में सबसे महत्वपूर्ण निर्णयों में से एक है।
तथ्य
अपीलकर्ता ने मकराना रेलवे स्टेशन से रामनाथपुरम तक संगमरमर की स्लैब भेजी। हालाँकि, स्लैब परिवहन के दौरान क्षतिग्रस्त हो गए और जब वे गंतव्य पर पहुंचे तो टुकड़ों में टूट गए। अपीलकर्ता ने रेलवे दावा न्यायाधिकरण से 1,05,000 रुपये के मुआवजे का दावा किया, जिसकी स्थापना रेलवे दावा न्यायाधिकरण (ट्रिब्यूनल) अधिनियम, 1987 के तहत की गई थी। रेलवे न्यायाधिकरण अधिनियम, 1987 के प्रावधानों के अनुसार, अपीलकर्ता को 2,055 रुपये का शुल्क देना था, लेकिन वित्तीय बाधाओं के कारण, वह केवल 150 रुपये का भुगतान कर सका और एक निर्धन व्यक्ति के रूप में आगे भी जारी रखने का अनुरोध किया। हालाँकि, रेलवे न्यायाधिकरण ने इस अनुरोध को यह कहते हुए अस्वीकार कर दिया कि आदेश 33, रेलवे दावा न्यायाधिकरण अधिनियम, 1987 के तहत किए गए दावों पर लागू नहीं था।
मुद्दा
क्या कोई निर्धन व्यक्ति रेलवे दावा न्यायाधिकरण अधिनियम, 1987 के प्रावधानों को लागू करते समय सी.पी.सी., 1908 के आदेश 33 के लाभ का दावा कर सकता है।
निर्णय
माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि रेलवे दावा न्यायाधिकरण अधिनियम, 1987 की संकीर्ण व्याख्या करने में न्यायाधिकरण गलत था। अदालत ने कहा कि रेलवे न्यायाधिकरण के पास अपनी प्रक्रिया को विनियमित करने की शक्तियां हैं और यदि ऐसा करना न्याय के उद्देश्यों को पूरा करता है तो उसे सीपीसी, 1908 के आदेश 33 को लागू करने से रोका नहीं जा सकता है। अदालत ने कहा कि निर्धारित शुल्क का भुगतान करने में असमर्थता के कारण किसी निर्धन व्यक्ति को उसके दावों को आगे बढ़ाने की अनुमति न देना घोर अन्याय होगा तथा ऐसे व्यक्ति को कोई राहत नहीं मिलेगी। सर्वोच्च न्यायालय ने अपील स्वीकार कर ली और न्यायाधिकरण के आदेश को रद्द कर दिया तथा मामले को पुनर्विचार के लिए भेज दिया।
अलिफिया हुसेनभाई केशरिया बनाम सिद्दीक इस्माइल सिंधी और अन्य (2024)
अलिफिया हुसेनभाई केशरिया बनाम सिद्दीक इस्माइल सिंधी एवं अन्य (2024) का मामला इस प्रश्न से संबंधित है कि क्या एक व्यक्ति जिसे मौद्रिक मुआवजा दिया गया है, लेकिन उसने इसे प्राप्त नहीं किया है, एक निर्धन व्यक्ति के रूप में मुकदमा कर सकता है। मामले के तथ्य, मुद्दे और निर्णय नीचे संक्षेप में दिए गए हैं।
तथ्य
अपीलकर्ता 04 जुलाई 2010 को एक मोटर दुर्घटना में घायल हो गया था, जब वह बाइक पर पीछे बैठा था और उसे एक ट्रक ने टक्कर मार दी थी। वह 14 दिनों तक अस्पताल में भर्ती रहीं, उनकी प्लास्टिक सर्जरी हुई और उन्होंने स्थायी विकलांगता का दावा किया, जिसके कारण वह काम करने में असमर्थ हो गईं। दुर्घटना से पहले वह 3000 रुपये प्रति माह कमाती थी। उसने 18% ब्याज और लागत के साथ 10 लाख रुपए का दावा दायर किया। 17 अक्टूबर 2016 को न्यायाधिकरण ने उसे दावे की तारीख से 9% ब्याज के साथ 2,41,745 रुपए देने का आदेश दिया। निर्णय से असंतुष्ट होकर उन्होंने गुजरात उच्च न्यायालय में एक अपील दायर की, साथ ही एक निर्धन व्यक्ति के रूप में आगे बढ़ने का आवेदन भी दिया। उच्च न्यायालय ने उसका आवेदन यह कहते हुए खारिज कर दिया कि उसे पहले ही मुआवजा दिया जा चुका है, हालांकि उसे अभी तक मुआवजा नहीं मिला है और अदालत ने उसे अदालती शुल्क जमा करने के लिए 8 सप्ताह का समय दिया है। इस फैसले से व्यथित होकर उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर की थी।
मुद्दा
क्या वह व्यक्ति जिसे मुआवजा दिया गया है, लेकिन जिसने इसे प्राप्त नहीं किया है, फिर भी निर्धन व्यक्ति के रूप में अपील दायर कर सकता है।
निर्णय
अदालत ने कहा कि चूंकि अपीलकर्ता को मुआवजा नहीं मिला है, इसलिए उसकी गरीबी पर कोई असर नहीं पड़ेगा और अदालती फीस का भुगतान करने में उसकी असमर्थता वैध रहेगी। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि गुजरात उच्च न्यायालय द्वारा उसका आवेदन खारिज करना गलत था, क्योंकि उसे पैसा नहीं मिला था और उसने अपीलकर्ता को एक निर्धन व्यक्ति के रूप में अपील करने की अनुमति दी थी।
सुशील थॉमस अब्राहम बनाम मेसर्स स्काईलाइन बिल्ड थ्रू. इट्स पार्टनर (2019)
सुशील थॉमस अब्राहम बनाम मेसर्स स्काईलाइन बिल्ड थ्रू. इट्स पार्टनर (2019) का मामला इस प्रश्न से संबंधित है कि क्या एक निर्धन व्यक्ति आदेश 44 के तहत अपील दायर कर सकता है, यदि उससे पहले आदेश 33 के तहत निर्धनता के लिए उसका आवेदन खारिज कर दिया गया था। तथ्य, मुद्दे और निर्णय का संक्षिप्त विवरण नीचे दिया गया है।
तथ्य
सुशील थॉमस अब्राहम ने 3,96,610 रुपये की अदालती शुल्क का भुगतान करने में असमर्थता के कारण एक निर्धन व्यक्ति के रूप में मुकदमा दायर किया था। प्रतिवादी ने तर्क दिया कि अपीलकर्ता के पास अदालती शुल्क का भुगतान करने के लिए पर्याप्त साधन हैं और वह निर्धन व्यक्ति का दर्जा पाने का हकदार है। विचारण न्यायालय ने यह कहते हुए आवेदन खारिज कर दिया कि अपीलकर्ता स्वयं को निर्धन व्यक्ति के रूप में साबित करने में असफल रहा है। इसके बाद अपीलकर्ता ने सीपीसी, 1908 के आदेश 44 के नियम 1 के तहत एक आवेदन दायर किया, लेकिन इस आवेदन को भी उच्च न्यायालय ने यह कहते हुए खारिज कर दिया कि वह बिना कोई अदालती शुल्क चुकाए आदेश 44 के तहत अपील दायर नहीं कर सकता है।
मुद्दा
क्या अपीलकर्ता आदेश 44 के नियम 1 के अंतर्गत निर्धन व्यक्ति के रूप में अपील दायर करने का हकदार था, जबकि निर्धन व्यक्ति के रूप में वाद दायर करने के लिए उसका पूर्व आवेदन अस्वीकार कर दिया गया था।
निर्णय
माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि आदेश 33 के नियम 1 के तहत निर्धन व्यक्ति के रूप में वाद दायर करने के अपीलकर्ता के आवेदन को अस्वीकार करने से उसे आदेश 44 के नियम 1 के तहत निर्धन व्यक्ति के रूप में अपील दायर करने से नहीं रोका जा सकता है। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि आदेश 33 में यह जांच अनिवार्य की गई है कि क्या अपीलकर्ता डिक्री की तिथि पर निर्धन व्यक्ति बन गया था। हालाँकि, उच्च न्यायालय ऐसी कोई जांच करने में विफल रहा। सी.पी.सी., 1908 के आदेश 44 के नियम 3(2) के अनुसार जांच हेतु मामला अपीलीय न्यायालय को वापस भेज दिया गया था।
श्रीमती लक्ष्मी बनाम विजया बैंक (2010)
क्या मृत व्यक्ति के कानूनी प्रतिनिधि मृतक की निर्धनता की स्थिति का लाभ लेना जारी रख सकते हैं, यह प्रश्न लक्ष्मी बनाम विजया बैंक (2010) के मामले में उठा था। प्रासंगिक तथ्य, उठाए गए मुद्दे और कर्नाटक उच्च न्यायालय द्वारा सुनाए गए निर्णय का संक्षिप्त विवरण नीचे दिया गया है।
तथ्य
आर.वी. रेवन्ना ने 2004 में सीपीसी,1908 के आदेश 33 के तहत एक निर्धन व्यक्ति के रूप में मुकदमा करने के लिए सिटी सिविल न्यायालय, बैंगलोर में याचिका दायर की थी। याचिका में 2 जनवरी 2003 के विक्रय विलेख को शून्य घोषित करने तथा अन्य परिणामी राहत की मांग की गई थी। आर.वी. रेवन्ना की जिरह पूरी होने से पहले ही 25 नवंबर 2008 को मृत्यु हो गई। याचिकाकर्ताओं, जिनमें रेवन्ना की पत्नी और बच्चे शामिल थे, ने मृतक याचिकाकर्ता के कानूनी प्रतिनिधि के रूप में दर्ज होने के लिए सीपीसी, 1908 के आदेश 22 नियम 4 के तहत एक आवेदन दायर किया। आदेश 22 के तहत इस आवेदन को ट्रायल कोर्ट ने यह कहते हुए खारिज कर दिया कि मृतक याचिकाकर्ता की वित्तीय स्थिति व्यक्तिगत थी और कानूनी उत्तराधिकारी प्रतिस्थापन (सब्स्टीट्यूशन) की मांग नहीं कर सकते थे।
मुद्दा
क्या मृत व्यक्ति का कानूनी प्रतिनिधि, जिसने निर्धन व्यक्ति के रूप में मुकदमा दायर किया है, निर्धनता की उसी स्थिति के तहत याचिका जारी रख सकता है।
निर्णय
कर्नाटक उच्च न्यायालय ने माना कि आदेश 33 के तहत निर्धनता के लाभ का दावा करने का अधिकार आवेदक का व्यक्तिगत है, लेकिन आवेदन में निर्दिष्ट राहत का दावा करने का अधिकार मृतक आवेदक के कानूनी प्रतिनिधियों को दिया जाता है। अदालत ने फैसला सुनाया कि कानूनी प्रतिनिधियों को मृतक याचिकाकर्ता के प्रतिनिधि के रूप में रिकॉर्ड पर आने की अनुमति दी जानी चाहिए।
निष्कर्ष
सीपीसी,1908 के आदेश 33 के प्रावधानों के पीछे उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि वित्तीय सीमाएं किसी व्यक्ति के न्याय पाने के अधिकार में बाधा न बनें। किसी को केवल वित्तीय बाधाओं के कारण न्याय तक पहुंच से वंचित करना, अपने आप में घोर अन्याय है। समाज के वंचित वर्गों को न्यायालय में जाने और अपने अधिकारों के लिए लड़ने की अनुमति देकर, आदेश 33 कानून के समक्ष समानता के अधिकार के बड़े उद्देश्य का समर्थन करता है और प्रत्येक नागरिक को, चाहे उनकी वित्तीय स्थिति कुछ भी हो, न्याय सुलभ बनाता है।
हालाँकि, लोगों में जागरूकता की कमी के कारण ऐसे प्रावधानों का वास्तविक प्रभाव बाधित हो रहा है। आदेश 33 जैसे प्रावधानों के माध्यम से समाज के वंचित वर्गों को कानून द्वारा दिए गए उनके अधिकारों और लाभों के बारे में संवेदनशील बनाने की तत्काल आवश्यकता है। इसका उद्देश्य न्याय को सभी के लिए सुलभ बनाना है, न कि केवल उपलब्ध कराना है।
अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (एफएक्यू)
“दरिद्र” शब्द का क्या अर्थ है?
“दरिद्र” शब्द का प्रयोग समाज के वंचित वर्ग के लिए किया जाता था, जो अपनी वित्तीय स्थिति के कारण अदालती शुल्क का भुगतान करने में असमर्थ होते है। बाद में, “दरिद्र” शब्द के स्थान पर “निर्धन व्यक्ति” शब्द का प्रयोग किया गया है।
यदि निर्धन आवेदक जीत जाता है तो क्या न्यायालय शुल्क वसूली का कोई प्रावधान है?
हां, सी.पी.सी., 1908 के आदेश 33 के नियम 10 के प्रावधानों के अनुसार, यदि किसी वादी को अनुकूल आदेश मिलता है, तो न्यायालय उस न्यायालय शुल्क की गणना करेगा, जिसे शुरू में छूट दी गई थी। इसके बाद अदालत वादी को छूट प्राप्त राशि का भुगतान करने का निर्देश देगी।
क्या एक निर्धन व्यक्ति के रूप में मुकदमा दायर करने के आवेदन को पूर्वन्याय द्वारा रोका जा सकता है?
हां, सर्वोच्च न्यायालय ने माना कि एक निर्धन व्यक्ति के रूप में दायर किए गए मुकदमे को पूर्वन्याय के सिद्धांतों द्वारा रोका जा सकता है। सोलोमन सेल्वराज एवं अन्य बनाम इंदिरानी भगवान सिंह एवं अन्य (2022) के मामले में यह निर्णय दिया गया था।
संदर्भ
- Code of Civil Procedure by C.K. Takwani (7th edition, 2013)